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कथासरितसागर भाग- 2.2 गतांकसे आगे........

कथासरितसागर भाग- 2.2 

गतांकसे आगे........

     इसके उपरान्त राजा बहुत दूर जा कर, उस दिन किसी जंगली तालाब के पास टिका। वहाँ शयन के समय सेवा करने के लिये आये हुए संगतक नाम किसी कथक अर्थात् किस्सेबाज से राजा बोला कि मृगावती के मुखरूपी कमलके दर्शन करने की इच्छा करने वाले मुझसे कोई मनोहर, कथा कहो तव संगवक बोला कि हे राजा आप वृथा सन्ताप करते हैं। क्योंकि शाप का अन्त हो चुका है अब आप से रानी का समागम हुआ ही चाहता है। और संयोग वियोग तो मनुष्यों को हुआ ही करते हैं, मैं इसी विषय में आप से एक कथा कहता हूं, उसे आप सुनिये। मालब देश में यज्ञसोम नाम ब्राह्मण के कालनेमि और विगतभय नाम दो पुत्र थे उन पुत्रों पर वहां के निवासी बहुत प्रेम करते थे। पिता के मर जाने पर युवावस्था को प्राप्त वह दोनों पुत्र विद्या पढ़ने के लिये पाटलिपुत्र नाम नगर में गये। वहाँ देवशम्मी नाम उपाध्याय से वहुत सी विद्या पढ़ी तब उपाध्याय ने प्रसन्न होकर अपनी दोनों कन्या उन दोनों को व्याह दीं। इसके उपरान्त कालनेमि अन्य गृहस्थी लोगों को बहुत धनान्य देखकर ईर्ष्या से लक्ष्मी मिलने के लिये अग्नि में हवन करने लगा। हवन से प्रसन्न हो के साक्षात् लक्ष्मी जी प्रकट होकर, बोली कि तुझे बहुत सा धन, मिलेगा और तेरा पुत्र राजा होगा। परन्तु अन्त में तू चोर के समान मारा जायगा। क्योंकि तूने इसी इच्छा से हवन किया है। यह कह कर लक्ष्मी जी तो अन्तर्ध्यान हो गई। और कालनेमि धीरे,२ बड़ा धनवान हो गया, और कुछ दिन में उसको एक पुत्र भी उत्पन्न हुआ। १३ उसका नाम उसने श्रीदत्त रक्खा। क्योंकि वह लक्ष्मीजी की कृपा से हुआ था। धीरे २ वह श्रीदत्त बड़ा होकर ब्राह्मण होने पर भी अस्त्र विद्या और बाहुयुद्ध में बड़ा प्रवीण हुआ। इसके उपरान्त कालनेमि के भाई विगतभय की स्त्री को सर्प ने काट खाया। इसी से वह तीर्थयात्रा के लिये वह परदेश को चला गया। फिर वहाँ के गुणग्राही वल्हभशनि नाम के राजा ने श्रीदत्त को विक्रमशक्ति नाम के अपने पुत्र का मित्र बनाया। इसके उपरान्त भवन्तीदेश के दो क्षत्री बाहुशाली और वनमुष्टि नाम उस श्रीदत्त के मित्र हुए। फिर श्रीदत्त से वाहुयुद्ध के द्वारा जीते गये, अन्य गुणज्ञ दक्षिणी लोग और महावल, व्याघ्रभट, उपेन्द्रवल तथा निष्ठुरक नाम मंत्रियों के पुत्र इसके मित्र हुए। एक समय वर्षा ऋतु में श्रीदत्त सब अपने मित्रों को साथ लेकर राजपुत्र समेत गङ्गा के तट पर खेलने को गया। वहां जाकर खेल में राजा के सेवको ने राजा के पुत्र को अपनी ओर का राजा बनाया। और श्रीदत्त के मित्रों ने श्रीदत्त को अपनी ओर का राजा बनाया। यह देख कर क्रोधित हुए, राजा के पुत्र ने श्रीदत्त को लड़ने के लिये बुलाया। तब श्रीदत्त ने मल्ल युद्ध करके राजा के लड़के को पछाड़ दिया। इस कारण राजा के पुत्र ने अपने चित्त में यह विचार किया। कि मैं इसे मरवा डालू, राजा के पुत्र का अभिप्राय, समझकर श्रीदत्त अपने मित्रों समेत वहां से भाग आया। तब भागते २ मार्ग में यह देखा, कि समुद्र में बहती हुई लक्ष्मी जी के समान गङ्गाजी में बहती हुई