योगसूत्र व्याख्या - समाधिपाद
व्याख्याता: स्वामी निर्दोष
योगसूत्र व्याख्या सूत्र संख्या १ से ४ तक { समाधि पाद }
"अथ योगानुशासनम्"
जैसे एक कुशल किसान अपने खेत को तैयार करता है वैसे
ही हम अपने चित्त की भूमि को कैसे तैयार करें इसके लिए महर्षि पतञ्जलि ने उत्तम
अधिकारियों के लिए सर्वप्रथम समाधिपाद की रचना की। अर्थात मन को समाहित करने की
शिक्षा का आरम्भ जिसके द्वारा लक्षण, भेद, उपाय और फलों के
सहित शिक्षा दी जाए अर्थात व्याख्या की जाय उसको अनुशासन कहते हैं इसीलिए 'अथ योगानुशासनम्'।
इसके अर्थ हुए कि अब लक्षण, भेद, उपाय और फलों सहित योग की शिक्षा देनेवाले शास्त्र को आरम्भ करते हैं।
योग को समाधि कहते हैं यद्यपि समाधि योग का अङ्ग है
योग का फल नहीं। योग का अन्तिम तात्पर्य, परिणाम उसका फल तो
सत्वान्यताख्याति अथवा पुरुषाख्याति, प्रकृति-पुरुष का विवेक
होकर के पुरुष में ???(1 -19) में आपत्ति योग का फल है। लेकिन जब तक चित्त समाहित नहीं होता, समाधिष्ठ नहीं होता तब तक इस भूमिका को प्राप्त नहीं किया जा सकता। 'युज् संयोजने' और 'युज् समाधौ' - इन दो
धातुओं से योग शब्द की निष्पत्ति होती है।
"संयोगोयोग इत्युक्तो जीवात्मपरमात्मनो:" - जीवात्मा का परमात्मा
से संयोग, यही योग है। "समाधिसमतावस्था जीवात्मपरमात्मनो:
ब्रह्मण्येवस्थितरियासासमाधि: प्रत्यकात्मानः" - जब जीवात्मा और परमात्मा एक
सम अवस्था में अवस्थित हो जाएँ अर्थात
प्रत्यकात्मा की ब्रह्म में सम्यक स्थिति हो जाए उसी का नाम समाधि है। इस प्रकार
सभी व्याख्याकारों ने मुख्यतः व्यास जी ने यहाँ पर योग का अर्थ समाधि में ही लिया
है और समाधि सारी भूमियों में सारी अवस्थाओं में चित्त का धर्म है। वह तीन भूमियों
में, तीन अवस्थाओं में दबा रहता है और केवल दो भूमियों में
प्रकट होता है। चित्त की पांच भूमियां है,
पांच अवस्थाएं हैं - क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध - इनका विस्तारपूर्वक
वर्णन आगे किया जाएगा। इनमें से अत्यन्त
चञ्चल चित्त को क्षिप्त, जैसे किसी शान्त सरोवर में किसी ने
ढेला डाल दिया अथवा चित्त की जो stressed अवस्था है अनेक
इच्छाओं को एक साथ पूरा करना चाहता है, उसको क्षिप्त अवस्था
कहते हैं। दूसरी है मूढ़ अवस्था, इसमें निद्रा, तन्द्रा और आलस्य आदि से युक्त जो
चित्त है इसको मूढ़ कहते हैं। क्षिप्त से
जो श्रेष्ठ चित्त है अर्थात जिसमें कभी कभी स्थिरता होती है ऐसे चित्त को
विक्षिप्त चित्त कहा जाता है - विशेष रूप से क्षिप्त। वि - उपसर्ग है, इसका
अर्थ विगत, विरुद्ध, विपरीत और विशेष,
इस प्रकार से इस उपसर्ग के अर्थ होते हैं - "विगतः क्षिप्तत्वं
तस्मात्" अथवा "क्षिप्तत्वेन: विपरीतम्" । ऐसा जो चित्त है, उसको
विक्षिप्त चित्त कहेंगे। इस अवस्था में
कुछ कुछ स्थिरता रहती है। क्षिप्त और मूढ़
चित्त में तो योग की गन्ध भी नहीं होती और विक्षिप्त चित्त में जो कभी कभी क्षणिक
स्थिरता होती है उसकी भी योगपक्ष में गिनती नहीं है क्योंकि यह स्थिरता दीर्घकाल
तक स्थिर नहीं रहने पाती, शीघ्र ही प्रबल चञ्चलता से नष्ट हो
जाती है इसलिए विक्षिप्त भूमि भी योगरूप नहीं है।
जिसका एक ही अग्र्विषय हो अर्थात एक ही विषय में विलक्षण वृत्ति के व्यवधान
से रहित, बीच बीच में कोई दूसरी बात न आ जाये, ऐसे जो वृत्तियों का जो प्रवाह होता है उसको एकाग्रचित्त कहते हैं। ऐसी एकाग्रता नृत्य में भी हो जाती है, गायन, वादन में भी हो जाती है इष्टपदार्थ के भोजन
में भी हो जाती है, इष्टमित्र के संयोग में भी ऐसी एकाग्रता
हो जाती है। यह 'एकाग्र'
नाम वाली जो चित्त की वृत्ति है अथवा अवस्था है, ये अपने आत्मा के सत्स्वरूप को प्रकाशित करने में और क्लेशों का नाश करने
में, बन्धन को ढीला करने में और निरोधवृत्ति के प्रति अभिमुख
करने में ये सहायक होती है। इसी
एकाग्रवृत्ति में सम्प्रज्ञात समाधि अथवा सम्प्रज्ञानात योग प्राप्त होता है। इसके चार भेद हैं - वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनन्दानुगत और अस्मितानुगत। ये सब विषय आगे आएंगे। इसके बाद जब सारी वृत्तियों का निरोध हो जाता
है उस - सर्ववृत्ति निरोधस्वरुप - जो चित्त की वृत्ति है उस निरुद्ध चित्त में
असम्प्रज्ञात समाधि घटित होती है, उसी को असम्प्रज्ञात योग
कहते हैं। इस समाधि अवस्था को प्राप्त
करने के लिए महर्षि पतञ्जलि ने आठ साधन बताये हैं , वो योग
के आठ अंग कहे जाते हैं - यम, नियम, आसन,
प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा,
ध्यान और समाधि - ये आठ अंग हैं।
योग के आदिवक्ता हिरण्यगर्भ हैं - हिरण्यगर्भोयोगस्यवक्तानान्यः
पुरातनः। सांख्यस्य वक्ता कपिलः परमऋषि: स
उच्यते। हिरण्यगर्भोयोगस्यवक्तानान्यः
पुरातनः इदं हि योगेश्वर योगनेपुणं, हिरण्यगर्भो भगवाञजगाद्
यत्। यह वचन, याज्ञवल्क्य
स्मृति, महाभारत और श्रीमद्भागवत से लिए हैं।
ऋग्वेद में भी कहा है -
हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा
विधेम।।
और यहाँ पर 'कस्मै' शब्द का अर्थ 'एकस्मै' ले लेना चाहिए, ये
वहां पर ??अध्यार्थ??(7.13) कर लेना
चाहिए। वह एक ही देव है जिसने 'द्यौ' व 'पृथ्वी' को धारण किया हुआ है।
अथ य एषोऽन्तरादित्ये हिरण्मयः पुरुषो दृश्यते
हिरण्यश्मश्रुर्हिरण्यकेश आप्रणखात्सर्व एव सुवर्णः। - छान्दोग्य उपनिषद्
हिरण्यगर्भो द्युतिमान य एषच्छन्दशि स्तुतः।
योगै: सम्पुज्यते नित्यं स च लोके विभु: स्मृतः।।
- महाभारत
हिरण्यगर्भो भगवान् एष बुद्धिरिति स्मृत:।
महानिति च योगेषु विरंचिरित्ति चाप्यजः।।
हिरण्यगर्भो जगदन्तरात्मा - अद्भुत रामायण
इस प्रकार ये हिरण्यगर्भ भगवान् ही योग के और वेदों
के आदि-प्रवक्ता हैं, इन्होने कहा है -
तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम्।
अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ।।
अर्थात जब पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ जब मन के साथ स्थिर
हो जाती हैं प्रत्याहार के द्वारा अन्तर्मुख हो जाती हैं और बुद्धि भी चेष्टा रहित
हो जाती है, चित्त की सब वृत्तियों का निरोध हो जाता है, तब उसको
परम गति - सबसे ऊंची अवस्था कहते हैं, उसी को योग मानते
हैं। जो इन्द्रियों की निश्चल धारणा है,
शरीर स्थिर, प्राण स्थिर, मन स्थिर, इन्द्रियां स्थिर उस समय वह योगी प्रमाद
से अपने स्वरुप को भूला हुआ जो वृत्ति-सारूप्य प्रतीत हो रहा था, उससे रहित हो जाता है अर्थात शुद्ध परमतम भाव में अवस्थित हो जाता है
क्योंकि योग, प्रभाव और अप्यय निरोध के संस्कारों के
प्रादुर्भाव अर्थात प्रकट होने और व्युत्थान के संस्कारों के अभिभव अर्थात दबने का
जो स्थान है, जहाँ व्युत्थान नहीं होता और निरोध की अवस्था
स्थिर रहती है, उसी को योग कहते हैं। गीता में भी भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है -
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थित।
एकाकी यत चित्तात्मा निराशीरपरिग्रह।।
योगी अकेला एकान्त स्थान में बैठकर, एकाग्रचित्त होकर,
आशा और सङ्ग्रह को त्यागकर निरन्तर आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़े
