कलियुग के लक्षण - भागवत पुराण अनुसार
वैसे तो भागवत पुराण में अनेक जगहों पर कलियुग के लक्षण का वर्णन मिलता है। ऐसे लक्षणों को ज्ञानी जन पढ़कर तथा प्रतक्ष्य देखकर चिंतित होते है कि ऐसे युग में कैसे मनुष्य का उधार होगा? श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय २ श्रीशुकदेवजी ने विस्तार से कलियुग के लक्षणों को परीक्षित से कहा है। वे कलियुग के लक्षण कुछ इस प्रकार है -
कलियुग में धर्म, सत्य, पवित्रता का हाल
श्रीशुक उवाच
ततश्चानुदिनं धर्मः सत्यं शौचं क्षमा दया।
कालेन बलिना राजन्नङ्क्ष्यत्यायुर्बलं स्मृतिः॥१॥
वित्तमेव कलौ नॄणां जन्माचारगुणोदयः।
धर्मन्यायव्यवस्थायां कारणं बलमेव हि॥२॥
- भागवत पुराण १२.२.१-२
भावार्थः - श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! समय बड़ा बलवान् है; ज्यों-ज्यों घोर कलियुग आता जायेगा, त्यों-त्यों उत्तरोत्तर धर्म, सत्य, पवित्रता, क्षमा, दया, आयु, बल और स्मरण शक्ति का लोप होता जायेगा। कलियुग में जिसके पास धन होगा, उसी को लोग कुलीन, सदाचारी और सद्गुणी मानेंगे। जिसके हाथ में शक्ति होगी वही धर्म और न्याय की व्यवस्था अपने अनुकूल करा सकेगा।
कलियुग में विवाह-सम्बन्ध
दाम्पत्येऽभिरुचिर्हेतुर्मायैव व्यावहारिके।
स्त्रीत्वे पुंस्त्वे च हि रतिर्विप्रत्वे सूत्रमेव हि॥३॥
- भागवत पुराण १२.२.३
भावार्थः - विवाह-सम्बन्ध के लिये कुल-शील-योग्यता आदि की परख-निरख नहीं रहेगी, युवक-युवती की पारस्परिक रुचि से ही सम्बन्ध हो जायेगा। व्यवहार की निपुणता सच्चाई और ईमानदारी में नहीं रहेगी; जो जितना छल-कपट कर सकेगा, वह उतना ही व्यवहारकुशल माना जायेगा। स्त्री और पुरुष की श्रेष्ठता का आधार उनका शील-संयम न होकर केवल रतिकौशल ही रहेगा। ब्राह्मण की पहचान उसके गुण-स्वभाव से नहीं यज्ञोपवीत से हुआ करेगी।
कलियुग में ब्रम्हचारी, संन्यासी आदि आश्रमियों की पहचान तथा घूस खोरी का हाल
लिङ्गं एवाश्रमख्यातावन्योन्यापत्तिकारणम्।
अवृत्त्या न्यायदौर्बल्यं पाण्डित्ये चापलं वचः॥४॥
- भागवत पुराण १२.२.४
भावार्थः - वस्त्र, दण्ड-कमण्डलु आदि से ही ब्रह्मचारी, संन्यासी आदि आश्रमियों की पहचान होगी और एक-दूसरे का चिह्न स्वीकार कर लेना ही एक से दूसरे आश्रम में प्रवेश का स्वरूप होगा। जो घूस देने या धन खर्च करने में असमर्थ होगा, उसे अदालतों में ठीक-ठीक न्याय न मिल सकेगा। जो बोलचाल में जितना चालक होगा, उसे उतना ही बड़ा पण्डित माना जायेगा।
कलियुग में असाधुत, पाखण्ड, फैशन और विवाह का हाल
अनाढ्यतैवासाधुत्वे साधुत्वे दम्भ एव तु।
स्वीकार एव चोद्वाहे स्नानमेव प्रसाधनम्॥५॥
- भागवत पुराण १२.२.५
भावार्थः - असाधुता की-दोषी होने की एक ही पहचान रहेगी-गरीब होना। जो जितना अधिक दम्भ-पाखण्ड कर सकेगा, उसे उतना ही बड़ा साधु समझा जायेगा। विवाह के लिये एक-दूसरे की स्वीकृति ही पर्याप्त होगी, शास्त्रीय विधि-विधान की-संस्कार आदि की कोई आवश्यकता न समझी जायेगी। बाल आदि सँवारकर कपड़े-लत्ते से लैस हो जाना ही स्नान समझा जायेगा।
