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महाभारत आदिपर्व सप्तत्रिंशोऽध्यायः माताके शापसे बचनेके लिये वासुकि आदि नागोंका परस्पर परामर्श


सप्तत्रिंशोऽध्यायः 

माताके शापसे बचनेके लिये वासुकि आदि नागोंका परस्पर परामर्श

सौतिरुवाच 

मातुः सकाशात् तं शापं श्रुत्वा वै पन्नगोत्तमः । 

वासुकिश्चिन्तयामास शापोऽयं न भवेत् कथम् ।।१॥

उग्रश्रवाजी कहते हैं-शौनक! माता कद्रूसे नागोंके लिये वह शाप प्राप्त हुआ सुनकर नागराज वासुकिको बड़ी चिन्ता हुई। वे सोचने लगे 'किस प्रकार यह शाप दूर हो सकता है' ।।१।।


ततः स मन्त्रयामास भ्रातृभिः सह सर्वशः । 

ऐरावतप्रभृतिभिः सर्वधर्मपरायणः ।। २॥


तदनन्तर उन्होंने ऐरावत आदि सर्वधर्मपरायण बन्धुओंके साथ उस शापके विषयमें विचार किया ।। २ ।।


वासुकिरुवाच अयं शापो यथोद्दिष्टो विदितं वस्तथानघाः । 

तस्य शापस्य मोक्षार्थ मन्त्रयित्वा यतामहे ।।३।। 

सर्वेषामेव शापानां प्रतिघातो हि विद्यते । 

न तु मात्राभिशप्तानां मोक्षः क्वचन विद्यते ।।४।।


वासुकि बोले-निष्पाप नागगण! माताने हमें जिस प्रकार यह शाप दिया है, वह सब आपलोगोंको विदित ही है। उस शापसे छूटनेके लिये क्या उपाय हो सकता है? इसके विषयमें सलाह करके हम सब लोगोंको उसके लिये प्रयत्न करना चाहिये। सब शापोंका प्रतीकार सम्भव है, परंतु जो माताके शापसे ग्रस्त हैं, उनके छूटनेका कोई उपाय नहीं है।। ३-४ ।।


अव्ययस्याप्रमेयस्य सत्यस्य च तथाग्रतः। 

शप्ता इत्येव मे श्रुत्वा जायते हृदि वेपथुः ॥५॥


अविनाशी, अप्रमेय तथा सत्यस्वरूप ब्रह्माजीके आगे माताने हमें शाप दिया है-यह सुनकर ही हमारे हृदयमें कम्प छा जाता है ।। ५ ॥


नूनं सर्वविनाशोऽयमस्माकं समुपागतः । 

न ह्येतां सोऽव्ययो देवः शपन्ती प्रत्यषेधयत् ।। ६॥


निश्चय ही यह हमारे सर्वनाशका समय आ गया है, क्योंकि अविनाशी देव भगवान् ब्रह्माने भी शाप देते समय माताको मना नहीं किया ।। ६ ।।

तस्मात् सम्मन्त्रयामोऽद्य भुजङ्गानामनामयम्। 
यथा भवेद्धि सर्वेषां मानः कालोऽत्यगादयम् ॥ ७॥ 
सर्व एव हि नस्तावद् बुद्धिमन्तो विचक्षणाः। 
अपि मन्त्रयमाणा हि हेतुं पश्याम मोक्षणे ॥८॥ 
यथा नष्टं पुरा देवा गुढमग्निं गुहागतम् ।

इसलिये आज हमें अच्छी तरह विचार कर लेना चाहिये कि किस उपायसे हम सभी नाग कुशलपूर्वक रह सकते हैं। अब हमें व्यर्थ समय नहीं गँवाना चाहिये। हमलोगोंमें प्रायः सब नाग बुद्धिमान् और चतुर हैं। यदि हम मिल-जुलकर सलाह करें तो इस संकटसे छूटनेका कोई उपाय ढूँढ निकालेंगे; जैसे पूर्वकालमें देवताओंने गुफामें छिपे हुए अग्निको खोज निकाला था ।। ७-८३ ॥

