षत्रिंशोऽध्यायः शेषनागकी तपस्या, ब्रह्माजीसे वर-प्राप्ति तथा पृथ्वीको
सिरपर धारण करना
शौनक उवाच
आख्याता भुजगास्तात वीर्यवन्तो दुरासदाः ।
शापं तं तेऽभिविज्ञाय कृतवन्तः किमुत्तरम् ।।१॥
शोनकजीने पूछा-तात सूतनन्दन! आपने महापराक्रमी और दुर्धर्ष नागोंका वर्णन किया। अब यह बताइये कि माता कटूके उस शापकी बात मालूम हो जानेपर उन्होंने उसके निवारणके लिये आगे चलकर कौन-सा कार्य किया? ॥१॥
सौतिरुवाच तेषां तु भगवाञ्च्छेषः कटूं त्यक्त्वा महायशाः ।
उग्रं तपः समातस्थे वायुभक्षो यतव्रतः ॥२॥
उग्रश्रवाजीने कहा-शीनक! उन नागोमेसे महा-यशस्वी भगवान् शेषनागने कटूका साथ छोड़कर कठोर तपस्या प्रारम्भ की। वे केवल वाय पीकर रहते और संयमपूर्वक व्रतका पालन करते थे ॥२॥
गन्धमादनमासाद्य बदर्या च तपोरतः ।
गोकर्णे पुष्करारण्ये तथा हिमवतस्तटे ॥३॥
तेषु तेषु च पुण्येषु तीर्थेष्वायतनेषु च।।
एकान्तशीलो नियतः सततं विजितेन्द्रियः ॥४॥
अपनी इन्द्रियोंको वश में करके सदा नियमपूर्वक रहते हुए शेषजी गन्धमादन पर्वतपर जाकर बदरिकाश्रम तीर्थ में तप करने लगे। तत्पश्चात गोकर्ण, पुष्कर, हिमालयके तटवर्ती प्रदेश तथा भिन्न-भिन्न पुण्य-तीर्थों और देवालयोंमें जा-जाकर संयम-नियमके साथ एकान्तवास करने लगे ॥ ३-४ ॥
तप्यमानं तपो घोरं तं ददर्श पितामहः ।
संशुष्कमांसत्वक्स्नायुं जटाचीरधरं मुनिम् ।।५।।
तमब्रवीत् सत्यधति तप्यमानं पितामहः ।
किमिदं कुरुषे शेष प्रजानां स्वस्ति वै कुरु ॥६॥
ब्रह्माजीने देखा, शेषनाग घोर तप कर रहे हैं। उनके शरीरका मांस, त्वचा और नाड़ियाँ | सूख गयी हैं। वे सिरपर जटा और शरीरपर वल्कल वस्त्र धारण किये मुनिवृत्तिसे रहते हैं।
उनमें सच्चा धैर्य है और वे निरन्तर तपमें संलग्न हैं। यह सब देखकर ब्रह्माजी उनके पास आये और बोले-'शेष! तुम यह क्या कर रहे हो? समस्त प्रजाका कल्याण करो ।। ५-६।।
त्वं हि तीव्रण तपसा प्रजास्तापयसेऽनघ ।
ब्रूहि कामं च मे शेष यस्ते हदि व्यवस्थितः ॥ ७॥
'अनघ! इस तीव्र तपस्याके द्वारा तुम सम्पूर्ण प्रजावर्गको संतप्त कर रहे हो। शेषनाग! तुम्हारे हृदयमें जो कामना हो वह मुझसे कहो' ||७||
शेष उवाच
सोदर्या मम सर्वे हि भ्रातरो मन्दचेतसः ।
सह तेनात्सहे वस्तुं तद् भवाननुमन्यताम् ।।८॥
शेषनाग बोले-भगवन! मेरे सब सहोदर भाई बडे मन्दबुद्धि हैं, अतः मैं उनके साथ नहीं रहना चाहता। आप मेरी इस इच्छाका अनुमोदन करें ॥८॥
अभ्यसूयन्ति सततं परस्परममित्रवत् ।
ततोऽहं तप आतिष्ठं नेतान् पश्येयमित्युत ॥९॥
वे सदा परस्पर शत्रुकी भाँति एक-दूसरेके दोष निकाला करते हैं। इससे ऊबकर मैं तपस्या में लग गया है, जिससे मैं उन्हें देख न सकूँ ।।९।।
नमर्षयन्ति ससुतां सततं विनतां च ते ।।
अस्माकं चापरो भ्राता वैनतेयोऽन्तरिक्षगः ॥१०॥
वे विनता और उसके पुत्रोंसे डाह रखते हैं, इसलिये उनकी सुख-सुविधा सहन नहीं कर पाते। आकाशमें विचरने-वाले विनतापुत्र गरुड भी हमारे दूसरे भाई ही हैं ।। १० ।।
