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कथासरितसागर भाग 1-3 गतांक से आगे

कथासरितसागर भाग 1-3

गतांक से आगे 


 " "इसके उपरान्त वह मान्यवान् गुणाढ्य नाम से मनुष्य शरीर में विचरता हुआ, राजा सातवाहन का सेवन करके और उसके आगे संस्कृत आदि तीन भाषाओं के त्यागने की प्रतिज्ञा करके खेद से विन्ध्यवासिनी के दर्शन को आया। विन्ध्यवासिनी की आज्ञा से गुणाढ्य ने आकर काणभूति प्रेत को देखा। तब उस को भी अपने पूर्वजन्म का स्मरण हो गया। त्याग की हुई तीनों भाषाओं को छोड़ कर पिशाची भाषा में काणभुति से अपना नाम लेकर बोला कि तुम पुष्पदन्त से सुनी हुई कथा को मुझ से वर्णन करो जिससे कि हमारा और तुम्हारा दोनों का शाप से उद्धार होवे। यह सुन कर बहुत प्रसन्न हुए काणभूति ने प्रणाम करके कहा कि मैं कथा तो कहता हूं। पर प्रथम तुम अपना जन्म से लेकर अब तक का वृत्तान्त मुझसे वर्णन करो। मुझे उसको भी सुनने की, बड़ी इच्छा है। इस प्रकार उसकी प्रार्थना को सुनकर गुणाढ्य कहने लगा, कि प्रतिष्ठान नाम देश में सुप्रतिष्ठित नाम एक नगर है वहां एक बड़ा सज्जन सोमशर्मा नाम का ब्राह्मण रहता था। उसके बत्सक तषा गुल्मक नाम के दो पुत्र और श्रुतार्थानाम की एक कन्या थी। समय पाकर वह ब्राह्मण स्त्री समेत मर गया उसके दोनों पुत्र अपनी छोटी बहिन का पालन करने लगे, एक समय वह कन्या अकस्मात् गर्भवती हो गई। यह देखकर उन दोनों भाइयों को वहां अन्य पुरुष के न आने से आपस में सन्देह हुआ। तब उस श्रुतार्थी ने अपने भाइयों से कहा कि तुम दोनों आपस में सन्देह मत करो एक समय में स्नान करने को नदी पर गई थी। वहां वासुकिसों के राजा के भाई का कीर्चिसेन नाम के पुत्र ने मुझे देखकर कामवश हुआ और उसने अपना वंश तथा नाम कह कर मेरे साथ गान्धर्व विवाह किया। इससे यह मेरा गर्म बाह्मण ही का है, तुम लोग सन्देह मत करो। यह सुन कर उन दोनों ने कहा कि इसमें कौन विश्वास है? तब उसने एकान्त में स्मरण करके कीर्तिसेन को बुलाया उसने आकर उन दोनों से कहा कि इसके साथ मैंने ही विवाह किया है। यह शाप से भ्रष्ट हुई अप्सरा है, और तुम दोनों भी शाप ही से इस पृथ्वी पर आये हो। इसको निस्सन्देह पुत्र उत्पन्न होगा, तब तुम तीनों का शाप कट जायगा। यह कह कर वह अन्तध्यान होगया। इसके उपरान्त थोड़े दिन पीछे श्रुतार्था को पुत्र उत्पन्न हुआ। वही मैं हूं, जिस समय मेरा जन्म हुआ था, उस समय यह आकाशवाणी हुई थी। कि यह गुणाढ्य नाम का ब्राह्मण शिवजी के गण माल्यवानक अवतार है। मेरे जन्म के उपरान्त शाप के मोक्ष हो जाने से मेरी माता और दोनों मामा मर गये, इससे मुझे बड़ा क्लेश हुआ था। इसके उपरान्त शोक को छोड़ कर बाला अवस्था में ही मैं अपने भरोसे से विद्या पढ़ने के लिये दक्षिण दिशा को चला गया। समय पाकर मैं विद्या पाकर वड़ा प्रसिद्ध पण्डित हुआ, तब अपने गुणों को दिखाने के लिये अपने देश को आया। बहुत दिनों के उपरान्त जो मैंने