सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो
मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे
संजानाना उपासते।।
-ऋग्वेद १0//१९१//२, अर्थर्ववेद ६//६४//१
अर्थ– हे मनुष्यों! तुम
लोग मिलकर चलो। संवाद, अर्थात् प्रेमपूर्वक आपस में बातें
करो। तुम्हारे मन मिलकर सत्यासत्य-निर्णय के लिए सदा विचार करें। जैसे, प्राचीन काल में विद्वान् लोग परस्पर विचार करके, सत्यासत्य
का निर्णय करके, अपने-अपने उपभोग के भाग को प्राप्त करते आए
हैं, अर्थात् प्राचीलकाल से विद्वानों की यह प्रथा चली आती
है कि मन, वचन और कर्म से मिलकर रहें और प्रेम से निर्णय
करके अपने-अपने हिस्से की चीजों का उपभोग करें।
व्याख्या– इस वेदमन्त्र में यह उपदेश दिया गया है कि मानव समाज के निर्णय का मूलाधार
क्या हो और निर्मित समाज की रक्षा कैसे हो तथा उससे किस प्रकार अधिक से अधिक लाभ
उठाया जा सके।
‘संगच्छध्वं,’
‘संवदध्वं,’ ‘वः मनांसि’ ये सब मध्यम पुरुष बहुवचन हैं। यह ईश्वर की ओर से सब मनुष्यों के प्रति
उपदेश है। या ऋषि, उपदेशक, आचार्य इस
ईश्वर- उपदेश को जनसाधरण के लिए व्यक्त करते हैं। यह मन्त्र ऋग्वेद के अन्तिम
सूक्त में आया है, इसलिए भी प्रतीत होता है कि समस्त वेद में
जो कुछ अब तक उपदेश दिया गया, उसका निचोड़ यह है कि
मनुष्य-समाज सर्वोत्कृष्ट हो। सम्बोधन मनुष्यों के प्रति है, क्योंकि मनुष्य ही उपदेश को समझ सकते हैं और मनुष्यों के सामाजिक अनुशासन
के द्वारा ही अन्य पशु-पक्षी लाभान्वित हो सकते हैं।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी (Gregarious
animal) है, अर्थात् यह समूह में रहना पसन्द
करता है। यों तो मनुष्य के अतिरिक्त हिरन, सुअर, बैल, गाय आदि भी झुण्ड बनाकर रहते हैं- कौवे,
कबूतर, चींटियां, मधुमक्खियां
झुण्डों में ही काम करती हैं। परन्तु, मनुष्य समाज को बनाना
और बनाकर उसे सुरक्षित रखना अत्यन्त कठिन है। इसके लिए बुद्धिपूर्वक योजनाओं की
आवश्यकताएं पड़ती है। मधु-मक्खियों का एक-जैसा संगठन अनादि काल से चला आता है। उसके
लिए किसी विशेष समाज-शास्त्र के निर्माण की आवश्यकता नही पड़ती, परन्तु मनुष्य-समाज को ठीक रखने के लिए नित्यप्रति हर देश और हर भाषा में
नवीन शास्त्र रचे जाते हैं, फिर भी यह निर्णय नहीं हो पाता
कि समाज के निर्माण का श्रेष्ठतम साधन क्या हो? मनुष्य के
परस्पर मिलने के तीन रूप हैं- साथ चलना, मिलकर वार्तालाप
करना और मिलकर सोचना। इसमें पहला सूक्ष्म है और पिछला सूक्ष्मतम। ‘गम्’ धातु से चलने के अर्थ में ‘गच्छत’ होना चाहिए था। परन्तु वेद ने ‘गच्छत’ (परस्मैपद) न कहकर आत्मनेपद ‘गच्छध्वम्’ कहा और ‘सम्’
उपसर्ग लगाकर अर्थों में विशेषता उत्पन कर दी। केवल इकट्ठे होने का
नाम समाज नहीं है। लाखों मनुष्यों की भीड़ ‘समाज’ नहीं है। दस आदमियों के सम्मिलन को भी समाज कह सकते हैं, यदि उसमें समाज के गुण हों। संस्कृत भाषाविज्ञों ने ‘समज’ और ‘समाज’ के अर्थों में भेद किया है। यदि बहुत-से पशु कहीं एक स्थान पर इकट्ठे हो
जाते हैं, तो उसको ‘समाज’ न कहकर ‘समज’ कहते हैं,
‘समज’ और ‘समाज’ का धातु तो एक ही है, परन्तु ये एक ही भाव के द्योतक
नहीं। समाज के लिए योजना चाहिए।
‘संगच्छध्वम्- हे
लोगो, साथ चलो!’ साथ कैसे चलें?
