पांचवां मंत्र
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्। स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।।
-ऋग्वेद १0//१२१//१, अथर्ववेद ४//२//७, यजुर्वेद १३//४, २१//१, २५//१0
अर्थ– सृष्टि की रचना से पूर्व, प्रकाशयुक्त पदार्थों के बीजरूप को अपने गर्भ में रखनेवाला या धारण करनेवाला परमात्मा विद्यमान था। वह उत्पन्न हुई सृष्टि का अकेला, अद्वितीय स्वयंसिद्ध, स्पष्ट स्वामी था। उसी परमात्मा ने इस पृथिवी को और इस द्युलोक को धारण किया हुआ है, उसी एक परमात्मा को हवि द्वारा हम धारण करें।
व्याख्या– सृष्टि पर दृष्टि डालते ही बुद्धिमान् पुरुष के मन में यह प्रश्न उठता है कि यह सृष्टि कैसे उत्पन्न हो गई, किसने उत्पन्न की और उत्पत्ति से पूर्व इसकी क्या अवस्था थी? यह प्रश्न न केवल नैसर्गिक है, अपितु अत्यन्त आवश्यक है। किसी वस्तु के प्रयोग से पहले उसकी स्थिति और प्रकृति का जानना आवश्यक है। घोंसला बनाने से पहले चिड़ियां भी जांच लेती हैं कि कौन -सा सुदृढ़ होगा।
क्या सृष्टि स्थायी और एकरस है? नहीं तो क्या कोई ऐसा काल रहा होगा जब इसकी उत्पत्ति हुई? अवश्य। तो क्या उस उत्पत्ति-काल से पहले यह थी? नहीं। अगर होती तो उत्पत्ति का क्या अर्थ था? यदि नहीं थी, तो क्या, उसका कारण था? अवश्य। परन्तु, इस विषय में मतमतान्तरों में बहुत भेद है। कुछ तो कहते हैं कि सृष्टि से पहले कुछ न था, शून्य से उत्पन्न हो गई। जैसे बीज गलकर जब अपने अस्तित्व को शून्य बना देता है, तो उससे वृक्ष उत्पन्न हो जाता है। वेदमन्त्र इसका खण्डन करता है। उपनिषद् कहती हैं- असत् से सत् कैसे उत्पन्न होगा? यदि शून्य से ही कोई चीज बन जाए तो साध्य के लिए साधन की आवश्यकता न हो। शून्य तो हर किसान के पास है। शून्य को खरीदने के लिए श्रम या पैसे की जरूरत नहीं। आलसियों और निकम्मों के पास भी शून्य होता है। फिर क्या आवश्यकता है कि गेहूं उत्पन्न करने की इच्छावाला गेहूं का ही बीज बोये और चने का इच्छुक चने का ही बीज । यदि अभाव से भाव की उत्पत्ति हो जाए तो ‘अभाव’ तो सभी को प्राप्त है। परिश्रम ‘भाव’ के लिए करना पड़ता है, अभाव के लिए नहीं। दस रुपये पचास रुपये के बराबर नहीं होते, अतः जो आदमी दस रुपये के स्थान में पचास रुपये प्राप्त करना चाहता है, उसे अधिक परिश्रम करना पड़ेगा। परन्तु दस रुपये का अभाव, पचास रुपये का अभाव और लाख रुपये का अभाव बराबर है। हर कार्य के लिए कारण चाहिए और निश्चित कारण चाहिए। बर्फ पानी से बनेगी, रेत से नहीं। इसलिए वेद ने कहा -‘हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे’ सृष्टि के पहले शून्य नहीं था। ‘हिरण्यगर्भः’ था। इसी को आगे ‘भूतस्य पतिः’ कहा है। हिरण्यगर्भ किसको कहते हैं? ‘हिरण्य’ का अर्थ है, ‘सोना’। ‘गर्भ’ का अर्थ है, ‘अण्डा’। ‘हिरण्यगर्भ’ का अर्थ हुआ ‘सोने का अण्डा’। पुराण आदि ग्रन्थों में जैसे इन्द्र, गणेश या महादेव आदि शब्दों के सम्बन्ध में गप्प कथायें प्रसिद्ध हो गई हैं, इसी प्रकार ‘हिरण्यगर्भ’ के विषय में भी कपोल-कल्पित गप्पें हैं। प्रजापति का सोने के अण्डे से उत्पन्न होना पुराणों की गप्प है। क्या सृष्टि से पहले सोना था और सोने का अण्डा कैसे बना?
