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चाणक्य नीति, चाणक्य सूत्र पहला अध्याय, Complete Chanakya Niti, Chanakya Sutra Sanskrit Hindi, And English

 

संपूर्ण चाणक्य नीति, चाणक्य सूत्र

Complete Chanakya Niti, Chanakya Sutra


    विश्वमित्र

विश्वप्रसिद्ध कूटनीतिज्ञ, अर्थशास्त्री तथा शिक्षक का नीतिज्ञान तथा जीवनवृत्त

संपूर्ण चाणक्य नीति, चाणक्य सूत्र और जीवन-गाथा : विश्वमित्र शर्मा

वह चणक का पुत्र होने के नाते चाणक्य था। उसकी चालें शत्रु की पकड़ में नहीं आती थीं, अति कुटिल थीं, इसीलिए उसे लोगों ने नाम दिया था-- कौटिल्य।

वह दिखने में जितना कठोर था, उतना ही सहृदय भी था। राजनीति की बिसात पर टेढ़ी-मेढ़ी चालों का खिलाड़ी होने पर भी वह सच्चा महात्मा था। उसके लिए सुख-वैभव, पद आदि महत्वपूर्ण नहीं थे, महत्वपूर्ण था देश का अखंड गौरव। अखंड भारत के उस स्वप्न को साकार करने के लिए वह न कहीं रुका, न कहीं झुका।


     Ethics and biography of world famous diplomat, economist and teacher

    Complete Chanakya Niti, Chanakya Sutra and Life Story : Vishwamitra Sharma

    He was Chanakya being the son of Chanak. His tricks were not caught by the enemy, he was very crooked, that is why people gave him the name - Kautilya.

    He was as tough as he looked, but he was also kind. He was a true Mahatma in spite of being a player of crooked tricks on the board of politics. For him, happiness, glory, position etc. were not important, what was important was the unbroken pride of the country. He neither stopped nor bowed down to realize that dream of a united India.


तदहं संप्रवक्ष्यामि लोकानां हितकाम्यया।

येन विज्ञानमात्रेण सर्वज्ञत्वं प्रपद्यते।।

मैं लोगों की भलाई की इच्छा से (राजनीति के) उन गूढ़ रहस्यों का वर्णन कर रहा हूं, जिन्हें जान लेने मात्र से मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है अर्थात्‌ और कुछ जानना उसके लिए शेष नहीं रह जाता।

 

प्रकाशकीय

नीति का शाब्दिक अर्थ है--जो आगे ले जाए। इस प्रकार अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए जो नियम या सिद्धांत निर्धारित किए जाते हैं, वह भी नीति शब्द में समाहित हैं। 'सुव्यवस्था' भी नीति का अर्थ है। इसके संदर्भ व्यक्तिगत, सामाजिक और राजनीतिक अलग-अलग या कुल मिलाकर सब एक साथ भी हो सकते हैं। इस तरह नीति' का इतिहास यदि देखें, तो इसके अस्तित्व को मानव सभ्यता के विकास के साथ ही स्वीकार करना पड़ेगा। अपने क्षेत्र अपनी जाति और अपने अस्तित्व को बनाए रखने और विकसित करने के रूप में इसे समूची प्रकृति और इसके सभी प्राणियों में भी देखा जा सकता है।

नीति शास्त्र के आचार्यों की वैसे तो बहुत लंबी परंपरा है लेकिन शुक्राचार्य, आचार्य बृहस्पति, महात्मा विदुर और आचार्य चाणक्य इनमें प्रमुख हैं। आचार्य चाणक्य ने श्लोक और सूत्र दोनों रूपों में नीति शास्त्र का व्याख्यान किया है। अपने ग्रंथों के प्रारंभ में ही वे अपने पूर्ववर्ती आचार्यों को नमन करते हुए स्पष्ट कर देते हैं कि वो कुछ नया नहीं बता रहे हैं, वे उन्हीं सिद्धांतों का प्रतिपादन कर रहे हैं, जिन्हें विरासत में उन्होंने प्राप्त किया है और जो बदलते परिवेश में भी अत्यंत व्यावहारिक हैं। आचार्य क्योंकि राजनीति और अर्थशास्त्र के शिक्षक हैं, इसलिए वे जानते हैं शिक्षा की वास्तविकता को। वो जानते हैं कि पुस्तकों पर अनुभव हावी हुआ करता है, और यह भी कि ग्रंथों का निर्माण अनुभवों का ही संकलन और संग्रह है इसलिए इन रचनाओं के प्रति कर्तापन का अभिमान कैसा!

आचार्य चाणक्य का जीवन पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है कि सत्य की समझ रखना ही पर्याप्त नहीं है, जरूरी है कि अन्याय के विरुद्ध संघर्ष भी किया जाए। तटस्थ रहना साहसी और पराक्रमी व्यक्ति का स्वभाव नहीं होता। लोगों का मानना है कि सज्जन व्यक्ति का स्वभाव कुटिलता के योग्य नहीं होता। उसके लिए तो कुटिलता का नाटक कर पाना भी संभव नहीं है। लेकिन चाणक्य ने सिद्ध कर दिया कि अपने स्वभाव को बनाए रखते हुए अर्थात्‌ भीतर से सज्जन बने रहते हुए भी दुष्टों को उन्हीं की भाषा में जवाब दिया जा सकता है। श्रीकृष्ण और श्रीराम जैसे महान पुरुष इसका उदाहरण हैं। हां, इसके लिए मन को विशेष प्रकार से प्रशिक्षित करना पड़ता है। श्रीकृष्ण ने धर्म युद्ध में भी अधर्मका प्रयोग किया। धर्मराज युधिष्ठिर को भी झूठ बोलने के लिए बाधित किया। क्यों? इसलिए कि शठों से शठता' का व्यवहार करना चाहिए। ऐसा करते समय विचारणीय यह है कि वह व्यवहार या प्रतिक्रिया स्वार्थ के लिए की जा रही है या कि उसमें जनहित की भावना समाहित है। दुष्टों का विनाश होना ही चाहिए, भले ही साधन कोई भी हो। अनासक्त भाव से किया गया कर्म पाप-पुण्य की सीमा से परे होता है--ऐसा दार्शनिक सिद्धांत है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन को यही उपदेश दिया है।

उपरोक्त सत्य को समझने के लिए महर्षि विश्वामित्र के वो निर्देश अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, जो उन्होंने सिद्धाश्रम में प्रवेश करने से पहले राम को दिए थे। उन्होंने कहा था, “राम! सावधान हो जाओ। अब घोर जंगल प्रारंभ हो चुका है। यहां सतर्क रहना इसलिए आवश्यक है कि राक्षस किसी भी समय छुपकर घात कर सकते हैं। और इनकी स्वामिनी ताड़का बिना किसी शस्त्र के हमारे मार्ग को रोक कर कभी भी खड़ी हो सकती है। तब तुम बेहिचक उसका संहार कर देना। अनार्यों से युद्ध करते समय आर्य नियमों का पालन करना विपत्ति में डाल सकता है। बुद्धिमान को चाहिए कि विपत्ति को आने ही न दे।विश्वामित्र की बात सही थी। राक्षसों को धनुष-बाणधारी क्षत्रिय कुमारों के आने का समाचार मिला और उन्होंने अपनी स्वामिनी के साथ मिलकर उन पर आक्रमण कर दिया। श्रीराम ने महर्षि के निर्देशानुसार अपना कार्य किया। उन्होंने ताड़का को देखते ही, बिना यह सोचे कि वह स्त्री है और निहत्थी है, एक ही बाण से ढेर कर दिया।

चाणक्य का कौटिल्य बनना जनहित के लिए था। उनका स्वप्न था अखंड भारत। इसी के लिए उन्होंने शत्रुओं को उन्हीं की चाल से मात दी। आचार्य द्वारा चलाया गया अभियान आत्मरक्षा' का एक अंतिम प्रयास था। इससे चूकने का अर्थ था भारत के अस्तित्व को समाप्त कर देना। जरा सोचकर देखो, यदि आचार्य ने तत्कालीन परिस्थितियों का विरोध न किया होता, विकल्प के रूप में चंद्रगुप्त को स्थापित न किया होता, तो आज के भारत का स्वरूप कैसा होता। नंद के प्रधान अमात्य को चंद्रगुप्त के साथ जोड़ना और उसे गरिमामंडित करते हुए प्रधान अमात्य के पद पर प्रतिष्ठित करना आचार्य की अप्रतिम सूझ- बूझ और हृदय की विशालता का ही तो उदाहरण है। गुणी को गुणों का सम्मान करना चाहिए। उसके लिए व्यक्तिगत मतभेद मायने नहीं रखते, महत्वपूर्ण होता है जनहित।

आचार्य द्वारा लिखित नीतिशास्त्र के ग्रंथों को पढ़कर लगता है कि वे बहुआयामी व्यक्तित्व के पक्षधर थे। इसीलिए उन्होंने वर्णाश्रम के कर्तव्यों की चर्चा भी स्थान-स्थान पर की है। नीति में धर्म और अध्यात्म को आचार्य ने पूरा स्थान दिया है। उनकी दृष्टि में राजनीति यदि धर्म से दूर चली जाए, तो उसके भटक जाने की संभावना सौ प्रतिशत हो जाती है। धर्मनीति को सोच की व्यापकता प्रदान करती है।

यहां एक बात स्पष्ट रूप से हमें समझ लेनी चाहिए कि आचार्य के समय की मान्यताएं और सामाजिक व्यवस्था आज से कई मायने में बिलकुल भिन्न है। जाति-वर्ण व्यवस्था अब बहुत कमजोर हो चुकी है। ग्रंथ में लिखे गए कुछ शब्दों और मान्यताओं को लेकर स्वस्थ प्रतिक्रिया करना अच्छी बात है, लेकिन उस संदर्भ में मूलग्रंथ में घटाने-बढ़ाने का दुराग्रह करना हमारी नासमझी को ही प्रदर्शित करता है। इतिहास के कड़वे-मीठे तथ्यों को उधेड़ कर फेंका नहीं जा सकता। बदलाव के लिए समझ और धैर्य की आवश्यकता है। इसीलिए आज के समय में आपत्तिजनक कहे जाने वाले अंशों को बिना छेड़े उस पर अलग से टिप्पणी दे दी गई है। उन पर आप प्रबुद्ध पाठकों के सुझावों का हार्दिक स्वागत है।

