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प्रेम महामृत्यु है ओशो भाग -2


       कहानी के लिए कम से कम दो की जरूरत है। तो प्रेम की तो कहानी हो सकती है, ध्यान की नहीं हो सकती। ध्यान तो एक का ही एक में प्रवेश है; कहानी के लायक जगह नहीं है। कम से कम कहानी के लिए दो तो चाहिए, तो कुछ कहानी बने। तीन हों तो और भी अच्छी बन जाती है, ट्रायएंगल बन जाता है। और ज्यादा हों तो कहानी और बढ़ती चली जाती है।


      ध्यान में तो अकेला एक ही व्यक्ति बचता है।


       तुम थोड़ा ऐसा सोचो कि एक आदमी जन्मे और ध्यान में डूब जाए; सौ साल जीए और ध्यान में ही रहे--तुम उसकी कुछ कहानी कह सकोगे? उसके जीवन में कुछ घटा ही नहीं। न लड़ा, न झगड़ा, न अदालत गया, न प्रेम किया, न बच्चे पैदा किए, न इलेक्शन लड़ा, न नेता बना, न कुछ किया--कुछ भी नहीं किया। वस्तुतः तुम उस आदमी को पहचान ही न पाओगे कि वह कौन है, उसका नाम-धाम क्या है। क्योंकि ध्यानी का कोई नाम-धाम है, कोई पता-ठिकाना है? लोग उसे भूल ही जाएंगे कि वह है भी। किसी को उसका पता भी न रहेगा। वह कब आया और कब गया; हवा की लहर की तरह चला जाएगा। भीतर पीछे कोई रेखा भी न छूटेगी, कोई चरण-चिह्न भी न छूटेंगे--कहानी क्या होगी?


       कहावत है फ्रांस में कि कहानी बुरे आदमी की होती है, अच्छे आदमी की नहीं। और यह बात सच है। अच्छे आदमी में कहानी ही क्या है? न चोरी की, न जुआ खेले, न शराब पी, न हत्या की, न मारा, न मारे गए--अच्छे आदमी की कहानी क्या है? अच्छे आदमी की कहानी लिखने को कुछ नहीं, कागज कोरा है।


      सूफियों की एक किताब है। उस किताब का नाम है: दि बुक ऑफ दि बुक्स। उसमें कुछ भी लिखा हुआ नहीं है। वह कोरी है। उस किताब की तो कहानी है, लेकिन किताब में कोई कहानी नहीं है। किताब किसने बनाई, किस सम्राट के महलों में रही, किन तिजोड़ियों में सम्हाली गई--इसकी तो कहानी है; लेकिन किताब के भीतर कोई कहानी नहीं है। किताब कोरी है, बिलकुल खाली है।


       वह अच्छे आदमी की, ध्यानस्थ आदमी की बात है।


      प्रेम की कहानी हो सकती है। मीरा नाचेगी, रोएगी--विरह में, पीड़ा में, आनंद में; परमात्मा से निवेदन करेगी; कुछ कहेगी, कुछ सुनेगी; कुछ समझेगी, कुछ समझाएगी--खेल चलेगा, एक लीला होगी। बुद्ध के पास कोई भी खेल न होगा। किससे कहना है? न कोई परमात्मा है; न कोई भक्त है, न कोई भगवान है--एक ही बचा। मरुस्थल जैसा सन्नाटा है: कोई वृक्ष नहीं उगते; कोई फूल नहीं लगते; कोई पक्षी गीत नहीं गाते। मरुस्थल की क्या कहानी है? मरुस्थल कह दिया, कहानी पूरी हो गई।


      ध्यानी की कोई कहानी नहीं है।


      बहुत बड़ा झेन फकीर हुआ, रिंझाई। किसी ने पूछा कि मैं जरा जल्दी में हूं, एक शब्द में बता दो--क्या करने योग्य है? तो वह चुप बैठा रहा। उस आदमी ने कहा: जल्दी करो, चुप क्यों बैठे हो?


      उसने कहा: कह दिया जो कहना था। क्योंकि जो कहना था, वह चुप्पी है। बोलने से खराब हो जाएगी। समझ गए तो समझ गए। नहीं समझे तो और कहीं समझ लेना।


       उस आदमी ने कहा कि लुभाते हो तुम। तुम्हें देख कर रुकने का मन होता है, पर मैं जल्दी में हूं। और इतनी सी बात और अटकाएगी। मैं और चिंतित रहूंगा कि पता नहीं, क्या मतलब था! तुम संक्षिप्त में एक शब्द तो बोल दो।


      तो रिंझाई ने कहा: ध्यान।


     उस आदमी ने कहा: चलो कुछ तो तुम बोले; लेकिन इतने से कुछ बहुत साफ नहीं होता। ध्यान यानी क्या?


     रिंझाई ने कहा: ध्यान यानी ध्यान।


       उस आदमी ने कहा: अब और पहेलियां मत बूझो। मुझे जाना है, जल्दी में हूं, और तुम उलझाए चले जा रहे हो? ध्यान यानी ध्यान--इसका क्या मतलब?


     रिंझाई ने कहा: अब तुम इतना ही पूछो, ध्यान यानी ध्यान और ध्यान यानी ध्यान--ऐसे ही मैं दोहराता चला जाऊंगा; क्योंकि ध्यान यानी ध्यान, और कुछ है नहीं। अब करो और जानो।


       अब अगर तुम रिंझाई के ऊपर कोई शास्त्र बनाना चाहो तो क्या बनाओगे? खाक? गीता लिखना चाहो रिंझाई के ऊपर, क्या लिखोगे? ध्यान यानी ध्यान--गीता समाप्त। एक पोस्टकार्ड भी बहुत बड़ा हो जाएगा। और यह भी रिंझाई को पसंद न पड़ेगा इतना लिखना कि ध्यान यानी ध्यान; यह भी मजबूरी में, यह आदमी जिद्दी था इसलिए कहा। नहीं तो वे चुप ही थे। खाली पोस्टकार्ड भेज देते।


       ध्यान की कोई कहानी नहीं है। प्रेम की कहानी है। और इसलिए तो मैं कहता हूं, प्रेम का एक रस है। ध्यान से तुम्हारा संबंध जरा मुश्किल है, क्योंकि कहानी में अभी तुम्हारा रस है। अभी तुम कहानी सुनना चाहोगे: न सही संसार की, परमात्मा की; न सही इस लोक की, उस लोक की। अभी तुम गीत गाना चाहोगे: न सही यहां के, वहां के। भगवद्गीता ही सही, पर गीत...। अभी तुम नृत्य देखना चाहोगे: न सही संसार का नृत्य, मीरा का।


       तुम्हारे लिए प्रेम करीब होगा। उससे कुछ तुम्हारे तार जुड़ जाएंगे। प्रेम भी आखिर में ध्यान पर पहुंचा देता है, पर आखिर में। ध्यान तो सीधी छलांग है। प्रेम तो क्रमिक उपाय है। ध्यान छलांग है। ध्यान बड़ा दुस्साहस मांगता है--अंधेरे में कूद जाने का। प्रेम धीरे-धीरे फुसलाता है, आ जाओ। आश्र्वासन देता है, घबड़ाओ मत, साथ हूं मैं। प्रेम सुगम है। ध्यान दुर्गम है।


       और ध्यान की कोई कहानी नहीं है--न अकथ और न कथ, कोई कहानी नहीं है।


       पांचवां प्रश्र्न:


       ओशो, आपने कहा, प्रेम पदयात्रा है; और ध्यान, जैसे वायुयान की यात्रा। फिर सभी सयाने और आप भी प्रेम पर ही जोर देते हैं। क्या सभी सयाने लंबी यात्रा के पक्ष में थे?


