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अष्ट्रावक्र महागीता -ओशो सत्य का शुद्धतम व्यक्तव्य -2

 अष्ट्रावक्र महागीता -ओशो सत्य का शुद्धतम व्यक्तव्य -2

   

     बुद्ध ने कहा, ‘सुनो। घोड़े...।’ आनंद से घोड़े की बात की, क्योंकि आनंद क्षत्रिय था, बुद्ध का चचेरा भाई था और बचपन से ही घोड़े का बड़ा शौक था उसे, घुड़सवार था। प्रसिद्ध घुड़सवार था, प्रतियोगी था बड़ा! उन्होंने कहा, ‘सुन आनंद!’ बुद्ध ने कहा: ‘घोड़े चार प्रकार के होते हैं। एक तो मारो भी तो भी टस से मस नहीं होते। रद्दी से रद्दी घोड़े! जितना मारो उतना ही हठयोगी हो जाते हैं, बिलकुल हठ बांध कर खड़े हो जाते हैं। तुम मारो तो वे जिद्द बना लेते हैं कि देखें कौन जीतता है! फिर दूसरे तरह के घोड़े होते हैं: मारो तो चलते हैं, न मारो तो नहीं चलते। कम से कम पहले से बेहतर। फिर तीसरे तरह के घोड़े होते हैं: कोड़ा फटकारो, मारना जरूरी नहीं। सिर्फ कोड़ा फटकारो, आवाज काफी है। और भी कुलीन होते हैं--दूसरे से भी बेहतर। फिर आनंद, तुझे जरूर पता होगा ऐसे भी घोड़े होते हैं कि कोड़े की छाया देख कर भागते हैं, फटकारना भी नहीं पड़ता। यह ऐसा ही घोड़ा था। छाया काफी है।’

   अष्टावक्र ने देखा होगा गौर से।

    जब तुम आ कर मुझसे कुछ पूछते हो तो तुम्हारे प्रश्न से ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल तुम हो। कभी-कभी तुम्हें भी ऐसा लगता होगा कि तुमने जो नहीं पूछा था, वह मैंने उत्तर दिया है। और कभी-कभी तुम्हें ऐसा भी लगता होगा कि शायद मैं टाल गया तुम्हारे प्रश्न को, बचाव कर गया, कुछ और उत्तर दे गया हूं। लेकिन सदा तुम्हारी भीतरी जरूरत ज्यादा महत्वपूर्ण है; तुम क्या पूछते हो, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं। क्योंकि तुम्हें खुद ही ठीक पता नहीं, तुम क्या पूछते हो, क्यों पूछते हो। उत्तर वही दिया जाता है, जिसकी तुम्हें जरूरत है। तुम्हारे पूछने से कुछ तय नहीं होता।

    देखा होगा अष्टावक्र ने: ज्ञानी तो नहीं है जनक। अज्ञानी है फिर क्या? अज्ञानी भी नहीं है। क्योंकि अज्ञानी तो अकड़ीला, अकड़ से भरा होता है। अज्ञानी तो झुकना जानता ही नहीं। यह तो मुझे बारह साल की उम्र के लड़के के पैरों में झुक गया, साष्टांग दंडवत की। यह अज्ञानी के लिए असंभव है। अज्ञानी तो समझता है कि मैं जानता ही हूं, मुझे कौन समझायेगा! अज्ञानी अगर कभी पूछता भी है तो तुम्हें गलत सिद्ध करने को पूछता है। क्योंकि अज्ञानी तो यह मान कर ही चलता है कि पता तो मुझे है ही; देखें इनको भी पता है या नहीं! अज्ञानी परीक्षा के लिए पूछता है। नहीं, इसकी आंखें, जनक की तो बड़ी निर्मल हैं। मुझ बारह साल के अनजान-अपरिचित लड़के को सम्राट होते हुए भी इसने कहा, ‘एतत मम बू्रहि प्रभो! हे प्रभु, मुझे समझा कर कहें!’ नहीं, यह विनयशील है, अज्ञानी तो नहीं है। मूढ़ है क्या फिर? मूढ़ तो पूछते ही नहीं। मूढ़ों को तो पता ही नहीं है कि जीवन में कोई समस्या है।

    मूढ़ और बुद्धपुरुषों में एक समानता है। बुद्धपुरुषों के लिए कोई समस्या नहीं रही; मूढ़ों के लिए अभी समस्या उठी ही नहीं। बुद्धपुरुष समस्या के पार हो गये: मूढ़ अभी समस्या के बाहर हैं। मूढ़ तो इतना मूर्च्छित है कि उसे कहां सवाल? ‘कथं ज्ञानम्‌’--मूढ़ पूछेगा? ‘कथं मुक्ति’ मूढ़ पूछेगा? ‘कैसे होगा वैराग्य’ मूढ़ पूछेगा? असंभव!