तं च द्विषन्ति सततं स चापि बलवत्तरः ।
वरप्रदानात् स पितुः कश्यपस्य महात्मनः ।।११।।
किंतु वे नाग उनसे भी सदा द्वेष रखते हैं। मेरे पिता महात्मा कश्यपजीके वरदानसे गरुड भी बड़े ही बलवान् है ।।११।।
सोऽहं तपः समास्थाय मोक्ष्यामीदं कलेवरम् ।
कथं में प्रेत्यभावेऽपिन तैः स्यात् सह संगमः ।। १२ ।।
इन सब कारणोंसे मैंने यही निश्चय किया है कि तपस्या करके मैं इस शरीरको त्याग दंगा, जिससे मरनेके बाद भी किसी तरह उन दुष्टोंके साथ मेरा समागम न हो ।। १२ ॥
तमेवंवादिनं शेषं पितामह उवाच ह।
जानामि शेष सर्वेषां भ्रातृणां ते विचेष्टितम् ।। १३ ।।
ऐसी बातें करनेवाले शेषनागसे पितामह ब्रह्माजीने कहा-'शेष! मैं तुम्हारे सब भाइयोंकी कुचेष्टा जानता हूँ ।। १३ ।।
मातुश्चाप्यपराधाद्वै भ्रातृणां ते महद् भयम् ।
कृतोऽत्र परिहारश्च पूर्वमेव भुजङ्गम ।। १४ ।।
'माताका अपराध करनेके कारण निश्चय ही तुम्हारे उन सभी भाइयोंके लिये महान् भय उपस्थित हो गया है; परंतु भुजंगम! इस विषयमें जो परिहार अपेक्षित है, उसकी व्यवस्था मैंने पहलेसे ही कर रखी है। १४ ।।
भ्रातृणां तव सर्वेषां न शोकं कर्तुमर्हसि ।
वृणीष्व च वरं मत्तः शेष यत् तेऽभिकाक्षितम् ।।१५।।
'अतः अपने सम्पूर्ण भाइयोंके लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये। शेष! तुम्हें जो अभीष्ट हो, वह वर मुझसे माँग लो ॥ १५ ॥
दास्यामि हिवरं तेऽद्य प्रीतिर्मे परमा त्वयि ।
दिष्ट्या बुद्धिश्च ते धर्मे निविष्टा पन्नगोत्तम।
भूयो भूयश्च ते बुद्धिर्धर्मे भवतु सुस्थिरा ।। १६ ।।
'तुम्हारे ऊपर मेरा बड़ा प्रेम है; अतः आज मैं तुम्हें अवश्य वर दूंगा। पत्नगोत्तम! यह सौभाग्यकी बात है कि तुम्हारी बुद्धि धर्ममें दृढ़तापूर्वक लगी हुई है। मैं भी आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारी बुद्धि उत्तरोत्तर धर्ममें स्थिर रहे' ।। १६ ।।
शेष उवाच
एष एव वरो देव काक्षितो मे पितामह ।
धर्मे मे रमतां बुद्धिः शमे तपसि चेश्वर ।। १७॥
शेषजीने कहा-देव! पितामह! परमेश्वर! मेरे लिये यही अभीष्ट वर है कि मेरी बुद्धि सदा धर्म, मनोनिग्रह तथा तपस्यामें लगी रहे ।। १० ।।
ब्रह्मोवाच
प्रीतोऽस्म्यनेन ते शेष दमेन च शमेन च ।
त्वया त्विदं वचः कार्य मन्नियोगात् प्रजाहितम् ।। १८ ॥
ब्रह्माजी बोले-शेष! तुम्हारे इस इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रहसे मैं बहुत प्रसन्न हूँ। अब मेरी आज्ञासे प्रजाके हितके लिये यह कार्य, जिसे मैं बता रहा हूँ, तुम्हें करना चाहिये ।। १८ ॥
इमां महीं शैलवनोपपन्नां ससागरग्रामविहारपत्तनाम् ।
त्वं शेष सम्यक् चलितां यथावत् संगृह्य तिष्ठस्व यथाचला स्यात् ।। १९ ।।
शेषनाग! पर्वत, वन, सागर, ग्राम, विहार और नगरोंसहित यह समूची पृथ्वी प्रायः हिलती-डुलती रहती है। तुम इसे भलीभाँति धारण करके इस प्रकार स्थित रहो, जिससे यह पूर्णतः अचल हो जाय ।। १९ ।।
शेष उवाच