        न, मेरा बस चले तो मैं तो यात्रा के बिलकुल पक्ष में नहीं हूं। मैं तुमसे यही कहता हूं कि यात्रा करनी ही नहीं, तुम वही हो; पर तुम नहीं सुनते। तुम कहते हो कि ठीक है, पर थोड़ा कुछ तो बताएं--कैसे चलें? कुछ आलंबन चाहिए। कोई सहारा चाहिए। ऐसा एकदम से पहुंचा देने में तो जंचती नहीं बात।


       तुम भरोसा ही नहीं करते कि तुम, और इसी वक्त परमात्मा हो सकते हो। तुमने अपनी इतनी निंदा की है इतने कालों तक; तुमने अपने आप का इतना अपमान किया है इतने अनंत जन्मों में! तुम महानिंदक हो अपने। तुमने कभी अपने को स्वीकार नहीं किया। तुम सदा अपने को अच्छा बनाने की चेष्टा में रहे हो, और जाना तुमने सदा है कि तुम बुरे हो। जाना तुमने कि तुम पापी हो, और पुण्यात्मा होने की तुमने कोशिश की है। मैं आज अचानक तुमसे कहता हूं कि तुम पापी नहीं हो। तुम चाहो तो भी पापी नहीं हो सकते हो। पाप तुम्हारा भ्रम है और पुण्य तुम्हारा स्वभाव है। तुम सुन लेते हो, लेकिन बात जंचती नहीं। तुम्हारी आदत के विपरीत है। तुम सब सुन-सुना कर फिर कहते हो: ठीक कहते हैं आप, कुछ आत्म-सुधार का मार्ग बताइए।

   

        मेरे पास रोज लोग आते हैं। उनसे मैं कहता हूं, कुछ करना नहीं है; तुम जैसे हो, परम सुंदर हो। वे इधर-उधर देखते हैं। वे कहते हैं: मान नहीं सकते। चाहे मेरी बात सुन कर चुप भला हो जाएं, लेकिन राजी थोड़े ही होते हैं। कैसे मान सकते हैं कि मैं जैसा हूं, परम सुंदर हूं? मैंने अपनी शक्ल देखी है आईने में। मैंने अपना व्यवहार देखा है।


       और पंडितों ने तुम्हें इतना ज्यादा निंदित किया है कि उनके शब्द तुम्हारे भीतर गूंजते रहते हैं कि तुम पापी, महापापी। तुम और परमात्मा? परमात्मा बहुत दूर है। हजारों साल की यात्रा है, तब तुम पहुंच पाओगे। इंच-इंच बदलना है। तपश्र्चर्या करनी है।


       मैं तुमसे कहता हूं कि तुम अभी वही हो, इसी क्षण। एक क्षण भी खोने की जरूरत नहीं है।


       लेकिन उससे तुम राजी नहीं होते। वह ध्यान का मार्ग है। वह तत्क्षण जगा देता है। पर वह इतनी जल्दी होती है उसमें कि तुम भरोसा ही नहीं कर सकते कि इतनी जल्दी हो सकती है। तुमने तो धीरे-धीरे करके भी नहीं पाया, इतनी जल्दी कैसे पाओगे? तुम तो जन्म-जन्म चल कर नहीं पहुंचे; और मैं कहता हूं, बिना चले पहुंच जाओगे--तुम्हारे तर्क को बात जमती नहीं, तुम्हारे गणित में बैठती नहीं। तुम कहते हो: हो गया होगा तुम्हें, कोई प्रभु-कृपा से, किन्हीं पुण्य फलों से; या किसी पीछे की द्वार से तुम प्रविष्ट हो गए होओगे; यह अपने लिए नहीं है।


     तुम बुद्ध को कहते हो: तुम अवतार हो, तुम्हारी बात और; हम साधारणजन हैं।


       कृष्ण को तुम कहते हो: तुम तो उसी के रूप हो; तुम्हें हो गया होगा। तुम परमात्मा से जरा करीब से नाते-रिश्ते में बंधे हो, सगे-संबंधी हो, भाई-भतीजा हो--तुम्हें हो गया होगा।


       जीसस को तुम कहते हो: तुम उसके इकलौते बेटे हो; लेकिन हम पापी हैं। हमें होना तो चाहिए नरक में; हम यहां पृथ्वी पर कैसे हैं, इस पर ही भरोसा नहीं आता। और तुम कहते हो कि तुम स्वर्ग में इसी क्षण प्रवेश के अधिकारी हो!


       यह तुम्हारा मन हिम्मत नहीं कर पाता। तुम डरते हो। तुम भयभीत हो। इससे अड़चन है। मैं तो चाहूं कि तुम अभी बिना चले पहुंच जाओ। और मैं तुमसे कहता हूं, तुम पहुंचे ही हुए हो--इस बात का होश भर चाहिए। तुम वहीं सो रहे हो जहां परमात्मा है; सिर्फ आंख खोलनी है और उठ कर बैठ जाना है। जरा चाय पीओ और चारों तरफ देखो आंख खोल कर। थोड़ा मुंह धो डालो। एक क्षण को भी तुम कहीं और गए नहीं। वह जो तुमने पाप किए, पुण्य किए--सब सपना था। वह जो तुम बहुत बार जन्मे और मरे--सब सपना था। तुम कहीं मर सकते हो? तुम कहीं जन्म सकते हो? तुम्हारा न कोई जन्म है, न कोई मृत्यु है। तुम शाश्र्वत हो।


        पर यह बात तो तुम्हें जमेगी नहीं। तुम कहोगे, होगी कभी, जन्मों-जन्मों के बाद हमें भी होगी, तब शायद समझ में आएगी।


        इसलिए सयानों की भी मजबूरी है। वे तुमसे कहते हैं, ठीक है, तुम्हें लंबा रास्ता चाहिए, लंबा रास्ता बताते हैं। लंबे रास्ते पर तुम्हें आसानी मालूम पड़ती है। तुम कहते हो: यह हम सम्हाल लेंगे। एक-एक सीढ़ी चलना है। इतनी ही हमारे पैर में सामर्थ्य है, हम धीरे-धीरे चल लेंगे।


        ज्ञानी तो यही चाहेंगे कि तुम अभी हो जाओ वहीं। तुम राजी नहीं हो। तो फिर क्या किया जाए? तो थोड़ा चक्कर लगा कर आओ।


        प्रेम थोड़ा लंबा मार्ग है; परमात्मा से होकर अपने पर ही लौटता है, जाता कहीं नहीं। अपना ही कान पकड़ना है; हाथ घुमा कर पकड़ना है; सिर के पीछे से पकड़ना है।


        ध्यान सीधा है, एकदम सीधा है, इतना सीधा है कि क्षण भर की भी स्थगन की कोई जरूरत नहीं। इसलिए प्रेम...!


         और प्रेम के और भी कारण हैं। तुम्हारी तैयारी उसके लिए आसानी से हो सकेगी।


             अगर अपनी तरफ देखूं तो लगता है, क्यों व्यर्थ तुम्हारा समय खराब हो; ध्यान! तुम्हारी तरफ देखूं तो सोचता हूं, ध्यान को समझाऊंगा, तो मेरा समय व्यर्थ होगा; प्रेम! अब तुम समझ सकते हो। अगर मेरी सुनो तो ध्यान; अगर तुम्हारी तरफ देखता हूं तो मुझे भी लगता है--प्रेम। ध्यान तुम्हारी पकड़ में न आएगा। ध्यान आखिर में घटेगा तुम्हें। तब तुम भी हंसोगे कि अच्छा पागलपन हुआ; यह तो बिना चले भी पहुंच जाते। लेकिन बिना चले तुम्हें यह समझ नहीं आती। तुम्हें थोड़ा दौड़ना पड़ेगा। तुम्हें थोड़ा भटकाना पड़ेगा। तुम्हें जरा दूसरे दरवाजों पर भी दस्तक देनी पड़ेगी, तभी तुम अपने घर पहुंचोगे। तुम्हें थोड़ा परदेश में घूमना पड़ेगा, तभी तुम अपने देश को पहचान पाओगे।


           जो जगत के बड़े प्रसिद्ध यात्री हुए हैं, उन सबका यह कहना है कि जब तक कोई व्यक्ति दूसरे देशों में नहीं भटकता, तब तक अपने देश का सुख और शांति अनुभव नहीं होती। जब तुम दूसरे देशों में भटक लेते हो और लौट कर थके-मांदे घर आते हो, तब अपना झोपड़ा भी महल जैसा मालूम पड़ता है, रूखी-सूखी रोटी भी बड़ी सुखद मालूम पड़ती है।


        वह जो लंबी यात्रा है वह तुम्हें इतना दिखा देती है कि अपने घर से ज्यादा विश्राम कहीं भी नहीं है। पराए महल भी पराए महल हैं। बड़ी राजधानियां भी सिर्फ शोरगुल, उपद्रव हैं। शांति तो अपने घर में है। जहां अपनेपन का चारों तरफ फैलाव है वहीं विश्राम है।


        लेकिन यह जानने के लिए भटकना जरूरी है। यह तुम अपने घर में बैठे-बैठे न जान सकोगे। घर में बैठे-बैठे तो बड़ी बेचैनी होती है कि जीवन व्यर्थ जा रहा है, यहीं बैठे हैं, ऊब रहे हैं, परेशान हो रहे हैं। सारी दुनिया मजे कर रही है, लोग जा रहे हैं--कोई कहीं, कोई कहीं; कोई हिमालय जा रहा है, कोई स्विटजरलैंड जा रहा है, कोई चीन जा रहा है। सारी दुनिया यात्रा कर रही है; हम ही यहां बैठे हैं--दीन-हीन, इसी घर से बंधे, यही खंभे में जिंदा रहे, इसी में मर जाएंगे!


