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कथासरित सागर भाग 1.2

कथासरित सागर भाग 1.2

गतांक से आगे.......


      इस प्रकार से कह कर वररुचि ने फिर यह वर्णन किया कि समय पाकर योग से बना हुया राजा नन्द कामादि के वशीभूत होकर मतवाले हाथी के समान किसी की अपेक्षा न करने लगा एका एकी आई हुई लक्ष्मी किसको नही मोहित करती है। इसके उपरान्त मैंने विचार किया कि राजा तो उदंड हो गया है, और उसके कार्यों को विचार कर मेरा धर्म भी नहीं सधता इसलिये सहायता के लिये शकटाल को निकलवाऊं तो अच्छा होगा। जो वह विरुद्ध करना चाहेगा तो मेरे होते हुए, वह कुछ नहीं कर सकता है, ऐसा निश्चय करके मैंने राजा से प्रार्थना करके शकटाल को कुए में से निकलवाया। क्योकि बाह्मण लोग बड़े कोमल होते हैं। कुए से निकले हुए शकटाल ने यह विचारा कि जब तक वररुचि है तब तक इस राजा को कोई नहीं जीत सका इससे समय का इन्तजार करने के लिये वेत के समान नम्रवृत्ती को अख्तियार करूं, ऐसा-शोचकर बुद्धिमान् शकटाल फिर मन्त्री होकर मेरी इच्छा के अनुसार राज्य के कार्य करने लगा। एक समय राजा नगर से बाहर सैर करने को गया था, वहां उसने गंगा जी के भीतर से निकला हुआ, एक ऐसा हाथ देखा जिसकी पांचो उंगली मिली हुई थीं, उसे देख कर उसने मुझे बुला कर पूछा कि यह क्या है? मैंने उस हाथ की तरफ अपनी दो उंगली उठाई उन उंगलियों को देखकर वह हाथ अन्तध्यान हो गया। फिर राजा ने मुझसे भावर्थ पूर्वक पूछा कि बताओ यह क्या था? तब मैंने कहा कि इस हाथ का यह अभिप्राय था कि इस संसार में पांच आदमी मिल कर कौनसी बात नहीं सिद्ध कर सक्ते हैं? तब मैंने दो उंगली इस अभिप्राय से दिखलाई कि दोही के एकचित्त हो जाने पर कोई बात असाध्य नहीं होती है। इस छिपे हुए विज्ञान को सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ, और शकटाल मेरी दुर्जय बुद्धि को देखकर अप्रसन्न हुआ। एक समय राजा ने देखा कि उसकी रानी झरोखे से किसी ऊपर शिर उठाने वाले अतिथि ब्राह्मण को देख रही है। इतनी ही बात से क्रोधित होकर राजा ने उस ब्राह्मण के मार डालने का हुक्म दिया। क्योंकि वह किसी से विचार नहीं करता है, उस ब्राह्मण को मारने के लिये, ले जाते हुए देख कर बाजार में रखी हुई मरी मछली भी हँसने लगी। राजा ने यह देख कर उस ब्राह्मण का मारना उस दिन बन्द करवा दिया। और मुझे बुला कर उस मछली के हंसने का कारण पूँछा। मैंने कहा कि शोच कर इसका उत्तर दूंगा, यह कह कर एकान्त में ध्यान करते हुए सरस्वती जी ने, मुझसे कहा कि रात्रि के समय तुम इस ताड़ के वृक्ष के ऊपर छिप कर बैठो, तो यहाँ तुम्हें निस्सन्देह इस मछली के हँसने का कारण सुनाई पड़ेगा। यह सुन कर मैं रात्रि के समय उस ताड़ के वृक्ष के ऊपर बैठा, तो वहां अपने छोटे २ बालकों को साथ लिये एक बड़ी घोर राक्षसी आई भोजन मांगते हुए अपने बालकों से उसने कहा कि ठहर जायो मैं प्रातःकाल तुम्हें ब्राह्मणका मांस दूंगी। क्योंकि आज वह मारा नहीं गया है, बालकों ने पूँछा वह क्यों नहीं मारा गया, तो उसने कहा कि उसे देख कर मरी हुई मछली हंसने लगी थी। लड़कों ने पूँछा कि वह मछली