सबकी चाल बराबर नहीं। कोई तेज चलता है, किसी
की गति मन्द होती है। मन्द गतिवाला तेज कैसे चलेगा? उसमें
सामर्थ्य नहीं, वेगवाला अपने वेग को क्यों कम कर दे? इससे क्या लाभ? परन्तु, यदि सब
ऐसा ही सोचें तो, कोई समाज बन ही न सकेगा और समाज के न बनने
से व्यक्ति की समुन्नत होने में अशक्त होंगे। क्या कोई बीच का मार्ग है? अवश्य है! किसी फौज को मार्च करते हुए देखिए! हजारों सैनिक हैं, उन सबकी शक्तियां समान नहीं। उनका वेग समान नहीं। परन्तु, उनका नियन्त्रण इस प्रकार का है कि जब एक का बायां पैर उठता है, तभी सबका बायां पैर उठ जाता है। तेज चलनेवाला सैनिक अपनी तेजी को रोकता
है। सुस्त सैनिक कुछ विशेष यत्न करके तेज सैनिक का साथ देता है। तेज मनुष्य का
आत्मनिरीक्षण सुस्त मनुष्य को प्रेरित करता है और उसके वेग में वृद्धि हो जाती है।
यत्न और नियन्त्राण दो साधन हैं, संगमन या साथ चलने के। इनसे
तेज और सुस्त दोनों को लाभ पहुंचता है। जो सेना इस शुभ गुण से सम्पन नहीं होती वह,
सेना नहीं कहलाती और न वह शत्रु पर विजय प्राप्त कर सकती है। आपने
बड़े-बड़े मेलों में देखा होगा कि पुलिस के नियन्त्रित बीस आदमी लाखों की भीड़ को भगा
देते हैं, अतः वेदमन्त्र इस बात पर बल देता है कि किसी जाति
या समाज की उन्नति का स्तर मनुष्यों की गणना या संख्या पर निर्भर नहीं है। उनमें
ऐसा नियन्त्रण भी होना चाहिए कि वे परस्पर मिलकर अपनी गतियों को समन्वित कर सकें।
गतियों को समन्वित करने का
साधन है संवाद या मिलकर स्नेहयुक्त बात करना। तेल या घी को संस्कृत में स्नेह कहते
हैं और स्नेह नाम प्रेम का भी है। स्नेहयुक्त वाणी चलने में समन्वय उत्पन्न कर
देती है। सेनापति की बाएं-दाएं (left, right) की आवाज सुनकर ही
सैनिकों के पैर साथ-साथ पड़ने लगते हैं। ड्रिल के आदेश मानों संवाद ही हैं। बाप
अपने छोटे-से बच्चे को साथ लगाना चाहता है। बच्चा कहता है मैं तेज नहीं चल सकता
मुझमें सामर्थ्य नहीं। बाप उत्तर देता है, ‘बच्चे, कुछ बात नहीं। मैं मन्द गति से चलूंगा, तू मेरी
अंगुली पकड़ ले।’ बच्चा अपनी गति कुछ तेज करता है। संवाद से
प्रेरणा मिलती है। जो तुम्हारा परम शत्रु है उसके साथ भी संवाद करने से शत्रुता कम
हो जाती है। वाणी पैरों की प्रेरिका है। मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो वाणी का ठीक-ठीक प्रयोग कर सकता है। पैर स्थूल हैं, वाणी सूक्ष्म है। परन्तु, वाणी से भी सूक्ष्मतम है,
‘मन’, इसलिए वेदमन्त्र कहता है कि ‘वः मनांसि संजानताम्’ तुम्हारे मन साथ मिलकर विचार करें। विचार सबसे प्रबल वस्तु है, अतः समाज-निर्माण का उत्कृष्ट साधन परस्पर विचार करना है। झगड़ा विचारों के
भेद से आरम्भ होता है। मैं कुछ सोचता हूँ, आप कुछ सोचते हैं,