अपने सुप्रतिष्ठित नाम नगर में प्रवेश किया। तो अपने शिष्यों समेत मैंने नगर की अपूर्वशोभा देखी कहीं वैदिक ब्राह्मण सामवेद का गान कर रहे थे, कहीं वेदज्ञ ब्राह्मण वेद का अर्थ का निर्णय कर रहे थे। कहीं जुवारी लोग यह कह रहे थे कि जो यहाँ जुआ खेलना जानता होगा। वह धन पाएगा, कही वणिये लोग अपने 2 रोजगारो की तारीफ कर रहे थे। उनमें से एक वणिया बोला कि धन से तो धन को सब ही पैदा करते हैं। इसमें कौन बड़ी बात है, मैंने पहले बिना ही धन के लक्ष्मी उत्पन्न की थी, जबकि मैं गर्म ही था तब मेरा पिता मर गया था। और पापी भाइयों ने मेरी माता से सारा वह धन छिन लिया था। तब मेरी माता भय से, गर्भ को बचाने की इच्छा करती हुई, मेरे पिता के मित्र कुमारदत्त नाम वणिये के यहां रही, वहां जाकर मेरा जन्म हुआ। और मेरी माता बड़े २ कठिन कार्यों को करके मेरा पालन करने लगी। इसके उपरान्त उपाध्याय से प्रार्थना करके मेरी माता ने मुझे हिसाब किताब लिखना पढ़ना आदि सिखाया। फिर मेरी माता ने मुझसे कहा कि बेटा तुम वणिये के पुत्र हो, अब कुछ रोजगार करो। इस देश में विशाखिल नाम का एक बड़ा धनवान वणिया रहता है। वह कुलीन दरिद्रियों को रोजगार करने को अपना धन देता है। जाओ उससे जाकर धन मांगो, तब में उसके यहां गया, उस समय वह किसी बणिये के पुत्र से क्रोध पूर्वक कह रहा था कि यह जो मरा हुया मूसा पड़ा है, इससे भी चतुर मनुष्य धन पैदा कर सकता है। तुझे तो मैंने बहुत सी अशीर्फियां दी है, उनका बढ़ाना तो अलग रहा तू उनको भी न रख सका। यह सुन कर मैंने उस विशाखिल से कहा कि मैं इस मुसे को तुमसे पूंजी बनाने के लिये लिये ज़ाता हूं। यह कह कर मेंने मुसा ले लिया, और उसकी वही में लिखवा कर चला तब वह वणिया हँसने लगा। इसके उपरान्त वह मूसा दो मुट्ठी चने लेकर किसी वणिये के हाथ बिल्ली के लिये चुहा लिया। फिर उन चनों को भुनवा कर और पानी के घड़े को लेकर शहर के बाहर किसी चबूतरे पर छाया में, मैं जा बैठा वहां थके हुए काष्ठ के बोझे वाले आते थे। उनकों में शीतल जल और चने बड़ी नम्रता से देने लगा, तब हर एक बोझे वाले ने मुझे प्रसन्न होकर दो और लकड़ियां दी, वह लकड़ियां मैंने लाकर बाजार में बेची। उस से जो धन मिला, उससे फिर चने खरीदे, और उसी प्रकार फिर वोझे वालों को दिये इस प्रकार थोड़े दिन करके, जब कुछ धन इकट्ठा हुआ। तब मैंने तीन दिन तक सब लकड़ी आप खरीद ली। एक समय बहुत पानी के बरसने से वह लकड़ी विकने को नही हुई, तब मैंने वही लकड़ी कई सौ रुपये की बेची फिर उस धन से दुकान करली इसी प्रकार धीरे रोजगार करते २, मैं बड़ा धनवान हो गया। तब मैंने सोने का मूसा बनवा कर विशाखिल को जाकर दिया। और उसने भी अपनी कन्या मुझे ब्याह दी इसी से लोकमे मुझे मुसा साह-करके बोलते हैं, इस प्रकार मेंने निर्धन होकर भी लक्ष्मी पाई है। यह सुन कर उन सब वणियों को बड़ा आश्चर्य हुआ। चित्र अर्थात् विलक्षण कामों से बुद्धि ही