श्लोकों को याद रखना कठिन कार्य है लेकिन *सूत्र' इस मायने में महत्वपूर्ण हैं। 585 सूत्रों को कंठाग्र करने के लिए यदि रोज एक घंटे का समय दिया जाए, तो दो-चार महीने में उन्हें आसानी से आत्मसात्‌ किया जा सकता है। आत्मचिंतन के समय ये सुगमता से स्मृतिपटल पर आ जाते हैं। इसी बात को ध्यान में रखते हुए अलग से '“सूत्रों' को दिया गया है। इनका प्रयोग परस्पर बातचीत याकि भाषण आदि में करके आप अपने व्यक्तित्व की गरिमा को भी लोगों के बीच स्थापित कर सकते हैं। हमें विश्वास है कि यह ग्रंथ आपके व्यक्तित्व को सुसंगठित करने तथा निखारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।  

जिस प्रकार विज्ञान में सुनिश्चित सिद्धांतों की खोज की जाती है और उनकी पुष्टि बार-बार किए गए प्रयोगों से एकसमान प्राप्त निष्कर्षों से होती है, उसी प्रकार नीतिशास्त्र की भी एक सुनिश्चित परंपरा है। इसके निष्कर्ष भी प्रत्येक स्थिति-परिस्थिति में एकसमान हैं। इसीलिए आचार्य चाणक्य ने नीतिशास्त्र को विज्ञान कहा है। वे इस ज्ञान के द्वारा 'सर्वज्ञ' होने की बात भी कहते हैं। यहां सर्वज्ञ होने का अर्थ है अतीत, वर्तमान और भविष्य का विश्लेषण करने की क्षमता प्राप्त कर लेना।

 

    “For the good of the people, I am describing those esoteric mysteries (of politics) by knowing which a man becomes omniscient, that is, nothing remains for him to know.”


optical

    The literal meaning of policy is - that which takes forward. In this way the rules or principles which are set to achieve their goals are also included in the word policy. 'Order' also means policy. Its references can be personal, social and political separately or all together. In this way, if we look at the history of "policy", then its existence will have to be accepted with the development of human civilization. It can also be seen in the whole of nature and in all its beings, as maintaining and developing its territory, its species and its existence.

    Although there is a very long tradition of the teachers of ethics, but Shukracharya, Acharya Brihaspati, Mahatma Vidur and Acharya Chanakya are prominent among them. Acharya Chanakya has given lectures on ethics in both verses and sutras. At the very beginning of his texts, he bows down to his predecessors and makes it clear that he is not telling anything new, he is propounding the same principles, which he has inherited and which are very important even in the changing environment. are practical. Acharya is a teacher of politics and economics, so he knows the reality of education. They know that experience prevails over books, and also that the creation of texts is a collection and collection of experiences, so what pride of doership towards these works!

    Reading the life of Acharya Chanakya, it becomes clear that it is not enough to have an understanding of truth, it is necessary to fight against injustice. It is not the nature of a courageous and mighty person to be neutral. People believe that the nature of a gentleman is not worthy of wickedness. It is not possible for him to even pretend to be crooked. But Chanakya proved that the wicked can be answered in his own language, even while maintaining his nature, that is, remaining gentleman from within. Great men like Shri Krishna and Shri Ram are examples of this. Yes, for this the mind has to be trained in a special way. Shri Krishna also used "adharma" in the Dharma Yudh. Dharmaraja also interrupted Yudhishthira to lie. Why? Because one should behave with "shatters with stoicism". While doing so, it is to be considered whether that behavior or reaction is being done for selfishness or whether it involves a sense of public interest. The wicked must be destroyed, whatever the means. Karma done in the spirit of non-attachment is beyond the limits of sin-virtue – such is the philosophical principle. This is what Lord Krishna has given to Arjuna in the Gita.

    To understand the above truth, the instructions of Maharishi Vishwamitra which he gave to Rama before entering Siddhashram are very important. He said, "Ram! Be careful. Now the wilderness has started. It is necessary to be careful here because the monsters can hide and kill at any time. And his mistress Tadka can stand anytime without any weapon blocking our path. Then you kill him without any hesitation. Following Aryan rules while fighting with non-Aryans can put you in trouble. The wise should not allow calamity to come." Vishwamitra was right. The demons got the news of the arrival of the bow-armed Kshatriya Kumars and they attacked them together with their mistress. Shri Ram did his work as per the instructions of Maharishi. On seeing Tadka, without thinking that she was a woman and unarmed, he killed her with a single arrow.

        Chanakya's becoming Kautilya was for the public interest. His dream was a united India. For this he defeated the enemies with his own tricks. The campaign launched by Acharya was a last attempt of "self-defense". To miss this meant the end of India's existence. Just think and see, if Acharya had not opposed the then circumstances, had not installed Chandragupta as an alternative, then what would be the form of today's India. Connecting Nanda's chief Amatya with Chandragupta and consecrating him in the position of head Amatya, is an example of Acharya's unmatched wisdom and vastness of heart. The virtuous should respect the virtues. Personal differences do not matter to him, what matters is the public interest.

    After reading the texts of ethics written by Acharya, it seems that he was in favor of multidimensional personality. That is why he has also discussed the duties of Varnashram from place to place. “Acharya has given full place to religion and spirituality in the policy. According to him, if politics moves away from religion, then the chances of it going astray become one hundred percent. Provides broadness of thinking to religion.

    Here one thing should be clearly understood that the beliefs and social system of Acharya's time are completely different from today in many respects. The caste-varna system has become very weak now. It is good to have a healthy reaction to some of the words and beliefs written in the book, but in that context, to make a difference in the original text only shows our misunderstanding. The bitter and sweet facts of history cannot be thrown away. Change requires understanding and patience. That's why in today's time what are called objectionable A separate comment has been given on the same without teasing out the parts. Suggestions from you enlightened readers are warmly welcome on them.

    Memorizing shlokas is a difficult task but sutras are important in this sense. If one hour is given every day to concentrate on 585 sutras, then they can be easily assimilated in two-four months. At the time of introspection, they easily come to the memory board. Keeping this in view, a separate "sources" have been given. By using them in mutual conversation or speech etc., you can establish the dignity of your personality among people. We believe that this book will play an important role in shaping and enhancing your personality.

    Just as definite principles are discovered in science and they are confirmed by the same conclusions obtained from repeated experiments, similarly ethics also has a definite tradition. Its conclusions are also the same in every situation. That is why Acharya Chanakya has called ethics as science. He also talks about being 'omniscient' through this knowledge. To be omniscient here means to acquire the ability to analyze past, present and future.


मनसा चिन्तितं कार्य वाचा नैव प्रकाशयेत्‌।

मन्त्रेण रक्षयेद्‌ गूढं कार्ये चाउपि नियोजयेत्‌।।

मन से सोचे हुए कार्य को वाणी द्वारा प्रकट नहीं करना चाहिए, परंतु मननपूर्वक भली प्रकार सोचते हुए उसकी रक्षा करनी चाहिए और चुप रहते हुए उस सोची हुई बात को कार्यरूप में बदलना चाहिए।

 

इन्द्रियाणि च संयम्पय बकवत्‌ पण्डितो नर:।

देशकालबले ज्ञात्वा सर्वकार्याणि साधयेत्‌।।

बुद्धिमान व्यक्ति को अपनी इन्द्रियों को वश में करके समय के अनुरूप अपनी क्षमता को तौलकर बगुले के समान अपने कार्य को सिद्ध करना चाहिए

परस्परस्य मर्माणि ये भाषन्ते नराधमा:।

त एवं विलयं यान्ति वल्मीकोदरसर्पवत्‌।।

जो लोग एक-दूसरे के भेदों को प्रकट करते हैं, वे उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जैसे बांबी में फेसकर सांप नष्ट हो जाता है।

 

प्रस्तावना

क्या कर रहे हो?” “कुश तो पवित्र हैं, इन पर क्रोध करना अच्छा नहीं।जो कष्ट पहुंचाए, उसे जीने का हक नहीं। उसे नष्ट करना ही पुण्य है।”- “लेकिन कुश तो नष्ट नहीं होते, अवसर पाकर फिर फैल जाते हैं।” “नहीं! मैं ऐसा नहीं होने दूंगा। इसकी दोबारा होने की सभी संभावनाओं को जलाकर राख कर दूंगा। शत्रु को निर्मूल करने पर विश्वास करता हूं मैं।बालक के पैरों में कुश नामक घास चुभी थी। अतः उसने कुश को ही निर्मूल कर दिया। खोद-खोदकर उसकी जड़ों में मठा डालकर बची-खुची छोटी-छोटी जड़ों को भी जला दिया था उसने।

योग्य आचार्य ने बालक में छिपी संभावनाओं को पहचान लिया था। ऐसा आत्मविश्वास और प्रबल इच्छाशक्ति ही व्यक्तित्व को ऊंचाइयों पर पहुंचाती है। ऐसे में यदि जनसंवेदना का पुट मिल जाए, तो व्यक्ति इतिहास पुरुष ही बनता है और ऐसा ही हुआ भी। लगभग दो हजार वर्ष पूर्व भारत के इतिहास को जिस बालक ने एक स्वर्णिम मोड़ दिया, वही बालक बड़ा होकर चाणक्य बना। उसका असली नाम था-- विष्णुगुप्त। उसकी कूटनीतिक विलक्षणता की वजह से लोग उसे कौटिल्य भी कहते थे।


यह घटना तब की है, जब विश्व के मानचित्र पर कुछ देशों का कहीं कोई अता- पता नहीं था, लेकिन भारत की सभ्यता और संस्कृति अपने पूर्ण यौवन पर थी। धर्म, दर्शन और अध्यात्म की ही नहीं, राजनीति तथा अर्थशास्त्र जैसे विषयों की शिक्षा लेने के लिए भी विदेशों से विद्यार्थी भारत भूमि पर आया करते थे। यहां तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्वविद्यालय थे। आचार्य चाणक्य तक्षशिला में राजनीति तथा अर्थशास्त्र के आचार्य थे।