क्यों हँसी थी, तब उस राक्षसी ने कहा कि राजा की सब रानियां बिगड़ गई हैं। सब महलों में स्त्रीयों का वेष किये पुरुष रहते हैं। और निरपराध ब्राह्मण मारा जाता है। इसलिये मछली, किसी राजा के अत्यन्त विचार रहित होने से जब जीव हँसते हैं तब सब महलों के रहने वालों की यही दशा होती है। उसका यह वचन सुन कर वहां से मैं चला आया, और प्रातःकाल राजा के पास आकर उस मछली के हंसने का कारण बतलाया। तब राजा महलों में गया, और स्त्री रुपधारी पुरुषों को पाकर मेरे ऊपर बहुत प्रसन्न हुआ। और ब्राह्मण को वध से छुड़वा दिया, राजा की ऐसी  करतूत देखकर मैं बहुत खिन्न रहता था।

    एकसमय वहां कोई नवीन तसवीर बनाने वाला आया, और उसने राजा के साथ उनकी पटरानी इन दोनों की एक तसवीर बनाई, वह तसवीर ऐसी उत्तम बनी कि वाणी और चेष्टा के न होने पर भी जीवती हुई सी मालूम होती थी। राजा ने प्रसन्न होकर उस तसवीर वाले को बहुत सा धन दिया और वह तसवीर अपने घर में दीवार पर लगवाली । एक समय राजा के घर में जाकर मैंने तसवीर में लिखी हुई सब लक्षणों से भरी हुई, राजा की रानी देखी और उसके दूसरे लक्षणों के सम्बन्ध से और अपनी समझ से उसकी कमर में एकतिल बना दिया। इससे उसके लक्षणों को पूरा करके मैं वहां से चला आया, इस के उपरान्त राजा ने वहां जाकर वह मेरे द्वारा बनाया गया रानी के कमर में तील को देखा। और सेवकों से पूछा कि यह किसने बनाया है? उन लोगों ने तिल का बनाने वाला मुझे बतलाया राजा ने शोचा, कि रानी के गुप्त स्थान के इस तिल को मेरे सिवाय और कौन जान सकता है? इसको वररुचि कैसे जान गया? मालूम होता है कि इसने छिप कर मेरे महलों को विगाड़ रहा है, इसी से वहां उसने स्त्री रूपधारी पुरुष देखे यह शोच कर राजा को बड़ा क्रोध हुआ ( ठीक है मूर्खो के विचार भी मूर्खता के ही होते हैं) इसके उपरान्त राजा ने एकान्त में बुलाकर शकटाल से कहा कि तुम वररुचि को मरवा डालो। क्योंकि इसने महलों को बिगाड़ा है, शकटाल ने कहा कि जैसा आपका हुक्म है, वैसा ही करूंगा यह कह कर बाहर चला आया, और शोचने लगा कि मैं वररुचि को नहीं मार सक्ता हूं। क्योंकि वह बड़ा बुद्धिमान है और उसी ने मुझे आपत्तियों से छुड़ाया है, और वह ब्राह्मण भी है, इससे तो यह अच्छा होगा, कि में उसे छिपाकर अपने यहां रख लू, ऐसा विचार कर शकटाल ने राजा के कोप का कारण और वध का हुक्म वररुचि से कहा और फिर बोला कि मैं कहने सुनने के लिये और किसी को मार डालता हूं। तुम छिप कर मेरे यहा रहो, नहीं तो राजा मेरे ऊपर भी खफा होगा। उसके यह वचन सुनकर मैं छिप कर उसके घर में रहने लगा। और उसने मेरे नाम से रात्रि के समय किसी और को मार डाला। तव इस प्रकार नीति करने वाले शक्टाल से मैंने कहा कि तुम बड़े योग्य मंत्री हो। क्योकि तुमने मेरे मारने की तदबीर नहीं की, एक राक्षस मेरा परम मित्र है, इससे कोई मुझे मार नहीं सक्ता, जो मैं ध्यान करके उसे बुलाऊं और चाहूं तो वह सब संसार का नाश कर देवे। और राजा को मैं इसलिये नहीं मरवाता हूं कि वह मेरा मित्र है, और एक बाह्मण है, यह सुनकर शकटाल ने कहा कि मुझे उस राक्षस को दिखायो तब मैंने ध्यान