Ad Code

न्याय दर्शन द्वितिय अध्याय प्रथम आह्निक भाष्कार स्वामी दर्शनानंद सरस्वती

 सूत्र :समानानेकधर्माध्यवसायादन्यतरधर्माध्यवसायाद्वा न संशयः II2/1/1

सूत्र संख्या :1


अर्थ : ।। ओ३म्।। ।। न्याय दर्शनम् ।। ।। अथ द्वितीयोध्यायः प्रारभ्यते ।। प्रश्न-परीक्षा किस प्रकार की जाती है ? और महात्मा गौतम जी ने प्रमाण तथा प्रमेय की परीक्षा को आगे के लिए छोड़कर प्रथम ‘संशय’ की परीक्षा को क्यों आवश्यक समझा क्योंकि -जैसा उद्धेश्य और लक्षण क्रमशः कहे गये थे उसी क्रम से परीक्षा होनी चाहिए थी- उत्तर-संशय के उत्पन्न हुए बिना परीक्षा हो नहीं सकती अतः सबसे पूर्व संशय की परीक्षा करना आवश्यक है। प्रश्न-परीक्षा करने के लिए वस्तु की सत्ता में सन्देह होता है या उसके लक्षणों में ? उत्तर-उद्धेश्य और लक्षण दोनों की परीक्षा की गई है इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि वस्तु की सत्ता में भी सन्देह हो सकता है और उसके लक्षण के विषय में भी “युक्त है या अयुक्त है ?” सन्देह हो सकता है परीक्षा से दोनों प्रकार के सन्देहों को दूर करना अभीष्ट है। प्रश्न-हर वस्तु की सत्ता की प्रामाणिकता उस (वस्तु) के लक्षण की सत्ता के प्रामाणिकत्व पर निर्भर है क्योंकि ‘गुणी’ गुणों के समुदाय का नाम है और लक्षण में स्वाभाविक गुणों का ही वर्णन होता है यदि गुणों की सत्ता (सिद्धि) न हो तो गुणी की सत्ता (सिद्धि) ही नहीं हो सकती अतः केवल लक्षण की परीक्षा से उसकी परीक्षा हो सकती है। अर्थ-‘संशय की परीक्षा के लिए पूर्व पक्ष का वर्णन करते हैं। (संशय प्रति पादक सूत्र) दो प्रकार के विश्वासों (?) में वर्तमान साधारण धर्मों के ठीक ज्ञान होने से सन्देह नहीं हो सकता- अथवा साधारण रूप से किसी पदार्थ के गुणों में समता(एकता) जानने से और यह विचार होने से इन दोनो पदार्थों में बहुत से गुण मिलते हैं और उनके गुणों को प्रत्यक्ष देखने से गुणी के ज्ञान में सन्देह नहीं होता । समान उसे कहते हैं जिसमें बहुत से धर्म मिलते हों और किसी एक गुण में विरोध हो - समान शब्द के उच्चारण से भिन्नता प्रकट होती हो जाती है। जिससे सन्देह का होना सम्भव नहीं। जब यह प्रतीत हो जायगा कि यह दोनों पदार्थ भिन्न-भिन्न हैं। केवल कतिपय अंशो में गुणों की समता है तो दोनों पदार्थों के पृथक-पृथक जान लेने से एक में दूसरे का सन्देह नहीं होता। यथा रूप और स्पर्श दो भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं। जब दोनों का पृथक-पृथक ज्ञान हो जाएगा तो एक में दूसरे का सन्देह नहीं हो सकता क्योंकि सन्देह उस दशा में होता है जब कि पदार्थ में दूसरे पदार्थ के होने का भी संदेह हो जब दो पदार्थों का ज्ञान एक में न हो उस समय संशय उत्पन्न नहीं होता-इसके खण्डन के लिए एक और हेतु देते हैं यह भी पूर्व पक्ष का ही सूत्र है।

सूत्र :विप्रतिप-त्त्यव्यवस्थाध्यवसायाच्च II2/1/2

सूत्र संख्या :2


अर्थ : केवल वस्तु की ठीक-ठीक व्यवस्था (परिणाम) न निकलने में संशय नहीं होता और नहीं विप्रति -पत्ति (विरूद्ध मति) से भी संशय नहीं होता ।

व्याख्या :प्रश्न-प्रश्न में तो इसका वर्णन नहीं कि इन कारणों से ही संशय नहीं होता- तुमने क्योंकर यह मान लिया कि इन कारणों से संशय नहीं होता ? उत्तर-अतः इस सूत्र में पिछले सूत्र का ही निरास है अतः पूर्व सूत्र से यह अनुवृत्ति आती है। अर्थात् पिछले सूत्र से इतना विषय इस सूत्र में भी लेना चाहिए-अतः सूत्र का तात्पर्य यह है कि विरूद्ध सम्मति जैसे कोई मानता है-कि आत्मा है -और दूसरा यह मानता है कि आत्मा नहीं है। इस विचार के सुनने से किसी प्रकार का संशय होना सम्भव नहीं क्योंकि जिसके अपने दिल में दो विरूद्ध विचार हों उसे संशय हो सकता है। दूसरे पुरूषों की सम्मति के विरोध से किसी प्रकार संशय नहीं हो सकता। द्वितीय-किसी वस्तु के ज्ञात अथवा अज्ञात होने के कारण से भी संशय नहीं उपजता। अर्थात् ऐसे विचार होने को कि इसका ज्ञात होना प्रामाणिक नहीं होता। इससे भी संशय नहीं होता। इन तीनों बातों को संशय का कारण न मानने में अगले सूत्र में भिन्न-भिन्न कारण पर अनुसन्धान करते हैं। पहले कारण अर्थात् ‘सम्मति विरोध’ विषय में यह सूत्र है।

सूत्र :विप्रतिपत्तौ च सम्प्रतिपत्तेः II2/1/3

सूत्र संख्या :3


अर्थ : सम्मति विरोध से उस रचयिता (मुसन्निफ) को जिसको उसका ज्ञान है संशय नहीं हो सकता। इसका तात्पर्य यह है कि पूर्व सूत्र में मति वैपरीत्यादि को सर्वाश से संशय का कारण नहीं माना। अब उसको सविस्तार वर्णन करते हैं। यथा-एक विवाद के निर्णायक को उसको दोनों वादियों के मति विरोध का ज्ञान हो चुका है कभी सन्देह नहीं होता। क्योंकि वह वास्तविक सिद्धांत को जानता है। यदि कोई पुरूष यह कहे कि जिस पुरूष को उस मन्तव्य का ठीक ज्ञान नहीं उसको तो अवश्य ही सम्मति वैपरीत्य में संशय उत्पन्न हो जायगा। परन्तु यह विचार ठीक नहीं जिसको सत्य ज्ञान नहीं है। उसको पूर्व से ही सन्देह है। मति विरोध के श्रवण से संशय है। उत्पन्न नहीं हुआ-इसलिए विप्रतिपत्ति दोनों प्रकार के मनुष्यों के विचार में संशय संशय उत्पादन नहीं कर सकती। क्योंकि जो नैयायिक वास्तविक तात्पर्य को जानता है और वादियों ने अपने -अपने हेतुओं को सुनाकर उसको नया करने के लिए नियत किया है। उसको तो ठीक ज्ञान है मति विपय्र्य का वृतान्त उसे पूर्व ज्ञात है। अतः उसे संशय उत्पन्न होना सम्भव नहीं। और जो पुरूष तत्व से अनभिज्ञ है उसे पहले ही से संशय है-उसको भी विप्रतिपत्ति संशय का कारण नहीं हो सकती। क्योंकि मनुष्य दो ही प्रकार के हो सकते हैं एक वह जो सत्य को जानता हो। और दूसरे वे जिनको सत्य का ज्ञान न हों।

व्याख्या :प्रश्न-जब तुम यह मानते हो कि अनभिज्ञ को तो पहले सन्देह है ही तुम्हारे सन्देह की सत्ता से निषेध करना सर्वथा व्यर्थ है। क्योंकि जिसकी सत्ता को तुमने स्वयं अगींकार कर लिया। उससे निषेध कैसा । उत्तर- मैंने स्वंय के भाव अथवा अभाव की प्रतिज्ञा नहीं की-किन्तु विप्रतिपत्ति के संशय का कारण होने से निषेध किया है। हमारे इस सूत्र की बहस (विवाद) का भाव यह है कि विप्रतिपत्ति किसी से मन में संशय उत्पन्न नहीं कर सकती । प्रश्न- तुम्हारे शब्दों से संशय की सत्ता का पता मिलता है-उसका कारण विप्रतिपत्ति हो या और कोई। उत्तर-जबकि कारण के बिना कोई कार्य नहीं हो सकता तो संशय के कारणों से उसकी उत्पत्ति न होने पर संशय की सत्ता स्वयंमेव नष्ट हो जायगी अतः दूसरे कारण की भी परीक्षा करके खण्डन करते हैं।

सूत्र :अव्यवस्थात्मनि व्यवस्थितत्वाच्चाव्यवस्थायाः II2/1/4

सूत्र संख्या :4


अर्थ : मन में किसी वस्तु के तत्व विषयक सांदेहिक विचारों के स्थित होने या न होने से भी संशय उत्पन्न नहीं होता, अर्थात् किसी वस्तु की सत्ता का सांदेहिक ज्ञान व शून्य का सांदेहिक ज्ञान संशय के उत्पन्न होने का कारण नहीं। संशय के लक्षण में दो प्रकार की अव्यवस्था अर्थात् सांदेहिक ज्ञान को संशय के उत्पन्न होने का कारण बतलाया था। इस सूत्र में उसका निषेध अर्थात् खण्डन विपक्षी की तरफ से किया गया। विपक्षी उसके लिए यह युक्ति उपस्थित करता है कि ऐसा माना जावे कि यह सांदेहिक ज्ञान आत्मा के स्वरूप में स्थित है। तो वह सांदेहिक ज्ञान नहीं कहला सकता, क्योंकि अव्यवस्था अर्थात् सांदेहिक ज्ञान सर्वदा बदलता रहता है। यदि ऐसा मानें कि सांदेहिक ज्ञान आत्मा के स्वरूप में स्थित नहीं, तो उसका होना ही प्रमाणित नहीं होता और जिस सांदेहिक ज्ञान को संदेह का कारण माना था, उसके न होने से संदेह का शून्य होना प्रमाणित हो गया । वस्तुतः वार्ता यह है कि सांदेहिक ज्ञान को उनके स्वरूप में ठीक मानने से संशय की उत्पत्ति का सांदेहिक ज्ञान से होना असम्भव है। यदि सांदेहिक ज्ञान को स्वसत्ता में भी संशयजनक माना जावे तो प्रथम उसको शून्य मानना पड़ेगा , जिससे कि वह किसी का कारण होना सम्भव नहीं द्वितीय आन्तरतम प्राप्त होगा कि संदेह का कारण सांदेहिक ज्ञान और उसका कारण संशय इसी तरह अनन्त कम होगा । अतएव अव्यवस्था अर्थात् संदेह का कारण नहीं हो सकता, अब तृतीय कारण समान धर्म के प्रसंग में विवाद करते हैं।

सूत्र :तथात्यन्तसंशयस्तद्धर्मसातत्योपपत्तेः II2/1/5

सूत्र संख्या :5


अर्थ : इसी तरह संशय उत्पन्न करने वाले समान धर्म के प्रत्येक समय ज्ञान होने से संशय नष्ट नहीं हो सकेगा अर्थात् सर्वदा नैमित्तिक बना ही रहेगा क्योंकि जिस कपोल कल्पना को तुम मानते हो कि समान धर्म के ज्ञान से संशय अर्थात् संदेह पैदा होता है उस समान धर्म को सर्वदा स्थित रहने से संशय का हमेशा रहना सम्भव प्रतीत होता है। कुतः कोई वस्तु समान धर्म से रिक्त नहीं होती और न कभी किसी को ऐसा विचार होता है कि यह धर्म अर्थात् विशेष्य समान धर्म अर्थात् प्रत्येक विशेषण से रहित है। किन्तु समान धर्म सहित ही विशेष्य का ज्ञान प्रत्येक विशेषण के सहित होता है। यहां तक विपक्षी ने संशय अर्थात् संदेह के प्रत्येक कारण पर जिनका वर्णन प्रथम अध्याय के सूत्र 23 में आया था युक्तियां देकर उनसे संशय की उत्पत्ति का खण्डन करके संशय की सत्ता का निषेध अर्थात् शून्य परिमित किया , अब अगले सूत्र में उनमें उन पाक्षिक युक्तियों का उत्तर दिया जायेगा।


सूत्र :यथोक्ताध्यवसायादेव तद्विशेषापेक्षात्संशयेनासंशयो नात्यन्तसंशयो वा II2/1/6

सूत्र संख्या :6


अर्थ : संशय की उत्पत्ति का न होना अथवा उसकी सत्ता का खण्डन किसी प्रकार भी होना सम्भव नहीं क्योंकि केवल समान धर्म अर्थात् प्रत्येक विशेषण का ज्ञान होना ही संशय का कारण नहीं यदि विपक्षी यह कहे कि आपके पास क्या प्रमाण है कि केवल समान धर्म अर्थात् प्रत्येक विशेषण ही संशय का कारण नहीं तो उसका उत्तर महात्मा गौतम जी ने यह दिया है कि जिस सूत्र संख्या 23 में समान धर्म के ज्ञान को संशय का कारण माना है , उसमें केवल समान धर्म के ज्ञान अर्थात् प्रत्येक विशेषण के ज्ञान को संशय का कारण नहीं बतलाया किन्तु धर्म के ज्ञान और विशेष्य धर्म की अपेक्षा को अर्थात् प्रत्येक विशेषण के मालूम होने और नवीन विशेषण के प्रतीत करने की इच्छा होने का नाम संशय है और वह यावत् विशेष्य धर्म अर्थात् नवीन विशेषण का ज्ञान न हो जावे तावत् प्रत्येक विशेषण के ज्ञान होने के पश्चात् भी स्थिर रहेगी और इसी का नाम संशय है अर्थात् प्रत्येक विशेषण तो पर्याप्त हैं और नवीन विशेषण के प्राप्त करने की इच्छा है।

व्याख्या :प्रश्न-समान धर्म अर्थात् प्रत्येक विशेषण के जानने की इच्छा क्यों नही होती, नवीन विशेषण के जानने की इच्छा क्यों नहीं होती, नवीन विशेषण के जानने की इच्छा क्यों होती है ? उत्तर-यावत समान धर्म का ज्ञान तो प्रत्यक्ष होने से प्रथम हो जाता है। तब विशेष्य धर्म के ज्ञान की इच्छा उत्पन्न होती है, क्योंकि जो वस्तु स्वसकाश में हो उसकी इच्छा नहीं उत्पन्न हो सकती, क्योंकि इच्छा प्राप्ति के अर्थ उत्पन्न होती है। और वह वस्तु प्रथम ही प्राप्त है। अतएव समान का ज्ञान होना कहा गया है। पुनः उसके बोध की इच्छा क्यों होगी ? प्रश्न-क्या समान धर्म संशय अर्थात् संदेह का कारण नहीं ? उत्तर-समान धर्म अर्थात् प्रत्येक विशेषण संशय का कारण नहीं, किन्तु प्रत्येक विशेषण का ज्ञान और नूतन विशेषण के जानने की इच्छा संशय का कारण है। प्रश्न-पुनः लक्षण करते समय ऐसा क्यों नहीं कहा ? उत्तर-विशेष्य की अपेक्षा अर्थात् बोध की आवश्यकता के कथन से यह वृत्तान्त प्राप्त हो जाता है। प्रश्न - समान धर्म के ज्ञान में तो आपने यह युक्ति उपस्थित की, परन्तु विप्रतिपत्ति से संशय का निषेष अर्थात् खण्डन किया है, उसका क्या उत्तर है? उत्तर - जब दो मनुष्य एक विषय पर विवाद करते है तो श्रोता को यह विचार उत्पन्न होता है कि यह प्रत्येक युक्तियाँ तो मैं सुन रहा हूँ परन्तु कोई नूतन युक्ति जिससे सत्य-असत्य का प्रमाण प्राप्त हो मुझे परयाप्त करनी चाहिए। अस्तु यह नूतन युक्ति के प्राप्त करने की आवश्यकता ही संशय होने का प्रमाण है। और जो यह कथन किया गया कि “न्यायधीश“ को दो मनुष्यों की विप्रति पत्ति से उस वस्तु के तत्व विषयक शंका उत्पन्न नहीं होती, इसका कारण यह है कि उसको समान धर्म अर्थात् प्रत्येक विशेषण का ज्ञान और विशेष्य धर्म के जानने की इच्छा नहीं होती यदि यह होती तो शंका का उत्पन्न होना आवश्यक था। संशय की उत्पति तृतीय कारण अव्यवस्था अर्थात् सशंकित ज्ञान का जो मिटाया गया उसका उत्तर यह है कि यह जो विपक्षी ने कथन किया है, उसका उत्तर यह है कि दो विप्रतिपत्ति पक्षी मनुष्यों की युक्तियों की युक्तियों को श्रोता सुनता है और यह विचार करता है कि इसके तत्व विषयक नूतन युक्ति को नहीं जानता, जिससे दोनों में से एक के विचार भी संशय है विप्रतिपत्ति के होने से दूर नहीं हो सकता। अतएव शंका की सत्ता प्रत्येक प्रकार से प्रमाणित है। और सर्वपरीक्षकों को परीक्षा से इसका प्रमाण प्राप्त हो सकता है। प्रश्न - संशय किसको कहते हैं? उत्तर - अल्पज्ञ जीवात्मा को। प्रश्न - संशय का यथार्थ कारण क्या है? उत्तर - जीवात्मा की अल्पज्ञता ही संशय का यथार्थ कारण है। प्रश्न -यदि संशय के अस्तित्व को न माना जावे तो क्या हानि उत्पन्न होती है? उत्तर - यदि संशय अर्थात् शंका की सत्ता ही संसार में न होती तो मनुष्य शब्द का सार्थक अर्थ यथार्थ न होता क्योंकि मनुष्य का अर्थ परीक्षक का है और जब तक संशय न हो, तब तक परीक्षा का होना असम्भव हैं। प्रश्न -संशय के होने का प्रमाण क्या है ?


