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अग्नि भगवान् शङ्कर के भजन-पूजन के लिए अग्निकार्य के वर्णन से अग्नि की व्याख्या

 

अग्नि

 

भगवान् शङ्कर के भजन-पूजन के लिए अग्निकार्य के वर्णन से अग्नि की व्याख्या

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      अग्निकुण्ड तैयार करके ब्रह्मवृक्ष(पलास या गूलर) आदि के छिद्ररहित बिछले दो पत्ते लेकर उन्हें कुश से पोंछे और अग्नि में तपकर उनका प्रोक्षण करें ।  उन्हीं पत्तों को स्रुक और स्त्रुवा का रूप दे उनमें घी उठाये और अपने गृह्यसूत्र में बताये हुए क्रम से शिवबीज (ॐ) सहित आठ बीजाक्षरों द्वारा अग्नि में आहुति दे । इससे अग्नि का संसार संपन्न होता है । वे बीज इस प्रकार हैं - भ्रुं, स्तुं, ब्रुं, श्रुं, पुं, ड्रुं, द्रुं । ये साथ हैं, इनमें शिवबीज (ॐ) को सम्मिलित कर लेनेपर आठ बीजाक्षर होते हैं । उपर्युक्त साथ बीज क्रमशः अग्नि की साथ जिह्वाओं के हैं । उनकी मध्यमा जिह्वा का नाम बहुरूपा है । उसकी तीन शिखाएं हैं । उनमें से एक शिखा दक्षिण में और दूसरी वाम दिशा (उत्तर) में प्रज्वलित होती है और बीचवाली शिखा बीच में ही प्रकाशित होती है । ईशानकोण में जो जिह्वा है, उसका नाम हिरण्या है । पुर्वदिशा में विद्यमान जिह्वा कनका नाम से प्रसिद्ध है । अग्निकोण में रक्ता, नैऋत्यकोण में कृष्णा और वायव्यकोण में सुप्रभा नाम की जिह्वा प्रकाशित होती है । इनके अतिरिक्त पश्चिम में जो जिह्वा प्रज्वलित होती है, उसका नाम मरुत यही । इन सबकी प्रभा अपने-अपने नाम के अनुरूप है । अपने-अपने बीज के अनन्तर क्रमशः इनका नाम लेना चाहिए और नाम के अंत में स्वाहा का प्रयोग करना चाहिए । इस तरह जो जिह्वामन्त्र बनते हैं, उनके द्वारा क्रमशः प्रत्येक जिह्वा के लिए एक एक घी की आहुति दे, परन्तु मध्यमा की तीन जिह्वाओं के लिए तीन आहुतियां दे ।

 

 

 

जिह्वामन्त्र -

 

ओं भ्रुं त्रिशिखायै बहुरूपायै स्वाहा(दक्षिण मध्ये उत्तर च) ३ ।

 

ओं स्तुं हिरण्यायै स्वाहा(ऐशान्यै) १ ।

 

ओं ब्रुं कनकायै स्वाहा(पूर्वस्याम्) १ ।

 

ओं श्रुं रक्तायै स्वाहा(आग्नेय्याम्) १ ।

 

ओं पुं कृष्णायै स्वाहा(नैऋत्याम्) १ ।

 

ओं ड्रुं सुप्रभायै स्वाहा(पश्चिमायाम्) १ ।

 

ओं द्रुं मरुज्जिह्वायै स्वाहा(वायव्ये) १ ।

 

(शिव पुराण, वायव्य संहिता, उत्तर खण्ड, अध्याय २३)

 अध्याय ५९ - अग्निपुराण

 

बीजमन्त्र

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    आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी - ये पांच भूत हैं । इनके द्वारा ही सबका आधारभूत स्थूल शरीर उत्पन्न होता है । इन तत्वों के वाचक जो उत्तम बीज-मन्त्र हैं उनका न्यास के लिए यहाँ वर्णन किया जाता है ।

 

'मं' - यह बीज जीवस्वरूप (अथवा जीवतत्व का वाचक) है । वह सम्पूर्ण शरीर में व्यापक है - इस भावना के साथ उक्त बीज का सम्पूर्ण देह में व्यापक-न्यास करना चाहिए ।

 

 

 

'भं' - यह प्राणतत्व का प्रतीक है । यह जीव की उपाधि में स्थित है, अतः इसका वहीँ न्यास करना चाहिए ।

 

 

 

'बं' - विद्वान पुरुष बुद्धितत्व के बोधक बकार का ह्रदय में न्यास करे ।

 

 

 

'फं' - यह अहङ्कार का स्वरुप है अतः इसका भी ह्रदय में न्यास करें ।

 

 

 

'पं' - संकल्प के कारणभूत मनस्तत्त्वरूप पकार का भी वहीँ न्यास करें ।

 'नं' - शब्दतन्मात्रतत्त्व के बोधक नकार का मस्तक में न्यास करें

 धं' - स्पर्शरूप धकार का मुखप्रदेश में न्यास करें ।

 

 

 

'दं' - रुपतत्व के वाचक का न्यास नेत्रप्रान्त में ।

 

 

 

'थं' - रसतन्मात्रा के बोधक का वस्तिदेश(मूत्राशय) में न्यास करें ।

 

 

 

'तं' - गन्धतन्मात्रास्वरुप, पिण्डलियों में न्यास।

 

 

 

'णं' - दोनों कानों में न्यास ।

 

 

 

'ढं' - त्वचा में न्यास

 

 

 

'डं' - दोनों नेत्रों में न्यास

 

 

 

'ठं' - रसना में न्यास

 

 

 

'टं' - नासिका में न्यास

 

 

 

'ञं' - वागिन्द्रिय में न्यास

 

 

 

'झं' - पाणितत्वरूप का दोनों हाथों में न्यास

 

 

 

'जं' - दोनों पैरों में न्यास

 

 

 

'छं' - पायु में न्यास

 

 

 

'चं' - उपस्थ में न्यास

 

 

 

'ङं' - पृथ्वी तत्त्व का प्रतीक, युगल चरणों में न्यास

 

 

 

'घं' - वस्ति में न्यास

 

 

 

'गं' - तेजस्तत्वस्वरूप, ह्रदय में न्यास

 

 

 

'खं' - वायुतत्व का प्रतीक, नासिका में न्यास

 

 

 

'कं' - आकाशतत्त्वस्वरूप, मस्तक में न्यास ।

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