स्त्री जा रही है। यह देख उसके निकालने के लिये अपने मित्रों को गंगा जी के किनारे पर छोड़कर श्रीदत्त पानी में घुसा, जब उस स्त्री के निकट पहुंचा तो वह स्त्री पानी में डूब गई, उसको लेने के लिये, श्री दत्त ने भी गोता मारा पानी में गोता मार कर क्षण भर में ही श्रीदत्त ने देखा कि न कही पानी है, और न वह स्त्री है। केवल एक सुन्दर शिवजी का दिव्य मन्दिर बना हुआ है। यह देख कर बड़े आश्चर्य से मुक थका हुआ, श्रीदत्त श्रीशिव जी को नमस्कार करके उसी मन्दिर में रात्रि को रहा। प्रातःकाल सम्पूर्ण गुणों से युक्त मूर्ति को धारण किये लक्ष्मी के समान वह स्त्री शिवजी का पूजन करने को वहां आई, श्रीशिव जी का पूजन करके वह स्त्री अपने घर को चली। और श्रीदत्त भी उसके पीछे २ चला तब वह स्त्री स्वर्ग के समान अपने स्थान में श्रीदत्त से कुछ बिना बोले चली गई। और भीतर जाके अपने कमरे में पलंग पर जाकर लेट गई। वहां सैकड़ों स्त्रियां उसकी सेवा करने को मौजूद थी। श्रीदत्त भी वहीं जाकर उसके निकट बैठ गया, इसके उपरान्त वह स्री एका एकी रोदन कर २ आंसू बहाने लगी, उस समय श्रीदत्तके दिल में बड़ी दया हुई। और वह बोला कि तुम कौन हो, और क्यों रोती हो? मुझसे कहो मैं तुम्हा दूःख को दूर करूंगा। वह स्त्री बोली कि हम सब एक हजार दैत्यों के स्वामी बलि की पोती हैं। इन सब में मैं सबसे बड़ी हूं, और मेरा द्युतप्रभा नाम है, हमारे बाबा बलि को तो विष्णुजी ने बहुत दिन से बाँध रक्खा है। और पिता को भी विष्णु ही ने वाण युद्ध में मार कर, हमें हमारे पुर से निकाल दिया है। और हमारे रोकने के लिये एक सिंह वहां बैठा दिया है।

     इस से हम अपने पुर में नहीं जा सकती हैं, यही हमको बड़ा दुःख है, जब हमने विष्णु से अपने पुर में जाने का उपाय पूंछा तब उन्होंने यह कहा था, कि कुवेर के शाप से यक्ष सिंह हो गया है। जब कोई मनुष्य इसे मारेंगा। तब इसका शाप छूटेगा, इससे तुम हमारे शत्रु रूप उस सिंह को मारो। क्योंकि इसीलिये मैं तुमको यहां लाई हूं। उस सिंह के मारने से तुमको मृगांक नाम का खड्ग मिलेगा। जिसके प्रभावसे तुम सम्पूर्ण पृथ्वी को जीत कर राजा हो जाओगें। यह सुनकर श्रीदत्त ने वह दिन तो वहीं व्यतीत किया, और दूसरे दिन दैत्य की सब केन्याओं को साथ लेकर उस पुर को चला। वहां जाकर श्रीदत्त ने वाहु युद्ध से सिंह को जीत लिया तब उस सिंह का रूप पुरुष जैसा हो गया। और वह प्रसन्न होकर शाप के छुड़ाने वाले श्रीदत्त को अपना खड्ग देकर अंतर्ध्यान हो गया। और दैत्य की सब कन्याओं का दुःख दूर हो गया। इसके उपरान्त श्रीदत्त सब कन्याओं समेत उस पुर के भीतर गया। और वहां उस विद्युत्प्रभा ने एक विषनाशक अंगूठी श्रीदत्त को दी। फिर वहाँ बैठे २ उस श्रीदत्त का मन मिलाप उस विद्युतप्रभा कन्या पर हुआ। तब वह कन्या युक्ति पूर्वक श्रीदत्त से बोली कि मगर के भय के दूर करने वाले इस खड्ग को लेकर तुम वाबड़ी में गोता मारो। उसके कहने से जब श्रीदत्त ने गोता मारा तो गंगाजी के उसी तट पर जा निकला। जहां से कि वह नदीं में कूदा था। इस प्रकार दैत्य कीकन्या से छला गया, श्रीदत्त खड्ग और अंगूठी समेत पाताल से निकल कर आश्चर्य और खेद दोनों से युक्त हो