सूत्र :यत्र संशयस्तत्रैवमुत्तरोत्तरप्रसङ्गः II2/1/7

सूत्र संख्या :7


अर्थ : जहां-जहां संदेह उत्पन्न होता है वहां ही प्रश्नोत्तर के प्रंसग से परीक्षा होती है अर्थात् जबविपक्षी उसका खण्डन करता है तब प्रत्येक सत्ता के मानने वाले को उसे परिमित करना पड़ता है। इससे प्रमाणित होता है कि संसार में प्रश्नोत्तर और परीक्षा को देखकर प्रत्येक मनुष्य को संशय होना प्रतीत होता है। अतएव संशय ही परीक्षा का कारण है। और कोई कार्य बिना कारण के नहीं होता क्योंकि संसार में परीक्षा होती है सब संशय न होता तो संसार में परीक्षा की प्रतीति भी दृष्टिगोचर न होती, क्योंकि प्रत्येक वस्तु की परीक्षा संशय के कारण होती है, अतएव प्रथम ही संशय की परीक्षा की गई। अब आगे प्रमाण आदि परीक्षा लिखी जायेगी।

व्याख्या :प्रश्न - परीक्षा से क्या लाभ है ? उत्तर - परीक्षा से प्रत्येक वस्तु का ज्ञान विश्वास पूरित हो जाता है और विश्वास पूरित ज्ञान के होने से उस पर कर्म होता है, और कर्म से फल प्राप्ति होती है। वर्तमान में जो मनुष्य बहुत सी बातों को मानते हुए उस पर कर्म नहीं करते, उसका साफ कारण यह है कि उनके मनुष्यों को उन कार्यों केसुखदायक होने का विश्वास पूरित ज्ञान नहीं, क्योंकि मनुष्य सुख चाहता है और दुःख से बचने की इच्छा करता है। परन्तु विश्वास पूरित ज्ञान के न होने के कारण से बहुत दुःख देने वाले कार्यों का न त्याग करते हैं और न सुखदायक कार्यों को करते हैं। अब विपक्षी प्रमाण की परीक्षा करता है और यह सू़त्र पूर्वपक्ष अर्थात् पाक्षिक

सूत्र :प्रत्यक्षादीनामप्रामाण्यं त्रैकाल्यासिद्धेः II2/1/8

सूत्र संख्या :8


अर्थ : प्रत्यक्षादि का प्रमाण मानना ठीक नहीं क्योंकि इनकी सत्ता अर्थात् प्रमाण होना तीनों काल में प्रमाण को प्राप्त नहीं होता।

व्याख्या :क्योंकि प्रत्येक प्रमाण का ज्ञान इन तीनों दशाओं से पृथक नहीं हो सकता। प्रथम यह है कि प्रमाण का ज्ञान प्रमेय ज्ञान से प्रथम हो, द्वितीय यह है कि प्रमेय के बोध करने के पश्चात् प्रमाण का ज्ञान हो, तृतीय दशा यह है कि प्रमाण और प्रमेय का ज्ञान एक ही साथ हो जावे। यहां प्रमाण से प्रथम प्रत्यक्ष प्रमाण लेकर उसको शून्य परिमित करने के वास्ते तीनों काल में प्रत्यक्ष का परिमित न होना विपक्षी ने युक्ति उपस्थित की, अब यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि क्या कारण है कि प्रत्यक्ष प्रमाण तीनों काल में प्रमाण का प्राप्त नहीं होता, उसके वास्ते विपक्षी अगले सूत्रों में युक्ति उपस्थित करता है। क्योंकि विवादी मनुष्य बिना युक्ति किसी विवाद को नहीं मानते यदि कोई पुरुष यह प्रश्न उपस्थित करे कि बिना युक्ति मानने में क्या हानि है, क्योंकि अल्पज्ञ पुरुष युक्ति से प्रत्येक वस्तु की परीक्षा तो कर ही नहीं सकता, कुछ न कुछ बातें माननी ही पड़ती हैं।परन्तु ऐसा मानने से प्रथम तो मनुष्य की मानन-शीलता जिसके कारण से मनुष्य दूसरे पशुओं से विशेष गिना जाता है और जो कुदरती तौर पर शिशु अवस्था से ही प्राप्त होता है, बिल्कुल हानिकारक है। परन्तु सर्वज्ञ परमात्मा का कोई कार्य हानिकारक नहीं तो उसका मनुष्य की प्रकृति में मननशीलता रखना किसी प्रकार भी हानिकारक नहीं हो सकता। यदि येनकेन प्रकारेण यह मान लिया जाये कि प्रकृति ने मननशीलता मनुष्य की प्रकृति में बिना लाभ रखा तो मनुष्य किसी विषय को सत्यासत्य कह ही नहीं सकता, उस दशा में एक योगी और अज्ञ के कथन पर हठ करने पर किसी को अशुद्व नहीं कह सकते, प्रत्येक को शुद्व मानना पड़ेगा जिससे एक वस्तु की बाबत दो हठ सम्बन्धी सम्मतियों का पक्षी और विपक्षी का मान लेना असम्भव हो जायेगा। इस वास्ते प्रत्येक वस्तु विषयक युक्तियों से परीक्षा करना आवश्यक समक्ष कर अब प्रमाण के शून्य परिमित करने के लिए युक्तियों उपस्थित की जाती है। प्रश्न - प्रत्यक्ष प्रमाण को प्रमेय ज्ञान के प्रथम मानने में क्या हानि हैं ?

सूत्र :पूर्वं हि प्रमाणसिद्धौ नेन्द्रियार्थसंनिकर्षात्प्रत्यक्षोत्पत्तिः II2/1/9

सूत्र संख्या :9


अर्थ : अर्थ - यदि प्रत्यक्ष प्रमाण का ज्ञान प्रमेय ज्ञान से यह लेंगे तो इन्द्रिय और अर्थ अर्थात् वस्तु के विषय से प्रत्यक्ष ज्ञान पैदा नहीं हुआ, क्योंकि उसको प्रमेय ज्ञान से पूर्व माना गया है। और जो इन्द्रियार्थ योग से उत्पन्न न हा। वह प्रत्यक्ष कहला ही नहीं सकता। अतः प्रत्यक्ष का लक्षण यही है कि वह इन्द्रियार्थ के संयोग से पैदा हो, जब प्रत्यक्ष के लक्षण में उसका आना सम्भव नहीं तो उसे प्रत्यक्ष कहना परस्पर विरुद्ध है। क्योंकि यह नियम है कि प्रत्येक वस्तु की सत्ता लक्षण और प्रमाण से ही मानी जाती है। केवल कथन मात्र से किसी वस्तु की सत्ता का परिमित होना असम्भव है। अब प्रत्यक्ष का जो लक्षण आपने कथन किया है, यह प्रमेय ज्ञान से प्रथम उपस्थित होने वाले ज्ञान में नहीं घट सकता। अतएव प्रमेय ज्ञान से पूर्व तो प्रत्यक्ष प्रमाण होना असम्भव है। प्रश्न - यदि यह माना जावे कि प्रमेय के ज्ञान होने के पश्चात् प्रत्यक्ष का ज्ञान होता है तो इसमें क्या हानि हैं ?

सूत्र :पश्चात्सिद्धौ न प्रमाणेभ्यः प्रमेयसिद्धिः II2/1/10

सूत्र संख्या :10


अर्थ : यदि यह मान लोगे कि प्रमेय के पश्चात् हम प्रत्यक्ष प्रमाण के ज्ञान को मानेगे तो प्रमाण से प्रमेय का ज्ञान न होगा किन्तु प्रमेय ज्ञान के लिए ऐसे प्रमाण की जरूरत ही नहीं, क्योंकि प्रमाण की आवश्यकता केवल प्रमेय के ज्ञान के लिए है। जब प्रमेय का ज्ञान बिना प्रमाण के हो गया तो अब प्रमाण की आवश्यकता ही क्या है। क्योंकि जिस वस्तु के ज्ञान के वास्ते प्रमाण की आवश्यकता थी, उस वस्तु का ज्ञान प्रथम ही हो गया। इस वास्ते यह कथन बिल्कुल ठीक नहीं है कि प्रमेय ज्ञान के बाद प्रत्यक्ष प्रमाण उत्पन्न हो जायेगा। यदि कोई मनुष्य यह कहे कि प्रमाण उत्पन्न हो जायेगा। यदि कोई मनुष्य यह कहे कि प्रमाण से प्रमेय का ज्ञान होना नहीं मानतें, किन्तु प्रमाण केवल प्रमेय ज्ञान के दृढ़ करने के लिए हैं, तो यह कहना सरासर असत्य होगा। अतः प्रीति अर्थात् वस्तु की योग्यता को जानने वाले शास्त्र का नाम प्रमाण है। और बिना अस्त्र के किसी मनुष्य को किसी वस्तु का ज्ञान नहीं होता। और बिना अस्त्र के ज्ञान की उत्पत्ति मानने से प्रज्ञा चक्षु को रूप का ज्ञान होतव्य हैं। यदि कथन करो कि उसको बिना चक्षु के रूप का ज्ञान नहीं हो सकता तो बिना शास्त्र के ज्ञान का न होना परिमित हो गया। जब बिना शास्त्र के प्रमाता अर्थात् जीवात्मा को किसी प्रमेय का ज्ञान होना सम्भव नहीं तो प्रमेय ज्ञान के पश्चात् प्रमाण की सत्ता को अनुभव करना बिल्कुल असत्य है, अतएव प्रमेय ज्ञान के पश्चात् भी प्रमाण का ज्ञान होना असम्भव है। प्रश्न - हम एक काल में प्रमाण और प्रमेय दोनों का ज्ञान होना मानते है। इसमें किस पक्ष को उटाओगे ?

सूत्र :युगपत्सिद्धौ प्रत्यर्थनियतत्वात्क्रमवृत्तित्वाभावो बुद्धीनाम् II2/1/11

सूत्र संख्या :11


अर्थ : यदि ऐसा मानोगे कि एक ही समय में प्रमाण और प्रमेय दोनों का ज्ञान हो जावेगा, तो यह सत्य है। क्योंकि मन का यह लक्षण है कि उसमें एक काल में दो ज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकते अर्थात् ज्ञान नियत कर्मवृत्ति अर्थात् प्रसंग वार हुआ करती है। एक ही साथ दो ज्ञान का होना असम्भव है। तो तुम्हारा यह विचार किस तरह सत्य हो सकता है कि प्रमाण और प्रमेय का ज्ञान युगपत् हो जावेगा। उपरोक्त इन तीनों युक्तियों के द्वारा विपक्षी ने यह परिमित कर दिया कि प्रत्यक्ष प्रमाणों का किसी प्रकार भी परिमित होना सम्भव नहीं। अतएव उनकी सत्ता का होना सत्य ही नहीं। अतः जिस प्रमेय के लिए प्रमाण की आवश्यकता थी, उसके साथ तीनों काल में प्रमाण का विषय परिमित नहीं हो सकता। जिसका विषय तीनों काल में परिमित न हो उसके होने का क्या प्रमाण है। विपक्षी के इस वाद का उत्तर अगले सूत्र में देते हैं, उपरोक्त चार सूत्र पूर्व पक्ष अर्थात् विपक्षी की ओर से है। और उसका उत्तर महात्मा गौतम जी की ओर से यहां कुछ प्रश्नोत्तर लिखे जाते हैं, जिससे कि तात्पर्य पूरा निकल आवे।

व्याख्या :प्रश्न - क्यों मन में एक काल में दो ज्ञान की उत्पत्ति न मान ली जावे ? उत्तर - मन बहुत ही सूक्ष्म अर्थात् अणु है उसमें एक काल में दो ही ज्ञान का होना सम्भव नहीं, उसका बहु विचार मन की परीक्षा के समय पर उल्लिखित किया जायेगा। प्रश्न - हम एक काल में दो ज्ञान उत्पन्न होते देखते है अर्थात् किसी शब्द के सुनने से उस शब्द का और उसके अर्थों का ठीक-ठीक ज्ञान होता है। जिसके साथ-साथ होने में कोई संशय नहीं क्योंकि उसमें काल का कोई भेद दृष्टिगोचर नहीं होता। उत्तर - यह वार्ता सत्य नहीं है। क्योंकि काल के सूक्ष्म प्रवाह को प्रत्येक जन बोध कर सकता, जिससे एक निमेष को प्रत्येक मनुष्य समय का बहुत लघु भाग विचार करता है। उसमें साठ पल एक दूसरे के पश्चात् व्यतीत हो जाते है। अतएव एक ही काल नहीं कहला सकता, अतः शब्द के श्रोत में जाने के पश्चात् उसके अर्थों का ज्ञान होता है। द्वितीय यह उदाहरण ठीक नहीं, क्योंकि दो ज्ञान नहीं, किन्तु शब्दार्थ सम्बन्ध से दोनों का ज्ञान एक ही कहना ठीक है। प्रश्न -शब्द और अर्थ दो पृथक-पृथक वस्तु है। अतएव इनका ज्ञान भी पृथक-पृथक होगा क्योंकि बहुत से मूर्ख मनुष्य शब्द सुन कर भी अर्थ के ज्ञान से अनभिज्ञ रहते है। यदि शब्दार्थ होते तो जिसको शब्द का ज्ञान होता तो उसको अर्थ का बोध होना आवश्यक था परन्तु ऐसा बहुत स्थानों पर नहीं होता, जिससे शब्दार्थ का पृथक होना परिमित होता है। अतएव शब्दार्थ का ज्ञान दो वस्तुओं का ज्ञान है। उत्तर - आपके इस कथन से साफ प्रतीत हो गया कि मूर्ख मनुष्यों को शब्द के साथ अर्थ का ज्ञान नहीं होता जिससे एक काल में दो वस्तुओं का ज्ञान नहीं हुआ और जानने वाले को शब्द के सुनने के पश्चात् उसके जाने हुए अर्थ की स्मृति होती है। अतएव एक काल में दो ज्ञान नहीं होते, इसका उत्तर महात्मा गौतम जी यह देते है।

सूत्र :त्रैकाल्यासिद्धेः प्रतिषेधानुपपत्तिः II2/1/12

सूत्र संख्या :12


अर्थ : तीनों काल में परिमित न होने से आपका खण्डन करना परिमित नहीं हो सकता, क्योंकि खण्डन तीन अवस्थाओं के सिवाय और नियप् से होना असम्भव है। या तो प्रमाण ज्ञान से प्रथम उसका खण्डन होगा अथवा प्रमाण ज्ञान के सहित अथवा प्रमाण ज्ञान के पश्चात् अब तीनों अवस्थाओं में खण्डन सत्य नहीं, क्योंकि यदि यह कथन किया जाये कि प्रमाण ज्ञान के प्रथम उसका खण्डन करेंगे तो बिल्कुल असत्य है, क्योंकि किसी वस्तु के पश्चात् उसका खण्डन हो सकता है, क्योंकि जिस वस्तु का ज्ञान ही नहीं उसकी सत्ता का कोई प्रमाण नहीं और जिसकी सत्ता का ज्ञान नहीं उसका खण्डन होना असंभव है। यदिकथन करो कि प्रमाण की सत्ता के ज्ञान के पश्चात् उसका खण्डन करेंगे तो भी ठीक नहीं क्योंकि जिस वस्तु की सत्ता का पूरा ज्ञान हो जाये, उसका खण्डन किसी प्रकार भी होना सम्भव नहीं। यदि कहो कि एक काल में प्रमाण और उसकी सत्ता का खण्डन होगा तो यहां फिर वो ही तुम्हारी विरुद्धयुक्ति उपस्थित हो जायेगी। अतएव आपकी यह युक्ति कि तीनों काल में परिमित न होने से प्रत्यक्षादि प्रमाण नहीं हैं, बिल्कुल असत्य हैं। क्योंकि तुम्हारा खण्डन भी तीनों काल में परिमित नहीं होता, जिससे पूरा मिलता हैं, कि युक्ति असिद्ध है। क्योंकि इसकी सत्ता पूरे तात्पर्य के स्थान में स्वसत्ता को परिमित नहीं कर सकती। इसके खण्डन में महात्मा गौतम आगे और युक्ति उपस्थित करते हैं।

सूत्र :सर्वप्रमाणप्रतिषेधाच्च प्रतिषेधानुपपत्तिः II2/1/13

सूत्र संख्या :13


अर्थ : यदि प्रमाणों का खण्डन असत्य माना जाये तो खण्डन होना अंसभव है। खण्डन के सत्य और असत्य होने में किसी न किसी प्रमाण की आवश्यकता है, जब प्रत्येक प्रमाण की सत्ता नष्ट हो गई तो उस खण्डन को सत्य परिमित करने के लिए कोई प्रमाण ही नहीं। अथवा सत्य का प्रमाण न मिलने से खंडन स्वयंमेव असिद्धहो गया।

व्याख्या :प्रश्न - खण्डन क्यों असिद्ध होगा, सम्भव है कि सिद्ध हो, क्योंकि सत्यासत्य के वास्ते प्रमाण आवश्यक है, उसका असिद्ध कह देना किस प्रकार सत्य हो सकता है। उत्तर -प्रमाण की आवश्यकता भाव अर्थात् सत्ता के परिमित करने के लिए होती है, शून्य के वास्ते नहीं। जो खण्डन करने वाला विपक्षी है, उसका कार्य है कि खण्डन को परिमित कर ले और जब तक खण्डन का पक्ष परिमित न हो जाये, तब तक वह स्थायी रूप से स्थिर ही नहीं और प्रमाणों का खण्डन परिमित न हुआ तो प्रमाण परिमित हो गये। प्रश्न - यदि प्रमाण के खण्डन में प्रमाण न होने से उसकी सत्ता परिमित नहीं होती और प्रत्येक वस्तु की सत्ता के वास्ते प्रमाण की आवश्यकता हो, तदापि प्रमाण का खण्डन हो जायेगा। क्योंकि प्रमाण को भी अपनी सत्ता के वास्ते द्वितीय प्रमाण की आवश्यकता हैं। और द्वितीय प्रमाण को तृतीय प्रमाण की एवमेव यह प्रंसग अनन्त हो जायेगा। यदि यह कथन किया जाये कि प्रमाणके वास्ते किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं, तो तुम्हारा सिद्धान्त नष्ट हो गया कि प्रत्येक वस्तु की सत्ता बिना प्रमाण के विश्वास रूप नहीं हो सकती। जब आपके प्रमाण को ही प्रमाण की आवश्यकता है, और तुम उसको बिना प्रमाण सिद्ध जानते हो तो यह सिद्धान्त ठीक न रहा कि प्रत्येक सत्ता के लिए प्रमाण की आवश्यकता है। जब यह सिद्धान्त ठीक न रहा तो प्रमाणों का खंडन ठीक है। उत्तर - प्रत्येक वस्तु की मूल होती है। परन्तु मूल की मूल नहीं होती, अतएव मूल सर्वदा बिना मूल के मानी जाती है। चक्षु प्रत्येक वस्तु के रूप कोदेखती है, परन्तु चक्षु के देखने के वास्ते किसी द्वितीय चक्षु की आवश्यकता नहीं। परन्तु चक्षु का प्रतिबिम्ब किसी दूसरी वस्तु में चक्षु ही से देखा जाता है। अतएव प्रमाण के प्रामाणिक करने के लिए किसी द्वितीय प्रमाण की आवश्यकता नहीं, किन्तु स्वंयमेव सिद्ध है। प्रत्येक वस्तु के स्वरूप को देखने के वास्ते चक्षु की आवश्यकता है। और बिना चक्षु के रूप का ज्ञान होना सम्भव नहीं, परन्तु चक्षु स्ंवयमेव द्वितीय चक्षु बिना स्वप्रतिबिम्ब के द्वारा अपने रूप को देखती है। एवमेव प्रमाण का परिमित होना प्रमेय ज्ञान के द्वारा हो जाता है। किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं। अतएव न सिद्धान्त का खण्डन होता है और न ही अनवस्था होती है। आगे चलकर प्रमाणों के प्रमाणित करने के वास्ते एक और युक्ति उपस्थित करते है।

