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सच्ची प्रेरक कहानियां - हिंदी by प्रदीपजी




 सफलता व असफलता होती क्या हैं ? 


" सफलता और असफलता केवल हार या जीत नहीं होतीं , बल्कि इनसे अधिक कुछ और भी होती हैं । 
सफलता को केवल इस बात से नहीं मापा जा सकता है कि आपने उपलब्धि क्या प्राप्त की है, बल्कि इससे मापा 
जाता है कि आपने कितनी विपरीतताओं का , कितनी विघ्न -बाधाओं का सामना किया है और कितने साहस के साथ 
उन उबलती व उफनती हुई विपरीतताओं और विघ्न- बाधाओं का डटकर मुकाबला करना जारी रखा है । " 

- ओरिसन स्वेट मार्डन 


सफलता का अर्थ अलग- अलग लोगों के लिए अलग - अलग होता है । एक विद्यार्थी के लिए इसका अर्थ होता है 
- बहुत अच्छे अंकों से परीक्षा पास करना और संसाधनों की कमी को इसमें आड़े न आने देना ; विक्रेताओं के लिए 
इसका अर्थ होता है - अपने ग्राहकों के हित को ध्यान में रखते हुए अपने सपनों को साकार करने में लगे रहना; 
एक रोगी के लिए इसका अर्थ होता है - चिकित्सा के साथ- साथ अपनी इच्छाशक्ति का प्रयोग करते हुए रोगमुक्त 
होना । 

एक महिला के लिए इसका अर्थ होता है - खुद को सशक्त बनाना और अपने प्रतिपक्षियों से बेहतर काम करके 
दिखाना ; एक शराबी के लिए इसका अर्थ होता है — शराब को ना कह देने के लिए अपनी दृढ इच्छाशक्ति का 
प्रयोग करना ; एक अपराधी के लिए इसका अर्थ होता है — स्वयं का रूपांतरण करते हुए एक जिम्मेदार नागरिक 
बनना; एक प्रोफेशनल के लिए इसका अर्थ होता है - अपने काम को और बेहतर बनाना । 

एक नागरिक के लिए सफलता का अर्थ होता है — निजी सुविधाओं की परवाह न करते हुए समाज के लिए 
भलाई करना ; एक व्यापारी के लिए इसका अर्थ होता है - नैतिकता पर चलते हुए लाभ कमाना; एक खिलाड़ी के 
लिए इसका अर्थ होता है — तमाम विषमताओं के बावजूद जीत के लिए अपना बेहतरीन प्रदर्शन करना । सफलता का 
अर्थ यह भी है कि जीव-जंतुओं के प्रति करुणा का भाव रखा जाए और उनकी देखभाल की जाए ; किसी मूल्यवान 
जीवन को बचाने का साहस किया जाए और पर्यावरण को अक्षुण्ण रखा जाए । 

सफल होने का मतलब झूठे- सच्चे तौर- तरीके अपनाते हुए अधिक - से - अधिक पैसा और सुख- सुविधाएँ इकट्ठा 
कर लेना नहीं होता; इसका अर्थ किसी कमजोर को दबाना भी नहीं होता और न ही इसका अर्थ यह होता है कि 
आप जो उपदेश दूसरों को दिया करते हैं , खुद उससे उलट करते रहते हों । झूठे साक्ष्यों को प्रस्तुत कर किसी कानूनी 
लड़ाई को जीत लेना सफल होना नहीं होता ; न ही अपने पद या अधिकारों का दुरुपयोग करते हुए, धोखाधड़ी व 
छल -कपट करते हुए या किसी व्यक्ति का अनुचित लाभ उठाते हुए नाम और शोहरत कमा लेना सफल होना कहा 
जा सकता है । 
__ असफलता व्यक्तिगत तौर पर असफल होना होता है न कि एक पेशेवर के तौर पर; असफलता होती है कायरता 
से घुटने टेक देना, गलती होने के डर से कुछ काम ही न करना , खुद में भय को बढ़ने देना और खुद पर भरोसा खो 
देना । जब किसी काम में कठिनाई आने लगे तो उसे छोड़ देना , अपनी गलतियों को स्वीकार करने का साहस न कर 
पाना और दोष किसी और के मत्थे मढ़ देना , किसी सौंपे गए काम में अपनी भरपूर क्षमता और खूबी के साथ न 
लगना , और जिम्मेदारी से जी चुराना — ये सब असफलताएँ हैं । अपनी अंतरात्मा की आवाज न सुनना, जब और 
जहाँ कोई देखनेवाला न हो तब वहाँ गलत काम करने से परहेज न करना, और किसी ऐसे पद या स्थान को ग्रहण 


