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कथासरित्सागर भाग-2.3 गतांक से आगे.......................



कथासरित्सागर भाग-2.3

गतांक से आगे.......................


      इसके उपरान्त राजा उदयन् वत्स देश के राज्य को पाकर अच्छे प्रकार से प्रजाओं का पालन करने लगा। फिर धीरे २ यौगन्धरायण आदिकमंत्रियों पर राज्यके भार को छोड़ कर केवल सुख का भोग विलाश करने लगा। सदैव शिकार करता था और बासकि की दी हुई वीणा को रात्रि दिन बजाया करता था। वीणा के मधुर शब्द को सुनकर वशीभूत हुए मतवाले वनके हाथियों को बंधवा कर ले आता था। और मंत्रियों के सन्मुख वेश्याओं के साथ मद्य पीता था। राजा को केवल यह चिन्ता लगी रहती थी कि मेरे कुल और स्वरूप के अनुरूप स्त्री कहीं नहीं है। एक वासवदत्त नाम कन्या सुनाई देती है, सो यह कैसे मिलसकी है? और उज्जयिनी में उस कन्या का पिता राजा चण्ड महासेन भी यह विचारा करता था, कि मेरी कन्या के अनुरूप पति संसार भर में कोई नहीं है एक उदयन्नाम है, सो वह सदैव का हमारा शत्रु है। तो किस प्रकार से उदयन् हमारे वशीभूत होकर इस कन्या को ग्रहण करे, एक उपाय है। कि उदयन् वन में अकेला शिकार के शौक से सदैव हाथियों को पकड़ा करता है। वहीं से युक्ति पूर्वक उसको बँधवा मॅगवाऊं। और उससे अपनी कन्या को गाना सिखवाऊं। तब वह आप ही मेरी कन्या को देख कर मोहित होगा। इस प्रकार से वशीभूत होकर मेरा दामाद हो जायगा। इसके सिवाय उसको वश में करने का कोई दूसरा उपाय नही है। यह शोचकर राजा भगवती के मंदिर को गया और भगवती की पूजा तथा स्तुति करके, अपनी कन्या के लिये वही राजा उदयन् वर मांगा। तब उस मंदिर से यह आवाज आई, कि हे राजा तुम्हारा यह मनोरथ थोड़े ही दिनों में पूरा हो जायगा। यह सुनकर प्रसन्नता के साथ राजा बुद्धिदत्त नाम अपने मंत्री से भी यही विचार करने लगा। कि उदयन् वड़ामानी निर्लोभ तथा महाबलवान है। और उसके मन्त्रीयादि सेवक भी उससे बड़ा अनुराग करते हैं। इससे यद्यपि उसके साथ कोई उपाय नहीं चल सक्ते हैं, परन्तु पहले साम करना चाहिये, यह सलाह करके राजा ने एक दूत से कहा कि तुम वत्स देश के राजा से जाकर यह कहो कि हमारी कन्या तुम से गान विद्या सीखना चाहती है। जो तुम्हें हम लोगों पर स्नेह करते हो, तो उसे यहां आ कर गाना सिखाओ। राजा के यह वचन सुनकर राजा का दूत वहां से चलता हुआ दूर कोशाम्बी में आया और संपूर्ण अपने राजा का संदेशा उदयन राजा से कह सुनाया। दूत ने यह अनुचित वचन सुनकर उदयन् एकान्त में अपने मन्त्री योगन्धरायण से बोला। कि उस राजा ने अभिमान पूर्वक हमारे पास यह क्या संदेशा भेजा है? और इससे उसका क्या अभिप्राय है? उदयन के यह वचन सुनकर अपने स्वामी के हितका चाहने वाला महामन्त्री योगन्धरायण बोला कि हे महाराज संसार में लता के समान जो आपके शौक की शोहरत फैल रही है। उसी का यह बुरा फल है यह तुम्हें शोकीन समझकर कन्या के लोभ से बुलाकर पकड़ना चाहता है। इसलिये तुम शौंकों को छोड़ दों। क्योंकि गड्ढे में पड़े हुए वन के हाधियों के समान शौंकों में डुबे हुए राजाओं को शत्रु लोग पकड़ लेते है। मंत्री के यह वचन सुन कर उदयन्ने राजा चंड महासेन के पास अपने दूत के द्वारा यह संदेशा भेजा कि जो तुम्हारी कन्या हमसे गान विद्या सीखना चाहती है। तो उसे यहां ही भेज दो, इसके उपरान्त उदयन्ने अपने मंत्रियों से यह कहा कि अब हम जाकर राजा चंड महासेन को यहां बांध लाते हैं। यह सुन कर महामन्त्री यौगन्धरायण बोला कि यह नहीं किया जा सकता और योग्य भी नहीं है। क्योंकि उस राजा का बड़ा प्रभाव है तुमको भी उससे मेल करना चाहिये। सुनो में वहां का सब हाल तुमसे कहता हूं। 