गया। फिर अपने मित्रों के ढूंढ़ने के निमित्त अपने घर की तरफ चला, रास्ते में कुछ दूर चल कर निष्ठुरक नाम मित्र उस को मिला। निष्ठुरक उसको प्रणाम करके, और एकान्त में जाकर उससे बोला कि गंगा में बहे हुए तुमको बहुत दिनों तक ढूंढ़कर हम लोग अपना शिर काटने को तैयार हुए थे। कि यह आकाशवाणी हुई कि हे पुत्रो अपना शिर मत काटों तुम्हारा मित्र तुम्हें मिल जायगा। उस आकाशवाणी को सुनकर हम लोग तुम्हारे पिता से यह वृत्तांत कहने को चले थे। कि मार्ग में किसी पुरुष ने जल्दी से आकर यह कहा कि तुम लोग अभी इस नगर में मत जाओ क्योंकि यहां का राजा वल्हमशक्ति मर गया और मन्त्रियों ने उसके पुत्र विक्रमशक्ति को राज्य दे दिया है। राज्य मिलने के दूसरे दिन विक्रमशक्ति ने कालनेमि के घर पर जाकर पूछा। कि तेरा पुत्र श्रीदत्त कहां गया है? उसने कहा कि मैं नहीं जानता तब विक्रमशक्ति ने यह कह कर कि इसने अपने पुत्र को छिपा रखा है। उस तुम्हारे पिता को शूली पर चढ़ा दिया। यह देख कर तुम्हारी माता का हृदय अपने आप ही फट गया, ठीक है कि दुष्टों के पाप बहुत अन्य २ पापों से और भी भारी हो जाते हैं। अब वह विक्रमशक्ति श्रीदत्त और श्रीदत्त के मित्रों को भी मारने को ढूंढ़ रहा है। उस पुरुष के ऐसे वचन सुन कर बाहुशालि आदिक तुम्हारे पांच मित्र तो उज्जयिनी को चले गये और मुझे तुम्हारे लिये यहां छिपा कर छोड़ गये हैं। तो चलो जहां हमारे वह पांचों मित्र हैं वहीं चलें। निष्ठुरक के ऐसे वचन सुन कर और अपने माता पिता का बड़ा शोक करके बदला लेने के लिये श्रीदत्त अपने खड्ग को देखने लगा। फिर समय को विचार कर निष्ठुरक के साथ अपने मित्रों से मिलने के लिये श्रीदत्त उज्जयिनी को चला दिया। फिर अपने सम्पूर्ण वृत्तान्त को मित्र से कहते हुए श्रीदत्त ने मार्ग में रोती हुई एक स्त्री देखी तब पूंछने से वह बोली कि में मालवदेश को जाती थी। सो मार्ग भूल गई हूं, उसके यह वचन सुन कर दया से उन दोनों ने उसे भी अपने साथ में लेकर, उस दिन सांय काल के समय किसी उजड़े हुए गांव में निवास किया। वहां एकाएकी रात्रि में जगहुए श्रीदसने देखा कि वह स्त्री निष्ठुरक को मार कर उसका मांस बड़ी प्रसन्नता से खारही हे तब श्रीदत्त अपने मृगांङ्क खड्गक को लेकर उठा और वह स्त्री भी राक्षसी हो गई, जब श्रीदत्त ने उसको मारने के लिये उसके शिर के बाल पकड़े तब उसका दिव्य स्वरूप हो गया। और बोली कि हे महाभाग मुझे मत मारो में राक्षसी नहीं हूं, मुझको विश्वामित्र ऋषि का यह शाप था। एक समय कुबेर के अधिकार को लेने के लिये तप करते हुए विश्वामित्र के तप में विघ्न करने के निमित्त कुवेर ने मुझे भेजा। वहां सुन्दर रूप से जब मैं विश्वामित्र को अपने वश में न कर सकी तब भयंकर रूप करके मैं उनको डराने लगी। यह देख कर विश्वामित्र ने मुझे शाप दिया, कि हे पापिन तू मनुष्यों की मारने वाली राक्षसी हो जाये। फिर मेरे प्रार्थना करने पर विश्वामित्र ने यह भी कहा कि जब श्रीदत्त तेरे बाल पकड़ेगा, तब तेरा शाप छूटेगा। तभी से मैं राक्षसी होगई हूं। और मैंने ही बहुत दिनों से इस नगर को ग्रस्त कर रक्खा था। अब तुम्हारी कृपा से मेरा यह शाप छूट गया है। तुम जो चाहो सो मुझ से