हम कह चुके हैं कि हर कार्य के लिए नियत कारण चाहिए। प्रत्येक कार्य के तीन कारण होते हैं- उपादान, निमित्त और साधारण। साधारण कारण का अर्थ यह है कि वह सब कार्यों में सामान्य हो, विशेष न हो, जैसे काल और देश। कोई कार्य बिना देश या काल के सम्भव नहीं। परन्तु, एक ही देश और एक ही काल में लाखों कार्य होते हैं। देश और काल, उन कार्यों में कोई विशेषता उत्पन्न नहीं करते। दूसरा निमित्त कारण है, जैसे, घड़े का कुम्हार या अंगूठी का सुनार। परन्तु, केवल कुम्हार घड़ा नहीं बना सकता। घड़े के निर्माण के लिए ‘मिट्टी’ (उपादान कारण) चाहिए। कुछ लोग कहते हैं कि सृष्टि से पहले केवल एक ईश्वर या खुदा था और कुछ न था। उसी ने कहा, ‘कुनू (हो जा)’ और सृष्टि उठ खड़ी हुई। वेदमन्त्र में यह नहीं कहा कि केवल प्रजापति ने इच्छामात्र से भूत या जगत् उत्पन्न कर दिया। उसके लिए एक विशेष नाम दिया है ‘हिरण्यगर्भ’। स्वामी दयानन्द ने इसका अर्थ किया है, वह सत्ता जिसके गर्भ में प्रकाशक पदार्थ बीजरूप में थे। ‘गर्भ’ ‘गृह’ का ही रूपान्तर है। जैसे, बच्चा पिता और माता के शरीर में गर्भरूप में विद्यमान होता है, वही उत्पत्ति या जन्म के समय ‘प्रजा’ (सन्तान) के रूप में आविर्भूत होता है। प्रजा के उत्पन्न होने से पिता ‘प्रजापति’ हो जाता है। पिता स्वयं पुत्र नहीं होता। यदि पिता के गर्भ में पुत्र का आत्मा न आता तो न प्रजा होती न प्रजापति। इसी प्रकार, प्रजापति के गर्भ में सृष्टि का बीजरूप विद्यमान था, अर्थात् सृष्टि से पहले ‘हिरण्यगर्भ’ था। यदि सुनार बिना सामान के आभूषण बना सके, तो वह सुनार न होगा, जादूगर होगा। सृष्टिक्रम में जादूगर को कोई स्थान नहीं है। जादूगर मूर्खों की आंख में धूल डालने के लिए होते हैं। परमात्मा ने बिना उपादान के न कभी सृष्टि बनाई, न आज बनाता है। आज भी ईश्वर की सृष्टि में पानी से भाप और भाप से बादल बनते हैं। रेत से बादल नहीं बनते और न बिना पानी के बनते हैं। ईश्वर आज भी वैसा ही सर्वशक्तिमान् है, जैसा सृष्टि के पहले था। वह भूतपति और सृष्टि-रूपी जगत् का पालक था। यहां ‘पति’ का अर्थ है पालक या पिता। ‘प्रजापति’ का अर्थ है ‘प्रजापिता’। लौकिक समाज में पति और पिता में भेद होता है। परन्तु प्रजा का अर्थ तो सन्तान ही है, अतः ‘प्रजापति’ का अर्थ होगा ‘प्रजापिता’।
नवीन वेदान्तियों का कहना है कि केवल ब्रह्म से ही बिना उपादान या प्रकृति के ही सृष्टि उत्पन्न होती है। वेदान्तियों ने कहा कि ब्रह्म निमित्त कारण भी है और उपादान भी। इतना तो ठीक है कि ब्रह्म एक ऐसा निमित्त कारण है, जो उपादान कारण से पृथक् या दूर नहीं है। उसके और उपादान के बीच में कोई व्यवधान नहीं है, परन्तु निमित्त और उपादान में अनन्यत्व नहीं है। उपादान परिणामी होता है। निमित्त परिणामी नहीं होता। वह उपादान और उपादेय दोनों का पालक और पोषक होता है। उपादान भिन्न-भिन्न होते हैं। जिस सोने से अंगूठी बनी है, उसी से उसी समय हार नहीं बन सकता, परन्तु सुनार वही हो सकता है।