से उसे बुलाया, और वह शकटाल उस राक्षस को देख कर डरगया। और आश्चर्य युक्त हुआ। राक्षस के चले जाने पर शकटाल ने फिर मुझसे पूछा कि तुम्हारी मित्रता राक्षस के साथ कैसे हुई, तब मैंने कहा कि एक समय एक नगर की रक्षा के लिये घूमता हुआ, एक पुरुष हर रात्रि में मर जाता था। यह बात सुन कर राजा ने मुझको नगर की रक्षा के लिये भेजा, मैंने घूमते रात्रि के समय एक राक्षस को देखा और उसने मुझसे पूछा कि बताओ इस नगर में कौन सी स्त्री बड़ी रूपवती है। तब मैंने हँस कर कहा कि है, जिसको जो स्त्री अच्छी लगे, वही उसको रूपवती है। यह सुनकर राक्षस बोला कि केवल तुम ने मुझे जीत लिया, मेरे इस प्रश्न का उत्तर दे देने के कारण, बध से वचे हुए, मुझ से फिर वह राक्षस बोला कि मैं तुम्हारे ऊपर प्रसन्न हूं। तुम मेरे मित्र हो गये हो। जब तुम मुझे याद करोगे, तभी मैं आऊंगा। यह कह कर राक्षस के अन्तर्ध्यान हो जाने पर मैं ज्यों का त्यों अपने घर को लौट आया। इस प्रकार से यह राक्षस मेरा मित्र हुया है। इसके उपरान्त शकटाल की प्रार्थना से ध्यान से आई हुई श्रीगंगा जी का दर्शन मैंने शकटाल को कराया, और फिर स्तुतियों से गंगा जी को प्रसन्न करके विदा किया। मेरी इन बातों को देख कर शकटाल भी मेरा बड़ा सहायक हो गया।

    एक समय एकान्त में उदासीन बैठे हुए मुझ से शकटाल बोला कि तुम सर्वज्ञ हो कर भी इतना खेद क्यों किया करते हो, क्या तुम नहीं जानते हो? कि राजा लोगों की बुद्धि में विचार नहीं होता। थोड़े दिनो में तुम्हारा यह कलंक छूट जायेगा। इस बात पर मैं तुम्हें एक कथा सुनाता हूं, पहले इस नगर में, आदित्यवर्मा नाम का एक राजा था और शिववर्मा नाम का बड़ा बुद्धिमान् उसका मंत्री था। एक समय उस राजा की एकरानी गर्भवती हुई, यह सुन कर राजा ने अपने महल के रक्षकों से पूछा कि दो वर्ष से मैं महलों में नहीं गया हूं। यह गर्भ कहां से आया? तब वह लोग बोले कि हे राजा शिववर्मा,नाम के मंत्री के सिवाय यहां और कोई पुरुष नहीं आता है, यह सुन कर राजा ने विचारा कि निस्सन्देह यह मंत्री ही मेरा वैरी है, परन्तु जो मैं इसे जाहिर में मरवा डालुंगा, तो दुनिया में मेरी बदनामी होगी। यह विचार कर उस राजा ने शिववर्मा को भोगवर्मा नाम के एक अपने मित्र राजा के यहां भेज दिया। और पीछे से एक सलाहकार के हाथ एक चिट्ठी भेजी, जिसमें कि शिववर्मा के मार डालने का संदेशा लिखा था। मंत्री के चले जाने के सात दिन पीछे, वह रानी स्त्री वेष धारी किसी पुरुष के साथ भागी चली जा रही थी। वह राजा के आदमियों को मिली, और वह उसे पकड़ लाये। राजा ने यह देख सुन कर बड़ा पश्चात्ताप किया, और कहा कि देखो मैंने निष्कारण ऐसा बड़ा बुद्धिमान मंत्री नाहक मररवा डाला।। 

