मातृभूमि के लिए
सन् 1182 - श्रावण की पूर्णिमा थी । पिछले दिनों सारी रात पानी बरसा था । बादलों से ढके आकाश में चंद्रमा और
तारावली तलाशने पर निराशा हाथ लगती थी । बंदेलखंड में श्रावणी पर्व उत्साह से मनाने की ललक में बहनें अपने
प्रिय बंधुओं की भुजाओं में भुजलियाँ बाँधने की तैयारी कर रही थीं ।
__ लेकिन परिस्थितियों ने महोबा में भय और आतंक का वातावरण बना दिया । दिल्ली सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने
राज्य विस्तार की लिप्सा में सर्वसंपन्न महोबा राज्य को भी अपने साम्राज्य में मिलाने का प्रयत्न किया । उसके
सामंत वीर चामुंडाराय ने सेना के साथ महोबा को घेर लिया ।
महोबा में परमाल का शासन था । वह चंदेल था । परमाल की रानी मल्हना ने महल के निकट कीरतसागर में
कजलियाँ - भुजलियाँ खोंटने का कार्यक्रम रखा ।
यह सूचना गुप्तचरों ने सामंत चामुंडाराय को दी । चामुंडाराय ने धमकी दी, " क्या हुआ, कजलियों का पर्व वर्षों
से कीरतसागर में होता रहा है, लेकिन इस साल यह नहीं होगा । "
रानी मल्हना ने इसे चुनौती माना । सदियों से भुजलियाँ खोंटने का पर्व परम पवित्र है । इसे आक्रामक के कहने पर
रोका नहीं जा सकता । मल्हना ने कहा , “ महोबा वीरभूमि है । हमें यह धमकी स्वीकार नहीं है । "
यह सूचना भी चामुंडाराय तक पहुँच गई । उसने प्रबंध-तंत्र कड़ा कर दिया, ताकि कोई कीरतसागर में प्रवेश न
कर सके । अतः तनातनी का वातावरण बन गया । रानी का निश्चय हठपूर्ण था ।
__ इस आन की रक्षा के लिए पूरी व्यवस्था की गई । परमाल - पुत्र ब्रह्मा, अभइ और रणजीत आदि ने विशाल सरोवर
कीरतसागर की ओर प्रस्थान किया । रानी मल्हना श्रावण गीत गाते हुए लगभग 1400 सहेलियों को लेकर आगे
बढ़ी । पालकियों में हथियार लेकर कहार चले ।
जहर बुझाई इक इक छुरिया ,
सब सखियन को दइ पकराय ।
डबला इक इक बारुदन के,
सब पलकिन में दए धराय ॥
सतर्क चामुंडाराय ने कजलियों की पहली पालकी लूट ली । उसने महोबा के पश्चिम के ग्राम पचहरा में विश्राम
किया ।
मर्माहत रानी मल्हना ने हार नहीं मानी । उसने वीरों को उद्वेलित किया । वीरों के पौरुष को ललकारा । मातृभूमि
की रक्षा में सर्वस्व समर्पित करने का आह्वान किया । उसने एकत्रित लोगों से कहा, " जब तक महोबा के वीर छीनी
गई पालकी वापस नहीं लाएँगे, तब तक कोई भी महोबावासी भुजलियों का त्योहार नहीं मनाएगा । " मन में विषाद
या खिन्नता हो तो त्योहार कैसा ? मातृभूमि और स्वतंत्रता की रक्षा के प्रश्न को बुंदेलखंड की धरती बड़ी गंभीरता से
लेती है और शत्रुओं को मुँह तोड़ जवाब देती है ।
रानी मल्हना ने कन्नौज प्रवासी वीर लाखन , आल्हा और ऊदल को समाचार भेजा कि तुम्हें सोचना पड़ेगा ,
मातृभूमि के प्रति अपना कर्तव्य निभाना होगा। मेरे पति परमाल ने तुम्हारी किसी गलती पर तुम्हें महोबा से निकल
जाने का आदेश दिया था , मैं उसे वापस लेती हूँ । निजी शत्रुता अलग है देशभक्ति से ।
समाचार सुनकर ऊदल ने कहा, " परमाल से बड़ी मातृभूमि है । "
आल्हा ने कहा, “ महोबा पर पृथ्वीराज ने हमला करने का मन इसलिए बनाया है, क्योंकि हम महोबा से अलग
हैं । "
लाखन - " हम महोबा के लिए आखिरी कोशिश करेंगे । राजा परमाल से ज्यादा महत्त्व है मातृभूमि का । "
मल्हना को पूरा विश्वास दिलाकर इन वीरों ने पृथ्वीराज की सेना का सामना किया । घमासान युद्ध हुआ ।
दिन भर के घनघोर संग्राम के बाद महोबावासी भुजलियों की पालकी शत्रुओं से छीनकर ले आए । पृथ्वीराज की
करारी हार हुई । उसे पता चल गया कि राजा से मनमुटाव होते हुए भी आल्हा, ऊदल और लाखन मातृभूमि के लिए
वीरता से लड़े । महोबा के स्वतंत्रता प्रिय नागरिक अपनी आन- बान - शान के लिए हर तरह का त्याग करते हैं । अतः
चामुंडाराय को वापस लौटना पड़ा ।
दूसरे दिन भाद्र प्रतिपदा थी । कीरतसागर पर रानी मल्हना और नगर की महिलाओं ने उत्साहपूर्वक कजलियों का
पर्व मनाया । नगर निवासियों ने विजय उल्लास प्रदर्शित किया । चारों ओर पर्वतों से घिरा कीरत सागर महिमामंडित
हो गया । भाद्रपद द्वितीया को रानी मल्हना ने गौरव गिरि पर स्थित तांडवी गजांतक शिव प्रतिमा का पूजन किया
और तब से महोबा में श्रावणी का पर्व भाद्र प्रतिपदा और द्वितीया को इन स्थानों पर ही मनाने की नई परंपरा चल
पड़ी । स्वतंत्रता की रक्षा में वीरता को सम्मानित करने के लिए यहाँ अखाड़ों में कुश्तियाँ होती हैं और वीरता प्रेरक
आल्हा गायन प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती हैं ।
सरन
प्रजनन महिला चिकित्सक के रूप में डॉ . एस . के. बोरवणकर की कीर्ति कानपुर महानगर में शिखर की तरह अपने
शीर्ष पर थी । शल्य क्रिया में उनकी दक्षता ने लोकचर्चा का स्वरूप ले लिया था । बडे आत्मविश्वास के साथ वे
कठिन रोगों में भी साधारण औषधियों से निदान खोजती थीं और अपरिहार्य परिस्थितियों में ही ऑपरेशन करती थीं ।
अमरीका से उच्च शिक्षा लेकर भी वे भारतीय पद्धति को वरीयता देती थीं । आयुर्वेदिक औषधियों पर उनका
विश्वास अटूट था । उन्होंने आयुर्वेदिक व घरेलू दवाइयों से बहुत से लोगों का उपचार सफलतापूर्वक किया था ।
हनुमानजी उनके इष्ट थे । शल्य चिकित्सा का दिन, यदि कोई व्यवधान न होता तो मंगलवार ही निर्धारित करती थीं ।
चिकित्सा उनका व्यवसाय था और सेवाकार्य भी । उन्होंने चालीस हजार से ज्यादा ऑपरेशन किए थे और प्रचुर
धन प्राप्त किया था । उनका कहना था , " जो धन दे सकते हैं , उनसे लेकर मैं निर्धनों को सुविधा देती हूँ । "
कानपुर नगर के कई नर्सिंग होम में उनके दिन और घंटे नियत थे, लेकिन मुख्य रूप से गुरुनानक अस्पताल ,
शास्त्रीनगर में वे अपना समय देती थीं । यह अस्पताल उन्हें इसलिए प्रिय था , क्योंकि इसके निर्माण और विस्तार में
उनका हाथ शुरू से ही रहा था ।
उनकी चिकित्सा का सेवारूप हमें सर्वत्र देखने को मिल जाता था । निस्सहाय नारियों और बच्चों की सेवा करने में
उन्हें प्रसन्नता होती थी । इस अस्पताल में उन्होंने अपने साथियों को एक सहायता कोष तैयार करने के लिए सहमत