यथा स यज्ञो न भवेद् यथा वापि पराभवः । 
जनमेजयस्य सर्पाणां विनाशकरणाय वै ।।९।।

सांपोंके विनाशके लिये आरम्भ होनेवाला जनमेजयका यज्ञ जिस प्रकार टल जाय अथवा जिस तरह उसमें विघ्न पड़ जाय, वह उपाय हमें सोचना चाहिये ।। ९ ।।

सौतिरुवाच 

तथेत्युक्त्वा ततः सर्वे काद्रवेयाः समागताः । 
समयं चक्रिरे तत्र मन्त्रबुद्धिविशारदाः ।। १०।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-शौनक! वहाँ एकत्र हुए सभी कद्रूपुत्र 'बहुत अच्छा' कहकर एक निश्चयपर पहुँच गये, क्योंकि वे नीतिका निश्चय करनेमें निपुण थे ।। १० ।।

एके तत्राब्रुवन् नागा वयं भूत्वा द्विजर्षभाः। 
जनमेजयं तु भिक्षामो यज्ञस्ते न भवेदिति ।। ११ ॥

उस समय वहाँ कुछ नागोंने कहा-'हमलोग श्रेष्ठ ब्राह्मण बनकर जनमेजयसे यह । भिक्षा माँगें कि तुम्हारा यज्ञ न हो' ।। ११ ।।

अपरे त्वब्रुवन् नागास्तत्र पण्डितमानिनः । 
मन्त्रिणोउस्य वयं सर्वे भविष्यामः सुसम्मताः ।। १२ ॥

अपनेको बड़ा भारी पण्डित माननेवाले दूसरे नागोंने कहा-'हम सब लोग। जनमेजयके विश्वासपात्र मन्त्री बन जायँगे ।। १२ ।।

स नः प्रक्ष्यति सर्वेषु कार्येष्वर्थविनिश्चयम्। 
तत्र बुद्धिं प्रदास्यामो यथा यज्ञो निवत्य॑ति ।। १३ ॥


__ "फिर वे सभी कार्यों में अभीष्ट प्रयोजनका निश्चय करनेके लिये हमसे सलाह पूछेगे। उस समय हम उन्हें ऐसी बुद्धि देंगे, जिससे यज्ञ होगा ही नहीं ।।१३।।


स नो बहुमतान् राजा बुद्धया बुद्धिमतां वरः । 

यज्ञार्थं प्रक्ष्यति व्यक्तं नेति वक्ष्यामहे वयम् ।। १४ ।। 


'हम वहाँ बहुत विश्वस्त एवं सम्मानित होकर रहेंगे। अतः बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ राजा जनमेजय यज्ञके विषयमें हमारी सम्मति जाननेके लिये अवश्य पूछेगे। उस समय हम स्पष्ट कह देंगे-'यज्ञ न करो' ॥ १४ ॥


दर्शयन्तो बहून दोषान् प्रेत्य चेह च दारुणान् । 

हेतुभिः कारणेश्चैव यथा यज्ञो भवेन सः ।। १५ ।। 


'हम युक्तियों और कारणोंद्वारा यह दिखायेंगे कि उस यज्ञसे इहलोक और परलोकमें अनेक भयंकर दोष प्राप्त होंगे; इससे वह यज्ञ होगा ही नहीं ॥१५॥


अथवा य उपाध्यायः क्रतोस्तस्य भविष्यति । 

सर्पसत्रविधानज्ञो राजकार्यहिते रतः ।। १६ ।। 

तं गत्वा दशतां कश्चिद् भुजङ्गः समरिष्यति । 

तस्मिन् मृते यज्ञकारे क्रतुः स न भविष्यति ।। १७ ॥


'अथवा जो उस यज्ञके आचार्य होंगे, जिन्हें सर्पयज्ञकी विधिका ज्ञान हो और जो राजाके कार्य एवं हितमें लगे रहते हों, उन्हें कोई सर्प जाकर डॅस ले। फिर वे मर जायेंगे। यज्ञ करानेवाले आचार्यके मर जानेपर वह यज्ञ अपने-आप बंद हो जायगा ।। १६-१७ ।।


