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प्रेम महामृत्यु है, ओशो

प्रेम महामृत्यु है, ओशो



पहला प्रश्र्न:


     ओशो, आप जब भी प्रेम पर चर्चा करते हैं तब अनिवार्यतया मृत्यु को क्यों जोड़ लेते हैं?


      क्योंकि प्रेम महामृत्यु है। जिसने मृत्यु को न समझा, वह प्रेम को भी समझ न पाएगा। जिसने प्रेम को न समझा, वह मृत्यु से सदा के लिए अपरिचित रह जाएगा। मृत्यु है स्वेच्छा से मरने की बात, तो ही समझी जा सकती है। स्वेच्छा से तो कोई प्रेम में ही मरता है। मृत्यु में स्वेच्छा से मरना तो बहुत कठिन होता। जिसने प्रेम में मरना सीखा, मिटना सीखा; जिसने मिटने का मजा ले लिया; जिसे मिटने का स्वाद आ गया--वह शायद मृत्यु में भी मिटने को स्वेच्छा से राजी हो जाए।


      तो प्रेम पाठशाला है। उस पाठशाला में मिटना सीखना है। और मिटे बिना कोई प्रेम को उपलब्ध नहीं होता। तुम जब तक हो तब तक प्रेम न हो सकेगा। तुम्हारा सिंहासन जब खाली हो जाता है तभी प्रेम का सम्राट उतरता है। इसलिए मिटने की तैयारी हर हालत में जरूरी है। उससे ही तुम प्रेम को जानोगे। उससे ही तुम प्रार्थना को जानोगे। उससे ही तुम मृत्यु को जानोगे। उसी से तुम परमात्मा को जानोगे।


        प्रेम कुंजी है। और उस एक कुंजी से सभी ताले खुल जाते हैं। इसलिए तो फरीद कहते हैं: अकथ कहानी प्रेम की! द्वार बहुत होंगे, ताले बहुत होंगे, लेकिन सब तालों के बीच एक कुंजी काम कर जाती है, वह प्रेम की है।


      इसलिए अनिवार्यतया प्रेम के साथ मृत्यु की चर्चा करनी ही पड़ेगी। जिसने प्रेम की चर्चा की और मृत्यु को बाद दी, उसकी प्रेम की चर्चा व्यर्थ है, अधूरी है; उसमें कोई गहराई नहीं है। वह ज्यादा से ज्यादा आदमी की वासना की बात कर लेगा, कामना की बात कर लेगा; लेकिन प्रेम की गहराई छुई भी न जा सकेगी। तुम्हें विरोधाभास लगता है, क्योंकि तुम तो सोचते हो: प्रेम यानी जीवन। और मैं तुमसे कहता हूं: प्रेम यानी मृत्यु। तुम्हें विरोधाभास लगता है, क्योंकि न तो तुम जीवन को जानते, न तुम मृत्यु को। जीवन की गहनतम गहराई मृत्यु में है। जीवन को भी जानना हो तो भी डूबना पड़ेगा। जैसे बूंद सागर में खो जाती है, ऐसे तुम्हें जीवन के महासागर में खो जाना पड़ेगा।


        जीसस की जीवन की कथा का यही सार है। इधर सूली लगी, उधर पुनरुज्जीवित हुए। ईसाइयत भूल गई उस बात को, ठीक से समझ न पाई; क्योंकि प्रेम को और मृत्यु को जोड़ना ईसाइयत को भी मुश्किल पड़ा। जीसस को मानने वाले, जीसस के सूली चढ़ते वक्त सोचते थे, जीसस मरेंगे नहीं। कोई चमत्कार होगा। मृत्यु से बचा लिए जाएंगे। क्योंकि वे भी मृत्यु से डरे थे। उन्हें पता ही न था कि प्रेम की आखिरी गहराई तो मृत्यु है, क्रॉस है, सूली है। और जब जीसस मर गए सूली पर, तो मित्र और अनुयायी विदा हो गए--उदास, थके-हारे। कोई चमत्कार घटित न हुआ। और जब तीन दिन बाद, कथा कहती है कि जीसस देखे गए जीवित, तो अनुयायी भरोसा न कर सके। क्योंकि यह हो ही कैसे सकता है? जो मर गया, जो मर गया सूली पर वह पुनरुज्जीवित कैसे? असंभव! फिर चूक गए।


          प्रेम की गहराई मृत्यु है और मृत्यु से पुनरुज्जीवन है, नया जीवन है।


        यह जीसस की पूरी कथा इतनी ही है। ऐसा कभी हुआ या नहीं, यह बात महत्वपूर्ण नहीं है। कोई सूली पर लटका, फिर चला जमीन पर, यह बात महत्वपूर्ण नहीं है। यह तो एक बोध-कथा है। सूली के बाद महाजीवन है। और इस कथा में एक बात समझ लेने जैसी है। उनके जो खास-खास शिष्य थे--ल्यूक, मार्क, थॉमस--वे कोई पहचान न सके। उनको पहचाना उनकी एक प्रेम करने वाली शिष्या ने। वह शिष्या भी असाधारण थी। वह एक वेश्या थी--मेरी मेग्दलीन। ईसाइयत इसको झुठलाने की कोशिश करती रही है, इस बात को छिपाती है, क्योंकि यह बात जमती नहीं। बड़े-बड़े अनुयायी, संत जिन्हें ईसाइयत कहती है, वे न पहचान सके--और पहचाना एक वेश्या ने।