करना जिसके योग्य आप नहीं हैं , ये भी असफलताएँ ही हैं । 

दर्पण में खुद को देख पाने की क्षमता होना, यानी जैसे आप हैं खुद को वैसा ही देख पाने की दृष्टि होना और 
फिर जैसा व्यक्तित्व आपमें उभरकर आया है, उस पर गर्व करना सफल होना होता है अपने आप पर विश्वास 
करना और ईश्वर पर भरोसा रखते हुए जितना बेहतरीन आप कर सकते थे, वह आपने किया । सफलता का पैसे से 
कुछ भी लेना - देना नहीं होता । सफलता तो एक यात्रा है जो कि अच्छे और बुरे समय में से, सुख और दुःख में से 
और उतार - चढ़ाव में से होती हुई बस चलती रहती है । 
विफलता कोई अंत नहीं है और सफलता कभी अंतिम नहीं होती । 


विकास के लिए स्त्री सशक्तीकरण से अधिक 
सशक्त अन्य कोई साधन नहीं होता । 

घर की लक्ष्मी बनी विजय - लक्ष्मी । 


ऑटोरिक्शा चालक की बेटी चार्टर्ड एकाउंटेंट की 

परीक्षा में रही पूरे भारत में अव्वल 


“ अपने सपनों को जिंदा रखें । इस बात को समझें कि कुछ भी हासिल करने के लिए आवश्यक है — अपने आप पर 
विश्वास और भरोसा होना, नजरिया होना, कठिन परिश्रम करने का दृढ संकल्प और काम के प्रति समर्पण का 
भाव होना । " 

- गेल डैवर्स 


उस दिन मुंबई के उत्तर - पश्चिम में बसे एक उपनगर मलाड ईस्ट के एस. बी . ख़ान चॉल के पहले माले में बहुत 
आवाजाही हो रही थी । वहाँ रहनेवाली प्रेमा की एक झलक को अपने कैमरों में कैद करने के लिए मीडियावालों के 
साथ आए हुए कैमरामैनों के बीच धक्कमधक्का सी हो रही थी । वहाँ रहनेवाले और गत बीस वर्षों से ऑटोरिक्शा 
चलानेवाले जयकुमार पेरूमल की 24 वर्षीया बेटी प्रेमा जयकुमार रातोरात एक प्रसिद्ध व्यक्ति बन गई थी । चार्टर्ड 
एकाउंटेंसी के अंतिम वर्ष की परीक्षा में उसने 800 में से 607 (75.8 प्रतिशत ) अंक प्राप्त करके पूरे भारत में टॉप 
किया था । उसने इस बात का शानदार उदाहरण प्रस्तुत किया था कि कोईकिसी भी वर्ग का क्यों न हो, उसके पास 
यदि जीवन का एक लक्ष्य है तो फिर परिश्रम , परिश्रम और परिश्रम किस तरह सफलता को उसके कदमों में 
लाकर रख देता है । प्रेमा की दुनिया रातोरात बदल गई थी , उसे एक रोल मॉडल के रूप में देखा जाने लगा था । 
उसने अपनी तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद जो सफलता हासिल की थी और प्रसिद्धि का जो सेहरा उसके 
सिर पर सज गया था, उसे देखते हुए वह सचमुच एक रोल मॉडल ही तो थी । इस बीच प्रेमा की माँ लिंगम्मल 
एक ईश्वर - भीरु महिला जिसने कि इस पल के लिए जी -तोड़ मेहनत करने में खुद को खपा दिया था — बार -बार 
प्रेमा से घर के अंदर चलकर थोड़ा कुछ खा लेने की मिन्नत कर रही थी । केवल 80 वर्ग फीट की उनकी रसोई 
देखकर आश्चर्य होता है जिसमें कि खाना बनाने के लिए एक स्लैब लगा हुआ था , स्टील के बरतनों से भरी एक 
केबिनेट थी , पानी रखने के लिए एक प्लास्टिक का ड्रम था ; घर में एक छोटा सा गुसलखाना और एक टॉयलेट 
था । घर की बाकी जगह को रहने व पढ़ने के कमरे की तरह प्रयोग किया जाता था । प्रेमा आमतौर पर पाँच फीट 
लंबी खाट या फर्श पर बैठकर पढ़ाई करती थी । अपनी इस बहन की तरह ही सी . ए. की प्रवेश परीक्षा में पहली बार 
में ही पार निकल जानेवाला उसका 22 वर्षीय भाई धनराज एक स्टडी टेबल पर बैठकर दस से बारह घंटे पढ़ाई 
किया करता था, इस तरह वे अपनी - अपनी परीक्षाओं की तैयारी में लगे रहते थे । 