यथाह देवो वरदः प्रजापति महीपतिर्भूतपतिर्जगत्पतिः ।
तथा महीं धारयितास्मि निश्चलां प्रयच्छतां मे शिरसि प्रजापते ॥ २०॥
शेषनागने कहा-प्रजापते! आप वरदायक देवता, समस्त प्रजाके पालक, पृथ्वीके रक्षक, भूत-प्राणियोंके स्वामी और सम्पूर्ण जगत्के अधिपति हैं। आप जैसी आज्ञा देते हैं, उसके अनुसार में इस पृथ्वीको इस तरह धारण करूँगा, जिससे यह हिले-डुले नहीं। आप इसे मेरे सिरपर रख दें।।२०।।
ब्रह्मोवाच
अधो महीं गच्छ भुजङ्गमोत्तम स्वयं तवेषा विवरं प्रदास्यति ।
इमां धरा धारयता त्वया हि मेंमहत् प्रियं शेष कृतं भविष्यति ।। २१ ।।
ब्रह्माजीने कहा-नागराज शेष! तुम पृथ्वीके नीचे चले जाओ। यह स्वयं तुम्हें वहाँ जानेके लिये मार्ग दे देगी। इस पृथ्वीको धारण कर लेनेपर तुम्हारे द्वारा मेरा अत्यन्त प्रिय कार्य सम्पन्न हो जायगा ।।२१ ।।
सौतिरुवाच
तथैव कृत्वा विवरं प्रविश्य सप्रभुर्भुवो भुजगवराग्रजः स्थितः ।
बिभर्ति देवीं शिरसा महीमिमां समुद्रनेमिं परिगृह्य सर्वतः ।। २२ ।।
उग्रश्रवाजी कहते हैं-नागराज वासुकिके बड़े भाई सर्वसमर्थ भगवान् शेषने 'बहुत अच्छा' कहकर ब्रह्माजीकी आज्ञा शिरोधार्य की और पृथ्वीके विवरमें प्रवेश करके समुद्रसे घिरी हुई इस वसुधा-देवीको उन्होंने सब ओरसे पकडकर सिरपर धारण कर लिया (तभीसे यह पृथ्वी स्थिर हो गयी) ।। २२ ।।
ब्रह्मोवाच
शेषोऽसि नागोत्तम धर्मदेवो महीमिमां धारयसे यदेकः ।
अनन्तभोगेः परिगृह्य सर्वा यथाहमेवं बलभिद्यथा वा ।। २३ ।।
तदनन्तर ब्रह्माजी बोले-नागोत्तम! तुम शेष हो, धर्म ही तुम्हारा आराध्यदेव है. तुम अकेले अपने अनन्त फणोंसे इस सारी पृथ्वीको पकड़कर उसी प्रकार धारण करते हो, जैसे मैं अथवा इन्द्र ।। २३ ।।
सौतिरुवाच अधोभूमी वसत्येवं नागोऽनन्तः प्रतापवान् ।
धारयन् वसुधामेकः शासनाद्ब्रह्मणो विभुः ॥ २४ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं-शौनक! इस प्रकार प्रतापी नाग भगवान् अनन्त अकेले ही ब्रह्माजीके आदेशसे इस सारी पृथ्वीको धारण करते हुए भूमिके नीचे पाताल लोकमें निवास करते हैं ।। २४ ।।
सुपर्ण च सहायं वै भगवानमरोत्तमः ।
प्रादादनन्ताय तदा वैनतेयं पितामहः ।। २५ ।।
तत्पश्चात् देवताओंमें श्रेष्ठ भगवान् पितामहने शेषनागके लिये विनतानन्दन गरुडको सहायक बना दिया ।। २५ ।।
अनन्ते च प्रयाते तु वासुकिः सुमहाबलः ।
अभ्यषिच्यत नागैस्तु देवतैरिव वासवः ।।
अनन्त नागके चले जानेपर नागोंने महाबली वासुकिका नागराजके पदपर उसी प्रकार अभिषेक किया, जैसे देवताओंने इन्द्रका देवराजके पदपर अभिषेक किया था।
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि शेषवृत्तकथने षट्त्रिंशोऽध्यायः ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें शेषनागवृत्तान्त-कधनविषयक छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। ३६ ।। (दाक्षिणात्य अधिक पाठके १ श्लोक मिलाकर कुल ३६ श्लोक हैं)
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