तो बात-बात पर झगड़ा हो जाता है। मतभेद गाली-गलौज की जड़ है और जब
वाग्युद्ध आरम्भ हो गया, तो स्थूल युद्ध के होने में कोई देर
नहीं लगती। कौरव-पाण्डवों के विचार भिन्न-भिन्न थे, जब
द्रोपदी ने ताना मारा कि ‘अन्धों के अन्धे ही पैदा हुए’
तो कौरवों के हृदय में तीर-सा लगा और उन्होंने ठान ली कि चाहे जो
कुछ हो, पाण्डवों का नाश करना चाहिए। मतभेद के कारण एक घर के
लोग लड़ पड़ते हैं और घर नष्ट हो जाता है। छोटे-छोटे मतभेद बड़े मतभेदों को उत्पन्न
कर देते हैं और थोडी-सी बात पर बड़ी बड़ी लड़ाइयां हो जाती हैं, अतः मनुष्य-समाज के निर्माण का सबसे बड़ा साधन है, बैठकर
विचार-विनिमय करना। सभाएं इसीलिए बनाई जाती हैं कि भिन्न-भिन्न विचारों के लोग
अपना-अपना दृष्टिकोण प्रकट करें। ऐसा करने से सन्धि का कोई-न-कोई उपाय निकल आता
है। पहले से लड़ाई ठानने की इच्छा करनेवाले लोग भी परस्पर विचार करने लगते हैं,
तो बहुधा अपनी जिद को छोड़ने के लिए उद्यत हो जाते हैं। राजनीति के
क्षेत्र में परस्पर विचार-विनिमय (negotiations) को बहुत बड़ा
महत्त्व दिया गया है और संसार का इतिहास बताता है कि प्रायः जनसंहार को रोकने और
मानव-समाज को सुरक्षित रखने में ‘संवदध्वम्’ का उपदेश बड़े काम की चीज है।
जब मनुष्य परस्पर विचार करने
लगता है,
तो उसको स्वहित और परहित के समन्वय का ज्ञान हो जाता है। प्रत्येक
स्वार्थ में स्वलाभ के साथ–साथ स्वहानि छिपी रहती है। यदि
विचार-विनिमय का अवसर मिले, तो यह छिपी हुई हानि प्रकट हो
जाती है और मनुष्य परहित के गौरव को भी अपने विचारों में स्थान देता है।
मन्त्र के अन्तिम चरण में
उदाहरण देकर देव और साधारण मनुष्यों के कर्मों की शैली में भेद बताकर यह सिद्ध
किया है कि एक मार्ग मूर्खों का है और दूसरा विद्वानों का। इस सृष्टि में हिस्सा
तो सभी का है –
मूर्खों का भी और विद्वानों का भी। दोनों प्रकार के लोगों को
जीवन-यात्रा करनी है, दोनों को साधनों की आवश्यकता है,
दोनों का भाग चाहिए। परन्तु विद्वानों और अविद्वानों में अपने-अपने
भाग के प्राप्त करने के अपने-अपने ढंग हैं। आदिकाल से देवों का यह स्वभाव रहा है
कि साथ चलें, साथ संवाद करें और साथ मिलकर विचार करें। मूर्ख
केवल अपना हित देखता है, विद्वान् पराये हित में अपना हित
समझता है, अतः जब वह दूसरों का हित करने लगता है, तो दूसरे उसी का अनुकरण करके उसका हित करते हैं, अतः
सर्वत्र, सर्वथा और सर्वदा सबका हित होता है और समाज समुन्नत
होता है। मूर्ख अपना हित चाहता है, औरों के साथ स्पर्धा,
खींचातानी और संघर्ष चलता है, सब एक-दूसरे को
हानि पहुंचाने का यत्न करते हैं। हर तरफ से हानि पहुंचाने की प्रबल इच्छा और
प्रयत्न हो, तो समाज हानियों का मन्दिर बन जाता है। ऐसा समाज
कैसे स्थापित और सुरक्षित रक्खा जा सकता है। शतपथ-ब्राह्मण में इसी तथ्य का बड़ी