कलियुग में लोग और तीर्थ का हाल
दूरे वार्ययनं तीर्थं लावण्यं केशधारणम्।
उदरंभरता स्वार्थः सत्यत्वे धार्ष्ट्यमेव हि॥६॥
- भागवत पुराण १२.२.६
भावार्थः - लोग दूर के तालाब को तीर्थ मानेंगे और निकट के तीर्थ गंगा-गोमती, माता-पिता आदि की उपेक्षा करेंगे। सिर पर बड़े-बड़े बाल-काकुल रखना ही शारीरिक सौन्दर्य का चिह्न समझा जायेगा और जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ होगा-अपना पेट भर लेना। जो जितनी ढिठाई से बात कर सकेगा, उसे उतना ही सच्चा समझा जायेगा।
कलियुग में योग्यता चतुराई, राजा-प्रजा का हाल और खान-पान का हाल
दाक्ष्यं कुटुंबभरणं यशोऽर्थे धर्मसेवनम्।
एवं प्रजाभिर्दुष्टाभिः आकीर्णे क्षितिमण्डले॥७॥
ब्रह्मविट्क्षत्रशूद्राणां यो बली भविता नृपः।
प्रजा हि लुब्धै राजन्यैः निर्घृणैः दस्युधर्मभिः॥८॥
आच्छिन्नदारद्रविणा यास्यन्ति गिरिकाननम्।
शाकमूलामिषक्षौद्र फलपुष्पाष्टिभोजनाः॥९॥
- भागवत पुराण १२.२.७-९
भावार्थः - योग्यता चतुराई का सबसे बड़ा लक्षण यह होगा कि मनुष्य अपने कुटुम्ब का पालन कर ले। धर्म का सेवन यश के लिये किया जायेगा। इस प्रकार जब सारी पृथ्वी पर दुष्टों का बोलबाला हो जायेगा, तब राजा होने का कोई नियम न रहेगा; ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्रों में जो बली होगा, वही राजा बन बैठेगा। उस समय के नीच राजा अत्यन्त निर्दय एवं क्रूर होंगे; लोभी तो इतने होंगे कि उसमें और लुटेरों में कोई अन्तर न किया जा सकेगा। वे प्रजा की पूँजी एवं पत्नियों तक को छीन लेंगे। उनसे डरकर प्रजा पहाड़ों और जंगलों में भाग जायेगी। उस समय प्रजा तरह-तरह के शाक, कन्द-मूल, मांस, मधु, फल-फूल और बीज-गुठली आदि खा-खाकर अपना पेट भरेगी।
कलियुग में मौसम, रोगों और जीवन का हाल
अनावृष्ट्या विनङ्क्ष्यन्ति दुर्भिक्षकरपीडिताः।
शीतवातातपप्रावृड् हिमैरन्योन्यतः प्रजाः॥१०॥
क्षुत्तृड्भ्यां व्याधिभिश्चैव संतप्स्यन्ते च चिन्तया।
त्रिंशद्विंशति वर्षाणि परमायुः कलौ नृणाम्॥११॥
- भागवत पुराण १२.२.१०-११
भावार्थः - कभी वर्षा न होगी-सूखा पड़ जायेगा; तो कभी कर-पर-कर लगाये जायेंगे। कभी कड़ाके की सर्दी पड़ेगी तो कभी पाला पड़ेगा, कभी आँधी चलेगी, कभी गरमी पड़ेगी तो कभी बाढ़ आ जायेगी। इन उत्पातों से तथा आपस के संघर्ष से प्रजा अत्यन्त पीड़ित होगी, नष्ट हो जायेगी। लोग भूख-प्यास तथा नाना प्रकार की चिन्ताओं से दुःखी रहेंगे। रोगों से तो उन्हें छुटकारा ही न मिलेगा। कलियुग में मनुष्यों की परमायु केवल बीस या तीस वर्ष की होगी।
कलियुग में मनुष्य का शरीर, वर्ण और आश्रमों और धर्म का हाल
क्षीयमाणेषु देहेषु देहिनां कलिदोषतः।
वर्णाश्रमवतां धर्मे नष्टे वेदपथे नृणाम्॥१२॥