वर मांगो श्रीदत्त ने यही वर मांगा कि मेरा मित्र जी जावे। उसने कहा ऐसा ही होगा। यह कहकर चली गई, और निष्ठुरक जी उठा। इसके उपरान्त निष्ठुरक को साथ लेकर श्रीदत्त धीरे २ उज्जयिनी को पहुंचा। जैसे कि मेघ को देखकर नीलकण्ठ प्रसन्न होते हैं उसी प्रकार श्रीदत्त और निष्ठुरक को देख कर उसके मित्र प्रसन्न हुए। फिर बाहुशाली नाम मित्र श्रीदत्त को सत्कार पूर्वक अपने घर ले गया, और श्रीदत्त ने उससे अपना सम्पूर्ण वृत्तान्त कहा वाहुशाली के घर में उसके माता और पिता से सेवन किया हुआ श्रीदत्त अपने सम्पूर्ण मित्रों समेत प्रसन्नता पूर्वक रहने लगा।

    एक समय बसन्त के उत्सव में श्रीदत्त अपने मित्रों समेत किसी बगीचे की सैर को गया वहां विम्बक नाम के राजा की मृगांकवती नाम कन्या को साक्षात वसन्त की लक्ष्मी के समान देखकर, श्रीदत्त काम के वशीभूत हो गया। और श्रीदत्त को देख कर वह कन्या भी उस पर आशक्त हो गई, उस कन्या को वृक्षों की छाई में चली गई, उसे ना देख कर श्रीदत्त बहुत विकल हो गया।श्रीदत्त की यह दशा देख करबाहु शाली बोला कि हे मित्र मैं तुम्हारे चित्त का हाल जान गया हूं। मुझसे मत छिपाओ, चलो वहीं चलें जहां वह राज कन्या गई है। बाहुशाली के यह वचन सुन कर श्रीदत्त वाहुशाली के साथ जहां वह राज कन्या गई थी। वहीं गया उस समय यह चिल्लाहट सुनाई पड़ी, कि हाय इस राज कन्या को सर्प ने काट खाया है। तब वाहुशाली ने उसके कंचुकी अर्थात् खाजेसराय से कहा कि हमारे मित्र के पास विषनाशक अंगूठी और विद्या है। यह सुनकर वह कंचुकी श्रीदत्त के पैरों पर गिर कर उसको राज कन्या के पास ले गया। श्रीदत्त ने वहां जाकर, अपनी अंगूठी राज कन्या की उंगली में पहरा दी। और मन्त्र पढ़ने लगा, इससे वह राज कन्या जी उठी। और सब लोग श्रीदत्त की प्रशंसा करने लगे। इस वृत्तान्त को सुन कर उस कन्या का  पिता राजाविपक भी वहां आया, इससे श्रीदत्त अपने मित्रों समेत अंगूठी को बिना लिये वहां से चला आया, राजा ने प्रसन्न होकर जो कुछ सुवर्णादिक पदार्थ श्रीदत्त को भेजे वह सब उसने बाहुशाली के पिता को देदिये। १०० इसके उपरान्त उस राजकन्या की याद करके श्रीदत्त को इतना खेद हुया कि जिसके देखने से उसके मित्र लोग भी बहुत व्याकुल हुए। तब भावनिका नाम राजकन्या की एक प्यारी सखी अंगूठी देने के बहाने से आई, और बोली कि हे श्रीदत्त हमारी राजकन्या का यहनिश्चयं विचार है कि या तो तुमसे विवाह करेगी या शरीर को त्याग देगी। भावनिका के यह वचन सुनकर श्रीदत्त बाहुशाली, भावनिका और अन्य सम्पूर्ण मित्र मिलकर यह सलाह करने लगे, कि राज कन्या को हम सब लोग यहां से हर ले चलें। और मथुरा में जा कर रहें। ऐसी सलाह हो जाने पर भावनिका वहां से चली गई। दूसरे दिन बाहुशाली अपने तीन मित्रों समेत रोज़गार के बहाने से मथुरा को चला गया। यहां श्रीदत्त ने कन्या समेत किसी स्त्री को मद्य पिलवा कर राजकन्या के घर में, रख दिया तब दीपक वाले के बहाने से उस घर में आग लगा कर राज कन्या भावनिका समेत बाहर निकाल लिया। उसी समय बाहर खड़े हुए, श्रीदत्त ने अपने दो मित्रों समेत राज कन्या को, आगे मथुरा भेजे हुए वाहुशाली के पास भेज दिया। और राज कन्या के मकान में