उत्तमता से वर्णन किया है-
प्रजापति के दो सन्तान हैं, देव और असुर। मनुष्यों की दो कोटियां सदा से प्रसिद्ध हैं। अच्छे या देव
और बुरे या असुर। देवों और असुरों में कभी बनती नहीं। वे झगड़ने लगे। असुरों ने
चाहा कि आहुतियां अपने-अपने मुंह में ही डालें, अतः वे नष्ट
हो गये, क्योंकि ‘अतिमान’ अर्थात् स्वार्थ पराभव का मुख या हेतु है। देवों ने एक -दूसरे के मुख में
आहुतियां दी। वे जीत गये, क्योंकि एक-दूसरे की भलाई में
तत्पर रहने का नाम ही यज्ञ है। यज्ञ उसी का है, जो परहित की
भावना रखता है। जो स्वार्थी है, वह यज्ञ कर ही नहीं सकता।
समाज का निर्माण यज्ञ से होता है। यज्ञ का अर्थ है- परोपकार, इससे सबको अपना-अपना भाग मिल जाता है। यह देवों की प्रथा है, यही देव-मार्ग है।
इतिहास इसी तथ्य का साक्षी
है। वर्तमान भारतवर्ष के समक्ष दो इतिहास उपस्थित हैं- एक देवों का, दूसरा असुरों का। रामायण पर दृष्टि डालिए। राजा दशरथ के चार पुत्र हैं।
राज्यरुपी आहुति किसके मुख में डाली जाए? राम कहते हैं भरत
के मुख में। भरत कहते हैं राम के मुख में। परिणाम यह होता है कि राज्य सभी का हो
जाता है और अनन्त काल तक समाज के लिए एक आदर्श बन जाता है। ‘रामराज्य’
के लिए आज भी लोग तड़पते हैं। इसके विपरीत दूसरा उदाहरण है भारत के
मुगल सम्राट् शाहजहां का। उसके भी चार लड़के थे और भारतवर्ष का बड़ा साम्राज्य था।
चारों ने उसको हड़पने का यत्न किया। चारों ने अपने-अपने मुंह में आहुतियां डाली। यह
तो देवों की प्रथा नहीं थी, असुरों की प्रथा थी। शास्त्र की
बात ठीक सिद्ध हुई कि अतिमान पराभव का मुख है। न केवल चारों पुत्र ही प्रनष्ट हुए,
मुगलराज्य की श्री भी सदा के लिए लोप हो गई और मानवजाति के इतिहास
में एक बड़ी दूषित मिसाल छोड़ गई।
सुमति का अर्थ है कि – परस्पर मिलकर विचार करो। विचारों से वाणी शुद्ध बनेगी और वाणी से कार्यों
में एकता आएगी।
आठवां मन्त्र
कुर्वन्नेवेह कर्माणि
जिजीविषेच्छतं समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न
कर्म लिप्यते नरे।।
-यजुर्वेद अध्याय ४0,
मन्त्र २
अर्थ– इस संसार में कर्मों को करते हुए ही मनुष्य सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करे।
यही एक साधन है, जिसके द्वारा तुझ मनुष्य में कर्म लिप्त न होंगे।
इसके भिन्न दूसरा कोई मार्ग नहीं है।
व्याख्या– इस मन्त्र में ‘कर्म’ का गौरव
और माहात्म्य दिखाया गया है। विस्तृत व्याख्या करने से पहले, मुख्य भावना को समझने का यत्न करना चाहिए। जब एक बार भावना हृदयंगम हो
जाती है, तो अन्य तत्सम्बन्धी बारीक बातें समझने में सुगमता
होती है। मुख्य भावना यह है- ‘कर्म करो तभी कर्म के बन्धनों
से छुटकारा मिलेगा।’ कर्म क्या है और कर्म का बन्धन क्या है?