ये चान्ये सर्पसत्रज्ञा भविष्यन्त्यस्य चर्विजः । 

तांश्च सर्वान्दशिष्यामः कृतमेवं भविष्यति ।। १८ ॥


'आचार्यके सिवा दूसरे जो-जो ब्राह्मण सर्पयज्ञकी विधिको जानते होंगे और जनमेजयके यज्ञमें ऋत्विज बननेवाले होंगे, उन सबको हम डॅस लेंगे। इस प्रकार सारा काम बन जायगा' ।। १८ ॥


अपरे त्वब्रुवन् नागा धर्मात्मानो दयालवः । 

अबुद्धिरेषा भवतां ब्रह्महत्या न शोभनम् ।।१९।।


यह सुनकर दूसरे धर्मात्मा और दयालु नागोंने कहा-'ऐसा सोचना तुम्हारी मूर्खता है। ब्रह्म-हत्या कभी शुभकारक नहीं हो सकती ।। १९ ।।


सम्यक्सद्धर्ममूला वै व्यसने शान्तिरुत्तमा। 

अधर्मोत्तरता नाम कृत्स्नं व्यापादयेज्जगत् ।। २०॥


"आपत्तिकालमें शान्तिके लिये वही उपाय उत्तम माना गया है जो भलीभाँति श्रेष्ठ धर्मके अनुकूल किया गया हो। संकटसे बचनेके लिये उत्तरोत्तर अधर्म करनेकी प्रवृत्ति तो सम्पूर्ण जगत्का नाश कर डालेगी ॥२०॥


अपरे त्वब्रुवन् नागाः समिद्धं जातवेदसम् ।

वर्षेर्निर्वापयिष्यामो मेघा भूत्वा सविधुतः ।। २१ ॥

इसपर दूसरे नाग बोल उठे-'जिस समय सर्पयज्ञके लिये अग्नि प्रज्वलित होगी, उस समय हम बिजलियोसहित मेघ बनकर पानीकी वर्षाद्वारा उसे बुझा देंगे ।। २१ ।।

सुग्भाण्डं निशिगत्वा च अपरे भुजगोत्तमाः। 
प्रमत्तानां हरन्त्वाशु विघ्न एवं भविष्यति ।। २२ ।।

'दूसरे श्रेष्ठ नाग रातमें वहाँ जाकर असावधानीसे सोये हुए ऋत्विजोंके सुक्, सुवा और यज्ञपात्र आदि शीघ्र चुरा लावें। इस प्रकार उसमें विघ्न पड़ जायगा ।। २२ ।।

यज्ञे वा भुजगास्तस्मिञ्छतशोऽथ सहस्रशः। 
जनान् दशन्तु वे सर्वे नैवं त्रासो भविष्यति ।। २३ ॥


'अथवा उस यज्ञमें सभी सर्प जाकर सैकड़ों और हजारों मनुष्योंको डंस लें; ऐसा करनेसे हमारे लिये भय नहीं रहेगा ।। २३ ॥

अथवा संस्कृतं भोज्यं दूषयन्तु भुजङ्गमाः। 
स्वेन मूत्रपुरीषेण सर्वभोज्यविनाशिना ।। २४ ।।

'अथवा सर्पगण उस यज्ञके संस्कारयुक्त भोज्य पदार्थको अपने मल-मूत्रोंद्वारा, जो सब प्रकारकी भोजन-सामग्रीका विनाश करनेवाले हैं, दूषित कर दें ।। २४ ।।

अपरे त्वब्रुवंस्तत्र ऋत्विजोऽस्य भवामहे । 
यज्ञविघ्नं करिष्यामो दीयतां दक्षिणा इति ॥ २५ ॥ 
वश्यतां च गतोऽसीनः करिष्यति यथेप्सितम्।

इसके बाद अन्य सांपोंने कहा-'हम उस यज्ञमें ऋत्विज् हो जायेंगे और यह कहकर कि 'हमें मुंहमांगी दक्षिणा दो' यज्ञमें विघ्न खड़ा कर देंगे। उस समय राजा हमारे वशमें पड़कर जैसी हमारी इच्छा होगी, वैसा करेंगे' || २५।।