भारत की सीमाएं उस समय अफगानिस्तान से लेकर बर्मा (म्यांमार) तक तथा कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक फैली हुई थीं। उस समय भारत सोने की चिड़िया था। विदेशी आक्रांताओं को भारत की समृद्धि खटक रही थी लेकिन उनमें हिम्मत नहीं थी कि वे हिंदुस्तान के रणबाकुंरों का सामना कर सकें। अंततः उन्होंने दान और भेद की नीति का सहारा लेकर मगध के शासक धर्मनंद की कमियों को पहचान लिया और उसे अपने पाश में भी कस लिया था। वर्तमान के पटना तथा तत्कालीन पाटलिपुत्र के आसपास फैला पूर्व-उत्तर की सीमाओं को छूता हुआ एक विशाल और शक्तिशाली वैभव संपन्न राज्य था--मगध। मगध के सिंहासन पर आसीन धर्मनंद सुरा-सुंदरी में इतना डूब चुका था कि उसे राजकार्यों को देखने की फुरसत ही नहीं थी। वह अपनी मौजमस्ती के लिए प्रजा पर अत्याचार करता। जो भी आवाज उठाता, उसे कुचल दिया जाता। चणक को भी जनहित के लिए उठाई गई आवाज की सजा मिली थी। उस महान आचार्य को मौत के घाट उतार दिया गया था। 

एक-एक करके हुई हृदय विदारक घटनाएं चणक पुत्र चाणक्य के हृदय में फांस की तरह धंसी हुई थीं। एक दिन जब राजसभा में समूचे आर्यावर्त की स्थिति का विवेचन करते हुए चाणक्य ने मगधराज धर्मनंद को उनका कर्तव्य याद दिलाया तो वह झुंझला उठा। उसने चाणक्य को दरबार से धक्के मारकर निकाल फेंकने का आदेश दिया। सैनिकों के चाणक्य को धक्के मारकर दरबार से निकालने की कोशिश के बीच चाणक्य की शिखा खुल गई। यह चाणक्य का ही नहीं, देश की उस आवाज का भी अपमान था, जो अपने राजा के सामने अंधकार में विलीन होते अपने भविष्य को बचाने की गुहार कर रही थी। उसी समय चाणक्य ने प्रतिज्ञा कर ली-अब यह शिखा तभी बंधेगी, जब नंदवंश का समूल नाश हो जाएगा।'

चाणक्य ने अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए चंद्रगुप्त को चुना। चंद्रगुप्त में छिपी संभावनाओं को चाणक्य ने एक-एक करके तराशा। सोचे हुए कार्य को मूर्त्त रूप देना चाणक्य के लिए आसान नहीं था। मकदूनियां के छोटे से प्रदेश से सिकंदर नामक आंधी की गर्द भारत की सीमाओं पर छाने लगी थी। कंधार के राजकुमार आम्भी ने सिकंदर से गुप्त संधि कर ली थी। पर्वतेश्वर (पोरस) ने सिकंदर की सेनाओं का डटकर सामना किया, लेकिन सिकंदर की रणनीति ने पांसा पलट दिया। सिकंदर की ओर से हुई बाणवर्षा से घबराई पोरस की जुझारू गजसेना ने अपनी ही सेना को रौंदना शुरू कर दिया। पोरस की हार हुई और उसे बंदी बना लिया गया। सिकंदर द्वारा यह पूछने पर कि उसके साथ कैसा व्यवहार किया जाए, पोरस ने निर्भीक होकर कहा कि जैसा एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है। सिकंदर ने पोरस को उसकी वीरता से प्रसन्न होकर छोड़ भी दिया।- इस पराजय के बाद आचार्य चाणक्य की देखरेख में चंद्रगुप्त अपनी सेना को संगठित करने, उसे तैयार करने और युद्ध की रणनीति बनाने में पूरी तरह से लग गया। भारी-भरकम शश्त्रों, शिरस्त्राणों और कवचों आदि की जगह हल्के, परंतु मजबूत हथियारों ने ली। शारीरिक शक्ति के साथ ही बुद्धि-चातुर्य का भी प्रयोग किया गया। चाणक्य की कूटनीति ने इस स्थिति में अमोघ ब्रह्मासत्र का काम किया। कौटिल्य ने साम, दान, दंड एवं भेद--चारों नीतियों का प्रयोग किया और अपने लक्ष्य को प्राप्त किया। नंदवंश का नाश हुआ। चंद्रगुप्त ने मगध की बागडोर संभाली।

सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस की बेटी हेलन का चंद्रगुप्त के साथ विवाह हुआ। धर्मनंद का प्रधान अमात्य *राक्षस' चंद्रगुप्त का महाअमात्य बना। एक बार फिर से भारत बिखरते-बिखरते बच गया। सिकंदर नाम की आंधी शांत होकर वापस अपने देश चली गई। भारत की गरिमा विश्व के सामने फिर से निखरकर सामने आई। और चाणक्य? उसने निर्जन एकांत में राजनीति के पूर्व ग्रंथों का अवगाहन कर उसमें अपने व्यक्तिगत अनुभवों का पुट दिया और अर्थशास्त्र पर एक महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखा। कौटिल्य अर्थशास्त्रनामक यह ग्रंथ राजा, राजकर्मियों तथा प्रजा के संबंधों और राज्य-व्यवस्था के संदर्भ में अनुकरणीय व्यवस्था देता है। कुछ विद्वानों ने चाणक्य की तुलना मैकियाविली से की है लेकिन भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू इस बात से सहमत नहीं थे। उनकी दृष्टि में चाणक्य की महानता के मैकियाविली सामने काफी अदने हैं। चाणक्य एक महान अर्थशास्त्री, राजनीति के वेत्ता तथा कूटनीतिज्ञ होते हुए भी महात्मा थे। वे सभी प्रकार की भौतिक उपाधियों से परे थे। इसी कारण कामंदकीय नीतिसार' में विष्णुगुप्त के लिए ये पंक्तियां लिखी गईं--

 

नीतिशास्त्रामृतं धीमानर्थशास्त्र महोदथधे:

समुददश्रे नमस्तस्मै विष्णुगुप्ताय वेधसे।।

 

जिसने अर्थशास्त्र रूपी महासमुद्र से नीतिशास्त्र रूपी अमृत का दोहन किया, उस महा बुद्धिमान आचार्य विष्णुगुप्त को मेरा नमन है।'

जनकल्याण के लिए जो भी जहां से मिला, उसे चाणक्य ने लिया और उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट की। वे अपने ग्रंथ का शुभारंभ करते हुए शुक्राचार्य और बृहस्पति दोनों को नमन करते हैं। दोनों गुरु हैं। दोनों की अपनी-अपनी विशिष्ट धाराएं हैं। अपने प्रतिज्ञा वाक्य में वे कहते हैं--

पृथिव्या लाभे पालने च यावन्तार्थ शास्त्राणि पूर्वाचार्य: प्रस्थापितानि

संहृत्यैकमिदमर्थशास्त्रं कृतम्‌।

पृथ्वी की प्राप्ति और उसकी रक्षा के लिए पुरातन आचार्यों ने जिन अर्थशास्त्रविषयक ग्रंथों का निर्माण किया, उन सभी का सार-संकलन कर इस अर्थशास्त्र की रचना की गई है।

चाणक्य नीति" में नीतिसार का निचोड़ है। इसका संकेत आचार्य ने प्रारंभिक श्लोकों में ही कर दिया है।

ऐसा नहीं है कि चाणक्य नीति पर इससे पहले काम न हुआ हो। इसके अनेक अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं। यह पुस्तक उनसे अलग इस मायने में है कि इसमें मूल श्लोक के अर्थ को समझाते हुए उसमें छिपे रहस्यों की ओर भी संकेत करने का प्रयास किया गया है। ऐसा करने के पीछे उद्देश्य है कि पाठक उन निर्दिष्ट सूत्रों को पकड़कर कथ्य की गुत्थियां अपने ढंग से खोलें। इसमें इस बात का विशेष ध्यान रखा गया है कि भाषा-शैली ऐसी हो, ताकि साधारण व्यक्ति भी इस ग्रंथ का लाभ उठा सकें। पुस्तक के अंत में दी गई फलश्रुति संकेत करती है कि विवेकवान्‌ इस ग्रंथ को अवश्य पढ़े, यथा--

 अधीत्येदं यथाशास्त्रं नरो जानाति सत्तम:।

धर्मोपदेशविख्यातं कार्याकार्य शुभाशुभम्‌।।

इस शास्त्र को विधिपूर्वक- अध्ययन करने के बाद व्यक्ति भलीभांति जान लेता है कि शास्त्रों में किसे करने योग्य कहा जाता है और किसका निषेध है, क्या शुभ है और क्या अशुभ?

यहां पाठकों को एक बात विशेष रूप से समझ लेनी चाहिए कि इस ग्रंथ में कुछ ऐसी मान्यताओं का भी जिक्र किया गया है, जो बदलते परिवेश के साथ या तो बदल रही हैं या फिर उन्होंने अपना अस्तित्व खो दिया है। ग्रंथ की प्रामाणिकता को बनाए रखने के लिए उसके मूलरूप में किसी भी तरह की छेड़खानी करना नैतिक दृष्टि से ठीक नहीं है। मूल को यथारूप देने का अर्थ यह कतई नहीं है कि लेखक या प्रकाशक इन विचारों या मान्यताओं से सहमति रखते हैं। इसलिए पाठकों को सही संदर्भों में ही इस ग्रंथ के कथ्य को समझने की कोशिश करनी चाहिए।

कृते प्रतिकृतं कुर्याद्‌ हिंसने प्रतिहिंसनम्‌। तत्र दोषो न पतति दुष्टे दुष्ट समाचरेत्‌।।

जो जैसा करे, उससे वैसा ही बरतें। कृतज्ञ के प्रति कृतज्ञता भरा, हिंसक से हिंसा युक्त और दुष्टता का व्यवहार करने पर किसी प्रकार का पाप (पातक) नहीं होता।

सिकंदर द्वारा पोरस को मुक्त करना उन राजाओं के गाल पर करारा तमाचा था, जिन्होंने पर्वतेश्वर का साथ नहीं दिया था।

नीतिशास्त्र में कही गई बातों की व्याख्या एकांगी नहीं होनी चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि व्याख्याता को लोक और शामत्त्र दोनों का ज्ञान हो। 'लोक' में तत्कालीन समाज का स्वरूप आता है, जबकि शास्त्र का अर्थ है-रयुक्त शब्दार्थ अर्थात्‌ प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दावली का अर्थ स्पष्ट होना।