इसके लिए एक दृष्टान्त पर विचार कीजिए। एक चोर ने चोरी की। चोरी एक
कर्म था। शासन की ओर से उसे कारागार मिला। यह कारागार ही कर्म का बन्धन है,
बन्धन ही दुख का लक्षण है। कैदी जेल में बन्द है। यह बन्धन है। वह
नहीं चाहता, फिर भी चक्की पीसनी पड़ती है, यह बन्धन है। कहीं आ-जा नहीं सकता, यह कर्म का बन्धन
है। किसी अपने प्यारे से मिल नहीं सकता, यही बन्धन है। ये सब
कर्म के बन्धन हुए। कर्म था चोरी, कर्म के बन्धन हुए वे कर्म,
जो बिना इच्छा के जबरदस्ती करने पड़ते हैं। वेदमन्त्र कहता है कि इन
कर्म के बन्धनों से छुटकारा पाने के लिए भी निरन्तर कर्म करने चाहिए। उन कर्मों का
प्रकार भिन्न होगा। उनकी प्रकृति भी भिन्न होगी। उनके लक्षण भी भिन्न होंगे,
परन्तु वे होंगे ‘कर्म’ ही।
कर्म के बन्धन, बिना कर्म किये नहीं छूट सकते। अनाचार दोष से
रोग उत्पन्न होता है। उपचार से रोग दूर होता है। अनाचार भी कर्म था, जिसका बन्धन हुआ रोग। उपचार भी कर्म है, परन्तु
भिन्न प्रकार का, इसलिए वह ‘बन्धन’
को छुड़ाने वाला है, बन्धन को कड़ा करनेवाला
नहीं।
यह प्रश्न केवल दार्शनिक
नहीं,
लोक-व्यवहार की नित्य की चीज है। हम रोज तकदीर और तदबीर की बहस
सुनते हैं। तकदीर बन्धन है और तदबीर कर्म है। जीवन में हम सैकड़ों बन्धन देखते हैं।
जिनको हमने नहीं बनाया। वे बन्धन कहीं से बने-बनाये आ गये। जेल के विशाल भवन को
चोर ने नहीं बनाया। किसी और शक्ति ने जबरदस्ती उस पर यह बन्धन थोप दिया। वह जकड़ा
है। जैसा तकदीर में दिया है, होगा। इससे छुटकारा नहीं। कुछ
लोग कहते हैं कि खुदा जो चाहता है, करता है, जिसको चाहता है सन्मार्ग दिखाता है, जिसको चाहता है ‘गुमराह’ करता है। अल्लाह की मर्जी के विरुद्ध हो भी
क्या सकता है? सरकार जबरदस्त है, उसने
मजबूत जेलखाना बनाकर उसमें चोर को ठूंस दिया। कितनी ही भागने की तदबीर करो,
भाग नहीं सकते। इसलिए, उस घड़ी की प्रतीक्षा
करो जब ईश्वर की ही मर्जी हो और वह बन्धन से मुक्त कर दे। ऐसे तकदीर के गुलामों की
संख्या ईश्वर-भक्तों में सबसे अधिक है। इसका परिणाम है ‘आलस्य’,
क्रियाहीनता। आलस्य के साथ इसी के बहुत से बाल बच्चे हैं, जो अन्य रूपों में प्रकट होते हैं और बन्धनों को जकड़ते हैं। कुछ ऐसे भी
हैं, जो बन्धन से छूटने के लिए हाथ पैर मारते हैं। कोई जेल
की दीवार फांदकर भागता है। कोई खिड़कियों की छड़ों को तोड़ देता है। कोई चौकीदार की
आंख में धूल डालता है। इसको आप तदबीर कह सकते है। तदबीर के नाम पर सहस्रों पातक
किये जाते हैं, जिनसे बन्धन ढीले नहीं होते, अधिक कड़े हो जाते हैं। यह ‘तदबीर’ थे तो कर्म, परन्तु सोचकर नहीं किये गये थे, अतः ऐसे कर्म छुटकारे के हेतु सिद्ध नहीं होते।
कर्म करना मनुष्य का स्वभाव
है। कर्म करना संसार की हर वस्तु का स्वभाव है। मनुष्य भी इसी संसार का एक भाग है।
सारी मशीन चलती है तो ऐसा कौन-सा पुर्जा है, जो बिना चले रह