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मन।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम।।
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धय।।
वह योगी पवित्र स्थान में जो अति ऊंचा भी न हो, अति नीचे भी न हो,
कुश का आसन और वस्त्र को बिछाकर, कुशासन पर
एकाग्र मन से बैठकर इन्द्रियों और चित्त को वश करके आत्मशुद्धि के लिए योगाभ्यास
कर।
समं काय शिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिर।
संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन।।
सर गर्दन और धड़ एक सीध में, अचल और स्थिर करके,
स्थिर रहे हुए, इधर उधर न देखता हुआ, नासिका के अग्रभाग में दृष्टी रख।
नासिका का अग्रभाग माने, नासिका का मूल जहाँ पर है
अर्थात आज्ञाचक्र में, वृत्ति को स्थिर करे। थोड़ा सा अधखुली आँखों से, थोड़ा ऊपर देखते हुए शाम्भवी मुद्रा में जल्दी एकाग्रता आ जाती है।
प्रशान्तात्मा विगतभीः ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्पर:।।
और शान्तचित्त होकर निर्भय होकर, ब्रह्मचर्य व्रत
में स्थित होकर, मन का संयम करके मुझ परमात्मा में परायण हुआ,
योगयुक्त हो गए।
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानस।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छत।।
इस प्रकार निरन्तर अपने आप को योग में लगाए हुए तथा
मन को निग्रह किये हुए योगी, मुझ परमात्मा में स्थित रहने वाली तथा परम निर्वाण को
देनेवाली शान्ति को प्राप्त होता है।
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिक।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जु।।
योगी तपस्वियों में श्रेष्ठ है, शास्त्रों को जानने
वाले ज्ञानियों में भी श्रेष्ठ माना गया है तथा कर्मकाण्डियों में भी श्रेष्ठ है
इसलिए हे अर्जुन ! तू योगी बन।
प्रयाणकाले मनसाचले न भक्त्यायुक्तो योगबलेनचै।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं
पुरुषमुपैितिदव्यम्।।
वह भक्तियुक्त चित्त वाला पुरुष अंतकाल में भी योगबल
से भृकुटि के मध्य में प्राण को अच्छी तरह से स्थापन करके फिर निश्चल मन से स्मरण
करता हुआ उस दिव्य स्वरुप,
परम पुरुष, परमात्मा को ही प्राप्त होता है।
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम।।
हे अर्जुन ! सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर
अर्थात इन्द्रियों को विषयों से हटाकर तथा मन को हृद्देश में स्थित करके और प्राण
को अपने ब्रह्मरन्ध्र में स्थापन करके योगधारणा में स्थिर होकर -
ॐ इत्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम।।
जो पुरुष (ॐ) ऐसे, इस एक अक्षर रूप ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ
और उसके अर्थस्वरूप मेरे को, परमात्मा का चिन्तन करता हुआ
शरीर का त्याग करता है, वह पुरुष परमगति को प्राप्त होता
है। इन श्लोकों का तात्पर्य है कि ह्रदय
बहुत सी नाड़ियों का केन्द्रस्थान है वहां से एक नाड़ी ब्रह्मरन्ध्र की तरफ जाती है।
जैसा कि श्रुति बतलाती है -
शतं चैका च हृदयस्य नाड्यस्तासां मूर्धानमभिनिःसृतैक।
तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति विश्वङ्ङन्या उत्क्रमणे
भवन्त।।
एक सौ एक ह्रदय की नाड़ियां हैं उनमें से एक, 'सुषुम्ना' नाम वाली नाड़ी मूर्धा की ओर निकलती है उस नाड़ी से ऊपर चढ़ता हुआ योगी
अमृतत्व, ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है। दूसरी नाड़ियां निकलने में भिन्न-भिन्न गति देने
वाली होती हैं। जो योगी प्रत्याहार द्वारा
मन को ह्रदय में स्थिर करके, पूरे मनोबल से, सारे प्राण को उस मुख्य नाड़ी से, प्राण को
ब्रह्मरन्ध्र में ले जाता है और वहां योगधारणा का आश्रय किये हुए 'ॐ' का जाप करता हुआ और उसके अर्थभूत ईश्वर का चिन्तन
करता हुआ शरीर त्यागता है वह परमगति को प्राप्त होता है, किन्तु
इस प्रक्रिया को अन्तसमय वही कर सकता है जिसने जीवनकाल में इसका अच्छी प्रकार
अभ्यास कर लिया हो। योगदर्शन का परम प्रयोजन
स्वरूप स्थिति है, इसको अत्यन्त सुगमता से, सरलता से नियम तथा ज्ञानपूर्वक इसको क्रियात्मक रूप कैसे दिया जाए इसका
सुन्दरतम वर्णन योगदर्शन में किया गया है।
साधनों के भेद से योग को राजयोग, ध्यानयोग, ज्ञानयोग, सांख्ययोग, कर्मयोग,
निष्काम कर्मयोग, अनासक्ति योग, भक्तियोग, हठयोग, लययोग
इत्यादि श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है। इस दर्शन का मुख्य विषय राजयोग
अर्थात ध्यानयोग है पर उपर्युक्त सब प्रकार के योग इसके ही अन्तर्गत हैं।
केवलं राजयोगाय हठविद्योपदिश्यते।
केवल राजयोग के लिए ही हठविद्या का उपदेश किया जाता
है।
हकारः कीर्तितः सूर्यष्ठकारश्चंद्र उच्यते
सूर्यचंद्रमसोर्योगाद्धठयोग निगद्यते।
सूर्य - पिङ्गला नाड़ी अथवा दाहिनी नासिका अथवा
प्राणवायु इसको ह-कार कहते हैं और चन्द्र - इड़ा नाड़ी अथवा अपान वायु और बायीं
नासिका, इसको ठ-कार कहते हैं। ह-कार सूर्य,
ठ-कार चन्द्रमा। इन सूर्य
और चन्द्र अर्थात पिङ्गला और इड़ा नाड़ियों से बहने वाला जो प्राण का प्रवाह है अथवा
प्राण और अपान वायु को मिलाने का नाम हठयोग है।
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे
भ्रुवोः।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ।।
अपाने जुह्वति प्राण प्राणेऽपानं तथाऽपरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः।।
इस प्रकार प्राणायाम और प्रत्याहार से मनोवृत्तियों
को एकाग्र और निरुद्ध दशा की तरफ आगे बढ़ाया जा सकता है। यम और नियम, ये न केवल व्यक्तिगत रूप से, विशेषतया योगियों के लिए बल्कि सामान्य रूप से सभी वर्णों, आश्रमों तथा मत-मतान्तरों, जातियों, देशों और समस्त मनुष्य समाज के लिए माननीय हैं, मुख्य
कर्तव्य हैं, परम धर्म हैं।
इस प्रकार इस पातञ्जलि योगदर्शन में सब प्रकार के योगों का समावेश हो गया
है।
दूसरा सूत्र है - "योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः"
चित्त की वृत्तियों को रोकना, यही योग है। निरोध अर्थात रोकना। जो बहिर्मुख वृत्तियाँ हैं जो संसार की तरफ,
जो बाह्य विषयों की तरफ जा रही हैं, वहां से
उनको लौटकर, उलटाकर, अन्तर्मुख करके
अपने चित्त में लीन कर लेना, यही योग है। ऐसा यह निरोध सब चित्त की भूमियों में, सब प्राणियों का धर्म है जो कभी किसी के चित्त में प्रकट हो जाता है
प्रायः यह चित्तों में छिपा हुआ ही रहता है अर्थात चित्त से तमरूपी मल का जो आवरण
है उसको हटाकर और राजस की जो विक्षेपरूप चञ्चलता है उससे निवृत्त होकर सत्व के प्रकाश
में जो एकाग्र वृत्ति से रहे उसको योग समझना चाहिए। सारी सृष्टि, सत्व,
रजस और तमस, इन तीन गुणों का ही परिणाम रूप
है। एक धर्म, आकार
अथवा रूप को छोड़कर, धर्मान्तर के ग्रहण अर्थात दुसरे धर्म,
आकार अथवा रूप के धारण करने को परिणाम कहते हैं। चित्त इन गुणों का सबसे प्रथम सत्व प्रधान
परिणाम है इसीलिए इसको चित्तसत्व भी कहते हैं, यह इसका अपना
व्यापक स्वरुप है। यह सारा स्थूल जगत
जिसमें हमारा व्यवहार चल रहा है। रज तथा