ऐसे प्रजापति या भूतपति को एक कहा गया। ‘एक’ शब्द पर विशेष बल है। वेद एक-ईश्वरवादी है, अनेक ईश्वरवादी नहीं।
सृष्टि को अंग्रेजी में ‘यूनिवर्स’ (Universe) कहा है, अर्थात् समस्त सृष्टि एक है। इसके सभी कानून एक हैं, अनेक नहीं। दो और दो मिलकर हर जगह और हर काल में चार ही होंगे। यदि ऐसा न होता तो वह यूनीवर्स (Universe) न होकर (Multiverse) कहलाती। उपादान भिन्न होते हुए भी ‘कर्त्ता’ एक ही है। वह न केवल सृष्टि बनाता है, अपितु उससे अलग भी नहीं होता। यह प्रभु की विशेषता है। कुम्हार मिट्टी से अलग था, घड़ा बनाकर अलग हो जाता है। वह उत्पादक है, पालक नहीं। इसीलिए, वह भूतों का पति नहीं। ईश्वर पति है, अर्थात् जिस सृष्टि को उसने रचा है, उसको रचकर वह कहीं अलग नहीं जा बैठा और न उसका पालन उसने छोड़ दिया है। जो सृष्टि बीजरूप में उसके गर्भ में थी, वह अब भी उसी के आधार पर ठहरी हुई है। वह आज भी इन सब को धारण किये हुए है।
‘कस्मै देवाय हविषा विधेमा’। यहां ‘कस्मै’ का अर्थ है ‘एकस्मैं’। वेद में ‘ए’ शब्द का लोप हो गया है, अर्थात् हम उसी एक देव की उपासना करें। किसी दूसरे को अपना ईश्वर न मानें।
‘कस्मै देवाय हविषा विधेम’ में ‘कस्मै’ के प्रायः तीन अर्थ किये गये हैं। तीनों अर्थ ही व्याकरण के अनुसार समीचीन हैं। परन्तु, प्रकरण के विचार से मुझे एक सबसे अच्छा जंचा। उससे बहुत कम लोग परिचित हैं। इसलिए, यहां कुछ विस्तार से लिखा जा रहा है। तीनों अर्थों पर विचार कीजिए-
(१) ‘कस्मै’ शब्द ‘किम्’ सर्वनाम का चतुर्थी एकवचन है। ‘किम्’ प्रश्नवाचक है। ‘कस्मै देवाय हविषा विधेम’ का अर्थ हुआ ‘‘किस देव की उपासना की जाए?’’ यह वाक्य ऋग्वेद के हिरण्यगर्भ सूक्त में दस ऋचाओं में से पहली नौ ऋचाओं के अन्त में आया है। इस पक्ष के लोगों का कहना है कि अन्त के वाक्य में प्रश्न उठाया कि किसकी उपासना की जाए? और मन्त्रों के पूर्व भाग में उत्तर दिया अर्थात् उपास्य देव के लक्षण बताए। यह बात सर्वथा अनुचित तो नहीं है। वेदों में ऐसे प्रश्नों की शैली विद्यमान है, परन्तु सभी मन्त्रों में लगातार प्रश्नों को दुहराना कुछ कम जंचता है। यदि ‘कस्मै’ के साथ ‘चित्’ लगाकर ‘कस्मैचित्’ कर दिया जाय तो ‘चित्’ अनिश्चितता का बोधक होने से सर्वथा अमान्य हो जाता है।
(२) ‘क’ का अर्थ है सुखस्वरूप। ‘क’ अकरान्त संज्ञा है, राम के समान। ‘क’ का चतुर्थी ‘काय’ होना चाहिए। वेद में बहुल होने से ‘कस्मै’ रूप भी बन गया, अर्थात् सुखस्वरूप ईश्वर की हम उपासना करें। निरुक्त और शतपथ दोनों इस अर्थ की पुष्टि करते हैं। ‘क’ प्रजापति का नाम भी है। परन्तु, अकारान्त संज्ञा के चतुर्थी विभक्ति में ‘स्मै’ आदेश के उदाहरण वेद में अन्यत्र पाये नहीं जाते। ईश्वर के शुभगुण तो अनन्त हैं। ‘सुखस्वरूप’ भी एक विशेषण है। परन्तु, इसे बार-बार दुहराया क्यों गया? आक्षेप अपरिहार्य तो नहीं है, अतः यह व्याख्या अनुचित नहीं कही जा सकती। फिर भी ‘प्रकरण’ पूर्णरूपेण सन्तोषप्रद नहीं है।