     मूढ़ अगर पूछेगा भी तो पूछता है, राग में सफलता कैसे मिलेगी? मूढ़ अगर पूछता भी है तो पूछता है, संसार में और थोड़े ज्यादा दिन कैसे रहना हो जाये? मुक्ति...! नहीं, मूढ़ पूछता है बंधन सोने के कैसे बनें? बंधन में हीरे-जवाहरात कैसे जड़ें? मूढ़ पूछता भी है तो ऐसी बातें पूछता है। ज्ञान! मूढ़ तो मानता ही नहीं कि ज्ञान हो सकता है। वह तो संभावना को ही स्वीकार नहीं करता। वह तो कहता है, कैसा ज्ञान? मूढ़ तो पशुवत जीता है।

     नहीं, यह जनक मूढ़ भी नहीं है--मुमुक्षु है।

    ‘मुमुक्षु’ शब्द समझना जरूरी है। मोक्ष की आकांक्षा मुमुक्षा! अभी मोक्ष के पास नहीं पहुंचा, ज्ञानी नहीं है; मोक्ष के प्रति पीठ करके नहीं खड़ा, मूढ़ नहीं है; मोक्ष के संबंध में कोई धारणाएं पकड़ कर नहीं बैठा, आज्ञानी भी नहीं है--मुमुक्षु है। मुमुक्षु का अर्थ है, सरल है इसकी जिज्ञासा; न मूढ़ता से अपवित्र हो रही है, न अज्ञानपूर्ण धारणाओं से विकृत हो रही है। शुद्ध है इसकी जिज्ञासा। सरल चित्त से पूछा है।

    अष्टावक्र ने कहा, ‘हे प्रिय, यदि तू मुक्ति को चाहता है तो विषयों को विष के समान छोड़ दे और क्षमा, आर्जव, दया, संतोष और सत्य को अमृत के समान सेवन कर।’

    मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान्‌ विषवत्त्यज।

    शब्द ‘विषय’ बड़ा बहुमूल्य है--वह विष से ही बना है। विष का अर्थ होता है, जिसे खाने से आदमी मर जाये। विषय का अर्थ होता है, जिसे खाने से हम बार-बार मरते हैं। बार-बार भोग, बार-बार भोजन, बार-बार महत्वाकांक्षा, ईर्ष्या, क्रोध, जलन--बार-बार इन्हीं को खा-खा कर तो हम मरे हैं! बार-बार इन्हीं के कारण तो मरे हैं! अब तक हमने जीवन में जीवन कहां जाना, मरने को ही जाना है। अब तक हमारा जीवन जीवन की प्रज्वलित ज्योति कहां, मृत्यु का ही धुआं है। जन्म से ले कर मृत्यु तक हम मरते ही तो हैं धीरे-धीरे, जीते कहां? रोज-रोज मरते हैं! जिसको हम जीवन कहते हैं, वह एक सतत मरने की प्रक्रिया है। अभी हमें जीवन का तो पता ही नहीं, तो हम जीयेंगे कैसे? यह शरीर तो रोज क्षीण होता चला जाता है। यह बल तो रोज खोता चला जाता है। ये भोग और विषय तो रोज हमें चूसते चले जाते हैं, जराजीर्ण करते चले जाते हैं। ये विषय और कामनाएं तो छेदों की तरह हैं; इनसे हमारी ऊर्जा और आत्मा रोज बहती चली जाती है। आखिर में घड़ा खाली हो जाता है, उसको हम मृत्यु कहते हैं।

     तुमने कभी देखा, अगर छिद्र वाले घड़े को कुएं में डालो तो जब तक घड़ा पानी में डूबा होता है, भरा मालूम पड़ता है; उठाओ, पानी के ऊपर खींचो रस्सी, बस खाली होना शुरू हुआ! जोर का शोरगुल होता है। उसी को तुम जीवन कहते हो? जलधारें गिरने लगती हैं, उसी को तुम जीवन कहते हो? और घड़ा जैसे-जैसे पास आता हाथ के, खाली होता चला जाता है। जब हाथ में आता है, तो खाली घड़ा! जल की एक बूंद भी नहीं! ऐसा ही हमारा जीवन है।