तम प्रधान गुणों का परिणाम है। बाह्य जगत
के रज और तम प्रधान पदार्थों और विषयों से जब इस चित्त का संपर्क होता है तो उसको
चित्तवृत्ति कहते हैं। विषय को और स्पष्ट
रूप से समझना चाहिए, मानो चित्त एक अगाध, परिपूर्ण सागर का जल है। जिस
प्रकार पृथ्वी के सम्बन्ध से खाड़ी, झील, तलाव, कुआं, सरोवर इत्यादि
अनेक प्रकार के परिणाम को जल प्राप्त हो जाता है इसी प्रकार चित्त अपने अन्तर में
राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय इत्यादि आकारों को धारण कर लेता है और जिस प्रकार वायु आदि के वेग से
जल में तरंगे उठती हैं इसी प्रकार चित्त, इन्द्रियों द्वारा
बाह्य विषयों से आकर्षित होकर उनके जैसे ही आकारों के रूप में परिणित हो जाता है -
यह सब चित्त की वृत्तियाँ कहलाती हैं जो कि अनन्त है और प्रतिक्षण उदय होती रहती
हैं जैसे जल, वायु आदि के अभाव में तरंग आदि आकारों को
परिणामों को त्याग कर अपने ही स्वभाव में, शान्त स्वभाव में
अवस्थित हो जाता है वैसे ही जब चित्त, बाह्य तथा आभ्यन्तर विषयाकार
परिणाम को त्यागकर अपने स्वरुप में अवस्थित हो जाता है तब उसको चित्तवृत्ति निरोध
कहते हैं। ये वृत्तियाँ रजोगुणी, तमोगुणी और सतोगुणी होती हैं। जब
उसमें रजोगुण और तमोगुण, इन दोनों का मेल होता है तब ऐश्वर्य
और विषय प्रिय लगते हैं। जब यह तमोगुण से
युक्त होता है तब अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य,
अनीश्वरी को प्राप्त होता है।
वही चित्त जब तमोगुण के नष्ट होने पर रजोगुण के अंश से युक्त होता है तब
धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐस्वर्य को
प्राप्त होता है। वही चित्त जब रजोगुण के
लेशमात्र मल से भी रहित होता है तब वह अपने स्वरुप में स्थिर होता है, प्रतिष्ठित कहलाता है। तब चित्त,
सत्व और पुरुष की भिन्नता का ज्ञान होता है जिसको विवेक-ख्याति अथवा
भेदज्ञान कहते हैं। विवेकख्याति के परिपक्व होने पर धर्म-मेघ समाधि की अवस्था
प्राप्त होती है अर्थात वहां धर्म बरसता है, ब्रह्मानन्द अपना
आत्मानन्द अपना स्वरुप है उसमें वो सराबोर हो जाता है। इस प्रकार चित्त से पुरुष का भिन्न देखना
विवेकख्याति कहलाती है।
तदा दृष्टस्वरूपे अवस्थानम् - क्योंकि इसमें कोई
सांसारिक, प्राकर्तिक विषय नहीं रह जाता और जब अविवेक की अवस्था होती है अर्थात जब
विवेक नहीं होता है उस समय यह चित्त अपनी स्वाभाविक पांच अवस्थाओं में रहता है
उनके नाम पहले गिनाये थे - मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध।
मूढ़ अवस्था तम-प्रधान और सत्व वहां पर गौण होते हैं
अर्थात दबे हुए होते हैं,
तमोगुण की प्रधानता होती है इसलिए निद्रा, तन्द्रा,
मोह, भय, आलस्य, दीनता, भ्रम इत्यादि इसके गुण है।
दूसरी अवस्था है क्षिप्त अवस्था - इसमें रजोगुण
प्रधान होता है तथा तम और सत्वगुण गौण होते हैं।
दुःख, चञ्चलता, चिन्ता, शोक और संसार
के कामों में प्रवृत्ति, अज्ञान, अधर्म,
राग, अनैश्वर्य, ज्ञान,
धर्म, ज्ञान, वैराग्य और
ऐश्वर्य इन सबमें मिली-जुली प्रवृत्ति इस
क्षिप्त अवस्था में होती है। कभी धर्म का
विचार करता है कभी अधर्म का विचार करता है।
तीसरी अवस्था है विक्षिप्त अवस्था - यह सत्व प्रधान
है, इसमें
रज और तमोगुण गौण हैं, दबे हुए रहते हैं। इस अवस्था में सुख, प्रसन्नता,
क्षमा, श्रद्धा, धैर्य,
चैतन्यता, उत्साह, वीर्य,
दान और दया और विशेषकर के ज्ञान, धर्म,
वैराग्य और ऐस्वर्य की वृत्तियों की प्रबलता रहती है।
चौथी अवस्था है एकाग्र अवस्था - इस अवस्था में भी
सत्व गुण ही प्रधान रहता है, रज और तम, ये नाममात्र के लिए रहते
हैं। इस अवस्था में वास्तु का यथार्थ
ज्ञान होता है। इस अवस्था में तटस्थता आती
है। यह इष्ट अवस्था है, प्राप्त करने जैसी स्थिति है।
और अगली है पांचवीं निरुद्ध अवस्था - ये तीनों गुणों
से बाहर है। यहाँ सारे चित्त के परिणाम
बन्द हो जाते हैं केवल संसार शेष रहते हैं।
इसी अवस्था में दृष्टा की स्वरुपस्थिति होती है। यह ऊंचे योगियों की स्थिति है। जब चित्त की वृत्तियों का सम्पूर्णतया निरोध हो
जाता है तो -
दृश्यस्वरूपे अवस्थानं - तदा मने तब ऐसी स्थिति में
वह अपने स्वरुप में स्थित हो जाता है और यदि नहीं होता तो -
वृत्तिसारूप्य मितरत्र - वृत्ति की ही समानरूपता को
धारण कर लेता है। अब ये वृत्तियाँ पांच प्रकार की होती है। पतञ्जलि ने वृत्तियों का विभाग किया है, पांच में उनको बाँट
दिया है। वो कौन कौन से होती हैं यह अगले प्रकरण में विचार करेंगे।
धन्यवाद!
योगसूत्र व्याख्या सूत्र संख्या ५ से ११ तक {समाधिपाद}
योग का अर्थ है, स्वयं के स्वरुप का यथार्थ ज्ञान कराना लेकिन इसका यथार्थ ज्ञान इसलिए
नहीं होता है कि प्रकृति से यह मिला हुआ है, प्रकृति में
इसका प्रतिबिम्ब पड़ता है और अन्तः करण प्रकृति का परिणाम है । मूल प्रकृति तीनों
गुणों की साम्यावस्था है, उसमें जब क्षोभ होता है तो प्रकृति
से विकृति उत्पन्न होती है। पहली विकृति
है महत्तत्व, महत्तत्व से फिर अहङ्कार का जन्म होता है और
अहङ्कार से पाञ्च तन्मात्रों का जन्म होता है और फिर उन पाञ्च तन्मात्रों से
पञ्चमहाभूत, पाञ्च ज्ञानेन्द्रिय, पाञ्च
कर्मेन्द्रिय और मन, इन सबकी उत्पत्ति होती है, तो मूल रूप से यह त्रिगुण रूप का ही चमत्कार है। इस त्रिगुण के कारण ही मन में शान्त, घोर और मूढ़ - ये तीन प्रकार की अवस्थाएं हमेशा रहती हैं। जब सत्वगुण प्रधान होता है तब शान्त अवस्था
होती है; जब रजोगुण बलवान होता है तो घोर अवस्था होती है और
जब तमोगुण प्रधान हो जाता है तो मूढ़ावस्था आ जाती है। इन्ही के अवान्तर भेद करके पाञ्च अवस्थाएं कही
गयी हैं - मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त,
एकाग्र और निरुद्ध। मूढ़, तमोगुण की और क्षिप्त
रजोगुण की और विक्षिप्त सतोगुण की प्रधानता रहती है और एकाग्र में सत्व बहुत
ज्यादा बढ़ जाता है, समाधी के बहुत ही करीब है और निरुद्ध तो
सम्पूर्ण योग ही है। जब सारी वृत्तियाँ
निरुद्ध हो जाती हैं, शान्त हो जाती हैं, तब पुरुष अपने रूप में प्रतिष्ठित, अवस्थित हो जाता
है और यदि वृत्तियाँ निरुद्ध नहीं हुईं तो यह पुरुष वृत्तियों के आकार जैसा ही
दिखता है :- जैसे लाल फूल के ऊपर आप स्फटिक रख दीजिये तो स्फटिक भी लाल लाल दिखता
है लेकिन अगर वहां से फूल को हटा दो या लाल कपडे को हटा दो तो स्फटिक अपने शुद्ध
रूप में सफ़ेद, शुभ्र, जैसा है वैसा
दिखता है। जैसे कोई लाल चश्मा लगा ले तो सारी बिल्डिंगे, पेड़-पौधे
सब लाल-लाल दिखें और पीला लगा ले तो पीले दिखें, हरा लगा ले
तो हरे हरे दिखें ऐसे ही जो जो वृत्ति होती है उसी वृत्ति की स्वरूपता को यह धारण
कर लेता है। अब यह वृत्तियाँ हज़ारों होती
हैं। मिठाई के आकार की वृत्ति, साइकिल के आकार की वृत्ति, घर के आकार की वृत्ति,
स्त्री के आकार की वृत्ति, पुरुष के आकार की
वृत्ति परन्तु इनको अच्छी तरह से समझने के लिए महर्षि पतञ्जलि ने इनको पाञ्च
विभागों में बाँट दिया -
वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टा।
वृत्तियाँ पाञ्च प्रकार की होती हैं - क्लिष्ट अर्थात