वह कन्या समेत स्त्री जल गई। लोग यह समझे कि राज कन्या अपनी सखी समेत जल गई। श्रीदत्त उसी प्रकार प्रातःकाल तक वहीं रहा, और दूसरे दिन अपने मृगांकक नाम खड्ग को लेकर अपनी प्रिया के पास चला रात्रि भर में बहुत से मार्ग को उल्लंघन कर के श्रीदत्त पहर भर दिन चढ़े विन्ध्याचल के वन में पहुंचा। वहां उसे बहुत से दुस्शकुन हुए, और पीछे से उसने देखा कि भावनिका समेत उसके संपूर्ण मित्र वहां घायल पड़े हैं। वह सब श्रीदत्त को देख कर बोले कि आज बहुत से घुड़सवारों ने हमको लूट लिया और हम लोगों के घायल हो जाने पर एक घुड़ सवार राजकन्या को अपने घोड़े पर सवार कराके लेगया जब तक वह उसे दूर न ले जाये। तब तक तुम दौड़ कर उसे पकड़ लाओ, और हमारे पास मत ठहरो। क्योंकि वही उन सबमें मुख्य है, उन मित्रों के ऐसे वचन सुन कर श्रीदत्त वेग पूर्वक वहां से चला और बहुत दूर जाकर उसने देखा कि एक घुड़सवारों की फौज चली जाती है। और उस सेना के बीच में कोई तरुण क्षत्री अपने घोड़े पर राजकन्या को बैठाये हुए चला जारहा है। यह देख कर वह उस क्षत्री के पास गया और समझा कर राजकन्या को मांगने लगा, जब वह समझाने से भी न माना तव श्रीदत्त ने उसका पैर पकड़ कर घोड़े पर से खींच लिया और उसे मारडाला। और उसी घोड़े पर चढ़ कर अन्य आने वाले बहुत से घुड़ सवारों को मारने लगा। फिर जो कछ कि मारने से बचे वह उसके दिव्य - बल को देख कर भय खाकर भाग गये। फिर श्रीदत्त, राजकन्या समेत घोड़े पर सवार होकर अपने मित्रों के पास चला, थोड़ी दूर चल कर लड़ाई में बहुत घायल होने वाला वह घोड़ा, श्रीदत्त के उतर जाने पर गिरकर मर गया। उस समय मृगांकवती डर और काम से बहुत थकी हुई होके प्यासी हुई, तब राजकन्या को वहीं बैठाल कर श्रीदत्त पानी लेने के लिये बहुत दूर चला गया पानी ढूंढते ही ढूंढ़ते उसे शाम हो गई। फिर जलके मिलने पर भी मार्ग भूल जाने के कारण श्रीदत्त रात्रि भर उसी जंगल में चिल्लाया हुया इधर उधर घूमते हुए, प्रातःकाल जहां वह घोड़ा मरा पड़ा था, वहां आया। और राजकन्या को वहां न पाया तब वह अपने मृगांकक नाम खड्क को वृक्ष के नीचे रख कर राजकन्या को देखने के लिये वृक्ष पर चढ़ गया। उसी समय उस रास्ते से कोई लुटेरों का राजा आया, और आकर उसने वृक्ष के नीचे रखा हुया खड्ग उठा लिया। उसे देखकर श्रीदत्त वृक्ष के नीचे उतर कर उस्से यह बात पूंछने लगा कि तुमको कोई स्त्री तो नहीं मिली है, तब वह बोला कि मेरे गांव को जाओ, वही वह भी गई है। और वहीं आकर मैं तुझे यह खड्ग भी दूंगा। यह कह कर उसने श्रीदत्तको अपने आदमियों के साथ अपने गांव को भेज दिया। उस गांव में जाकर उन मनुष्यों ने उस्से कहा कि थोड़ी देर सुस्ता लो तब श्रीदत्त थका तो था ही लुटेरों के राजा के घर में क्षण भर सो गया। फिर जग कर क्या देखता है? कि उसके पैरों में वेड़ी पढ़ी हुई है, इसके उपरान्त क्षण भर सुख देने वाली और क्षण भर में ही दुख देनेवाली दैव की गति के समान अपनी प्रिया को शोचने लगा। एक दिन मोचनिका नाम कोई दासी वहां आकर उस्से बोली कि यहां तुम अपने प्राण देने के लिये क्यों आये हो। लुटेरों का राजा अभी किसी काम के लिये कहीं गया है, लौटकर तुम्हें भगवती को बलि दे