अपरे त्वब्रुवंस्तत्र जले प्रक्रीडितं नृपम् ।। २६ ।। 
गृहमानीय बनीमः क्रतुरेवं भवेन सः ।

फिर अन्य नाग बोले-'जब राजा जनमेजय जल-क्रीडा करते हों, उस समय उन्हें वहाँसे खींचकर हम अपने घर ले आवें और बाँधकर रख लें। ऐसा करनेसे वह यज्ञ होगा ही नहीं'-||२६ ॥

अपरे त्वब्रुवंस्तत्र नागाः पण्डितमानिनः ।। २७॥ 
दशामस्तं प्रगृह्याशु कृतमेवं भविष्यति । 
छिन्नं मूलमनर्थानां मृते तस्मिन् भविष्यति ॥ २८ ॥

इसपर अपनेको पण्डित माननेवाले दूसरे नाग बोल उठे-'हम जनमेजयको पकड़कर डॅस लेंगे।' ऐसा करनेसे तुरंत ही सब काम बन जायेगा। उस राजाके मरनेपर हमारे लिये अनर्थोकी जड़ ही कट जायगी ।। २७-२८ ।।

एषा नो नैष्ठिकी बुद्धिः सर्वेषामीक्षणश्रवः ।
अथ यन्मन्यसे राजन् द्रुतं तत् संविधीयताम् ।। २९ ।। 

'नेत्रोंसे सुननेवाले नागराज! हम सब लोगोंकी बुद्धि तो इसी निश्चयपर पहुंची है। अब आप जैसा ठीक समझते हों, वैसा शीघ्र करें ।।२९ ।।

इत्युक्त्वा समुदेक्षन्त वासुकिं पन्नगोत्तमम् । 

वासुकिश्चापि संचिन्त्य तानुवाच भुजङ्गमान् ।। ३०॥


यह कहकर वे सर्प नागराज वासुकिकी ओर देखने लगे। तब वासुकिने भी खूब सोचविचारकर उन सांपोसे कहा-।।३०।।


नेषा बो नैष्ठिकी बुद्धिमता कर्तुं भुजङ्गमाः । 

सर्वेषामेव में बुद्धिः पन्नगानां न रोचते ।।३१।।


'नागगण! तुम्हारी बुद्धिने जो निश्चय किया है, वह व्यवहारमें लानेयोग्य नहीं है। इसी प्रकार मेरा विचार भी सब सोको जॅच जाय, यह सम्भव नहीं है ॥३१॥


किं तत्र संविधातव्यं भवतां स्याद्धितं तु यत् । 

श्रेयःप्रसाधनं मन्ये कश्यपस्य महात्मनः ।। ३२ ।।


'ऐसी दशामें क्या करना चाहिये, जो तुम्हारे लिये हितकर हो। मुझे तो महात्मा कश्यपजीको प्रसन्न करने में ही अपना कल्याण जान पड़ता है ।। ३२ ॥


ज्ञातिवर्गस्य सौहार्दादात्मनश्च भुजङ्गमाः। 

नच जानाति मे बुद्धिः किंचित् कर्तुं वचो हिवः ।। ३३ ।।


"भुजंगमो! अपने जाति-भाइयोंके और अपने हितको दृष्टिमें रखकर तुम्हारे कथनानुसार कोई भी कार्य करना मेरी समझमें नहीं आया ॥३३॥


मया हीदं विधातव्यं भवतां यद्धितं भवेत् । 

अनेनाहं भृशं तप्ये गुणदोषी मदाश्रयो ।। ३४ ।।


'मुझे वही काम करना है, जिसमें तुम-लोगोंका वास्तविक हित हो। इसीलिये मैं अधिक चिन्तित हूँ क्योंकि तुम सबमें बड़ा होनेके कारण गुण और दोषका सारा उत्तरदायित्व मुझपर ही है' ।। ३४ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि वासुक्यादिमन्त्रणे सप्तत्रिंशोऽध्यायः।।३७॥ 

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें वासुकि आदि नागोंकी मन्त्रणा नामक सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।। ३७ ।।


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