रागद्वेषादि क्लेशों की हेतु और अक्लिष्ट अर्थात रागद्वेषादि क्लेशों को नाश
करनेवाली।
बाह्य
पदार्थ असंख्य होने के कारण उनसे उत्पन्न होने वाली वृत्तियाँ भी असंख्य हैं। इन सबका सुगमता से ज्ञान हो सके इसलिए उन सब
निरुद्धव्य वृत्तियों को पाञ्च श्रेणियों में विभक्त किया गया है। इन पाञ्च प्रकार की वृत्तियों में से कोई
क्लिष्ट रूप होती हैं और कोई अक्लिष्ट रूप। सत्व प्रधान वृत्तियाँ अक्लिष्ट रूप
होती हैं और तमस प्रधान वृत्तियाँ क्लिष्ट रूप होती हैं अर्थात जिन वृत्तियों के
हेतु अविद्या आदि पाञ्च क्लेश हैं और जो कर्माशय, कर्मों के
संस्कार इकठ्ठा करती हैं, कर्मों के समूह की उत्पत्ति को
भूमियां हैं वे क्लिष्ट कहलाती हैं और जहाँ अविद्या आदि नहीं हैं वहां कर्माशय के
समूह का भी नाश हो जाता है इसलिए वे अक्लिष्ट कहलाती हैं यद्यपि क्लिष्ट वृत्तियों
के संस्कार बहुत गहरे जमे होते हैं तथापि उनके छिद्रों में सत्शास्त्र, सत्सङ्ग, गुरुजनों के उपदेश से, अभ्यास और वैराग्य से अक्लिष्ट वृत्तियाँ भी वर्तमान रहती हैं अर्थात उनके
द्वारा अक्लिष्ट वृत्तियाँ उत्पन्न हो सकती हैं।
वृत्तियों का यह स्वभाव के कि वे अपने सदृश संस्कारों को उत्पन्न करती
हैं। क्लिष्ट वृत्तियाँ क्लिष्ट संस्कारों
को उत्पन्न करती हैं और अक्लिष्ट वृत्तियाँ अक्लिष्ट संस्कारों को। इस प्रकार छिपी हुई अक्लिष्ट वृत्तियाँ उत्पन्न
होकर अक्लिष्ट संस्कारों को और अक्लिष्ट संस्कार अक्लिष्ट वृत्तियों को उतपन्न
करते रहते हैं। यह चक्र यदि निरन्तर चलता
रहे तो क्लिष्ट वृत्तियों का निरोध हो जाता है पर इनके संस्कार सूक्ष्म रूप से
वृत्तियों के छिद्रों के रूप में बने रहते हैं उनका भी जब नाश हो जाए तब निर्बीज
समाधि सम्पन्न होती है । उपर्युक्त विधि
के अनुसार जब क्लिष्ट वृत्तियाँ यहाँ-वहां सब जगह से दब जाती हैं तब अक्लिष्ट
वृत्तियों का भी निरोध परवैराग्य से हो जाता है और इन सब वृत्तियों का निरोध ही
असम्प्रज्ञात योग है।
अब इन पाञ्च वृत्तियों के नाम बतलाते हैं। ये हैं -
प्रमाण, विपर्य, विकल्प, निद्रा और
स्मृति। यह पाञ्च प्रकार की वृत्तियाँ हैं।
सबसे पहली वृत्ति है प्रमाण वृत्ति जिसमें हमारा सारा
लौकिक व्यवहार चलता है। वो प्रमाण हैं तीन
- प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम।
प्रत्यक्ष प्रमाण वो होता है, जिसका हमको
इन्द्रियों से ज्ञान होता है - रूप, रस, शब्द, स्पर्श इन सबका ज्ञान हमको आँख, कान, नाक, रसना और त्वचा से
होता है। ये प्रत्यक्ष ज्ञान के करण हैं।
ज्ञान को प्रमा कहते हैं और करण को प्रमाण कहते हैं और ज्ञाता को प्रमाता कहते
हैं। ज्ञाता, ज्ञान,
ज्ञेय, प्रमाता, प्रमाण,
प्रमेय; यह त्रिपुटी है। प्रमा माने यथार्थ ज्ञान और उस यथार्थ ज्ञान,
यथार्थ प्रमा का जो साधन है उसको प्रमाण कहते हैं जो चक्षु आदि
इन्द्रियां उस ज्ञान के साधन हैं इसलिए वो प्रमाण हैं और रूप, रस, गन्धादि प्रमेय हैं तो मैं देखता हूँ, मैं सुनता हूँ, मैं सुखी हूँ, मैं
दुखी हूँ ये सब प्रत्यक्ष प्रमाण हैं और यह बात मैं अनुमान से जानता हूँ और यह बात
मैं वेद-शास्त्र के द्वारा जानता हूँ इस प्रकार से तीन प्रमाण होते हैं -
प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम।
अनुमान प्रमाण के तीन भेद होते हैं - पूर्ववत, शेषवत और
सामान्यतोदृष्ट। पूर्ववत अनुमान वो होता
है जैसे कारण को देख के कार्य का अनुमान करना, बादलों के
देखकर के होने वाली वर्षा का अनुमान कर लेना।
दूसरा होता है शेषवत, कार्य से कारण का अनुमान जैसे
नदी के मटीले पानी के देखकर ऊपर पहाड़ में कहीं वर्षा हुई है ऐसा अनुमान कर लेना;
इसको शेषवत कहते हैं और एक होता है सामान्यतोदृष्ट - जो सामान्य रूप
से देखा गया हो परन्तु विशेष रूप से न देखा गया हो जैसे घड़ा, जैसे मिटटी के बने हुए घड़े को देखकर उसके बनाने वाले कुम्हार का अनुमान कर
लेना क्योंकि प्रत्येक बनी हुई वस्तु का कोई न कोई चेतन, निमित्त
कारण सामान्य रूप से देखा जाता है। अनुमान
का मूल प्रत्यक्ष ही है क्योंकि पूर्व प्रत्यक्ष द्वारा ही अनुमान होता है और
तीसरा है आगम प्रमाण अथवा शब्द प्रमाण क्योंकि अलौकिक विषय में वेद ही प्रमाण हो
सकते हैं।
स्वर्गकामो यजेत् - अब स्वर्ग किसने देखा है और जब
देखा ही नहीं तो अनुमान भी कैसे कर सकते हैं तो उसमें केवल वेद ही, आप्त वचन ही प्रमाण
हैं। यह प्रमाणों का विषय शास्त्रों में
बड़ी ही जटिल भाषा में और बड़े ही विस्तार से वर्णन किया गया है, यहाँ तो हम संक्षेप में केवल परिचय मात्र ही दे रहे हैं। तो पाञ्च वृत्तियों में से पहली वृत्ति है
प्रमाण और दूसरी वृत्ति है विपर्य। विपर्य
माने - मिथ्या ज्ञान, विपरीत ज्ञान, यथार्थ
ज्ञान से भिन्न।
अतद्रूपप्रतिष्ठम् - सूत्र है - विपर्ययो
मिथ्याज्ञानम् अतद्रूपप्रतिष्ठम् ।
विपर्य माने मिथ्या ज्ञान और अतद्रूपप्रतिष्ठम् - जो
उसके पदार्थ के रूप में प्रतिष्ठित नहीं है अर्थात जो उस पदार्थ के वास्तविक रूप
को प्रकाशित नहीं करता। विपर्य मिथ्या
ज्ञान है जो उस पदार्थ के रूप में प्रतिष्ठित नहीं है जैसे सीपी में चांदी देखना, एक चन्द्रमा में दो
चन्द्रमा देखना, रज्जु में सर्प देखना, स्थाणु में पुरुष देखना चोर की कल्पना करना ये सब विपर्य ज्ञान के उदहारण
हैं ।
तीसरा है विकल्प - शब्दज्ञानानुपाती
वस्तुशून्योविकल्पः ।
शब्दज्ञान से उत्पन्न जो ज्ञान, उसका अनुगामी
अर्थात उसके पीछे चलने वाला और वस्तु से शून्य, वस्तु की
सत्ता की अपेक्षा नहीं रखता उसको विकल्पवृत्ति कहते हैं। जैसे राहु का सिर, मनुष्य
ब्राह्मण है। राहु और सिर कोई अलग अलग
वस्तु नहीं है; ब्राह्मण और मनुष्य कोई अलग अलग वस्तु नहीं
है। यह शर्मा जी ब्राह्मण हैं और शर्मा तो
ब्राह्मण होता ही है। यह पुरुष चैतन्य है;
पुरुष का चैतन्य, भैय्या चैतन्य के सिवाय
पुरुष होता ही कहाँ है ? तो शब्दों में तो जिसका व्यवहार हो, लोक में,
परन्तु वस्तु से शून्य हो उसका नाम विकल्प है।
अनुत्पत्ति धर्मापुरुषः - पुरुष उत्पत्ति के धर्म
वाला नहीं है तो पुरुष तो उत्पत्ति के धर्म वाला है ही नहीं फिर भी ऐसा शब्द व्यव्हार
होता है। जैसे काठ की पुतली; पुतली तो काठ की ही
होती है। मिटटी का घड़ा; घड़ा मिटटी का ही होता है। पुरुष
का चैतन्य; पुरुष है तो चैतन्य ही होगा तो जहाँ अभेद में भेद और भेद में अभेद की
कल्पना होती है उसको विकल्प वृत्ति कहते हैं।
राहु और शिर, काठ और पुतली, यह
दो-दो वस्तु नहीं है तथापि अभेद में भेद का आरोप किया गया है। लोहा और आग अथवा पानी और आग - यह दो-दो वस्तु
हैं तथापि लोहे का गोला जलाने वाला है अथवा पानी से हाथ जल गया; इस कथन में भेद में अभेद का आरोप किया गया है तो शब्दज्ञानानुपाती - शब्द
से तो जिसका व्यवहार हो लेकिन वास्तविकता में जो न हो। जैसे कलकत्ता यहाँ से पूरब में है लेकिन जापान
में खड़े हो जाओ तो कलकत्ता पूरब में रहेगा? तो ये सब जो
सापेक्ष होता है ये सब विकल्प ज्ञान है।
अब चौथी वृत्ति है - निद्रा
अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निद्रा - अभाव प्रत्यय का
जो आलम्बन करनेवाली है;