सूत्र :तत्प्रामाण्ये वा न सर्वप्रमाणविप्रतिषेधः II2/1/14

सूत्र संख्या :14


अर्थ : यदि इस खण्डन को, कि प्रत्यक्षादि प्रमाण नहीं है। प्रमाण देकर परिमित किया जाये तो खण्डन के वास्ते प्रमाण के मिल जाने से खण्डन का मूल प्रमाण पर जा रहेगा। और जिस खण्डन का मूल प्रमाण पर हो वह प्रमाण के नष्ट होने पर किसी प्रकार भी स्थित नहीं रह सकता। जब खण्डन स्थित न रहा तो विपक्षी का कुल पक्ष ही नष्ट हो गया।

व्याख्या :प्रश्न -तुमने विपक्षों की युक्ति का खण्डन करके प्रमाणों को सिद्ध कर दिया, परन्तु प्रमाण की सत्ता में कोई युक्ति नहीं दी .............. उत्तर - यदि किसी वस्तु के खण्डन में जो युक्तियां उपस्थित की जायें और वह असत्य सिद्ध हो जायें। तो विपक्षी का पक्ष स्थित रहता है। प्रश्न - यद्यपि विरुद्धयुक्तियों के खण्डन से विपक्षी का पक्ष स्थित रहता है। परन्तु उसके सत्य होने में फिर भी संशय रहता है। जब तक कि विपक्षी अपने पक्ष के प्रतिपादन में अपनी युक्तियां उपस्थित न करे। अतएव जब तक प्रमाणों की सत्ता के सत्य होने में युक्तियां न मिल जायें, तब तक पक्ष सिद्ध नहीं कहा जा सकता। उत्तर - जो मनुष्य किसी विषय के खण्डन में युक्तियां उपस्थित करे। यदि वह युक्तियां असिद्ध हो जायें, तो निग्रह स्थान में आ जाता है। उसकी तो हक नहीं रहता, परन्तु आगे इस विषय पर और भी युक्तियां उपस्थित होंगी।

सूत्र :त्रैकाल्या-प्रतिषेधश्च शब्दादातोद्यसिद्धिवत्तत्सिद्धेः II2/1/15

सूत्र संख्या :15


अर्थ : तीनों काल में होने का जो खण्डन किया गया वह बिना युक्तियों के है। जैसा कि प्रथम यह हो चुका है कि प्राप्त होने का कारण और जो वस्तु मालूम हों। इन दोनों में से किसी एक का कहीं दूसरे से प्रथम और कही पश्चात् और किसी जगह एक साथ होना सिद्ध होने से और कोई खास नियम न होने के कारण जहां जैसा हो वहां वैसा ही कथन करना चाहिए। इसका उदाहरण पहले दे चुके हैं। यहां केवल नमूने के तौर पर बयान किया है कि शब्द से बाजों की सिद्धि होने के माफिक प्रमाण की सिद्धि होने से तीनों काल में होने का खण्डन होना असम्भव है। क्योंकि किसी समय बीन, सितारादि वाद्यों की आवाज के द्वारा अनुमान किया जाता है। उस समय वाद्य जानने योग्य वस्तु और शब्द जानने का कारण होता है। ऐसे ही पूर्व सिद्ध प्रमेय अर्थात् मालूमात के पश्चात् उत्पन्न होने वाले प्रमाणों के द्वारा सिद्धि देखी जाती है। इसमें तीनों काल में प्रमाण होने का पक्ष बिना युक्ति हैं। इसके बोध से यह पता लगता है कि यदि वाद्य किसी मकान में बज रहा हो जहां से हमको दृष्टिगोचर न हो, तो उसका ज्ञान आवाज से ही हो सकता है। बिना आवाज के उसका ज्ञान नहीं हो सकता और आवाज के होते ही यह मालूम होने लगता है कि ‘बीन’ बज रही है या ‘बांसुरी’ बज रही है। अब बासुँरी बीन के मालूम होने के कारण आवाज प्रमाण है। अथवा चक्षु श्रोत नासिकादि से प्रमेय का ज्ञान होता है अतएव प्रमाण को पश्चात् सिद्धहोने में जो युक्ति दी गई थी। सो प्रमाण से प्रमेय की सिद्धि न होगी। इस युक्ति से जो तीनों काल में न होना सिद्ध किया गया। वह ठीक नहीं एक ही वस्तु जिस समय किसी को प्राप्त हो तब प्रमाण कहलाती है। और जब जानने योग्य हो तब प्रमेय कहलाती है इसका उदाहरण अगले सूत्र में बयान किया जाता है।

व्याख्या :प्रश्न - उपरोक्त सूत्रों में एक प्रकार का चक्र सा पाया जाता है। जिससे सत्य वार्ता का पता लगाना कठिन प्रतीत होता है। क्योंकि यदि प्रमाणों का खण्डन ठीक मान लिया जावे तो खण्डन के सत्य या असत्य होने का प्रमाण नहीं मिल सकता। यदि उसको असत्य माना जावे तो प्रमाणों के द्वारा प्रमाणों को मालूम करना आवश्यक प्रतीत होता है। क्योंकि प्रमाण जब सत्य माने जावेंगे तो प्रमेय अथवा सत्य का कारण ही समझ कर उन्हें माना जावेगा। तो प्रमाणों के मालूम करने के वास्ते यह जरूरी और दूसरे कारणों की तलाश भी आवश्यक होगी। और उनका प्रमाणों से पृथक होना आवश्यक है। क्योंकि इन प्रमाणों के शून्य होने की परीक्षा की जावेगी। उस समय यह प्रमाण तो प्रमेय हो जावेंगे। और कोई प्रमेय बिना प्रमाण के सिद्ध न हो सकेगा यही नियम माना जावे तो प्रमाण किस प्रकार प्रमाणित होगें। यदि यह कहा जावे कि इनमें से जो एक की परीक्षा करेंगे और दूसरा उसके वास्ते कारण हो जावेगा तो प्रमाणों की सिद्धि में अन्योन्याश्रय होगा। जिससे किसी एक का स्थित होना कठिन हो जायेगा। उत्तर - यदि नियमानुसार दृष्टि की जावे तो कुछ भी कठिन नहीं। क्योंकि हमारे सामने बहुत से उदाहरण उपस्थित हैं। यथा पिता और पुत्र में जब किसी को पिता कहा जावेगा, तो उसके वास्ते पुत्र का होना आवश्यक होगा और जब पुत्र कहा जावेगा, तो पिता का होना आवश्यक है। बिना पुत्र के होने के कोई पिता नहीं कहला सकता। और बिना पिता के कोई पुत्र नहीं हो सकता। इससे साफ प्रतीत होता है, कि यह बातें आवश्यक है और जिस बात का प्रमाण प्राकृतिक नियमों से मिल जावे। वह कभी असत्य नहीं हो सकती। अतएव प्रत्येक हेतु के वास्ते उदाहरण का होना आवश्यक होगा। और जिस पक्ष के वास्ते युक्ति और उदाहरण दोनों प्राप्त हों उसको किसी प्रकार भी असिद्ध कहना ठीक नहीं और युक्ति की असिद्धता भी उदाहरण से प्रतीत हो जाती है। इस पर एक उदाहरण देकर समझाते हैं।

सूत्र :प्रमेया च तुलाप्रामाण्यवत् II2/1/16

सूत्र संख्या :16


अर्थ : प्रमाण की परीक्षा के समय उसका प्रमेय होना तुला के प्रमाण की तरह है जिस प्रत्येक वस्तु के भार करने में कांटे कौर बांट प्रमाण समझे जाते हैं, किन्तु तुला और बांट का भार मालूम करना होता है अर्थात् इस संशय के होने पर कि इस बाट का भार ठीक है अथवा नहीं। उसके प्रमाण के वास्ते दूसरे प्रमाण की आवश्यकता होती है, अर्थात् दूसरे बांट से भार करने के बिना उस बांट का भार ठीक होना साफ तौर पर मालूम नहीं हो सकता। परन्तु इसके वास्ते कौन प्रमाण होता है। उन्हीं प्रमेय में से कोई प्रमेय ही उसके भार करने के वास्ते प्रमाण बन जाता है। अतएव प्रत्येक प्रमाण और प्रमेय समझाना चाहिये, कि जब वह ज्ञान का कारण होगा तब प्रमाण कहलाएगा और जब ज्ञान का विषय होगा तब प्रमेय कहलाएगा। आत्मा ज्ञान का विषय होने से प्रमेय में गिना जाता है परन्तु स्वतन्त्र होने से वह प्रमाता कहा जाता है और ज्ञान बाहरी वस्तुओं के जानने के कारण होने से प्रमाण कहलाता है और ज्ञान का विषय होने से प्रमेय भी होता है और प्रमाण और प्रमेय से पृथक होने से ठीक-ठीक ज्ञान कहाता है। अतएव प्रत्येक अवसर पर जैसा विशेष गुणों से प्रतीत हो वैसा ही समझना चाहिए। इसी प्रकार कारक शब्द का भी फैसला होता है।

व्याख्या :यथा - वृक्ष खड़ा हैं, वृक्ष के खड़े होने में दूसरा सहायता करने वाला नहीं किन्तु खड़े होने में स्वतंत्र हैं, इसी वास्ते कत्र्ता समझा जाता है। क्योंकि स्वतन्त्रता से किया करने वाले को कर्ता कहते हैं। वृक्ष को देखता। यहां चक्षु के द्वारा देखने योग्य वस्तु होने से वृक्ष कर्म है। वृक्ष से चन्द्रमा को देखने में देखने का कारण होने से कारण कहलाता है। प्रश्न - कारण किसे कहते है ? उत्तर - जो कर्ता का कम्र्म करने में सहायक हो वह कारण कहलाता हैं। प्रश्न - सम्प्रदान किसे कहते हैं ? उत्तर -जिसके वास्ते कोई कर्म किया जावे वह सम्प्रदान कहलाता है। वृक्ष से पत्ता गिरता है इस स्थान पर वृक्ष उपादान हैं। प्रश्न - उपादान किसे कहते हैं ? उत्तर - जो किसी वस्तु के पृथक् हो जाने से निश्चल बना रहे उसे उपादान कहते हैं। वृक्ष में जन्तु है। इस स्थान पर वृृक्ष उन जन्तुओं का आधार है। जो किसी वस्तु का आधार हो उसे अधिकरण कारक कहते हैं। इस प्रकार विचारने से मालूम होता है कि न तो प्रत्येक द्रव्य ही कारक है किन्तु खास प्रकार की क्रिया अर्थात् कर्मवान कर्म का कारण कारक है। इस तरह छः कारकों को समझ लेना चाहिए। प्रश्न -छः कारक कौन से हैं ? उत्तर -(1) कर्ता, (2) कर्म, (3) करण, (4) सम्प्रदाय, (5)उपादान, (6) अधिकरण। प्रश्न - यह किस प्रकार मान लिया जावे, कि एक ही वस्तु प्रमाण भी हो जावे और प्रमेय भी हो सके। उत्तर - यह तो प्रत्यक्ष ही है, कि एक ही मनुष्य अपने पिता के विचार से पुत्र और अपने पुत्र के विचार से पिता कहा जाता है। इसी प्रकार प्रमाण और प्रमेय होते हैं। प्रश्न - जिस समय प्रमाण की परीक्षा करते है वह उस समय प्रमेय हो जाता हैं, तो उस समय प्रमाण का धर्म उसमें रहता है अथवा नहीं ? यदि कहो कि रहता है, तो एक ही वस्तु में प्रमाण और प्रमेय का धर्म किस प्रकार रह सकता हैं, तो एक ही वस्तु में प्रमाण और प्रमेय का धर्म किस प्रकार रह सकता है, यदि कहो नहीं रहता तो वस्तु की सत्ता में उसका धर्म किस प्रकार नष्ट हो सकता है। उत्तर - जिस प्रकार एक सेर बाट छटांक से बड़ा और पनसेरी से छोटा है। अब सेर में छटांक से बड़ाई और पनसेरी से छोटाई स्थित है अथवा नहीं। यद्यपि बहुत कम जानने वाले मनुष्य कहने लगेगें कि बड़ाई और छोटाई दो हठ विषयक विशेषण एक में किस प्रकार रह सकते हैं परन्तु यहां हठ नहीं, जो हठ होने के कारण असम्भव हो जावें। यदि एक ही वस्तु से बड़ा छोटा कहा जावे तो हठ हो जाती है परन्तु जहां किसी से छोटा किसी से बड़ा कहा जावे। वहां अपेक्षा होती है हठ नहीं होती। जिस तरह छोटाई-बड़ाई अपेक्षा से एक सेर में रह सकती है इसी तरह प्रमाण और प्रमेय का धर्म एक वस्तु में रह सकता है। क्योंकि जिस समय पर जिसके वास्ते यह प्रमाण हैं, उसके वास्ते प्रमेय उस समय पर नहीं हैं। प्रश्न-प्रत्यक्षादि उस किस प्रकार जाने जाते हैं? उत्तर- प्रत्यक्षादि इस प्रकार मालूम होते हैं जैसेमैं प्रत्यक्ष सेजानता हूं अर्थात् मैंने अपनी इन्द्रियों से मालूम किया है अथवा अनुमान से जानता हूं अथवा उपमान से जानता हूं। अथवा शास्त्र से मालूम काता है। मेरा ज्ञान प्रत्यक्ष से है, अनुभाव से है अथवा उपमान से, वा शास्त्रों से उत्पन्न हुआ है। इस तरह पर खास ज्ञान से उनके कारण का ज्ञान हो जाता है। जैसे जो ज्ञान इन्द्रियार्थ से उत्पन्न होता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं अब इस ज्ञान का कारण इन्द्रिय है इस तरह एक प्रमाण का परिमित होना सम्भव है। प्रश्न- यदि प्रमाण के लिए प्रमाण परिमित किया जावे तो उसमें क्या हानि है?

सूत्र :प्रमाणतः सिद्धेः प्रमाणानां प्रमाणान्तरसिद्धिप्रसङ्गः II2/1/17

सूत्र संख्या :17


अर्थ : यदि प्रमाण को प्रमाण से परिमित किया जावे, तो प्रत्येक प्रमाण को परिमित करने के लिए प्रमाणों को प्रसंग कभी खत्म न होगा। उदाहरण यह है, कि जिस प्रमाण से तुम पहिले प्रमाण को परिमित करोगे उसके लिए तीसरे प्रमाण की आवश्यकता होगी, इसी तरह तीसरे के लिए चौथे की बात यह है, कि इसी तरह प्रमाणों के अनन्त होने से भी काम नहीं चलेगा। अन्त में प्रमाण को बिना प्रमाण ही सत्य मानना पड़ेगा। जब अन्त में नतीजा वही निकला तो परिश्रम करना वेफायदा है। विपक्षी इस सिद्धान्त पर कि प्रमाण मिला प्रमाण के परिमित हो जाता है इस पक्ष का उठाता है।

सूत्र :तद्विनिवृत्तेर्वा प्रमाण-सिद्धिवत्प्रमेयसिद्धिः II2/1/18

सूत्र संख्या :18


अर्थ : यदि प्रमाण को बिना प्रमाण सत्य मान लोगे और उसकी सिद्धि को किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नही मानोगे, तो तुम्हारे इस सिद्धान्त का खण्डन हो जाने से, कि बिना प्रमाण की कोई वस्तु परिमित नही हो सकती प्रमेय का परिमित होना भी बिना प्रमाण के ही मानना पड़ेगा और जब प्रमेय बिना प्रमाण के परिमित हो गया तो कुल प्रमानों की सत्ता न रहने से उनका खण्डन हो जावेगा क्योंकि प्रमेय के परिमित करने के लिए प्रमाण की आवश्यकता थी।

व्याख्या :सिद्धान्त यह था, कि बिना प्रमाण किसी का ज्ञान होना असम्भव है। जब यह सिद्धान्त प्रमाण की सिद्धि, बिना प्रमाण के होने से नष्ट हो गया, तो कुल प्रमाणों का स्वयमेव खण्डन हो गया। अब इसके खण्डन की कोई आवश्यकता न रही। अब इस पर महात्मा गौतम जी सिद्धान्त सूत्र लिखकर इसको पूरा करते हैं।

सूत्र :न प्रदीपप्रकाशसिद्धिवत्तत्सिद्धेः II2/1/19

सूत्र संख्या :19


अर्थ : महात्मा गौतम जी इस सूत्र में दीपक को उदाहरण देकर इस बात का फैसला करते हैं, कि जिस तरह बिना दीपक के चक्षु किसी दूसरे दीपक की आवश्यकता नहीं और दीपक के वास्ते आंख को किसी दूसरे दीपक की आवश्यकता नहीं और दीपक के न होने का ज्ञान प्रकाश के होने से हो जाता है। जब दीपक उपस्थित होता तब आंख प्रत्येक वस्तु को देखती है। और जब नहीं होता नहीं देखती। इस तरह पर आंख के देखने से दीपक के होने न होने का अनुमान होता है और प्राप्त उपदेश से भी पता लगता है। जहां अन्धकार हो वहो दीपक जलाकर वस्तुओं को मालूम करो। इस तरह प्रत्यक्षादि द्वारा जिन चीजों का ज्ञान से प्रत्यक्ष होने का अनुभव किया जाता है और इन्द्रियार्थ निमित्त से जो सुख-दुःख का प्रभाव इनके द्वारा आत्मा तक पहुंचता है उससे मालूम हो सकता है जिस तरह प्रकाश दूसरी वस्तुओं के देखने का कारण परिमित होता है। इसी तरह प्रमेय रूप पदार्थ जानने का कारण होने की अवस्था में प्रमाण और प्रमेय की ठीक व्यवस्था को प्राप्त करता है अर्थात् उसमें दोनों गुण अपेक्षा से पाए जाते हैं। जिसके जानने का वह कारण है उसके वास्ते वह प्रमाण है। जो उसके जानने का कारण है उसके लिए वह प्रमेय है। बस, यही प्रमाणादि के जानने का उपाय है।