    बच्चा पैदा नहीं हुआ, भरा मालूम होता है; पैदा हुआ कि खाली होना शुरू हुआ। जन्म का पहला दिन मृत्यु का पहला दिन है। खाली होने लगा। एक दिन मरा, दो दिन मरा, तीन दिन मरा! जिनको तुम ‘जन्म-दिन’ कहते हो, अच्छा हो, ‘मृत्यु-दिन’ कहो तो ज्यादा सत्यतर होगा। एक साल मर जाते हो, उसको कहते हो, चलो एक जन्म-दिन आ गया! पचास साल मर गये, कहते हो, ‘पचास साल जी लिये, स्वर्ण-जयंती मनाएं!’ पचास साल मरे। मौत करीब आ रही है, जीवन दूर जा रहा है। घड़ा खाली हो रहा है! जो दूर जा रहा है, उसके आधार पर तुम जीवन को सोचते हो या जो पास आ रहा है उसके आधार पर? यह कैसा उलटा गणित! हम रोज मर रहे हैं। मौत करीब सरकती आती है।

    अष्टावक्र कहते हैं: विषय हैं विषवत, क्योंकि उन्हें खा-खा कर हम सिर्फ मरते हैं; उनसे कभी जीवन तो मिलता नहीं।

   ‘यदि तू मुक्ति चाहता है, हे तात, हे प्रिय, तो विषयों को विष के समान छोड़ दे, और क्षमा, आर्जव, दया, संतोष और सत्य को अमृत के समान सेवन कर।’

    अमृत का अर्थ होता है, जिससे जीवन मिले; जिससे अमरत्व मिले; जिससे उसका पता चले जो फिर कभी नहीं मरेगा।

    तो क्षमा!

    क्रोध विष है; क्षमा अमृत है।

    आर्जव!

    कुटिलता विष है; सीधा-सरलपन, आर्जव अमृत है।

     दया!

    कठोरता, क्रूरता विष है; दया, करुणा अमृत है।

    संतोष!

   असंतोष का कीड़ा खाए चला जाता है। असंतोष का कीड़ा हृदय में कैंसर की तरह है; फैलता चला जाता है; विष को फैलाए चले जाता है।

    संतोष--जो है उससे तृप्ति; जो नहीं है उसकी आकांक्षा नहीं। जो है वह काफी से ज्यादा है। वह है ही काफी से ज्यादा। आंख खोलो, जरा देखो!

    संतोष कोई थोपना नहीं है ऊपर जीवन के। जरा गौर से देखो, तुम्हें जो मिला है वह तुम्हारी जरूरत से सदा ज्यादा है! तुम्हें जो चाहिए वह मिलता ही रहा है। तुमने जो चाहा है, वह सदा मिल गया है। तुमने दुख चाहा है तो दुख मिल गया है। तुमने सुख चाहा है तो सुख मिल गया है। तुमने गलत चाहा तो गलत मिल गया है। तुम्हारी चाह ने तुम्हारे जीवन को रचा है। चाह बीज है; फिर जीवन उसकी फसल है। जन्मों-जन्मों में जो तुम चाहते रहे हो वही तुम्हें मिलता रहा है। कई बार तुम सोचते हो हम कुछ और चाह रहे हैं, जब मिलता है तो कुछ और मिलता है तो तुम्हारे चाहने में भूल नहीं हुई है; सिर्फ तुमने चाहने के लिए गलत शब्द चुन लिया था। जैसे--तुम चाहते हो सफलता, मिलती है विफलता। तुम कहते हो, विफलता मिल रही है; चाही तो सफलता थी।

    लेकिन जिसने सफलता चाही उसने विफलता को स्वीकार कर ही लिया; वह विफलता से भीतर डर ही गया है। विफलता के कारण ही तो सफलता चाह रहा है। और जब-जब सफलता चाहेगा तब-तब विफलता का खयाल आयेगा। विफलता का खयाल भी मजबूत होता चला जायेगा। सफलता तो कभी मिलेगी; लेकिन रास्ते पर यात्रा तो विफलता-विफलता में ही बीतेगी। विफलता का भाव संगृहीभूत होगा। वह इतना संगृहीभूत हो जायेगा कि वही एक दिन प्रगट हो जायेगा। तब तुम कहते हो कि हमने तो सफलता चाही थी। लेकिन सफलता के चाहने में तुमने विफलता को चाह लिया।

    लाओत्सु ने कहा है: सफलता चाही, विफलता मिलेगी। अगर सचमुच सफलता चाहिए हो, सफलता चाहना ही मत; फिर तुम्हें कोई विफल नहीं कर सकता।

    तुम कहते हो: हमने सम्मान चाहा था, अपमान मिल रहा है। सम्मान चाहता ही वही व्यक्ति है, जिसका अपने प्रति कोई सम्मान नहीं। वही तो दूसरों से सम्मान चाहता है। अपने प्रति जिसका अपमान है वही तो दूसरों से अपने अपमान को भर लेना चाहता है, ढांक लेना चाहता है। सम्मान की आकांक्षा इस बात की खबर है कि तुम अपने भीतर अपमानित अनुभव कर रहे हो; तुम्हें अनुभव हो रहा है कि मैं कुछ भी नहीं हूं, दूसरे मुझे कुछ बना दें, सिंहासन पर बिठा दें, पताकाएं फहरा दें, झंडे उठा लें मेरे नाम के--दूसरे कुछ कर दें!