कर लिया था , जिससे उनका चिकित्सा सेवाकार्य सरलता से चल रहा था ।
पतियों से प्रताडित विक्षिप्तप्राय महिलाएँ या निस्संतान होने के कारण उपेक्षित नारियाँ भी उनके मनोवैज्ञानिक और
चिकित्सकीय अवदान से लाभान्वित होती थीं ।
अपने दायित्व को सदैव गंभीरता से वरण करनेवाली डॉ . बोरवणकर ने अनेक निराश्रित विधवाओं को भी अपनी
भुजाओं का सहारा देकर, सिर उठाकर चलने का साहस दिया था । पढ़ने में रुचि रखनेवाली कई विधवाओं को पढ़ने
के अवसर दिए व उनकी पढ़ाई का पूरा खर्चा उठाया। नौकरी की आवश्यकता में उन्हें नियोजित किया। विवाह पूर्व
के नाम सरन को उन्होंने असरन सरनसिद्धकिया । गुरुवार की शाम को वे घर पर निःशुल्क उपचार करती थीं ।
__ डॉ . एस. के. बोरवणकर ने किसी बच्चे को अपनी कोख से जन्म नहीं दिया, लेकिन वे हजारों बच्चों की
आदरणीया माँ थीं । माँ की ममता तथा संवेदनशीलता की धरोहर उनके पास इतनी अधिक थी कि सहस्रों बच्चों को
देने पर भी किसी को उसे पाने में निराशा नहीं थी । इस प्यार को पाने में किसी को कोई कठिनाई नहीं होती थी । बच्चे
उनसे आत्मीयता पाकर बड़ी सरलता और सहजता से विभोर हो जाते थे ।
उनका घर बहुत से बच्चों का अपना घर था । उन्होंने किसी बच्चे के ऊपर अपनी मान्यता का बोझ नहीं रखा ।
किसी बच्चे को उन्होंने अपने धार्मिक संस्कारों में कैद नहीं किया । सभी को अपने पुराने धर्म को मानने और पालने
की आजादी दी । उनके पालित या दत्तक पुत्र , अलीगढ़ मुसलिम विद्यालय में गणित विभाग के प्रवक्ता डॉ. खान
इसके प्रमाण हैं ।
इस घर से बच्चे खेल के मैदान में जाते थे। उनको किसी प्रकार की हीनता का बोध नहीं होता था । अच्छे कपड़ों
की कमी का अनुभव वे नहीं करते थे। वे भूल जाते थे, पुरानी गरीबी और अभावों में कसमसाती जिंदगी ।
बच्चों की दिनचर्या में संगीत का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है । उनके घर में कोई गाता था तो कोई वाद्य यंत्र बजाने में
तन्मय हो जाता था ।
राष्ट्रीय एकता के लिए भाषण देनेवाले वक्ताओं की भीड़ में डॉ. एस. के . बोरवणकर का चेहरा अलग ही नजर
आता था । उनके इस निर्माण कार्य में उनके पति डॉ. जयराम बोरवणकर का सहयोग भी प्रशंसनीय था ।
आई. आई.टी. कानपुर में गणित विभाग के प्रमुख होकर भी वे बच्चों में बच्चे बन जाते थे और उनके साथ आमोद
प्रमोद में अपना समय बिताकर नई ऊर्जा और शक्ति ग्रहण करते थे। डैडी के रूप में जे उनके लिए सबकुछ थे ।
कानपुर से बाहर भी उनके बच्चे दूर के अच्छे स्कूलों में शिक्षा पाते , हॉस्टल में रहते और उनका पूरा खर्च वे खुशी
खुशी उठाते थे।
बहुत से अनाथ बच्चों को अपनानेवाली डॉ . बोरवणकर उनकी सर्वप्रिय माता थीं । प्रजनन से लेकर जीविकोपार्जन
की लंबी जिम्मेदारी ओढ़नेवाली माँ । इस तरह बच्चों की संस्कार- यात्रा में शिक्षा और सामाजिकता से उन्होंने उनके
दोनों पैरों को मजबूत बनाया था ।
आजादी मिलने के बाद भी विस्थापित श्रमिकों के बच्चों की पढ़ाई की समस्या पर कोई ठोस सरकारी नीति नहीं
बन सकी । श्रमिकों के बच्चे अस्थायी निवास करते हैं और कार्य पूर्ण होने पर अगले प्रवास के लिए चल पड़ते हैं ।
आई. आई. टी . कानपुर में भी विस्थापित श्रमिकों के बच्चे हैं , जिनकी पढ़ाई के लिए श्रीमती विजया रामचंद्रन्
( महामहिम स्व. व्यंकटरमण राष्ट्रपति की पुत्री) और प्रसिद्ध साहित्यकार पद्मश्री गिरिराज किशोर तथा श्रीमती
बोरवणकर आदि ने रात्रिकालीन कक्षाओं के परिचालन की व्यवस्था की थी ।
डॉ . एस. के. बोरवणकर ने जहाँ बच्चों की पढ़ाई के लिए आर्थिक सहयोग दिया , वहीं उन्हें ठेकेदारों का
कोपभाजन भी बनना पड़ा था । रात्रिकालीन कक्षाओं के कारण ठेकेदार को बालश्रमिक प्राप्त करने में कठिनाई होती
थी । इस प्रकार के बच्चों को शिक्षा सुलभ कराने का कार्य निरापद नहीं था । कई लोगों के अवरोध-विरोध झेलने का
दुरूह कार्य करते रहने में भी उनकी रुचि यथावत् थी ।
कल्याणपुर में ही उन्होंने जवाहरलाल नेहरू के नाम पर एक हाईस्कूल स्थापित किया । चौधरी नवाब सिंह ने
अपनी कीमती जमीन इस परोपकार के लिए दे दी थी । वर्तमान में विद्यालय के भवन -निर्माण का कार्य चल रहा है,
फिर भी वहाँ लगभग एक हजार बच्चे शिक्षा लाभ प्राप्त करते हैं । यह विद्यालय शासकीय अनुदान पर निर्भर नहीं है ।
डॉ . बोरवणकर ने अन्य समाज - सेवियों से सहायता और सहयोग प्राप्त किया था ।
__ अपने शैक्षिक अभियान में डॉ . एस. के . बोरवणकर बच्चों के स्वास्थ्य की परीक्षा समय - समय पर करती रहती थीं
और निर्देश के अतिरिक्त चिकित्सा सुविधा भी प्रदान करती थीं । सहयोगी चिकित्सकों द्वारा उनका यह बड़ा काम
आज भी सहजता से चल रहा है ।
कल्याणपुर के पास ही वाजपेयी नगर बस्ती को डॉ . एस . के. बोरवणकर ने अपना कार्यक्षेत्र बनाया । इसमें
नालियों, सड़कों और बिजली का प्रबंध कराया । नलकूप खुदवाए । समय- समय पर वहाँ जाकर वे रोगियों का
उपचार करती थीं ।
कानपुर में सांप्रदायिक विस्फोट से संकट की घड़ियों में खतरा उठाकर वह अपनी गाड़ी में आटा व आलू के बोरे
लेकर जाती थीं और सहायता करती थीं ।
उन्होंने एक क्रांतिकारी सिख परिवार में जन्म लिया । सन् 1890 में हाई स्कूल की छात्रा के रूप में उनकी दो
घटनाएँ स्मरणीय हैं । श्रीमती इंदिरा गांधी हिमाचल प्रदेश में सरन के स्कूल में आया करती थीं । वे गरीबों और
असहायों के लिए एफ . सी. ए. आर .ई. एजेंसी चलाती थीं । उनके साथ मिलकर पार्सल, खाने के पैकेट वितरित
कराने में सरन कौर (भावी डॉ . एस. के. बोरवणकर) बहुत सहयोग देती थीं । उनकी रुचि एन. सी . सी . में थी और
राष्ट्रपति डॉ . राजेंद्र प्रसाद ने गणतंत्र दिवस पर उनको सर्वश्रेष्ठ कैडेट के रूप में सम्मानित किया था ।
भोपाल में एम. बी. बी . एस. की छात्रा थीं । यहीं उनका परिचय श्री जयराम बोरवणकर से हुआ । प्रेम हुआ और वे
अंतरजातीय विवाह करने अमरीका गई ।
सेवा कार्य से परिचित मदर टेरेसा ने डॉ. बोरवणकर को एक चिट लिखकर दी
‘God loves you and you love his people just the way he loves you .