 

| अथ प्रथमो अध्याय: ।।

पहला अध्याय

किसी कष्ट अथवा आपत्तिकाल से बचाव के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए। धन खर्च करके भी स्त्रियों की रक्षा करनी चाहिए, परंतु स्त्रियों और धन से भी आवश्यक है कि व्यक्ति स्वयं की रक्षा करे।

प्रणम्य शिरसा विष्णु त्रैलोक्याधिपतिं प्रभुम्‌।

नानाशास्त्रोद्धृतं वक्ष्ये राजनीतिसमुच्चयम्‌।।

मैं तीनों लोकों--पृथ्वी, अन्तरिक्ष और पाताल के स्वामी सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक परमेश्वर विष्णु को सिर झुकाकर प्रणाम करता हूं। प्रभु को प्रणाम करने के बाद मैं अनेक शास्त्रों से एकत्रित किए गए राजनीति से संबंधित ज्ञान का वर्णन करूंगा।।1।।

प्राचीनकाल से हमारी यह परंपरा रही है कि ग्रंथ की निर्विघ्न समाप्ति के लिए ग्रंथकार अपने आराध्य का स्मरण अवश्य करता है। इसे मंगलाचरणकहा जाता है। आचार्य चाणक्य ने भी सर्वशक्तिमान प्रभु विष्णु को नमन करके इस ग्रंथ की रचना की है।

विदित हो कि श्रीविष्णु पालनकर्ता हैं और नीति का प्रयोजन भी व्यक्ति और समाज की व्यवस्था देना है। चाणक्य ने अपने इस ग्रन्थ को राजनीति से संबंधित ज्ञान का उत्तम संग्रह बताया है। इसी संग्रह को बाद में विद्वानों और जन-सामान्य ने चाणक्य नीति का नाम दिया।

 

अधीत्येदं यथाशास्त्र नरो जानाति सत्तम:।

धर्मोपदेशविख्यातं कार्याकार्य शुभाशुभम्‌।।

 

'सत्तम:अर्थात श्रेष्ठ पुरुष, इस शास्त्र का विधिपूर्वक अध्ययन करके यह बात भली प्रकार जान जाएंगे कि वेद आदि धर्मशास्त्रों में कौन से कार्य करने योग्य बताए गए हैं और कौन से कार्य ऐसे हैं जिन्हें नहीं करना चाहिए। क्या पुण्य है और क्या पाप है तथा धर्म और अधर्म क्‍या है, इसकी जानकारी भी इस ग्रंथ से हो जाएगी। ।।2।।

 

मनुष्य के लिए यह आवश्यक है कि कुछ भी करने से पूर्व उसे इस बात का ज्ञान हो कि वह कार्य करने योग्य है या नहीं, उसका परिणाम क्‍या होगा? पुण्य कार्य और पाप कर्म क्या हैं? श्रेष्ठ मनुष्य ही वेद आदि धर्मशास्त्रों को पढ़कर भले-बुरे का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।

 

यहां यह बात जान लेना भी आवश्यक है कि धर्म और अधर्म क्या है? इसके निर्णय में, प्रथम दृष्टि में धर्म की व्याख्या के अनुसार--किसी के प्राण लेना अपराध है और अधर्म भी, परंतु लोकाचार और नीतिशास्त्र के अनुसार विशेष परिस्थितियों में ऐसा किया जाना धर्म के विरुद्ध नहीं माना जाता, पापी का वध और अपराधी को दंड देना इसी श्रेणी में आते हैं। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध की प्रेरणा दी, उसे इसी विशेष संदर्भ में धर्म कहा जाता है।

 

तदहं सम्प्रवक्ष्यामि लोकानां हितकाम्यया।

येन विज्ञानमात्रेण सर्वज्ञत्वं प्रपद्यते।।

 

अब मैं मानवमात्र के कल्याण की कामना से राजनीति के उस ज्ञान का वर्णन करूंगा जिसे जानकर मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है। ।3।।

 

चाणक्य कहते हैं कि इस ग्रंथ को पढ़कर कोई भी व्यक्ति दुनियादारी और राजनीति की बारीकियां समझकर सर्वज्ञ हो जाएगा। यहां 'सर्वज्ञ' से चाणक्य का अभिप्राय ऐसी बुद्धि प्राप्त करना है जिससे व्यक्ति में समय के अनुरूप प्रत्येक परिस्थिति में कोई भी निर्णय होने की क्षमता आ आए। जानकार होने पर भी यदि समय पर निर्णय नहीं लिया, तो जानना समझना सब व्यर्थ है। अपने हितों की रक्षा भी तो तभी सम्भव है।

 

मूर्खशिष्योपदेशेन दुष्टसत्रीभरणेन च।

दुःखितै: सम्प्रयोगेण पण्डितो5प्यवसीदति।।

 

मूर्ख शिष्य को उपदेश देने, दुष्ट-व्यभिचारिणी स्त्री का पालन-पोषण करने, धन के नष्ट होने तथा दुखी व्यक्ति के साथ व्यवहार रखने से बुद्धिमान व्यक्ति को भी कष्ट उठाना पड़ता है। ।4।।

 

चाणक्य कहते हैं कि मूर्ख व्यक्ति को ज्ञान देने से कोई लाभ नहीं होता, अपितु सज्जन और बुद्धिमान लोग उससे हानि ही उठाते हैं। उदाहरण के लिए बया और बंदर की कहानी पाठकों को याद होगी। मूर्ख बंदर को घर बनाने की सलाह देकर बया को अपने घोंसले से ही हाथ धोना पड़ा था। इसी प्रकार दुष्ट और कुलटा स्त्री का पालन-पोषण करने से सज्जन और बुद्धिमान व्यक्तियों को दुख ही प्राप्त होता है। दुखी व्यक्तियों से व्यवहार रखने से चाणक्य का तात्पर्य है कि जो व्यक्ति अनेक रोगों से पीड़ित हैं और जिनका धन नष्ट हो चुका है, ऐसे व्यक्तियों से किसी प्रकार का संबंध रखना बुद्धिमान मनुष्य के लिए हानिकारक हो सकता है। अनेक रोगों का तात्पर्य संक्रामक रोग से है। बहुत से लोग संक्रामक रोगों से ग्रस्त होते हैं, उनकी संगति से स्वयं रोगी होने का अंदेशा रहता है। जिन लोगों का धन नष्ट हो चुका हो अर्थात जो दिवालिया हो गए हैं, उन पर एकाएक विश्वास करना कठिन होता है। दुखी का अर्थ विषादग्रस्त व्यक्ति से भी है। ऐसे लोगों का दुख से उबरना बहुत कठिन हो जाता है और प्रायः असफलता ही हाथ लगती है। जो वास्तव में दुखी है और उससे उबरना चाहता है, उसका सहयोग करना चाहिए। क्योंकि दुखी से तो स्वार्थी ही बचता है।

 

दुष्टा भार्या शठं मित्र भृत्यश्नोत्तरदायक:।

ससर्पे च गृहे वासो मृत्युरेव न संशय:।।

 

दुष्ट स्वभाव वाली, कठोर वचन बोलने वाली, दुराचारिणी स्त्री और धूर्त, दुष्ट स्वभाव वाला मित्र, सामने बोलने वाला मुंहफट नौकर और ऐसे घर में निवास जहां सांप के होने की संभावना हो, ये सब बातें मृत्यु के समान हैं। ।।5।।

 

जिस घर में दुष्ट स्त्रियां होती हैं, वहां गृहस्वामी की स्थिति किसी मृतक के समान ही होती है, क्योंकि उसका कोई वश नहीं चलता और भीतर ही भीतर कुढ़ते हुए वह मृत्यु की ओर सरकता रहता है। इसी प्रकार दुष्ट स्वभाव वाला मित्र भी विश्वास के योग्य नहीं होता, न जाने कब धोखा दे दे। जो नौकर अथवा आपके अधीन काम करने वाला कर्मचारी उलटकर आपके सामने जवाब देता है, वह कभी भी आपको असहनीय हानि पहुंचा सकता है, ऐसे सेवक के साथ रहना अविश्वास के घूंट पीने के समान है। इसी प्रकार जहां सांपों का वास हो, वहां रहना भी खतरनाक है। न जाने कब सर्पदंश का शिकार होना पड़ जाए।

आपदर्थे धन रक्षेद्‌ दारान्‌ रक्षेद्धनैरपि।

आत्मानं सततं रक्षेद्‌ दारैरपि धनैरपि।।

किसी कष्ट अथवा आपत्तिकाल से बचाव के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए और धन खर्च करके भी स्त्रियों की रक्षा करनी चाहिए, परंतु स्त्रियों और धन से भी अधिक आवश्यक यह है कि व्यक्ति अपनी रक्षा करे। ।।6।।

बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह आपत्ति अथवा बुरे दिनों के लिए थोड़ा-थोड़ा धन बचाकर उसकी रक्षा करे अर्थात धन का संग्रह करे। समय पड़ने पर संचित धन से भी अधिक अपनी पत्नी की रक्षा करना आवश्यक है क्योंकि पत्नी जीवनसंगिनी है। बहुत से ऐसे अवसर होते हैं, जहां धन काम नहीं आता, वहां जीवनसाथी काम आता है। इसी संदर्भ में वृद्धावस्था में पत्नी की अहम्‌ भूमिका होती है। चाणक्य का विचार यह भी है कि धन और स्त्री से भी अधिक व्यक्ति को अपनी रक्षा करनी चाहिए अर्थात व्यक्ति का महत्व इन दोनों से अधिक है। यदि व्यक्ति का अपना ही नाश हो गया तो धन और स्त्री का प्रयोजन ही क्या रह जाएगा, इसलिए व्यक्ति के लिए धन-संग्रह और स्त्री रक्षा की अपेक्षा समय आने पर अपनी रक्षा करना अधिक महत्वपूर्ण है। देखने में आया है और उपनिषद्‌ के ऋषि भी कहते हैं कि कोई किसी से प्रेम नहीं करता, सब स्वयं से ही प्रेम करते हैं--आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति।

 