देगा। इसीलिये तुम को यहां युक्ति पूर्वक भेजा है और इसी से तुम्हारे पैरों में वेडी भी डाली गई हैं। उसने तुमको भगवती के वलिदान के लिये भेजा है इसी से यह लोग तुम्हारी खाने पीने की बड़ी खातिर करते हैं। तुम्हारे छूटने का एक उपाय है, जो तुम मानो तो इस लुटेरों के राजा की लड़की का सुन्दरी नाम है। यह तुम्हें देखकर अत्यन्त कामातुर हुईं है, अगर तुम उसके साथ संभोग करोगे, तो तुम्हारे प्राण बच जायेंगे। उसके यह वचन सुन कर श्रीदत्त ने छुप कर उस सुन्दरी के साथ अपना गान्धर्व विवाह कर लिया। रोज रात्रि के समय उसकी वेडी को खोल कर वह सुन्दरी उसके साथ भोग किया करती थी। और फिर बेड़ी डाल देती थी। इसके उपरान्त थोड़े ही दिनों में सुन्दरी गर्भवती हुई, और यह सम्पूर्ण वृत्तान्त उसकी माता मोचनिका नाम दासी के मुख से सुनकर दामाद के प्रेम से एकान्त में श्रीदत्त के पास गई, और बोली कि हे पुत्र श्रीचंड नाम इस सुन्दरी का पिता जो इस वृत्तान्त को जानेगा। तो तुम्हें मारे बिना न छोड़ेगा, इसलिये तुम यहां से चले जाओ। और सुन्दरी को न भूलना। यह कहकर उसकी सास ने उसे वहां से छुड़वा दिया। तब श्रीदत्त सुन्दरी से यह कह कर कि मेरा खड्ग तेरे पिता के पास है, वहां से चला आया। फिर मृगांकवती के ढूंढने के लिये चिन्ता से व्याकुल उसी वन में घुसा और बन में घुसने के समय इसको अच्छे २ शकुन हुए। उन उत्तम शकुनों को देख कर जहां इसका घोड़ा मरा था और मृगांकवती खोई थी वहां पाया और उस जगह के साम्हने आते हुए एक बहेलिये से भी उसी मृगांकवती को पूछा
तब उसने कहा कि क्या तुम्हारा श्रीदत्त नाम है। फिर यह बोला कि अभागा श्रीदत्त मैं ही हूं। तब वह बोला कि वह स्त्री अपने मन को मलीन किये यहां रो २ कर तुम्हें ढूंढती हुई, तुम्हारी स्त्री को देखकर और संपूर्ण वृत्तान्त भी उस्से पूछ कर उसे सावधान किया। और फिर दया पूर्वक इस वन से उसको अपने गांव में ले गया। फिर गांव में जवान २ वधिकों को देख कर मथुरा के निकट नागस्थल नामगांव में विश्वदत्त नाम एक वृद्ध ब्राह्मण के यहां मैंने उसे सुपुर्द कर दिया है, फिर तुम्हारी स्त्री से तुम्हारे नाम को पूछ कर मैं तुमको तलाश करने यहां आया हूँ। अब तुम शीघ्र नागस्थल में जाकर अपनी स्त्री को लेलो। उसके यह वचन सुन कर श्रीदत्त वहाँ से चला, और दूसरे दिन नागस्थल में पहुंचा। और विश्वदत्त ब्राह्मण के घरमें जाकर श्रीदत्त ने यह वचन बोला, कि बहेलिये की सुपुर्द कराई हुई हमारी स्त्री को तुम देदो। यहसुनकर विश्वदत्त ने कहा कि मथुरा में राजा सूरसेन नाम का उपाध्याय तथा मंत्री एक ब्राह्मण मेरा मित्र है। उसी के यहां मैंने तुम्हारी स्त्री को भेज दिया है। क्योकि इसनिर्जन गांव में उसकी रक्षा नहीं हो सक्ती थी, तो प्रातःकाल तुम वही जाना आज यहाँ ही रहो। विश्वदत्त के कहने से श्रीदत्त-रात्रिभर वहीं रहा और प्रातःकाल मथुरा को चला। फिर दूसरे दिन मथुरा के निकट पहुंच कर बहुत मार्ग चलन से चेष्टा (वस्त्र) मैली होगई थी। इसलिये निर्मल जलवाली एक वावड़ी में स्नान करने लगा वहां जलके भीतर चोरों का रक्खा हुआ एक वस्त्र मिला, जिसके कि किनारों में सोनों का हार वंधा हुआ था। तब वह उस बस्त्र को लेकर हारको