बच्चों की सेवा करना डॉ . एस . के . बोरवणकर के लिए ईश्वर की पूजा करना था । बच्चों की मुसकान उन्हें लुभाती
थी । बच्चों की तोतली भाषा में उन्हें सूर और तुलसी का वात्सल्य रस प्राप्त होता था । बच्चों की आँखों में उन्हें राष्ट्र
का भविष्य दिखाई देता था । बच्चों के सपने साकार करने में उन्हें अलौकिक आनंद आता था । मराठी में एक
कहावत है, बाल माझा देव – बच्चा मेरा देवता है । इस बाल भगवान् को जातियों, वर्गों और विभाजन की श्रेणियों
में न बाँटकर उन्होंने उदार प्रकृति की तरह अपना असीम स्नेह प्रदान किया था ।
मराठी के लोकप्रिय उपन्यासकार साने गुरुजी ने कहा है, जो लोग बच्चों से अपना नाता जोड़ लेते हैं , वे इस रीति
से भगवान् के प्रिय बन जाते हैं । डॉ. एस. के. बोरवणकर ने बाल भगवान् की पूजा कर अपने जीवन को सार्थक
किया था । सन् 1855 में भारतीय बाल कल्याण संस्थान, कानपुर ने उनकी इस प्रवृत्ति को सम्मानित करके स्वयं को
गौरवान्वित किया था ।
रोपड़ में एक प्रसिद्ध हकीम था । वह गुरु नानकजी का अनन्य आराधक था । उसकी भक्ति देखकर एक दिन
गुरुनानक देवजी उसके घर गए । हकीम को एक रोगी को देखने जाना था । उसने गुरुजी को आसन दिया , प्रणाम
किया और बताकर चला गया । गुरुजी के आने से अधिक उसके लिए अपना कर्तव्य था , रोगी को पहले देखना ।
गुरुजी ने इसे अपनी ही सेवा माना और प्रतीक्षा करते रहे ।
आए दिन ऐसे अवसर रात -बिरात आते ही रहते थे, जब डॉ. बोरवणकर को रोगोपचार के लिए सुदूर
आई. आई. टी. परिसर से कानपुर शहर भागना पड़ता था, लेकिन वह घटना मैं भूल नहीं सकता, जबकि उनके
परमप्रिय श्वसुर अन्नाजी दिवंगत हो गए थे। शव घर में था और वे आँखों से आँसू बहातीं आगतजनों से दूर किसी
महिला रोगी की जान बचाने के लिए गुरुनानक अस्पताल जाने के लिए रवाना हो गई थीं ।
यतीम नहीं अजीम
अजीम एक यतीम बालक था । नौ साल की कोमल अवस्था में उसकी माँ नहीं रही तो पिता ने माँ की जिम्मेदारी
भी सँभाली । दुहरी जिम्मेदारी को पिता भी एक साल तक ही झेल सका और अल्लाह को प्यारा हो गया । दस साल
का लड़का अजीम अब घर में अकेला था ।
रोटी , कपड़े के लिए उसने नौकरी ढूँढ़ी । इस छोटी सी अवस्था में उसे कौन नौकर रखता, जबकि उसकी
देखभाल के लिए ही कोई चाहिए था । बड़ी मुश्किल से एक हलवाई ने उसे नौकर रखा । कहने को तो उस पर
मेहरबानी की गई , लेकिन यहाँ उसे चौबीस घंटे खटना पड़ता । काम भी मेहनत और चौकसी का था । दुकान पर
उसे ग्राहकों को गरम दूध पिलाना और जूठे गिलास धोने पड़ते थे ।
एक दिन उसके मालिक ने कहा , " अजीम , मैं आज काम से बाहर जा रहा हूँ , यह कानपुर है । सावधान रहना ।
यहाँ गोरे दूध पीने आते हैं । उनको कोई शिकायत न हो । "
अजीम ने विश्वास दिलाया कि वह खयाल रखेगा ।
मालिक चला गया । थोड़ी देर बाद एक गोरा आया । उसने गरम दूध माँगा । सुबह का समय था । अजीम ने भट्ठी
गरमाई और दूध चढ़ा दिया । इसमें कुछ समय लगा । गोरे ने गाली देना शुरू किया । अजीम को अगर अंग्रेजी आती
तो वह समझता । तभी उसने निश्चय किया कि अंग्रेजी जरूर पढ़ेगा ।
___ गोरे का गुस्सा बढ़ता ही चला गया । उसने दूध गिरा दिया और भट्ठी फोड़ दी । इतना नुकसान करने पर भी उसे
संतोष नहीं हुआ तो उसने बूट की ठोकर से अजीम को पीटा और अपमानित किया ।
अजीम ने प्रण किया कि वह इन गोरों से बदला लेगा ।
एक छोटे से अनाथ बच्चे का प्रण बाद में सार्थक हुआ ।
लेकिन उस समय भीड़ लग गई और किसी की सहानुभूति तक नहीं मिली । जब मालिक लौट आया तो उसने
केवल नुकसान देखा । वह संयम खो बैठा । उसने भी हमदर्दी नहीं दिखाई । उल्टा उसे ही पीटा और नौकरी से
निकालने की धमकी दी । मार को भुलाकर अजीम नौकरी से निकाले जाने की बात सोचकर ज्यादा परेशान था ।
उसने मालिक से मिन्नतें कीं और मालिक मान गया। परिणाम यह हुआ कि अजीम को अब पहले से ज्यादा काम
करना पड़ता था ।
संयोग से एक दूसरा अंग्रेज आया और उसने हलवाई से अपने बच्चों के लिए अजीम को नौकर रखने का प्रस्ताव
किया । मालिक को उस अंग्रेज की बात माननी पड़ी ।
अजीम उस अंगेज के साथ नए वातावरण में रहने लगा । यहाँ वह अंग्रेज बच्चों के साथ रहता । यहाँ उसने अपना
पहला निश्चय पूरा किया । अब वह फर्राटेदार अंग्रेजी और फ्रांसीसी बोलने तथा पूरी तरह समझने में निपुण हो गया ।
बालिग होने पर वह मास्टर बन गया और एक विद्यालय में पढ़ाने लगा ।
उन दिनों बिठूर में नानासाहब को एक ऐसे आदमी की तलाश थी, जो अंग्रेजी और फ्रांसीसी में लिखा- पढ़ी कर
सके और आए पत्रों को सँभालकर उत्तर दे सके ।
जानकार लोगों ने अजीम को नानासाहब के पास पहुँचा दिया । नानासाहब ने अजीम को अपने पास रख लिया ।
सभासद के रूप में उसकी नियुक्ति कर दी ।
नानासाहब का विवाद अंग्रेजी शासन से गहरा होता गया । उत्तराधिकार के मामले में अंग्रेज चाहते थे कि वे बिठूर
को अपने साम्राज्य में शामिल कर लें । नानासाहब ने इसका प्रतिरोध किया । ब्रिटेन की संसद् को आवेदन - पत्र भेजा ।
क्रमशः अजीम के साथ नानासाहब के संबंध प्रगाढ़ होते गए । विश्वास बढ़ता गया । हिंदू और मुसलमान के बीच
की खाई को और चौड़ा करने की अंग्रेजों की कोशिशों का प्रभाव इन दोनों पर नहीं पड़ा ।
नानासाहब ने अजीम को इंग्लैंड भेजा, पूरा खर्चदिया । उन्हें निश्चिंत रखा । अजीम ने पूरी तरह पैरवी की , लेकिन