बिना दीवार के चित्र बनाई जाती। और कही किसी वैदिक ब्राह्मण ने दान में एक अशर्फि पाई थी, उससे किसी छली दिललगीवाज ने कहा कि ब्राह्मण पने से तुम्हारा भोजन चलता है, तो तुम इस अशर्फी को खर्च करके चतुर होने के लिये दुनियांदारी की बातें सीखो, उसने कहा कि मुझे कौन सिखावेगा? तब वह दिललगीवाज बोला, कि यह जो चतुरका नाम की वेश्या है, उसके यहां तुम जाओ, ब्राह्मण ने कहा कि, मैं वहां जाकर क्या बोलुं, तो वह बोला कि अशर्फी देकर उसको प्रसन्न करने को, साम (सामवेद अथवा मिलाप) का वर्चाव करना यह सुन कर वेदपाठी ब्राह्मण चतुरका के मकान में जाकर बैठा गया, और चतुरका ने उनका आदर किया। फिर ब्राह्मण ने चतुरका को अशर्फी देकर कहा कि मुझे दुनियादारी सिखाओं। यह सुनकर जब वहां के लोग हंसने लगे, तब वह ब्राह्मण कुछ शोच कर हस्तस्वर समेत सामवेद का गान इतने जोर से करने लगा, कि वहां बहुत से दिललगीवाज देखने के लिये इकट्ठे हो गये। और बोले कि यह स्यार यहां कहां से घुम आया है। जल्दी से इसके गले में अर्द्धचन्द (गर्द्दना) देकर इसे निकाल दो ब्राह्मण अर्द्धचन्द्र का अर्थ एक प्रकार का बाण समझ कर शिर कटने के भय से, मैंने सब दुनियांदारी सीख ली यह कहता हुआ भागा। और उसके पास जाकर, जिसने कि मुझे वेश्या के पास भेजा था, सब वृत्तांत सुनाया। तब उसने कहा कि मैंने तो तुझसे साम पर्यात मेल की बात कही थी, वहां वेद पढ़ने का कौन मौका था, क्या वेद पढ़ने वालों में विद्वान में जड़ बुद्धि बनी रहती है। इस प्रकार हँसकर वह वेश्या के यहाँ गया, और बोला कि इस दो पैर के पशु का तुम सुवर्ण रुपी चारा अर्थात अशर्फि वापिस दे दो। यह सुन कर उसने भी हँस कर मेरी अशर्फी वापिस कर दी। अशर्फी को पाकर' ब्राह्मण अपना नया जन्मसा मान कर घर लौट आया। इस प्रकार की आश्चर्य की बातों को देखता हुआ में स्वर्ग के समान अपने देश के राजा के मकान पर पहुँचा। इसके उपरान्त शिष्यों के द्वारा पहले अपनी इत्तिला करआ के, मैंने भीतर जाकर सभा मण्डल में बैठे हुए राजा कों देखा। शर्ववर्मादिक मन्त्रियों से घिरे हुए राजा के सिंहासन पर बैठे हुए राजा की ऐसी शोभा हो रहीं थी। कि मानो इन्द्र को घेरे हुए देवता वैठे हैं, राजा के आदर करने के उपरान्त स्वस्ति बचनों के कह कर मैं आसन पर बैठ गया, तब शर्ववर्मादिक मंत्री लोग, यह कहने लगे, कि हे राजा यह संपूर्ण विद्यायों के जानने वाले सब पृथ्वी पर विख्यात है। इनका गुणाढ्य नाम अर्थ से भी बहुत ठीक है, मंत्रियों से इस प्रकार की मेरी प्रशंसा सुनकर राजा ने प्रसन्नता 'पूर्वक मुझे अपना मंत्री बना लिया। इसके पीछे राजा के कार्य -को करता हुआ मैं सुखसे अपने विद्यार्थियों को भी पढ़ाने लगा। और वहीं मैनें अपना विवाह भी कर लिया एक समय गोदावरी नदी के किनारे पर अकेले घूमते हुए, मैंने एक बगीचा देखा। जिसे कि लोग देवी का बनाया हुआ बगीचा कहते थे। उसे इन्द्र के नंदन वन के समान अत्यन्त रमणीय