        यह बात भी मैं मानता हूं कारगर है, अर्थपूर्ण है, प्रेम ही पहचानेगा। वेश्या का प्रेम भी पहचान लेता है। संत का पांडित्य भी नहीं पहचान पाता है। प्रेम की ऐसी महिमा है। वेश्या का प्रेम भी पहचान लेगा। वेश्या के प्रेम में कितनी ही अपवित्रता हो तो भी प्रेम की एक पवित्र किरण तो मौजूद है। और संत के तथाकथित पांडित्य में कितनी ही पवित्रता की धारणाएं हों, पवित्रता की एक भी जीवित किरण नहीं है।


       मस्तिष्क न पहचान सका, हृदय ने पहचाना। पुरुष न पहचान सके, स्त्री ने पहचाना। यह बात सोच लेने जैसी है, सोच-विचार काम न आया। हृदय की अंधी आंखें काम आ गईं।


       प्रेम की कहानी बड़ी महत्वपूर्ण है। पर मृत्यु को समझोगे तो ही समझ में आएगी। और जो प्रेम में मरने को राजी है, उसे परमात्मा हजार रूपों में जिला देता है।


      दूसरा प्रश्र्न:


    ओशो, जो भी अस्तित्वगत है--प्रेम, काल, ध्यान--वह सब बेबूझ क्यों है हमारे लिए?


     अस्तित्व रहस्य है। बेबूझ होना उसका स्वभाव है। बेबूझ होना कोई घटना नहीं है, कोई उलझन नहीं है, जिसको तुम सुलझा सकोगे। बेबूझ होना अस्तित्व का स्वभाव है।


      इस भेद को ठीक से समझ लो।


     ये कपड़े मैंने पहन रखे हैं--यह मेरा स्वभाव नहीं है। मैं दूसरे कपड़े पहन सकता हूं। मैं नग्न हो सकता हूं। मैं कपड़ों का त्याग कर दे सकता हूं। ऊपर की घटना है। संयोग है, स्वभाव नहीं है। पहना हूं तो ठीक; उतार दूं तो कोई कपड़े जबर्दस्ती न कर सकेंगे कि हम उतरते नहीं।


      लेकिन फिर मेरी चमड़ी है, चमड़ी को उतारना बड़ा कठिन पड़ेगा; यद्यपि उतारी जा सकती है। संयोग वह भी है; थोड़ा गहरा संयोग है। लेकिन फिर भी संयोग है। चमड़ी भी खींची जा सकती है, उतारी जा सकती है। फिर उसके भीतर मैं हूं। उस मैं को तो मुझसे अलग नहीं किया जा सकता। कोई उपाय नहीं है। कोई प्लास्टिक सर्जरी काम नहीं आएगी। वह मेरा स्वभाव है।


       जो भी मुझसे अलग किया जा सके, वह मेरा स्वभाव नहीं है, संयोग है। कोई संयोग बहुत गहरा होगा, कोई बहुत गहरा नहीं होगा। लेकिन सब संयोग तोड़े जा सकते हैं। नदी-नाव संयोग हम कहते हैं। कोई अनिवार्य नहीं है कि नदी नाव में रहे। ऐसा भी अनिवार्य नहीं है कि नाव में नदी रहे ही या नाव नदी में रहे। कोई अनिवार्यता नहीं है। नाव को तुम नदी से उठा लो तो कोई अड़चन नहीं है। नदी बिना नाव के हो सकती है। नाव बिना नदी के हो सकती है। संयोग ऊपरी है। लेकिन कुछ नदी का स्वभाव है--जैसे बहाव। नदी में बहाव न हो तो तालाब हो जाएगी, नदी नहीं रहेगी, फिर सड़ेगी। जिस नदी में बहाव न रहा, वह सागर की तरफ जाना बंद हो गई। वह उसका स्वभाव था। उसके बिना वह नदी ही न रही। फिर तुम्हें उसे कुछ और नाम देना पड़ेगा--सरोवर कहो, कुछ और कहो; नदी न कह सकोगे। उसका बहाव ही खो गया।


      फिर जल है नदी का। जल ही खो जाए तो भाषा में हमें इस तरह के प्रयोग करने पड़ते हैं--हम कहते हैं, सूखी नदी। यह बिलकुल पागलपन की बात है। सूखी कहीं कोई नदी हो सकती है? सूखी नदी तो केवल नदी के न होने का नाम है। कभी यहां नदी बहती थी, अब सिर्फ सूखा पाट रह गया है। मत कहो कि यह नदी है। इतना ही कहो कि कभी यहां नदी बहती थी। अब तो नदी का बिलकुल अभाव है, इसको तुम सूखी नदी कहते हो। यह भाषा का गलत उपयोग है। क्योंकि नदी और गीली न हो तो नदी कहां? नदी सूखी कैसे हो सकती है? उसका कोई उपाय नहीं है।