(३) शबर स्वामी ने पूर्वमीमांसा के भाष्य में ‘हिरण्यगर्भ’ इति-मन्त्र की व्याख्या करते हुए उपयुक्त अर्थ के साथ एक अर्थ यह भी किया कि ‘कस्मै देवाय’ का अर्थ है ‘एकस्मै’। यहां छांदस ‘ए’ का लोप हो गया है। वेद में इस प्रकार के लोपों के उदाहरण बहुत मिलेंगे। ‘एकस्मै देवाय’ में कोई व्याकरण की खींचातानी भी नहीं, क्योंकि, ‘एक’ सर्वनाम है और अर्थ यह हुआ कि केवल एक ईश्वर की ही उपासना है, कई देवी-देवताओं की नहीं। इस अर्थ का गौरव इस सूक्त के कई और शब्दों से विदित है। सूक्त के अन्त का मन्त्र है ‘प्रजापते न त्वद्’ इति। इसमें ‘न अन्यः’ अर्थात् ‘कोई और नहीं’ ऐसा शब्द आया है, अर्थात् प्रजापति के एकत्व पर बल है। इस सूक्त के अन्य मन्त्रों में भी ‘एक’ शब्द कई बार दुहराया गया है। मन्त्रों के पहले चरणों में सूर्य आदि ‘हिरण्यों’ अर्थात् प्रकाशवाले पदार्थों के नाम गिनाये हैं, जिनको उपास्यदेव नहीं माना। इस विशेषता को दिखलाने के लिए भी ‘एकस्मै देवाय’ कहना उचित प्रतीत होता है। साधारण पुरुषों के हितार्थ भी यही व्याख्या अधिक उपयुक्त है, क्योंकि प्रायः अविद्यावश लोग कई ईश्वरों को मान बैठते हैं और सुधारक उपदेष्टाओं के निरन्तर परिश्रम करने पर भी यह बहु-ईश्वरवाद का रोग बार-बार लौट आया है, अतः वेद में अति प्राचीनकाल से इस पर बल दिया जाना सर्वथा उचित ही है। एक ईश्वरवाद वेद का मुख्य और मौलिक सिद्धान्त है। उपासना की समस्त सामग्री का नाम ‘हविः’ है। भौतिक हो या अभौतिक, शारीरिक हो या मानसिक। प्रजापति की उपासना मन, वचन और कर्म तीनों साधनों द्वारा होनी चाहिए। हमारा मन उपास्यदेव के गुणों के मनन करने में लगा हो। वाणी से मन्त्रों को बोलें और कर्म शुभ करें। इनमें से बहुत-से कर्मों का उल्लेख मन्त्रों के कई वाक्यों में आया है।
इस प्रकार मन्त्र में इतनी बातें दी हुई है-
(१) सृष्टि के पूर्व ईश्वर था। (२) ईश्वर हिरण्यगर्भ अर्थात् उपादान से युक्त था। (३) उसने सृष्टि बनाई और अब भी धारण कर रहा है। (४) वह एक ही है, कई नहीं। (५) उसी की उपासना करनी चाहिए, अन्य किसी की नहीं।
छठा मंत्र
इन्द्र मृळ मह्यं जीवातुमिच्छ चोदय धियमयसो न धाराम्।
यत् किंचाहं त्वायुरिदं वदामि तज्जुषस्व कृधि मा देववन्तम्।।
-ऋग्वेद ६//४७//१0
अर्थ– सर्वशक्तिमन् ईश्वर! कृपा करो। मेरे लिए जीविका को दीजिए। तलवार की धार के समान बुद्धि को तीक्ष्ण बनाइये। तुझको मन से चाहनेवाला मैं जो कुछ भी यहां, इस जीवन में मांगूं, निवेदन करुं, उसको दीजिए। मुझे देवों के दिव्य गुणों से युक्त कीजिए।