        तब तुम्हें बड़ी बेचैनी लगती है।


       भटकना जरूरी है घर पहुंचने के लिए। प्रेम जरूरी है ध्यान तक आने के लिए। और प्रेम की भाषा तुम्हारी समझ में आ जाती है, क्योंकि तुम्हारे संसार की भाषा से थोड़ी श्रृंखला है।


        तुमने पत्नी को प्रेम किया है। न किया होगा बहुत गहरा, फिर भी किया है। न पाई होगी पूरी-पूरी एकात्मता, फिर भी किन्हीं क्षणों में, कभी-कभी, क्षण भर को ही सही, दोनों हृदय एक साथ धड़के हैं, दोनों श्र्वास एक साथ चली हैं। क्षण भर को आभास ही सही, हुआ हो, एक होने का आभास हुआ है। उसकी भाषा तुम्हें समझ में आती है।


       तुमने अपने बच्चे को प्रेम किया है। उसकी आंखों में झांका है। तुमने अपने मित्र को प्रेम किया। कभी किसी जोश के क्षण में तुम अपने मित्र के लिए मरने को भी राजी हो गए हो। मरे नहीं, समझ आ गई, सोच-विचार आ गया, हिसाब लगा लिया! बाकी कभी किसी क्षण में, जोश और उत्साह में, तुमने मरने की भी हिम्मत, कम से कम कल्पना तो की है। उससे तुम्हें थोड़ा प्रेम की भाषा समझ में आ जाती है।


       कबीर, नानक, फरीद, मीरा, चैतन्य तुम्हारे पास खड़े मालूम पड़ते हैं। बुद्ध और तुम्हारे बीच अनंत आकाश का फासला लगता है। वे किसी और लोक की भाषा बोल रहे हैं, जिसका अनुवाद भी मुश्किल है, जो तुम तक आते-आते, आते-आते विकृत ही हो जाता है, तुम जब तक समझो, समझो, तब तक बात ही बिगड़ जाती है। जो बुद्ध कहते हैं, वह सुनने में नहीं आता; जो तुम सुनते हो, वह बुद्ध ने कहा नहीं है।


          प्रेम संसार को स्वीकार करके, संसार की भाषा को स्वीकार करके धीरे-धीरे परिशुद्धि की तरफ ले जाता है। सीढ़ी-सीढ़ी वह यात्रा है। ध्यान छलांग है--आकस्मिक; एक क्षण में क्षणातीत।

   

              सयाने तुम्हारी तरफ देखते हैं तो कहते हैं--प्रेम; अपनी तरफ देखते हैं तो कहते हैं--ध्यान। अगर तुम सयानों की मानो तो ध्यान; अगर तुम न मान सको तो समझौता है--प्रेम। उससे चलो। तुम्हारे लिए सुलभ होगा प्रेम। और कुछ जल्दी भी ऐसी नहीं है कि अभी हो ही जाए; कल भी हुआ तो क्या हर्ज है! इस अनंतकाल में दिन दो दिन की देरी-अबेर का कोई अंतर नहीं है।


         छठवां प्रश्र्न:


     ओशो, आपको इतना सुनने के बावजूद नकली प्रेम का गोरखधंधा ठप क्यों नहीं होता है?


       अभी सुना नहीं। अभी सुनने की सिर्फ शुरुआत है। कानों ने सुना होगा, तुमने नहीं सुना। कान के सुन लेने से क्या होगा? कान की कोई समस्या थोड़े ही है। कान की समस्या होती, हल हो जाती। समस्या हृदय की है; हृदय सुनेगा तभी हल होगी।


       इतना सुनने का तो सवाल ही नहीं है। एक शब्द भी तुमने सुन लिया होता, एक इशारा भी सुन लिया होता, तो भी बात हो गई होती! क्योंकि मैं वही कह रहा हूं बहुत-बहुत रूपों में। मैं कोई वीणा नहीं बजा रहा हूं; एकतारा है; एक ही तार है, उसी को छेड़े चला जा रहा हूं। थोड़े ढंग बदलता हूं कि तुम ऊब न जाओ, कहीं तुम्हारा रस ही न खो जाए। अन्यथा मुझे जो बजाना है, जो गाना है, वह तो एक ही बात है। ध्यान यानी ध्यान। प्रेम यानी प्रेम। बहुत रूपों में उसकी प्रतिमा तुम्हारे लिए सजाता हूं कि किसी दिन शायद तुम सुन लोगे, किसी दिन जागोगे और देख लोगे; किसी सौभाग्य के क्षण में मेरा और तुम्हारा शायद मिलन हो जाए।


        पर ऐसा मत सोचो कि ‘आपको इतना सुनने के बावजूद...।’ अभी सुना ही नहीं है, क्योंकि सुनते ही घटना हो जाएगी।


       यह तो ऐसा ही हुआ कि तुम कहो, आग में इतना हाथ डालने के बावजूद मैं जलता क्यों नहीं? तो डाला ही न होगा हाथ। हाथ डाल दो तो फिर जलोगे नहीं? जलोगे ही। कोई उपाय नहीं है बचने का। हाथ न डाला होगा। दूर ही दूर हाथ को रखा होगा। या सपने की किसी आग में हाथ डाला होगा कि सुबह जाग कर पाया जाता है कि नहीं, हाथ जला नहीं। या तो आग झूठी रही होगी या हाथ डाला ही न होगा।


      ये ही दो संभावनाएं हैं। या तो मैं जो कहता हूं, वह आग ही न होगी, तो तुम्हारा हाथ नहीं जलता। या फिर तुमने हाथ ही न डाला होगा। और मैं तुमसे कहता हूं, वह आग झूठी नहीं हो सकती, क्योंकि उसमें मैं जल गया। तो कोई कारण नहीं है कि तुम क्यों न जल जाओ।


       तुम दूर-दूर से, खेल में लगे हो। सुनते तुम हो; सुनते कहां हो? सुनते मालूम पड़ते हो; सुनते कहां हो? सुनते हो, ऐसा मान लेते हो; सुनते कहां हो?


        सातवां प्रश्र्न:


     ओशो, दर्शन के लिए जाते हुए तैंतीस नंबर के फाटक पर से ही मुझे कंपकंपी होने लगती है, जब कि कुछ और मित्र डट कर जाते हैं, और बातचीत करते हैं। सिर्फ मुझे ही ऐसा भय क्यों होता है?


        वे जो डट कर बातचीत करते हैं, वे भी भयभीत हैं।


        भय के दो रूप हैं। या तो कंपकंपी लगती है या आदमी डट कर खड़ा हो जाता है। वे दोनों ही भय के रूप हैं।


       कायरता और बहादुरी भय के दो सिक्के हैं; उनमें कोई फर्क नहीं है बड़ा। बहादुर से बहादुर भी भीतर कायर होता है और कायर से कायर भी भीतर बहादुर होता है। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

  

           सामान्य, स्वाभाविक जो बात है, वह न तो कंपकंपी लगती है और न डट कर तुम खड़े होते हो। डट कर किसके खिलाफ खड़े होना है? डट कर अपनी ही कंपकंपी के खिलाफ खड़े हो रहे हो। भय क्या है? डटना किसके खिलाफ है? भय यह है कि तुम मेरे सामने आओगे तो तुमने अपनी जो प्रतिमा बना रखी है, वह खंडित होगी। मेरा दर्पण तुम्हारी असलियत तुम्हें दिखाएगा। इससे तुम भयभीत हो।


       यह एक ढंग है।


       दूसरे हैं जो अकड़ कर आ जाते हैं दर्पण के सामने, खड़े हो जाते हैं कि अकड़े रहेंगे, जरा भी शिथिल न होंगे, दर्पण को मौका ही न देंगे कि वह असलियत बता दे। हमारा अकड़ापन ही दर्पण में झलकेगा; हमारी असलियत न दिखाई पड़ेगी।