आपदर्थे धन रक्षेच्छीमतां कुत आपद:।

कदाचिच्चलिता लक्ष्मी: सज्चितो5पि विनश्यति।।

आपत्तिकाल के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए, लेकिन सज्जन पुरुषों के पास विपत्ति का क्या काम। और फिर लक्ष्मी तो चंचला है, वह संचित करने पर भी नष्ट हो जाती है। ।7।।

चाणक्य का कहना है, मनुष्य को चाहिए कि वह आपत्तिकाल के लिए धन का संग्रह करे। लेकिन धनी व्यक्ति ऐसा मानते हैं कि उनके लिए आपत्तियों का कोई महत्व नहीं है, क्योंकि वे अपने धन से सभी आपत्तियों से बच सकते हैं, परंतु वे यह नहीं जानते कि लक्ष्मी भी चंचल है। किसी भी समय वह मनुष्य को छोड़कर जा सकती है, ऐसी स्थिति में यह इकट्ठा किया हुआ धन भी किसी समय नष्ट हो सकता है।

 

यस्मिन्‌ देशे न सम्मानो न वृत्तिर्न च बान्धवा:।

न च विद्या55गम: कश्षित्‌ तं देशं परिवर्जयेत्‌।।

 

जिस देश में आदर-सम्मान नहीं और न ही आजीविका का कोई साधन है, जहां कोई बंधु-बांधव, रिश्तेदार भी नहीं तथा किसी प्रकार की विद्या और गुणों की प्राप्ति की संभावना भी नहीं, ऐसे देश को छोड़ ही देना चाहिए। ऐसे स्थान पर रहना उचित नहीं। ।8।।

किसी अन्य देश अथवा किसी अन्य स्थान पर जाने का एक प्रयोजन यह होता है कि वहां जाकर कोई नयी बात, नयी विद्या, रोजगार और नया गुण सीख सकेंगे, परंतु जहां इनमें से किसी भी बात की संभावना न हो, ऐसे देश या स्थान को तुरंत छोड़ देना चाहिए।

 

श्रोत्रियो धनिकः राजा नदी वैद्यस्तु पठचम:।

पज्च यत्र न विद्यन्ते न तत्र दिवसं वसेत्‌।।

 

जहां श्रोत्रिय अर्थात वेद को जानने वाला ब्राह्मण, धनिक, राजा, नदी और वैद्य ये पांच चीजें न हों, उस स्थान पर मनुष्य को एक दिन भी नहीं रहना चाहिए। ।।9।।

धनवान लोगों से व्यापार की वृद्धि होती है। वेद को जानने वाले ब्राह्मण धर्म की रक्षा करते हैं। राजा न्याय और शासन-व्यवस्था को स्थिर रखता है। जल तथा सिंचाई के लिए नदी आवश्यक है जबकि रोगों से छुटकारा पाने के लिए वैद्य की आवश्यकता होती है। चाणक्य कहते हैं कि जहां पर ये पांचों चीजें न हों, उस स्थान को त्याग देना ही श्रेयस्कर है।

लोकयात्रा भयं लज्जा दाक्षिण्यं त्यागशीलता।

पज्च यत्र न विद्यन्ते न कुर्यात्‌ तत्र संस्थितिम्‌।।

 

जहां लोकयात्रा अर्थात जीवन को चलाने के लिए आजीविका का कोई साधन न हो, व्यापार आदि विकसित न हो, किसी प्रकार के दंड के मिलने का भय न हो, लोकलाज न हो, व्यक्तियों में शिष्टता, उदारता न हो अर्थात उनमें दान देने की प्रवृत्ति न हो, जहां ये पांच चीजें विद्यमान न हों, वहां व्यक्ति को निवास नहीं करना चाहिए। ।।0॥।

 

जानीयात्‌ प्रेषणे भृत्यान्‌ बान्धवान्‌ व्यसना55गमे।

मित्र चापत्तिकालेषु भार्या च विभवक्षये।।

 

काम लेने पर नौकर-चाकरों की, दुख आने पर बंधु-बांधवों की, कष्ट आने पर मित्र की तथा धन नाश होने पर अपनी पत्नी की वास्तविकता का ज्ञान होता है। ।।11।

चाणक्य कहते हैं कि जब सेवक (नौकर) को किसी कार्य पर नियुक्त किया जाएगा तभी पता चलेगा कि वह कितना योग्य है। इसी प्रकार जब व्यक्ति किसी मुसीबत में फंस जाता है तो उस समय भाई-बंधु और रिश्तेदारों की परीक्षा होती है। मित्र की पहचान भी विपत्ति के समय ही होती है। इसी प्रकार धनहीन होने पर पत्नी की वास्तविकता का पता चलता है कि उसका प्रेम धन के कारण था या वास्तविक।

 

आतुरे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे शत्रु-संकटे।

राजद्धारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धव:।।

 

किसी रोग से पीड़ित होने पर, दुख आने पर, अकाल पड़ने पर, शत्रु की ओर से संकट आने पर, राज सभा में, श्मशान अथवा किसी की मृत्यु के समय जो व्यक्ति साथ नहीं छोड़ता, वास्तव में वही सच्चा बन्धु माना जाता है। ।।2॥।

व्यक्ति के रोग शय्या पर पड़े होने अथवा दुखी होने, अकाल पड़ने और शत्रु द्वारा किसी भी प्रकार का संकट पैदा होने, किसी मुकदमे आदि में फंस जाने और मरने पर जो व्यक्ति श्मशान घाट तक साथ देता है, वही सच्चा बन्धु (अपना) होता है अर्थात ये अवसर ऐसे होते हैं जब सहायकों की आवश्यकता होती है। प्रायः यह देखा जाता है कि जो किसी की सहायता करता है, उसको ही सहायता मिलती है। जो समय पर किसी के काम नहीं आता, उसका साथ कौन देगा?

 

यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवं परिसेवते।

ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति अध्रुवं नष्टमेव हि।।

 

जो मनुष्य निश्चित को छोड़कर अनिश्चित के पीछे भागता है, उसका कार्य या पदार्थ नष्ट हो जाता है। ।।3॥।

 

चाणक्य कहते हैं कि लोभ से ग्रस्त होकर व्यक्ति को हाथ-पांव नहीं मारने चाहिए बल्कि जो भी उपलब्ध हो गया है, उसी में सन्‍तोष करना चाहिए। जो व्यक्ति आधी छोड़कर पूरी के पीछे भागते हैं, उनके हाथ से आधी भी निकल जाती है।

 

वरयेत्‌ कुलजां प्राज्ञो विरूपामपि कन्यकाम्‌।

रूपवती न नीचस्य विवाह: सदृशे कुले।।

 

बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न हुई कुरूप अर्थात्‌ सौंदर्यहीन कन्या से भी विवाह कर ले, परन्तु नीच कुल में उत्पन्न हुई सुंदर कन्या से विवाह न करे। वैसे विवाह अपने समान कुल में ही करना चाहिए। ।।44॥।

आचार्य चाणक्य ने यह बहुत सुंदर बात कही है। शादी-विवाह के लिए सुंदर कन्या देखी जाती है। सुंदरता के कारण लोग न कन्या के गुणों को देखते हैं, न उसके कुल को। ऐसी कन्या से विवाह करना सदा ही दुखदायी होता है, क्योंकि नीच कुल की कन्या के संस्कार भी नीच ही होंगे। उसके सोचने, बातचीत करने या उठने-बैठने का स्तर भी निम्न होगा, जबकि उच्च और श्रेष्ठ कुल की कन्या का आचरण अपने कुल के अनुसार होगा, भले ही वह कन्या कुरूप व सौंदर्यहीन हो। वह जो भी कार्य करेगी, उससे अपने कुल का मान ही बढ़ेगा और नीच कुल की कन्या तो अपने व्यवहार से परिवार की प्रतिष्ठा ही बिगाड़ेगी। वैसे भी विवाह सदा अपने समान कुल में ही करना उचित होता है, अपने से नीच कुल में नहीं। यहां कुल' से तात्पर्य धन-संपदा से नहीं, परिवार के चरित्र से है।

 

नखीनां च नदीनां च शुंगीणां शस्त्रपाणिनाम्‌।

विश्वासो नैव कर्तव्यो स्त्रीषु राजकुलेषु च।।

 

नखीनाम्‌' अर्थात बड़े-बड़े नाखूनों वाले शेर और चीते आदि प्राणियों, विशाल नदियों, 'शृंगीणाम' अर्थात बड़े-बड़े सींग वाले सांड़ आदि पशुओं, शस्त्र धारण करने वालों, स्त्रियों तथा राजा से संबंधित कुल वाले व्यक्तियों का विश्वास कभी नहीं करना चाहिए। ।। 15।।

 

बड़े-बड़े नाखूनों वाले हिंसक प्राणी से बचकर रहना चाहिए, न जाने वे कब आपके ऊपर हमला कर दें। जिन नदियों के पुश्ते अथवा तट पक्के नहीं, उन पर इसलिए विश्वास नहीं किया जा सकता कि न जाने उनका वेग कब प्रचंड रूप धारण कर ले और कब उनकी दिशा बदल जाए, न जाने वे और किधर को बहना प्रारंभ कर दें। इसलिए प्राय: नदियों के किनारे रहने वाले लोग सदैव उजड़ते रहते हैं। बड़े-बड़े सींग वाले सांड़ आदि पशुओं का भी भरोसा नहीं है, कौन जाने उनका मिजाज कब बिगड़ जाए। जिसके पास तलवार आदि कोई हथियार है, उसका भी भरोसा नहीं किया जा सकता क्योंकि वह छोटी-सी बात पर क्रोध में आकर कभी भी आक्रामक हो सकता है। चंचल स्वभाव वाली स्त्रियों पर भी विश्वास नहीं करना चाहिए। वह अपनी चतुरता से कभी भी आपके लिए प्रतिकूल परिस्थितियां पैदा कर सकती हैं। इस तरह के कई उदाहरण प्राचीन ग्रंथों में मिल जाएंगे। राजा से संबंधित राजसेवकों और राजकुल के व्यक्तियों पर भी विश्वास करना उचित नहीं। वे कभी भी राजा के कान भरकर अहित करवा सकते हैं। इसी के साथ वे राज नियमों के प्रति समर्पित और निष्ठावान्‌ होते हैं। राजहित उनके लिए प्रमुख होता है--संबंध नहीं।