    अपने बड़े २ श्वेत मकानों से मानो स्वर्ग पर भी हॅसती हुई उज्जयिनी नाम नगरी है, जिसमें श्री शिव जी कैलाश के निवास को छोड़ कर महाकाल के स्वरूप को धारण करके निवास करते हैं, उस नगरी में महेन्दवा नाम बड़ा श्रेष्ठ राजा हुआ था, उसके जयसेन नाम पुत्र हुआ। और उस को बड़ा बलवान् महासेन नाम राजा हुआ, उस राजा ने अपना राज्य करते २ एक समय यह शोचा कि मेरे पास न मेरे लायक कोई खड्ग है और न कोई मेरे योग्य कुलीन स्त्री है। यह शोच कर राजा भगवती चंडिका जी के मन्दिर में गया और निराहार होकर बहुत दिन भगवती का भजन करता रहा और अपनी शरीर से अपने मांस को काट कर हवन करने लगा। तब प्रसन्न होकर साक्षात् भगवती ने उससे कहा कि हे पुत्र तेरे ऊपर मैं प्रसन्न हूं। तू इस मेरे खड्ग को ले, इसके प्रभाव से कोई शत्रु तुझे जीत न सकेगा। और अंगारकासुर की अत्यन्त सुन्दर अंगावती नाम कन्या तुझे शीघ्र ही मिलेगी। तूने यह बड़ा चण्ड अर्थात् घोर कर्म किया है। इससे तेरा नाम चण्डमहासेन होगा। यह कह कर और खड्न देकर भगवती अन्तर्ध्यान हो गई। तब वह राजा अत्यन्त प्रसन्न हो गया। जैसे इन्द्र के पास वज्र और ऐरावत हाथी है। उसी प्रकार उस राजा के पास भगवती का दिया हुआ खड्ग और नद्रागिरि नाम हाथी है। इन दोनों के प्रभाव से सुख पूर्वक राज्य करता हुआ, वह राजा किसी समय शिकार खेलने को वन में गया था। वहां जाकर दिन के प्रभाव से इकट्ठे हुए अन्धकार के समान श्यामरंग वाला एक बड़ा भारी सूअर दिखाई पड़ा तब राजा ने उसको बहुत से वाण मारे तिस पर भी उसकी देहमें कोई घाव न हुआ। और राजा के रथ में टक्कर मार कर वह अपने भिटे में चला गया। तब राजा भी रथ को छोड़ कर धनुष वाण लेकर उसके पीछे ही उस भिटे में घुसा। बहुत दूर जाकर वहां एक बड़ा उत्तम पुर दिखाई पड़ा राजा वहां जाकर आश्चर्य करके किसी वावड़ी के किनारे पर बैठ गया, वहां राजा ने सैकड़ों स्त्रियों से घिरी हुई और धीरों के भी धीर की छुटाने वाली, एक कन्या देखी। वह कन्या भी राजा को बड़े प्रेम पूर्वक देख कर धीरे से बोली, कि हे सुन्दर तुम कौन हो? और किसलिये यहां आये हो। तब राजा ने अपना सम्पूर्ण हाल कह दिया यह सुन कर वह कन्या अधीर होकर रोने लगी, तब राजा ने उससे पूंछा कि तुम कौन हो? और किसलिये रोती हो यह सुन कर उसने काम के वशीभूत होकर कहा कि यह जो सूअर तुमने देखा था वह अंगारक नाम दैत्य है। और मैं उसकी अंगास्वती नाम की कन्या हूं। मेरे पिता का शरीर वज्र का है राजाओं के घर से सौ राजकन्या लाकर उसने मेरी दासी बनाई है। शाप के दोष से राक्षस होने वाले मेरे पिता ने तृषा और परिश्रम से व्याकुल होकर तुम्हें पाकर भी छोड़ दिया है। इस समय वह शूकर के रूप को त्यागकर सो रहा है, जब सोकर उठेगा तो अवश्य तुम्हें मारेगा। इसी से तुमको देख कर मेरे बार 2 आंसू आ रहे हैं। अंगास्वती के यह वचन सुन