अंग्रेजों की चालाकी और साजिश के रहते उनकी अपील का कोई असर नहीं पड़ा । यहाँ अजीम के मन में बदले
की भावना गहरी होती गई ।
अजीमुल्ला खाँ ( अजीम) इंग्लैंड से फ्रांस लौटे और रूस गए । वहाँ की सरकारों से भारत के पक्ष में सहायता देने
की अपील की ।
नानासाहब को परामर्श देकर उन्होंने प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की रूपरेखा समझाई । उनके परामर्श से देशी
रियासतों से संपर्क स्थापित हुआ । परिणामत : नानासाहब ने अंग्रेजों को मार डाला और उनको मैस्केर घाट में कत्ल
किया । अजीम ने खूब बदला लिया और खूबी यह रही कि अजीम और नानासाहब पकड़े नहीं जा सके ।
मुक्ति नहीं चाहिए
मेरा जन्मस्थान अब पाकिस्तान में है । मेरे चाचा श्री मावासम कनकाणी ने मेरी संभावनाओं की अवस्था को अपने
स्नेह की शीतलता से प्रोत्साहित किया और मैं स्वराज्य सेवा मंडल का सदस्य बन गया ।
उन दिनों सिंध और ब्लूचिस्तान भारत के ही भाग थे। वहाँ के निवासी संपूर्ण भारत की स्वतंत्रता के लिए एकता
सूत्र में बँध रहे थे। जाति और धर्म को आगे करके सरकार सांप्रदायिकता की प्राचीर खड़ी कर रही थी, फिर भी
भेदभाव तोड़कर लोग एकजुट होकर हिंसा पर उतर आए और विदेशियों को खदेड़ रहे थे।
वह रात थी 23 अक्तूबर , 1942 की । मैंने योजना बनाई थी सक्खर (सिंध ) से होकर क्वेटा ब्लूचिस्तान जानेवाली
रेल को लूटने की । क्रांतिकारियों का दमन करने के लिए सरकारी अस्त्र - शस्त्र रेल से भेजे जा रहे थे, जो कि स्वदेश
की स्वतंत्रता में ब्लूचिस्तान के लाल कुरती खुदाई खिदमतगारों को कुचलने के लिए इस्तेमाल में आते । अंग्रेजों के
इस लक्ष्य को निरस्त करना मेरे लिए आवश्यक खतरा था ।
जाड़े की ठिठुरती रात में मैंने फिश प्लेटें अलग करने का काम किया । सरकार पूर्णतः और पूर्वतः सावधान थी ।
पुलिस आ गई । मैंने अपने साथियों को वहाँ से चले जाने का अवसर दिया और स्वयं पुलिस से उलझता रहा ।
__ मुझे गिरफ्तार किया गया और प्रलोभन दिए गए कि मैं अपने साथियों के नाम बता दूँ । मेरी कोमल अवस्था में
मेरी दृढ़ता को गिराने के लिए मुझे कठोर यातनाएँ दी गई । मुझे निर्वस्त्र करके बेंत मारे गए और छलछलाते घावों में
नमक -मिर्च भरी गई तो भी मैं कबूला नहीं ।
इसके बाद मुझे बर्फ की सिल्लियों पर लिटाया गया । मेरे सामने देश की आजादी का प्रश्न अधिक महत्त्वपूर्ण था ।
वे मेरा कोई भेद नहीं जान सके ।
सैनिक न्यायालय में देश - द्रोह का मुकदमा कायम किया गया । हैदराबाद सिंध के प्रमुख सैनिक अधिकारी ने न्याय
का नहीं, परंपरा का अनुसरण किया । मुझे मृत्युदंड की सजा दी और 21 जनवरी, 1943 को प्रात : काल मैंने हँसते
हँसते आदरणीय और अनुकरणीय शहीदों की तरह फाँसी का फंदा अपने गले में डाल लिया । उस समय मेरी
अवस्था केवल उन्नीस वर्ष की थी ।
मेरा एक पुरस्करण पूरा हुआ । दूसरे जन्म में मैं फिर आऊँगा और अन्याय तथा अपमान का बदला लूँगा ।
समापन नहीं चाहिए । मुक्ति नहीं चाहिए ।
शहीद बनाम राष्ट्र के लिए जीनेवाले
सतरामजी आचरण, चरित्र तथा दृढ़ निश्चय वाले संत थे। उनकी सेवाएँ राष्ट्रीय एकता के लिए यावज्जीवन बनी
रहीं । विद्यार्थियों को निःशुल्क पढ़ाना, आर्य समाज के सिद्धांतों पर आरूढ़ रहना और राहगीरों की सहायता कर
देना उनका नित्य नियम था । वे शिक्षक , ऊषा , भारती , क्रांति और विश्वज्योति के संपादक थे। उनका
व्यक्तित्व , समाज - सुधारक , लेखक और संपादक की त्रिवेणी था । क्रांति के स्फुरणों ने उनके स्वभाव का निर्माण
किया था । उन्होंने राष्ट्र- देवता के चरणों में तन- मन - धन समर्पित किया था ।
सन् 1909 में लाहौर से उन्होंने बी. ए. पास किया था , लेकिन वे पुराने पढ़े-लिखे और अनुभवों से गढ़े हुए थे। वे
बहुभाषाविद् थे। बी. ए. परीक्षा में फारसी में उन्हें सर्वाधिक अंक मिले थे और इसके लिए उन्हें पुरस्कार दिया गया
था । फारसी के अतिरिक्त गुजराती, मराठी, अंग्रेजी, हिंदी, पंजाबी, बँगला, संस्कृत आदि भाषाएँ उन्हें अच्छी तरह
आती थीं ।
साहित्यकार के रूप में वे मुख्यतः विचारक थे। कहानी , निबंध कुशलतापूर्वक लिख लेने पर भी उनकी प्रसिद्धि
लेखक और अनुवादक के रूप में थी, जिनकी मातृभाषा हिंदी नहीं थी, फिर भी हिंदी की सेवा करनेवालों में वे एक
ही थे।
___ 19 जुलाई, 1958 में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा ने उन्हें महात्मा गांधी पुरस्कार दिया था । एक हजार पाँच सौ
एक रुपयों का यह पुरस्कार उन्हें भोपाल में दिया गया था । इसके अतिरिक्त पंजाब सरकार द्वारा उन्हें पुरस्कृत और
सम्मानित किया गया था । उनकी लिखी पुस्तकों की संख्या शताधिक है ।
राष्ट्र की एकता के लिए उनके सुलझे हुए विचार कभी बासी नहीं हो सकते, भारत में हिंदी ही राष्ट्रभाषा हो
सकती है । मैं राष्ट्र की एकता चाहता हूँ ।
संतरामजी का व्यक्तित्व जिन धमनियों से बना था , वे तत्त्व राष्ट्र-रक्षा के लिए अनिवार्य हैं । सारे राष्ट्र की एकता
सदा एक जैसी बनाए रखने के लिए उन्होंने अपने जीवन को बहुत व्यस्त बनाकर रखा था ।
राष्ट्र के लिए मरनेवालों का आकलन यत्किंचित् ही सही , लेकिन किया गया है, किंतु राष्ट्र के लिए जीनेवालों
का आकलन हुआ ही नहीं । जब यह दुरूह , किंतु आवश्यक काम हाथ में लिया जाएगा तो हमें पता चलेगा कि