मैंने कुछ नहीं जाना, मैंने कुछ नहीं देखा
सबका अभाव था, न पदार्थ था न मैं था, न
दृष्टा था न दृश्य था, प्रतीति मात्र का अभाव था। अभाव की प्रतीति को आश्रय करनेवाली जो वृत्ति
है वो निद्रा है। निद्रा वृत्ति ही है,
इसको सूचित करने के लिए सूत्र में वृत्ति शब्द का ग्रहण किया। कई
आचार्य निद्रा को वृत्ति नहीं मानते किन्तु योग के आचार्य आत्मस्थिति के अतिरिक्त
चित्त की प्रत्येक अवस्था को वृत्ति ही मानते हैं। अभाव शब्द से जागृत और
स्वप्नावस्था की वृत्तियों का अभाव अर्थात जागृत और स्वप्न की वृत्तियों के अभाव
का जो हेतु तमोगुण है उसको जानना चाहिए।
रजोगुण का धर्म, क्रिया और प्रवृत्ति है। जागृत अवस्था में चित्त में रजोगुण प्रधान होता
है इसलिए वह सत्वगुण को गौणरूप से अपना सहकारी बनाकर अस्थिर रूप से क्रिया में
अर्थात विषयों में प्रवृत्त करने में लगा रहता है। तमोगुण का धर्म है स्थिति दबाना, रोकना अर्थात प्रकाश को और क्रिया को रोकना। सुषुप्ति अवस्था में तमोगुण, रजस तथा सत्व को प्रधान रूप से दबा देता है इसलिए चित्त में तमोगुण का ही
परिणाम प्रधान रूप से होता रहता है। उस
समय में अभाव की ही प्रतीति होती रहती है।
जिस प्रकार एक अँधेरे कमरे में सब वस्तुएं छिप जाती हैं किन्तु सब वस्तुओं
को छिपाने वाला अन्धकार दिखलाई देता है जो वस्तुओं के अभाव की प्रतीति करता
है। प्राण चलता रहता है, रुधिरविचरण होता रहता है, करवटें बदलते रहते हैं
लेकिन कुछ पता नहीं लगता; काम तो सारे चल रहे हैं और आत्मा
तो कभी सोता ही नहीं वो तो नित्य चैतन्य है।
इस प्रकार तमोगुण सुषुप्ति अवस्था में चित्त की सब वृत्तियों को दबा कर
स्वयं स्थिर रूप से प्रधान रहता है किन्तु रजोगुण का नितान्त अभाव नहीं होता,
तनिक मात्रा में रहता हुआ वह इस अभाव की प्रतीति कराता रहता है
चित्त के ऐसे परिणाम को निद्रावृत्ति कहते हैं।
तब चित्त में तमोगुण वाली, मैं सोता हूँ, इस प्रकार की वृत्ति होती है, इस वृत्ति के संस्कार
चित्त में उत्पन्न होते हैं फिर उससे स्मृति होती है कि मैं सोया, मैंने कुछ नहीं जाना। यहाँ पर
इतना विशेष यह भी जान लेना कि जिस निद्रा में सत्वगुण के लेशसहित तमोगुण का प्रचार
होता है उस निद्रा से उठकर पुरुष को, मैं सुख से सोया मेरा
मन प्रसन्न है और मेरी प्रज्ञा स्वच्छ है इस प्रकार की स्मृति होती है और जिस
निद्रा में रजोगुण के लेशसहित तमोगुण का सञ्चार होता है उससे उठने पर इस प्रकार की
स्मृति होती है कि मैं दुःखपूर्वक सोया, मेरा मन अस्थिर और
घूमता सा है और जिस निद्रा में केवल तमोगुण का प्राबल्य होता है तो उससे उठने पर,
एकदम बेसुध सोया, मेरे शरीर के अंग भारी हो
रहे हैं, मेरा चित्त व्याकुल है इस प्रकार की स्मृति होती
है। यदि उस वृत्ति का प्रत्यक्ष न हो तो
उसके संस्कार भी न हों और संस्कार न होने से स्मृति भी नहीं हो सकती इसलिए निद्रा
एक वृत्ति है, वृत्तिमात्र का अभाव नहीं है। श्रुति और स्मृतियों ने भी निद्रा को वृत्ति ही
माना है -
जाग्रत्स्वप्नः सुषुप्तं च, गुणतो
बुद्धिवृत्तयः
जागृत, स्वप्न और निद्रा - ये गुणों से बुद्धि की
वृत्तियाँ हैं। एकाग्रता के तुल्य होते
हुए भी निद्रा तमोमयी होने से सबीज तथा निर्बीज समाधि की विरोधिनी है इसलिए रोकने
योग्य है। नशा तथा क्लोरोफार्म आदि से
उत्पन्न हुई मूर्छित अवस्था भी निद्रावृत्ति के अन्तर्गत ही है।
अब अगली पांचवीं वृत्ति है स्मृति
अनुभूत विषया सम्प्रमोषः स्मृतिः - अनुभव किया हुआ जो
विषय है और उसमें असम्प्रवोश, घटाया बढ़ाया नहीं, चुराया नहीं,
इधर उधर से नहीं, तन्मात्र ही, उतना ही ज्ञान होना, इसको स्मृति कहते हैं। स्मृति से भिन्न ज्ञान का नाम अनुभव है। अनुभव से ज्ञात, जानी हुई
जो वस्तु है उसको अनुभूत कहते हैं। जब
किसी दृष्ट या श्रुत, देखी या सुनी हुई वस्तु का ज्ञान होता
है तब एक प्रकार का उस अनुभूत वस्तु का तदाकार संस्कार चित्त में पड़ जाता है फिर
जब किसी समय जब कोई उद्बोधक सामग्री उपस्थित होती है तो वो संस्कार प्रफुल्लित हो
उठता है और तब चित्त इस संस्कार विषयक परिणाम को प्राप्त हो जाता है। यह अनुभूत पदार्थ विषयक चित्त का तदाकार परिणाम
स्मृति नाम की वृत्ति कहलाता है। इस
प्रकार से संक्षेप में पाञ्च वृत्तियाँ बतायीं और इनका निरोध कैसे करना, अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इनका निरोध होता है ये बात अगले प्रकरण में
करेंगे।
धन्यवाद!
योगसूत्र व्याख्या सूत्र संख्या 12 से 15 तक { समाधि पाद }
अब तक जो पाञ्च वृत्तियाँ बतायीं - प्रमाण, विपर्य, विकल्प, निद्रा और स्मृति; ये
वृत्तियाँ सात्विक, राजस और तामस होने से सुख, दुःख और मोहस्वरूप हैं। सात्विक
वृत्तियाँ सुख देती हैं, राजस दुःख देती हैं और तामस मोह की
कारण हैं और सुख-दुःख-मोह ये क्लेशरूप हैं।
ये सब वृत्तियाँ ही निरोध करने योग्य हैं।
मोह तो स्वयं ही अविद्यारूप होने से सब दुखों का मूल है। दुःख की वृत्तियाँ स्वयं ही दुःखरूप हैं। सुख की वृत्तियाँ सुख के विषयों और उनके साधनों
में राग उत्पन्न करती हैं -
सुखानुशयी रागः - सुखभोग के पश्चात् जो उसकी वासना
रहती है वह राग है। उन सुख के विषयों, उन साधनों में
विघ्न होने पर द्वेष उत्पन्न होता है।
दुःखानुशयी द्वेषः - इसलिए क्लेशजनक सुख, दुःख और मोहस्वरुप
होने से ये सभी प्रकार की वृत्तियाँ त्याज्य हैं।
इनका निरोध होनेपर एकाग्रतारूप सम्प्रज्ञात योग और उसके बाद परवैराग्य के
उदय होनेपर असम्प्रज्ञात योग, स्वस्वरूपावस्थान अथवा
सत्वन्यथाख्याति, सत्व से मैं अलग हूँ, सत्व माने अन्तः करण, सत्व माने चित्त, चित्त से पुरुष, जीवात्मा, शुद्ध
चैतन्य अलग है; वो सबका साक्षी है, सबका
दृष्टा है - साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च - ये स्वरुप है, इसको
ही पुरुषान्यथाख्याति, सत्वन्यथाख्याति जिसको कि योग का फल
बताया है।
अब अगला बारहवां सूत्र है - अभ्यासवैराग्याभ्यां
तन्निरोधः।
इन सारी वृत्तियों का निरोध अभ्यास और वैराग्य से
होता है। चित्त की वृत्तियों का निरोध
करने के लिए दो उपाय हैं;
अभ्यास और वैराग्य। चित्त
का स्वाभाविक वैरमुख प्रवाह वैराग्य द्वारा निवृत्त होता है और अभ्यास द्वारा
आत्मोन्मुख, आन्तरिक प्रवाह स्थिर हो जाता है। भगवान् वेद व्यास जी ने अभ्यास और वैराग्य को
बड़े सुन्दर रूपक से वर्णन किया है जो इस प्रकार है - चित्त एक नदी है जिसमें
वृत्तियों का प्रवाह बहता रहता है, इसकी दो धाराएं हैं;
एक संसार-सागर की ओर, दूसरी कल्याण-सागर की ओर
बहती रहती है। जिसने पूर्व-जन्म में
सांसारिक विषयों के भोगार्थ कार्य किये हैं उसकी वृत्तियों की धारा उन संस्कारों
के कारण विषय मार्ग से बहती हुई संसार-सागर में जा मिलती है और जिसने पूर्व-जन्म में
कैवल्यार्थ प्रयास किया है, काम किये हैं उसकी वृत्तियों की
धारा उन संस्कारों के कारण विवेक मार्ग में बहती हुई कल्याण-सागर में जा मिलती
है। संसारी लोगों की प्रायः पहली धारा तो
जन्म से ही खुली होती है किन्तु दूसरी धारा को शास्त्र, गुरु,
आचार्य तथा ईश्वर चिन्तन से खोलते हैं। पहली धारा को बन्द करने के लिए विषयों के