     इसी बीच में शिववर्मा और राजा का सलाहकार राजा भोगवर्मा के यहां पहुंचे, राजा ने उस चिट्ठी को पढ़ कर शिववर्मा से कहा कि तुम्हारे मारने का हुक्म आया है। यह सुन कर शिववर्मा बोला कि आप मुझे मरवा डालिये, नही तो मैं खुद मर जाऊंगा। तब राजा बड़े आश्चर्य पूर्वक शिववर्मा से बोला कि तुम्हें हमारी कसम है, तुम सत्य २ बताओ कि इसका क्या कारण है? मंत्री ने कहा कि हे राजा जिस राज्य में मैं मारा जाऊंगा, उस राज्य में बारह वर्ष तक पानी नहीं वरसेगा। यह सुन कर भोगवर्मा ने अपने मंत्रियों के साथ सलाह की, कि वह दुष्ट राजा हमारा राज्य नष्ट करना चाहता है। क्या उसके राज्य में छिप कर मारने वाले न थे? इससे इस मंत्री को मारना न चाहिये, यह सलाह करके भोगवर्मा ने शिववर्मा को रक्षकों के साथ अपने देश से उसी समय भेज दिया। इस प्रकार वह मंत्री अपनी बुद्धि के बल से लौट आया, और उसका कलंक भी छुट गया। (क्योंकि धर्म मिथ्या नहीं होता) इससे हे वररुचि इसी प्रकार से तुम्हारा भी कलंक छुट जायगा। तुम हमारे घर में रहा करो, कुछ दिन में तुम्हारे बिना भी इस राजा को पश्चताप होगा। शकटाल के ऐसे वचन सुन कर मैं उसके यहां रह कर समय की बाट देखता हुआ दिन विताने लगा। इसके उपरान्त हे काणभूत योग से बने हुए राजानन्द का हिरण्यगुम नाम पुत्र शिकार खेलने को गया घोड़े के वेग से बहुत दूर निकल जाने पर उस अकेले राजपुत्र को वन ही में सायंकाल हो गया। तब रात्रि के व्यतीत करने को वह राजा का पुत्र किसी वृक्ष पर चढ़ गया, उसी समय उस वृक्ष पर किसी सिंह से भगाया हुया, एक भालु भी चढ़ा गया, उस रीछ ने अपने से डरे हुए राजपुत्र से मनुष्य भाषा में कहा कि तुम मत डरो, तुम हमारे मित्र हो रीक्ष के ऐसे वचनों को सुन कर विश्वास से जब राजा का पुत्र सो गया। और रीछ जागता रहा, तब नीचे खड़े हुए सिंह ने कहा कि हे रीक्ष तू इस मनुष्य को नीचे पेड़ से डाल दे, मैं इसे लेकर चला जाऊंगा। यह सुन कर रीक्ष ने कहा कि मैं मित्र के साथ विश्वासघात नहीं करूंगा। इसके उपरान्त जब रीक्ष के सोने की और राजाके पुत्र के जागने की बारी आई, तब फिर सिंह ने राजा के पुत्र से कहा कि हे मनुष्य इस रीक्ष को नीचे डाल दे, यह सुन कर अपने डरसे और सिंह को प्रसन्न करने के लिये राजपुत्र उस रीक्ष को ढकेलने लगा। भाग्यवश से रीक्ष गिरा तो नहीं, किन्तु जग पड़ा, और जग कर यह शाप दिया, कि हे मित्र द्रोही तू सिड़ी हो जायगा। और शाप की यह अवधि कर दी कि जब तक तू इस वृत्तान्त को नहीं सुनेगा तब तक सिड़ी रहेगा। इसके उपरान्त प्रातःकाल राजा का पुत्र अपने घर में आकर सिड़ी हो गया। और राजानन्द को यह देख कर बड़ा दुःख हो गया। राजा ने कहा कि इस समय जो वररुचि जीता होता, तो इसके सिड़ी होने का सम्पूर्ण कारण मालूम हो जाता। धिकार है मेरी  मुर्खता पर मैंने नाहक उसे मरवाया। राजा का यह वचन सुन कर शकटाल ने यह विचारा किया कि वररुचि के प्रकट करने का यह मौका है। क्योंकि वररुचि तो अब यहां रहेगा नहीं। और राजा का मेरे ऊपर विश्वास बढ़ जायंगा। ऐसा शोच कर राजा से अभय मांग कर शकटाल बोला कि हे राजा खेद मत करो वररुचि अभी जीता है। यह सुन कर राजाने कहा कि जल्दी उसे लाओ तब शकटाल मुझे बड़े हठ से राजा के पास ले गया। वहाँ जाकर राजा के पुत्र के सिड़ी होने का सब वृत्तान्त सरस्वती जी की कृपा से मैंने जान लिया। और इसने मित्र के साथ द्रोह किया है। यह कह कर वह सव वृत्तान्त राजा से भी कह दिया। इसके आनन्तर शाप के छुट जाने पर राजा के पुत्र ने मेरी बड़ी स्तुति की। और राजा