देखकर मैंने बागवान से पुंछा कि यह बगीचा किसने बनवाया है? वह मुझसे बोला कि हे स्वामी जैसा मैंने बड़ों के मुख सुना है, वह आप से कहता हूं, पहले एक समय में कोई निराहार मौनी ब्राह्मण यहां आया था, उसी ने दैवयोग से मंदिर समेत यह बगीचा बनवाया था। तब यहां बहुत से ब्राह्मण इकट्ठा हुए, और उस ब्राह्मण से उसका वृत्तान्त हठ से पूछने लगे, तब वह ब्राह्मण मौन को खोलकर बोला, कि नर्मदा नदी के किनारे पर भरुकच्छ नामदेश में उत्पन्न हुआ था। मैं ऐसा आलस्यी और दरिद्री था कि मुझे कोई भिक्षा तक नहीं देता था। एक समय खेद से घर को छोड़ कर और अपने प्राणों से भी निर्मोही होके, मैं तीर्थों को घुमता हुआ, मां भगवती विन्ध्यवासिनी के दर्शनो को गया । भगवती के दर्शन करके मैंने यह शोचा कि लोग यहां पशुओं का बलिदान देकर देवी को प्रसन्न करते हैं। तो मैं अपना ही बलिदान करूंगा, क्योंकि मैं मूर्ख पशु के समान हूं, ऐसा शोचकर जैसे कि मैंने अपने मारने को शस्त्र उठाया, वैसे ही प्रसन्न होकर साक्षात भगवती मुझसे बोली कि हे पुत्र तू सिद्ध हो गया। अपने को मत मार, और मेरे निकट रहाकर, भगवती के ऐसे वरदान को पाकर में दिव्यरूप होगया। तबसे मुझे भूख और प्यास नहीं लगती। एक समय यही रहते हुए मुझसे साक्षात भगवती ने कहा कि हे पुत्र प्रतिष्ठान देशमें जाकर एक दिव्य बगीचा लगायो। यह कह कर भगवती ने मुझे दिव्य बीज दिया, तब मैं यहाँ आकर भगवती जी के प्रभाव से दिव्य बगीचा बनवाया। तुम लोग इसकी सेवा करो, यह कह कर वह ब्राह्मण अन्तर्ध्यान हो गया। इस प्रकार से यहां यह भगवती का बनाया हुभी वगीचा है। वागवान से उस देश में ऐसी भगवती की कृपा सुनकर मैं आश्चर्य से भरा हुआ अपने घर को चला आया। गुणाढ्य के इस प्रकार से कहने पर काणभूति बोला, कि हे गुणाढ्य इस राजा का सातवाहन नाम कैसें पड़ा है? तब गुणाढ्य बोला कि सुनो मैं जो कहता हूं, बहुत समय पहले दीपकर्णि नाम का एक बड़ा बलवान राजा था। उसके 'शक्तिमती नाम की बडी प्यारी रानी थी। एक समय भोग करने के पीछे वगीचे मैं सोइ हुई रानी, को एक सर्प ने काट लिया, और वह मर गई। यद्यपि राजा के कोई पुत्र नहीं था, तथापि राजा ने उसके प्रेम के कारण दूसरा कोई विवाह नहीं किया। एक समय राज्य के योग्य पुत्र के न होने से दुखित हुए, राजा को, स्वप्न में श्री शिवजी ने यह आज्ञा दी, कि वन में सिंह पर चढ़े हुए किसी बालक को तुम देखोगे। उसको घर ले लाना वहीं तुम्हारा पुत्र होगा। इसके उपरान्त जाग कर उस स्वप्न को स्मरण करके वह राजा अत्यन्त प्रसन्न हुआ। और एक समय शिकार खेलने के लिये बन में बहुत दूर चला गया। वहाँ राजा को मध्याह्न के समय किसी तालाब के किनारे सूर्य के समान तेज वाला सिंह पर चढ़ा हुआ, एक बालक दिखाई दिया। वह सिंह बालक को उतार कर जल पीने के लिये तालाब पर चला, तब राजा ने स्वप्न को स्मरण करके उस सिंह के एक बाण मारा, वाण के लगने से वह सिंह पुरुष हो गया। तब