साहित्य के क्षेत्र में दूसरा बल्लभ भाई पटेल कोई है तो वह है संतराम, जिसके बारे में ज्यादा लोगों को जानकारी
होते हुए भी कम लोगों की दिलचस्पी उसमें थी । इसका भी कारण है, क्योंकि उसकी दिलचस्पी पारंपरिक मनुस्मृति
की मान्यताओं में नहीं थी ।
संतरामजी ने जाति - पाँति तोड़क मंडल बनाया था । जाति- पाँति के निराकरण शत्रु से जूझकर उन्होंने कहा था ,
" राष्ट्रीय एकता के लिए मैंने राष्ट्रभाषा हिंदी को ही नहीं अपनाया वरन् प्रांतीय और जातीय संकुचित और कुत्सित
भावना को दूर करने के लिए अपना विवाह भी जात- पाँत और प्रांत से बाहर महाराष्ट्र में किया (विधुर हो जाने पर
दूसरा विवाह विधवा सुंदरबाई से 14 दिसंबर , 1929) । पहले मैं पंजाबी होने पर गर्व करता था । मुझे भी पंजाब से
बहुत मोह था । परंतु महाराष्ट्र में विवाह करने के बाद मुझे महाराष्ट्रीय और गुजराती सब अपने भाई लगते हैं । लाहौर
में वे सब मेरे घर पर आया करते थे और वे मुझे बिलकुल पराये नहीं लगते थे। जब तक हम प्रांतीयता और जात
पाँत नहीं तोड़ेगे , हमारा राष्ट्र कभी सुदृढ़ नहीं हो सकेगा । "
कथनी, करनी और लेखनी में सामंजस्य रखकर संतरामजी ने अपना जीवन आदर्शमय बना लिया था । इसीलिए
उनके संस्मरण आजकल से लेकर इंडियन रैशनलिस्ट और संडे ऑब्जर्वर में भी प्रकाशित हुए । दूर दक्षिण
तक तमिल में लेखों के अनुवाद द्रविड़न , मुसलिम मुरायू और बिड़तलै में छपे ।
संतरामजी का एक सदी का जीवन ( जन्म फरवरी 1887 ) कष्टमय , सहिष्णुता तथा संतोष की कथा- गाथा है ।
संयम के कारण वे ह्यष्ट - पुष्ट थे, प्रसन्न रहते थे, सुबह- शाम घूमने के आदी थे। मेरे जीवन के अनुभव (हिंदी
प्रचारक वाराणसी) उनके संस्मरणों का सरोवर है , जिसमें मज्जन करने से दिवाश्रम दूर होता है ।
अंतिम काम सुंदरतम
एक सौ पचास साल पहले का मुसलिम समाज, महिलाओं में परदे का रिवाज था । इसी परिवेश में अजीजन का
जन्म लखनऊ में हुआ था । शैशवावस्था से किशोरावस्था तक की जीवनी हमें ज्ञात नहीं । किस प्रकार वह वेश्या
बनी, उसकी विवशता मालूम नहीं ।
कानपुर के शतरंजी माहौल में उसका कोठा था । सुरीली आवाज और आकर्षक रूप के कारण अजीमुल्ला खाँ
जैसे देशभक्त और अंग्रेजी शासन के उच्चाधिकारी उस पर लटू थे ।
जो भी हो , अजीजन को अंग्रेजों से चिढ़ थी । वह अपना ही नहीं , उन्हें देश का दुश्मन मानती थी । उसके अथवा
उसके माता -पिता के साथ कोई ऐसी घटना जरूर घटी होगी , जिसका असर प्रतिशोधात्मक बन गया था । वह
अकसर सोचा करती थी कि उसका जीवन तुच्छ है । समाज में नर्तकी का महत्त्व ही क्या है, लेकिन जीवन जीने की
कला से वह अपनी जीविका को अपने उद्देश्य के लिए इस्तेमाल अवश्य कर सकती है ।
__ अंग्रेजों की छावनी में जाकर वह अपनी नृत्यकला और आकर्षक छवि से ऐसी मोहिनी डाल देती थी कि लोग
उसके इशारों पर नाचते थे और मन की सारी बातें बता देते थे ।
अजीजन क्रांतिकारियों के लिए खुफियागिरी सफलतापूर्वक कर लेती थी । वांछित सूचनाएँ संकलित करके वह
क्रांतिकारियों को पहुँचाती थी । भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उसका सहयोग बहुत महत्त्वपूर्ण बन गया था ।
गोपनीय सूचनाओं के मिल जाने से अंग्रेज चौंकते थे ।
उत्पलारण्य समाप्त होने के बाद भी बिठूर के आसपास घना जंगल था । आम और अमरूद के उपवन थे। मई
जून में कड़ाके की गरमी पड़ती थी । तभी नोन नदी के संगम स्थल को पार करके ऊसर में चलते रहने से अंग्रेज
अधिकारियों में वाटसन और हैरी को बेहद प्यास लगी । वे आम के वन में घुसे । उन्हें एक कुएँ पर एक घड़ा और
लोटा मिला । इन अंग्रेजों ने सोचा था कि कोई गाँववाला उसे रखकर कहीं चला गया है, लेकिन असलियत कुछ
और ही थी । दाँव में फाँसने का यह चारा था ।
वाटसन आगे बढ़ा , तभी एक गोली चली और उसके कान के पास से निकल गई । वाटसन और हैरी जमीन पर
लेट गए और पीछेखिसकने लगे । दोनों ने अनुमान लगाया कि गोली चलानेवाला व्यक्ति अकेला है ।
उन्होंने देखा कि एक सुंदर नौजवान सुरक्षित स्थान से गोली चला रहा है । अपनी रायफल चलाने की बजाय
वाटसन ने उसे दबोचना चाहा । वह उस पर झपटा । दोनों में पटका - पटकी होने लगी ।
हैरी सतर्क होकर तमाशा देख रहा था , तभी नौजवान के हाथ से पिस्तौल छूट गया और सिर का साफा खुल
गया , तभी यह रहस्य भी उजागर हो गया ।
यह अजीजन थी । उसने महिला सेना बनाई थी और अंग्रेजों से मोर्चा लिया था । शत्रुओं के हाथों किसी भी तरह
पकड़ी न जा सकी थी । हैरी ने कहा, इस खतरनाक औरत को तुरंत गोली मार दी जाए , लेकिन वाटसन का
विचार था कि इतनी महत्त्वपूर्ण महिला को अपने कमांडर को सौंपकर वह पुरस्कार अर्जित करेगा । उससे
क्रांतिकारियों की जानकारी मिलेगी । हैरी को बात माननी पड़ी । उसने कहा कि दोनों एक बार जाकर पानी पी लें ।
हैरी चला गया ।
वाटसन से अजीजन बोली, “ अगर आप कहें तो मैं खड़ी हो जाऊँ । "
रायफल रखकर वाटसन ने उस अप्रतिम सुंदरी का स्पर्श करना चाहा । तभी वह वहाँ गिरी, जहाँ उसका पिस्तौल
था । मोच आने का बहाना करके उसने बहका दिया और पिस्तौल छिपा लिया ।
हैरी ने पूर्ण संतोष के साथ पानी पी लिया था । समीप आने से पूर्व अजीजन ने वाटसन को निशाना बना लिया
और वह समाप्त हो गया । हैरी ने अजीजन पर गोली चलाई । निशाना खाली गया । अजीजन ने हैरी को भी अपने