 

विषादप्यमृतं ग्राह्मममेधयादपि काउचनम्‌।

नीचादप्युत्तमा विद्या स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि।।

 

विष में भी यदि अमृत हो तो उसे ग्रहण कर लेना चाहिए। अपवित्र और जशुद्ध वस्तुओं में भी यदि सोना अथवा मूल्यवान वस्तु पड़ी हो तो वह भी उठा लेने के योग्य होती है। यदि नीच मनुष्य के पास कोई अच्छी विद्या, कला अथवा गुण है तो उसे सीखने में कोई हानि नहीं। इसी प्रकार दुष्ट कुल में उत्पन्न अच्छे गुणों से युक्त स्त्री रूपी रत्न को ग्रहण कर लेना चाहिए। ।॥6।।

इस श्लोक में आचार्य गुण ग्रहण करने की बात कर रहे हैं। यदि किसी नीच व्यक्ति के पास कोई उत्तम गुण अथवा विद्या है तो वह विद्या उससे सीख लेनी चाहिए अर्थात व्यक्ति को सदैव इस बात का प्रयत्न करना चाहिए कि जहां से उसे किसी अच्छी वस्तु की प्राप्ति हो, अच्छे गुणों और कला को सीखने का अवसर प्राप्त हो तो उसे हाथ से जाने नहीं देना चाहिए। विष में अमृत और गंदगी में सोने से तात्पर्य नीच के पास गुण से है।

 

स्त्रीणां द्विगुण आहारो बुद्धिस्तासां चतुर्गुणा।

साहसं षड्गुणं चैव कामो<ष्टगुण उच्यते।।

 

पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों का आहार अर्थात भोजन दोगुना होता है, बुद्धि चौगुनी, साहस छह गुना और कामवासना आठ गुना होती है। ।।7।।

आचार्य ने इस श्लोक द्वारा स्त्री की कई विशेषताओं को उजागर किया है। स्त्री के ये ऐसे पक्ष हैं, जिन पर सामान्य रूप से लोगों की दृष्टि नहीं जाती। भोजन की आवश्यकता स्त्री को पुरुष की अपेक्षा इसलिए ज्यादा है, क्योंकि उसे पुरुष की तुलना में शारीरिक कार्य ज्यादा करना पड़ता है। यदि इसे प्राचीन संदर्भ में भी देखा जाए, तो उस समय स्त्रियों को घर में कई ऐसे छोटे-मोटे काम करने होते थे, जिनमें ऊर्जा का व्यय होता था। आज के परिवेश में भी स्थिति लगभग वही है। शारीरिक बनावट, उसमें होने वाले परिवर्तन और प्रजनन आदि ऐसे कार्य हैं, जिसमें क्षय हुई ऊर्जा को प्राप्त करने के लिए स्त्री को अतिरिक्त पौष्टिकता की आवश्यकता होती है। इस सत्य की जानकारी न होने के कारण, बल्कि व्यवहार में इसके विपरीत आचरण होने के कारण, बालिकाओं और स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा कुपोषण का शिकार होना पड़ता है। बुद्धि का विकास समस्याओं को सुलझाने से होता है। इस दृष्टि से भी स्त्रियों को परिवार के सदस्यों और उसके अलावा भी कई लोगों से व्यवहार करना पड़ता है। इससे उनकी बुद्धि अधिक पैनी होती है, छोटी-छोटी बातों को समझने की दृष्टि का विकास होता तथा विविधता का विकास होता है। आज के संदर्भ में इस क्षमता को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। भावना प्रधान होने के कारण स्त्री में साहस की उच्च मात्रा का होना स्वाभाविक है। पशु-पक्षियों की मादाओं में भी देखा गया है कि अपनी संतान की रक्षा के लिए वे अपने से कई गुना बलशाली के सामने लड़-मरने के लिए डट जाती हैं। काम का आठ गुना होना, पढ़ने-सुनने में अटपटा लगता है लेकिन यह संकेत करता है कि हमने काम के रूप-स्वरूप को सही प्रकार से नहीं समझा है। काम पाप नहीं है। सामाजिक कानून के विरुद्ध भी नहीं है। इसका होना अनैतिक या चरित्रहीन होने की पुष्टि भी नहीं करता है। श्रीकृष्ण ने स्वयं को धर्मानुकूल कामकहा है। काम पितृऋण से मुक्त होने का सहज मार्ग है। संतान उत्पन्न करके ही कोई इस ऋण से मुक्त हो सकता है। स्त्री की कामेच्छा पुरुष से भिन्न होती है। वहां शरीर नहीं भावदशा महत्वपूर्ण है। स्त्री में होने वाले परिवर्तन भी इस मांग को समक्ष लाते हैं--स्वाभाविक रूप में। लेकिन स्त्री उसका परिष्कार कर देती है जैसे पृथ्वी मैले को खाद बनाकर जीवन देती है। इसे पूरी तरह से समझने के लिए आवश्यक है कामशास्त्र का अध्ययन किया जाए। कुल मिलाकर इस श्लोक द्वारा चाणक्य ने स्त्री के स्वभाव का विश्लेषण किया है।

 

 अध्याय का सार  

 

यह भारतीय परंपरा रही है कि किसी भी शुभ कार्य को प्रारंभ करने से पहले देवी- देवताओं अथवा प्रभु का स्मरण किया जाए ताकि वह कार्य बिना किसी व्यवधान के सरलतापूर्वक सम्पन्न हो। चाणक्य नीति" का प्रमुख उद्देश्य यह जानना है कि कौन-सा काम उचित है और कौन-सा अनुचित। आचार्य चाणक्य ने प्राचीन भारतीय नीतिशास्त्र में बताए गए नियमों के अनुसार ही इसे लिखा है। यह पूर्व अनुभवों का सार है। उनका कहना है कि लोग इसे पढ़कर अपने कर्तव्यों और अकर्तव्यों का भली प्रकार ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे। सम-सामयिक राजनीति के ज्ञान में मनुष्य अपनी बुद्धि का पुट देकर समय के अनुसार अच्छाई और बुराई में भेद कर सकता है।

सबसे पहले आचार्य चाणक्य ने संग के महत्व पर प्रकाश डालते हुए यह बताया है कि दुष्ट लोगों के संसर्ग से बुद्धिमान मनुष्य को दुख उठाना पड़ता है। चाणक्य ने मनुष्य के जीवन में धन के महत्व को बताया है। उनका कहना है कि व्यक्ति को संकट के समय के लिए धन का संचय करना चाहिए। उस धन से अपने बाल-बच्चों तथा स्त्रियों की रक्षा भी करनी चाहिए। इसके साथ उनका यह भी कहना है कि व्यक्ति को अपनी रक्षा सर्वोपरि करनी चाहिए। जिन लोगों के पास धन है, वे किसी भी आपत्ति का सामना धन के द्वारा कर सकते हैं, परंतु उन्हें यह बात भी भली प्रकार समझ लेनी चाहिए कि लक्ष्मी चंचल है। वह तभी तक टिक कर रहती है, जब तक उसका सदुपयोग किया जाता है। दुरुपयोग आरंभ करते ही लक्ष्मी चलती बनती है।

चाणक्य कहते हैं कि व्यक्ति को उसी स्थान पर रहना चाहिए जहां उसका सम्मान हो जहां पर उसके भाई-बंधु हों, आजीविका के साधन हों। इसी संबंध में वह आगे कहते हैं कि जहां धनवान, वेद-शास्त्रों को जानने वाले विद्वान ब्राह्मण, राजा अथवा शासन-व्यवस्था, नदी और वैद्य आदि न हों, वहां भी नहीं रहना चाहिए। नौकरों की कार्यकुशलता का पता तभी चलता है, जब उन्हें कोई कार्य करने के लिए दिया जाता है। अपने संबंधियों और मित्रों की परीक्षा उस समय होती है, जब स्वयं पर कोई आपत्ति आती है। गृहस्थ का सबसे बड़ा सहारा उसकी स्त्री होती है, परंतु स्त्री की वास्तविकता भी उसी समय समझ में आती है, जब व्यक्ति पूरी तरह धनहीन हो जाता है।

मनुष्य को चाहिए कि वह अधिक लालच में न पड़े। उसे वही कार्य करना चाहिए जिसके संबंध में उसे पूरा ज्ञान हो। जिस कार्य के संबंध में उसे ज्ञान न हो, उसे करने से हानि हो सकती है। जिस कार्य का अनुभव न हो, उससे संबंधित निर्णय लेना कठिन होता है। निर्णय यदि ले लिया जाए, तो संशय की स्थिति मन को डगमगाती रहती है। ऐसा निर्णय कभी भी सही नहीं होता--'संशयात्मा विनश्यति।'” मन यदि संशय में हो तो वह रास्ते से भटकाता ही नहीं, गहरे और अंधेरे गड्ढे में फेंकता है। यदि आप ऐसे व्यवसायियों का जीवन देखें, जिन्होंने अपने क्षेत्र में ऊंचाइयों को छूआ है, तो आप पाएंगे कि उन्होंने अपने काम को समझने के लिए किसी दूसरे अनुभवी व्यक्ति के नीचे काम किया है। किताबी और व्यावहारिक जानकारी में जमीन-आसमान का अंतर होता है। विवाह के संदर्भ में, चाणक्य ने कुल के भेदभाव की बात नहीं मानी है। उनका कहना है कि नीच कुल में उत्पन्न कन्या भी यदि अच्छे गुणों से युक्त है तो उससे विवाह करने में कोई हानि नहीं। जिन पर विश्वास नहीं करना चाहिए उनके बारे में आचार्य का कथन है कि सिंह और बाघ आदि तेज पंजों वाले जानवरों से दूर रहना चाहिए, ऐसी नदियों के आसपास भी नहीं रहना चाहिए, जिनके किनारे कच्चे हों और जो बरसात आदि के दिनों में लंबे-चौड़े मैदान में फैल जाती हों। इसी प्रकार लंबे सीगों वाले सांड़ आदि पशुओं से अपना बचाव रखना चाहिए। जिसके पास कोई हथियार है, उसका भी कभी विश्वास नहीं करना चाहिए।


The action thought by the mind should not be manifested through speech, but should be protected by thinking carefully and keeping silent, that thought should be converted into action.


Indriyani f restraint bakvat pandito male:.