कर राजा बोला कि जो हमारे ऊपर तुम्हारा स्नेह है। तो तुम यह हमारा कहना करो कि जब तुम्हारा पिता सोकर उठे, तब तुम उसके आगे रोने लगना। तब वह जरूर तुमसे उस का कारण पूछेगा, उस समय तुम उससे कहना कि अगर तुमको कोई मार डाले तो मेरी क्या गति होगी? यही मुझे दुःख है। ऐसा करने से हमारा और तुम्हारा दोनों का कल्याण होगा। राजा के इन वचनों को मान कर और राजा को छिपा कर, अंगास्वती जहां उसका पिता सोता था वहां चली गई। जब वह दैत्य उठा तब वह रोने लगी उसे रोते देख कर उसने पूँछा कि हे कन्या तू क्यों रो रही है? उसने कहा कि अगर तुमको कोई मार डाले तो मेरी क्या गति होगी? इसी दुःख से मैं रो रही हूं। तब वह राक्षस हँस कर बोला कि मुझे कौन मार सक्ता है? मेरा शरीर वज्र का है मेरे बायें हाथ में एक विल है, उसे मैं धनुष से छिपाये रहता हूं। इस प्रकार उस दैत्य ने अपनी कन्या को समझाया, और यह सब बातें इस छिपे हुए राजा ने सब सुन लीं। इसके उपरान्त वह दैत्य स्नान करके मौन होकर श्री महादेव जी का पूजन करने लगा। उस समय प्रकट होकर धनुष चढ़ाये हुए राजा ने उसे युद्ध करने के लिये बुलाया। तब उस दैत्यने बांये हाथ को हटाकर यह इशारा किया कि क्षण भर ठहर जाओ। राजा ने उसी समय उस दैत्य के उसी विल में वाण मारा तव मर्म स्थान में चोट लगने से बड़ा घोर शब्द करके वह दैत्य पृथ्वी में गिर पड़ा। और यह कह कर मर गया कि जिसने मुझ प्यासे को मारा है वह जो हर साल मुझको जल से तृप्त न करेगा तो उसके पांच मंत्री मर जायेंगे। तब राजा उस कन्या को लेकर उज्जयिनी अपनी' नगरी को चला आया। और वहाँ आकर उसके साथ विवाह किया। तव उसके दो पुत्र उत्पन्न हुए एक गोपालक और दूसरा पालक उनके उत्पन होने में राजा ने बड़ा इन्द्रोत्सव किया। तब स्वप्न में राजा से इन्द्र ने कहा कि हमारी कृपा से तुम्हारे यहां एक बड़ी अपूर्व कन्या होगी। फिर कुछ काल के व्यतीत होने पर उस राजा के यहां चन्द्रमा की मूर्ति के समान एक अपूर्व कन्या उत्पन्न हुई। और उस समय यह आकाशवाणी हुई कि कामदेव का अवतार इस कन्याका पुत्र होगा। और वह सम्पूर्ण विद्याधरों का राजा होगा। फिर राजा ने यह कन्या इन्द्र की दी हुई है इस कारण उसका नाम वासवदत्त रक्खा। अब समुद्र में लक्ष्मी के समान उस राजा के यहाँ वह कन्या किसी के देने के ही लिये है। हे राजा इस प्रकार के प्रभाव वाला वह चण्डमहासेन राजा जीतने के योग्य नहीं है। परन्तु वह राजा अपनी कन्या तुम्हीं को देना चाहता है, और वह अभिमानी है इसलिये अपने पक्ष की श्रेष्ठता भी चाहता है मुझे मालूम होता है कि वासवदत्ता का विवाह अवश्य तुम्हारे ही साथ होगा। मंत्री के यह वचन सुन कर राजा उदयन का चित्त वासवदत्ता में लग गया ॥ 

 इतिश्रीकथासरित्सागरभापायांकथामुखलम्वकेतृनीयस्तरङ्गः३॥



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