व्याख्या :प्रश्न-यदि प्रमाण से ही प्रमाण का ज्ञान होना मानोगे तो प्रभाता, प्रमाण और प्रमेय का काम ये नहीं रहेगा। उत्तर- वस्तुओं की विरूद्धता से प्रत्याक्षादि को उन्ही प्रत्याक्षादि को उन्हीं प्रत्याक्षादि से प्राप्त होना नहीं कहा गया जब एक प्रत्यक्ष को मालूम करने वाला दूसरी प्रकार का प्रत्यक्ष है। तो पृथकता उपस्थित है। ऐसी अवस्था में भेद क्यों नहीं रहेगा। प्रश्न-संसार में देखा जाता है, कि एक वस्तु से किसी दूसरी वस्तु को देखते हैं। और प्रत्यक्ष कोई दूसरी वस्तु नहीं जिससे प्रत्यक्ष को मालूम कर सके। उत्तर- वस्तुओं की पृथक्ता से उनके साधन भी पृथक्-पृथक् हैं। यथा रूप देखने के वास्ते चक्षु प्रमाण है। और शब्द सुनने के लिए श्रोत्र इसी तरह प्रत्यक्ष अनेक प्रकार का है। अतएव एक वस्तु से दूसरी के मालूम होने में कोई विरूद्धता नहीं हो सकती। यही अवस्था अनुमानादि प्रमाणों की है। यथा कुए में से निकले हुए जल को खारा या मीठा मालूम कर लेते हैं। इसी तरह जानने वाले आत्मा का ज्ञान होता है। जैसे यह विचार करके, कि मैं दुखी हूं अथवा सुखी हूं। यहाँ पर जानने वाले ही से जानने वाले आत्मा का ज्ञान होता है। और एक ही समय में मन दो प्रकार का ज्ञान न होने से मन का अनुमान होता है। क्योंकि एक काल में दो ज्ञान का न होना मनका लक्षण है। महात्मा गौतम जी प्रत्यक्षादि प्रमाणों की परीक्षा करके अव खास तौर पर पृथक्-पृथक् प्रमाणों की परीक्षा करते हैं। चूँकि प्रमाणों में लक्षण करते समय प्रथम प्रत्यक्ष का ही लक्षण कहा था अब परीक्षा भी प्रथम प्रत्यक्ष की करते हैं। यह पूर्व पक्ष का सूत्र है।

सूत्र :प्रत्यक्षलक्षणानुपपत्तिरस-मग्रवचनात् II2/1/20

सूत्र संख्या :20


अर्थ : चूंकि प्रत्यक्ष के लक्षण में पूरे तौर पर बयान नहीं किया गया अतएव प्रत्यक्ष का जो लक्षण कहा है वह ठीक नहीं हो सकता। अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि प्रत्यक्ष के लक्षण में क्या हानि है। तो उत्तर प्राप्त हुआ कि उसका पूरा कारण नहीं कथन किया गया, क्योंकि प्रत्यक्ष का लक्षण यह किया है कि जब इनिद्रयार्थ से ज्ञान उत्पन्न हो वह प्रत्यक्ष कहलाएगा। परन्तु केवल इन्द्रियार्थ के कारण से कोई ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। किन्तु ज्ञान इस तरह पर उत्पन्न होता है कि आत्मा का सम्बन्ध मन से होता है और मन का सम्बन्ध इन्द्रियों से और इन्द्रियों का सम्बन्ध वस्तुओं से होता है। जबकि ज्ञान के लिए आत्मा, मन, इन्द्रिय और अर्थों का सम्बन्ध और इससे कोई ज्ञान उत्पन्न होना सम्भव नहीं। अतएव यह लक्षण असम्पमर्ण है और जो लक्षण असम्पूर्ण हो वह लक्षण ठीक नहीं कहला सकता, इस वास्ते प्रत्यक्ष का लक्षण बिल्कुल ठीक नहीं है।

व्याख्या :प्रश्न- क्या इन्द्रियार्थ से ज्ञान नहीं हो सकता, यदि मान लिया जाये तो हानि होगी? उत्त- पहले बतला दिया गया कि प्रभाता अर्थात् जानने वाला प्रमाण अर्थात् जानने का कारण प्रमेय अर्थात् जानने योग्य वस्तु से प्रमित अर्थात् ठीक ज्ञान उत्पन्न होता है। जब तुम प्रभाता अर्थात् जानने को न मान कर केवल प्रमाण और प्रमेय से ज्ञान का उत्पन्न होना मानोगे, तो ठीक जानने वाला ही नहीं। प्रश्न- यदि हम आत्मा, इन्द्रिय अर्थ से ज्ञान की उत्पति माने लें और मन को मानें तो क्या हानि है? उत्तर-एस अवस्था में एक एक ही समय में सब इन्द्रियों के अर्थ का ज्ञान होना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं होता। इस वास्ते मन का सम्बन्ध होना आवश्यक है। बस यह लक्षण प्रत्यक्ष का ठीक नहीं इस पर और हेतु देते हैं।


सूत्र :नात्ममनसोः संनिकर्षाभावे प्रत्यक्षोत्पत्तिः II2/1/21

सूत्र संख्या :21


अर्थ : आत्मा और मन के सम्बन्ध बिना प्रत्यक्ष ज्ञान का उत्पन्न होना असम्भव है। जैसे इन्द्रिय और अर्थ के मध्य परदा होने से उसका उसका सम्बन्ध होने पर किसी वस्तु का ज्ञान नहीं होता। इसी तरह आत्मा और मन का सम्बन्ध न होने पर भी ज्ञान नहीं हो सकता। जैसा कि प्रायः देखने में आता है कि मन के दूसरी ओर लगे होने पर किसी आवाज के सुनने पर भी उसका ठीक-ठीक मतलब समझ में नहीं आता और प्रायः बहुत सी वस्तु सामने से निकल जाती है और उनका ज्ञान नहीं होता। इसलिए साफ तौर पर पता लगता है, कि बिना आत्मा और मन के सम्बन्ध के ज्ञान का उत्पन्न होना असम्भव है। और असम्भव का उपदेश ठीक नहीं होता, इस वास्ते प्रत्यक्ष का लक्षण ठीक नहीं। इसके सिवाय लक्षण में और कभी बतलाते हैं।

सूत्र :दिग्देश-कालाकाशेष्वप्येवं प्रसङ्गः II2/1/22

सूत्र संख्या :22


अर्थ : दिशा, देश, काल और आकाश के बिना भी प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। इस वास्ते प्रत्यक्ष के लक्षण में इनके कथन की भी आवश्यकता थी क्योंकि ये वस्तु प्रत्येक स्थान और प्रत्येक समय में मन से सम्बन्ध रखने वाली हैं इनका सम्बन्ध किसी वस्तु से टूट ही नहीं सकता। इस वास्ते जिस प्रकार आत्मा का मन से और मन का इन्द्रियों से और इन्द्रियों का विषयों से सम्बन्ध को ज्ञान का कारण माना है। इसी तरह पर दिशा कालादि को भी ज्ञान का कारण मानना चाहिए। क्योंकि जिसके बिना जो चीज उत्पन्न नहीं हो सके, ‘‘वह उसका कारण कहलाता है। जबकि दिया कालादि के संयोग के बिना ज्ञान उत्पन्न हो नहीं सकता तो साफ तौर पर यह ज्ञान का कारण है। किसी वस्तु की उत्पत्ति के सब कारण बयान न करना ठीक नहीं अतएव प्रत्यक्ष का लक्षण असम्पूर्ण है। अब इसका उत्तर महामा गौतम जी देते हैं।

सूत्र :ज्ञानलिङ्गत्वादात्मनो नानवरोधः II2/1/23

सूत्र संख्या :23


अर्थ : चूँकि आत्मा का लिंग ज्ञान है इस वास्ते प्रत्येक ज्ञान के प्राप्त करने में दिशा आदि अज्ञानवान् वस्तुओं को कारण मानका आवश्यक नहीं और उनके न कहने से कोई हानि नहीं है। इसलिए दिशा काल के साथ आत्मा का संयोग ज्ञान के कार्यों में ठीक नहीं, क्योंकि आत्मा ज्ञान के साथ नित्य सम्बन्ध रखता है। और ज्ञान क्योंकि आत्मा ही को होता है, इस वास्ते उसके न बयान करने में कोई हानि नहीं, क्योकि ऐसे कारण जिनका सम्बन्ध कभी हो हो कभी न हो हो बतलाने आवश्यक हैं, क्योंकि उनके होने से काम का होना और न होने से न होना सम्भव है। और जिसके साथ नित्य सम्बन्ध हो उसके न बयान करने से कोई हानि नहीं प्रतीत होती हैं क्योंकि उसका ज्ञान स्वयमेव सम्बन्ध हो जाता है और उपदेश केवल ज्ञान के लिए किया जाता है। जहां बिना उपदेश के ज्ञान हो जाये वहां उपदेश की क्या आवश्यकता है। इसलिए प्रत्यक्ष के लक्षण में आत्मा के न ग्रहण करने से कोई हानि नहीं। प्रश्न- आत्मा के न बयान करने का पक्ष तो आपने आत्मा का लिंग ही ज्ञान होने से दूर कर दिया, मन के न बयान करने का दोष तो शेष है।

सूत्र :तद-यौगपद्यलिङ्गत्वाच्च न मनसः II2/1/24

सूत्र संख्या :24


अर्थ : जिस प्रकार ज्ञान का आत्मा के लिंग होने से आत्मा के कथन करने की आवश्यकता नहीं इसी तरह पर मन के बिना भी बहुत से ज्ञानों का एक साथ होना आवश्यक था। किन्तु यह दृष्टि में नहीं आता, कि एक साथ बहुत सी वस्तुओं का ज्ञान हो जाये इस वास्ते प्रत्येक ज्ञान के साथ जो त्रम से प्रतीत होता है। मन का सम्बन्ध आवश्यक प्रतीत होता है। और जिसका संयोग आवश्यक हो उसके कथन करने की कोई आवश्यकता नहीं।

व्याख्या :प्रश्न- मन का सम्बन्ध ज्ञान के साथ आवश्यक मानने में क्या प्रमाण है? उत्तर- चूंकि पांचों ज्ञान इन्द्रियां प्रत्येक समय पर एक साथ काम करती हैं। किन्तु ज्ञान एक साथ नहीं होता, यदि इन्द्रिय और अर्थों के सम्बन्ध से ही ज्ञान होता तो सब विषयों का एक साथ ही ज्ञान होता, जिसका न होना बतला रहा है कि जिस इनिद्रय के साथ मन का सम्बन्ध होता है उसको उसका ज्ञान होता है। जिसके साथ मन का सम्बन्ध नहीं होता है उसको उसका ज्ञान होता है। जिसके साथ मन का सम्बन्ध नहीं होता उसके अर्थ का ज्ञान भी नहीं होता अर्थात् अर्थ का ज्ञान होना मन और इन्द्रिय के सम्बन्ध पर ही है। जबकि मन के बिना इन्द्रिय अर्थ का ज्ञान कर ही नहीं सकती तो मन ज्ञान का कारण आवश्यक हुआ। प्रश्न- क्या केवल आवश्यक होने के कारण ही आत्मा और मन का कथन प्रत्यक्ष के लक्षणों में नहीं है। उत्तर- यही कारण नहीं, किन्तु लक्षण उसको कहते हैं जो बिना उसके दूसरे में नहीं घट सके आत्मा और मन प्रत्येक ज्ञान के कारण हैं। अथवा वह प्रत्यक्ष से हो, अनुमान या उपमान से अथवा शब्द से। तात्पर्य यह है कि हर एक प्रमाण से होने वाले ज्ञान से आत्मा और मन का सम्बन्ध है और इन्द्रियों का केवल प्रत्यक्ष ज्ञान से। इसलिए प्रत्यक्ष ज्ञान का कारण इन्द्रिय और अर्थ का सम्बन्ध होना ठीक था। क्योंकि प्रत्यक्ष ज्ञान के साथ इन्द्रिय और अर्थें का सम्बन्ध विशेषतया है। विशेषता यह है कि मन अपने विचार में मग्न होता है कि यकायक विद्युत की कड़कड़ाहट धोत्र द्वारा मन को चौंका देती है। ऐसी अवस्था में आत्मा जानने की इच्छा से मन को नहीं लगाता किन्तु इन्द्रियों के सम्बन्ध से मन और आत्मा को ज्ञान होता है। इस कारण से प्रत्यक्ष में आत्मा और मन बड़ा नहीं, किन्तु इन्द्रिय ही समझनी चाहिए। प्रश्न-इन्द्रिय और अर्थ के सम्बन्ध के प्रधान होने में क्या प्रमाण है?

सूत्र :तैश्चापदेशो ज्ञानविशेषाणाम् II2/1/25

सूत्र संख्या :25


अर्थ : प्रत्यक्ष ज्ञान के इन्द्रियों के कारण से उत्पन्न होने का प्रमाण है। यह विशषेता भी है जो इन्द्रियों के कारण से होती है तथा किसी वस्तु के सुगधित और दुर्गन्धित होने का ज्ञान नासिका से सूँघने पर प्राप्त होता है। और रूप के अच्छे बुरे का ज्ञान चक्षु द्वारा होता है। आवाज के कड़ी और नरम होने का ज्ञान श्रोत्र के द्वारा होता है और स्वाद का ज्ञान चिहृा द्वारा होता है।

व्याख्या :इस प्रकार रूप, रस, आवाज, गन्ध, गरम-सर्द इन सबका ज्ञान कई प्रकार के प्रत्यक्ष इन्द्रयों के कारण से होता है। इस वास्ते प्रत्यक्ष ज्ञान में इन्द्रिय और अर्थों का सम्बन्ध ही प्रधान का कारण है। और जैसे ऊपर कथन किया गया है, कि प्रायः इन्द्रिय और अर्थ का सम्बन्ध ही ज्ञान का कारण होता है आत्मा और मन का सम्बन्ध ज्ञान का कारण नहीं होता। इस वास्ते समझकर इन्द्रिय औश्र अर्थ का सम्बन्ध ही लक्षण में कथन किया गया। इस पर विपक्षी और हेतु देता है।

सूत्र :व्याहतत्वादहेतुः II2/1/26

सूत्र संख्या :26


अर्थ : यह कहना ठीक नहीं कि प्रत्यक्ष में इन्द्रियां प्रधान हैं। क्योंकि यदि आत्मा और मन का सम्बन्ध ज्ञान का कारण न माना जाये, केवल इन्द्रिय और अर्थ के सम्बन्ध से ही ज्ञान की उत्पत्ति मानी जाये, तो एक काल में दो प्रकार का ज्ञान उत्पन्न न होना जो मन का लक्षण कहा है नष्ट हो जायेगा। क्योंकि मन के लक्षणनुसार इन्द्रियार्थ के सम्बन्ध को मन के सम्बन्ध की आवश्यकता है। वरन् एक काल में सब इन्द्रियों के अर्थों का ज्ञान होना सम्भव है इसलिए प्रत्यक्ष ज्ञान में भी मन और आत्मा के सम्बन्ध को शामिल करना चाहिए। अथवा इस सूत्र का यह मतलब लेना चाहिए कि जब किसी एक कार्य में मन उकाग्र होता है यथा किसी अच्छे गान के सुनने में या और किसी प्रकार में, तो शेष इन्द्रियां उस समय भी विषयों से सम्बन्ध रखती हैं। यदि इन्द्रियों के कारण ज्ञान होता तो उस अवस्था में भी इन्द्रियों के विषयों का ज्ञान होना चाहिए, किन्तु ऐसा होता नहीं है। अतएव यह सिद्धान्त कि प्रत्यक्ष ज्ञान में इन्द्रियां प्रधान हैं। खण्डन हो जाता है और यह लक्षण भी नष्ट हो जाता है, कि इन्द्रिय और अर्थ के सम्बन्ध से प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। इसका उत्तर महात्मा गौतम जी देते हैं।

सूत्र :नार्थविशेषप्राबल्यात् II2/1/27

सूत्र संख्या :27


अर्थ : उपरोक्त हेतु का उत्तर यह है कि इसमें व्याघात नहीं है आत्मा और मन का संयोग ज्ञान का कारण है, इसमें व्यभिचार नहीं होते। न होने का कारण क्या है? खास विषयों की विशेषता से तात्पर्य यह है कि ऊंची आवाज के सुनने से सोया हुआ या किसी काम में फंसा हुआ मन फौरन जाग उठता है, इससे इन्द्रिय आरै अर्थ के सम्बन्ध को प्रधान कहा जाता है। ज्ञान बिना मन के नहीं हुआ, किन्तु इन्द्रिय और अर्थ के संयोग से, इसके स्थान में कि मन इन्द्रिय को जानने की ताकत दे, इन्द्रिय ने मन को जगाकर जानने की ताकत दी। इसलिए इन्द्रिय और अर्थ के सम्बन्ध को प्रधन कथन करने से आत्मा और मन के सम्बन्ध का खण्डन नहीं हुआ। अर्थ का बल वाला होना इन्द्रिय को प्रधान बना देता है। और निर्बल होने में मन प्रधान होता है। दोनों के पृथक कारण से उत्पत्ति के कारण से व्याघात नहीं हैं। और विशेषाथं का बलवान होना इन्द्रियों का विषय है, मन और आत्मा का विषय नहीं। इस वास्ते इन्द्रिय और अर्थ का संयोग ही प्रधान कारण है, क्योंकि संकल्प न होने पर भी सोये हुए अथवा किसी विषय में फंसे हुए मन को इन्द्रिय और अर्थ के संयोग के कारण ज्ञान हो जाता है। यद्यपि उसमें मन का साथ मिलना भी एक कारण है, किन्तु इन्द्रिय और अर्थ के संयोग होते ही मन और आत्मा में त्रिया होने लगती है। इस वास्ते आत्मा और इन्द्रिय और अर्थ का संयोग उस त्रिया का कारण होता है यद्यपि बिना आत्मा और मन के संयोग के ज्ञान का उत्पन्न होना असम्भव हैं। तो भी विशेष अर्थ होने से इसके स्थान में, कि मन इन्द्रियों को काम में लगाता, इन्द्रियों ने मन को काम में लगाया, इसलिए इन्द्रियों को प्रधान मानकर प्रयक्ष इन्द्रिय और अर्थ के संयोग से भी कथन किया गया। अब इस पर विपक्षी दूसरे प्रकार के हेतु देने प्रारम्भ करते हे।