Deshkaalbale Jyotva Sarvakarani Sadheet.

A wise man should control his senses and prove his work like a heron by weighing his capacity according to the time.

Those who reveal each other's secrets are destroyed in the same way as a snake is destroyed by facing Bambi.



Preface


"What are you doing?" "Kush is pure, it is not good to be angry with him." The one who hurts has no right to live. Destroying it is a virtue." - "But the Kush are not destroyed, they spread again after getting the opportunity." "No! I won't let that happen. I will burn all the possibilities of this happening again to ashes. I believe in eliminating the enemy." A grass named Kush pricked the boy's feet. So he eliminated Kush himself. He had also burnt the remaining small roots by digging and pouring Matha in its roots.


A qualified teacher had recognized the potential hidden in the child. Such self-confidence and strong will is what takes the personality to the heights. In such a situation, if the source of public sentiment is found, then the person becomes a history man and the same thing happened. About two thousand years ago, the child who gave a golden turn to the history of India, the same child grew up to become Chanakya. His real name was Vishnugupta. Because of his diplomatic prowess, people also called him Kautilya.


This incident happened when there was no trace of some countries on the map of the world, but the civilization and culture of India was at its full age. Students from abroad used to come to India land not only for religion, philosophy and spirituality, but also to take education of subjects like politics and economics. There were universities like Taxila and Nalanda here. Acharya Chanakya was the teacher of politics and economics in Taxila.


The borders of India at that time extended from Afghanistan to Burma (Myanmar) and from Kashmir to Kanyakumari. At that time India was a golden bird. The prosperity of India was threatening the foreign invaders but they did not have the courage to face the battlefields of India. Ultimately, by resorting to the policy of charity and discrimination, he recognized the shortcomings of the Magadha ruler Dharmanand and tightened him in his loop. Touching the boundaries of the east-north spread around present-day Patna and the then Pataliputra, there was a huge and mighty splendid kingdom - Magadha. Dharmanand, who was on the throne of Magadha, was so engrossed in Sura-Sundari that he had no time to see the affairs of the state. He used to torture the people for his pleasure. Whoever raised his voice would be crushed. Chanak was also punished for raising voice for public interest. That great teacher was put to death.


The heart wrenching incidents that happened one by one were like a trap in the heart of Chanak's son Chanakya. One day when Chanakya, while discussing the situation of the entire Aryavarta in the Rajya Sabha, reminded Magadhraj Dharmananda of his duty, he got annoyed. He ordered Chanakya to be thrown out of the court. Chanakya's crest opened in the midst of the soldiers trying to push Chanakya out of the court. This was an insult not only to Chanakya, but also to the voice of the country, which was pleading in front of its king to save its future by merging in darkness. At the same time, Chanakya took a vow - now this crest will be tied only when the entire Nandvansh will be destroyed.'


Chanakya chose Chandragupta to fulfill his goal. Chanakya carved one by one the possibilities hidden in Chandragupta. It was not easy for Chanakya to embody the thought-out work. From the small region of Macedonian, the thunder of a storm named "Alexander" started covering the borders of India. Prince Ambhi of Kandahar had made a secret treaty with Alexander. Parvatisvara (Porus) faced Alexander's armies, but Sikandar's strategy turned the tables. The belligerent Gajsena of Porus, frightened by the arrows from Alexander, started trampling his own army. Porus was defeated and taken prisoner. On being asked by Alexander how to treat him, Porus boldly said as one king treats another. Alexander also left Porus pleased with his valor. - After this defeat, Chandragupta under the supervision of Acharya Chanakya was fully engaged in organizing his army, preparing it and strategizing the war. Heavy weapons, armors and armors etc. were replaced by light but strong weapons. Along with physical strength, intellect and tact were also used. Chanakya's diplomacy worked as an infallible Brahmasatra in this situation. Kautilya used the four policies of Sama, Dan, Dand and Bheda and achieved his goal. The Nand dynasty was destroyed. Chandragupta took over the reins of Magadha.


Helen, daughter of Alexander's general Seleucus, was married to Chandragupta. The chief Amatya of Dharmanand, the demon, became the great Amatya of Chandragupta. Once again India was saved from scattering. The storm named Sikandar calmed down and went back to his country. India's dignity came out again in front of the world. And Chanakya? In the secluded solitude, he learned the texts of politics before He gave his personal experiences and wrote an important treatise on economics. This book named "Kautilya Arthashastra" gives an exemplary arrangement in relation to the relations of kings, royal workers and subjects and state-system. Some scholars have compared Chanakya with Machiavelli but the first Prime Minister of India, Pt. Jawaharlal Nehru did not agree with this. In his view, Machiavelli is quite in front of Chanakya's greatness. Chanakya, despite being a great economist, political scholar and diplomat, was a Mahatma. He was beyond all kinds of material titles. That is why these lines were written for Vishnugupta in "Kamandakiy Nitisar"-

Nitishastramritam Dhimanarthashastra Mahodathadhe:

Samuddashre Namastasmai Vishnuguptay Vedhase.


“I bow to the great wise teacher Vishnugupta, who extracted the nectar of ethics from the great ocean of economics.

Whatever he got for public welfare, Chanakya took it and expressed his gratitude towards him. They bow to both Shukracharya and Brihaspati while opening their book. Both are gurus. Both have their own specific streams. In his promise sentence he says-

Prithviya benefits to cradle cha yavantarth shastrani Purvacharya: Prasthanani

Samhrityakamidmarthashastram kritam.

This economics has been created by compiling all the texts on economics created by the ancient masters for the attainment and protection of the earth.


"Chanakya Niti" contains the essence of the policy. Acharya has indicated this in the initial verses itself.


It is not that Chanakya's policy has not been worked on before. Many translations of it have been published. This book is different from them in the sense that while explaining the meaning of the original verse, an attempt has been made to indicate the secrets hidden in it. The purpose behind doing this is that the reader can open the knots of the story in his own way by holding those specified sources. In this, special care has been taken that the language-style should be such that even ordinary people can take advantage of this book. The Phalshruti given at the end of the book indicates that the prudent must read this book, as-


After studying this scripture methodically, a person knows very well that what is said to be done in the scriptures and which is prohibited, what is good and what is inauspicious?


Here readers should understand one thing in particular that some such beliefs have also been mentioned in this book, which are either changing or have lost their existence with the changing environment. To maintain the authenticity of the book, it is not morally right to tamper with its original form. Assignment of the original does not imply that the author or publisher agrees with these views or beliefs. Therefore, readers should try to understand the content of this book in the right contexts only.


Kritte pratikritam kuryad hinsane pratihinsanam. Tatra do not blame the bad, the wicked, the evil samacharet.


Do what you do. There is no sin (Pataka) on being grateful to the grateful, from violent to violent and acting wickedly.


The release of Porus by Sikandar was a slap on the cheeks of those kings who did not support Parvatisvara.


The interpretation of what is said in ethics should not be one-sided. For this it is necessary that the lecturer should have knowledge of both Lok and Shamatra. The form of the then society comes in 'Lok', while the meaning of Shastra is - the meaning of the words used, that is, the meaning of the used terminology is to be clear.


The first chapter: first chapter


Money should be protected to avoid any trouble or calamity. Women should be protected even by spending money, but even with women and money it is necessary that a man should protect himself.


Pranamya Shirsa Vishnu Trailokyadhipatim Prabhum.

Nanashastradrutam Vakshye politicsamuchayam.


I bow my head to the almighty, omnipresent Supreme Lord Vishnu, the lord of the three worlds - earth, space and Hades. After saluting the Lord, I will describe the knowledge related to politics collected from many scriptures.


It has been our tradition since ancient times that for the smooth completion of the book, the author definitely remembers his adoration. This is called "invocation". Acharya Chanakya has also composed this book by bowing to the almighty Lord Vishnu.


It should be known that Shri Vishnu is the maintainer and the purpose of "policy" is also to give order to the individual and society. Chanakya has described this book as the best collection of knowledge related to politics. This collection was later named as "Chanakya Niti" by scholars and general public.

“Sattam” means the best man, after studying this scripture methodically, it will be well known that what works have been described in the Vedas etc. What is virtue and what is sin and what is religion and adharma, it will also be known from this book. ..2..

It is necessary for a man that before doing anything, he should know whether he is capable of doing the work or not, what will be the result? What are virtuous deeds and sinful deeds? top Only human beings can get the knowledge of good and bad by reading the scriptures like Vedas etc.

It is also necessary to know here that what is Dharma and Adharma? In its judgment, according to the interpretation of religion in the first place - taking one's life is an offense and also unrighteousness, but according to the ethos and ethics, doing so in special circumstances is not considered against religion, killing the sinner and punishing the criminal. Dena fall under this category. Shri Krishna inspired Arjuna to fight, it is called Dharma in this particular context.


Now I will describe that knowledge of politics by wishing for the welfare of mankind, knowing which man becomes omniscient. .3..


Chanakya says that by reading this book, any person will become omniscient by understanding the nuances of worldliness and politics. Here Chanakya's meaning by 'omniscient' is to acquire such an intellect from which a person has the ability to take any decision in every situation according to the time. Even after being knowledgeable, if the decision is not taken on time, then knowing and understanding is all in vain. Only then is it possible to protect our interests.

Even a wise man has to suffer by preaching to a foolish disciple, taking care of a wicked adulterous woman, wasting wealth and dealing with an unhappy person. .4..

Chanakya says that there is no benefit in giving knowledge to a foolish person, but gentlemen and wise people only take loss from it. For example, the story of Baya and Bandar will be remembered by the readers. By advising the foolish monkey to build a house, Baya had to lose her nest. Similarly, by taking care of a wicked and dishonest woman, only gentle and intelligent people get misery. By dealing with unhappy people, Chanakya means that the person who is suffering from many diseases and whose wealth has been destroyed, having any kind of relationship with such persons can be harmful for a wise man. Many diseases refer to infectious diseases. Many people suffer from infectious diseases, because of their association there is a possibility of becoming sick themselves. People who have lost their money, that is, those who have become bankrupt, find it difficult to trust them suddenly. Sad also means sad person. It becomes very difficult for such people to get over the misery and failure is often at hand. One who is really sad and wants to get over it, should cooperate with him. Because only the selfish saves from sorrow.