स्त्रोत पर वैराग्य का बन्ध लगाया जाता है और अभ्यास के बेलचे से दूसरी धारा का
मार्ग गहरा खोद कर वृत्तियों के समस्त प्रवाह को विवेक के स्त्रोत में डाल दिया
जाता है तब प्रबल वेग से वह सारा प्रवाह कल्याण रुपी सागर में जा कर लीन हो जाता
है। इस कारण अभ्यास तथा वैराग्य दोनों ही
इकट्ठे मिलकर चित्त की वृत्तियों के निरोध के साधन हैं।
आत्मा नदी संयमतोय पूर्णा आत्मा नदी संयम पुण्यतीर्था, सत्योदका शील
शमादियुक्ता ।
तस्यां स्नातः पुण्यकर्मा पुनाति न वारिणा शुद्धयति
चान्तरात्मा ।
आत्मा नदीरूप है, संयम और पुण्य इसके तीर्थ हैं। इसमें सत्य का जल बह रहा है और सदाचार और
शान्ति आदि से युक्त है। इस आत्मा रुपी
नदी में जो स्नान करता है वह पवित्र हो जाता है।
जल से अन्तरात्मा शुद्ध नहीं होती और आत्मा शब्द, चित्त
और मन का ही पर्यायवाची है।
आत्माचित्ते धृतौ यत्ने धिष्ण्याम कलेवरे
परमात्मनजीवेर्के हुताशन समीरयोः।
आत्मा कलेवरे यत्ने स्वभावे परमात्मने चित्ते धृतौ च
बुद्धौ च परव्यावर्तकेविच।।
ये धरणी कोश से लिया है। जिस प्रकार पक्षी का आकाश में उड़ना दोनों ही
पंखों के अधीन होता है न केवल एक पंख के ऊपर; इसी प्रकार समस्त वृत्तियों का निरोध न केवल
अभ्यास से ही और न केवल वैराग्य से ही हो सकता है किन्तु उसके लिए अभ्यास और
वैराग्य, दोनों का ही समुच्चय होना आवश्यक है। तमोगुण की अधिकता से चित्त में लय, रूप, निद्रा, आलस्य, निरुत्साह आदि मूढ़ावस्था का दोष उत्पन्न होता है और रजोगुण की अधिकता से
चित्त में चञ्चलता रूप विक्षेप दोष उत्पन्न होता है। अभ्यास से तमोगुण की निवृत्ति होती है और
वैराग्य से रजोगुण की। योग के जो आठ
प्रधान अंग बताये जाते हैं - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार ये
पांच बहिरंग हैं, उनकी सिद्धि में अभ्यास अधिक सहायक होता है
और तीन अंतरंग हैं - धारणा, ध्यान और समाधि यहाँ वैराग्य
सहायता करता है। गीता में भगवान्
श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन को मन को रोकने के उपाय बताते समय अभ्यास और वैराग्य दोनों
को ही समुच्चय रूप से साधन बतलाया है।
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः।।
यहाँ भगवान् ने अर्जुन को सम्बोधित करते हुए महाबाहो, ऐसा कह के सम्बोधन
किया है, यानि के आप यह कर सकते हो। पहले भी दुसरे अध्याय
में भी कहा था
क्लैव्यं मा स्म गम: पार्थ - हे अर्जुन ! तु नपुंसकता
को ग्रहण न कर। तु कर सकता है। हे महाबाहो ! निस्संदेह मन चञ्चल है और कठिनता
से वश में होने वाला है परन्तु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! अभ्यास और वैराग्य के
द्वारा ये वश में हो जाता है। दूसरा
सम्बोधन है कौन्तेय। अर्थात कुन्ती का
पुत्र। कुन्त, भाला की नोक को
कहते हैं अर्थात कुशाग्र बुद्धि वाला, शब्दों के यथार्थ
तात्पर्य को समझ के उनको प्रयोग में लाने वाला। जिसने मन को वश में नहीं किया है
उसको योग की प्राप्ति कठिन है; ऐसा भगवान् श्रीकृष्ण कहते
हैं किन्तु स्वाधीन मन वाला प्रयत्नशील, अभ्यास करनेवाला
पुरुष इस सिद्धि को प्राप्त कर सकता है।
वृत्तियों को रोकने के उपाय, अभ्यास और वैराग्य में
से प्रथम अभ्यास का स्वरुप और प्रयोजन अगले सूत्र में बतलाते हैं।
तत्रस्थितौ यत्नोभ्यासः - तत्र, उन दोनों, अभ्यास और वैराग्य में से; स्थितौ, चित्त की स्थिति में; यत्नः, यत्न
करना अभ्यास है क्योंकि दृष्टा के स्वरुप में स्थित होना है तो उस स्थिति में
चित्त को स्थिर करने का नाम, बारम्बार उसको touch करने का नाम अभ्यास है। चित्त के वृत्ति रहित होकर शांत प्रवाह में बहाने
की स्थिति को स्थिति कहते हैं। उस स्थिति
को प्राप्त करने के लिए वीर्य, पूर्ण सामर्थ्य और उत्साह
पूर्वक यत्न करना अभ्यास कहलाता है।
यम-नियम आदि योग के आठ अंगों का बार बार अनुष्ठान रूप प्रयत्न अभ्यास का
स्वरुप है और चित्त वृत्तियों का निरोध होना अभ्यास का प्रयोजन है। संसार व्यवहार में भी पठन-पाठन, लेखन, पाक, क्रय-विक्रय,
नृत्य-गायन आदि सर्वकार्य अभ्यास से ही सिद्ध होते हैं। अभ्यास के बल से रस्सी पे चढ़े हुए नट तथा सर्कस
आदि में न केवल मनुष्य किन्तु सिंह, अश्व आदि पशु भी अपनी
प्रकृति के विरुद्ध आश्चर्यजनक कार्य करते हुए देखे जाते हैं। अभ्यास के प्रभाव से
अतिदुस्साध्यकारी भी सिद्ध हो सकते हैं इसलिए जब मुमुक्षु चित्त की स्थिरता के लिए
अभ्यासनिष्ठ होगा तो वह स्थिरता भी उसको अवश्य प्राप्त होकर चित्त वशीभूत हो जाएगा
क्योंकि अभ्यास के आगे कोई भी कार्य दुष्कर नहीं है
आत्मा नदी संयमतोय पूर्णा आत्मा नदी संयम पुण्यतीर्था, सत्योदका शील
शमादियुक्ता ।
तस्यां स्नातः पुण्यकर्मा पुनाति न वारिणा शुद्धयति
चान्तरात्मा ।
आत्मा नदीरूप है, संयम और पुण्य इसके तीर्थ हैं। इसमें सत्य का जल बह रहा है और सदाचार और
शान्ति आदि से युक्त है। इस आत्मा रुपी
नदी में जो स्नान करता है वह पवित्र हो जाता है।
जल से अन्तरात्मा शुद्ध नहीं होती और आत्मा शब्द, चित्त
और मन का ही पर्यायवाची है।
आत्माचित्ते धृतौ यत्ने धिष्ण्याम कलेवरे
परमात्मनजीवेर्के हुताशन समीरयोः।
आत्मा कलेवरे यत्ने स्वभावे परमात्मने चित्ते धृतौ च
बुद्धौ च परव्यावर्तकेविच।।
ये धरणी कोश से लिया है। जिस प्रकार पक्षी का आकाश में उड़ना दोनों ही
पंखों के अधीन होता है न केवल एक पंख के ऊपर; इसी प्रकार समस्त वृत्तियों का निरोध न केवल
अभ्यास से ही और न केवल वैराग्य से ही हो सकता है किन्तु उसके लिए अभ्यास और
वैराग्य, दोनों का ही समुच्चय होना आवश्यक है। तमोगुण की अधिकता से चित्त में लय, रूप, निद्रा, आलस्य, निरुत्साह आदि मूढ़ावस्था का दोष उत्पन्न होता है और रजोगुण की अधिकता से
चित्त में चञ्चलता रूप विक्षेप दोष उत्पन्न होता है। अभ्यास से तमोगुण की निवृत्ति होती है और
वैराग्य से रजोगुण की। योग के जो आठ
प्रधान अंग बताये जाते हैं - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार ये
पांच बहिरंग हैं, उनकी सिद्धि में अभ्यास अधिक सहायक होता है
और तीन अंतरंग हैं - धारणा, ध्यान और समाधि यहाँ वैराग्य
सहायता करता है। गीता में भगवान्
श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन को मन को रोकने के उपाय बताते समय अभ्यास और वैराग्य दोनों
को ही समुच्चय रूप से साधन बतलाया है।
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः।।
यहाँ भगवान् ने अर्जुन को सम्बोधित करते हुए महाबाहो, ऐसा कह के सम्बोधन
किया है, यानि के आप यह कर सकते हो। पहले भी दुसरे अध्याय
में भी कहा था
क्लैव्यं मा स्म गम: पार्थ - हे अर्जुन ! तु नपुंसकता
को ग्रहण न कर। तु कर सकता है। हे महाबाहो ! निस्संदेह मन चञ्चल है और कठिनता
से वश में होने वाला है परन्तु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! अभ्यास और वैराग्य के
द्वारा ये वश में हो जाता है। दूसरा
सम्बोधन है कौन्तेय। अर्थात कुन्ती का
पुत्र। कुन्त, भाला की नोक को
कहते हैं अर्थात कुशाग्र बुद्धि वाला, शब्दों के यथार्थ