अचूक निशाने से समाप्त कर दिया । उसकी पिस्तौल की गोलियाँ समाप्त हो गई थीं ।
अजीजन ने हैरी और वाटसन के असलहों और गोलियों को अपने कब्जे में लेना चाहा, तभी अंग्रेज सैनिक गोली
की आवाज पर इकट्ठे हो गए और उन्होंने अजीजन को हैंड्स अप कर दिया ।
हाथ ऊपर करते समय भी अजीजन के मन में प्रतिशोध था । क्रांति के लिए कुछ भी कर गुजरने की इच्छा थी ।
उसने एक सैनिक की बंदूक छीन ली और उसके हत्थे से दनादन वार करने लगी । आखिरी वक्त तक उसने संघर्ष
किया, लेकिन कहाँ एक और वह भी महिला और कहाँ सुविधाभोगी हथियारों से लैस असंख्य सैनिक । योजनानुसार
उन्होंने उसे जीवित पकड़ लिया और अपने कमांडर जनरल हैवलॉक के पास ले गए ।
अजीजन को देखते ही उसने कहा, " तुम औरत ने क्यों मोर्चा संभाला? "
अजीजन ने कहा, " युद्ध प्रायः सैनिकों में होता है, लेकिन अंग्रेज सैनिकों ने जब जनता पर अत्याचार किए तो
जनता मजबूर हो गई कि सैनिकों से लड़े । यह लड़ाई आजादी के लिए है । "
हैवलॉक ने उस वीर महिला पर रीझकर कहा कि अगर तुम माफी माँग लो तो मैं तुम्हारे सारे अपराधों को माफ
कर दूंगा ।
अजीजन ने कहा, " हमने कोई गलती नहीं की । अपने घर में घुसे बाहरी आततायियों को निकालना कोई अपराध
नहीं है, जो इसके लिए माफी मांगनी पड़े। "
__ हैवलॉक ने कमांडर की ओर इशारा किया । गोली लगते ही अजीजन ने कहा, हिंदुस्तान जिंदाबाद! और वह
हमेशा-हमेशा मातृभूमि के लिए बलिदान हो गई । सुंदर शरीरवाली पराक्रमी महिला का यह अंतिम काम भी सुंदर
था ।
पहेलियों का प्रवर्तन
सन् 1253 में एटा जिले का पटियाली ग्राम । यहाँ अमीर सैफुद्दीन के घर लड़के का जन्म हुआ । मौलवी की
सलाह पर उसका नाम अबुल हसन यमीनुद्दीन रखा गया । चालीस दिनों तक जश्न मनाया गया । तुर्की के प्राचीन
कबीले के सरदार के यहाँ रौनक की कमी होती भी क्यों ? अल्लाह का दिया सबकुछ था । गाँव में ही शहर की
सहूलियतें और नियामतें जुटाई गई । जंगल में मंगल हो गया ।
अबु हसन हाजिर - जवाबी में अपना सानी नहीं रखता था । चार साल की छोटी सी उम्र में उसे अपने वालिद के
साथ दिल्ली जाने का मौका मिला तो कई बड़े ओहदेवालों ने वल्लाह कहा । असाधारण प्रतिभा को देखकर लोग
आश्चर्यचकित हो जाते थे ।
सन् 1260 में अबुल हसन के पिता का देहावसान युद्ध के मैदान में हो गया । पिता की मृत्यु के बाद अबुल हसन
के जीवन में परिवर्तन आ गया । सुख - सुविधाओं का जीवन समाप्त हो गया । आठ साल की कोमल अवस्था में
अबुल हसन को जीवन की कठोरता के बारे में सोचना पड़ा । अबुल हसन की माँ बेटे को लेकर मायके आ गई ।
अबुल हसन के नाना का नाम जनाब इमादुल मुल्क था । वह भारतीय थे और भारत से उन्हें अपार प्रेम था ।
उनके यहाँ सुयोग्य व्यक्ति आते थे। पढ़ाई के वातावरण में कम समय में ही अबुल हसन ने अनेक भाषाएँ सीखीं ।
तुर्की, अरबी, फारसी, संस्कृत और भारत के कुछ प्रदेशों की भाषाएँ वह भली -भाँति लिख- पढ़ और बोल सकता
था ।
उन दिनों भारत में हिंदू और मुसलमानों में समन्वय की आवश्यकता थी , जिसे सूफी संत पूरा करते थे। हजरत
निजामुद्दीन औलिया महबूब इलाही के नाम से विख्यात थे । अबुल हसन उनके शिष्य हो गए । हजरत औलिया
उन्हें तुर्क - ए- अल्लाह कहकर पुकारने लगे ।
सन् 1253 से 1324 के जीवनकाल में अबुल हसन ने दिल्ली के शासन पर लगभग दस साम्राज्य देखे और
राजदरबारों में प्रतिष्ठा प्राप्त की । अमीर खुसरो या अमीर खुसरु के नाम से अबुल हसन की कीर्ति चारों ओर
परिव्याप्त हो गई ।
अमीर खुसरो अच्छे दरबारी , वीर सिपाही, लोकप्रिय कवि , बहुभाषाविद्, लेखक, समीक्षक, व्यंग्यकार,
इतिहासकार, दार्शनिक , भारतभक्त, गजल और कव्वाली के सुरीले गायक तथा मानवतावादी संत थे। राज - दरबार में
रहकर भी उन्होंने अपना व्यक्तित्व अलग ही रखा ।
अमीर खुसरो के रचे गीतों की संख्या लगभग 99 बताई जाती है, जिनमें से केवल 22 ही उपलब्ध हैं । इनमें
इतिहास के ग्रंथों में महत्त्वपूर्ण हैं । इनमें लहफतुस्नि , बस्तुल हयात , सुर्रतुल कमाल, निहायतुल कमाल,
किरानुसौदेन , मयत्ताहुल फतुह , नुहिसरपर, तुगलकनामा , खम्स- ए- खुसरो, एजाज - ए- खुसरवी, अफजल उल
पचायद, खवजाइल नुल फुतूह खलिक वादि आदि प्राप्त हैं ।
अमीर खुसरो ब्रजभाषा और प्राकृत भाषा के भी विद्वान् थे । खड़ी बोली के रूप में उन्होंने हिंदी का प्रवर्तन
किया ।
पहेलियों के द्वारा उन्होंने जनता में प्रवेश किया । खुसरो ने पाँच ऐतिहासिक मसनवियाँ लिखीं। समसामायिक
परिस्थितियों का उल्लेख भी इनमें है । उन्होंने पाँच दीवान लिखे। गद्य में भी उनके प्रयोग आविष्कार जैसे थे। गजल ,
कव्वाली, तराना, ख्याल आदि का आविर्भाव भी उनसे ही बताया जाता है । गजल गायकी में उनकी कीर्ति आज भी
अक्षुण्ण है । सितार और तबला- वादन में उनकी रुचि गहरी थी ।हिंदुस्तानी संगीत में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण था ।
खुसरो उन भाग्यशाली लोगों में हैं , जिनके कृतित्व पर विदेशों में शोध हुआ है और उनकी कृतियाँ संगृहीत की
गई हैं । पाकिस्तान बँगलादेश , सोवियत संघ, जर्मनी, ग्रेट ब्रिटेन आदि में उनके पाठक आज भी हैं ।
हिंदी भाषा गंतव्य की धूप- छाँह
एक बार महात्मा गांधी ने बनारसीदास चतुर्वेदी से रामानंद चटर्जी के बारे में कहा था, रामानंद बाबू ऋषि हैं ।