    तुम भिखमंगे हो! तुमने अपना अपमान तो खुद कर लिया जब तुमने सम्मान चाहा। और यह अपमान गहन होता जायेगा।

    लाओत्सु कहता है, मेरा कोई अपमान नहीं कर सकता, क्योंकि मैं सम्मान चाहता ही नहीं। यह सम्मान को पा लेना है। लाओत्सु कहता है, मुझे कोई हरा नहीं सकता, क्योंकि जीत की हमने बात ही छोड़ दी। अब हराओगे कैसे! तुम उसी को हरा सकते हो जो जीतना चाहता है अब यह जरा उलझा हुआ हिसाब है।

     इस दुनिया में सम्मान उन्हें मिलता है जिन्होंने सम्मान नहीं चाहा। सफलता उन्हें मिलती है जिन्होंने सफलता नहीं चाही। क्योंकि जिन्होंने सफलता नहीं चाही उन्होंने तो स्वीकार ही कर लिया कि सफल तो हम हैं ही, अब और चाहना क्या है? सम्मान तो हमारे भीतर आत्मा का है ही; अब और चाहना क्या है? परमात्मा ने सम्मान दे दिया तुम्हें पैदा करके; अब और किसका सम्मान चाहते हो? परमात्मा ने तुम्हें काफी गौरव दे दिया! जीवन दिया! यह सौभाग्य दिया कि आंख खोलो, देखो हरे वृक्षों को, फूलों को, पक्षियों को! कान दिए--सुनो संगीत को, जलप्रपात के मरमर को! बोध दिया कि बुद्ध हो सको! अब और क्या चाहते हो? सम्मानित तो तुम हो गये! परमात्मा ने तुम्हें प्रमाण-पत्र दिया। तुम भिखारी की तरह किनसे प्रमाण-पत्र मांग रहे हो? उनसे, जो तुमसे प्रमाण-पत्र मांग रहे हैं?

     यह बड़ा मजेदार मामला है: दो भिखारी एक-दूसरे के सामने खड़े भीख मांग रहे हैं! यह भीख मिलेगी कैसे? दोनों भिखारी हैं। तुम किससे सम्मान मांग रहे हो? किसके सामने खड़े हो? यह अपमान कर रहे हो तुम अपना। और यही अपमान गहन होता जायेगा।

      संतोष का अर्थ होता है: देखो, जो तुम्हारे पास है। देखो जरा आंख खोल कर, जो तुम्हें मिला ही है।

     यह अष्टावक्र की बड़ी बहुमूल्य कुंजी है। यह धीरे-धीरे तुम्हें साफ होगी। अष्टावक्र की दृष्टि बड़ी क्रांतिकारी है, बड़ी अनूठी है, जड़-मूल से क्रांति की है।

     ‘संतोष और सत्य को अमृत के समान सेवन कर।’

     क्योंकि असत्य के साथ जो जीयेगा वह असत्य होता चला जायेगा। जो असत्य को बोलेगा, असत्य को जीयेगा, स्वभावतः असत्य से घिरता चला जायेगा। उसके जीवन से संबंध विच्छिन्न हो जाएंगे, जड़ें टूट जाएंगी।

     परमात्मा में जड़ें चाहते हो तो सत्य के द्वारा ही वे जड़ें हो सकती हैं। प्रामाणिकता और सत्य के द्वारा ही तुम परमात्मा से जुड़ सकते हो। परमात्मा से टूटना है तो असत्य का धुआं पैदा करो, असत्य के बादल अपने पास बनाओ। जितने तुम असत्य होते चले जाओगे उतने परमात्मा से दूर होते चले जाओगे। 

     ‘तू न पृथ्वी है, न जल है, न वायु है, न आकाश है। मुक्ति के लिए आत्मा को, अपने को इन सबका साक्षी चैतन्य जान।’

    सीधी-सीधी बातें हैं; भूमिका भी नहीं है। अभी दो वचन नहीं बोले अष्टावक्र ने कि ध्यान आ गया, कि समाधि की बात आ गई। जानने वाले के पास समाधि के अतिरिक्त और कुछ जताने को है भी नहीं। वह दो वचन भी बोले, क्योंकि एकदम से अगर समाधि की बात होगी तो शायद तुम चौंक ही जाओगे, समझ ही न पाओगे। मगर दो वचन--और सीधी समाधि की बात आ गई!