सूत्र :प्रत्यक्षमनुमानमेकदेशग्रहणादुपलब्धेः II2/1/28

सूत्र संख्या :28


अर्थ : अर्थ-अब प्रत्यक्ष की परीक्षा में यह पक्ष उठाते हैं कि प्रत्यक्ष का मानना बेदलील है क्योंकि प्रत्यक्ष में जो जक्षण कहा है, कि इन्द्रिय और अर्थ के संयोग से उत्पन्न होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष है तो जब वृक्षादि के एक भाग को देखकर शेष सारे वृक्ष का ज्ञान हो जाता है। तो यह ज्ञान प्रत्यक्ष के लक्षण में तो आ नहीं सकता, क्योंकि कुल अर्थ के साथ इन्द्रिय का संयोग नही हुआ और ज्ञान पूरे वृक्ष का हुआ है। इसलिए इसको अनुमान ही समझना चाहिए क्योंकि वृक्ष का एक भाग वृक्ष नहीं है, किन्तु जिस तरह धुएं को देखकर अग्नि का अनुमान होता है। इसी तरह वृक्ष के एक भाग को देख कर वृक्ष का अनुमान होता है। इसके उत्तर में विपक्षी से यह कहना चाहिए कि क्या उस भाग से जिससे इन्द्रियों ने जाना है शेष वृक्ष को दूसरी वस्तु मानकर उसका अनुमान के योग्य होना मानते हो, यदि कथन करो एकसा ही मानते हैं तो जिस देश के भागों को इन्द्रिय के संयोग से जाना है उसको छोड़कर शेष भाग अनुमेय रहेंगे न कि वृक्ष का अनुमान होगा, क्योंकि जिस भाग को जान लिया है उसके जानने के वास्ते दूसरे प्रमाण की आवश्यकता नहीं और एक टुकड़े से दूसरे टूकड़े के अनुमान में कोई युक्ति नहीं, क्योंकि इससे कोई व्याप्ति नहीं, और एक भाग के अनुमान को सबका अनुमान कहना मिथ्या ज्ञान है।

व्याख्या :प्रश्न-एक भाग के प्रत्यक्ष से दूसरे भाग का अनुमान करने में क्या दोष होगा? उत्तर-प्रथम तो इसमें यह हानि है कि किसी प्रकार भी पूरे वृक्ष का ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि एक भाग प्रत्यक्ष है और दूसरा अनुमेय है। और प्रत्यक्ष और अनुमेय तो कई प्रकार का वस्तु है और एक अवयवी कई विशेषणों वाले हो नहीं सकते। प्रश्न- यदि हम ऐसा मानें कि एक देश के प्रत्यक्ष से दूसरे का अनमान होना सम्भव है, तो उसमें क्या हानि होगी? इसका उत्तर महात्मा गौतम जी देते हैं -

सूत्र :न प्रत्यक्षेण यावत्तावदप्युपलम्भात् II2/1/29

सूत्र संख्या :29


अर्थ : जितने भाग का प्रत्यक्ष से ज्ञान होगा उतने ज्ञान से ही की सिद्धि हो जायेगी, क्योंकि विपक्षी तो प्रत्यक्ष को नितान्त परिमित कर रहा है, जब उसने एक देश का प्रत्यक्ष होना मान लिया तो उसके पक्ष का खण्डन हो गया। दूसरे यह है कि प्रत्यक्ष के न मानने पर तो अनमान किसी तरह हो ही नहीं सकता, क्योंकि अनुमान का लक्षण यह किया है कि जब प्रत्यक्ष प्रमाण से दो वस्तुओं की व्याप्ति का ज्ञान हो जाये तो उनमें से एक को देखकर दूसरे का अनुमान किया जाता है। यदि प्रत्यक्ष की सत्ता नितान्त नष्ट कर दी जाय तो अनमान की सत्ता उससे प्रथम ही नष्ट हो जायेगी, क्योंकि प्रत्यक्ष अनुमान का कारण है। जब अनुमान के कारण व्याप्ति का ज्ञान ही न होगा, तो उसके कार्य अनुमान की उत्पत्ति किस प्रकार होगी और व्याप्ति ज्ञान केवल प्रत्यक्ष के द्वारा होता है, जब प्रत्यक्ष ही परिमित न होगा तो अनुमान भी न होगा। विपक्षी जिस अनुमान के भरोसे पर प्रत्यक्ष के खण्डन पर तैयार हुआ था, वह अनुमान गुम हो गया।

व्याख्या :प्रश्न- जबएक वस्तु के एक अवयव का प्रत्यक्ष होता है और बाकी अवयव प्रत्यक्ष नहीं होते और उससे वस्तु के होने का ज्ञान हो जाता है तो इस ज्ञान को प्रत्यक्ष मानें वा अनुमान कहें, इसका उत्तर गौतम जी अगले सूत्र में देते हैं-

सूत्र :न चैकदेशोपलब्धिरवयविसदभावात II/1/30

सूत्र संख्या :30


अर्थ : एक अवयव का प्रत्यक्ष ज्ञान होने से प्रत्यक्ष को सिद्ध करके इस सूत्र में दूसरे अवयव का प्रत्यक्ष होना सि़ करते हैं-भाव यह है कि एक अवयव के प्रत्यक्ष होने से केवल उस अवयव का ही ज्ञान नहीं होता किन्तु अवयवी के ‘सत्’ होने से एक अवयव के ज्ञान होते ही उसके साथी दूसरे अवयवों के समूहभूत अवयवी का भी हो जाता है। अवयवी के दो प्रकार के अवयव हैं- एक प्रत्यक्ष से गम्य, दूसरे अगम्य, परन्तु एकावयव ज्ञान से समूहभूत अवयवी का ज्ञान होना असम्भव नहीं किन्तु कारण के साथ ही कार्य का ज्ञान लोक में देखा गया। है।

व्याख्या :प्रश्न- जब एक भाग से दूसरा भाग पृथक है तो एक के ज्ञान से दूसरे का ज्ञान किस प्रकार हो सकता हैं? उत्तर-यह प्रश्न ठीक नहीं, क्योंकि ऐसा मानने में तो एक भाग भी प्रत्यक्ष नही माना जायेगा, क्योंकि एक भाग को दूसरे भाग की इन्द्रियों से सम्बन्ध होने में रूकावट होगी। इस प्रकार किसी पूरी वस्तु को मालूम नहीं कर सकेंगे। क्योंकि न तो सम्पूर्ण वस्तुओं का इन्द्रियों से सम्बन्ध हो सकता है और न सम्पूर्ण का और न ही उस उस भाग का जिसका ज्ञान हुआ हैं? ज्ञान समाप्त होता है, यह एक भाग से दूसरे के न मालूम हाने का खण्डन है क्योंकि जब कुछ शेष न रहे तो सम्पूर्ण का ज्ञान होता है यदि कुछ भाग शेष रह जाये तो सम्पूर्ण नहीं कहला सकता। एक वस्तु में दूसरी के मिले होने से इन्द्रिय और विषयों के सम्बन्ध में विषयों से रूकावट होती है। इस प्रकार रूकावट होने से ज्ञान न होना चाहिए, किन्तु जब सम्पूर्ण का ज्ञान होना न मानोगे तो सम्पूर्ण कोई वस्तु ही न होगी और जब सम्पूर्ण कोई वस्तु न मानी जाये तो प्रत्यक्ष के विपक्षी से पूछा कि फिर किसके एक भाग का प्रत्यक्ष मानोगे क्योंकि सम्पूर्ण के न होने से भाग कहला सकता है और सम्पूर्ण होना उसके ज्ञान होने से मालूम हो सकता है। प्रश्न-क्या जिस वस्तु का ज्ञान न हो उसको शून्य मानना चाहिए? उत्तर- हां जिस वस्तु का किसी प्रमाण से भी ज्ञान न हो सके, उसकी सत्ता किसी प्रकार हो हो नहीं सकती। जितनी चीजें है सबके जानने के वास्ते कोई न कोई प्रमाण है, यदि कोई यह माने कि बहुत सी ऐसी वस्तुएं है जो प्रमाणों से नही जानी जातीं, जैसे ‘ईश्वर’ तो उसका कहना बिल्कुल ठीक नहीं क्योंकि वस्तुओं की सत्ता प्रमाण से ही प्रतीती होती है। प्रश्न- ईश्वर की सत्ता में कोई प्रमाण नहीं है, किन्तु ईश्वर की सत्ता को लोग मानते हैं। उत्तर-प्रथम तो ईश्वर की सत्ता में शब्द प्रमाण है जिसें सम्बन्ध से बहुत से प्रमाण मिल सकते हैं। दूसरे सृष्टि की रचना से उसका अनुमान हो सकता है। इस वास्ते यह यह कहना कि ईश्वर की सत्ता में कोई प्रमाण नहीं, ठीक नहीं। तात्पर्य इस सूत्र का यह है कि जिस प्रकार जिन वस्तुओं को हम देखेंगे तो उसके ऊपर के भाग का प्रत्यक्ष होगा अन्दर के भागों का नहीं होगा। उदाहरण यह है कि हम एक आदमी को देखते हैं तो उसकी त्वचा का प्रत्यक्ष होता है अन्दर के भागों का नहीं। अब त्वचा का नाम तो आदमी नहीं। आदमी तो कुल शरीर का नाम है। लेकिन कहा यह जाता है कि हम मनुष्य को प्रत्यक्ष देखते हैं। यह नहीं कहते कि हम त्वचा को देखते हैं। इस वास्ते एक देश के प्रत्यक्ष होने से सम्पूर्ण का ज्ञान हो जाता है और वह ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है। प्रश्न- यदि इस प्रकार त्वचा का देखकर शरीर के प्रत्यक्ष का पक्ष किया जाये तो उस अवस्था में ठीक हो सकता हैं कि जिस अवस्था में सम्पूर्ण शरीर को ठीकक मान लिया जाये, जब सम्पूर्ण न माना जाये तो वस्तु को देखने से सम्पूर्ण का ज्ञान किस प्रकार हो सकता है? उत्तर-जब तुम वृक्ष के एक भाग को देखकर सम्पूर्ण वृक्ष का अनुमान करना मंजूर करते हो तो सम्पूर्ण के होने में किस प्रकार संशय करते हो। जब सम्पूर्ण की सत्ता का इकरार कर लिया तो एक भाग देखने से सम्पूर्ण का ज्ञान होना ठीक है, इस पर विपक्षी प्रश्न करता है।

सूत्र :साध्यत्वादवयविनि संदेहः II2/1/31

सूत्र संख्या :31


अर्थ : तुम जो अवयवी होना मानते हो यह ठीक नही, क्योंकि इसमें साध्य होना अर्थात् प्रमाण का मोहताज होना पाया जाता है। जब तक प्रमाण से अवयवी का होना परिमित न हो जाये तब तक मानना ठीक नहीं। प्रमाण से परिमित होने पर मानना चाहिए और अवयवी के न होने का कारण यह है, कि एक ही वृक्ष में एक भाग तो हिलता है दूसरा बिल्कुल नहीं हिलता, एक भाग का कुछ रेग होना देसरे भाग में दूसरा रंग होना। इस प्रकार कई प्रकार के विशेषणों के देखने से अबयव की सत्ता प्रमाण से परिमित नहीं होता। इसका उत्तत महात्मा गौतम जी देते हैं-

सूत्र :सर्वा-ग्रहणमवयव्यसिद्धेः II2/1/32

सूत्र संख्या :32


अर्थ : उक्त सूत्र में जो आपेक्ष किया है, उसका उत्तर यह है कि यदि अवयवी को न माना जाये तो सब स्वरूप के न होने से द्रव्य गुण सामान्य आदि की सिद्धि न होगी और इनके सिद्ध न होने से किसी वस्तु का भी प्रत्यक्ष ज्ञान न हो सकेगा। ऐसी दशा में सब वस्तुएं परमाणु रूपी ही ही माननी पड़ेंगी और परमाणु इन्द्रियों से ज्ञात नहीं हो सकते।

व्याख्या :प्रश्न-अवयवी के न मानने से द्रव्य की सिद्धि क्यों कर न होगी? उत्तर- जिन द्रव्यों का इन्द्रियों से ज्ञात करते हैं, उन्ही का होना स्वीकार किया जाता है और जो किसी प्रमाण से ज्ञात न हो उसके अस्तित्व को ठीक तौर पर स्वीकार नहीं किया जा सकता। इन्द्रियों से अवयवी का ही ज्ञान होता हजै, केवल अवयव का नहीं। यदि कोई अवयवी न हो तो उसका ज्ञान कैसे हो सकता है? और यदि द्रव्य का ज्ञान न हो तो उसमें रहने वाले गुणादिकों का कैसे ज्ञान हो सकता है? प्रश्न-जबकि द्रव्य कारण और कार्य दो प्रकार के माने जाते हैं, तो अवयवी के न होने से कार्य द्रव्यों का ज्ञान न होगा, कारण का तो जरूर ही होगा। इस तरह पर अवयवी के न मानने पर भी यह आपेक्ष दूर हो जायेगा। उत्तर-क्योंकि जीवात्मा बिना साधन अर्थात् मन इन्द्रिय आदि के बिना किसी वस्तु का ज्ञान नहीं कर सकता। जितनी इन्द्रियां हैं वे सब कार्यद्रव्य को ज्ञात करके ही कारण का अनुभव किया करती हैं। कार्य के न मालूम होने पर कार्य कारण दोनों का ही ज्ञान न होगा, इस वास्ते अवयवी का मानना आवश्यक है। प्रश्न-क्या अणुपरिमाण वाले का ज्ञान नहीं हो सकता? केवल महापरिमाण का ही प्रत्यक्ष होता है? उत्तर-न तो अणुपरिमाण अर्थात् सबसे छोटी वस्तु का प्रत्यक्ष होता है और न पहापरिमाण अर्थात् सबसे बड़ी वस्तु का, किन्तु मध्यम परिमाण अर्थात् बिचने दर्जें की वस्तुओं का प्रत्यक्ष होता है। अब अवयवी के न होने में और मुक्ति देते हैं-

सूत्र :धारणाकर्षणोपपत्तेश्च II2/1/33

सूत्र संख्या :33


अर्थ : बहुत सी वस्तुओं के धारण करने और खीचंने से भी अवयवी का होना सिद्ध होता है, क्योंकि यदि सब परमाणु ही हों, और उनकी तरकीब से बनी हुई कोई वस्तु न हो तो खींचने से एक ही परमाणु आना चाहिए, शेष परमाणु नहीं आने चाहिएं क्योंकि समस्त वस्तुओं को जहां स्थित करते हैं वह वहां ही स्थित रहती है, इस वास्ते धारण और आकर्षण से अवयवी का होना सिद्ध होता है। यदि अवयवी अवयपवों से पृथक न माना जाये तो धारण और आकर्षण हो ही नहीं सकते।

व्याख्या :उत्तर-क्या अवयवों (टुकड़ो) का धारण और आकर्षण नहीं हो सकता? जिस तरह हम एक साथ चुनी हुई इँटी को किसी चौकी पर धारण किया हुआ देखते हैं, वे इँटें सब अलग-अलग हैं। उत्तर- जिस समय उस चौकी को खींचोगे तो वह शीघ्र ही गिरने लगेगी, इस वास्ते धारण से भी आकर्षण के होते ही गिरने लगेंगी, पर जिस समय किसी टुकड़े को खींचते हैं तो इस तरह अलग-अलग टुकड़े नहीं हो जाते, किन्तु समस्त लकड़ी खिंच आती है इसलिए किसी बनी हुई वस्तु को केवल परमाणुओं का समूह नहीं कह सकते, किन्तु उनमें सिवाय कर एक कर दिया है। प्रश्न-सिवाय परमाणुओं में संयोग शक्ति किसमें रहती है? यदि कहो परमाणुओं में, तो वह उनका स्वाभाविक गुण है या नैमित्तिक? उत्तर- पृथ्वी के परमाणुओं के संयोग शक्ति, जल और अग्नि के कारण उत्पन्न होती है। कच्ची इँटों में जल के कारण और पक्की इँटों में अग्नि के कारण। जल के परमाणुओं में अग्नि के कारण और अग्नि के परमाणुओं में वायु के कारण वायु में चेतन की त्रिया से संयोग शक्ति पैदा होती है। प्रश्न- यदि इँट में संयोग शक्ति न मानी जाये, इँट को केवल परमाणुओं का समूह ही माना जाये तो क्या हर्ज होगा? उत्तर- यदि ऐसा मानें तो धूल में और ईंट में क्या भेद होगा? क्योंकि पार्थिव परमाणु समूह दोनों जगह समान हैं, और ईंट को एक कह सकते। इसलिए अवयवी पृथक और परमाणु पृथक हैं। प्रश्न- जैसे असंख्य पुरूषों वाली सेना को एक अवयवी न होने पर भी दूर से‘एक मालूम करते हैं या दूर वन, बुद्धि से वृक्षों को ‘एक’ मालूम करते हैं वैसे ही सब जगह संयोगशक्ति के न रहते हुए भी ‘एक’ ज्ञान हो सकता है।

सूत्र :सेनावनवद्ग्रहणमिति चेन्नातीन्द्रियत्वादणूनाम् II2/1/34

सूत्र संख्या :34


अर्थ : सेना और वृक्ष की तरह मानना भी ठीक नही, क्योकि सेना और वन के वृक्षों का पृथक-पृथक होने का ज्ञान केवल दूर से देखने के कारण से नहीं होता वस्तुतः उनमें पृथकता होती ही है। दूरता दोष से उन वृक्षों के भेद-शीशम, आदि का भी ज्ञान नहीं होता। परन्तु यह दृष्टान्त, परमाणु समूह को एक सिद्ध करने के लिए ठीक नहीं है, क्योंकि परमाणु किसी इन्द्रिय का विषय नहीं, और सेना तथा वन के वृक्षों के देखने से उनके होने मात्र का ज्ञान नहीं होता, किन्तु मनुष्य जाति तथा वृक्ष जाति का ज्ञान होता है। और वस्तु की जाति का ज्ञान होने से और वस्तुओं की पृथकता का ज्ञान न होने से ‘एक’ है ऐसा जो ज्ञान पैदा होता है और परमाणुओं में एक होने का ज्ञान होने और किसी कारण से पृथक होने का ज्ञान न से जो ‘एक’होने का ज्ञान होता है वह परीक्षणीय हैं कि क्या परमाणुओं समूह ही एकत्व ज्ञान का कारण है या नहीं, इसकी परीक्षा करनी चाहिए।