राजा ने उससे पूछा, कि बताओ यह क्या बात है? तब वह शेर जो पुरुष रूप था बोला हे राजा मैं कुबेर का मित्र सातनाम यक्ष हूं, मैंने एक समय गंगा में स्नान करती हुई एक ऋषि की कन्या देखी, और उस कन्या ने मुझे देखा परस्पर देखने से हम दोनों को काम का वेग उत्पन्न हुआ। तो मैंने उसके साथ गान्धर्व विवाह कर लिया। उसके भाइयों ने यह बात सुन कर क्रोध से शाप दिया कि तुम दोनों बड़े स्वेच्छाचारी हो इससे सिंह होजाओ। मुनियों ने पुत्र जन्म पर्यन्त मेरी स्त्री के शाप की अवधि कर दी, और तुम्हारे वाण लगने तक मेरे शाप की अवधि कर दी। इसके उपरान्त हम दोनों इस वन में आकर सिंह और सिंहनी हो गये, समय पाकर सिंहनी गर्भिणी हुई और इस पुरुष बालक को उत्पन्न करके मर गई। मैंने अन्य सिंहिनियों के दूध से इस बालक की पालना की, आज तुम्हारे वाण के लगने से मैं भी शाप से छुट गया। इस बड़े बलवान् बालक को मैं तुम्हें देता हूं, इसे ले जाओ, और मुनि लोगों ने भी हम से यह बात पहले ही कह दी थी। यह कह कर उस सिंह से मनुष्य रूप होने वाले य क्षके अन्तर्ध्यान होजाने पर, राजा उस बालक को लेकर अपने घर चला आया। सातनाम यक्ष उसका बाहन हुआ था। इस हेतु से उसका सातवाहन नाम रक्खा, और उसे अपना राज्य देकर राजादीपकर्णि वन को चला गया। तब सात वाहन चक्रवर्ती राजा हुआ।
इस प्रकार काणभूति के पूंछने से बीच में इस कथा को कह कर वह गुणाढ्य फिर अपनी कथा को कहने लगा। एक समय राजा सातवाहन वसन्त के उत्सव में देवीजी के उस बगीचे में गया, नन्दनवन में इन्द्र के समान उस बगीचे में विचरता हुआ राजा जल क्रीड़ा करने के लिये स्त्रियों समेत बावड़ी में उतरा। और वावड़ी में स्त्रियों पर छीटें डालने लगा। हाथी पर हथिनियों के समान वह स्त्रियां भी उस पर जल डालने लगी स्त्रियों के नेत्रों का अंजन लुट गया, और जल के पड़ने से, वस्त्र अंगों में ऐसे चिपट गये. कि सब उनके अंग साफ २ दिखाई देने लगे। इससे वह स्रियां राजा के मन को हरने लगी, वायु के समान उस राजा ने तीलक रूपी पत्रों से रहित और गिरे हुए, आभूषण रूप पुष्पो वाली लताओं के समान, सब रानियां कर दी। इसके उपरान्त उनमें से एक बड़े कोमल शरीर वाली रानी राजा से बोली कि हे नाथ मोदकैस्ताड़य (अर्थात् मेरे ऊपर जल मत डालो) यह सुन कर राजा ने बहुत से लड्डू मँगवाये तब फिर वह रानी हँसकर बोली हे राजा यहां, जलक्रीड़ा में मोदकों का क्या काम है? मैंन तुम से यह कहा था कि मेरे ऊपर जल मत डालो तुम मा शब्द और उदक शब्द की संधि भी नहीं जानते हो। और मौके को भी नहीं समझते, तुम बड़े ही मूर्ख हो। व्याकरण की जानने वाली रानी ने जब इस प्रकार से कहा, और सब दासियां हँसने लगी, तब उस राजा को बड़ी लज्जा हुई। वह जल क्रीड़ा को छोड़ कर और अभिमान रहित होके राजा अपने अपमान से दुखित होकर, अपने मकान को चला गया। फिर भोजन को भी परित्याग करके चिन्ता से महाव्याकुल राजा चित्र में लिखी हुई तसवीर के समान