       दोनों तरह के लोगों को मैं जानता हूं। कुछ हैं जो आकर बहुत बातचीत करने लगते हैं; वे इतनी बातचीत करने लगते हैं कि मैं देखता हूं कि बातचीत कर-कर के वे मुझे टाल रहे हैं। वे मुझे सुनने को नहीं आए हैं। वे घबड़ाए हैं कि वे अगर चुप हुए और मैं कुछ बोला तो मुसीबत होगी। तो वे कहे ही चले जाते हैं। वे मेरी तरफ देखते तक नहीं। वे नीचे देखते हैं। वे कहे चले जाते हैं। वे न मालूम, जरूरी, गैर-जरूरी बातें बड़ी लंबी करके कहते हैं, जिनका कोई सार नहीं है, जिनको मेरे पास लाने का कोई प्रयोजन नहीं है। वे अपने चारों तरफ एक सुरक्षा का उपाय करते हैं शब्दों को खड़ा करके, कि मेरा कोई शब्द उनके भीतर प्रविष्ट न हो जाए। वे तुम्हें लगेंगे कि बिलकुल डट कर बात कर रहे हैं।


       दूसरे हैं तो कंपते हैं, डरते हैं। वे बोल ही नहीं पाते। उनसे मैं पूछता हूं: कैसे आए, क्या कहना है, क्या है मन की पीड़ा? वे कहते हैं, कुछ भी कहना नहीं है। वे भी कंप रहे हैं। दोनों ही डरे हुए हैं। एक तीसरा सामान्य, सरल, स्वाभाविक व्यक्तित्व है, संतुलित--जो कहना है कह देता है; जो सुनना है सुन लेता है; जो देखना है देख लेता है; जो सच्चाई है उसे पकड़ने की कोशिश करता है।


        न, तुमसे मैं नहीं कहता कि तुम डट कर आने लगो। अगर कंपकंपी आती है, वह भी गलत है। डट कर आए, वह भी गलत। डट कर आने का मतलब है कि कंपकंपी न आने देंगे, अकड़े रहेंगे। दोनों ही गलत हैं।


      संतुलन चाहिए।


       मुझसे भय क्या है? मैं तुमसे छीन क्या लूंगा? तुम्हारे पास है क्या जिसे मैं छीन लूंगा। तुम मेरे पास से कुछ लेकर ही जा सकते हो; देने को तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है। तुमसे मैं छीनूंगा क्या? ज्यादा से ज्यादा तुम्हारा भिखमंगापन छीन सकता हूं। तुमसे मैं छुड़ा क्या लूंगा? तुम्हारे पास काश कुछ होता! कुछ भी नहीं है।


       तुम्हारी दशा वैसी है जैसे भिखारी रात भर जाग कर बैठा रहता है कि कोई चोरी न कर ले। कुछ है ही नहीं; एक भिक्षापात्र है।


      या मैंने सुना है--तुमने भी कहावत सुनी होगी--कि नंगा नहाता नहीं है, क्योंकि डरता है, फिर निचोड़ेगा कहां? कपड़े कहां सुखाएगा? कपड़े हैं ही नहीं। स्नान नहीं करता।


      तुम्हारे पास है क्या? तुम भयभीत क्यों हो? तुम अगर गौर से देखो कि तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है, सारा भय चला गया। भय तो खोने का भय है। लेकिन तुमने कुछ मान रखा है कि तुम कुछ हो, इसलिए भय है। उस मान्यता को गौर से देखो। क्या हो तुम? तुम्हारे देखने में ही तुम्हारी मान्यता तिरोभूत हो जाएगी। तब तुम सहज भाव से मेरे पास आ सकोगे।


       न तो डट कर आओ। क्योंकि डट कर तुम क्या करोगे? क्या फायदा है? अगर तुम मुझसे लड़ रहे हो, अपना समय खो रहे हो। उसी समय में तुम जाग सकते थे; वह तुमने लड़ने में गवांया। अगर तुम भयभीत हो रहे हो तो अपनी सुरक्षा में लगे हो। वह भी तुमने व्यर्थ गंवाया।


      थोड़ी देर मैं तुम्हारे साथ हूं, उसका तुम उपयोग कर लो। पीछे पछतावा बहुत होगा। पर पीछे पछताने से कुछ भी नहीं होता। ‘पाछे पछताए होत का, जब चिड़िया चुग गई खेत।’


   मैं सदा तुम्हारे पास नहीं रहूंगा; तुम सदा तुम्हारे पास रहोगे। फिर पीछे घबड़ा लेना, डट लेना, अकड़ लेना, कंपकंपी कर लेना, जो करना हो कर लेना। थोड़ी देर मैं तुम्हारे पास हूं, उसका उपयोग कर लो। यह दर्पण फूट जाएगा; फिर तुम अपना चेहरा इसमें न देख सकोगे। हालांकि मैं जानता हूं, फिर तुम फूटे दर्पण की चौखट को रखे पूजा करोगे। उसमें कुछ भी दिखाई न पड़ेगा। लेकिन तब तुम बिलकुल निश्र्चिंत आओगे।


        मैंने देखा है लोगों को मंदिर में जिस निश्र्चिंत भाव से जाते हैं, उस निश्र्चिंत भाव से उनको बुद्ध के पास जाते नहीं देखा है। मंदिर की प्रतिमा से डर क्या है? न कंपकंपी लगती, न डट कर जाते। मंदिर की प्रतिमा है ही नहीं; चौखट बची है, दर्पण तो कभी का जा चुका।


       इसके पहले कि वैसी घड़ी आए, उपयोग कर लो। अपने को देखने का मौका मिला है, उसे खोओ मत--न घबड़ाने में, न अकड़ने में। सरल सामान्य बनो। सहज बनो।


        आठवां प्रश्र्न:


         ओशो, आपने पूर्व में कहा है, जीवन प्रयोजन-रहित है। फिर खाली हाथ जाएं या भरे हाथ, इससे क्या फर्क पड़ता है।


        यही समझ में आ जाए तो हाथ भर गए। यही समझ में आ जाए कि खाली हाथ जाएं कि भरे हाथ, कोई फर्क नहीं पड़ता--हाथ भर गए। इसको ही मैं हाथ भरना कहता हूं। यही समझ में न आए और चेष्टा चलती रहे कि हाथ भरे जाऊंगा: तुम हाथ खाली जाओगे। सफलता और असफलता समान दिखाई पड़ने लगे: तुम सफल हो गए; सफल ही नहीं, सुफल भी हो गए। जीत और हार बराबर हो जाए: जीत गए तुम। अब तुम्हें कोई न हरा सकेगा। यही जीत है।


      प्रयोजन, निष्प्रयोजन तराजू पर समान तुल जाएं: तुमने जीवन का अर्थ पा लिया, प्रयोजन पा लिया। कुछ और ज्यादा पाने को नहीं है। लेकिन इससे ज्यादा और पाने को हो भी क्या सकता है? इस घड़ी में ही तो तुम्हारे जीवन का कमल खिल जाता है--जब न कोई प्रयोजन है, न कोई प्रयोजन नहीं है; न कोई सार है, न कुछ असार है। जीवन को तुमने बिना द्वंद्व के स्वीकार कर लिया। हार न जीत, सफलता न असफलता, अंधेरा न प्रकाश, जीवन न मृत्यु--तुमने द्वंद्व छोड़ दिया; जीवन को तुमने जैसा है स्वीकार कर लिया, अनन्य भाव से! वहीं तुम्हारे जीवन का कमल खिल जाता है। हाथ तुम्हारे भर गए। दुनिया तुम्हारे हाथ भला खाली देखे, दुनिया से क्या लेना-देना है? तुम जानोगे कि तुम्हारे हाथ भरे हैं। तुम नाचते जाओगे। तुम रोते न जाओगे। तुम्हारे आंसू भी गिरेंगे, तो उन आंसुओं में गीत होंगे। आनंद का अहोभाव होगा। तुम मरोगे भी, तो तुम एक सुगंध छोड़ जाओगे; जैसा फूल गिर जाता है भूमि में और सुगंध आकाश में उड़ जाती है। तुम्हारी मृत्यु भी एक परम उत्सव का क्षण होगी। हाथ भर गए!


       यही मेरा अर्थ है।


        आखिरी प्रश्र्न:


      ओशो, क्या बताने की कृपा करेंगे कि: एक: राजनीति के आप इतने विपक्ष में क्यों हैं?


        जहर के मैं विपक्ष में क्यों हूं--ऐसा क्यों नहीं पूछते?