व्याख्या :प्रश्न-क्या सेना और वन के वृक्ष, अणु समूह की तरह अलग-अलग होने पर एक नहीं मालूम होतें? उत्तर-जब तक अवयवों से अवयवी न बन जाये अर्थात् महापरिमाण वाला न हो जाये तब तक वह इन्द्रिय से नहीं जाना जा सकता और जो वस्तु इन्द्रियों से ज्ञात न हो सके वह दृष्टान्त में नहीं आ सकती क्योंकि वह स्वयं प्रमाणपेक्षी है। प्रश्न- सेना वन के वृक्ष भी परमाणुओं के समह ही हैं, जैसे उनका प्रत्यक्ष होता है वैसे ही परमाणुओं के समूह के प्रत्यक्ष होने से आवयवी कोई वस्तु नहीं। उत्तर-यह युक्ति ठीक नहीं, क्योंकि परीक्षा इस बात की हो रही है कि अवयवी, केवल परमाणुओं को समूह मात्र है न परमाणुओं में संयोग शक्ति के कारण एक अवयवी कोई पृथव बन गया है; जब कत यह सिद्ध न हो जाय कि अवयवी कोई वस्तु नहीं, सिवाय परमाण समूह के, तब तक यह दृष्टान्त ठीक नहीं हो सकता। प्रश्न- यद्यपि वे सेना के मनुष्य और वन के वृक्ष पृथक-पृथक हैं, परन्तु उनकी पृथकता प्रसिद्ध नहीं होती, यह दृष्टान्त प्रत्यक्ष देखा जाता है, इसलिए यह ठीक है कि अवयवी कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं किन्तु परमाणु समूह मात्र है और जो वस्तु प्रत्यक्ष हो उसका खण्डन हो नहीं सकता। उत्तर-यद्यपि वन के वक्षों और सेना के मनुष्यों की पृथकता का ज्ञान न होना ठीक है और प्रत्यक्ष होने से परीक्षणीय नहीं परन्तु व्यभिचारी होने से प्रत्यक्ष लक्षण के अन्तभूति नहीं हो सकता, क्योंकि उसके समीप जाने पर सेना का प्रत्येक पुरूष और जंगल का प्रत्येक वृक्ष, पृथक-पृथक मालूम होते हैं, इसलिए यह दृष्टान्त ठीक नहीं। प्रश्न- इस दृष्टान्त के कह देने से अवयवों की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि दृष्टांत एक अंश में हुआ करता है, यदि सर्वांश में दृष्टांत हो तो दृष्टांत ही क्यों कहा जाय? किन्तु दृष्टांत (जिसके लिए दृष्टांत दिया जाता है वह) ही हो जाये। उत्तर- यद्यपि यह ठीक है कि दृष्टांत के ठीक होने से सिद्धान्त ठीक नहीं रहता। अर्थात् जीवात्मा की सिद्धि में दृष्टान्त दिया जाये, यदि दृष्टान्त से वह सिद्धान्त खण्डित हो जाता है। इसलिए तुम्हारा यह सिद्धान्त कि समष्टि कोई वस्तु नही, केवल परमाणुओं कस संघात है, सर्वंथा खण्डित हो गया, अब इससे आगे अनुमान प्रमाण की परीक्षा होगी। वादी प्रत्यक्ष प्रमाण के खण्डन में बहुत से हेतु देने पर भी जब उनका खण्डन न कर सका तो अब अनुमान प्रमाण का खण्डन करने के लिए निम्नलिखित सूत्र से आपेक्ष करता है अर्थात् इस सूत्र से अनुमान की परीक्षा आरम्भ होती है। अनुमान के लक्षण में यह बतलाया गया था कि अनुमान तीन प्रकार का होता है। (1) पूर्ववत् (2) शेषवत् (3) सामान्यतो दृष्ट। इन तीनों प्रकार के अनुमान के लिए जो दृष्टान्त दिए गए हैं, उनमें व्यभिचार दोष दिखलाकर उसका खण्डन करता है।

सूत्र :रोधोपघातसादृश्येभ्यो व्यभिचारादनुमानमप्र-माणम् II2/1/35

सूत्र संख्या :35


अर्थ : अनुमान के लक्षण में जो दृष्टान्त दिए गए हैं, वे सब व्यभिचार दोष से युक्त हैं। प्रथम यह कहा गया है कि ऊपर पहाड़ में वर्षा हुई होगी, किन्तु यह अनुमान ठीक नहीं, क्योकि यदि ऊपर के भाग में किसी पहाड़ के गिर जाने से या बन्द लगा कर पानी रोक दिया जाये तो जिस समय वह पहाड़ का टुकड़ा अलग होगा बन्द खोला जायेगा, तब एक साथ नदी में बाढ़ आ जायेगी। जिससे वर्षा के होने का अनुमान सर्वथा मिथ्या सिद्ध होगा। यदि नही की बाढ़ का कारण केवल पहाड़ में वृष्टि का होना ही होता, तब तो ठीक था, परन्तु उसका कारण पानी का रूक जाना भी है, इसलिए व्यभिचार दोष होने से अनुमान ठीक नहीं। दूसरे यह भी कहा गया था कि चीटियों के अण्डों के निकलने और मोर का शब्द सुनने से यह अनुमान होता है कि अब वर्षा होगी, इसमें भी व्यभिचार दोष आता है। क्योंकि अति वेग से किसी वस्तु के गिरने से भी चींटियों को अण्डों के नाश होने का भय होता है, तभी वे अण्डों को लेकर भागने लगती हैं, यदि उनका घर टूट जाये तो वे अवश्य दौड़ने लगेंगी। मोर शब्द से जो मोर के होने का अनुमान किया जाता है।, वह भी ठीक नहीं क्योंकि मनुष्य भ मोर का शब्द कर सकता है। इसलिए मोर के शब्द मात्र से जो अनुमान किया जायेगा, वह अन्यता हो सकता है। प्रमाण वह हो सकता है,जिसमें सन्देह न हो और जो आप संदिग्ध है, वह प्रमाण कोटि में कैसे आरूढ़ हो सकता?इसलिए तीनों प्रकार के अनुमान ठीक नहीं।

व्याख्या :प्रश्न- अनुमान किस प्रकार किया जाता है? उत्तर- व्याप्ति अर्थात् सम्बन्ध के ज्ञान से। प्रश्न- जहां सम्बन्ध के ज्ञान में विकल्प होगा, वहां कारण के ठीक न होने से अनुमान ठीक न होगा। इस वास्ते मिथ्या अनुमान के खण्ड से अनमान मात्र का खण्डन नहीं हो सकता। उत्तर- हो सकता है, क्योंकि सब अनमानों में विकल्प की सम्भावना है, क्योंकि उनकी सिद्धि में जो हेतु और उदाहरण दिए हैं, वे सब व्याप्ति दोष से दृष्ट और वैकल्पिक है। इसका स्वयं सूत्रकार अक्षपाद देते हैं-

सूत्र :नैकदेशत्राससादृश्येभ्योऽर्थान्तरभावात् II2/1/36

सूत्र संख्या :36


अर्थ : अनुमान के खण्डन में जो हेतु दिए गए हैं, वे ठीक नहीं और उसमें व्यभिचार सिद्ध करने के लिए जो दृष्टान्त दिए गए हैं वे भी निर्बल हैं। क्योंकि पहला दृष्टान्त तो एक देश का है, सदा सर्वत्र नदी में बाढ़ इस रीति से नहीं आती और चीटियों का घर टूटने से अण्ड़े लेकर भागना भी भय के कारण से हैं, वह भी स्वाभाविक नहीं। और दूसरे कारण के होने से यह घटनाएं पहली घटनाओं से बिल्कुल भिन्न हैं। इसलिए अन्य वस्तु के होने से हेतु में व्यभिचार दोष नहीं रहा। दूसरे शब्दों में इसे यों भी कह सकते हैं कि ये जो कारण हैं, सब कृत्रिम हैं और अनुमान के कारण वास्तविक हैं, इसलिए वास्तविक हेतुओं के सामने कृत्रिम हेतुओं के प्रस्तुत करने से अनुमान का खण्डन नहीं हो सकता। क्योंकि अनुमान का हेतु कृत्रिम हेतुओं से भिन्न बताया गया है, जो कारण अनुमान का हेतु नहीं है, उनको हेतु मानकर अनुमान का खण्ड करना ठीक नहीं हैं, क्योंकि जल के वेग से चलने और उसमें झाग, लकड़ी पत्ते आदि को बहते और पानी को मैला देखने से पहाड़ में वर्षा होने का अनुमान किया जाता है, केवल जल के आधिकता से अनुमान नहीं किया जाता। जल को रोक देने से उक्त तीनों बातें तो न होंगी, केवल जल की अधिकता होगी, इसलिए यह अनुमान का कारण ही नहीं और न ही इससे कोई बुद्धिमान अनुमान करेगा। चीटियों के बहुत देर तक अण्डों को लेकर चलने से वर्षा का अनुमान होता हैं, उपघात से वे अण्डों को लेकर चलती हैं, वह तात्कालिक होने से अनुमान का प्रयोजक नहीं। मयूर के सृदश मनुष्य के शब्द से जो मयूर के होने का अनुमान करता है, वह मिथ्यानुसार भ्रान्ति से वास्तविक और कृत्रिम शब्द में भेद न करने से होता है, इसलिए यह अनुमान नहीं है। मीनों प्रकार के अनुमान के खण्डन में जो हेतु दिए थे, उनका उत्तर दिया गया, जो कि अनुमान तीनों कालों का होता है, इसलिए वर्तमान काल को जो भूत और भविष्य के भेदों का कारण हैं-सिद्ध करते हैं, प्रथम वादी निस्नलिखित सूत्र में वर्तमान की सत्ता का निषेध करता है।

सूत्र :वर्तमानाभावः पततः पतितपतितव्यकालोपपत्तेः II2/1/37

सूत्र संख्या :37


अर्थ : जब वृक्ष से फल नीचे को गिरता है तब वृक्ष और भूमि में जो अन्तर है, उसमें से जो अन्तर गिरते हुए फल और भूमि में होता है, उसे भूतकाल कहते है। अर्थात् वृक्ष से फल के गिरने में जो समय लगा है, वह भूतकाल है और फल के भूमि तक पहुंचने में जो समय लगेगा, वह भविष्य काल है, तीसरा कोई अन्तर नहीं, जिसके लिए वर्तमान काल की सत्ता मानी जाये। इसलिए वर्तमान काहोना सर्वथा असम्भव है। इसका उत्तर सूत्रकार गौतम देते हैं-

सूत्र :तयोरप्यभावो वर्तमानाभावे तदपेक्षत्वात् II2/1/38

सूत्र संख्या :38


अर्थ : यदि वर्तमान काल को न माना जावे तो भूत और भविष्य काल भी नहीं रह सकते। क्योंकि दोनों वर्तमान काल की अपेक्षा से उत्पन्न होते है।

व्याख्या :प्रश्न-जब वृक्ष से फल गिरता है तब फल और वृक्ष के अन्तर जो समय था, उसका नाम भूतकाल और फल और भूमि क मध्य जो अन्तर है, उसके तय करने में जो समय लगेगा वह भविष्य काल है। जब कि तीसरा कोई अन्तर ही नहीं तो उसके लिए तीसरा काल अर्थात् वर्तमान किस प्रकार सिद्ध हो सकेगा। उत्तर- जिस स्थान पर फल को विद्यमान देखकर वृक्ष से फल तक और फल से भूमि तक अन्तर मानकर आत्रमणकरने के लिए भूत और भविष्य काल को मानते हो, क्या उस स्थान में अन्तर नहीं है? या उस स्थान के गुजरने में कोई समय नहीं लगता? न तो वह स्थान जहां पर फल विद्यमान है, अनन्तर हो सकता है और न ही बिना समय के उसमें गुजर हो सकता है। इसलिए जो समय वहां की स्थिति में लगता है, वही वर्तमान काल है। प्रश्न- समय क्या वस्तु है? उत्तर- समय वह है, जिसका सम्बन्ध अनित्य पदार्थों से हो और नित्य से न हो। अनित्य पदार्थों में यह इससे पहले है और यह इसके पीछे है, इस प्रकार के ज्ञान से समय की सत्ता का बोध होता है, इसीलिए जिन पदार्थों को समय की सीमा में पाते हैं उन्हें अनित्य कहते हैं और तो समय से बाहर हैं, वे नित्य कहलाते हैं। इस प्रकार पदार्थों के अनित्य और नाशशील होने से समय तीन प्रकार का है। प्रथम वह समय जो वस्तु की उत्पत्ति से पहले का था, जिसको भूतकाल कहते हैं। दूसरा वह समय जो वस्तु की उत्पत्ति का है, जिसे वर्तमान काल कहते हैं। तीसरा वह समय जबकि वह वस्तु न रहेगी इसे भविष्य काल कहते हैं। जब कि भूत और भविष्य दोनों वर्तमान की अपेक्षा से हैं, तब वर्तमान के रहने से वे दोनों भी नहीं रह सकते। वर्तमान की सिद्धि में सूत्रकार और भी हेतु देते हैं-

सूत्र :नातीतानागतयोरितरेतरापेक्षासिद्धिः II2/1/39

सूत्र संख्या :39


अर्थ : भूत और भविष्य में परस्पर कोई सम्बन्ध और अपेक्षा नहीं है, ये दोनों वर्तमान की अपेक्षा से सिद्ध होते हैं जो वर्तमान से पहले हो चुका, वह भूतकाल है और जो उससे आगे होगा वह भविष्यकाल है। वर्तमान को छोड़ देने से भूत और भविष्य में कोई सम्बन्ध या अपेक्षा नहीं रहती, इसलिए वर्तमान के खण्डन से तीनों कालों का खण्डन हो जाता है। जबकि वादी भूत और भविष्य दोनों कालों को मानता है तो वह उनके आधार वर्तमान काल से कैसे इन्कार कर सकता है। जब वादी को या तो तीनों कालों से इन्कार करना पड़ेगा या तीनों को मानना पड़ेगा। पहली दशा में तो वह प्रतिज्ञाहानिरूप निग्रहस्थान में पड़ेगा, क्योंकि उसने आक्षेप करते समय इन्कार और भविष्य दोनों कालों में स्वीकार किया था, अब इनसे इन्कार किस तरह कर सकता हैं दूसरी दशा में आक्षेप ही निर्मल हो जाता हैं क्योंकि जिस वर्तमान काल का खण्डन किया था उसको भी स्वीकार कर लिया। वर्तमान की सिद्धि में सूत्रकाल और भी प्रमाण देते हैं।

सूत्र :वर्तमानाभावे सर्वाग्रहणम्प्रत्यक्षा-नुपपत्तेः II2/1/40

सूत्र संख्या :40


अर्थ : यदि वत्र्तमान काल को न माना जावे तो प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा से जो ज्ञान होता है, उस सब का लोप हो जावेगा। क्योंकि इन्द्रिय और अर्थ के सम्बन्ध में जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसको प्रत्यक्ष कहते हैं। जो वस्तु वत्र्तमान है, उसको इन्द्रि ग्रहण करते हैं अविद्या को नहीं। यदि यह माना जावेगा कि विद्यमान कोई वस्तु नहीं तो प्रत्यक्ष का कारण और प्रत्यक्ष होने वाली वस्तु और प्रत्यक्ष ज्ञान इन सबका विलोप हो जावेगा और प्रत्यक्ष के सिद्ध न होने से अनुमानादि प्रमाण भी जो प्रत्यक्ष से सिद्ध होते हैं, असिद्ध हो जाएंगे और फिर सब प्रमाणों के विलोप होने से पदार्थ का यथार्थ ज्ञान न हो सकेगा। इसलिए प्रत्यादि प्रमाण और उस से होने वाले ज्ञान की सिद्धि के लिए भी वत्र्तमान काल को अवश्य मानना पड़ेगा। वत्र्तमान काल कहीं तो वस्तु की सत्ता से जाना जाता है और कहीं त्रिया से अपलक्षित होता है जैसे किसी वस्तु के उपस्थित होने से उसकी सत्ता वत्र्तमान काल को बतलाती है और त्रिया में जैसे लिखता है, बोलता है, इस से भी वत्र्तमान काल में लिखना और बोलना सिद्ध होता है और त्रिया के सम्पादन में और जितने साधन हैं, उनको त्रिया सन्तान कहते हैं। जैसे लिखने के वास्ते पत्र, लेखनी और दवात आदि, ये सब त्रिया के अेग हैं। प्रश्न- वत्र्तमान काल की सीमा क्या है? उत्तर-जब तक कार्य प्रारम्भ होकर त्रिया सन्तान की प्रबत्ति रहती है अर्थात् उस कार्य के अवसान तक वत्र्तमान काल कहाता है। अब सूत्रकार भूत और भविष्य का लक्षण करते हैं।

सूत्र :कृतताकर्तव्यतोपपत्तेस्तूभयथा ग्रहणम् II2/1/41

सूत्र संख्या :41


अर्थ : जब कोई आरम्भ होकर समाप्त हो जाव, उसको भूत काल कहते हैं, उसमें चुकि त्रिया की समाप्ति हो चुकि हैं, इसलिए उसको कृता कहते हैं, जैसे कहा जावे कि ‘‘देवदत्त पुस्तक लिख चुका’’ यहां लिखना त्रिया की समाप्ति हो चुकी, इस भूतकाल को सूत्रकार ने कृतता शब्द से निर्देश किया है। जब कोई कार्य अभी आरम्भ नहीं हुआ, न कोई त्रियासन्तान ही उपयोग में लाये गये हैं किन्तु उस कार्य के आरम्भ करने का मन में संकल्प है, वह अनागत या भविष्य काल है, उसमें क्योंकि अभी त्रिया का आरम्भ नहीं हुआ, इसलिए उसको कत्र्तव्यता के शब्द से निर्देश किया है अर्थात् जो किया जायेगा, जैसे कहा जावे कि ‘‘देवदत्त पुस्तक लिखेगा’’ यहां अभी लिखना त्रिया का आरम्भ नहीं हुआ, इन दोनों के अतिरिक्त जब कोई कार्य आरम्भ तो हो गया है, परन्तु अभी समसप्त नहीं हुआ है यह न तो भूतकाल ही है न भविष्य काल, किन्तु इसको वत्र्तमान काल कहते हैं। इसको न तो कृतता के शब्द से निर्देश किया जा सकता है, न कत्र्तव्यता के, किन्तु इसे त्रियामाण शब्द से निर्देश किया जाएगा। इस त्रियामाण को न तो भूतकाल में सन्निवष्ट काल में हैं क्योकि अभी त्रिया की समाप्ति नहीं हुई और न भविष्य काल में इसकी गणना हो सकती है, क्योंकि कार्यारम्भ हो गया है। अतएव भूत और भविष्य इन दोनों से व्यतिरिक्त यह तीसरा वत्र्तमान काल है, जिसके भूत और भविष्य का मानने वाला कभी इनकार नहीं कर सकता। अनुमान की परीक्षा हो चुकी। उसी के प्रसंग में काल विवेचन भी किया गया, अब उपमान की परीक्षा आरम्भ करते हैं प्रथम सूत्र में पूर्वपक्ष का, आधय लेकर उपमान का खण्डन किया हैं-