       अस्तित्व का स्वभाव है बेबूझता, रहस्य। कोई भी उपाय नहीं है कि हम उसे उतार कर अलग कर दें। साइंस कितनी चेष्टा करती है--यही चेष्टा है कि किसी तरह बेबूझपन मिट जाए; किसी तरह बात समझ में आ जाए; व्याख्या हो जाए, कोई सिद्धांत बन जाए जो जीवन को सुलझा दे। लेकिन विज्ञान ने जितने उपाय किए हैं उतनी ही मुसीबत बढ़ी है। चीजें सुलझी नहीं हैं और उलझ गईं। जितना विज्ञान गहरा गया है उतना ही उसने पाया कि और गहराइयां खुल गईं। एक रहस्य को लगता था सुलझा रहे हैं, दस नये रहस्य उलझ गए।


       बहुत बड़े वैज्ञानिक एडिंग्टन ने लिखा है कि सौ वर्ष पहले वैज्ञानिक सोचते थे, हम बिलकुल अब द्वार के करीब हैं, रहस्य का द्वार आया, आया, अब खुला अब खुला, जरा समय की देर है, थोड़े प्रयोग और, थोड़ी चेष्टा और। बड़े आश्र्वस्त थे। लेकिन इस सदी के प्रारंभ में आश्र्वासन डगमगा गया। द्वार पर आ गए, द्वार खुल भी गया; पता चला, और नये द्वार हैं। जैसे प्याज को छीलो, एक पर्त निकली और दूसरी पर्त आ गई। प्याज तो कभी छिल भी जाएगी पूरी और हाथ में कुछ भी न बचेगा। लेकिन जीवन का ढंग ऐसा है, अस्तित्व का ढंग ऐसा है--पर्त पर पर्त है। कभी छिल नहीं पाएगा। तुम उघाड़ते जाओगे, उघड़ने को शेष रहेगा।


       तुमने महाभारत की कथा सुनी है; वह कथा महाभारत की नहीं है, विज्ञान और अस्तित्व की है। द्रौपदी का वस्त्र उघाड़ा गया है, वह बढ़ता चला जाता है। वे जो वस्त्र उघाड़ रहे थे, वे द्रौपदी को नग्न करने को उत्सुक हुए थे। विज्ञान प्रकृति को नग्न करने को उत्सुक हुआ है: जान लेना है पूरा।


        कथा है कि कृष्ण वस्त्र को बढ़ाते चले गए। यह तो कथा है। कोई ऐसा कृष्ण बैठे नहीं। द्रौपदियां निश्र्चिंत न रहें। वस्त्र छीना जाने लगे तो कुछ करें, कोई कृष्ण बैठे नहीं कहीं जो वस्त्र को बढ़ा देंगे।


       नहीं, लेकिन कहानी बड़ी महत्वपूर्ण है। उसको यथार्थ मत समझना, उसको प्रतीक समझना। वह यह है कि परमात्मा का ढंग ऐसा है, उसका होना ऐसा है, स्वभाव ऐसा है: कि तुम उघाड़ो, वह ढंकता ही चला जाता है। तुम जितना उघाड़ते हो उतना तुम ही थकते हो।


        एडिंग्टन ने लिखा है कि हम सोचते थे पहले कि पदार्थ समझ लिया गया, पदार्थ का स्वरूप समझ लिया गया। हम सोचते थे, संसार यंत्रवत है; लेकिन अब, अब हालत उलटी हो गई है। पदार्थ तो बिलकुल खो गया। वैज्ञानिक कहते हैं, पदार्थ जैसी तो कोई चीज ही नहीं है। और अस्तित्व का स्वभाव विचार जैसा मालूम होने लगा, वस्तु जैसा नहीं। और भी रहस्य बढ़ गया।


        आइंस्टीन ने मरते वक्त कहा है कि जब मैंने शुरू की थी यात्रा खोज की, विज्ञान की, तो मैं सोचता था, कुछ न कुछ हाथ लग जाएगा। कुछ हाथ नहीं लगा। इतना ही जान पाया हूं कि जानना असंभव है। इतना ही जान पाया हूं कि जीवन के रहस्य को कभी पूरा खोला न जा सकेगा।


        आइंस्टीन, एडिंग्टन, प्लांक, बड़े वैज्ञानिक अंतिम दिनों में कविता की भाषा बोलने लगे, धर्म की भाषा बोलने लगे। जो वैज्ञानिक धर्म की भाषा तक न पहुंच पाए, समझना कि मीडियाकर है, थोड़ा मध्यम बुद्धि का है, बहुत गहरे नहीं जा सका। जो भी गहरे गए हैं उन्हें तो थाह मिली ही नहीं। उन्होंने तो कहा: अथाह है। हां, जो किनारे पर ही बैठे रहे, वे कहते हैं, थाह है। जो गए गहरे में उन्होंने थाह न पाई। जो जितना गहरा गया उतना अथाह पाया।