MH . 02 . P 


प्रेमा जयकुमार अपने गर्वित पिता के साथ 
जैसे कोई बच्चा चाँद माँगे और चाँद उसे मिल भी जाए, एक ऐसी ही चमक अपने चेहरे पर लाते हुए प्रेमा कहती 
है, " सी. ए. करना मेरा एक जुनून था , लेकिन पूरे भारत में टॉप करना तो मुझे एक बड़े आश्चर्य के रूप में मिला 
है । " उसकी इस उपलब्धि का समाचार जब से फैला है तब से घर पर आनेवालों का तांता लग जाने से थकी हुई 
प्रेमा को हलका सा बुख़ार भी हो गया , इसलिए दवा लेने के लिए उसे अपने भाई धनराज के साथ डॉक्टर के यहाँ 
जाना पड़ा । मीडियावालों द्वारा लिये जा रहे लगातार इंटरव्यू, निरंतर आती बधाइयाँ, आनेवालों का न टूटनेवाला 
ताँता, उसकी इस प्रसिद्धि में अपना भी हाथ सेंकने की चाह वाले नेता , और पास व दूर के नाते-रिश्तेदार – पिछले 
सप्ताह से प्रेमा इन सबके साथ मेल-मुलाकात में ही व्यस्त रही थी । अपनी बहन की इस उपलब्धि के बारे में जब 
उसके भाई धनराज से पूछा गया तो उसका जवाब था , " बहुत अच्छा लग रहा है , बिल्कुल डबल धमाके जैसा ! " 
जो भी उसे बधाई देता है तो वह बड़ी फुर्ती से जवाब देता है । धनराज अपनी बहन के दृढ संकल्प और समर्पण की 
बहुत प्रशंसा करता है और प्रेमा भी बताती है कि इन दो चीजों ने ही उसे कठिन-से -कठिन परिस्थितियों में भी आगे 
बढ़ने में मदद की है । 

आज ऐसे समय में भी जब कि उसकी तबीयत ठीक नहीं है, यह उसकी परीक्षा के दिनों के दौरान बना रहा 
उसका जीवट ही है जो कि मीडिया के सवालों की बौछार का मुकाबला मुसकराकर करने में उसकी मदद कर रहा 
है । जिस शांत भाव से प्रेमा फोटोग्राफरों के आग्रह पर फोटो खिंचवाने के लिए खड़ी हो जाती है, और एक के बाद 
दूसरे पत्रकार के सवालों का जवाब देती रहती है, उससे उसकी दृढता का आकलन किया जा सकता है । जब उससे 
उसके माता- पिता के बारे में प्रश्न किया गया तो उसका उत्तर था , " वे मेरे प्राण हैं , उन्होंने ही मुझे जीवन दिया है 

और अब मैं उन्हें आराम देना चाहती हूँ । अभी तक हम भाई - बहन को किसी परेशानी का जो सामना करना नहीं 
पड़ा, उसका कारण यही है कि हमारी पढ़ाई के लिए हमें कुछ बताए बिना ही वे एड़ी - चोटी का पसीना एक करते 
रहे हैं । " वह बताती है कि उसके पिता एक ऑटोरिक्शा चालक हैं और उसकी माँ घर पर ही एक कुटीर उद्योग के 
लिए काम करती हैं । यह अभी 2010 की ही बात है जब प्रेमा और धनराज ने अपनी माँ व पिता से कह दिया था 
कि उन्होंने बहुत मेहनत कर ली और अब इतनी मेहनत की आवश्यकता नहीं है क्योंकि सी. ए. की परीक्षा की तैयारी 
करने के साथ- साथ उनके द्वारा प्रस्तुत लेखों का मेहनताना भी उन्हें मिलता है जिसे वे घर - खर्च के लिए ही दिया 
करेंगे । 

फिर भी जयकुमार ने सुबह 8 बजे से रात के 8 बजे तक शहर में लोगों को लाने- ले जाने का अपना बारह घंटे 
काम करना जारी रखा जिससे उसकी हर महीने लगभग 15,000 की आमदनी हो जाया करती है । सहृदय और 
दसवीं कक्षा तक पढ़ा हुआ जयकुमार मीडिया द्वारा पूछे गए नुकीले सवालों का जबाव बिना किसी परेशानी के दे 
देता है । वह ऐसा कोई शब्द नहीं बोलता है जिससे यह आभास हो कि उसके बच्चों की पढ़ाई उसकी जेब पर भारी 
पड़ रही थी । बस वह इतना ही कहता है, “ मैं तो दूर- दराज के गाँव से बस दसवीं पास हूँ । जब प्रेमा और धनराज 