बिना देखे, श्रीदत्त मथुरा में घुसा वहां उस वस्त्र को पहचान कर और उसमें रत्नों का हार बंधा देखकर। राजा के सिपाही उसे चोर कहकर बांध के कोतवाल के पास ले आये। कोतवाल ने राजा से कहा और राजा ने उसके मारने का हुक्म दे दिया। तब मारने के लिये बध करने के स्थान में राजा के सिपाही ढंढोरा पीटते हुए श्रीदत्त को लेचले, इस प्रकार से जाते हुए। श्रीदत्त को मृगांकवती ने देखा और जिसके घरमें रहती थी, उस मंत्री से बोली कि यही मेरा पति है, जिसको मारने के लिये राजा के सिपाही लिये जाते है। यह सुन कर मंत्री ने उन वध करने वालो को रोक दिया। और राजा से कह कर उसे वध से छुड़वा दिया। और अपने घर में ले आया। इसके उपरान्त श्रीदत्त मंत्री को देखकर अपने चित्त में शोचने लगा कि यह वही मेरा विगतभय नाम चचा है, जो कि परदेश को चला गया था और भाग्यवश से यहं आकर मंत्री हुआ है। इस प्रकार उसे पहचान के और पूछ कर उसके पैरों में गिर पड़ा।, विगतभय भी अपने भाई के पुत्र को पहचान कर और उसे कंठ में लगा कर, संपूर्ण वृत्तान्त पूंछने लगा तब श्रीदत्तने अपने पिता की मृत्यु से लेकर अपना सब वृत्तान्त अपने चचा को सुना दिया। उस श्रीदत्त का सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनकर विगतभय के आंसू निकल आये। और एकान्त में अपने भतीजे से बोला कि हे पुत्र धीरज धरो मुझे यक्षिणी सिद्ध है। उसने मुझे पांच हजार घोड़े और सात करोड़ अशर्फी दी है, वह सब धन तुम्हारा ही है, क्योंकि मेरा कोई पुत्र नहीं है यह कहकर उसने श्रीदत्त की स्त्री श्रीदत्त के सुपुर्द कर दी और श्रीदत्त ने भी वहुत सारे ऐश्वर्य को पाकर उसके साथ अपना विवाह करलिया। जैसे कि रात्रि से चन्द्रमा की शोभा होती है, उसी प्रकार वहां रहते हुए श्रीदत्तकी शोभा मृगांकवती से हुई। यद्यपि श्रीदत्त को ऐसा ऐश्वर्य प्राप्त भी हुआ था, तथापि उसके चित्तमें बाहुशाली आदिक मित्रों की चिन्ता बनी ही रहती थी, एक समय विगतभय ने श्रीदत्त को एकान्त में बुला कर कहा कि हे पुत्र यहां के राजा शूरसेन की कन्या को राजा की आज्ञा से किसी को देने के लिये, उसे लेकर मैं अवन्ती देश को जाऊंगा। तो इसी बहाने से उस कन्या को मैं तुम्हें दे दूंगा, तब उस कन्या के साथ जो फौज होगी, वह और मेरी सब फौज को लेकर जो राज्य लक्ष्मी जी की कृपा से तुम्हे मिलने वाला है, वह शीघ्र ही तुम्हें मिल जायेगा। यह निश्चय करके सेना और अपनी मृगांकवती आदि घर के लोगों के समेत वह दोनों चचा भतीजे उस कन्या को लेकर वहां से चले, इसके उपरान्त जब विन्ध्याचल पर यह दोनों पहुंचे तब बहुत सी डांकुओं की सेना वहां आई और इन्हें रोककर वाणो से मारने लगी। तव श्रीदत्त की सम्पूर्ण सेना के भाग जाने पर प्रहार से मूर्क्षित हुए, श्रीदत्त को बांध कर और उसका सम्पूर्ण धन लेकर डांकू अपने गांवों को चले गये। फिर सम्पूर्ण डांकू श्रीदत्त को बलिदान देने के लिये भगवती के मंदिर में चले गये। और घंटा 'बजाने लगे, फिर वहां अपने लड़के समेत आई हुई सुन्दरी नाम भीलों के राजा की कन्या ने श्रीदत्त को देखा, और सब डांकुओं को हटाकर श्रीदत्त को लेकर बड़े आनन्द पूर्वक देवी के मन्दिर में गई। इसके उपरान्त भीलों का राजा