        इसलिए तो फरीद कहते हैं: अकथ कहानी प्रेम की! कहता हूं, लेकिन कही न जा सकेगी। थाह लेता हूं, लेकिन अथाह है। चेष्टा करूंगा; जानता हूं, यह होगा नहीं।


          अस्तित्व का स्वभाव है रहस्य।


         अस्तित्व कोई समस्या नहीं है जिसको हल करना है, जिसे तुम हल कर सकते हो। अस्तित्व एक रहस्य है। तुम जीओ तो जी सकते हो; नाचना चाहो, नाच सकते हो अस्तित्व को; गाना चाहो, गा सकते हो; हल करने भर की कोशिश मत करना। वह भ्रांत चेष्टा है।


        और होना भी यही चाहिए कि वह चेष्टा भ्रांत हो। क्योंकि तुम अस्तित्व के अंग हो; अंग पूर्ण को कैसे जान सकेगा? बूंद सागर को कैसे जान सकेगी? तुम अंश हो; अंश अंशी को कैसे जान सकेगा? अस्तित्व तुमसे पहले है, तुमसे बाद भी रहेगा। तुम अस्तित्व की एक लहर हो--आए और गए। तुम नहीं थे तब भी अस्तित्व था, तुम नहीं हो तब भी अस्तित्व रहेगा। तुम कैसे इस अनंत को जान सकोगे?


        तुम तो जागरण की एक छोटी सी घटना हो। जरा सी चेतना उठी है। जरा सा होश आया है। एक किरण उतरी है। इस किरण के सहारे तुम इस विराट को कैसे जान सकोगे? असंभव है। और अगर यह अहंकार तुम्हारे मन में आ जाए कि इसे जान कर रहेंगे तो तुम्हें एक अवसर मिला था आनंद का, वह भी तुम खो दोगे।


       ज्ञान मत खोजना, आनंद खोजना। यही फर्क धर्म और विज्ञान का है। विज्ञान कहता है, ज्ञान खोजेंगे; धर्म कहता है, आनंद खोजेंगे। विज्ञान कहता है, उस आनंद का अर्थ ही क्या, जिसका हमें ज्ञान न हो?


        सुकरात ने सिलसिला शुरू किया पश्र्चिम में विज्ञान का। सुकरात ने कहा है: अपरीक्षित जीवन जीने योग्य नहीं है। अनएग्जामिन्ड लाइफ इ़ज नॉट वर्थ लिविंग। इससे शुरुआत हुई विज्ञान की। यह बीज है। जीवन को जब तक ठीक से न समझ लिया जाए, व्याख्या न हो जाए, उसका परीक्षण न हो जाए--तब तक जीने में क्या सार है?


         धर्म कहता है, ज्ञान का क्या करोगे, अगर उससे आनंद उपलब्ध न हो? ज्ञान का ढेर लगा लोगे। ज्ञान के पहाड़ भी इकट्ठे हो जाएं तो भी आनंद की एक बूंद भी तो उससे नहीं निचुड़ सकती। ज्ञान का करोगे क्या? ज्ञान किसलिए? अगर तुम गौर करोगे तो ज्ञान का खोजी भी कहेगा कि ज्ञान पाकर मैं आनंदित होऊंगा। तो धर्म कहता है, जब आनंदित ही होना है तो इतने ऊहापोह की क्या जरूरत है? और ज्ञान कभी किसी को हुआ नहीं। हां, जो आनंद को उपलब्ध हो गए हैं, उनका अज्ञान मिट गया है। ज्ञान कभी किसी को हुआ नहीं। जो आनंद को उपलब्ध हो गए उनका अज्ञान मिट गया है। उनके भीतर से यह भाव ही गिर गया कि कुछ जानना है; सारे प्रश्र्न मिट गए। उत्तर मिल गए हैं, यह मैं नहीं कह रहा हूं। सारे प्रश्र्न गिर गए हैं। वे निष्प्रश्र्न हो गए हैं। और जहां प्रश्र्न गिर गए, जहां कोई खोजने की बात न रही--वहां जीवन की पुलक, जीवन का अहोभाव उठता है।


        जब तक तुम दौड़ते हो, खोजते हो, तब तक नाचने की फुर्सत कहां? जब कोई दौड़ नहीं रह जाती, कोई खोज नहीं रह जाती, कहीं जाने का कोई सवाल नहीं रह जाता, तुम जहां हो वहीं मंजिल होती है--तब तुम नाचते हो। नाचने वाला पैर, यात्रा पर जाने वाले पैर से बिलकुल अलग है। नाचने वाला पैर कहीं भी नहीं जा रहा। उसकी गति तो हो रही है, लेकिन कोई गंतव्य नहीं है। तुम नाचने वाले पैर की अगर वैज्ञानिक परीक्षा करोगे तो उसमें और दुकान की तरफ जाने वाले पैर की परीक्षा में कोई फर्क न पाओगे। क्योंकि दोनों में मसल्स की गति होगी, खून बहेगा, ऊर्जा व्यय होगी, विद्युत प्रवाहित होगी, खर्च होगा। अगर तुमने भौतिकवादी की तरह दुकान की तरफ जाने वाले पैर की और मंदिर के द्वार पर नाचने वाले पैर की परीक्षा की, तो दोनों में तुम्हें कोई फर्क न मिलेगा। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं और तुम भी समझोगे कि फर्क है। मंदिर के द्वार पर नाचने वाला पैर कहीं भी नहीं जा रहा, सिर्फ अहोभाव प्रकट कर रहा है--कि मैं हूं; धन्यभाग मेरे कि आज श्र्वास है और मैं गीत गा सकता हूं; कि आज पैर युवा हैं और मैं नाच सकता हूं।