        राजनीति जहर है। उससे जीवन का कोई लेना-देना नहीं। वह मरघट है।


       राजनीति का अर्थ क्या है?


       राजनीति का अर्थ है दूसरे पर काबू पाने की चेष्टा। राजनीति का अर्थ है दूसरे के मालिक हो जाने का ख्वाब। और जब भी कोई व्यक्ति दूसरे का मालिक होना चाहता है, तभी वह परमात्मा-विरोधी है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर परमात्मा है। उतना ही परमात्मा है जितना तुम्हारे भीतर। तुम हो कौन किसी और के मालिक हो जाने वाले? तुम अपने मालिक हो जाओ--इतना काफी है।


       राजनीति का अर्थ है दूसरे पर मालकियत। धर्म का अर्थ है अपने पर मालकियत।


      मैं राजनीति के विपक्ष में नहीं हूं; धर्म के पक्ष में हूं। धर्म के पक्ष में होने के कारण अनिवार्यतः राजनीति का विपक्ष पैदा हो जाता है। उससे मुझे कुछ लेना-देना नहीं है। राजनीति इतनी व्यर्थ है कि विपक्ष में होने तक की मुझे सुविधा नहीं है। कंकड़-पत्थरों के खिलाफ भी क्या बोलना! हीरे-जवाहरातों के पक्ष में बोलता हूं। और अगर कभी कंकड़-पत्थरों के खिलाफ बोलना पड़ता है तो इसीलिए कि तुमने कंकड़-पत्थरों को हीरे समझ रखा है।


      जब मैं राजनीति के विरोध में बोलता हूं, तो राजनीतिज्ञों के विरोध में नहीं बोल रहा हूं। वे दया के पात्र हैं। उनके विरोध में क्या बोलना? वे वैसे ही दुख के मारे हैं। उनके खिलाफ क्या बोलना है?


      जब मैं राजनीतिज्ञों के खिलाफ बोलता हूं तो मैं तुम्हारे भीतर छिपे राजनीतिज्ञ के खिलाफ बोल रहा हूं। मुझे तुमसे प्रयोजन है।


       हर व्यक्ति के भीतर राजनीतिज्ञ छिपा है--छोटा हो, बड़ा हो। सिकंदर छोटे हों, बड़े हों, इससे क्या फर्क पड़ता है? जहर तुम बाल्टी भर कर पी जाओ कि चुल्लू भर पीओ--इससे क्या फर्क पड़ता है? जहर मारेगा।


       तुमने कभी खयाल किया? तुम पति हो: पत्नी से तुम्हारा संबंध धर्म का है या राजनीति का? तुम पाओगे कि सौ में निन्यानबे मौके पर संबंध राजनीति का है, धर्म का नहीं। तुम कहोगे के पति और पत्नी के बीच क्या राजनीति का सवाल है? है। तुम्हारे बच्चे से तुम्हारा संबंध धर्म का है या राजनीति का? तुम बाप की अकड़ से बोलते हो या परमात्मा की सृजन की प्रक्रिया में एक विनम्र भागीदार हुए, इस तरह बोलते हो बेटे से? तुम बेटे की तरफ इस तरह देखते हो कि परमात्मा तुम्हारे माध्यम से संसार में आया, या तुम इस भांति देखते हो कि तुझे मैंने पैदा किया है--जो मैं कहूं वह कर; मैं जानता हूं तू अज्ञानी है! तुम बेटे को नियंत्रित करने की कोशिश करते हो या सहारा देते हो? तुम बेटे को सदा के लिए बांध लेना चाहते हो, पंगु बनाना चाहते हो, या चाहते हो, उसे मुक्त आकाश मिले?--चाहे वह मुक्त आकाश कभी तुम्हारे विपरीत ही क्यों न पड़े।


      तुम पत्नी को प्रेम किए हो या प्रेम केवल फांसी लगाने का उपाय है? या प्रेम केवल बहाना है, राजनीतिक चाल है?


      जब मैं राजनीतिज्ञ के खिलाफ बोलता हूं तो दिल्ली में बैठे राजनीतिज्ञों से मुझे क्या लेना-देना है? मैं तुम्हारे भीतर बैठे राजनीतिज्ञ के खिलाफ बोल रहा हूं। उतना ही तुम ध्यान से समझना। और वह भी इसलिए बोल रहा हूं उसके खिलाफ कि अगर तुम उसमें उलझे रहे हो तो कभी धार्मिक न हो सकोगे।


      धर्म का अर्थ है अपना मालिक होना। धर्म का अर्थ है न तो किसी को अपना मालिक होने देना और न किसी के मालिक होने की चेष्टा करना। धर्म परम स्वतंत्रता की चेष्टा है। और राजनीति?--दूसरे को परतंत्र करने का उपाय है। जितने ज्यादा लोग तुम्हारे परतंत्र हो जाएं, राजनीतिज्ञ मन उतना ज्यादा प्रसन्न होता है। अगर तुम महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री हो तो महाराष्ट्र के ऊपर तुम्हारा कब्जा है। अगर तुम भारत के प्रधानमंत्री हो जाओ तो कब्जा और बड़ा हो गया।


      आदमी कब्जे की कोशिश में लगा है: कब्जा बढ़ता जाए! करोड़ों-करोड़ों लोग मुट्ठी में हो जाएं! यह बहुत पीड़ित आदमी की मनोदशा है। यह विक्षिप्त चित्त की दशा है। इसको मैं पागलपन कहता हूं।


      तुम अपनी ही मुट्ठी में नहीं हो, तुम किसको मुट्ठी में करने चले हो? सच तो यह है कि तुम जितना ही अपने को कम मुट्ठी में पाते हो उतनी ही कमी-पूर्ति करते हो दूसरे लोगों को मुट्ठी में करके। उससे एक वहम पैदा होता है कि हम शक्तिशाली हैं।


     एक ही शक्ति है, और वह स्वयं के मालिक हो जाने की है; बाकी सब अशक्ति को छिपाने के उपाय हैं।


      तुम पूछते हो: ‘राजनीति के मैं इतना विपक्ष में क्यों हूं?’


       विपक्ष में राजनीति के नहीं हूं; धर्म के पक्ष में हूं।


       दूसरा: क्या आप अराजकवादी हैं, अनारकिस्ट हैं?


   वादी मैं बिलकुल नहीं हूं। किसी वाद में मेरी उत्सुकता नहीं है, अराजकवाद में भी नहीं।


      लेकिन इतना जरूर मैं जानता हूं कि दुनिया में राज्य जितना कम हो उतना अच्छा होगा। राज्य बिलकुल मिट जाएगा, ऐसा मैं नहीं सोचता। बिलकुल मिटना असंभव है। क्योंकि जहां एक से ज्यादा लोग हैं, वहां उनके संबंधों को तय करने के लिए कोई माध्यम चाहिए होगा, व्यवस्था चाहिए होगी।


      तो मैं कोई क्रोपाटकिन जैसा अराजकवादी नहीं हूं। मेरी कोई मान्यता नहीं है कि राज्य मिट जाना चाहिए। मेरी इतनी ही दृष्टि है कि राज्य कम से कम होना चाहिए। राज्य ऐसे ही होने चाहिए जैसे पोस्ट आफिस है, रेलवे है। जरूरत है, रेलवे की व्यवस्था करनी पड़ेगी। अगर रेलवे की कोई व्यवस्था न हो तो असंभव है कि बंबई से पूना ट्रेन कैसे आएगी, कि चिट्ठी तुमने जो डाली पोस्ट आफिस में, वह पहुंचेगी कहीं कि नहीं पहुंचेगी। व्यवस्था करनी चाहिए।


     राज्य व्यवस्थापक होना चाहिए, नियंत्रक नहीं। राज्य का उपाय-उपयोगिता व्यवस्था-आधारित होनी चाहिए। लोगों के जीवन में कितनी सुविधा आ सके, उसके लिए राज्य को फिकर करनी चाहिए। और राज्य को बाधा नहीं देनी चाहिए लोगों के जीवन में। बाधा तभी देनी चाहिए जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे के जीवन में बाधा दे रहा हो, अन्यथा नहीं।


