अग्नि
भगवान् शङ्कर के भजन-पूजन के लिए अग्निकार्य के वर्णन
से अग्नि की व्याख्या
------------------------------------------------------------
अग्निकुण्ड तैयार करके ब्रह्मवृक्ष(पलास या गूलर) आदि के छिद्ररहित बिछले दो पत्ते लेकर उन्हें कुश से पोंछे और अग्नि में तपकर उनका प्रोक्षण करें । उन्हीं पत्तों को स्रुक और स्त्रुवा का रूप दे उनमें घी उठाये और अपने गृह्यसूत्र में बताये हुए क्रम से शिवबीज (ॐ) सहित आठ बीजाक्षरों द्वारा अग्नि में आहुति दे । इससे अग्नि का संसार संपन्न होता है । वे बीज इस प्रकार हैं - भ्रुं, स्तुं, ब्रुं, श्रुं, पुं, ड्रुं, द्रुं । ये साथ हैं, इनमें शिवबीज (ॐ) को सम्मिलित कर लेनेपर आठ बीजाक्षर होते हैं । उपर्युक्त साथ बीज क्रमशः अग्नि की साथ जिह्वाओं के हैं । उनकी मध्यमा जिह्वा का नाम बहुरूपा है । उसकी तीन शिखाएं हैं । उनमें से एक शिखा दक्षिण में और दूसरी वाम दिशा (उत्तर) में प्रज्वलित होती है और बीचवाली शिखा बीच में ही प्रकाशित होती है । ईशानकोण में जो जिह्वा है, उसका नाम हिरण्या है । पुर्वदिशा में विद्यमान जिह्वा कनका नाम से प्रसिद्ध है । अग्निकोण में रक्ता, नैऋत्यकोण में कृष्णा और वायव्यकोण में सुप्रभा नाम की जिह्वा प्रकाशित होती है । इनके अतिरिक्त पश्चिम में जो जिह्वा प्रज्वलित होती है, उसका नाम मरुत यही । इन सबकी प्रभा अपने-अपने नाम के अनुरूप है । अपने-अपने बीज के अनन्तर क्रमशः इनका नाम लेना चाहिए और नाम के अंत में स्वाहा का प्रयोग करना चाहिए । इस तरह जो जिह्वामन्त्र बनते हैं, उनके द्वारा क्रमशः प्रत्येक जिह्वा के लिए एक एक घी की आहुति दे, परन्तु मध्यमा की तीन जिह्वाओं के लिए तीन आहुतियां दे ।
जिह्वामन्त्र -
ओं भ्रुं त्रिशिखायै बहुरूपायै स्वाहा(दक्षिण मध्ये
उत्तर च) ३ ।
ओं स्तुं हिरण्यायै स्वाहा(ऐशान्यै) १ ।
ओं ब्रुं कनकायै स्वाहा(पूर्वस्याम्) १ ।
ओं श्रुं रक्तायै स्वाहा(आग्नेय्याम्) १ ।
ओं पुं कृष्णायै स्वाहा(नैऋत्याम्) १ ।
ओं ड्रुं सुप्रभायै स्वाहा(पश्चिमायाम्) १ ।
ओं द्रुं मरुज्जिह्वायै स्वाहा(वायव्ये) १ ।
(शिव पुराण, वायव्य
संहिता, उत्तर खण्ड, अध्याय २३)
बीजमन्त्र
'मं' - यह बीज जीवस्वरूप (अथवा जीवतत्व का वाचक) है । वह सम्पूर्ण शरीर में व्यापक है - इस भावना के साथ उक्त बीज का सम्पूर्ण देह में व्यापक-न्यास करना चाहिए ।
'भं' - यह प्राणतत्व का
प्रतीक है । यह जीव की उपाधि में स्थित है, अतः इसका वहीँ
न्यास करना चाहिए ।
'बं' - विद्वान पुरुष
बुद्धितत्व के बोधक बकार का ह्रदय में न्यास करे ।
'फं' - यह अहङ्कार का
स्वरुप है अतः इसका भी ह्रदय में न्यास करें ।
'पं' - संकल्प के
कारणभूत मनस्तत्त्वरूप पकार का भी वहीँ न्यास करें ।
'दं' - रुपतत्व के वाचक
का न्यास नेत्रप्रान्त में ।
'थं' - रसतन्मात्रा के
बोधक का वस्तिदेश(मूत्राशय) में न्यास करें ।
'तं' - गन्धतन्मात्रास्वरुप,
पिण्डलियों में न्यास।
'णं' - दोनों कानों में
न्यास ।
'ढं' - त्वचा में न्यास
'डं' - दोनों नेत्रों में
न्यास
'ठं' - रसना में न्यास
'टं' - नासिका में न्यास
'ञं' - वागिन्द्रिय में
न्यास
'झं' - पाणितत्वरूप का
दोनों हाथों में न्यास
'जं' - दोनों पैरों में
न्यास
'छं' - पायु में न्यास
'चं' - उपस्थ में न्यास
'ङं' - पृथ्वी तत्त्व का
प्रतीक, युगल चरणों में न्यास
'घं' - वस्ति में न्यास
'गं' - तेजस्तत्वस्वरूप,
ह्रदय में न्यास
'खं' - वायुतत्व का
प्रतीक, नासिका में न्यास
'कं' - आकाशतत्त्वस्वरूप,
मस्तक में न्यास ।
0 Comments
If you have any Misunderstanding Please let me know