        कोई मंजिल नहीं है। धार्मिक व्यक्ति के लिए यात्रा ही मंजिल है। तीर्थयात्रा है। कहीं पहुंचना नहीं है। पहुंचे तो हुए ही हैं पहले से ही। उस परमात्मा में विराजमान ही हैं पहले से। उससे बाहर कभी जाना हुआ नहीं। घर लौट कर आना नहीं है। घर के बाहर कभी गए नहीं; क्योंकि घर के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं।


       ऐसे आनंद के अहोभाव में जो डूब जाता है। उसका अज्ञान गिर जाता है। अज्ञान के गिर जाने को हमने परम ज्ञान कहा है। और ज्ञान की खोज तो विराट अस्तित्व की टेबल पर जो भोजन चल रहा है, नृत्य अहोभाव चल रहा है, उसके टेबल से गिर गए रूखे-सूखे रोटी के टुकड़े हैं, उनको कोई जोड़ ले, इकट्ठा कर ले--उसको तुम जीवन मत समझना।


      ज्ञान कचरा है। उस ज्ञान को मैं कचरा कहता हूं जिससे अज्ञान मिट न जाता हो। और ऐसा कोई ज्ञान नहीं है जिससे अज्ञान मिटता हो। अज्ञान तो अपनी जगह बना रहता है; ज्ञान का कचरा इकट्ठा होता जाता है। तुम कितना ही जान लो, जब तक तुम्हारे जीवन में पुलक न आएगी आनंद की, तब तक तुम्हारे जानने का क्या सार है?


      धर्म कहता है, नाचो। विज्ञान कहता है, ज्ञान मिलेगा तो हम आनंदित होंगे। धर्म कहता है, आनंदित होते ही ज्ञान मिल जाता है। इसलिए हमने परमात्मा की आखिरी व्याख्या में ‘आनंद’ शब्द को रखा है--‘सच्चिदानंद।’ वह आखिरी है। आनंद के पार फिर कुछ भी नहीं है। वह आखिरी आकाश है; आखिरी गंतव्य है; आखिरी अर्थ और प्रयोजन और नियति है!


       अस्तित्व का बेबूझ होना स्वाभाविक है।


       इसलिए संतपुरुष बेबूझ मालूम पड़ते हैं, क्योंकि उनसे अस्तित्व बोलता है। उनकी वाणी अटपटी मालूम पड़ती है। उनकी वाणी में अतर्क्य कुछ छिपा हुआ मालूम पड़ता है। भारत में तो साधुओं की वाणी को हमने अलग ही नाम दे रखा है: सधुक्कड़ी। वह कोई साधारण भाषा नहीं है; सधुक्कड़ी है। उसका कुछ पक्का नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं और क्या कहना चाह रहे हैं और क्या कह गए हैं।


         कबीर के वचनों को हमने उलटबांसी कहा है। वे सीधे-सीधे वचन नहीं हैं, उलटे मालूम पड़ते हैं।


        कबीर कहते हैं: ‘एक अचंभा मैंने देखा, नदिया लागी आग।’ मैंने एक अचंभा देखा है कि नदी में आग लगी है।


        क्या मतलब होगा? यह बात तो बड़ी बेबूझ है। पर संतों से अस्तित्व बोलता है, बात बेबूझ हो जाती है।


       कबीर ठीक कह रहे हैं। कबीर यह कह रहे हैं, जो कभी नहीं हो सकता, वह होते देख रहा हूं। तुम परमात्मा को पाए हुए हो और खोज रहे हो--नदिया लागी आग! तुम आनंद के घर में बैठे हो और रो रहे हो, ़जार-़जार आंसू गिर रहे हैं--नदिया लागी आग! एक अचंभा मैंने देखा कि परमात्मा परमात्मा की ही खोज पर निकला है--नदिया लागी आग! एक अचंभा मैंने देखा, तुम कभी न मरोगे और मौत से कंप रहे हो--नदिया लागी आग!