   अष्टावक्र सात कदम भी नहीं चलते; बुद्ध तो सात कदम चले, आठवें कदम पर समाधि है। अष्टावक्र तो पहला कदम ही समाधि का उठाते हैं।

    ‘तू न पृथ्वी है, न जल, न वायु, न आकाश’--ऐसी प्रतीति में अपने को थिर कर। ‘मुक्ति के लिए आत्मा को, अपने को इन सबका साक्षी चैतन्य जान।’

    ‘साक्षी’ सूत्र है। इससे महत्वपूर्ण सूत्र और कोई भी नहीं। देखने वाले बनो! जो हो रहा है उसे होने दो; उसमें बाधा डालने की जरूरत नहीं। यह देह तो जल है, मिट्टी है, अग्नि है, आकाश है। तुम इसके भीतर तो वह दीये हो जिसमें ये सब जल, अग्नि, मिट्टी, आकाश, वायु प्रकाशित हो रहे हैं। तुम द्रष्टा हो। इस बात को गहन करो।

    साक्षिणां चिद्रूपं आत्मानं विद्दि...

    यह इस जगत में सर्वाधिक बहुमूल्य सूत्र है। साक्षी बनो! इसी से होगा ज्ञान! इसी से होगा वैराग्य! इसी से होगी मुक्ति!

    प्रश्न तीन थे, उत्तर एक है।

   ‘यदि तू देह को अपने से अलग कर और चैतन्य में विश्राम कर स्थित है तो तू अभी ही सुखी, शांत और बंध-मुक्त हो जायेगा।’

    इसलिए मैं कहता हूं, यह जड़-मूल से क्रांति है। पतंजलि इतनी हिम्मत से नहीं कहते कि ‘अभी ही।’ पतंजलि कहते हैं, ‘करो अभ्यास--यम, नियम; साधो--प्राणायाम, प्रत्याहार, आसन; शुद्ध करो। जन्म-जन्म लगेंगे, तब सिद्धि है।’

   महावीर कहते हैं, ‘पंच महाव्रत! और तब जन्म-जन्म लगेंगे, तब होगी निर्जरा; तब कटेगा जाल कर्मों का।’

सुनो अष्टावक्र को:

      यदि देहं पृथक्कृत्य चिति विश्राम्य तिष्ठसि।

     अधुनैव सुखी शांतः बंधमुक्तो भविष्यसि।।

     ‘अधुनैव!’ अभी, यहीं, इसी क्षण! ‘यदि तू देह को अपने से अलग कर और चैतन्य में विश्राम कर स्थित है...!’ अगर तूने एक बात देखनी शुरू कर दी कि यह देह मैं नहीं हूं; मैं कर्ता और भोक्ता नहीं हूं; यह जो देखने वाला मेरे भीतर छिपा है जो सब देखता है--बचपन था कभी तो बचपन देखा, फिर जवानी आयी तो जवानी देखी, फिर बुढ़ापा आया तो बुढ़ापा देखा; बचपन नहीं रहा तो मैं बचपन तो नहीं हो सकता--आया और गया; मैं तो हूं! जवानी नहीं रही तो मैं जवानी तो नहीं हो सकता-- आई और गई; मैं तो हूं! बुढ़ापा आया, जा रहा है, तो मैं बुढ़ापा नहीं हो सकता। क्योंकि जो आता है जाता है, वह मैं कैसे हो सकता हूं! मैं तो सदा हूं। जिस पर बचपन आया, जिस पर जवानी आई, जिस पर बुढ़ापा आया, जिस पर हजार चीजें आईं और गईं मैं वही शाश्वत हूं।

    स्टेशनों की तरह बदलती रहती है बचपन, जवानी, बुढ़ापा, जन्म यात्री चलता जाता। तुम स्टेशन के साथ अपने को एक तो नहीं समझ लेते! पूना की स्टेशन पर तुम ऐसा तो नहीं समझ लेते कि मैं पूना हूं! फिर पहुंचे मनमाड़ तो ऐसा तो नहीं समझ लेते कि मैं मनमाड़ हूं! तुम जानते हो कि पूना आया, गया; मनमाड़ आया, गया--तुम तो यात्री हो! तुम तो द्रष्टा हो--जिसने पूना देखा, पूना आया; जिसने मनमाड़ देखा, मनमाड़ आया! तुम तो देखने वाले हो!