तात्पर्य को समझ के उनको प्रयोग में लाने वाला। जिसने मन को वश में नहीं किया है
उसको योग की प्राप्ति कठिन है; ऐसा भगवान् श्रीकृष्ण कहते
हैं किन्तु स्वाधीन मन वाला प्रयत्नशील, अभ्यास करनेवाला
पुरुष इस सिद्धि को प्राप्त कर सकता है।
वृत्तियों को रोकने के उपाय, अभ्यास और वैराग्य में
से प्रथम अभ्यास का स्वरुप और प्रयोजन अगले सूत्र में बतलाते हैं।
तत्रस्थितौ यत्नोभ्यासः - तत्र, उन दोनों, अभ्यास और वैराग्य में से; स्थितौ, चित्त की स्थिति में; यत्नः, यत्न
करना अभ्यास है क्योंकि दृष्टा के स्वरुप में स्थित होना है तो उस स्थिति में
चित्त को स्थिर करने का नाम, बारम्बार उसको touch करने का नाम अभ्यास है। चित्त के वृत्ति रहित होकर शांत प्रवाह में बहाने
की स्थिति को स्थिति कहते हैं। उस स्थिति
को प्राप्त करने के लिए वीर्य, पूर्ण सामर्थ्य और उत्साह
पूर्वक यत्न करना अभ्यास कहलाता है।
यम-नियम आदि योग के आठ अंगों का बार बार अनुष्ठान रूप प्रयत्न अभ्यास का
स्वरुप है और चित्त वृत्तियों का निरोध होना अभ्यास का प्रयोजन है। संसार व्यवहार में भी पठन-पाठन, लेखन, पाक, क्रय-विक्रय,
नृत्य-गायन आदि सर्वकार्य अभ्यास से ही सिद्ध होते हैं। अभ्यास के बल से रस्सी पे चढ़े हुए नट तथा सर्कस
आदि में न केवल मनुष्य किन्तु सिंह, अश्व आदि पशु भी अपनी
प्रकृति के विरुद्ध आश्चर्यजनक कार्य करते हुए देखे जाते हैं। अभ्यास के प्रभाव से
अतिदुस्साध्यकारी भी सिद्ध हो सकते हैं इसलिए जब मुमुक्षु चित्त की स्थिरता के लिए
अभ्यासनिष्ठ होगा तो वह स्थिरता भी उसको अवश्य प्राप्त होकर चित्त वशीभूत हो जाएगा
क्योंकि अभ्यास के आगे कोई भी कार्य दुष्कर नहीं है।
क्रियासिद्धिः सत्त्वे भवति महतां नोपकरणे - यहाँ पर
सत्व शब्द का अर्थ उत्साह और संकल्प की दृढ़ता में ही है समुद्र के प्रेरणा से राम
ने अथवा तो नल ने या सब वानरों ने मिलकर के इतने लम्बे-चौड़े समुद्र के ऊपर बड़ा
भारी पल बना दिया था, यह सब उत्साह और दृढ़ संकल्पशक्ति का ही परिणाम है। अब हमारे अभ्यास में जो विघ्नरूप राजस और तामस
वृत्तियों के अनादि प्रबल संस्कार चित्त की एकाग्रता के जो विरोधी हैं उनसे
प्रतिबद्ध, उनसे घिरा हुआ अभ्यास, एकाग्रतारूप
जो स्थिति है उसको सम्पादन करने में हम कैसे समर्थ हो सकते हैं इस शङ्का की
निवृत्ति के लिए अगले सूत्र में अभ्यास की भूमि दृढ़ कैसे हो इसके उपाय बताते हैं।
स: तु दीर्घकाल नैरन्तर्य सत्कारासेवितो दृढभूमिः।
सः माने वह, जो पूर्वक अभ्यास है वह।
तु माने किन्तु
दीर्घकाल - माने बहुत लम्बे काल पर्यन्त
नैरन्तर्य - निरन्तर अर्थात लगातार, व्यवधान रहित
सत्कार आसेवितः - सत्कार से आदरपूर्वक ठीक ठीक सेवन
किया हुआ अर्थात श्रद्धा वीर्य भक्तिपूर्वक अनुष्ठान किया हुआ
दृढ़भूमिः - दृढ़ अवस्था वाला हो जाता है।
विषयभोग और वासनाजन्य व्युत्थान के संस्कार मनुष्य के
चित्त में अनादि जन्म-जन्मान्तरों से पड़े चले आ रहे हैं उनको थोड़े ही समय में
बीज-सहित नष्ट कर देना अत्यन्त कठिन कार्य है।
वे निरोध के संस्कारों को तनिक सी भी असावधानी होने पर दबा के धर-दबोचते
हैं इस कारण अभ्यास को दृढ़ भूमि बनाने के लिए धैर्य के साथ दीर्घकाल पर्यन्त लगातार
श्रद्धा और उत्साहपूर्वक प्रयत्न करते रहना चाहिए। ये दृढ़भूमि प्राप्त कर के लिए सूत्र में तीन
विशेषण दिए हैं।
पहला विशेषण है 'दीर्घकाल' - वहां
दीर्घकाल से दस-बीस आदि वर्षों का नियम नहीं है क्योंकि योग के अधिकारी
भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। जिन्होंने
पूर्व-जन्मों में अभ्यास के संस्कारों को दृढ़ कर लिया है और जिनका वैराग्य भी
तीव्र है उनको शीघ्र या अतिशीघ्र समाधि का लाभ हो जाता है। इतरजनों को शीघ्र समाधि-लाभ नहीं होता तो
उन्हें निराश नहीं होना चाहिए किन्तु धैर्य के साथ चिरकाल तक एकाग्रता के निमित्त दृढ़
अवस्था के लिए अभ्यास का सेवन करते रहना चाहिए।
दूसरा विशेषण
है 'नैरन्तर्य'
- अर्थात अभ्यास को लगातार, निरन्तर, व्यवधान रहित करते रहना चाहिए।
रोज एक ही समय पर और जितना काल निश्चित कर लिया है उतने काल के लिए,
ऐसा न हो कि एक मास अभ्यास किया और फिर दस दिन के लिए छोड़ दिया और
फिर तीन मास किया और फिर एक मास के लिए छोड़ दिया।
इस प्रकार व्यवधान के साथ किया हुआ अभ्यास बहुत समय में भी दृढ़भूमि नहीं हो
पाता इसलिए बिना व्यवधान के, बिना अन्तराल के, बिना रूकावट के अभ्यास को निरन्तर करते रहना चाहिए।
तीसरा विशेषण है 'सत्कार आसेवितः' - वह
अभ्यास ठीक ठीक अभ्यास पूर्वक श्रद्धा, भक्ति, वीर्य, ब्रह्मचर्य और उत्साहपूर्वक अनुष्ठान किया
जाना चाहिए। दीर्घकाल तक निरन्तर सेवन
किया हुआ अभ्यास भी बिना इस विशेषण के दृढ़ अवस्था वाला नहीं हो सकेगा। इन तीनो विशेषणों से युक्त अभ्यास, व्युत्थानरूप जो राजस, तामस वृत्तियाँ हैं उनके
संस्कारों को प्रतिबद्ध कर सकेगा और इन संस्कारों को तिरोभूत करके चित्त की
स्थिरता रूप प्रयोजन को सिद्ध करने में समर्थ हो सकेगा। अतः अभ्यासी जनों को थोड़े
काल में हीअभ्यास से घबरा नहीं जाना चाहिए किन्तु दृढ़भूमि प्राप्ति के लिए
दीर्घकाल, निरन्तर सत्कार से अभ्यास करते रहना चाहिए। इस सूत्र में जो सत्कार शब्द है उसका अर्थ
श्रद्धा होता है - श्रद्धा योगिनं जननीमिवपाति - श्रद्धा माता की तरह योगी की
रक्षा करती है। गीता में भी भगवान् ने श्रद्धा को तीन तीन रूपों में बांटा है -
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु।। १७-२।।
वो तो गीता के सत्रहवें अध्याय में उसका नाम ही है -
श्रद्धा त्रिविभाग योग
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहि प्रकृति भेदतः।
सात्विकी राजसी चैव तामसीति बुभुत्सवः।
तासान्तु लक्षणं विप्राः शृणुध्वं भक्तिभावतः।।
श्रद्धा सा सात्विकी ज्ञेया विशुद्धज्ञानमूलिका ।
प्रवृत्तिमूलिका चैव जिज्ञासा मूलिकाऽपरा।
विचारहीन संस्कार मूलिका त्वन्तिमा मता।।
अर्थात देहधारियों की प्रकृति के भेदानुसार सात्विक, राजसिक और तामसिक
तीन प्रकार की श्रद्धा होती है। विशुद्ध
ज्ञानमूलक श्रद्धा सात्विक है, प्रवृत्ति और जिज्ञासामूलक
श्रद्धा राजसिक है और विचारहीन संस्कारमूलक श्रद्धा तामसिक है। इनमें सात्विक
श्रद्धा ही श्रेष्ठ है। सूत्र में इसी
श्रद्धा को 'सत्कार' शब्द से अनुष्ठान करना
बतलाया गया है।
अब अगला सूत्र वैराग्य के विषय में है। ये वैराग्य दो
प्रकार होता है - अपर वैराग्य और पर वैराग्य। अगले सूत्र में प्रथम अपर वैराग्य का
रूप बताते हैं-
दृष्टानुश्रविक विषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यं
दृष्ट-आनुश्रविक-विषय-वितृष्णस्य। दृष्ट माने देखे हुए और आनुश्रविक माने सुने
हुए तो देखे और सुने हुए विषयों में जिसको कोई तृष्णा नहीं है उसका "वशीकार
संज्ञा वैराग्यं",
वशीकार नाम वाला ये वैराग्य है।
दृष्ट माने देखे हुए - बम्बई, कलकत्ता देखा हुआ है,
वहां पर कोई वासना इकट्ठी हो जाए और स्वर्गादि सुने हुए हैं उसके
विषय में कोई तृष्णा हो जाए इनका वश में होना, तृष्णा का वश
में होना। देखे और सुने हुए विषयों में जो
तृष्णा है, प्राप्त करने की इच्छा है उसका वश में होना उसी