     पर संत की वाणी बेबूझ है। उसको ऊपर से देखो तो उलटबांसी है। अगर जीवन को समझो तो उसकी उलटबांसी तत्क्षण सीधी हो जाती है।


    यही हुआ है। तुम हो अचंभे। मैं भी तुम्हें देखता हूं तो कबीर ठीक मालूम पड़ते हैं।


     किसको खोज रहे हो? जिसको तुम खोजने निकले हो उसको कभी खोया था कि चल पड़े खोजने? किसकी तरफ हाथ जोड़ कर आकाश में तुम प्रार्थना करते हो? यह प्रार्थना करने वाले को तो जरा गौर से देख लो, कहीं यह ही न हो जिसकी तुम प्रार्थना कर रहे हो। कहां जा रहे हो? किस दिशा में? किसलिए? कहीं ऐसा न हो कि जिसे तुम खोजते हो वह तुम्हारे भीतर बैठा हो।


       फरीद ने कहा है: वह रब, वह परमात्मा तेरे भीतर है। तू कहां जंगल-जंगल भटकता है? तू किसे खोजता है? खोज ही व्यर्थ है। खोज करने वाले में, जिसकी खोज चल रही है, वह छिपा बैठा है। जैसे बीज में वृक्ष है, ऐसा व्यक्ति में परमात्मा है। तब कबीर ठीक लगते हैं--नदिया लागी आग! और इसलिए तो तुम कितना ही खोजो, पा न सकोगे। पाने का संबंध तुम्हारी खोज से नहीं है। पाने का संबंध इस बात से है कि पहले तुम ठीक से पता तो लगा लो, कभी खोया था?


        कई बार ऐसा हो जाता है, खासकर चश्मा जो लोग लगाते हैं उनको हो जाता है, चश्मा लगा है, और वे भूल जाते हैं और वे टेबल पर इधर-उधर चश्मा देखने लगते हैं। तब अचानक उनको खयाल आता है कि चश्मा नाक पर है। बस ऐसा ही कुछ हुआ है--नदिया लागी आग!


        तुम्हें कई दफे ऐसा हुआ होगा। कलम कान में खोंस ली है--और सब तरफ खोजते फिर रहे हो। कोई छोटा बच्चा हंसने लगता है। वह कहता है, कलम कान में लगी है, तब तुम्हें याद आता है।


         परमात्मा खोया नहीं है, सिर्फ विस्मरण हुआ है। और विस्मरण हुआ है, ऐसा कहना भी शायद ठीक नहीं है; तुम किसी और गोरखधंधे में अति व्यस्त हो गए हो, इसलिए उसकी सूझ भूल गई है, बस। तुम्हारा मन इतना उलझ गया है किसी धंधे में कि तुम भूल ही गए कि चश्मा आंख पर रखा है। याद ही न रही।


        बहुत बार ऐसा होता है। जब तुम बहुत जल्दी में होते हो, तब देर होने लगती है। ट्रेन पकड़नी है। चाबी नहीं जाती ताले में। रोज चली जाती थी, आज नहीं जाती है। आज तुम कंप रहे हो। आज तुम भागे हुए हो। असल में तुम यहां हो ही नहीं। तुम आधे स्टेशन की तरफ जा चुके हो। बटन लगाते हो, नीचे की बटन ऊपर लग जाती है। कभी ऐसा नहीं होता था। और आज देर में और देर हुई चली जाती है। तुम यहां हो नहीं। तुम्हारा मन कहीं और व्यस्त हो गया है।


        परमात्मा को कोई कभी खोया नहीं है, किसी गोरखधंधे में व्यस्त हो गया है। धन है, पद है, प्रतिष्ठा है--इसकी दौड़ इतनी हो गई है कि तुम्हें चैन नहीं कि तुम थोड़ी देर बैठ कर देख पाओ कि तुम्हारी भीतरी संपदा क्या है।


        अस्तित्व बेबूझ है। उसी के कारण संतों के वचन बेबूझ मालूम पड़ते हैं। और जहां तुम्हें बेबूझ वचन सुनाई पड़ जाएं, उस जगह को शरण मान लेना। वहां से भागना मत। तुम्हारा तर्क तो कहेगा कि यह बात तो कुछ समझ में आती नहीं। जो बात तुम्हारी समझ में आ जाती है, वह तुम्हें उठा न सकेगी। जो तुम्हारी समझ में आ गई, वह तुम्हारी समझ से नीची है। जो तुम्हारे सिर के ऊपर से निकल जाए, समझ में न आए--वहीं समझना कि सीढ़ी है, कुछ ऊपर उठने की संभावना है।


       पंडितों की बातें बिलकुल समझ में आ जाती हैं। संतों की बातें समझ में नहीं आतीं। पंडितों से तुम्हें कुछ भी न मिलेगा। उनसे तुम कुछ भी न पा सकोगे।


       मैंने सुना है, इंग्लैंड की लार्ड्‌स-सभा का अध्यक्ष किसी गांव की यात्रा पर गया था, रास्ता भटक गया। कोई पास दिखाई नहीं पड़ता था तो उसने गाड़ी रोक दी। एक किसान चला आ रहा था जंगल से घास बांध कर। उसने उससे पूछा कि भाई, तुम मुझे बता सकते हो कि मैं कहां हूं? सीधा प्रश्र्न है। वह यह पूछ रहा है कि मैं किस जगह हूं, कौन सा गांव पास है? उससे पूछा: तुम मुझे बता सकते हो कि मैं कहा हूं? उस किसान ने नीचे से ऊपर तक देखा। उसने कहा कि बिलकुल, आप कार में बैठे हुए हो।