      मेरी राज्य की धारणा का अर्थ ही यह है कि राज्य बड़ा गौण होना चाहिए। जैसे कि तुम्हारे घर में रसोइया है, तो रसोइए की तुम पूजा करते हो कि फूलमाला पहनाते हो? अच्छा खाना बनाता है तो तुम उसकी प्रशंसा करते हो; बुरा खाना बनाता है तो तुम कहते हो कि यह गलत है तेरा काम, ठीक सुधार कर। तुम्हारे खाद्यमंत्री की हैसियत भी राष्ट्र के रसोइए से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। इससे ज्यादा क्या प्रयोजन है? बड़े रसोइया हो...।


        तुमने घर पर एक पहरेदार लगा रखा है, तो उसका काम है, वह उतना काम करता है। राज्य की व्यवस्था पहरेदारी की होनी चाहिए। लेकिन राजनेताओं को सिर पर उठा कर चलने का कोई कारण नहीं है। पागलपन है।


       राजनीति इतनी प्रमुख नहीं होनी चाहिए। जीवन में बड़ी बहुमूल्य चीजें हैं जो प्रमुख होनी चाहिए। राजनेता को सिर पर लेकर तुम चलोगे, उससे राजनेता तो ऊंचा नहीं होगा, तुम नीचे होओगे। राजनेता के तो ऊंचे होने का कोई उपाय नहीं है। वह तो खुद पागल है। और जो उसकी अरथी को ढो रहे हैं, वे भी पागल हैं। लेकिन अगर तुम किसी फकीर को कंधे पर उठा कर चले तो तुम ऊंचे हो जाओगे। उससे फकीर ऊंचा नहीं होगा, वह ऊंचा है ही। लेकिन तुम ऊंचे हो जाओगे। वे चरण तुम्हारे लिए पारस सिद्ध होंगे; तुम लोहे से सोना हो जाओगे।


       तुमने अगर संगीत को ऊपर उठाया तो तुम्हारे हृदय में ऊंचाइयों की लहरें उठेंगी। तुमने अगर राजनीति को ऊपर उठाया तो तुम गंदे हो जाओगे। तुमने अगर गीतकार को ऊपर उठाया, संगीतज्ञ को ऊपर उठाया, कवि को ऊपर उठाया, चित्रकार को पूजा--तो तुम्हारे जीवन में सुगंध के हजार-हजार रास्ते खुल जाएंगे; तुम्हारे जीवन में एक सजावट आ जाएगी। तुमने अगर राजनेता को ऊपर उठाया तो सिवाय युद्ध, हिंसा, इसके अतिरिक्त तुम कुछ भी न पाओगे।


       पूरी मनुष्य-जाति का इतिहास हिंसा और युद्धों का इतिहास है। वह राजनेता को सिर पर लेकर चलने के कारण है। मैं अराजकवादी नहीं हूं। लेकिन राज्य जरूरत से ज्यादा अधिकारी हो गया है; उतने अधिकार की आवश्यकता नहीं है। व्यक्ति परम मूल्य है। राज्य व्यक्ति का सेवक है, मालिक नहीं। बस सेवक की हैसियत से काम करे, ठीक है। उससे ज्यादा उसका मूल्य नहीं होना चाहिए।


      अखबार राजनीति से ही नहीं भरे होने चाहिए। आखिरी पन्ने पर उनकी जगह होनी चाहिए। मगर वे पहले पन्ने को घेरे हुए हैं। सारी सुर्खियां अखबार की राजनीतिज्ञों के नाम से घिरी हैं। इससे अगर जीवन विकृत हो, विध्वंस की तरफ उन्मुख हो, तो स्वाभाविक है।


      अखबार की सुर्खियां तो किन्हीं और सुंदर चीजों से भरनी चाहिए। थोड़ा सौंदर्य का बोध होना चाहिए। राजनीतिक नेताओं के चित्रों की बजाय तो किसी के बगीचे में गुलाब के अच्छे फूल खिले हों, उनके चित्र भी ज्यादा उपयोगी होंगे। किसी के बगीचे में हरियाली हो, उसके चित्र ज्यादा उपयोगी होंगे। किसी ने मधुर गीत गाया हो, उसके मधुर गीत की मधुरिमा काम की होगी।


      राजनीतिज्ञों की बकवास, एक-दूसरे के प्रति गाली-गलौज, छीछालेदर, कीचड़ का फेंकना--वही तुम्हारा भोजन हो गया है। सुबह उठ कर तुम गीता नहीं पढ़ते, कुरान नहीं पढ़ते; अखबार पढ़ते हो। अभागे दिन हैं। इससे तो अच्छा था, तुम कुरान ही पढ़ते, गीता ही पढ़ते। कम से कम कुरान की आयत की तरन्नुम तुम्हें घेर लेती। कम से कम गीता का शायद कोई दूर का भूला-भटका स्वर तुम्हारे हृदय में घोसला बना लेता।


      तुम सुबह उठे नहीं कि तुम अखबार पढ़ते हो। आंख खोलते नहीं कि अखबार टटोलते हो। अखबार तुम्हारी गीता है। राजनैतिक विक्षिप्त व्यक्ति तुम्हारे प्रतिमान हैं, तुम्हारे आदर्श हैं।


    मैं अराजकवादी नहीं हूं। लेकिन राज्य की शक्ति क्रमशः न्यून होती जाए...।


    इसे तो एक स्वप्न ही मानना चाहिए कि कभी ऐसा होगा कि राज्य की बिलकुल जरूरत न रह जाएगी। मुश्किल है। थोड़ी-बहुत जरूरत रहेगी। थोड़ी-बहुत तो जहर की भी जरूरत होती है; कभी-कभी औषधि के भी काम पड़ता है। थोड़ी-बहुत तो जहर की भी जरूरत होती है; कभी-कभी किसी को बेहोश भी करना पड़ता है--सर्जरी के लिए, ऑपरेशन के लिए। उतनी ही जरूरत राज्य की होनी चाहिए जितनी जहर की है। बस उससे ज्यादा जरूरत नहीं होनी चाहिए।


     और राज्य का मुख्य काम इतना ही होना चाहिए कि वह एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के जीवन में दखल न देने दे।


      अभी हालत उलटी है। अभी एक व्यक्ति को तो रोकता ही नहीं दूसरे के जीवन में दखल देने से, खुद ही दोनों के जीवन में दखल देता है।


    व्यक्ति की स्वतंत्रता चरम मूल्य है। राज्य, राजनीति, राजनेता सेवक से ज्यादा नहीं होने चाहिए। कहते तो वे भी यही हैं कि हम सेवक हैं। मगर यह वे कहते हैं जब वे इलेक्शन में खड़े होते हैं। इलेक्शन के बाद फिर तुम्हें कहना पड़ता है: हुजूर, हम आपके सेवक हैं। फिर वे दरबार में बैठते हैं दरबार लगा कर। फिर तुम्हें कहना पड़ता है कि हम आपके सेवक हैं; याद रखना, सेवक को भूल मत जाना। यही उन्होंने तुमसे कहा था, जब वे ताकत में न थे।

        

       तो, सेवा जैसे माध्यम है सत्ता में पहुंचने का। जैसे कोई किसी के पैर दबाना शुरू करे और फिर धीरे-धीरे पहुंच कर गर्दन पकड़ ले; शुरू मालिश से की थी कि पैर दबा रहे हैं--फिर जब गर्दन पकड़ ली, तब तुम्हें होश आया कि यह तो बहुत मुश्किल हो गई है, छुड़ाना मुश्किल है। जब कोई पैर पकड़े तभी जरा गौर से देखना कि हाथ गर्दन की तरफ तो नहीं जा रहे हैं।


    लेकिन सभी सत्ताधारी सेवा का बहाना करते हैं, सत्ता की आकांक्षा है।


    सत्ता उनके हाथ में होनी चाहिए जिनको सत्ता की आकांक्षा न हो। पर यह तो असंभव है। इसलिए यही हो सकता है कि सत्ता न्यून से न्यून हाथ में रह जाए; इतनी कम रह जाए कि कोई नुकसान न पहुंचा सके।


     राज्य कम से कम हो--वही राज्य श्रेष्ठतम है।


     तीसरा: समाज और राज्य से आपने स्वयं को इतना अलग-थलग क्यों कर लिया है?


      कर लिया है--ऐसा नहीं है। तुम भी जागोगे तो ऐसे ही अलग-थलग हो जाओगे। कर लिया है--ऐसा नहीं है; ऐसा हो गया है।


      ऐसा ही समझो कि तुम सोए हो और जाग जाओगे--तब क्या मैं तुमसे पूछूंगा कि तुमने अपने सपनों के राज्य से, सपनों की भीड़ से इतना अलग-थलग क्यों कर लिया? तुम कहोगे, अलग-थलग किया नहीं; नींद खुल गई, सपने खो गए!