व्याख्या-इस मन्त्र में सबसे मुख्य शब्द ‘जीवातुम्’है। इसको हम समस्त मन्त्र का प्राण कह सकते हैं। अन्य सब शब्द इसी शब्द के उपव्याख्यान मात्र हैं। ‘जीवातुम्’का अर्थ है, जीविका या रोजी। रोजी में वे सब साधन सम्मिलित हैं, जिनके द्वारा हम अपने जीवन को ठीक और काम के योग्य रख सकते हैं। जीवन को ठीक रखने के लिए भोजन, वस्त्र, मकान, औषधियां चाहिएं। जी बहलाने के लिए इष्टमित्र और स्नेही चाहिएं। शत्रुओं के आक्रमणों को रोकने के लिए संरक्षक चाहिएं। यशोलाभ के लिए कुछ प्रशंसक भी चाहिएं। ये हैं जीवन को स्वस्थ रखने के साधन। परन्तु, स्वस्थ जीवन का कुछ उपयोग भी तो हो, क्योंकि स्वस्थ जीवन का भी तो कुछ उद्देश्य आवश्यक है। रथ सुन्दर है, सुदृढ़ है, परन्तु कहीं यात्रा नहीं करनी, तो ऐसे रथ का कोई क्या करेगा? हर चीज के तीन गुण परमावश्यक हैं-(१) उपयोग (Utility) (२) दृढ़ता (Durability) (३) सौन्दर्य (Beauty) । इसमें सबसे मुख्य है, उपयोग। यदि सुदृढ़ और सुन्दर वस्तु का कोई उपयोग नहीं, तो वह सर्वथा बेकार है। उपयोग से दूसरे नम्बर पर दृढ़ता है। उपयोग हो ही तब सकता है, जब वस्तु कुछ देर ठहरी रह सके। सौन्दर्य तीसरे नम्बर पर है, क्योंकि सौन्दर्य सापेक्षिक है और उपयोग न होने से सुन्दर से सुन्दर वस्तु भी कुरूप प्रतीत होने लगती है। एक अत्यन्त कुरूप परन्तु आज्ञाकारी और सेवा करनेवाले पुत्र को लोग अधिक चाहते हैं, उस पुत्र की अपेक्षा जो बहुत सुन्दर है, परन्तु माता-पिता को कष्ट दिया करता है। इस मन्त्र में जीवन के साधन और उपयोग दोनों की ओर संकेत किया गया है।
‘इन्द्र’परमात्मा का नाम है। ऐश्वर्यवान् को इन्द्र कहते हैं। उपासक के लिए यह उचित ही है कि अपने लिए जीविका मांगते हुए वह ईश्वर को ‘इन्द्र’ नाम से सम्बोधित करे। ‘मृळ’ का अर्थ है ‘प्रसन्न हूजिए, कृपा कीजिए।’प्रार्थी आदेश नहीं चाहता, कृपा चाहता है, अर्थात् जो चीज वह मांगता है, उसे वह बहुत प्यारी समझता है। हम उसी वस्तु की मांग करते हैं, जो बहुत प्यारी लगती है। ‘जीवन’से प्यारा मनुष्य के लिए है भी क्या? मनुष्य अपने जीवन को बचाने के लिए धन, दौलत, रिश्तेदार यहां तक कि यश का भी परित्याग कर देते हैं। परमात्मा ने जब हम को जीवन दिया, तो साथ ही जीवन के लिए प्रेम भी दिया। यह जीवन-प्रेम सब प्राणियों में पाया जाता है और इसी आधार पर प्राणी अपने जीवन की रक्षा करने में तत्पर रहता है तथा जहां कहीं अपने को अशक्त पाता है, वहां परमात्मा से प्रार्थना करता है। इस मन्त्र में दी हुई प्रार्थना इसी भाव की सूचक है।