पाषण्डप्रचुरे धर्मे दस्युप्रायेषु राजसु।
चौर्यानृतवृथाहिंसा नानावृत्तिषु वै नृषु॥१३॥
शूद्रप्रायेषु वर्णेषु च्छागप्रायासु धेनुषु।
गृहप्रायेष्वाश्रमेषु यौनप्रायेषु बन्धुषु॥१४॥
- भागवत पुराण १२.२.१२-१४
भावार्थः - परीक्षित! कलिकाल के दोष से प्राणियों के शरीर छोटे-छोटे, क्षीण और रोगग्रस्त होने लगेंगे। वर्ण और आश्रमों का धर्म बतलाने वाला वेद-आर्ग नष्टप्राय हो जायेगा। धर्म में पाखण्ड की प्रधानता हो जायेगी। राजे-महाराजे डाकू-लुटेरों के समान हो जायेंगे। मनुष्य चोरी, झूठ तथा निरपराध हिंसा आदि नाना प्रकार के कुकर्मों से जीविका चलाने लगेंगे। चारों वर्णों के लोग शूद्रों के समान हो जायेंगे। गौएँ बकरियों की तरह छोटी-छोटी और कम दूध देने वाली हो जायेंगी। वानप्रस्थी और संन्यासी आदि विरक्त आश्रम वाले भी घर-गृहस्थी जुटाकर गृहस्थों का-सा व्यापार करने लगेंगे। जिनसे विवाहित सम्बन्ध हैं, उन्हीं को अपना सम्बन्धी माना जायेगा।
कलियुग में फसल, ऋतु, जनसंख्या और मनुष्यों के स्वभाव का हाल
अणुप्रायास्वोषधीषु शमीप्रायेषु स्थास्नुषु।
विद्युत्प्रायेषु मेघेषु शून्यप्रायेषु सद्मसु॥१५॥
इत्थं कलौ गतप्राये जनेतु खरधर्मिणि।
- भागवत पुराण १२.२.१५-१६
भावार्थः - धान, जौ, गेंहूँ आदि धान्यों के पौधे छोटे-छोटे होने लगेंगे। वृक्षों में अधिकांश शमी के समान छोटे और कँटीले वृक्ष ही रह जायेंगे। बादलों में बिजली तो बहुत चमकेगी, परन्तु वर्षा कम होगी। गृहस्थों के घर अतिथि-सत्कार या वेदध्वनि से रहित होने के कारण अथवा जनसंख्या घट जाने के कारण सूने-सूने हो जायेंगे। परीक्षित! अधिक क्या कहें-कलियुग का अन्त होते-होते मनुष्यों का स्वभाव गधों-जैसा दुःसह बन जायेगा, लोग प्रायः गृहस्थी का भार ढोने वाले और विषयी हो जायेंगे।
ध्यान दे, श्रीशुकदेवजी ने जो बात कही है कलियुग के सम्बन्ध में, उसमे भी वेद विज्ञान है। जब श्रीशुकदेवजी ने प्रथम बार कलियुग के बारे में कहा तो उन्होंने धर्म के पतन होने की बात कही, उसके बाद क्रमश धर्म के पतन होने से क्या होता है यह इस प्रकार कहते गए - जब धर्म का पतन होता है तो लोगों का पतन होता है, लोगों के कारण राजा-प्रजा का हाल और खान-पान भी सही नहीं होता, इन सभी कारणों से मौसम, रोगों और जीवन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है, जिसके कारण से मनुष्य का शरीर फसल, ऋतु, जनसंख्या का हाल और भी ख़राब हो जाता है। अस्तु, तो ये सबकुछ जो हो रहा है इसका कारण धर्म का पतन है। इसीलिए श्रीशुकदेवजी ने सबसे पहले कलियुग में धर्म के पतन के बारे में बताया और जितना धर्म का पतन होगा, उतना ही जो कुछ श्रीशुकदेवजी जी ने कहा वो सब कुछ प्रत्यक्ष आपको दिखेगा।
भागवत पुराण अनुसार