      तो पहली बात: जो हो रहा है उसमें से देखने वाले को अलग कर लो!

     ‘देह को अपने से अलग कर और चैतन्य में विश्राम...।’

    और करने योग्य कुछ भी नहीं है। जैसे लाओत्सु का सूत्र है--समर्पण, वैसे अष्टावक्र का सूत्र है--विश्राम, रेस्ट। करने को कुछ भी नहीं है।

     मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, ध्यान कैसे करें? वे प्रश्न ही गलत पूछ रहे हैं। गलत पूछते हैं तो मैं उनको कहता हूं, करो। अब क्या करोगे! तो उनको बता देता हूं कि करो, कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा अभी तुम्हें करने की खुजलाहट है तो उसे तो पूरा करना होगा। खुजली है तो क्या करोगे! बिना खुजाए नहीं बनता। लेकिन धीरे-धीरे उनको करवा-करवा कर थका डालता हूं। फिर वे कहते हैं कि अब इससे छुटकारा दिलवाओ! अब कब तक यह करते रहें? मैं कहता हूं, मैं तो पहले ही राजी था; लेकिन तुम्हें समझने में जरा देर लगी। अब विश्राम करो!

    ध्यान का आत्यंतिक अर्थ विश्राम है।

    चिति विश्राम्य तिष्ठसि

    जो विश्राम में ठहरा देता अपनी चेतना को; जो होने मात्र में ठहर जाता...!

    कुछ करने को नहीं है। क्योंकि जिसे तुम खोज रहे हो, वह मिला ही हुआ है। क्योंकि जिसे तुम खोज रहे हो, उसे कभी खोया ही नहीं। उसे खोया नहीं जा सकता। वही तुम्हारा स्वभाव है। अयमात्मा ब्रह्म! तुम ब्रह्म हो! अनलहक! तुम सत्य हो! कहां खोजते हो? कहां भागे चले जाते हो? अपने को ही खोजने कहां भागे चले जाते हो? रुको, ठहरो! परमात्मा दौड़ने से नहीं मिलता, क्योंकि परमात्मा दौड़ने वाले में छिपा है। परमात्मा कुछ करने से नहीं मिलता, क्योंकि परमात्मा करने वाले में छिपा है। परमात्मा के होने के लिए कुछ करने की जरूरत ही नहीं है--तुम हो ही!

    इसलिए अष्टावक्र कहते हैं: चिति विश्राम्य! विश्राम करो! ढीला छोड़ो अपने को! यह तनाव छोड़ो! कहां जाते? कहीं जाने को नहीं, कहीं पहुंचने को नहीं है।

     और चैतन्य में विश्राम...तो तू अभी ही, इसी क्षण, अधुनैव, सुखी, शांत और बंध-मुक्त हो जायेगा।

      अनूठा है वचन! नहीं कोई और शास्त्र इसका मुकाबला करता है।

     ‘तू ब्राह्मण आदि वर्ण नहीं है और न तू कोई आश्रम वाला है और न आंख आदि इंद्रियों का विषय है। असंग और निराकार तू सबका, विश्व का साक्षी है। ऐसा जानकर सुखी हो।’

    अब ब्राह्मण कैसे टीका लिखें!

   ‘तू ब्राह्मण आदि वर्ण नहीं है...।’

    अब हिंदू इस शास्त्र को कैसे सिर पर उठायें! क्योंकि उनका तो सारा धर्म वर्ण और आश्रम पर खड़ा है। और यह तो पहले से ही अष्टावक्र जड़ काटने लगे। वे कहते हैं, तू कोई ब्राह्मण नहीं है, न कोई शूद्र है, न कोई क्षत्रिय है। यह सब बकवास है! ये सब ऊपर के आरोपण हैं। यह सब राजनीति और समाज का खेल है। तू तो सिर्फ ब्रह्म है; ब्राह्मण नहीं, क्षत्रिय नहीं, शूद्र नहीं!

    ‘तू ब्राह्मण आदि वर्ण नहीं और न तू कोई आश्रम वाला है।’

    और न तो यह है कि तू कोई ब्रह्मचर्य-आश्रम में है कि गृहस्थ-आश्रम में है, कि वानप्रस्थ कि संन्यस्त, कोई आश्रम वाला नहीं है। तू तो इस सारे स्थानों के भीतर से गुजरने वाला द्रष्टा, साक्षी है।

     अष्टावक्र की गीता, हिंदू दावा नहीं कर सकते, हमारी है। अष्टावक्र की गीता सबकी है। अगर अष्टावक्र के समय में मुसलमान होते, हिंदू होते, ईसाई होते, तो उन्होंने कहा होता, ‘न तू हिंदू है, न तू ईसाई है, न तू मुसलमान है।’ अब ऐसे अष्टावक्र को...कौन मंदिर बनाये इसके लिए! कौन इसके शास्त्र को सिर पर उठाये! कौन दावेदार बने! क्योंकि ये सभी का निषेध कर रहे हैं। मगर यह सत्य की सीधी घोषणा है।

    ‘असंग और निराकार तू सबका, विश्व का साक्षी है--ऐसा जान कर सुखी हो!’