हमारे ‘जीवन’में ईश्वर की कृपा तो है ही, परन्तु साथ ही हमारी भी जन्म-जन्मान्तर की कमाई है। इसलिए, सबसे प्रथम चीज यह है कि हमारे हृदय में जीवन के लिए मान और प्रेम होना चाहिये और हमारी हर क्रिया से यह प्रकट होना चाहिए कि हम जीवन को ठीक रखने के लिए भरसक प्रयत्न कर रहे हैं। जीवन बहुमूल्य पदार्थ है। यदि उसको त्यागना भी पड़े, तो केवल उसी वस्तु के लिए, जो जीवन से भी अधिक मूल्यवान् है। देश और जाति का नेता कभी-कभी अपने जीवन को संकट में डाल देता है, परन्तु उसी समय जब वह बहुत से जीवनों की रक्षा के लिए एक जीवन को दे डालना आवश्यक समझता है। जो निष्प्रयोजन जीवन नष्ट कर देते हैं, वे पाप करते हैं। आत्मघात सबसे बड़ा पाप है। समस्त प्रकार की हत्याओं से बड़ी हत्या है।
ऐसे बहुमूल्य जीवन को सुरक्षित रखना सुगम नहीं है। मार्ग में अनेक बाधाएं हैं। कुछ बाधाएं बाधाओं के रूप में आती हैं और कुछ प्रलोभनों के रूप में। जो शत्रु शत्रु बनकर सामने आता है, उससे रक्षा करना सुगम है, परन्तु जो मित्र बनकर आता है, उससे बचना अत्यन्त कठिन है। मनुष्य की सबसे बड़ी कमी यह है कि वह शत्रु को मित्र और मित्र को शत्रु समझ बैठता है।
आप तनिक मनुष्य-जीवन पर दृष्टि डालें, उनकी विफलता और सफलता का परिगणन करें। आपको ज्ञात होगा कि अधिकतर मनुष्य इसीलिए क्लेश उठाता है कि वह शत्रुओं को मित्र और विष को अमृत समझता है। योगदर्शन में अविद्या को सभी अन्य क्लेशों का क्षेत्र बताया है। मित्र कहलाने वाले शत्रुओं से बचने के लिए सतर्क होने की आवश्यकता है। सतर्क होने के लिए ‘तर्क’ चाहिए। न्यायदर्शन में मुक्ति के सोलह साधन बतायें हैं, उनमें से एक ‘तर्क’ भी है। तर्क के लिए चाहिए तीक्ष्ण बुद्धि। जीवन में तो बहुत सी चीजें शामिल हैं-नाक, कान, आंख आदि, परन्तु इनसे भी अधिक मूल्यवान् बुद्धि है।
जिसके बुद्धि नहीं वह तो निर्बलों से भी निर्बल है। एक पतला-दुबला मनुष्य अपनी बुद्धि की सहायता से बड़े-बड़े शेरों को पकड़कर बन्दरों की तरह नाच नचाता है।
बहुधा, दार्शनिक तथा धार्मिंक क्षेत्रों में बुद्धि की अवहेलना की गई है। धर्म के विषयों में बुद्धि को लगाना अश्रद्धा और अधार्मिकता का सूचक समझा जाता है। प्रायः धार्मिंक सम्प्रदायों के प्रवर्तकों ने अपने अनुयायियों को अपनी बुद्धि के प्रयोग से निरुत्साहित किया। बहुधा, जब कोई बच्चा किसी विषय में तर्क करता है, तो गुरुजन डांट देते हैं, ‘‘क्या तुम हमसे भी अधिक जानते हो?’’ बच्चे की तर्कशक्ति मारी जाती है। जब-जब धर्मगुरुओं के समक्ष जनता ने कोई प्रश्न उठाया, तो उनको यही कहकर चुप कर दिया कि तुम क्या जानो, ईश्वर तुमसे ज्यादा जानता है। ईश्वर की बात में ननु-नच नहीं करनी चाहिए, परन्तु वेद की यह शिक्षा नहीं है। यदि हम बुद्धि का प्रयोग न करें, तो कैसे जान सकें कि अमुक आचार्य माननीय है और अमुक आचार्य माननीय नहीं है। सभी सम्प्रदाय अपने आचार्य को सच्चा और दूसरे सम्प्रदाय के आचार्यों को झूठा समझते हैं। हमारे पास कौन-सी कसौटी है, सिवाय बुद्धि के, जिससे हम जान सकें कि अमुक मत मन्तव्य है और अमुक अमन्तव्य। इसीलिए, मनु ने धर्म के दश लक्षणों में एक ‘धी’ को सम्मिलित किया है। ‘धी’ अर्थात् बुद्धि के बिना तो धर्म के शेष नौ लक्षण व्यर्थ-से सिद्ध होते हैं।