      उस लार्ड्‌स-सभा के अध्यक्ष ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि उसका उत्तर बिलकुल पार्लियामेंटेरियन था। उसने उत्तर भी दिया और तुम जो जानते थे पहले, उससे रत्ती भर जानने में बढ़ती न हुई। उत्तर तो बिलकुल ठीक दिया। ऐसा ही तो मंत्रीगण उत्तर देते हैं राज्य-सभाओं में, पार्लियामेंट्‌स में। उत्तर तो बिलकुल देते मालूम पड़ते हैं; लेकिन उत्तर से कुछ मिलता नहीं। तुम जितना जानते थे, उसमें रत्ती भर जुड़ता नहीं है। तुम उतना पहले ही जानते थे कि तुम कार में बैठे हो। उस किसान ने उत्तर दिया, वह बिलकुल धारा-सभा का उत्तर था।


      पंडित तुम्हें जो उत्तर देते हैं, वे सब धारा-सभा के उत्तर हैं; उनसे तुम्हें कुछ मिलता नहीं। तुम जानते ही थे वही तुमसे कह देते हैं; शायद थोड़े अच्छे ढंग से कह देते होंगे, लफ्फाजी में कुशल होंगे। जो तुम हिंदी में कहते, वे संस्कृत में कह देते होंगे। जो तुम हिंदी में समझते, वे फारसी में दोहरा देते होंगे। जो तुम अपनी सामान्य भाषा में कहते, वे उसे शास्त्र की भाषा में कह देते होंगे। मगर तुम्हारे जीवन में कुछ भी जुड़ता नहीं।


      संत तुम्हारे जीवन को अस्तव्यस्त कर देता है। वह तुम्हारे जीवन में कोई क्रांति की घड़ी ले आता है। अगर संत के वचन को समझने की तुमने चेष्टा की, उसी चेष्टा में तुम सीढ़ियां चढ़ने लगोगे। जहां तुम बेबूझ को पाओ वहां रुक जाना, जल्दी मत करना। शायद वहां से कोई रास्ता अस्तित्व के लिए खुलता हो।


      तीसरा प्रश्र्न:


     ओशो, ‘अकथ कहानी प्रेम की’--कबीर, नानक, दादू, फरीद, मीरा, चैतन्य, आप कहते ही चले जाते हैं। कहानी आगे बढ़ती जाती है। उसका अंत आता हुआ नहीं मालूम होता। क्या कोई अंत है या नहीं?


      प्रेम का प्रारंभ है, अंत नहीं।


     इसे थोड़ा समझना पड़े।


     प्रेम का प्रारंभ है, अंत नहीं। घृणा का अंत है, प्रारंभ नहीं। तुमने घृणा कब प्रारंभ की, तुम्हें कुछ पता है? तुम बता सकोगे, फलां दिन, फलां तारीख कैलेंडर में, उस दिन घृणा शुरू हुई? घृणा तुम लेकर ही आए हो जैसे। उसका कोई प्रारंभ नहीं है; अंत है। क्योंकि जिस दिन प्रेम का जन्म होगा, उसी दिन घृणा का अंत हो जाएगा। प्रेम का प्रारंभ होगा और अंत नहीं होगा।


       पुराने ज्ञानियों ने जो शब्द प्रयोग किए हैं, वे बड़े ठीक हैं। महावीर ने कहा है: संसार का कोई प्रारंभ नहीं है; अंत है। मोक्ष का प्रारंभ है; अंत नहीं है। ठीक कही है बात। मोक्ष का भी अंत हो जाए तो वह क्या मोक्ष होगा? संसार का अंत है, लेकिन प्रारंभ नहीं है। कब संसार हुआ शुरू, बता सकोगे? पूछो महावीर से, बुद्ध से, कब संसार शुरू हुआ? वे कहेंगे: कभी शुरू नहीं हुआ, बस है। पर इतना वे कह सकते हैं कि एक घड़ी आई जब अंत हुआ। चालीस वर्ष के थे बुद्ध, तब एक रात अंत हो गया संसार का, मोक्ष शुरू हुआ। अब तुम पूछो कि मोक्ष का अंत होगा कभी? कभी नहीं होगा।


       जीवन में जो पाप है, उसका प्रारंभ नहीं होता, अंत होता है। और जीवन में जो पुण्य है, उसका प्रारंभ होता है और अंत नहीं होता।


       अकथ कहानी प्रेम की! वह शुरू तो होती है। एक दिन वीणा के तार बजने शुरू होते हैं, उसके पहले भनक भी नहीं थी। फिर वीणा बजती ही चली जाती है। सब समाप्त हो जाता है, पर वीणा के स्वर फिर गूंजते ही रहते हैं। वह गूंज अनंत की है, शाश्र्वत की है। वह गूंज समय का हिस्सा नहीं है, समय के पार है।


         तो एक दिन तुम जागते जरूर हो, लेकिन फिर तुम कभी सोते नहीं। जो प्रेम में जाग गया, जाग गया। इसलिए तो हमने प्रेम को शाश्र्वत कहा है। और जब तक प्रेम शाश्र्वत न हो तब तक प्र्रेम का धोखा रहा होगा। जो प्रेम पैदा हो और समाप्त हो जाए, उसे तुम कुछ और कहना, कृपा करके प्रेम मत कहना। और नाम खोज लेना, लेकिन प्रेम मत कहना। क्योंकि प्रेम की तो परिभाषा यही है कि जो शुरू हो और समाप्त न हो। प्रेम इतना विराट है कि तुम ही उसमें समाप्त हो जाते हो; तुम उसे कैसे समाप्त कर पाओगे!