ने मुझ से पूछा कि तुमने यह वृत्तान्त कैसे जाना? तब मैंने कहा कि हे राजा लक्षण अनुमान और सूझ बूझ से बुद्धिमान लोग सव बातों को जान लेते हैं। जैसे कि मैंने तुम्हारी रानी की कमर का तिल जान लिया था। मेरे इस वचन से राजा बहुत लज्जित होकर पछताने लगा। इसके उपरान्त राजा के आदर को छोड़ कर और कलंक के छुटजाने से अपने को कृतकृत्य मान कर मैं अपने स्थान पर चला आया। क्योंकि शुद्ध चरित ही विद्वान् लोगों का धन है, मेरे वहां से आ जाने पर सब लोग रोने लगे। और उपवर्ष मेरे सुसर ने मुझसे कहा तुझे राजा से मारा गया सुनकर उपकोशा आग में जल गई। और तुम्हारी माता का हृदय शोक से फट गया। यह सुन कर एकाएकी हुए शोक के वेग से मुझे मूर्क्षा आगई। और वायु से टूटे हुए वृक्ष के समान मैं पृथ्वी पर गिर पड़ा क्षण भर में उठ कर बड़ा विलाप करने लगा, क्योंकि प्यारे बन्धु श्री के शोक से उत्पन्न हुया शोक किस को सन्तप्त नहीं करता तब वर्ष उपाध्याय ने आकर मुझे समझाया कि इस जगत्में आवागमन पर्यन्त एक अनित्यता जो है वही नित्य है। तो तुम ईश्वर की इस माया को जान कर भी क्यों मोहित होते हो? तत्त्व का वोध कराने वाले वर्ष उपाध्याय के इन वचनों ने मुझे कुछ धैर्य दिया। इसके उपरान्त वैराग्य से सम्पूर्ण संसारी, बन्धनों को छोड़ कर मैं तपोवन को चला गया, कुछ दिनो के, व्यतीत होने पर उस तपोवन में अयोध्या से एक ब्राह्मण आया, और उससे मैंने योग से बने हुए राजानन्द का वृत्तान्त पूंछा, उसने मुझे पहचान कर बड़े शोक से कहा कि राजानन्द का वृत्तान्त सुनिये तुम्हारे वहां से चले आने पर शकटाल को बहुत दिन के बाद मौका मिला। तब वह राजा के मारने का उपाय शोचने लगा, एकदिन मन्त्री ने रास्ते में पृथ्वी को खोदते हुए किसी चाणक्य नाम ब्राह्मण को देख कर, उससे पूछा कि क्यों पृथ्वीको खोद रहे हो? तब उसने कहा कि यह कुश मेरे पैरों मे लग गया है, इससे इसको खोद रहा हूं। यह सुन कर, मन्त्री ने उस क्रोधी और क्रूर ब्राह्मण को ही राजा के मारने का उपाय समझा।  उसका नाम पूंछ कर मन्त्री ने कहा कि हे ब्राह्मण राजानन्द के यहां मैं तुझे त्रयोदशी के दिन, श्राद्ध भोजन करवाऊंगा। वहां तुझ को एकलाख अशर्फी, दक्षिणा में दिलवाऊंगा और सब ब्राह्मणों में मुख्य तुमको करूंगा। आओ तब तक हमारे घर में रहो। यह कह कर शकटाल उस चाणक्य को अपने घर लिवा लाया। और श्राद्ध वाले दिन राजा से उसकी मुलाकात करवाई, इस के उपरान्त चाणक्य श्राद्ध में जाकर सबके आगे बैठा, और सुबन्धु नाम के ब्राह्मण ने भी चाहा कि में सबका ब्राह्मण होऊं। तब शकटाल ने जाकर यह हाल राजा से कहा राजा ने हुक्म दिया कि और कोई ब्राह्मण योग्य नहीं है। सुबन्धु ब्राह्मण आगे बैठे। फिर शकटाल ने लौट कर बहुत भयपूर्वक चाणक्य से कहा, कि हे महाराज चाणक्य जी मेरा कोई अपराध नहीं है। राजा की ऐसी इच्छा है, यह सुन कर चाणक्य मारे क्रोधके जलने लगा, और उसने अपनी शिखा खोल कर यह प्रतिज्ञा करी कि मैं निस्संदेह सात दिन के भीतर इस राजा को मार डालूंगा। और तभी मेरा क्रोध शान्त हो जाने पर शिखा वांधुगा। 