सके। लेकिन एक काम इच्छा से किया जाता है और एक बिना इच्छा के। जीते तो सभी हैं,
परन्तु जीकर क्या करेंगे, ऐसा तो बहुत कम लोग
सोचते हैं। इसलिए वेदमन्त्र में एक शब्द आया है ‘जिजीविषेत्’। इस रहस्य का सौन्दर्य समझने के लिए कुछ संस्कृत व्याकरण का पारिभाषिक
ज्ञान आवश्यक है। मनुष्य को चाहिए कि जीने की इच्छा करे। किस प्रकार? कर्म करते हुए ही, बिना कर्मों को करने की इच्छा के
जीने की इच्छा से कोई लाभ नहीं। यदि कुदरत को यह मंजूर न होता कि हम चलें तो हमको
पैर न मिलने चाहिए थे, यदि यह मंजूर न होता कि हम देखें तो
आंखे देना निरर्थक था। इसलिए कुदरत ने हमारे शरीर के प्रत्येक अवयव में कुछ ऐसी
प्रेरणा दी हुई है कि निरन्तर काम करना ही है। भेद केवल इतना ही है कि जो काम हम
अपनी इच्छा से करते हैं, उसके करने में मजा आता है। लोग
नित्य सैर को जाते हैं। परन्तु यदि, सरकार आदेश दे दे कि
तुमको अवश्य ही सैर को जाना पड़ेगा, तो सैर भी जान का बबाल हो
जाती है। इसलिए, वेदमन्त्र में उपदेश है कि पहले से ही ऐसी
इच्छा करो कि सौ वर्ष जीना है, तो निष्क्रिय न होकर अपितु
कार्यक्रम बनाकर निरन्तर कर्म करने की योजना भी हो और इच्छा भी। सभी जीते रहना
चाहते हैं। उनसे पूछो ‘‘क्यों? किस काम
के लिए?’’ तो इसका उनके पास कोई उत्तर नहीं है। यदि दो वर्ष
और जीते रहो तो क्या करोगे? विचारा नहीं। ‘बस खायेंगे, पियेंगे, मौज
करेंगे।’ खाना-पीना और मौज करना कर्म तो नहीं। ये तो जीवन के
साधनमात्र हैं। खाना आसान है, पीना आसान है, परन्तु मौज करना तो आसान नहीं। (Eat you can, drink you can. But,
you cannot be merry) इसलिए कर्म करने की प्रबल इच्छा होनी चाहिए।
जो बुद्धिमत्ता से कर्मों की योजना बनाता है और उस पर चलने का यत्न करता है,
उसका बन्धन छूट जाता है। जेल का जो कैदी जेल में रहकर नियुक्त कर्म
करता रहता है, वह जेल के बन्धन से अवश्य छूट जाता है। कर्मों
के करने में तीन प्रकार के दोष आ सकते हैं- कर्त्तव्य को न करना, अकर्त्तव्य का करना, कर्त्तव्य का उलटा करना। ये
तीनों प्रकार के दोष कर्मबन्धन के कारण होते हैं। यदि गेहूं न बोये जाएं तो गेहूँ
पैदा न होगा, उगे हुए गेहूं में अधिक पानी देना, इससे गेहूं उत्पन्न होकर नष्ट हो जायेंगे और गेहूं के स्थान पर जौ बो देना,
तब भी गेहूं पैदा न होगा, अतः कर्तव्य कर्म के
करने पर ही बन्धन छूटेगा। गीता में इसी वेदमन्त्र पर आधरित एक श्लोक है-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा
फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते
संगोऽस्त्वकर्मणि।।
—-
इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि
बिना सोचे-समझे,
अर्थात् किस कर्म से क्या फल होगा, किसी काम
को कर दिया जाए। कर्म की प्रेरणा ही उसके फल की दृष्टि से होती है। गेहूं बोनेवाला
पहले देख लेता है कि गेहूं उगाने रूपी फल की प्राप्ति तभी होगी, जब गेहूं बोया जाएगा।