    जागते ही समाज और राज्य सपने हो जाते हैं; सत्य तो एक परमात्मा ही रह जाता है। बाकी सब खेल-खिलौने हो जाते हैं। कोई अलग नहीं करता, अपने को अलग पाता है।


    चौथा: संन्यास और राजनीति का क्या संबंध हो?


     संबंध हो ही नहीं सकता। जिसके भीतर से राजनीति मर गई, उसी के भीतर तो संन्यास फलता है। संबंध तो हो ही नहीं सकता। राजनीति की राख पर ही तो संन्यास का अंकुर उभरता है। तो संन्यास का तो अर्थ ही यही होता है कि तुम्हारे भीतर अब कोई राजनीति न रही।


    आप अपने संन्यासियों से क्या अपेक्षा रखते हैं?


     मैं कोई अपेक्षा किसी से नहीं रखता, और न चाहता हूं कि कोई मुझसे कोई अपेक्षा रखे; क्योंकि अपेक्षा एक-दूसरे को गुलाम करने की विधि है, ढंग है।


    नहीं, मेरी तुमसे कोई अपेक्षा नहीं है। मैं नहीं चाहता कि तुम ऐसा करो, वैसा करो। मैं, तुम क्या करो, यह कह ही नहीं रहा हूं। मैं तो तुम्हें इतने ही इशारे दे रहा हूं कि अगर तुम सोए हो तो राजनीति में रहोगे, अगर जाग गए तो धर्म में आ जाओगे। अगर जाग गए तो तुम्हारे भीतर से दूसरे की मालकियत का जो पागलपन है, वह खो जाएगा, और अपनी ही मालकियत का आनंद उसकी जगह स्थापित हो जाएगा। तब तुम दूसरे के सिर पर न बैठना चाहोगे; क्योंकि तुम पाओगे, तुम्हारे भीतर का सिंहासन परम सिंहासन है, परम पद है--इसके ऊपर कोई पद नहीं, न कोई राष्ट्रपति, न कोई प्रधानमंत्री।


      मेरी तुमसे कोई अपेक्षा नहीं है, सिर्फ निर्देश हैं कि अगर तुम्हारे मन में अभी भी राजनीति हो तो ध्यान रखना कि तुम संन्यासी नहीं हो। यह सीधी वैज्ञानिक परिभाषा कर रहा हूं। तुमसे कह नहीं रहा हूं कि राजनीति से संबंध मत रखो; इतना ही कह रहा हूं कि राजनीति जहर है--अगर मरना ही हो, आत्महत्या ही करनी हो, डट कर पी लो, भर पेट पी लो। इतना ही कह रहा हूं कि यह जहर है--मरना ही हो तो ही पीना; अगर न मरना हो तो इससे जरा सावधान रहना। हालांकि जहर के दुकानदारों ने जहर पर अमृत के लेबल लगा रखे हैं। लेबल पर मत जाना। डब्बे के ऊपर क्या लिखा है--इसकी बहुत फिकर मत करना; डब्बे के भीतर क्या है--इसका बहुत निरीक्षण कर लेना।


     आपके संन्यासी राजनीतिक आंदोलनों में सम्मिलित हों या न हों?


     अगर उनके भीतर अभी राजनीतिक आंदोलनों में सम्मिलित होने की आकांक्षा बची है, तो वे संन्यासी नहीं हैं; कम से कम मेरे संन्यासी तो नहीं हैं, किसी और के होंगे।


      पांचवां: क्या संन्यास एक प्रकार का पलायन नहीं है?


       एक अर्थ में कह सकते हो, है। जैसे घर में आग लग जाए और तुम भाग कर बाहर आ जाओ--भीड़ कह सकती है: तुम पलायनवादी हो, एस्केपिस्ट हो, घर से भाग कर बाहर निकले? जब घर में आग न लगी थी तब तो बड़े मजे से रहे; अब जब आग लगी, मुसीबत का क्षण आया घर को तो तुम बाहर निकल कर आ गए? जाओ अंदर! कायर हो!


    तो तुम क्या कहोगे? तुम कहोगे: पागल नहीं हूं। जब घर में आग लगी हो तो भागना ही उपाय है।


     कोई गड्ढे में गिर जाए और निकलने की कोशिश करे, क्या तुम उससे कहोगे, तुम पलायनवादी हो, गड्ढे से भागने की कोशिश कर रहे हो? कोई बीमार हो जाए और चिकित्सा की चेष्टा करे, तुम उससे कहोगे: कायर, अब बीमारी से निकलने की कोशिश कर रहे हो? रहो वहीं! हिम्मतवर हो, डटे रहो! कहां जीना है?


     संसार गड्ढा है, बीमारी है। संसार आग-लगा घर है। जिनको थोड़ा बोध है वे बाहर निकलेंगे। वे असल में घर छोड़ कर नहीं भाग रहे हैं। घर रहने योग्य ही न था। अब तक कैसे रहे--यही सवाल है। अब तक क्यों न दिखाई पड़ीं ये लपटें? जब दिखाई पड़ गईं, तभी सवेरा है। इसलिए बाहर आ रहे हैं।


     एक अर्थ में तुम कह सकते हो, संन्यास पलायन है। एक अर्थ में तुम कह सकते हो, संन्यास जागरण है। मैं तो उसे जागरण ही कहता हूं।


      घर में आग लगी हो तो वही आदमी घर के भीतर रह सकता है जो सोया हो या शराब पीकर पड़ा हो। जागा हुआ आदमी तो बाहर आ जाएगा। न केवल जागा हुआ आदमी खुद बाहर आएगा, सोए को जगाने की कोशिश करेगा कि भाई, जागो! शराबी के मुंह पर पानी छिड़केगा, घसीटेगा कि निकल आओ तुम भी। हालांकि शराबी कहेगा: क्या ऊधम मचा रखा है? शांति से सोने दो। क्या सुबह-सुबह जगा रहे हो? कहां आग लगी है? कहीं कोई आग नहीं लगी है। कोई सपना देखा होगा।


     फिर भी जो जागा है उसके जागरण के कारण ही, उस पर एक उत्तरदायित्व आ गया--वह उत्तरदायित्व है कि जो सोए हैं आस-पास, उनको भी हिला कर जगा दे। इसलिए बुद्धपुरुष इतनी चेष्टा करते हैं कि तुम जागो; क्योंकि तुम जहां हो वहां लपटें हैं, लेकिन तुम कहते हो, यह तो पलायन है। और तुम्हारी भीड़ ज्यादा है। जागता एक है; हजार सोए हैं घर में। वे हजार अपनी नींद में ही बडबड़ाते हैं। वे कहते हैं कि हम ही ठीक हैं; हमारी भीड़ जो कह रही है वह ठीक है, कि एक आदमी जो कह रहा है वह ठीक है? यह तो डिक्टेटरशिप हो गई, तानाशाही हो गई। एक आदमी कह रहा है, घर में आग लगी है और हजार आदमी कह रहे हैं, मत दे रहे हैं कि नहीं लगी, हम सोए हैं मजे से, गड़बड़ मत करो; और वह गड़बड़ किए चला जा रहा है।


      लेकिन संत की अपनी मजबूरी है। तुम चाहे हजार हो, चाहे लाख हो--इससे सही नहीं होते। जाग कर देखा गया जो है वही सत्य है। यह कोई लोकतंत्र नहीं है सत्य का कि वहां वोट से तय होता है, कौन सत्य है। हाथ और सिर नहीं गिनने हैं; यहां आत्माएं गिनी जाती हैं; यहां भीतर का बोध गिना जाता है। एक भी सत्य हो सकता है; करोड़ गलत हो सकते हैं। सवाल करोड़ का और एक का नहीं है--सवाल जागे होने का है।


    और छठवां: आप क्रांति के अगुआ बनें, ऐसी हजारों की आकांक्षा थी, लेकिन आपने क्यों उनकी आकांक्षाओं को ठुकरा दिया?


     जैसे मैंने कहा, न तो यहां मैं किसी की आकांक्षाएं पूरा करने को हूं, न कोई और मेरी आकांक्षाएं पूरा करने को है। मैं स्वयं होने को हूं यहां; तुम स्वयं होने को हो यहां। दूसरे पर आकांक्षाएं थोपना उचित नहीं है।


       अगर हजारों की आकांक्षाएं थीं कि मैं क्रांति का अगुआ बनूं, तो वे सोए हुए लोगों की आकांक्षाएं थीं। उनकी आकांक्षाओं का कोई मूल्य नहीं है। क्योंकि क्रांति यानी क्या?