कुछ लोगों का कहना है कि मनुष्य अल्प है, उसकी बुद्धि छोटी है, अतः वह काम पड़ने पर धोखा दे जाती है। यह ठीक है कि सबकी बुद्धि एक-सी नहीं होती। सब चाकू भी तो एक-से पैने नहीं होते। लौकी काटने के चाकू से आप कलम नहीं बना सकते। कठोर वस्तुओं के लिए तेज चाकू चाहिए, परन्तु इससे बुद्धि की अवहेलना तो नहीं हुई। कल्पना कीजिए कि अपनी बुद्धि को आप अल्प समझकर इसका उपयोग छोड़ दें, तो दो हानियां होंगी। प्रथम तो आप निःशस्त्र हो जायेंगे। आपके पास बुद्धि को छोड़कर और था ही क्या? जो कुछ था उसे भी आप खो ही बैठे। अब आप अपना काम कैसे चलायेंगे? दूसरी सबसे बड़ी हानि यह होगी कि बुद्धि दिन-पर-दिन और भी कुण्ठित होने लगेगी और आप मनुष्य के स्तर को छोड़कर भेड़ के स्तर को पहुंच जायेंगे। जिस कुंजी (Key) का प्रयोग न किया जाए, उसको जंग लग जाता है। इसी प्रकार जो लोग अपनी बुद्धि का प्रयोग छोड़ देते हैं, वे अपनी बुद्धि को सर्वथा कुण्ठित कर लेते हैं। यह तो ऐसी स्पष्ट बात है कि आप इसका परीक्षण अपने या दूसरों के ऊपर सुगमता से कर सकते हैं। इसलिए, वि़द्यालयों में जो पाठ्य-विषय की पाठ्यपुस्तकें नियत की जाती हैं, उनमें ध्यान रखा जाता है कि पढ़नेवालों की बुद्धि का विकास अधिक-से-अधिक हो। हर एक की बुद्धि पैनी नहीं होती, परन्तु पैनी करते-करते अधिक पैनी हो जाती है और प्रयोग छोड़ देने से पैनी-से-पैनी बुद्धि कुण्ठित हो जाती है, अतः धर्म का सबसे बड़ा शत्रु वह है, जो अपना धर्म चलाने के हेतु धर्म के नाम पर तर्क और बुद्धि की अवहेलना करता है। तर्क को विशुद्ध बनाना और बात है और तर्क की अवहेलना दूसरी बात। तर्क में विशुद्धता भी तर्क के प्रयोग से ही आती है।
संसार में देखा जाता है कि बाजार में शाक-भाजी बेचनेवाले से लेकर मोक्ष का मार्ग दिखानेवाले गुरुओं तक सभी हमारी आंखों में धूल डालने का यत्न करते हैं। नारंगी बेचनेवाला मीठी नारंगियों में खट्टी मिला देता है। सम्प्रदायों का चालाक प्रवर्तक कल्पित स्वर्ग का ऐसा चित्र हमारे सामने रखता है कि हम मुग्ध होकर अपना तन,मन,धन सब गुरुजी के अर्पण कर देते हैं। जैसे मीठी नारंगी की जांच बुद्धि से होगी, उसी प्रकार, सच्चे स्वर्ग की पहचान भी तो बुद्धि से ही हो सकेगी, अतः वैदिक सिद्धान्त यह है कि अपनी बुद्धि का सदा प्रयोग करते रहो और जब तक बुद्धि से सिद्ध न हो जाए किसी की बात मत मानो। न्यायदर्शन में महामुनि गौतम ने धोखेबाजों के कुतर्कों से बचने के लिए बहुत-सी बहुमूल्य कसौटियां दी हैं, जिनके प्रयोग से हमारी बुद्धि तलवार से भी पैनी हो सकती है और हम न केवल जीविका प्राप्त करने अपितु जीवनोद्देष्य की पूर्ति में भी सफल हो सकते हैं।