सूत्र :अत्यन्तप्रायैकदेश-साधर्म्यादुपमानासिद्धिः II2/1/42

सूत्र संख्या :42


अर्थ : वादी कहता है, तुम जो उपमान प्रमाण मानते हो, उसकी सिद्धि नहीं हो सकती। क्योंकि उपमान के लक्षण में तुमने यह बतलाया था कि सार्धर्म्य सेसाध्य को सिद्ध करना उपमान है। अब साधर्म्य का होना तीन दशाओं में हो सकता है। प्रथम तो अत्यन्त साधम्य अर्थात् समस्त लक्षणें का मिल जाना। यह तो उपमान कहला ही नहीं सकता। जैसे कोई कहे गौ के सदृश गो होती है, इसको कोई उपमान नहीं कह सकता। दूसरे बहुत से लक्षणों के मिलने से भी उपमान नहीं होता, जैसे गौ के चार पैर हैं, भैंस के भी चार पैर हैं। गौ के सींग हैं, भैंस के भी ससींग हैं, गौ के पूँछ है, भैंस के भी पूँछ हैं। इस प्रकार अनेक धर्मों के मिलने से गौ की उपमा भैंस से नहीं दी जा सकती। तीसरे किसी एक धर्म के मिलने से भी उपमान की सिद्धि नहीं होती। क्योंकि प्रत्येक वस्तु की किसी सरी वस्तु के साथ किसी न किसी धर्म में समान्ता होती है, जैसे सरसों का दाना मूत्र्तिमान है और हिमालय पहाड़ भी मूत्र्तिमान् है, केवल मूत्र्तिमान होने से ये दोनों उपमेय और उपमान नहीं हो सकते। अतएव न तो सब धर्मों के मिलने से न अनेक धर्मों के मिलने से और न किसी एक धर्म के मिलने से उपमान की सिद्धि होती है। अतः उपमान की प्रमाण मानना ठीक नहीं। इसका उत्तर सूत्रकार देते हैं। ।।43।। उपमान के लिए प्रसिद्ध धर्मों का मिलना आवश्यक है, क्योंकि हमने उपमान के लक्षण में प्रसिद्ध साधर्म्य से साध्य को सिद्ध करना कहा था, अत्यन्त अधिक और एक धर्म की समांता को उपमान नहीं कहा, इसलिए उक्त सूत्र में कहे हुए दोष प्रसिद्ध साध्म्र्य से सिद्ध होने वाले उपमान में नहीं लग सकते। इस पर वादी फिर आक्षेप करता हैं-

सूत्र :प्रसिद्धसाधर्म्यादुपमानसिद्धेर्यथोक्तदोषानुपपत्तिः II2/1/43

सूत्र संख्या :43


अर्थ : उपमान के लिए प्रसिद्ध धर्मों का मिलना आवश्यक है, क्योंकि हमने उपमान के लक्षण में प्रसिद्ध साधर्म्य से साध्य को सिद्ध करना कहा था, अत्यन्त अधिक और एक धर्म की समांता को उपमान नहीं कहा, इसलिए उक्त सूत्र में कहे हुए दोष प्रसिद्ध साध्म्र्य से सिद्ध होने वाले उपमान में नहीं लग सकते। इस पर वादी फिर आक्षेप करता हैं-

सूत्र :प्रत्यक्षेणाप्रत्यक्षसिद्धेः II2/1/44

सूत्र संख्या :44


अर्थ : इस प्रकार से जो प्रत्यक्ष से प्रत्यक्ष का सिद्ध होना माना गया है, वह अनमान के अन्तर्गत है। जैसे धूम को प्रत्यक्ष देख कर अप्रत्यक्ष अग्नि का ज्ञान होता जाता है। ऐसे ही प्रत्यक्ष गौ को देखकर अप्रत्यक्ष नील गाय का अनमान हो सकता है। जब अनुमान और उपमान में कुछ भेद नहीं, तब अनुमान की उपस्थिति में उपमान का मानना निरर्थक है। इसका उत्तर दिया जाता है।

सूत्र :नाप्रत्यक्षे गवये प्रमाणार्थमुपमानस्य पश्यामः II2/1/45

सूत्र संख्या :45


अर्थ : वादी का यह आक्षेप निर्मल है, क्योंकि जब तक प्रमाता नील गाय को प्रत्यक्ष न देखले, जब तक केवल गाय के देखने से वह अप्रत्यक्ष नील गाय को नहीं जान सकता। किन्तु धूम को देखकर अग्नि का अनुमान करने वाला यह कह सकता है कि वहां अग्नि है इसका कारण स्पष्ट है अग्नि का परस्पर सम्बन्ध है, इसलिए धूम के देखने से अग्नि का ज्ञान हो जाता है, परन्तु ऐसा सम्बन्ध गौ और नील गाय में नहीं है कि गौ के देखने से नील गाय का ज्ञान हो जावे। इसलिए गौ के प्रत्यक्ष से नील गाय का अनुमान नहीं हो सकता, किन्तु उसको प्रत्यक्ष देखने से उसका ज्ञान होता है। अतः यह आक्षेप कि उपमान में प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष का ज्ञान होता है, ठीक नही। दूसरी बात यह हैं कि अनुमान में साध्य और साधन (अग्नि और धूम) दोनों का ज्ञान होता है, किन्तु उपमान में एक साथ दोनों की सिद्धि नहीं होती और अनुमान अपने लिए होता है और उपमान दूसरे के लिए। जैसे देवदत्त ने धूम को देखा और उसे अग्नि का ज्ञान हो गया, उपमान में जो बतलाया हैं उसे ज्ञान नहीं होता, किन्तु जिसको बतलाया जाता है, उसे ज्ञान होता है।

सूत्र :तथेत्युपसंहारादुपमानसिद्धेर्नाविशेषः II2/1/46

सूत्र संख्या :46


अर्थ : जैसा देवदत्त है, वैसा ही विष्णमित्र भी है, यह सादृश्य ज्ञान संसार में देखा जाता है, यह प्रत्यक्ष और देखा जाता है, यह प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों से सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिए इसके लिए तीसरा उपमान प्रमाण माना गया है। उपमान की परीक्षा समाप्त हुई, अब शब्द प्रमाण की परीक्षा आरम्भ की जाती है। पहले उस पर वादी आक्षेप करता है।

सूत्र :शब्दोऽनुमानमर्थ-स्यानुपलब्धेरनुमेयत्वात् II2/1/47

सूत्र संख्या :47


अर्थ : शब्द अनुमान से व्यतिरिक्त कोई प्रमाण नही हो सकता, क्योंकि जिस प्रकार अनुमेय के सम्बन्ध से भी जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह अनुमेय है। जैसे एक नियत शब्द चिन्ह धूप को देखर अग्नि का अनुमान किया जाता है वैसे ही नियत शब्द अग्नि या वहिृ को सुनकर आग काज्ञान हो जाता है। इसलिए अनुमान और शब्द में कोई भेद नहीं होता, शब्द को एक पृथक प्रमाण मानना व्यर्थ है।

व्याख्या :प्रश्न- क्या शब्द और अनुमान दो पथक पदार्थ नहीं है? उत्तर- जबकि शब्द और अनुमान से एकसा ज्ञान होता है और उसका कारण भी व्याप्ति ज्ञान एक ही है तो दोनो को एक ही प्रमाण क्यज्ञें न माना जाये। प्रश्न- क्या शब्द और अर्थ का सम्बन्ध उसी प्रकार का है, जैसस कि लिंग और लिंगी का? उत्तर- किसी अर्थ को प्रकाश करने के लिए जब कोई शब्द कहा जाता है तो वह उसी अर्थ को प्रकाश करता है जिसके लिए कहा गया है, तदतिरिक्त व तद्भिन्न अर्थ को नहीं। इसी प्रकार लिंग भी अपने लिंगी के सिवाय और किसी वस्तु को नहीं बतलाता, अतएव इन दोनों को एक ही मानना चाहिए। सूत्रकार पूर्वपक्ष की पुष्टि में दूसरा हेतु देते हैं।

सूत्र :उपलब्धेरद्विप्रवृत्तित्वात् II2/1/48

सूत्र संख्या :48


अर्थ : यदि शब्द अनुमान से भिन्न दूसरा प्रमाण होता है, तो उसकी प्रवृत्ति अनुमान से भिन्न प्रकार की होती, किन्तु इन दोनों की प्रवृत्ति एक ही प्रकार की देखने में आती है, क्योंकि जिस प्रकार प्रत्यक्ष धूप को देखकर अप्रत्यक्ष अग्नि का अनुमान होता है, ऐसे ही प्रत्यक्ष शब्द से अप्रत्यक्ष अर्थ जाना जाता है, इसलिए ज्ञान शब्द से होता है, उसको भी अनुमान ही समझना चाहिएए। इसी की पुष्टि में एक हेतु और दिया जाता है।

सूत्र :सम्बन्धाच्च II2/1/49

सूत्र संख्या :49


अर्थ : जैसा लिंग और लिंगी का सम्बन्ध अनुमान में देखा जाता है, ऐसा ही सम्बन्ध शब्द और अर्थ का भी पाया जाता है, अतएव शब्द अनुमान से भिन्न और कोई प्रमाण नहीं अब इन शंकाओं का उत्तर सूत्रकार देते हैं-

सूत्र :आप्तोपदेशसामर्थ्याच्छब्दादर्थसम्प्रत्ययः II2/1/50

सूत्र संख्या :50


अर्थ : शब्द और अनुमान एक नहीं, क्योंकि अनुमान व्यक्ति ज्ञान से प्रमाण माना जाता है और शब्द आप्तोपदेश होने से। आप्तोपदेश पर विश्वास का होना हीं शब्द प्रमाण हैं, किन्तु अनुमान में किसी के विश्वास या भरोसे से काम नहीं लिया जाता, उसमें प्रत्यक्ष का कारण लिंग और लिंगी तथा उनके सम्बन्ध का ज्ञान है। परन्तु शब्दप्रमाण में प्रत्यक्ष का कारण केवल शब्द और अर्थ का सम्बन्ध ही नहीं है, किन्तु मुख्य कारण आप्तोपदेश पर विश्वास है। इसलिए शब्दप्रमाण अनुमान के अन्तर्गत नही हो सकता। शब्द और अर्थ के संबंध को मानकर जो हेतु दिया था, अब उसका खण्डन करते हैं।

सूत्र :प्रमाणतोSनुलाब्धे II//51

सूत्र संख्या :51


अर्थ : वादी ने जो शब्द और अर्थ का सम्बन्ध बतलाया है, वह प्रमाण से सिद्ध नहीं होता, क्योंकि जिस प्रकार धुएं को देखकर वहां पर जाकर अग्नि को प्रत्यक्ष कर सकते हैं, इस प्रकार शब्द को देखकर उसके अर्थ का प्रत्यक्ष से ज्ञान नहीं हो सकता।

व्याख्या :प्रश्न- यद्यपि शब्द को देखकर उसके अर्थ का प्रत्यक्ष ज्ञान न हो, तथापि शब्द के सुनते ही उसका अर्थ ज्ञान में भाषित होने लगता है, जैसे किसी मनुष्य से यह कहा कि जाये कि ‘‘तुम्हारा पुत्र मर गया’’ इसके सुनते ही आकृति बिगड़ जाती है, इससे जाना जाता है कि शब्द और अर्थ का नियत सम्बन्ध है।? उत्तर-तुम्हारे इस कथन में शब्द और अर्थ का सम्बन्ध सिद्ध नहीं होता, क्योंकि या तो वह मानो कि शब्द के भीतर अर्थ मौजूद है या अर्थ के भीतर शब्द और जिसके पुत्र न हो, उसको यह कह देने में कि ‘‘तुम्हारा पुत्र मर गया’’ कुछ भी शोक न होगा। इसलिए जब तक यह ज्ञात न हो जाये कि शब्द और अर्थ का किस प्रकार का सम्बन्ध है शब्द अनुमान नहीं हो सकता। प्रश्न- हम शब्द और अर्थ के सम्बन्ध को ऐसा मानते हैं कि शब्द के कहते ही उस के अर्थ का ज्ञान हो जाता है। इसका खण्डन सूत्रकार करते हैं-

सूत्र :पूरणप्रदाहपाटनानुपलब्धेश्च सम्बन्धाभावः II2/1/52

सूत्र संख्या :52


अर्थ : यदि यह माना जाये कि शब्द के भीतर ही उसका अर्थ रहता है, तो जो मिसरी का नाम ले उसका मुंह मीठा हो जाना चाहिए और जो अन्न शब्द का उच्चारण करे, उसका पेट भर जाना चाहिए और अग्नि शब्द के कहते ही मुंह जल जाना चाहिए और खड़ग का नाम नाम लेते ही मुंह कट जाना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं होता, इससे जाना जाता है कि शब्द और अर्थ में ऐसा सम्बन्ध नहीं कि शब्द के कहते ही अर्थ का ज्ञान हो जाये और न ही शब्द के भीतर अर्थ रहता है। यदि यह कहा जाये कि अर्थ के अन्दर शब्द रहता है तो कण्ठादि में अर्थ के रहने का कोई स्थान नहीं, इसलिए शब्द और अर्थका सम्बन्ध मानना ठीक नहीं।

व्याख्या :प्रश्न- यदि शब्द से अर्थ का सम्बन्ध नहीं है तो शब्द के कहने से अर्थ का ज्ञान कैसे हो जाता है? उत्तर-शब्द और अर्थ का सम्बन्ध स्वाभाविक नहीं, किन्तु कल्पित या पारिभाषितक है, जिस देश के निवासियों ने जिस शब्द को अपनी भाषा में जिस अर्थ के लिए नियत कर लिया हैं, उनको उस शब्द के सुनने से उसी अर्थ का बोध होता हैं, मानो शब्द उनकी नियत की हुई परिभाषा को स्मरण करा देता है, जैसे ‘गदहा’ शब्द संस्कृत में औषधि या वैद्य का वाचक है, परन्तु हिन्दी भाषा में ‘गदहा’ खर को कहते हैं। यदि संस्कृत में इस शब्द से किसी को पुकारा जायेगा तो वह अपना गौरव समझ कर प्रसन्न होगा। परन्तु यदि किसी हिन्दी भाषी से यह शब्द कह दिया जाये तो वह केवल इसको अपनी मान-हानि ही नहीं समझोगा, अपितु लड़ाई लड़ने पर उद्यत हो जायेगा। फिर शंका करते हैं-

सूत्र :शब्दार्थव्यवस्थानादप्रतिषेधः II2/1/53

सूत्र संख्या :53


अर्थ : जो कि शब्द का अर्थ नियत है, अर्थात् जिस शब्द का जो अर्थ नियत है, उसका वही अर्थ लिया जाता है, अन्य नहीं। जिससे स्पष्ट जाना जाता है कि शब्द और अर्थ का सम्बन्ध है। यदि शब्द और अर्थ का कुछ भी सम्बन्ध न होता तो घट शब्द के कहने से केवल घड़े का बोध न होता, किन्तु अन्य पदार्थों को भी होता। अतः शब्द और अर्थ की व्यवस्थिति होने से इन दोनों का संबंध अनिवार्य है, इसका उत्तर देते हैं-

सूत्र :न सामयिकत्वा-च्छब्दार्थसम्प्रत्ययस्य II2/1/54

सूत्र संख्या :54


अर्थ : शब्द और अर्थ का सम्बन्ध स्वाभाविक नहीं, किन्तु देश कालानुसार कल्पित है अर्थात् जहां जिस शब्द के जो अर्थ लेने चाहिएं, वहां वही लिए जाते हैं। एक भाषा में एक शब्द में एक शब्द का कुछ और अर्थ है, दूसरी भाषा में उसका अर्थ बिल्कुल उसके विपरीत है। इससे विदित होता है कि शब्द से जो ज्ञान उत्पन्न होता हैं, वह भिन्न-भिन्न दशाओं में भिन्न-भिन्न प्रकार का होगा। जैसे तीर्थ शब्द पढ़ने वालों की परिभाषा में गुरू का वाचक है, वहीं पुराणों में जल स्थलमयादि स्थानों का वाचक हैं, बाम मार्गियों की बोलचाल में वहीं मद्य का पर्याय है। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि शब्द और अथ्ज्र्ञ का सम्बन्ध केवल औपचारिक है, जो मनुष्य इस नियत परिभाषा से अनभिज्ञ है, वह बार-बार उस शब्द के सुनने से भी उसके अर्थ को नहीं जान सकता। इस पर और युक्ति देते हैं-

सूत्र :जातिविशेषे चानियमात् II2/1/55

सूत्र संख्या :55


अर्थ : जो कि अति विशेष में भी इसका कोई नियम नहीं है कि अमुक शब्द अमुक अर्थ का ही वाचक होगा। सूर्यं का प्रकाश सब जातियों और व्यक्तियों प्रकृत या कालकृत कोई भेद नहीं, इस प्रकार शब्द समस्त जातियों में तो क्या एक जाति में भी समान रूप से व्यापक नहीं है। भाषा प्रवत्र्तकों ने जो परिभाषाएं नियत कर दी हैं, वे अपनी-अपनी सीमा तक प्रचलित है, उनके बाहर उनको कोई जानता भी नहीं। अतएव शब्द अर्थ का सम्बन्ध एक देशी तथा कल्पित होने से नित्य नहीं हो सकता और जब नित्य नहीं है, तो वह केवल आप्तोपदेश होने से प्रामाणिक हो सकता हैं। अब वादी शब्द की अप्रमाणिक्ता में और भी हेतु देता हैं-

सूत्र :तदप्रामाण्य-मनृतव्याघातपुनरुक्तदोषेभ्यः II2/1/56

सूत्र संख्या :56


अर्थ : अनृत (मिथ्या) व्याघात (विरोध) और पुनरूक्त (एक ही बात को बार-बार कहना) इन तीनों दोषों से युक्त होने के कारण शब्द (आप्तोदेश) अप्रमाण है। जैसे शास्त्र में लिखा है ‘‘पुत्र का चाहने वाला पुत्रेष्टि यज्ञ करे, या स्वर्ग का चाहने वाला यज्ञ करे। ’’बहुत से मनुष्य पुत्रेष्टि करने पर भी पुत्रवान नहीं होते, इसी प्रकार यज्ञ से स्वर्ग की प्राप्ति भी संदिग्ध है, बहुत से मनुष्य नित्य यज्ञ करते हैं, जब उनको यहीं पर स्वर्ग नहीं मिलता तब परलोक में स्वर्गंप्राप्ति कल्पित ही समझनी चाहिए। कहीं पर लिखा है कि सूर्योंदय के पहले हवन करना चाहिए, कहीं सूर्यांदय के पश्चात् हवन करना लिखा है इस प्रकार शास्त्रों में परस्पर विरोध भी पाया जाता है। और पुनरूक्ति दोष (एक ही बात को बार-बार कहना तो प्राचीन ग्रंथों में भरा पड़ा है, जो ग्रंथ जितना प्राचीन है उतना ही उसमें पुनरूक्ति दोष अधिकता से विद्यमान है। शब्द में प्रायः ये तीन दोष पाये जाते हैं, इसलिए वह प्रमाण नहीं हो सकता। अगले सूत्र में त्रम से इनका उत्तर दिया गया है। प्रथम अनृत दोष का परिहार करते हैं।