का नाम है वशीकार वैराग्य। इस वैराग्य का नाम है वशीकार वैराग्य और इसी को अपर
वैराग्य भी कहते हैं। विषय दो प्रकार के
होते हैं दृष्ट और आनुश्रविक। दृष्ट वे
हैं जो इस लोक में दृष्टिगोचर होते हैं जैसे रूप, रस,
गन्ध, स्पर्श; रसमलाई,
मलाई, पूरी, कचौरी,
रबड़ी और धन-सम्पत्ति, स्त्री, राज्य, ऐश्वर्य और आनुश्रविक वे हैं जो वेदों और
शास्त्रों में जिनका वर्णन हुआ है - वैकुण्ठ, गोलोक, स्वर्ग, अमरावती, अलकावती ये
सब दो प्रकार होते हैं - शरीरान्तर वेद्य जैसे देवलोक, स्वर्ग,
विदेह और प्रकृतिलय का आनन्द और अवस्थान्तर वेद्य जैसे दिव्यरस,
दिव्यागन्ध अथवा तीसरे पाद में अर्जित की हुई सिद्धियां; इन दोनों प्रकार के - दिव्य और अदिव्य, सांसारिक और
पारलौकिक इन विषयों की उपस्थिति में जब चित्त प्रसंख्यान ज्ञान के बल से, इनमें दोषदृष्टि के बल से इनको देखता हुआ "इनके संग से दोष प्राप्त
होता है", ऐसा विचार करता हुआ जब इनको न ग्रहण करता है
न इनसे परे हटता है, वीतराग अवस्था में, इनमें उसका ग्रहण करने वाला राग और उससे परे हटने वाला द्वेष ये दोनों
निवृत्त हो जाते हैं जैसा कि कहा गया है -
विकारहेतौ सति विक्रियन्ते येषां न चेतांसि त एव
धीराः ।
ये कुमारसम्भव का बड़ा ही प्रसिद्ध श्लोक है कि विकार
का हेतु, विकार का कारण उपस्थित होनेपर भी जिनके चित्तों में विकार उत्पन्न नहीं
होता वे ही धीर पुरुष हैं। पूरा श्लोक इस
प्रकार है -
प्रत्यर्थिभूतामपितांसमाधे: शुश्रूषमाणां
गिरिशोनुमेने विकारहेतौ सति विक्रियन्ते येषां न चेतांसि त एव धीराः ।
समाधि में विघ्नस्वरुप वो जो गिरिराज की कन्या, गिरिराज की अनुमति
से भगवान् शङ्कर के सेवा में लगी हुई थी उसकी उपस्थिति होनेपर भी सेवा करते हुए भी
भगवान् शङ्कर के चित्त में कोई विकार नहीं हुआ उनकी समाधि खण्डित नहीं हुई - येषां
न चेतांसि त एव धीराः,
भगवान् ने गीता में भी कहा है - मात्रास्पर्शास्तु
कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदा आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।
ये जो शब्दस्पर्शादि विषय हैं ये आगमापायी हैं, आने-जाने वाले हैं;
इनको प्राप्त करके मोहित न हो जाना, इनको सहन
कर लो तो इस प्रकार जो धीर पुरुष हैं उनका चित्त एकरस बना रहता है। चित्त की ऐसी अवस्था का नाम ही वशीकार संज्ञा
वैराग्य है। इसी को अपर वैराग्य भी कहते
हैं जिसकी अपेक्षा से दुसरे सूत्र में पर वैराग्य बतलाया है। किसी विषय के केवल त्यागने को वैराग्य नहीं
कहते क्योंकि रोगादि होने के कारण भी विषयों से अरुचि हो जाती है जिससे उनका
त्यागना हो जाता है। किसी विषय के
अप्राप्त होने पर भी उसका भोग नहीं किया जा सकता।
दिखावे के लिए तथा भय, लोभ और मोह के वशीभूत होकर
अथवा दूसरों के आग्रह से भी किसी विषय को त्यागा जा सकता है। डॉक्टर मना कर दे, शुगर
मत खाओ, मजबूरी है, क्या करे परन्तु
उसकी तृष्णा सूक्ष्म रूप से बनी रहती है।
विवेक के द्वारा विषयों को "अनन्त दुःख रूप हैं और बन्धन का कारण
है", ऐसा समझ कर उनमें पूर्णतया अरुचि का हो जाना तथा
उसमें सर्वथा संगदोष से निवृत्त हो जाना, यही वैराग्य का
लक्षण है।
न जातु कामः कामानां उपभोगेन शाम्यति ।
हविषा कृष्णवत्मैर्व भुय एवाभिवर्धते।।
ये राजा ययाति की प्रसिद्ध उक्ति है - विषयों की
कामना विषयों के भोग से कभी शान्त नहीं होती किन्तु जैसे अग्नि में हवि डालने से
अग्नि की ज्वाला और अधिक प्रज्वलित होती है, बढ़ती है इस तरह से भोगने से भोग की अभिलाषा
और बढ़ती जाती है। भर्तृहरि जी ने भी कहा
है -
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः तपो न तप्तं वयमेव
तप्ताः ।
कालो न यातो वयमेव याताः तृष्णा न जीर्णा वयमेव
जीर्णाः।।
अर्थात भोग नहीं भोगे गए, भोगों ने ही हमको
भोग लिया किन्तु हमीं भोगे गए; तप नहीं तपे, हमीं तप गए; समय नहीं बीता किन्तु हम ही बीत गए;
तृष्णा जीर्ण नहीं हुई किन्तु हम ही जीर्ण हो गए।
वैराग्य की चार संज्ञाएं, चार नाम हैं - यत्मान वैराग्य, व्यतिरेक
वैराग्य, एकेन्द्रिय वैराग्य और वशीकार वैराग्य।
यत्मान वैराग्य वह है जैसे कि चित्त में रागद्वेष
पहले से ही जमे हुए हैं,
उनके संस्कार, कुछ अच्छा लगता है, कुछ बुरा लगता है तो इन्द्रियों को अपने अपने विषयों में वो रागद्वेष
प्रवृत्त करते हैं। उन रागद्वेषादि दोषों
को बार बार चिन्तनरूप प्रयत्न से जिससे कि वो इन्द्रियों को उन विषयों में प्रवृत्त
न कर सकें वो यत्मान संज्ञक वैराग्य है।
व्यतिरेक वैराग्य फिर विषयों में दोषों का चिन्तन
करते करते निवृत्त और विद्यमान चित्त मलरूप दोषों का व्यतिरेक निश्चय अर्थात इतने
मल निवृत्त हो गए हैं और इतने निवृत्त हो रहे हैं और इतने निवृत्त होनेवाले हैं।
इस प्रकार जो निवृत्त और विद्यमान चित्त-मलों का
पृथक-पृथक रूप से जो ज्ञान है, वह व्यतिरेक संज्ञक ज्ञान है।
एकेन्द्रिय वैराग्य - जब यह चित्त मलरूपी रागादि दोष
बाह्य इन्द्रियों को तो इन्द्रियों में प्रवृत्त करने में समर्थ हो गए हों किन्तु
सूक्ष्म रूप से मन में निवास करते हों जिससे विषयों की सन्निधि जब उपस्थित हो तो
फिर से चित्त में क्षोभ उत्पन्न कर सकें।
तो इस प्रकार जब केवल मन में सूक्ष्म रूप से विषय की वासना बनी रहती है तो
उसको एकेन्द्रिय वैराग्य,
उसका नाम उस वैराग्य की संज्ञा हो जाती है एकेन्द्रिय वैराग्य,
केवल मन में रहता है, राग या तृष्णा और वशीकार
संज्ञा उसकी होती है कि जब सूक्ष्मरूप से भी जब चित्त के मल रागादि दोषों की
निवृत्ति हो जाए और दिव्य-अदिव्य, सुने हुए, देखे हुए समस्त विषयों के उपस्थित होनेपर भी उपेक्षा बुद्धि रहे, अपेक्षा-बुद्धि न रहे तब यह तीनों संज्ञाओं से परे, उसका
नाम होता है वशीकार संज्ञक वैराग्य अर्थात यह ज्ञान कि "ममैते वश्या नाहं
एतेषां वश्य", ये मेरे वशीभूत हैं, मैं इनके वशीभूत नहीं हूँ। ये
पहली तीन भूमि वाले वैराग्य निरोध के साक्षात हेतु नहीं हैं। निरोध का साक्षात हेतु तो ये चौथी भूमि वाला जो
वशीकार संज्ञक वैराग्य है, वही है। इसलिए सूत्रकार ने इसी वशीकार संज्ञा वाले
वैराग्य का वर्णन किया।
दृष्टानुश्रविक विषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा
वैराग्यं।
किन्तु ये जो वशीकार संज्ञा वाला विरगय है ये तीन
भूमियों को पार करके ही प्राप्त होता है।
जब तक इन तीन भूमियों को लांघकर नहीं जाएगा तब तक ये चौथी भूमि, वशीकार वैराग्य तक
नहीं पहुँच पायेगा और इसी का दूसरा नाम है अपर वैराग्य और इसका फल है एकाग्रता और
सम्प्रज्ञात समाधि जिसकी सबसे ऊंची भूमि पुरुष और चित्त की भिन्नता प्रतीत
करानेवाली विवेकख्याति है। वैराग्य के
बिना विवेक होता नहीं किन्तु यह भी त्रिगुणात्मक चित्त की ही एक वृत्ति है इससे भी
विरक्त हो जाना, तो उसको पर वैराग्य कहते हैं और उसका फल है
असम्प्रज्ञात समाधि। सम्प्रज्ञात समाधि के
साधन अपर वैराग्य को बतला कर अब अगले सूत्र में असम्प्रज्ञात समाधि का साधन जो पर
वैराग्य है उसका वर्णन अगले प्रकरण में करेंगे।
धन्यवाद !
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