       एक कहानी मुझे सदा प्रीतिकर रही है। रामकृष्ण कहते थे: मेला भरा था समुद्र के तट पर। बड़ा विवाद चल रहा था कि समुद्र अथाह है या नहीं। भीड़ इकट्ठी हो गई थी। बड़े पंडित शास्त्र खोल कर बैठे थे। बड़ी उत्तेजना फैल गई थी कि कौन जीतता, कौन हारता! बैठे सब किनारे पर थे। सागर में कोई उतर न रहा था। बैठ कर ही चर्चा हो रही थी। शब्दों की मार चल रही थी। बाल की खाल खींची जा रही थी। कोई कहता था, अथाह है, क्योंकि अब तक किसी ने भी नहीं कहा कि कितनी थाह है। अगर थाह होती तो कोई नाप लेता। दूसरे कह रहे थे: चूंकि अब तक नापा नहीं गया, तुम कैसे कह सकते हो कि अथाह है? नाप हो जाए, और पता चले कि नाप नहीं हो पाता, तो ही अथाह कहना।


        अब इसमें बड़ी जटिलता थी। नाप अब तक हुआ नहीं है, तो थाह तो कह ही नहीं सकते, अथाह भी नहीं कह सकते। पर किसी को यह खयाल नहीं आ रहा था कि उतरें और कूद जाएं। कहते हैं, नमक के दो पुतले भी उस भीड़ में खड़े थे। उनको जोश आ गया। उन्होंने कहा: रुको जी। विवाद से क्या होगा? हम पता लगा कर आते हैं।


         वे दोनों कूद गए। वे जैसे-जैसे नीचे जाने लगे, वैसे-वैसे बड़े हैरान हुए कि सागर की गहराई का तो अंत नहीं होता, खुद पिघलते जा रहे हैं! नमक के पुतले थे। कहते हैं, वे पहुंच भी गए बड़ी गहराई में; लेकिन जब लौटने का खयाल आया तो वे थे ही नहीं; वे तो जा चुके थे। नमक नमक में घुल चुका था, सागर का हिस्सा हो चुका था।


       ऐसा कई दिनों तक लोग घाट पर प्रतीक्षा करते रहे और उन्होंने कहा कि फिजूल है मेहनत अब और रुके रहना। शास्त्र का अर्थ फिर से शुरू किया जाए, यह बेकार मेहनत गई। यह समय ऐसे ही गया। इस बीच तो हम शास्त्र से ही निर्णय कर लेते।


      फिर विवाद शुरू हो गया। और वे जो डूब गए गहराई में; वे कभी लौटे नहीं कहने, थाह है या नहीं।


      कहानी अभी भी वहीं उलझी है--थाह है या नहीं है? विवाद घाट पर अब भी चल रहा है। पंडित अब भी अपनी-अपनी बातें कर रहे हैं।


        ये जो दो नमक के पुतले हैं, ये संतों के प्रतीक हैं, ये संतत्व के प्रतीक हैं। जैसे सागर में नमक का पुतला घुल जाता है, ऐसे ही हम परमात्मा में घुल जाते हैं, उसके प्रेम में घुल जाते हैं। दो क्यों चुने प्रतीक? क्योंकि जब तक हम घुले नहीं तब तक दो मालूम होते हैं। घुल गए तो दो भी नहीं रह जाते, एक भी नहीं रह जाता; अद्वैत हो जाता है। फिर लौट कर कहे कौन? बताए कौन? थोड़ी देर घाट पर बैठे हुए पंडित प्रतीक्षा करते हैं; फिर वे कहते हैं, ये भी गए, कोई लौट कर बताता नहीं; हम अपना शास्त्रार्थ फिर शुरू करें। वे फिर विचार में लीन हो जाते हैं।


        निर्विचार में जाना जाता है। विचार में सिर्फ विवाद है। शून्य में पहचान है। शब्द में केवल सिर-फोड़ है। लेकिन जो शून्य में उतरता है, वह प्रेम को समाप्त नहीं कर पाता, स्वयं समाप्त हो जाता है। इसलिए--अकथ कहानी प्रेम की!


     चौथा प्रश्र्न:


     ओशो, इस प्रवचनमाला के प्रारंभ में आपने कहा, प्रेम और ध्यान दो मार्ग हैं। पर अकथ कहानी प्रेम की भांति अकथ कहानी ध्यान की क्यों नहीं कही जाती?

क्रमशः आगे--

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