अगले चरण में ‘अहम्’ का एक विशेषण आया है, ‘त्वायुः’। ‘त्वायुः’ का अर्थ है तुझे चाहने या प्यार करनेवाला। प्रार्थी ईश्वर को प्यार करता है। उसकी प्राप्ति के लिए मन से कामना करता है, वह आस्तिक है। ‘इन्द्र’ का भक्त है। ‘अनिद्र’ या नास्तिक नहीं है। ईश्वर का प्यारा किसी ऐसी वस्तु की कामना कर ही नहीं सकता, जो ईश्वर को प्रिय न हो या उसको उचित न जान पड़े। उपासक की कामनाएं उपास्यदेव की प्रकृति के अनुकूल होनी चाहिएं। इच्छा उपासक की नहीं, अपितु उपास्य की है। ‘राजी हैं हम उसी में, जिसमें तेरी रज़ा हो।’ आग्रह का कोई प्रश्न ही नहीं। अपनी इच्छाओं को अपने प्यारे के सिर पर थोपना या थोपने का विचार करना ‘प्रेम’ का दुरुपयोग है। प्रायः हम मतमतान्तरों की गाथाओं में इस प्रकार की प्रार्थनाओं का उल्लेख पाते हैं, जब उपासक अड़ जाता है। कहते हैं कि तुलसीदास कृष्ण-मन्दिर में कृष्ण की मूर्ति के सामने अड़ गये और कहने लगे कि ‘तुलसी मस्तक तब झुके धनुषबाण लो हाथ।’ क्या जाने यह घटना ऐतिहासिक है या कल्पनामात्र है। परन्तु, इसकी पीठ पर जो भावना है, वह अवैदिक है। भक्त अड़ता नहीं, उपास्य से प्यार करता और उसी के स्वभाव के अनुकूल अपना स्वभाव बनाता है। जीविका मांगी, इसलिए कि जीवन सुरक्षित रहे। अन्य कामनाएं मांगी, जो उपासक को उपासक होने के नाते मांगनी चाहिए, परन्तु इन सब कामनाओं का भी एक ध्वेय है, अर्थात् ‘मुझे देव बनाइए।’ मनुष्य मनुष्य-रूप में उत्पन्न होता है और देव बनना चाहता है।
उपनिषद् कहती है, ‘ब्रह्मविद् ब्रह्म एव भवति।’ ब्रह्म का उपासक ब्रह्म
ही हो जाता है। ‘एव’ का अर्थ है ‘इव’। लगभग वैसा ही। लोहे के गोले मे आग से सम्पर्क
करते हुए यदि गर्मी न आए, तो आग का सम्पर्क ही व्यर्थ है।
भगवान् की उपासना करके यदि भगवान् के गुण अपने में न आएं, तो
ऐसी उपासना से क्या लाभ? इसलिए, उपासक
में ‘देववन्तम्’ बनने की इच्छा होनी
चाहिए और उसी के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए।
लोग ईश्वर से ऐसी चीजें
मांगते हैं,
जिनसे उनमें देवत्व तो दूर रहा, मानवता भी
नहीं रहने पाती। हम चाहते हैं कि हमारा उपास्यदेव हमारे पापों के बदले हमको उपासना
के बल पर शुभ फल दे। यह वैदिक प्रार्थना नहीं है।
इस वेदमन्त्र में सारांशतः
इतनी बातें दी है- (१) जीवन प्यारी चीज है, इसके लिए जीविका की
प्रार्थना करनी चाहिए। (२) बिना बुद्धि के जीवनयात्रा असम्भव है, अतः बुद्धि की तीक्ष्णता आवश्यक है। (३) उपासक को उपास्य से वही चीज
मांगनी चाहिए, जिससे उपासक का उपास्य से प्रेम प्रकट हो।
भक्त को भगवान् के वश में होना चाहिए। भगवान् को भक्त के वश में बताना भक्ति नहीं,
अभक्ति है। (४) जीवन का उद्देश्य यह है कि मनुष्य नित्यप्रति
मनुष्यता के साधारण स्तर से उठकर देवत्व की ओर पग बढ़ाता जाए। यही परमपद है।
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