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मैं कौन हूं? क्रांति-सूत्र: 01




 क्रांति-सूत्र: 01

मैं कौन हूं?


एक रात्रि की बात है। पूर्णिमा थी, मैं नदी-तट पर था, अकेला आकाश को देखता था। दूर-दूर तक सन्नाटा था।


फिर किसी के पैरों की आहट पीछे सुनाई पड़ी। लौट कर देखा, एक युवा साधु खड़े थे। उनसे बैठने को कहा। बैठे तो देखा कि वे रो रहे हैं। आंखों से झर-झर आंसू गिर रहे हैं। उन्हें मैंने निकट ले लिया। थोड़ी देर तक उनके कंधे पर हाथ रखे मैं मौन बैठा रहा। न कुछ कहने को था, न कहने की स्थिति ही थी, किंतु प्रेम से भरे मौन ने उन्हें आश्वस्त किया।


ऐसे कितना समय बीता कुछ याद नहीं। फिर अंततः उन्होंने कहा, मैं ईश्वर के दर्शन करना चाहता हूं। कहिए क्या ईश्वर है या कि मैं मृगतृष्णा में पड़ा हूं?


मैं क्या कहता? उन्हें और निकट ले लिया। प्रेम के अतिरिक्त तो किसी और परमात्मा को मैं जानता नहीं हूं।


प्रेम को न खोज कर जो परमात्मा को खोजता है, वह भूल में ही पड़ जाता है। प्रेम के मंदिर को छोड़ कर जो किसी और मंदिर की खोज में जाता है, वह परमात्मा से और दूर ही निकल जाता है।


किंतु यह सब तो मेरे मन में था। वैसे मुझे चुप देख कर उन्होंने फिर कहा, कहिए--कुछ तो कहिए। मैं बड़ी आशा से आपके पास आया हूं। क्या आप मुझे ईश्वर के दर्शन नहीं करा सकते?


फिर भी मैं क्या कहता? उन्हें और निकट लेकर उनकी आंसुओं से भरी आंखें चूम लीं। उन आंसुओं में बड़ी आकांक्षा थी, बड़ी अभीप्सा थी। निश्चय ही वे आंखें परमात्मा के दर्शन के लिए बड़ी आकुल थीं। लेकिन परमात्मा क्या बाहर है कि उसके दर्शन किए जा सकें? परमात्मा इतना भी तो पराया नहीं है कि उसे देखा जा सके!


अंततः मैंने उनसे कहा, जो तुम मुझसे पूछते हो, वही किसी ने श्री रमण से पूछा था। श्री रमण ने कहा था, ईश्वर के दर्शन? नहीं, नहीं, दर्शन नहीं हो सकते; लेकिन चाहो तो स्वयं ईश्वर अवश्य हो सकते हो। यही मैं तुमसे कहता हूं। ईश्वर को पाने और जानने की खोज बिलकुल ही अर्थहीन है। जिसे खोया ही नहीं है, उसे पाओगे कैसे? और जो तुम स्वयं ही हो, उसे जानोगे कैसे? वस्तुतः जिसे हम देख सकते हैं, वह हमारा स्वरूप नहीं हो सकता। दृश्य बन जाने के कारण ही वह हमसे बाहर और पर हो जाता है। परमात्मा है हमारा स्वरूप और इसलिए उसका दर्शन असंभव है। मित्र, परमात्मा के नाम से जो दर्शन होते हैं, वे हमारी ही कल्पनाएं हैं। मनुष्य का मन किसी भी कल्पना को आकार देने में समर्थ है। किंतु इन कल्पनाओं में खो जाना सत्य से भटक जाना है।


यह घटना मुझे अनायास याद हो आई है, क्योंकि आप भी तो ईश्वर के दर्शन करना चाहते हैं। उसी संबंध में कुछ कहूं, इसलिए ही आप यहां एकत्र हुए हैं।


मैं स्वयं भी ऐसे ही खोजता था। फिर खोजते-खोजते, खोज की व्यर्थता ज्ञात हुई। ज्ञात हुआ कि जो खोज रहा है, जब मैं उसे ही नहीं जानता हूं तो इस अज्ञान में डूबे रह कर सत्य को कैसे जान सकूंगा?


सत्य को जानने के पूर्व स्वयं को जानना तो अनिवार्य ही है।


और स्वयं को जानते ही जाना जाता है कि अब कुछ और जानने को शेष नहीं है।


आत्म-ज्ञान की कुंजी के पाते ही सत्य का ताला खुल जाता है।

ओशो

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