सूत्र :न कर्मकर्तृसाधनवैगुण्यात् II2/1/57

सूत्र संख्या :57


अर्थ : वादी ने जो शब्दप्रमाण के खण्डन में अनृत (मिथ्यावाद) का दोष आरोपित किया है, वह ठीक नहीं, क्योंकि कर्म का फल केवल उपदेश पर अवलम्बित नहीं है, किन्तु कर्म, कर्ता और साधन इन तीनों से उसका सम्बन्ध है। यदि इन तीनों में से कोई विगुण (अनुपयोगी) होगा तो निर्दिष्ट फल सिद्धि में अवश्य भेद पड़ेगा। जसे किसी रोग के लिए कोई औषधि है, वैद्य ने उसका ठीक निदान न कर सकने से दूसरी औषधि देदी और उसमे रोग दूर न हुआ या या और बढ़ गया तो इसमें औषधि का क्या दोष है? इसी प्रकार जिस रीति से या जिन साधनों से औषधि का प्रयोग उस रोग में होना चाहिए, उस प्रकार नहीं किया गया, तब भी औषधि को या उसके प्रयोग को निष्फल नहीं कहा जा सकता। यही दशा पुत्रेष्टि यज्ञ की भी हो सकती है अर्थात् यज्ञकर्ताओं। के दोष से अथवा यथासमय और यथाविधि यज्ञ के न होने से पुत्रोत्पत्ति न होने पर वेद का उपदेश मिथ्या नही हो सकता।

व्याख्या :प्रश्न- यदि उपदेष्टा ठीक-ठीक उपदेश करे तो उसके अनुसारकाम करने वाला अवश्य कृतकार्य होना चाहिए। यदि उपदेशानुसार काम करने पर भी यथोक्त फलसिद्धि नहीं होती तो उपदेश अवश्य मिथ्या है। उत्तर- प्रत्येक काम ज्ञान और त्रिया दो बातों से सम्बन्ध रखता है, जब तक ये दोनों ठीक और एक-दूसरे के अनुकूल न हों तब तक अभीष्ट फल की सिद्धि नहीं हो सकती। यदि ज्ञान में त्रुटि है तो कर्म ठीक हो ही नहीं सकता, यदि कर्म में त्रुटि रह जाये तो केवल ज्ञान से दृष्टार्थ की सिद्धि नहीं होगी। यही कारण है कि प्रायः वैज्ञानिक कर्म सर्वसाधरण की समझ में नहीं आते, इसलिए आप्तोक्त शब्द में मिथ्यावाद का दोष लगाना ठीक नहीं। अब व्याघात दोष का परिहार करते हैं-

सूत्र :अभ्युपेत्य कालभेदे दोषवचनात् II2/1/58

सूत्र संख्या :58


अर्थ : जो दृष्टांत व्याघात दोष के लिए दिया गया है, वह भी ठीक नहीं, क्योंकि वहां काल का भेद है। अग्निहोत्र के दो काल हैं प्रातः काल का अग्निहोत्र सूर्योदय से पहले किया जाता है और सायंकाल का अग्निहोत्र सूर्यास्त से पहले होना चाहिए। यदि एक काल के विषय में दो भिन्न-भिन्न सम्पति हों तो अर्थात् कहीं प्रातःकाल का अग्निहोत्र सूर्योदय से पहले बतलाया गया होना और कहीं पश्चात् तो व्याघात (परस्पर विरोध) हो सकता था किन्तु दो भिन्न-भिन्न कालों के विषय में दो सम्पतियों का होना व्याघात नहीं हैअब पुनरूक्ति का परिहार करते हैं।

सूत्र :अनुवादोपपत्तेश्च II2/1/59

सूत्र संख्या :59


अर्थ : जहाँ किसी प्रयोजन से एक बात दो बार कही ताये, वहां पुनरूक्ति दोष नहीं होता, किन्तु वह अनुवाद कहलाता है। अनुवाद किसी प्रयोजन से किया जाता है, इसलिए वह दोष नहीं। वेदों में जहां किसी मन्त्र या उसके किसी पद को दो बार या कई बार उच्चारण किया गया है, साधारण लोगों को चाहे उसमें पुनरूक्ति का भ्रम हो किन्तु सप्रयोजन होने से अर्थज्ञ लोगों की दृष्टि में वह अनुवाद है। अनुवाद के प्रमाण होने में दूसरा हेतु देते हैं।

सूत्र :वाक्यविभागस्य चार्थ-ग्रहणात् II2/1/60

सूत्र संख्या :60


अर्थ : विद्वानों ने जो वाक्य के वक्ष्यमाण तीन-तीन विभाग किये हैं, उनमें भी अनुवाद की सार्थकता सिद्ध होती है। वे विभाग निम्नलिखित हैं-

सूत्र :विध्यर्थवादानुवादवचनविनियोगात् II2/1/61

सूत्र संख्या :61


अर्थ : आप्तोपदेश में तीन प्रकार के वाक्य होते हैं, जिनके नाम ये हैं, (1) विधि वाक्य (2) अर्थवाद वाक्य (3) अनुवाद वाक्य। इनके लक्षण आगे सूत्रकार खुद करते हैं-

सूत्र :विधिर्विधायकः II2/1/62

सूत्र संख्या :62


अर्थ : जिस वाक्य में किसी काम के करने की प्रेरणा व आज्ञा पाई जाये, उसे विधिवाक्य कहते हैं, जैसे कहा जाये कि यज्ञ करो, दान दो, विद्या पढ़ो इत्यादि इसका नाम विधि है।

व्याख्या :प्रश्न-क्या विधि में करने का ही उपदेश होता है या छोड़ने का भी, क्योंकि प्रायः शास्त्रों में झूठ मत बोलो, हिंसा मत करो, इत्यादि निषेधमुख वाक्य भी देखे जाते हैं। उत्तर- विधि दो प्रकार का है, एक उपादेय का ग्रहण दूसरे हेय का त्याग। इसलिए निषेध के तात्पर्य को भी विधि के अन्तर्गत मान कर यहां उसका पृथक ग्रहण नहीं किया, क्योंकि ये दोनों चाहे कहने में भिन्न-भिन्न मालूम हों, परन्तु तात्पर्यइनका एक ही है, जो प्रयोजन सच बोलने का है, वही झूठ न बोलने का भी है। अब अर्थवाद का लक्षण कहते हैं-

सूत्र :स्तुतिर्निन्दा परकृतिः पुराकल्प इत्यर्थवादः II2/1/63

सूत्र संख्या :63


अर्थ : अर्थवाद चार प्रकार का होता है, जिनके नाम ये हैं- (1)स्तुति (2) निदा (3) परकृति (4) पुराकल्प।

व्याख्या :प्रश्न- स्तुति किसे कहते हैं? उत्तर-स्तुति उसको कहते हं कि जिस वाक्य के सूनन से श्रोता के हृदय में उस काम के लिए प्रीति और श्रद्धा उत्पन्न हो जाये, जैसे कहा जाये कि जो विद्या पढ़ता है, वह यशस्वी होता है, शत्रु भी उसका आदर करते हैं इसलिए मनुष्य को विद्या पढ़नी चाहिए। प्रश्न- निदा किसे कहते हैं? उत्तर- निन्दा उसे कहते हैं कि जो बुरे काम के दोष और उसके अनिष्ट परिणामों को वर्ण करके श्रोता को उस काम से विमुख औ निवृत्त कर देना। यथाः जो मूर्ख रहता है, उसकी बड़ी दुर्गती होती है, उसके अपने भी उसकी तरफ आंख उठा कर नहीं देखते। इसलिए मनुष्य को मुर्ख कभी न रहना चाहिउ। प्रश्न- परकृति किसे कहते हैं? उत्तर- दूसरों के किए हुए अच्छे या बुरेकर्मों का दृष्टान्त देकर और उनकी स्तुति एंव निदा करके अच्छे कर्म में प्रवृत्ति दिलाना और बुरे कर्म से हटाना प्रकृति कहलाती है। जैसे किसी ने कहा कि राजा युधिष्ठिर सच बोलने के कारण परम धर्मात्मा थे, किन्तु एक बार झूठ बोलने से थोड़ा देर के लिए उनको नरक में जाना पड़ा। प्रश्न- पुराकल्प किसे कहते हैं? उत्तर-जिन कामों या उपदेशों को प्राचीन काल के विद्वानों ने किया या कहा हो या जो शिष्ट परम्परा हो, उसकी इतिहास और शास्त्रों से निश्चय करक तदनुसार आचरण करना पुराकल्प कहलाता हैं, जैसे कहा जाये कि इसीलिये पहले ब्राह्यणों ने विद्या पढ़ना अपना धर्म समझा था कि बिना उसके और किसी उपाय से भी आत्मा की शान्ति नहीं हो सकती। अब तीसरे अनुवाद का लक्षण कहते हैं।

सूत्र :विधिविहितस्यानुवचनमनुवादः II2/1/64

सूत्र संख्या :64


अर्थ : जो बात एक बार कहदी गई, उसका पुनः कहना अनुवचन अनुवाद कहलाता है। अनुवाद दो प्रकार का है (1) शब्दानुवाद दूसरा अर्थानुवाद। जहां विधि का अनुवाद किया जाये वह शब्दानुवाद है और जहां विहित का अनुवाद हो, उसे अर्थनुवाद कहते हैं।

व्याख्या :जिस प्रकार वेद में तीन प्रकार के वाकय हैं, ऐसे ही लोक में भी तीन प्रकार के वाक्य देखने में आते हैं। जैसे कोई स्वामी अपने भृत्य से कहे कि सात्विक करके भोजन बनाओ’’ यह विधि वाक्य है। यदि कहा जाये कि साहित्य भोजन से आयु, तेज, स्वास्थ्य और स्मरण शक्ति बढ़ती है’’ तो यह वाक्य अर्थवाद कहलाएगा। यदि स्वामी भृत्य से कहे कि ‘‘पकाओ, पकाओ’’ अर्थात् शीघ्र पकाओ, और सब काम छोड़कर पहले यह काम करो, यह अनुवाद है। जहां किसी शब्द या वाक्य के बार-बार कहने से कोई अर्थ निकलता है, वह अनुवाद है और जहां निरर्थक बार-बार उन्हीं शब्दों या वाक्यों का उच्चारण किया जाता हैं, उसको पुनरूक्ति कहते हैं, बस यही इन दोनों में में भेद है, कि वादी फिर आक्षेप करता हैं-

सूत्र :नानुवादपुनरुक्तयोर्विशेषः शब्दाभ्यासोपपत्तेः II2/1/65

सूत्र संख्या :65


अर्थ : अनुवाद और पुनरूक्ति में कोई विशेष भेद नहीं दीखता, क्योंकि अभ्यास (पुनः पुनः शब्दों की आवृत्ति) दोनों में बराबर पाई जाती है। असलिए अनुवाद को पुनरूक्ति से पृथक् ठहरा कर प्रमाण मानना ठीक नहीं। इसका उत्तर देते हैं-

सूत्र :शीघ्रतर-गमनोपदेशवदभ्यासान्नाविशेषः II2/1/66

सूत्र संख्या :66


अर्थ : यद्यपि शब्दों की पुनः पुनः आवृत्ति दोनों में बराबर है, तथापि अनुवाद और पुनरूक्ति में बहुत अन्तर है, क्योंकि शब्द या वाक्य किसी अर्थ को प्रकाश करने के लिए कहा जाता है सो अनुवाद में तो उसके कथन की सार्थकता है, पुनरूक्ति में नहीं। जैसे कोई कहता है कि ‘‘जाओ जाओ’’ यहां दो बार कहने का स्पष्ट अर्थ यह है कि ‘‘शीघ्र जाओ’’ इसी प्रकार यदि किसी पुस्तक में किसी विशेष अर्थ की प्रतिपत्ति के लिए कोई शब्द या वाक्य दो बार या कई बार उच्चारण किया गया है तो वह विशेष अर्थ का प्रकाशक होने से पुनरूक्त नहीं कहलायेगा और प्रमाण माना जाएगा। हां जिस पुस्तक में निरर्थक एक ही बात बार-बार कही गई हो और उससे किसी विशेष अर्थ की प्रतिपत्ति नहीं होती वह पुनरूक्त कहलायेगी।

व्याख्या :प्रश्न- कई मन्त्र ऐसे हैं कि जो चारों वेदों में बराबर आते हैं और कई ऐसे भी हैं कि जो एक ही वेद में कर्द बार आते हैं इसलिए पुनरूक्ति दोष होने से वेद अप्रमाण है। उत्तर- प्रथम तो चारों वेदों के प्रकरणा और उद्देश्य अलग- अलग हैं, अपने-अपने प्रकरण और उद्देश्य के अनुसार वे मंत्र अपने-अपने अर्थ और अभिधेय को प्रकाश करते हैं दूसरे वेदों में स्वरभेद भी अर्थभेद का कारण है, एक ही शब्द या पद स्वरभेद के कारण भिन्न-भिन्न अर्थों का वावाचक हो जाता है। पतंजलि ने अपने महाभाष्य में ‘इन्द्रशत्रु शब्द का उदाहरण दिया हैं, जो केवल स्वरभेद होने से भिन्न-भिन्न अर्थों को प्रकाश करता है। इसलिए वेदों में पुनरूक्ति की सम्भावना नहीं हो सकती। पुनः इसी अर्थ की पुष्टि करते हैं-

सूत्र :मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्यवच्च तत्प्रामाण्य- माप्तप्रामाण्यात् II2/1/67

सूत्र संख्या :67


अर्थ : मन्त्र जो वेद संहिता है, वह आयुर्वेंद अर्थात् वैद्यक शास्त्र के तल्यप्रमाण है जिस प्रकार औषधियों के प्रयोग में उक्त तीनों दोष मालूम इस सूत्र का अर्थ जो श्री स्वामी दर्शनान्द सरस्वती जी ने किया, हम उससे सहमत नहीं है। कारण यह है कि सुत्र में शब्द प्रमाण तो जिसमें मुख्य आप्तोक्त होने से सब भाष्यकारों ने वेद का ही ग्रहण किया है, साध्य है ‘आप्तप्रामाण्यात्’ आप्तोक्त होना यह हेतु है, जिसको अपने उत्तर में स्वामी जी भी स्वीकार करते हैं, ‘मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्यवत्’ मंत्र और आयुर्वेद इन तीनों के प्रमाण के समान ये दो दृष्टान्त हैं अर्थात् जिस प्रकार मन्त्र या आयुर्वेद का प्रमाण सिद्ध किया है उसी प्रकार शब्द का भी, जिसको ‘तद्’ शब्द में परामर्श किया है और जिसमें वेद मुख्य हैं, प्रमाण मानना चाहिए। स्वामी जी मन्त्र शब्द से वेद का ग्रहण करते हुए उसको साध्य मान कर आयुर्वेद का दृष्टान्त देते हैं, जो कि सर्वथा सूत्र के आशय और भाष्यकारों की सम्मति के विरूद्ध है। क्योंकि जब वेद तो शब्द प्रमाण के अन्तर्गत होने से साध्य था ही और स्वामी जी भी इससे पिछले सूत्रों में उसका साध्य होना स्पष्ट स्वीकार कर चुके हैं, तब उसी साध्य की सिद्धि में उसी का दृष्टान्त देना अपने कंधे पर आप चढ़ना है।

व्याख्या :इसलिए मन्त्र शब्द का जो यहां पर दृष्टान्त में दिया गया है, वेद संहिता अर्थ करना किसी तरह ठीक नहीं हो सकता। मालूम होता है स्वामी जी ने बिच्छू, सांप और भूतों से घबराकर ऐसा अर्थ किया है, यद्यपी सद्विचार और सदुपयोग से (जो मन्त्र शब्द का वाच्यार्थ है) इनका निराकरण भी हो सकता है, तथापि स्वामी जी को यह अमन्तव्य ही था, तो मन्त्र शब्द के और भी बहुत से अर्थ हो सकते थे, जैसाकि पं0 तुलसीराम जी स्वामी ने अपने न्यायदर्शन के अनुवाद में मन्त्र शब्द का अर्थ जप किया है और जप या अभयास के होते हैं, किन्तु आयुर्वेद को अप्रमाण नहीं कह सकते। जैसे एक वैद्य ने किसी रोगी को कोई औषधि दी और उससे उसका रोग दूर न हुआ तो इससे उस औषधि का प्रभाव नहीं बदल जाता किन्तु दो कारणों का अनुमान किया जाता है। या तो औषधि बनाने वाले ने उसको ठीक रीति पर नहीं बनाया, या चिकित्सक की भूल है, वह उसका अन्यथा प्रयोग करता है। इसी प्रकार वेद का प्रमाण है, जहां कहीं वेद के अर्थ या त्रिया में कुछ सन्देह या भेद सा मालूम पड़ता है, वहां या तो कत्र्ता में कोई दोष है, या उस कर्म में, या उसके साधनों में । प्रश्न- कोई-कोई इस सूत्र में आये मन्त्र शब्द का अर्थ भूत और बिच्छू आदि के झाड़ने का करते हैं, क्या वह ठीक नहीं और तुमने जो मन्त्र का अर्थ ‘वेद’ किया है इसमें क्या प्रमाण है? उत्तर- भूत आदि भोले या डरपोक मनुष्यों की कल्पनाएं है और बिच्छू आदि की चिकित्सा भी केवल शब्द से नहीं हो सकती, प्रायः इसमें छल कियाजाता हैं, इसलिए मन्त्र शब्द से यह तापर्य लेना ठीक नहीं, क्रूोंकि कात्यायन आदि ऋषियों ने नाम वेद का माना है। प्रश्न- वेद जबकि साध्य हैं तब उन्हीं को प्रमाण मानकर हेतु में रखना साध्यसम हेत्वाभास हैं, क्योकि साध्य वस्तु का न तो प्रमाण ही हो सकता है और न उसका दृष्टांत ही दिया जा सकता है। उत्तर- ऋषि ने वेद को हेतु या दृष्टांत में नहीं रखा है, किन्तु आयुर्वेद को दृष्टांत में रख कर साध्य वेद को प्रमाण सिद्ध किया हैं और सर्वज्ञ का उपदेश होना यह हेतु दिया है। प्रश्न- प्रकरण तो शब्द प्रमाण का था, उसमें वेद का प्रसंग क्यो छेड़ दिया? स्मृति रूप फल से कोई इन्कार नहीं कर सकता। तथा पं0 आर्यमुनि जी प्रोफेसर डी0ए0वी0 कालेज लाहौर ने इसी सूत्र में मन्त्र शब्द का अर्थ सत्य विचार का किया है, शुद्ध विचार का फल भी सर्व-सम्मत है। - अनुवादक उत्तर-ऋषि वेद को मन्त्र कहने का आशय भी यही है कि मन्त्र तो आयुर्वेद के समान स्वतः प्रमाण है, जिस प्रकार किसी औषधि के प्रभाव को सिद्ध करने के लिए सिवाय उस औषधि को किसी दूसरे प्रमाण की आवश्यकता नहीं, इसी प्रकार वेद का प्रप्रमाण तो स्वयंमेव हैं, शेष शब्द मात्र का प्रमाण वक्ता या लेखक की योग्यता पर निर्भर है। यदि वक्ता आप्त हैं, तो उसकी उक्ति प्रमाण होगी और यदि अनाप्त होगा तो अप्रमाण। न्यायदर्शन के दूसरे अध्याय का पहला आन्हिक समाप्त।




Post a Comment

0 Comments

Ad Code