भागवत पुराण में अनेक जगहों पर कलियुग के लक्षण का वर्णन मिलता है। श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय २ में भी कलियुग के लक्षणों का वर्णन मिलता है और श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय ३ में भी लक्षणों का वर्णन मिलता है। भागवत पुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय ३ में श्री शुखदेव जी ने कलियुग के लक्षणों का वर्णन कुछ इस प्रकार किया है –
कलियुग में धर्म का पतन
प्रभवन्ति यदा सत्त्वे मनोबुद्धीन्द्रियाणि च।
तदा कृतयुगं विद्यात् ज्ञाने तपसि यद्रुचिः॥२७॥
यदा धर्मार्थ कामेषु भक्तिर्यशसि देहिनाम्।
तदा त्रेता रजोवृत्तिः इति जानीहि बुद्धिमन्॥२८॥
यदा लोभस्तु असन्तोषो मानो दम्भोऽथ मत्सरः।
कर्मणां चापि काम्यानां द्वापरं तद् रजस्तमः॥२९॥
यदा मायानृतं तन्द्रा निद्रा हिंसा विषादनम्।
शोकमोहौ भयं दैन्यं स कलिस्तामसः स्मृतः॥३०॥
यस्मात् क्षुद्रदृशो मर्त्याः क्षुद्रभाग्या महाशनाः।
कामिनो वित्तहीनाश्च स्वैरिण्यश्च स्त्रियोऽसतीः॥३१॥
दस्यूत्कृष्टा जनपदा वेदाः पाषण्डदूषिताः।
राजानश्च प्रजाभक्षाः शिश्नोदरपरा द्विजाः॥३२॥
अव्रता वटवोऽशौचा भिक्षवश्च कुटुम्बिनः।
तपस्विनो ग्रामवासा न्यासिनोऽत्यर्थलोलुपाः॥३३॥
- भागवत पुराण १०.३.२७-३३
भावार्थः - जिस समय झूठ-कपट, तन्द्रा-निद्रा, हिंसा-विषाद, शोक-मोह, भय और दीनता की प्रधानता हो, उसे तमोगुण-प्रधान कलियुग समझना चाहिये। जब कलियुग का राज्य होता है, तब लोगों की दृष्टि क्षुद्र हो जाती है; अधिकांश लोग होते तो हैं अत्यन्त निर्धन, परन्तु खाते हैं बहुत अधिक। उनका भाग्य तो होता है बहुत ही मन्द और चित्त में कामनाएँ होती हैं बहुत बड़ी-बड़ी। स्त्रियों में दुष्टता और कुलटापन की वृद्धि हो जाती है। सारे देश में, गाँव-गाँव में लुटेरों की प्रधानता एवं प्रचुरता हो जाती है। पाखण्डी लोग अपने नये-नये मत चलाकर मनमाने ढंग से वेदों का तात्पर्य निकालने लगते हैं और इस प्रकार उन्हें कलंकित करते हैं। राजा कहलाने वाले लोग प्रजा की सारी कमाई हड़पकर उन्हें चूसने लगते हैं। ब्राह्मण नामधारी जीव पेट भरने और जननेन्द्रिय को तृप्त करने में ही लग जाते हैं। ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्य व्रत से रहित और अपवित्र रहते लगते हैं। गृहस्थ दूसरों को भिक्षा देने के बदले स्वयं भीख माँगने हैं, वानप्रस्थी गाँवों में बसने लगते हैं और संन्यासी धन के अत्यन्त लोभी-अर्थपिशाच हो जाते हैं।
कलियुग में स्त्रियों का व्यवहार
ह्रस्वकाया महाहारा भूर्यपत्या गतह्रियः।
शश्वत्कटुकभाषिण्यः चौर्यमायोरुसाहसाः॥३४॥
- भागवत पुराण १०.३.३४
भावार्थः - स्त्रियों का आकार तो छोटा हो जाता है, पर भूख बढ़ जाती है। उन्हें सन्तान बहुत अधिक होती है और वे अपने कुल-मर्यादा का उल्लंघन करके लाज-हया-जो उनका भूषण है-छोड़ बैठती हैं। वे सदा-सर्वदा कड़वी बात कहती रहती हैं और चोरी तथा कपट में बड़ी निपुण हो जाती हैं। उनमें साहस भी बहुत बढ़ जाता है।