रामानंदजी, जिन्हें लोग स्नेह से बड़े बाबू कहते थे, प्रसिद्ध, शिक्षाशास्त्री, लोकप्रिय संपादक , सतत परसेवा में
निरत , बंगाली होते हुए भी अंग्रेजी के निष्णात विद्वान् और हिंदी के परम हितैषी थे। कलकत्ता में बनारसीदास
चतुर्वेदी को विशाल भारत का संपादन भार सौंपकर उन्होंने हिंदी जगत् का उपकार किया और इस कार्य के लिए
एक लाख से भी अधिक रुपयों का बड़ा घाटा सहा ।
बड़े बाबू के चरित्र की विशेषता इस प्रसंग से आँकी जा सकती है कि विशाल भारत का समारंभ उन्होंने 1928
में किया , लेकिन उन्होंने कभी भी बनारसीदास चतुर्वेदी के संपादन में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया और
मालिक होने पर भी कभी धौंस नहीं दिखाई । बनारसीदास चतुर्वेदी ने विशाल भारत के एक अंक में रामानंद
चटर्जी, अपने आश्रयदाता और पत्र के मालिक की तीखी आलोचना की कि वेहिंदू महासभाई हैं ; लेकिन बड़े बाबू
ने कुछ भी नहीं कहा , जरा भी हलकेपन का प्रमाण नहीं दिया और दोनों के संबंध सदा मधुर ही बने रहे ।
बड़े बाबू ने बाँकुड़ा में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की । 1875 में चार रुपए मासिक की छात्रवृत्ति अर्जित की । बाद में
उन्होंने वहीं जिला हाई स्कूल में पढ़ाई की । केदारनाथ कुलाभि उनके यहाँ गणित -शिक्षक थे। वे ब्राह्म समाज के
क्रियाशील सदस्य थे। इनके संपर्क का प्रभाव बड़े बाबू पर पड़ा और वे धार्मिक संकीर्णताओं में नहीं पड़े । बड़े बाबू
के मानवतावादी संस्कार यहीं सिंचित किए गए । छात्र जीवन में ही साथियों का संगठन किया और रात्रि में प्रौढ़
शिक्षा की कक्षाएँ चलाई । असमर्थ और दीन परिवारों की सहायता की । इसके लिए उन्होंने किसी से चंदा नहीं माँगा ।
धन - प्राप्ति के लिए आवश्यकतानुसार लिफाफे बनाए, साथियों से बनवाए और इन्हें पंसारियों को बेचकर काम
चलाया । निर्धन छात्रों को पुस्तकें देने के लिए उन्होंने बुक - बैंक स्थापित कराए ।
बड़े बाबू का आगे का समय साधनापरक था । साधु चरित्र की परोपकारिता उनमें क्रमशः बढ़ती गई । इसका
परिणाम यह हुआ कि साधारण कलेवा करके ही उन्हें पूरे दिन फाका करना पड़ता था । ये दिन उनको प्रेरणा देते थे
और लक्ष्य की ओर बढ़ने में मनोबल बढ़ाते थे। सन् 1882 में उनके पिताजी का देहावसान हो गया । निराशा की
निशा और भी गहरी हो गई ।
एंट्रेंस परीक्षा उन्होंने संतुलित रहकर दी और उनकी योग्यता क्रम संख्या में चतुर्थ थी । इससे उन्हें बीस रुपए
मासिक की छात्रवृत्ति प्राप्त हुई ।
आशा का आकाश उन्हें बहुत निकट दिखलाई पड़ने लगा । वे कलकत्ता आए । यहाँ उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज में
प्रवेश लिया ।
केदारनाथ कुलाभि ने ब्राह्म समाज के जो बीज बड़े बाबू में उगाए थे, उनको अच्छी जलवायु मिली । उन दिनों
शिवनाथ शास्त्री सुरेंद्रनाथ बनर्जी, जगदीश चंद्र बसु, प्रफुल्लचंद्र रे विभिन्न संकायों के कार्यों में लगे थे, बाद में
सभी ब्राह्म समाज के चौराहे पर मिलते थे। इन सबके संस्कारों का प्रभाव बड़े बाबू पर पड़ा ।
कम फीस में पढ़ने की सुविधा की दृष्टि से बड़े बाबू ने सेंट जेवियर्स कॉलेज में प्रवेश - परिवर्तन करा लिया । यहाँ
उन्होंने लैटिन भाषा सीखने में बहुत मेहनत की और छात्रवृत्ति प्राप्त की । उचित पोषण के खाद्य का अभाव था ही ,
श्रम पहले जैसा करना पड़ा, इन कारणों से वे बीमार पड़ गए और एक साल व्यर्थ चला गया ।
दिसंबर 1886 में उन्होंने मनोरमा देवी से पाणिग्रहण किया । सिटी कॉलेज में पढ़कर सन् 1888 में स्नातक उपाधि
प्राप्त की । उन्होंने सर्वप्रथम आने का गौरव अर्जित किया । उन्हें अवसर दिया गया कि वे अपनी आगे की पढ़ाई
इंग्लैंड जाकर करें , लेकिन बड़े बाबू ने राष्ट्रीय विचारों के क्रियान्वयन में इसे बाधा माना और चालीस रुपए की
रिपन छात्रवृत्ति लेकर जाने के प्रस्ताव को ठुकरा दिया । एक स्वाध्यायी छात्र के रूप में व्याख्याता की नौकरी
करके उन्होंने एम. ए. अंग्रेजी साहित्य में किया , विश्वविद्यालय में इस परीक्षा में भी उनका स्थान चतुर्थ रहा ।
उनकी कीर्ति अंग्रेजी और बँगला के लेखक के रूप में स्थापित थी । अतः धर्मबंधु पत्रिका के संपादक का
दायित्व भी उन्हें सौंपा गया ।
मार्च 1890 में बड़े बाबू सिटी कॉलेज में , जहाँ वे पढ़े थे, व्याख्याता बना दिए गए । अब उनका वेतन एक सौ
रुपए था । पत्नी सहित वे कलकत्ता निवास करने लगे ।
ब्राह्म समाज के साप्ताहिक अंग्रेजी पत्र इंडियन मैसेंजर का काम भी उन्हें सौंपा गया । उन्हें सह- संपादक बना
दिया गया ।
सार्वजनिक क्षेत्र में सीधे, जन- सेवा करने के अवसर दिए गए । दास आश्रम ने जिसे चौबीस परगने के बसिरहाट
उपसंभाग में श्रीरोदचंद्रदास और मृगांकधर राय चौधरी ने स्थापित किया था , बड़े बाबू को निमंत्रित किया । बड़े बाबू
ने वहाँ गहरी रुचि दिखाई । बँगला में दासी पत्रिका कलकत्ता से प्रकाशित- संपादित की । इसमें दास आश्रम की
आवाज थी । पत्रिका में संस्था के कार्यों के विवरण थे। उसमें सुधारवादी लेख, वेश्यावृत्ति- निवृत्ति, दहेज विरोध,
अस्पृश्यता निवारण आदि विषयों पर आलेख प्रकाशित होते थे।
बड़े बाबू ने अंग्रेजी माध्यम की ब्रेल लिपि को बदलकर बँगला के उभरे अक्षर तैयार कराए और दृष्टिहीन
व्यक्तियों की पढ़ाई के लिए उपकरण जुटाए ।