—-
यहां फल की, न उपेक्षा है न अवहेलना। प्रश्न यहां चिन्तन का है। जब यह निश्चित हो गया
कि अमुक कर्म हमारा कर्तव्य है, तो फल का चिन्तन छोड़ देना
चाहिए। फल की प्रेरणा आरम्भ में होती है, परन्तु यदि
कर्तव्य-पालन के समय मन में फल की उत्कण्ठा आती रहेगी, तो मन
में दुविधा उत्पन्न हो जाएगी और कर्त्तव्य के यथेष्ट फल में बाधा होगी। कर्म का फल
तुम्हारे हाथ में नहीं। इसके लिए एक दृष्टान्त लीजिए-
आप सरकारी दफ्तर में क्लर्क
हैं। आपने पद को स्वीकार ही तब किया जब आपको निश्चित हो गया कि अमुक वेतन मिलेगा, परन्तु जब आप अपने काम में लगे तो वेतन आपके चिन्तनक्षेत्र का विषय नहीं
रहा। कार्यालय का कार्य ही एकमात्र चिन्तन का विषय है, वेतन
आपके शासक के चिन्तक का विषय है, अतः जो सेवक सेवा का ध्यान
छोड़कर, हर घड़ी वेतन पर दृष्टि रखता है, वह अपने पद का काम न करके अनेक भूलें करता हैं, क्योंकि
वह कर्म का हेतु न होकर कर्मफल का हेतु बन जाता है। गीता में कहा है कि तेरा अकर्म
से सम्पर्क न होना चाहिए।
कर्महीनता का नाम अकर्म है
और उलटे काम का नाम विकर्म है।
—-
यहां एक बात स्पष्ट कर देनी
चाहिए। ‘कर्मकाण्ड’ के अर्थों में भी बहुत-कुछ विकार हुआ है।
श्री शंकर स्वामी के समय में कर्मकाण्ड का केवल यही अर्थ लिया जाता था कि यज्ञों
के विषय में प्रचलित कुछ क्रियाएं करना, जैसे पात्र साफ करना,
वेदी बनाना, अमुक मन्त्र पढ़कर चावल निकालना या
पकाना या अमुक मन्त्र पढ़कर अमुक आहुति देना। सम्भव है कि किसी अंश तक यह कर्मकाण्ड
का बाह्यरूप रहा हो, परन्तु यह वास्तविक कर्मकाण्ड नहीं है।
केवल ‘हल’ का एक मन्त्र पढ़कर उठा लेने
का नाम कृषि-कर्म नहीं है और न व्यापार-सम्बन्धी किसी मन्त्र के पढ़ देने का नाम
व्यापार है। समिधा कितनी बड़ी हो, यह कर्मकाण्ड नहीं। सम्भव
है कि वेदानुयायी को ऐसे निरर्थक कृत्यों से बचाने के लिए ही शंकर स्वामी ने इस
प्रकार के तर्कों का प्रयोग किया हो, क्योंकि उस युग के
कुमारिल भट्ट या मंडन मिश्र आदि ऐसे ही कर्मकाण्ड के प्रचारक थे और महात्मा बुद्ध
आदि ने इसी जाल से मनुष्यों को सुरक्षित रखने के लिए वेदों का विरोध् किया था,
परन्तु यह तो कल्पित उपचार था जिसने एक रोग दूर करने के लिए दूसरा
रोग उत्पन्न कर दिया। कर्म के जाल से छूटने के प्रयत्न ने लोगों को नास्तिक बना
दिया। कर्मकाण्ड के जाल से छूटे तो मायाजाल के शिकार हो गये। इससे कर्म का बन्धन
तो नहीं छूटा। कर्म अर्थात वैदक कर्म अवश्य ही छूट गये। देश निरुद्यम हो गया। कर्म
और ज्ञान के बीच अकम्प पर्वत खड़ा हो गया। परन्तु यह पर्वत भाष्यकारों की कल्पना का
फल है। कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड के बीच से इस व्यवधान को हटाने की आवश्यकता है और
यह बात केवल यथेष्ट स्वाध्याय से ही पूरी हो सकती है।
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