      घर में आग लगी है, तुम फर्नीचर बदल रहे हो, टेबल यहां से हटा कर कुर्सी लगा रहे हो, बिस्तर की जगह बदल रहे हो, रंग-रोगन पोत रहे हो, चित्र-फोटो लटका रहे हो! घर में आग लगी है, तुम क्रांति कर रहे हो!


       सारी क्रांति फर्नीचर की बदलाहट है।


       क्रांति मात्र, आज तक जिसको लोगों ने कहा है, वह कोई क्रांति नहीं है।


       क्रांति तो सिर्फ एक है--वह है इस जीवन में लगी आग को देख लेना और किसी नये जीवन में उठ जाना; इस घर को छोड़ देना, और किसी नये घर को बना लेना। बाकी सब क्रांतियां तो इसी घर के भीतर बदलाहट हैं। इस दीवाल में थोड़ा सा लीपा-पोती करके रंग-रोगन कर दिया--इससे लपट थोड़े ही मिटेगी। इससे बाहर जो आग लगी है वह लगी ही रहेगी।


      क्या हुआ--रूस में क्रांति हुई उन्नीस सौ सत्रह में--क्या हुआ? जो मालिक थे वे उतार दिए गए; जो उतरे थे वे मालिक हो गए; मालकियत जारी रही। फर्नीचर बदल गया: कुर्सी नीचे थी वह ऊपर आ गई, जो ऊपर थी वह नीचे आ गई। वही उपद्रव जारी रहा, कोई फर्क न पड़ा। अमीर अमीर न रहा, गरीब गरीब न रहा; लेकिन अब एक नया वर्ग पैदा हो गया--सत्ताधिकारियों का और गैर-सत्ताधारियों का। साधारण जनता और कम्युनिस्ट पार्टी, अब ये दो वर्ग पैदा हो गए।


      वर्ग जारी रहा, नाम बदल गए। पहले कोई दूसरे लोग शोषण करते थे, अब कोई दूसरे लोग शोषण करते हैं--शोषण जारी है; सत्ता जारी है; परतंत्रता जारी है।


       दुनिया की सारी क्रांतियां मिट्टी हो गई हैं।


     नहीं, मैं तुम्हारी किसी मूढ़ता का अगुआ नहीं होना चाहता। मुझे कोई उत्सुकता नहीं है तुम्हारे फर्नीचर बदलने में।


      और बड़ा मजा है! राजनीति एक बड़ा गहरा षडयंत्र है!


      इंग्लैंड में दो पार्टियां हैं। इंग्लैंड बड़ा कुशल मुल्क है: होना भी चाहिए; राजनीति का उसका अनुभव बड़ा पुराना है। बड़े होशियार लोग हैं! एक पार्टी सत्ता में होती है, दूसरी उसकी निंदा करती है। स्वभावतः किसी की भी सत्ता सुंदर नहीं है, लेकिन जनता को एक भ्रम बना रहता है। एक पार्टी सत्ता में है, दूसरी पार्टी निंदा करती है मुल्क में, भूल-चूक बतलाती है। दस साल एक पार्टी सत्ता में रहती है, तब तक उसकी प्रतिष्ठा गिरती जाती है, क्योंकि वह कुछ कर तो पाती नहीं। कोई कुछ नहीं कर पाता, मुल्क की मुसीबत बनी रहती है, बढ़ती जाती है। मुल्क क्रोध में भरता जाता है। जो सत्ता में नहीं हैं, लोग उनके प्रेम में पड़ने लगते हैं कि ये लोग ठीक मालूम पड़ते हैं।


    और जनता की स्मृति बड़ी कमजोर है। दस साल बाद वे पहली पार्टी को नीचे उतार देते हैं, इस पार्टी को ऊपर बिठाल देते हैं। दूसरी पार्टी पहले काम में लग जाती है--इनकी निंदा में।


     इनसे भी कुछ होता नहीं। लेकिन दस साल में जनता फिर भूल जाती है। वे जो सत्ता में होते हैं, उनकी भूल दिखाई पड़ती है। जो सत्ता में नहीं होते, उनकी तो भूल दिखाई कैसे पड़ेगी? क्योंकि भूल तो वे कोई करते नहीं। वे कुछ करते ही नहीं; वे सिर्फ निंदा करते हैं। दस साल में फिर जनता उनके प्रेम में पड़ जाती है; उनको सत्ता में बिठा देती है, सत्ता वालों को नीचे बुला लेती है।


      जिनको तुम विरोधी पार्टियां कहते हो, वे सब आपसी षडयंत्र में हैं। वे एक-दूसरे के सहारे हैं। वे विरोधी वगैरह नहीं हैं। भला वे एक-दूसरे को जेल में डालें, भला उनको भी पता न हो--मगर वे विरोधी वगैरह नहीं हैं; वह सब एक-दूसरे की साजिश है, वह पूरा खेल है।


      जब एक सत्ता में होता है तब जनता को यह पता नहीं चल पाता कि भूल वस्तुतः सत्ता में एक पार्टी की हो रही है या भूल ऐसी है जो हमारी जीवन-चेतना की है। दुख इसलिए है कि हमारी जीवन-चेतना सोई है। जीवन में इतनी पीड़ा इसलिए है कि हम बेहोश हैं। यह नहीं दिखाई पड़ पाता। यह दिखाई पड़ता है कि ये लोग हट जाएं। दूसरी पार्टी सपने बता रही है, झंडे उठा रही है। वह कहती है, हम सब ठीक कर देंगे। वह आश्र्वासन दे रही है। उस पर भरोसा आ जाता है।


     अ का भरोसा ब पर चला जाता है। फिर ब से भरोसा अ पर चला जाता है। कभी अपनी याद नहीं आ पाती कि यह भूल कहीं हमारी है। ऐसे जीवन सदियों तक चलता रहा है। विरोधी आपस में ऐसा लड़ते हैं कि तुम्हें ऐसा लगता है कि ये तो बिलकुल एक-दूसरे के विपरीत हैं। और अगर इनको हम ताकत में पहुंचा देंगे तो सब ठीक हो जाएगा। कभी ठीक कुछ नहीं होता।


       क्रांतियां सब असफल हो गई हैं। एक ही क्रांति कभी असफल नहीं हुई, वह व्यक्ति की क्रांति है। कोई नींद से जागता है: बुद्ध हो जाता है, कृष्ण हो जाता है, फरीद हो जाता है, मोहम्मद, नानक...बस वही एकमात्र क्रांति है।


      तो, तुम्हारी अपेक्षाओं से मैं तुम्हारा अगुआ नहीं हो सकता। मेरी दृष्टि से ही मैं कुछ कर सकता हूं। मेरी दृष्टि यही है कि तुम जागो--यही एकमात्र क्रांति है। तुम्हारे घर के फर्नीचर को यहां से वहां हटाने की मेरी उत्सुकता नहीं है। धूल-धवांस झाड़ने का मेरा मन नहीं है। तुम्हारी भूल, तुम्हारी बेहोशी है--वही टूट जानी चाहिए। तब तुम अगर अमीर भी न हुए, गरीब भी रहे, तो भी आनंद की वर्षा तुम्हारे घर पर होगी। तब तुम्हारे पास दो जोड़ी वस्त्र भी रहे, तो भी तुम नाच सकोगे। तुम्हें रूखा-सूखा भी खाने को मिला तो भी तुम्हारे कंठ से गीत का जन्म हो सकेगा।


      और मनुष्य-जाति उसी दिन सुखी होगी, जिस दिन व्यक्ति-व्यक्ति सुखी होता है, और समाज की भ्रांति छूट जाती है कि हम समाज को सुखी कर सकते हैं। समाज कभी सुखी नहीं हो सकता। समाज है ही नहीं। समाज तो एक संज्ञामात्र है, एक नाममात्र है। जहां भी तुम पाओगे, व्यक्ति को पाओगे, धड़कते हुए व्यक्ति के हृदय को पाओगे।


        व्यक्ति की आत्मा की क्रांति एकमात्र क्रांति है।


       मेरा राजनीति में कोई रस नहीं है। ऐसे प्रश्र्न तुम न पूछो तो अच्छा। तुम अपनी बदलाहट की कुछ बात पूछो।


     आज इतना ही।

ओशो

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