     अष्टावक्र यह नहीं कहते कि ऐसा तुम जानोगे तो फिर सुखी होओगे। वचन को ठीक से सुनना। अष्टावक्र कहते हैं, ऐसा जान कर सुखी हो!

     न त्वं विप्रादिको वर्णो नाश्रमी नाक्षगोचरः।

     असंगोऽसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव।।

     सुखी भव! अभी हो सुखी!

     जनक पूछते हैं, ‘कैसे सुख होगा? कैसे बंधन-मुक्ति होगी? कैसे ज्ञान होगा?’

     अष्टावक्र कहते हैं, अभी हो सकता है। क्षणमात्र की भी देर करने की कोई जरूरत नहीं है। इसे कल पर छोड़ने का कोई कारण नहीं, स्थगित करने की कोई जरूरत नहीं। यह घटना भविष्य में नहीं घटती; या तो घटती है अभी या कभी नहीं घटती। जब घटती है तब अभी घटती है। क्योंकि ‘अभी’ के अतिरिक्त कोई समय ही नहीं है। भविष्य कहां है? जब आता है तब अभी की तरह आता है।

    तो जो भी ज्ञान को उत्पन्न हुए हैं--‘अभी’ उत्पन्न हुए हैं। कभी पर मत छोड़ना--वह मन की चालाकी है। मन कहता है, इतने जल्दी कैसे हो सकता है; तैयारी तो कर लें!

     मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, ‘संन्यास लेना है...लेंगे कभी।’ ‘कभी!’ कभी न लोगे! कभी पर टाला तो सदा के लिए टाला। कभी आता ही नहीं। लेना हो तो अभी। अभी के अतिरिक्त कोई समय ही नहीं है। अभी है जीवन। अभी है मुक्ति। अभी है अज्ञान, अभी है ज्ञान। अभी है निद्रा, अभी हो सकता जागरण। कभी क्यों? कठिन होता है मन को, क्योंकि मन कहता है तैयारी तो करने दो! मन कहता है, ‘कोई भी काम तैयारी के बिना कैसे घटता है? आदमी को विश्वविद्यालय से प्रमाण-पत्र लेना है तो वर्षों लगते हैं। डाक्टरेट करनी है तो बीस-पचीस साल लग जाते हैं, मेहनत करते-करते, फिर आदमी जाकर डाक्टर हो पाता है। अभी कैसे हो सकते हैं?’

     अष्टावक्र भी जानते हैं: दुकान करनी हो तो अभी थोड़े खुल जायेगी! इकट्ठा करना पड़े, आयोजन करना पड़े, सामान लाना पड़े, दुकान बनानी पड़े, ग्राहक खोजने पड़ें, विज्ञापन भेजना पड़े--वर्षों लगते हैं! इस जगत में कोई भी चीज ‘अभी’ तो घटती नहीं; क्रम से घटती है। ठीक है। अष्टावक्र भी जानते हैं, मैं भी जानता हूं। लेकिन एक घटना यहां ऐसी है जो अभी घटती है--वह परमात्मा है। वह तुम्हारी दुकान नहीं है, न तुम्हारा परीक्षालय है, न तुम्हारा विश्वविद्यालय है। परमात्मा क्रम से नहीं घटता। परमात्मा घट ही चुका है। आंख भर खोलने की बात है--सूरज निकल ही चुका है। सूरज तुम्हारी आंख के लिए नहीं रुका है कि तुम जब आंख खोलोगे, तब निकलेगा। सूरज निकल ही चुका है। प्रकाश सब तरफ भरा ही है। अहर्निश गूंज रहा है उसका नाद! ओंकार की ध्वनि सब तरफ गूंज रही है! सतत अनाहत चारों तरफ गूंज रहा है! खोलो कान! खोलो आंख!

     आंख खोलने में कितना समय लगता है? उतना समय भी परमात्मा को पाने में नहीं लगता। पल तो लगता है पलक के झपने में। पल का अर्थ होता है, जितना समय पलक को झपने में लगता, उतना पल। मगर परमात्मा को पाने में पल भी नहीं लगता।

      विश्वसाक्षी, असंगोऽसि निराकारो। सुखी भव!