कलियुग में व्यापारियों का व्यवहार
पणयिष्यन्ति वै क्षुद्राः किराटाः कूटकारिणः।
अनापद्यपि मंस्यन्ते वार्तां साधु जुगुप्सिताम्॥३५॥
पतिं त्यक्ष्यन्ति निर्द्रव्यं भृत्याप्यखिलोत्तमम्।
भृत्यं विपन्नं पतयः कौलं गाश्चापयस्विनीः॥३६॥
- भागवत पुराण १०.३.३५-३६
भावार्थः - व्यापारियों के हृदय अत्यन्त क्षुद्र हो जाते हैं। वे कौड़ी-कौड़ी से लिपटे रहते और छदाम-छदाम के लिये धोखाधड़ी करने लगते हैं। और तो क्या-आपत्ति काल न होने पर धनी होने पर भी वे निम्न श्रेणी के व्यापारों को, जिनकी सत्पुरुष निन्दा करते हैं, ठीक समझने और अपनाने लगते हैं। स्वामी चाहे सर्वश्रेष्ठ ही क्यों न हों-जब सेवक लोग देखते हैं कि इसके पास धन-दौलत नहीं रही, तब उसे छोड़कर भाग जाते हैं। सेवक चाहे कितना ही पुराना क्यों न हो-परन्तु जब वह किसी विपत्ति में पड़ जाता है, तब स्वामी उसे छोड़ देते हैं। और तो क्या, जब गौएँ बकेन हो जाती हैं-दूध देना बन्द कर देती हैं, तब लोग उनका भी परित्याग कर देते हैं।
कलियुग में मनुष्य का व्यवहार
पितृभ्रातृसुहृत्ज्ञातीन् हित्वा सौरतसौहृदाः।
ननान्दृश्यालसंवादा दीनाः स्त्रैणाः कलौ नराः॥३७॥
शूद्राः प्रतिग्रहीष्यन्ति तपोवेषोपजीविनः।
धर्मं वक्ष्यन्त्यधर्मज्ञा अधिरुह्योत्तमासनम्॥३८॥
- भागवत पुराण १०.३.३७-३८
भावार्थः - प्रिय परीक्षित! कलियुग के मनुष्य बड़े ही लम्पट हो जाते हैं, वे अपनी कामवासना को तृप्त करने के लिये ही किसी से प्रेम करते हैं। वे विषय वासना के वशीभूत होकर इतने दीन हो जाते हैं कि माता-पिता, भाई-बन्धु और मित्रों को भी छोड़कर केवल अपनी साली और सालों से ही सलाह लेने लगते हैं। शूद्र तपस्वियों का वेष बनाकर अपना पेट भरते और दान लेने लगते हैं। जिन्हें धर्म का रत्तीभर भी ज्ञान नहीं है, वे ऊँचें सिंहासन पर विराजमान होकर धर्म का उपदेश करने लगते हैं।
कलियुग में मौसम का हाल
नित्यमुद्विग्नमनसो दुर्भिक्षकरकर्शिताः।
निरन्ने भूतले राजन् अनावृष्टिभयातुराः॥३९॥
- भागवत पुराण १०.३.३९
भावार्थः - प्रिय परीक्षित! कलियुग की प्रजा सूखा पड़ने के कारण अत्यन्त भयभीत और आतुर हो जाती है। एक तो दुर्भिक्ष और दूसरे शासकों की कर-वृद्धि! प्रजा के शरीर में केवल अस्थिपंजर और मन में केवल उद्वेग शेष रह जाता है। प्राण-रक्षा के लिये रोटी का टुकड़ा मिलना भी कठिन हो जाता है।
कलियुग में भोजन और धन का हाल
वासोऽन्नपानशयनव्यवायस्नानभूषणैः।
हीनाः पिशाचसन्दर्शा भविष्यन्ति कलौ प्रजाः॥४०॥
कलौ काकिणिकेऽप्यर्थे विगृह्य त्यक्तसौहृदाः।
त्यक्ष्यन्ति च प्रियान्प्राणान् हनिष्यन्ति स्वकानपि॥४१॥
- भागवत पुराण १०.३.४०-४१