 यह सुनकर राजानन्दके कुपित होने पर भागे हुए चाणक्य को शकटाल ने, अपने घर में छिपा कर रक्खा।  इसके पीछे शकटाल से सम्पूर्ण सामग्री को लेकर चाणक्य कहीं जाकर मृत्या नामक तंत्रीक (मारण प्रयोग) करने लगा। उसके प्रभाव से राजा को ज्वर आया, और सातवें दिन राजा मर गया। इसके उपरान्त शकटाल ने योग से बने हुए राजा नन्दके हिरण्यगर्भ नाम पुत्र को मार कर पहले राजा नन्द के पुत्र चन्द्रगुप्त को राज्यपर वैठा दिया। और वृहस्पति के समान बुद्धि वाले चाणक्य को चन्द्रगुप्त का मंत्री बनाया। फिर योग से बने हुए राजानन्द से वैर का बदला लेकर पुत्रों के शोक से उदासीन होके, शकटाल वन को चला गया। उस ब्राह्मण के मुख से इस वृत्तांत को सुन कर मुझे संसार की चंचलता पर बड़ा खेद हुआ। और उसी खेद से मैं यहां विन्ध्यवासिनी के दर्शनों को चला आया। यहां भगवती की कृपा से तुमको देख कर अपने पूर्वजन्म का स्मरण हो आया, और वह दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ। जिससे कि मैंने तुम्हारे आगे यह सम्पूर्ण महा कथा वर्णन की अब मेरे शाप का अन्त हो गया। मैं इस शरीर के त्याग करने का यत्न करुंगा। तुम यहां अभी कुछ दिन रहो, तुम्हारे पास वह गुणानाम ब्राह्मण अपने शिष्यों समेत आवेगा। जिसने कि तीन भाषाओं का बोलना छोड़ दिया है, वह महादेवजी का माल्यवान नाम गण है, उसे भगवती पार्वती जी ने मेरी शिफारिस करने के अपराध से शाप दिया था। उससे तुम यह सम्पूर्ण कथा कहना जिससे कि तुम्हारा और उसका दोनों का शाप छुट जायगा।  काणभूत को इस प्रकार समझा कर वररुचि अपने शरीर के त्याग करने के लिये महापवित्र बदरिकाश्रम को गया। मार्ग में जाते हुए, वररुचि ने केवल शाक खाने वाले मुनिको देखा, और वररुचिके सामने ही उस मुनि के हाथ में एक कुशा गड़ गया। तब उसके हाथ से रुधिर निकलता देख कर वररुचि ने अपने तप के प्रभाव से उसके अहंकार की परीक्षा के लिये उस रुधिर को शाक के रसके समान कर दिया। उसे देख कर मुनि को यह अभिमान हुआ, कि में सिद्ध हो गया है। तब वररुचि ने कुछ मुसकुरा के कहा कि मैंने तुम्हारी परीक्षा के लिये उसका रंग बदल दिया था। तुमने अभी तक अहंकार को नहीं छोड़ा, ज्ञान के मार्ग में अहंकार बड़ा कठिन विघ्न (रोक) है। ज्ञान के बिना सैकड़ों वर्ष तक तप करने से भी मोक्ष नहीं होता है। मोक्ष की इच्छा करने वाले मनुष्य नाश होने वाले स्वर्ग की लालच नहीं करते हैं। इससे हे मुनि अहंकार को छोड़ कर ज्ञान में यत्न करो। इस प्रकार उस मुनि को समझा कर वररुचि उस बदरिकाश्रम में पहुंचा। इसके उपरान्त बदरिकाश्रम में वररुचि अत्यन्त भक्ति से भक्तों की रक्षा करने वाली भगवती की शरण में अपने शरीर के त्याग करने की इच्छा से गया। तब प्रसन्न हुई भगवती ने साक्षात् दर्शन देकर अग्नि में शरीर भस्म करने का उपदेश दिया। इसके उपरान्त अपने शरीर को भस्म करके वररुचि अपने दिव्य शरीर को प्राप्त हुआ। और विन्ध्याचल की पृथ्वी पर काणभूत भी गुणाढ्य के मिलने की इच्छा करता हुया तप में लीन रहा १४१ ॥ .. .. 

इतिश्रीकथासरित्सागरभापायांकयापीठलंबकपंचमस्तरंगः॥

कथासरितसागर भाग-1.1

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