पूंछने से भी कुछ नहीं बोला। तब उस राजा ने संकल्प किया या तो मैं पण्डित बनुगा, या मर जाऊंगा। ऐसा निश्चय करके पलंग पर पड़े २ महा क्लेश युक्त होने लगा। एकाएकी राजा की ऐसी हालत देख कर लोगों को बड़ा सन्देह हुआ यह खबर धीरे २ मुझे और शर्ववर्मा को भी मिली। उस समय दिन बहुत थोड़ा रह गया था। और राजा भी सावधान न था। यह विचार कर हम लोगों ने राजहंस नाम राजा के सेवक को बुलाकर, राजा का हाल पूछा। तब वह बोला कि मैंने ऐसा व्याकुल राजा को कभी नहीं देखा है। जैसा कि इस समय हो रहा है, और संपूर्ण रानी यह कहती है, कि विष्णुशक्ति की कन्या ने राजा को कुछ कह कर व्याकुल किया है। उसके यह वचन सुन फर हम दोनों सन्देह से शोचने लगे कि जो कोई शारीरिक रोग होता तो वैद्यों को भेजते और मानसीक रोग राजा को हो नहीं सकता, क्योंकि इस राजा का कोई शत्रु नहीं है। और इसकी प्रजा इससे अत्यन्त स्नेह करती है। फिर कुस बात से एकाएकी इसको ऐसा खेद उत्पन्न हुआ है? इस प्रकार शोचने से बुद्धिमान शर्ववर्मा बोला कि मैं राजा के दुःख का कारण समझ गया हूं। यह अपनी मूर्खता के दुःखसे व्याकुल हो रहा है, मैं पहले ही से उसके चित्त को जानता हूं, वह सदैव अपने को मूर्ख समझ कर पंडित होने की इच्छा किया करता है। और इसकी मुर्खता ही के कारण रानी ने भी इसे डांटा है। यह मैंने सुना है, इस प्रकार विचार करके, उस रात्रि के व्यतीत हो जाने पर प्रातःकाल हम दोनों राजा के पास पहुंचे। वहां यद्यपि कोई नहीं जाने पाता था, तथापि मैं चला गया और मेरे पीछे २ शर्ववर्मा भी चला गया। वहाँ राजा के निकट बैठ कर मैंने कहा कि आज आप बिना कारण के उदासीन क्यों है? यह सुन कर भी राजा कुछ नहीं बोला। तब शर्ववर्मा ने यह बहुत से वाक्य कहा कि हे स्वामी मैं आपसे पहले कह चुका हूं कि मैंने स्वप्न माणवक नाम एक प्रयोग कहीं से पाया है, आज रात्रि को मैंने वह प्रयोग किया था, उससे मुझे स्वप्न में यह दिखाई पड़ा है, कि एक कमल का फूल आकाश से गिरा उसे किसी दिव्य बालक ने प्रकाशित किया। तब उसमें से एक श्वेतवस्त्र धारण किये स्त्री निकली। यह स्त्री आपके मुख में चली गई, इतना देख कर मेरी निद्रा खुल गई। मुझे मालूम होता है कि वह स्त्री साक्षात सरस्वती देवी थी। जो आपके मुख में चली गई है। इस प्रकार स्वप्न को सुन कर राजा मुझ से बोला कि यत्न पूर्वक सिखाने से मनुष्य कितने दिनों में पंडित हो सक्ता है? मुझे पांडित्य के बिना यह राजलक्ष्मी अच्छी नहीं मालूम होती है। जैसे काष्ठ को आभूषण वैसे ही मूर्ख को ऐश्वर्य है, तब मैंने कहा हे राजा सम्पूर्ण विद्याओं का मुखरूपी व्याकरण सब मनुष्यों को वारह वर्ष लगता है। मैंआपको छः वर्ष में ही सिंखा दूंगा। यह सुन कर शर्ववर्मा ने राजा से कहा कि सुख करने वाला मनुष्य इतना श्रम कैसे कर सकता है? हे राजा में आपको छे ही महीने में व्याकरण सिखा सकता हूं। यह असम्भव वचन सुनकर मैंने क्रोध से कहा कि जो तुम