सार्वजनिक कार्यकर्ता और संपादक बनने के अतिरिक्त उन्होंने अपने प्रेरणा स्रोत ईश्वरचंद्र विद्यासागर पर एक
पुस्तक लिखी ।
प्रयाग से एक प्रस्ताव मिला । यह कायस्थ पाठशाला में आचार्य पद स्वीकर करने का था । वेतन 250 रुपए
मासिक था । बड़े बाबू ने कार्यक्षेत्र विस्तार की दृष्टि से इसे स्वीकार कर लिया । अब वे परिवार लेकर कलकत्ता से
इलाहाबाद आ गए ।
यहाँ से भी उन्होंने दासी का संपादन कार्य जारी रखा । कालांतर में उन्होंने प्रवासी और प्रदीप को अपना
लिया । फरवरी 1898 में उन्होंने मॉडर्न रिव्यू अंग्रेजी में निकाला ।
इलाहाबाद में सर्वश्री तेजबहादुर सप्रू, मदनमोहन मालवीय , मोतीलाल नेहरू , पं. सुंदरलाल, सच्चिदानंद सिन्हा ,
सी . वाई . चिंतामणि आदि के सान्निध्य में उन्होंने स्वदेशी वस्तुओं के ही उपयोग करते रहने का व्रत लिया और
किसी सरकारी कार्यालय में बुलाए जाने पर भी नहीं गए ।
उनका पूरा दिन , ब्राह्म समाज , प्रयाग बंगसाहित्य मंदिर और सुधार के कार्यों को समर्पित था । प्राचार्य के गौरव
को भी उन्होंने निभाया । पाठशाला के व्यवस्थापकों और छात्रों ने समय - समय पर उनकी प्रशंसा की ।
स्लाटर ऑफ दि इन्नोसेंट्स जैसे लेख लिखकर उन्होंने अवांक्षित परीक्षाओं से छात्रों को छुटकारा दिलाया ।
शिक्षा विषयक कई व्यावहारिक सुझाव दिए । सन् 1906 में प्रबंध समिति से न पटने के कारण उन्होंने कायस्थ
पाठशाला की नौकरी छोड़ दी ।
बड़े बाबू ने अब सारा समय प्रवासी और मॉडर्न रिव्यू को दिया । कुछ महीने बाद ही उन्हें उत्तर प्रदेश शासन
से कष्ट पहुँचने लगा , क्योंकि उन्होंने कभी भी ठकुर सुहाती नहीं कही और औचित्य के समर्थन में विरोध किया ।
सन् 1908 में उ. प्र. सरकार ने मॉडर्न रिव्यू बंद करने का आदेश दे दिया ।
बिना झुके बड़े बाबू ने सामान समेटा और कलकत्ता वापस आए । कम जगह में प्रेस और कार्यालय स्थापित
किए । मॉडर्न रिव्यू और प्रवासी गतिशील हो गए । कंपोजिंग से फिनिशिंग तक के मेहनती काम में निर्बाध 14
घंटे जुटकर उन्होंने भारतीयों के हित की लड़ाई में पूरा सहयोग दिया । भोजन के बाद 45 मिनट का विश्राम और
सोने के समय के अलावा उनका समय किसी व्यसन में खर्चनहीं होता था ।
बड़े बाबू पुस्तक -प्रकाशक भी थे। मेजर वामनदास बसु, पं. शिवनाथ शास्त्री, महर्षि अरविंद, विश्व कवि
रवींद्रनाथ ठाकुर आदि की कृतियों के प्रकाशक के रूप में उन्होंने सद्साहित्य का प्रचार और लेखकों का हित
किया । बालसाहित्य के एक लेखक के रूप में उन्होंने सचित्र वर्ण परिचय बँगला में प्राथमिक कक्षा के लिए लिखी
और प्रकाशित की । उनकी अन्य अंग्रेजी पुस्तकें हैं , सेंचुरी प्राइमर , ए. बी. सी. पिक्चर बुक आदि।
क्रांतिकारी साहित्य प्रकाशित करने पर उन्होंने सजा भी भोगी और नुकसान भी उठाया । जावेद की संडरलैंड की
पुस्तक इंडिया इन बांडेज हर राइट टू फ्रीडम प्रकाशित करने पर दो हजार रुपयों का अर्थदंड भोगना पड़ा । सन्
1928 में उन्होंने इसी पुस्तक का तीसरा संस्करण भी प्रकाशित किया, जिसे अपराध माना गया । बड़े बाबू ने जुर्माना
भी दिया और कारावास भी भोगा ।
कलकत्ता बड़े बाबू को प्रतिकूल लगा । वे शांति निकेतन चले गए । कलकत्ता में उनके लघु पुत्र मुल्लू का देहांत
हो जाने से उनका मन उन्मन रहने लगा ।
सन् 1919 में जलियाँवाला बाग कांड हुआ । ठाकुर रवींद्रनाथ ने बड़े बाबू और सी. एफ . एंडूज से परामर्श लिया ।
नाइट की पदवी त्याग दी । इससे बड़े बाबू प्रभावित हुए ।
उन्होंने प्रवासी में जीवन स्मृति लेखमाला शुरू की और रवींद्रनाथ के बँगला से अनूदित गीत मॉडर्न रिव्यू में
प्रकाशित किए । रवींद्र साहित्य को विश्व स्तर पर पहुँचाने में उनका बहुत बड़ा हाथ था ।
सन् 1926 में लीग ऑफ नेशन्स का सातवाँ अधिवेशन जिनेवा में हुआ । बड़े बाबू को निमंत्रण मिला, वे गए ।
बाद में रवींद्रनाथ ठाकुर के साथ उन्होंने यूरोप के कई देशों का भ्रमण किया । वहाँ उन्होंने शिक्षा, पत्रकारिता पर
विद्वत्तापूर्ण भाषण दिए ।
नवंबर 1926 में स्वास्थ्य ठीक न होने पर वे लौट आए । अपनी पुत्री सीता से मिलने रंगून गए और भारत वापस
आए ।
कुछ मामलों में रवींद्रनाथ ठाकुर, सुभाषचंद्र बोस , महात्मा गांधी, सर्वपल्ली डॉ . राधाकृष्णन् और बनारसीदास
चतुर्वेदी से उनके विचार नहीं मिलते थे, फिर भी उनकी मित्रता अक्षुण्ण थी और इन्हें सहयोग निरंतर मिलता था ।
भारत लौटने पर उनकी यात्राएँ जारी रहीं । सन् 1933 में उन्होंने पूरे देश में राजा राममोहन राय की जन्म शताब्दी
पर कई आयोजन रखवाए ।
दूर - दूर तक उनका परिवार था । लोग उनसे पत्राचार करके परामर्श लेते थे ।
तेईस वर्ष के वैवाहिक जीवन में अपनी सहयोगिनी पत्नी से उन्हें बहुत आनंद मिला । उनके रहते वे सार्वजनिक
कार्य कर लेते थे। सन् 1886 में पत्नी के निधन से वे पूरी तरह टूट गए थे ।
बुढ़ापा , पत्नी का अभाव, रोगों का रुक -रुककर आक्रमण; फिर भी वे विचलित नहीं थे। स्ट्रैचर पर लेटे - लेटे
गंभीर चिंतन का लाभ दूसरों को देने से नहीं मुकरे । 30 सितंबर , 1943 को उन्होंने चिर विश्राम किया।
श्री जी. संडरलैंड ने श्रद्धांजलि में लिखा, " क्या कोई ऐसा आदमी भी है, जिसने पचास वर्षों में शिक्षा, समाज,
नीति और राजनीतिक प्रगति के कार्योंमें रामानंद चटर्जी से ज्यादा काम किया हो । "
0 Comments
If you have any Misunderstanding Please let me know