भावार्थः - कलियुग में प्रजा शरीर ढकने के लिये वस्त्र और पेट की ज्वाला शान्त करने के लिये रोटी, पीने के लिये पानी और सोने के लिये दो हाथ जमीन से भी वंचित हो जाती है। उसे दाम्पत्य-जीवन, स्नान और आभूषण पहनने तक सुविधा नहीं रहती। लोगों की आकृति, प्रकृति और चेष्टाएँ पिशाचों की-सी हो जाती हैं। कलियुग में लोग, अधिक धन की तो बात ही क्या, कुछ कौड़ियों के लिये आपस में वैर-विरोध करने लगते और बहुत दिनों के सद्भाव तथा मित्रता को तिलांजलि दे देते हैं। इतना ही नहीं, वे दमड़ी-दमड़ी के लिये अपने सगे-सम्बन्धियों तक की हत्या कर बैठते और अपने प्रिय प्राणों से भी हाथ धो बैठते हैं।
कलियुग में क्षुद्र का व्यवहार
न रक्षिष्यन्ति मनुजाः स्थविरौ पितरौ अपि।
पुत्रान् सर्वार्थकुशलान् क्षुद्राः शिश्नोदरम्भराः॥४२॥
- भागवत पुराण १०.३.४२
भावार्थः - परीक्षित! कलियुग के क्षुद्र प्राणी केवल कामवासना की पूर्ति और पेट भरने की धुन में ही लगे रहते हैं। पुत्र अपने बूढ़े माँ-बाप की रक्षा-पालन-पोषण नहीं करते, उनकी उपेक्षा कर देते हैं और पिता अपने निपुण-से-निपुण, सब कामों में योग्य पुत्रों की भी परवा नहीं करते, उन्हें अलग कर देते हैं।
कलियुग में भगवान के प्रति लोगों का भाव
कलौ न राजन् जगतां परं गुरुं
त्रिलोकनाथानतपादपङ्कजम्।
प्रायेण मर्त्या भगवन्तमच्युतं
यक्ष्यन्ति पाषण्डविभिन्नचेतसः॥४३॥
यन्नामधेयं म्रियमाण आतुरः
पतन् स्खलन् वा विवशो गृणन् पुमान्।
विमुक्तकर्मार्गल उत्तमां गतिं
प्राप्नोति यक्ष्यन्ति न तं कलौ जनाः॥४४॥
- भागवत पुराण १०.३.४३-४४
भावार्थः - परीक्षित! श्रीभगवान ही चराचर जगत् के परम पिता और परम गुरु हैं। इन्द्र-ब्रह्मा आदि त्रिलोकाधिपति उनके चरणकमलों में अपना सिर झुकाकर सर्वस्व समर्पण करते रहते हैं। उनका ऐश्वर्य अनन्त है और वे एकरस अपने स्वरूप में स्थित हैं। परन्तु कलियुग में लोगों में इतनी मूढ़ता फैल जाती है, पाखण्डियों के कारण लोगों का चित्त इतना भटक जाता है कि प्रायः लोग अपने कर्म और भावनाओं के द्वारा भगवान की पूजा से भी विमुख हो जाते हैं।
ध्यान दे, श्रीशुकदेवजी ने जो बात कही है कलियुग के सम्बन्ध में, उसमे भी वेद विज्ञान है। जब श्रीशुकदेवजी ने प्रथम बार कलियुग के बारे में कहा तो उन्होंने धर्म के पतन होने की बात कही, उसके बाद क्रमश धर्म के पतन होने से क्या होता है यह इस प्रकार कहते गए - जब धर्म का पतन होता है तो स्त्रियों, व्यापारियों और मनुष्यों का पतन होता है, लोगों के कारण से मौसम का हाल, भोजन इत्यादि का हाल और भी ख़राब हो जाता है। इन सभी कारण से मनुष्य का भगवान से और भी विमुख हो जाते हैं। अस्तु, तो ये सबकुछ जो हो रहा है इसका कारण धर्म का पतन है। इसीलिए श्रीशुकदेवजी ने सबसे पहले कलियुग में धर्म के पतन के बारे में बताया और जितना धर्म का पतन होगा, उतना ही जो कुछ श्रीशुकदेवजी जी ने कहा वो सब कुछ प्रत्यक्ष आपको दिखेगा।
अस्तु, तो कलियुग के अंत में भगवान अवतार लेंगे और कलियुग का अंत होगा और फिर से सतयुग की शुरुआत होगी।
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