One who has an evil disposition, speaks harsh words, a mischievous woman and a cunning, a friend with an evil disposition, a blunt servant who speaks in front and living in a house where there is a possibility of snakes, all these things are like death. ..5..


In a house where there are wicked women, the position of the householder is similar to that of a deceased, because he has no control and keeps on moving towards death, grumbling within. Similarly, a friend with a bad nature is also not worthy of trust, not knowing when to deceive. The servant or the employee working under you, who responds in front of you on the contrary, can at any time cause you unbearable harm, living with such a servant is like taking a sip of disbelief. Similarly, it is dangerous to live where snakes live. Don't know when to become a victim of snakebite.


Money should be protected to avoid any trouble or calamity and women should be protected even by spending money, but it is more important than women and money that a man should protect himself. ..6..


A wise person should save a little money for objections or bad days and protect it, that is, collect money. When the time comes, it is necessary to protect your wife more than the accumulated wealth because the wife is a life partner. There are many such occasions, where money does not work, life partner comes in handy. In this context, the wife plays an important role in old age. Chanakya's view is also that more than money and women, a person should protect himself, that is, the importance of a person is more than these two. If a person's own is destroyed, then what will be the purpose of wealth and woman, therefore it is more important for a person to protect himself when the time comes than to collect money and protect women. It has come to be seen and the sages of the Upanishads also say that no one loves anyone, everyone loves himself--atmanastu kamay sarva priyam bhavati.


Wealth should be protected for the time of calamity, but what is the use of calamity with gentlemen. And then Lakshmi is fickle, she perishes even if she accumulates. .7..


Chanakya says that man should collect money for the time of crisis. But rich people believe that objections are of no importance to them, because they can avoid all objections with their wealth, but they do not know that Lakshmi is also fickle. At any time she can leave the person, in which case this accumulated wealth can also be destroyed at any time.


A country where there is no respect and no means of livelihood, where there are no brothers and sisters, even relatives and there is no possibility of attaining any kind of knowledge and qualities, such a country must be left. It is not proper to stay in such a place. .8..


One of the purposes of going to another country or to any other place is that by going there one can learn a new thing, a new education, a job and a new quality, but where none of these things is likely, such country or place should be immediately should leave.


Where there are no srotriyas i.e. Brahmins who know the Vedas, wealthy, kings, rivers and Vaidyas, these five things, a person should not stay even for a day at that place. ..9..


Business flourishes with rich people. Brahmins who know the Vedas protect Dharma. The king maintains justice and governance. A river is necessary for water and irrigation, whereas a doctor is needed to get rid of diseases. Chanakya says that it is better to leave the place where these five things are not there.

Where there is no means of livelihood to run the life, business etc. is not developed, there is no fear of getting any kind of punishment, there is no localization, there is no politeness, generosity in the people, that is, they do not have the tendency to give charity. Where these five things are not present, one should not reside there. ..10॥.


When you take work, you get to know about the reality of your servants, when you are sad, your friends when you are in trouble, and your wife when you lose your money. ..11.


Chanakya says that when a sevak (servant) is appointed on some work, only then will he know how capable he is. Similarly, when a person gets stuck in some trouble, then at that time brothers and relatives and relatives are tested. The identity of a friend is also known in times of adversity. Similarly, when the wife is moneyless, the reality of the wife is known whether her love was due to money or real.

When suffering from any disease, when there is misery, when there is a famine, when there is a crisis from the enemy, in the royal assembly, in the crematorium or at the time of death of someone, the person who does not leave with him, is actually considered a true friend. ..12..


When a person is lying on the bed of illness or is suffering, there is a famine and any kind of crisis caused by the enemy, getting stuck in a case etc. That is, these occasions are such when assistants are needed. It is often seen that the one who helps someone gets help. Who will support someone who doesn't work on time?


The man who leaves the definite and follows the uncertain, his work or substance perishes. 13॥.


Chanakya says that one should not be smitten by greed, but should be content with whatever has become available. Those who leave half and run after the whole, half of their hands also get lost. 


A wise person should also marry an ugly girl born in a noble family, that is, a beautyless girl, but should not marry a beautiful girl born in a low family. By the way, marriage should be done in the same family only. ..14॥.


Acharya Chanakya has said this very beautiful thing. A beautiful girl is seen for marriage. Because of beauty, people neither see the qualities of a girl nor her family. It is always painful to marry such a girl, because the values ​​​​of a girl of low caste will also be low. The level of her thinking, talking or sitting will also be low, while the behavior of a girl of high and noble family will be according to her family, even if that girl is ugly and beautyless. Whatever work she will do, it will only increase the value of her family and a girl of low caste will only spoil the prestige of the family by her behavior. Anyway, it is always appropriate to marry in a family similar to yours, not in a family inferior to you. Here "Kul" does not mean wealth, but the character of the family.


One should never believe in “Nakhinaam” means lions and leopards with big nails, huge rivers, “Shringinaam” means bulls with big horns, animals, those who wear weapons, women and people belonging to the king. . , 15.


You should stay away from predatory creatures with big nails, do not know when they will attack you. Those rivers whose banks or banks are not firm, cannot be trusted because they do not know when their velocity assumes a tremendous form and when their direction changes, they do not know where else they start flowing. That's why people living on the banks of rivers are always uprooted. Do not trust even animals with big horns, bulls etc.  

Who knows, when their mood gets spoiled. One who has any weapon like sword etc. cannot be trusted because he can become aggressive at any time by getting angry on small matter. Women with fickle nature should also not be trusted. She can create unfavorable situations for you anytime with her cleverness. Many such examples will be found in ancient texts. It is not proper to trust even the royal servants related to the king and the people of the royal family. They can at any time cause harm by filling the ears of the king. At the same time, they are devoted and loyal to the rules of rule. For them, the interests of the state are important – not relationships.

 

Even if there is nectar in poison, it should be consumed. Even if there is gold or any valuable thing lying in impure and pure things, then it is also capable of being picked up. If a lowly person has any good knowledge, art or quality, then there is no harm in learning it. Similarly, a gem in the form of a woman with good qualities born in a wicked family should be accepted. .॥6..


In this verse, Acharya is talking about acquiring qualities. If a low person has any good quality or knowledge, then that knowledge should be learned from him, that is, the person should always try that from where he can get some good thing, there should be an opportunity to learn good qualities and art. So he should not let go of his hand. To sleep in nectar and dirt in poison refers to the virtues possessed by the lowly.


The food of women is twice that of men, four times the intelligence, six times the courage and eight times the sex. ..7..


Acharya has highlighted many characteristics of a woman through this verse. These are such aspects of a woman, which normally people do not see. The need for food is more for a woman than a man because she has to do more physical work than a man. If it is seen in the ancient context also, then at that time women had to do many such small tasks in the house, in which energy was spent. The situation is almost the same even in today's environment. Body structure, changes occurring in it and reproduction etc. are such functions, in which the woman needs extra nourishment to get the lost energy. Due to lack of knowledge of this truth, but due to the contrary conduct in practice, girls and women have to suffer more malnutrition than men. Intelligence is developed by solving problems. From this point of view also women have to deal with family members and many other people as well. Due to this their intellect becomes more sharp, the vision to understand small things is developed and diversity develops. This potential can be clearly seen in today's context. Being emotional, it is natural for a woman to have a high degree of courage. It has also been seen in the females of animals and birds that to protect their offspring, they fight and fight in front of many times stronger than themselves. Eightfold of work, it seems awkward to read and hear, but it indicates that we have not understood the form of work properly. Work is not a sin. Not against social law. Its existence also does not confirm that it is immoral or characterless. Shri Krishna has called himself "religious work". Kama is the easy way to be free from the debt of the father. One can be free from this debt only by producing children. The libido of a woman is different from that of a man. There, not the body, but the mood is important. The changes taking place in the woman also bring this demand to the fore – naturally. But the woman refines it like the earth converts the dirt into manure and gives life. To understand it completely, it is necessary to study Kama Shastra. Overall, Chanakya has analyzed the nature of woman through this verse.


 chapter summary

It has been an Indian tradition that before starting any auspicious work, the deities or Gods should be remembered so that that work can be completed easily without any hindrance. The main purpose of "Chanakya Niti" is to know which action is right and which is wrong. Acharya Chanakya has written it according to the rules laid down in ancient Indian ethics. That people will be able to get a good knowledge of their duties and duties by reading this.In the knowledge of contemporary politics, man can differentiate between good and evil according to the time by giving the input of his intellect.


First of all, Acharya Chanakya, while highlighting the importance of association, has told that the intelligent man has to suffer due to the association of evil people. Chanakya has told the importance of money in human life. He says that one should accumulate wealth for the time of crisis. You should also protect your children and women with that money. Along with this, he also says that a person should protect himself paramount. Those who have money, they can face any objection with money, but they should also understand well that Lakshmi is fickle. It lasts as long as it is put to good use. Lakshmi would walk as soon as she started the abuse.

Chanakya says that a person should live in a place where he is respected, where he has brothers and brothers, where there is a means of livelihood. In this regard, he further says that where there are no rich, learned Brahmins, who know the Vedas, there is no king or administration, river and Vaidya etc., one should not live there. The efficiency of the servants is known only when they are given a job to do. Your relatives and friends are tested when there is an objection against themselves. The biggest support of the householder is his wife, but the reality of the woman is also understood only when the person becomes completely moneyless.

Man should not be in too much greed. He should do only that work in respect of which he has complete knowledge. Doing a work about which he does not have knowledge, may be harmed. It is difficult to make decisions related to the work that is not experienced. If the decision is taken, then the state of doubt keeps on staggering the mind. Such a decision is never right--'Samsayatma Vinashyati.'" If the mind is in doubt, it does not deviate from the path, but throws it into a deep and dark pit. If you look at the lives of businessmen who have risen to great heights in their field, you will find that they have worked under someone more experienced to understand their work. There is a vast difference between bookish and practical information. In the context of marriage, Chanakya has not accepted the distinction of clan. They say that even if a girl born in a low caste is endowed with good qualities, then there is no harm in marrying her. Regarding those who should not be believed, the Acharya has said that one should stay away from animals with sharp claws like lions and tigers, one should also not live near such rivers, whose banks are raw and which are wide during rainy days etc. Spread out in the field. Similarly, one should protect oneself from long horned bulls etc. Anyone who has a weapon should never be trusted.

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