जो मरते समय अपना सब राज्य अपनी कन्या को दे गया था। वह श्रीदत्त को मिला। क्योंकि उसके कोई पुत्र न था, और वह सम्पूर्ण डांकुओं का लिया हुआ धन भी चचा तथा मृगांकवती समेत श्रीदत्त को मिल गया। फिर उस कन्या से मृगाङ्कक नाम अपने खड्ग को पा कर, और शूरसेन नाम राजा की कन्या से विवाह करके श्रीदत्त वहां का बड़ा भारी राजा हो गया। तब श्रीदत ने अपने दोनों सुसर विंचक और शूरसेन के पास दूत भेजे, तब वह दोनों यह सुनकर अपनी 2 सेनालेकर अपनी 2 कन्याओं के स्नेह से वहां आये, फिर वाहुशाली आदिक मित्र भी घावों के अच्छे हो जाने पर श्रीदत्त के सर्व वृत्तांत को सुनकर यहाँ आये। इसके उपरान्त सुसरों समेत श्रीदत्त ने पिता के मारने वाले राजा विक्रमशक्ति को जाकर मारा, और मृगायती समेत सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य पाकर विरह के उपरान्त श्रीदत्त अत्यन्त प्रसन्न हुआ। इस प्रकार से हे राजा बड़े वियोग और नाना आपत्ति रूपी समुद्र को पार होकर धीर पुरुष आनन्द को पाते हैं, संगतक कथक से इस कथा को सुन कर राजा सहस्रानीक ने वह रात्रि मार्ग में व्यतीत की फिर प्रातःकाल पहले तो मनोरथों पर चढ़ कर राजा का चित्त चला और पीछे राजा सहस्रानीक चला थोडे़ दिनों में राजा महर्षि जमदग्नि जी के आश्रम में पहुंचा। वह ऐसा उत्तम आश्रम था, कि जिसमें पशु पक्षी भी अपनी चपलता को छोड़कर शान्तवृत्ती में रहते थे। वहां अतिथियों के सम्पूर्ण सत्कार करने वाले जमदग्नि जी को देखकर राजा ने प्रणाम किया। तब अपने दर्शन से मनुष्यों को पवित्र करने वाले तप के समूह महर्षि जमदग्नि जी ने बहुत दिन से छुटी हुई पुत्र समेत रानी मृगावती राजा को दे दी। शाप के अंत में परस्पर देखने से उन दोनों के जो आंसू आगये थे, वह आंसू न थे मानो अमृत की वृष्टि थी। राजा ने अपने उदयन्नाम पुत्र को प्रथम ही देख कर आलिङ्गन करके बहुत देर में छोड़ा, इसके अनन्तर जमदग्नि जी से पूंछकर,उदयन् समेत अपनी रानी मृगावती को लेकर राजा आश्रम से चला। उस समय राजा को भेजने के लिए मासूम 2 हुए मृग भी तपोवन तक चले आये थे। रानी के विरह की वातों को सुनता हुआ और अपने विरह की बातों को कहता हुआ, राजा सहस्रानीक अपनी कौशाम्बी नगरी में पहुंचा। रानी और पुत्र समेत राजा को आया हुआ देख कर प्रजा के सम्पूर्ण लोग अत्यन्त प्रसन्नता को हुए। राजा ने अपने पुत्र के गुणों को देखकर उसे युवराज पदवी दे दी, और अपने मंत्रियों के पुत्र जिनका कि वसन्तक रुमण्वान और यौगन्धरायण नाम था उनतीनों को उसका मंत्री बना दिया। उस समय पुष्प वृष्टि संयुक्त आकाश से वाणी हुई, कि इनमंत्रियों के साथ उदयन् सम्पूर्ण पृथ्वी का राजा होगा। इसके उपरान्त अपने पुत्र को राज्य का भार सौंपकर राजा मृगावती समेत संसार का सुख भोगने लगा। कुछ दिन के उपरान्त राजा कान के पासके बालों को स्वेत देख कर शान्त हो गया और विषय भोग करने की सब इच्छा जाती रही तब उदयन्नाम अपने पुत्र को राज्य देकर अपने मंत्री और मृगावती समेत राजा सहस्रानीक तप करने के लिये हिमालय को चला गया।।


इतिश्रीकथासरित्सागरभाषायांकथामुखलम्बकेद्वितीयस्तरंग।। २।।




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