      अभी हो सुखी! उधार नहीं है अष्टावक्र का धर्म नगद, कैश...।

    ‘हे व्यापक, धर्म और अधर्म, सुख और दुख मन के हैं; तेरे लिए नहीं हैं। तू न कर्ता है न भोक्ता है। तू तो सर्वदा मुक्त ही है।’

       मुक्ति हमारा स्वभाव है। ज्ञान हमारा स्वभाव है। परमात्मा हमारा होने का ढंग है; हमारा केंद्र है; हमारे जीवन की सुवास है; हमारा होना है।

       धर्माऽधर्मौ सुखं दुःखं मानसानि न तो विभो।

      अष्टावक्र कहते हैं, ‘हे व्यापक, हे विभावान, हे विभूतिसंपन्न! धर्म और अधर्म, सुख और दुख मन के हैं।’ ये सब मन की ही तरंगें हैं। बुरा किया, अच्छा किया, पाप किया, पुण्य किया, मंदिर बनाया, दान दिया--सब मन के हैं।

       न कर्ताऽसि न भोक्ताऽसि मुक्त एवासि सर्वदा।

      ‘तू तो सदा मुक्त है। तू तो सर्वदा मुक्त है।’

     मुक्ति कोई घटना नहीं है जो हमें घटानी है। मुक्ति घट चुकी है हमारे होने में! मुक्ति से बना है यह अस्तित्व। इसका रोआं-रोआं, रंच-रंच मुक्ति से निर्मित है। मुक्ति है धातु, जिससे बना है सारा अस्तित्व। स्वतंत्रता स्वभाव है। यह उदघोषणा, बस समझी कि क्रांति घट जाती है। समझने के अतिरिक्त कुछ करना नहीं है। यह बात खयाल में उतर जाये, तुम सुन लो इसे मन भर कर, बस!

     तो आज इतना ही कहना चाहूंगा: अष्टावक्र को समझने की चेष्टा भर करना। अष्टावक्र में ‘करने’ का कोई इंतजाम नहीं है। इसलिए तुम यह मत सोचना कि अब कोई तरकीब निकलेगी जो हम करेंगे। अष्टावक्र कुछ करने को कहते ही नहीं। तुम विश्राम से सुन लो। करने से कुछ होने ही वाला नहीं है। इसलिए तुम कापी वगैरह, नोटबुक ले कर मत आना कि लिख लेंगे, कुछ आयेगा सूत्र तो नोट कर लेंगे, करके देख लेंगे। करने का यहां कुछ काम ही नहीं है। इसलिए तुम भविष्य की फिक्र छोड़ कर सुनना। तुम सिर्फ सुन लेना। तुम सिर्फ मेरे पास बैठ कर शांत भाव से सुन लेना, विश्राम में सुन लेना। सुनते-सुनते तुम मुक्त हो जा सकते हो।

     इसलिए महावीर ने कहा है कि श्रावक मुक्त हो सकता है--सिर्फ सुनते-सुनते! श्रावक का अर्थ होता है जो सुनते-सुनते मुक्त हो जाये। साधु का तो अर्थ ही इतना है कि जो सुन-सुन कर मुक्त न हो सका, थोड़ा कमजोर बुद्धि का है। कुछ करना पड़ा। सिर्फ कोड़े की छाया काफी न थी। घोड़ा जरा कुजात है। कोड़ा फटकारा, तब थोड़ा चला; या मारा तो थोड़ा चला।

      छाया काफी है। तुम सुन लेना, कोड़े की छाया दिखाई पड़ जायेगी।

      तो अष्टावक्र के साथ एक बात स्मरण रखना: कुछ करने को नहीं है। इसलिए तुम आनंद-भाव से सुन सकते हो। इसमें से कुछ निकालना नहीं है कि फिर करके देखेंगे। जो घटेगा वह सुनने में घटेगा। सम्यक श्रवण सूत्र है।

      अधुनैव सुखी शांतः बंधमुक्तो भविष्यसि।

      अभी हो जा मुक्त! इसी क्षण हो जा मुक्त! कोई रोक नहीं रहा। कोई बाधा नहीं है। हिलने की भी जरूरत नहीं है। जहां है, वहीं हो जा मुक्त। क्योंकि मुक्त तू है ही। जाग और हो जा मुक्त!

       असंगोऽसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव।

      हो जा सुखी! एक पल की भी देर करने की कोई जरूरत नहीं है। छलांग है, क्वांटम छलांग! सीढ़ियां नहीं हैं अष्टावक्र में। क्रमिक विकास नहीं है; सडन, इसी क्षण हो सकता है!

    हरि ॐ तत्सत्‌!


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