ने कहा कि वे सी . ए. बनना चाहते हैं तब तो मैं इसका मतलब भी नहीं समझ पाया था । लेकिन जो कुछ भी वे बनना 
चाहते थे उसके लिए हमने कभी कोई आपत्ति नहीं उठाई, बस हम तो उनके साथ खड़े रहे । जो कुछ वे भी पढ़ना 
चाहते थे, उसके लिए हम उन्हें हमेशा प्रोत्साहित ही करते रहते थे । हम तो उन्हें हमेशा यही आश्वासन देते रहते थे 
कि अपने जीवन में वे जहाँ तक भी पहुँचना चाहते हैं , उसके लिए हमसे जो कुछ भी बन पड़ेगा वह सब हम 
अवश्य करेंगे । " 

अब वह समय आ गया है जब जयकुमार को उतनी भाग -दौड़ करने की आवश्यकता नहीं रह गई है और अब 
वह जीवन के सुखों का आनंद ले सकता है । प्रेमा कहती है , " एक - दो महीने में मुझे और धनराज को कोई अच्छी 
सी नौकरी मिल ही जाएगी , और तब हम माँ -पिताजी से कहेंगे कि अब वे काम करना बंद कर दें और वह सबकुछ 
करें जो कि अपने तीन बच्चों को पालने और पढ़ाने के चक्कर में वे नहीं कर पाए थे। " 

जिन कठिनाइयों का सामना इस परिवार ने किया था, प्रेमा का दृढ संकल्प उसी से उपजा था , इसलिए प्रेमा 
कहती है , " जब हम छोटे थे तभी से हमने अपने माता- पिता को बड़ी मुश्किल से दाल- रोटी जुटाने के लिए जूझते 
देखा है । तभी मैंने पक्का इरादा कर लिया था कि एक दिन जब हम बड़े हो जाएँगे तो उनके रोजाना के इस संग्राम 
में हम उनका हाथ अवश्य बँटाएँगे । " 

प्रेमा ने आठवीं कक्षा तक की पढ़ाई मलाड के तमिल माध्यम वाले म्युनिसिपैलिटी के एक स्कूल में तमिल में की 
है । जिन चुनौतियों का उसे सामना करना पड़ा, उनके बारे में बात करते हुए उसने बताया, " नौवीं कक्षा में आकर 
ही मैंने अंग्रेजी पढ़ना-लिखना शुरू किया था । एक भाषा को छोड़ दूसरी भाषा में पढ़ाई करना कोई आसान काम 
नहीं है, लेकिन यदि इच्छाशक्ति प्रबल हो तो पहाड़ भी कंकड़ जैसा लगने लगता है । " प्रेमा बताती है कि किस तरह 
उसका परिचय एक परायी भाषा से हुआ लेकिन फिर भी किस तरह उसने उसे जल्दी ही सीख लिया था । यह 
उसकी प्रबल इच्छाशक्ति और पक्का इरादा ही था कि उसने दसवीं कक्षा में 79 प्रतिशत और बारहवीं में 80 
प्रतिशत अंक प्राप्त किए और फिर ग्रेजुएशन में 90 प्रतिशत अंक पाकर उसने मुंबई विश्वविद्यालय में दूसरा स्थान 
प्राप्त किया । 

पढ़ाई के अपने अच्छे रिकॉर्ड के बावजूद प्रेमा विनम्रतापूर्वक यही कहती है कि उसे यह तो विश्वास था कि वह 
सी. ए. की परीक्षा पास कर लेगी लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर टॉप करना, इसने तो उसे बिल्कुल आश्चर्यचकित कर 
दिया है । परीक्षा परिणाम घोषित होने से पहले के बेचैन पलों को याद करती हुई वह बताती है, “ परिणाम आने के 
जब एक - दो दिन रह गए थे तब सभी मुझसे बड़ी भारी उम्मीद लगाए बैठे थे । लोग मुझसे पूछते थे कि मेरा रैंक क्या 
रहेगा । इससे मैं बहुत तनाव में आ गई थी , क्योंकि बात केवल पास होने तक ही नहीं रह गई थी बल्कि अच्छे रैंक 
की हो गई थी । जब इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया के एक पूर्व अध्यक्ष का फोन मुझे आया और 
उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैंने अपना परीक्षा- परिणाम देख लिया है तब मैं तो घबरा ही गई थी । मैंने कहा कि अभी 
तो नहीं । जब उन्होंने बताया कि मैंने सी. ए. की परीक्षा में पूरे भारत में टॉप किया है, तब मेरी तो रुलाई ही छूट गई 
थी । तब उन्होंने फोन पिताजी को देने को कहा और उन्हें परिणाम के बारे में बताया । " 

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