छः महीने में राजा को व्याकरण सिखा दो तो में संस्कृत प्राकृत और अपने देश की बोली यह तीनों भाषा जिनको कि मनुष्य वोल सकते हैं। बोलना छोड़ दूंगा। तब शर्ववर्मा ने कहा कि जो मैं छः महीने में इसे व्याकरण न पढ़ाई तो बारह वर्ष तक तुम्हारी खड़ाऊं अपने शिर पर रख कर चलुंगा। यह कह कर उसके चले आने पर मैं भी अपने घर को चला आया। और राजा भी आपना दोनो तरफ से मतलब समझ कर सावधान हो गया। शर्ववर्मा ने उस अपनी प्रतिज्ञा को दुस्तर समझ कर पाश्चाताप युक्त होके, अपनी स्त्री से सब वृत्तान्त कहा, तब उसकी पत्नी बोली कि हे स्वामी ऐसे संकट के समय में स्वामिकुमार के सिवाय और कोई उपाय नहीं है। उसके वचन को ठीक समझ कर शर्ववर्मा प्रातःकाल भोजन किये बिना ही घर से चला गया। फिर दूत के मुख से शर्ववर्मा के जानेके वृत्तान्त को सुन कर मैंने राजा से भी जाकर उसके स्वामिकुमार के यहां जाने का वृत्तान्त कहा राजा ने भी कहाकि देखो क्या होता है? इसके उपरान्त सिंहगुव नाम किसी राज पुत्र ने राजा से कहा कि हे राजा उस समय आप को दुखी देख कर मुझे अत्यन्त खेद हुआ था। तब मैंने आपके कल्याण के लिये, नगर के बाहर जाकर चंडिका भगवती के आगे अपना शिर काट कर चढ़ाना चाहा। उस समय यह आकाशवाणी हुई कि शिर मत काटो तुम्हारे राजा की इच्छा पूर्ण होगी। इससे मैं जानता हूं, कि आपका मनोरथ सिद्ध होगा। यह कह कर और राजा से पूछ कर उसने दो दूत शर्ववर्मा के पीछे भेजे। शर्ववर्मा भी निराहार और मौन व्रत साधकर स्वामिकुमार के निकट पहुंचा वहां उसने अपने शरीर को न समझ कर ऐसा तप किया कि जिससे प्रसन्न होकर भगवान स्वामिकुमार ने उसका मनोरथ पूर्ण किया। यह बात सिंहगुप्त के भेजे हुए दूतों ने आकर राजा से पहले ही कह दी। जैसे मेघ को देख कर हंस को खेद और चातक को प्रसन्नता होती है, उसी प्रकार उन दूतों के वचन सुनकर मुझे खेद हुआ। और राजा को आनन्द हुआ शर्ववर्मा ने आकर स्वामिकुमार की कृपासे केवल ध्यान करने ही से प्राप्त हुई सम्पूर्ण विद्या राजा को दे दी। और उसी समय राजाको सम्पूर्ण विद्याओं का ज्ञान हो गया। (ईश्वर की कृपा से क्या नहीं होता है?) इसके उपरान्त राजा के पण्डित हो जाने की खबर को सुन कर राज्य भर में बड़ा उत्सव होने लगा। उसी समय नवीन लगाई गई और वायु से हिलती हुई पताका मानों नगर भर में नृत्य कर रही थी। राजा ने शर्ववर्मा`को अपना गुरू समझ कर बड़े २ रत्नो से उनका पूजन किया, और नर्मदा नदी के किनारे पर बसे हुए भरुकच्छ नाम देश का राज्य उसे दे दिया। जिस सिंहगुप्त नाम राजपुत्र ने दूतों के मुख से पहले स्वामीकुमार के संदेश देने की खबर सुनाई थी, उसे धन देकर अपने समान कर लिया। और विष्णुशकि नाम राजा की कन्या जिसरानी ने विद्या के लिये उसे उत्साह दिलाया था, उसे सब रानियों में पटरानी बनाया। ॥
इतिश्रीकथासरित्सागरमापायांकथापीठलम्बकेषष्ठस्तरङ्गः ६॥


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