नीति के वचन
अति सर्वत्र वर्जयेत
सब जगह अति करने से बचना चाहिये।
शठे शाठ्यम समाचरेत् -- चाणक्य
दुष्ट के साथ दुष्टता का ही व्यवहार करना चाहिये।
आयुर्वित्तं गृहच्छिद्रं मंत्रमैथुनभेषजम्।
दानमानापमानं च नवैतानि सुगोपयेत्॥ -- शुक्राचार्य
अपनी आयु , वित्त, गृह के दोष, मंत्र, मैथुन, औषधि, दान, मान, अपमान -- इन नौ को छुपाकर रखना चाहिए (अन्यथा नुकसान उठाना पड़ सकता है)।
श्रूयताम धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवानुवर्यताम ।
आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषाम न समाचरेत ॥
धर्म का तत्व समझो और उसे गुनो! जो अपने लिये प्रतिकूल हो, वैसा आचरण या व्यवहार दूसरों के साथ नहीं करना चाहिये।
दुर्जनम् प्रथमं वन्दे, सज्जनं तदनन्तरम्।
मुख प्रक्षालनत् पूर्वे गुदा प्रक्षालनम् यथा ॥
पहले कुटिल व्यक्तियों को प्रणाम करना चाहिये, सज्जनों को उसके बाद; जैसे मुँह धोने से पहले, गुदा धोयी जाती है ।
अयं निजः परोवेति, गणना लघुचेतसाम ।
उदारचरितानामतु वसुधैवकुटुम्बकम् ॥
यह मेरा है, यह दूसरे का है, ऐसा छोटी बुद्धि वाले सोचते हैं; उदार चरित्र वालों के लिये तो धरती ही परिवार है ।
विद्या विवादाय धनं मदाय, शक्तिः परेशाम् परपीड़नाय ।
खलस्य साधोर्विपरीतमेतद ज्ञानाय, दानायचरक्षणाय॥
विद्या विवाद के लिये, धन मद के लिये, शक्ति दूसरों को सताने के लिये, ये चीजें सज्जन लोगों में दुष्टों से उल्टी होती हैं, क्रमशः ज्ञान, दान और रक्षा के लिये ।
न चौरहार्यम् न न राजहार्यम् न भ्रातृभाज्यम् न च भारकारि ।
व्यये कृते वर्धत एव नित्यम् विद्या धनं सर्व धनम् प्रधानम् ॥
न चोर चुरा सकता है, न राजा छीन सकता है, न भाई बांट सकते हैं और न यह भारी है। खर्च करने पर रोज बढती है, विद्या धन सभी धनों में प्रधान है ।
ताराणां भूषणम् चन्द्र, नारीणां भूषणम् पतिः ।
पृथिव्यां भूषणम् राज्ञः विद्या सर्वस्य भूषणम् ॥
चन्द्रमा तारों का आभूषण है, नारी का भूषण पति है । पृथ्वी का अभूषण राजा है और विद्या सभी का आभूषण है ।
उत्साहसम्पन्नमदीर्घसूत्रं क्रिया विधिज्ञं व्यसनेष्वसक्तम् ।
शूरं कृतज्ञं दृढ सौहृतम् च लक्ष्मीः स्वयं याति निवास हेतो ॥
जो उत्साह से भरा है, आलसी नहीं है, क्रिया कुशल है और अच्छे कामों में रत है, वीर, कृतज्ञ और अच्छी मित्रता रखने वाला है, लक्ष्मी उस के साथ रहने अपने आप आती है ।
आचारः परमो धर्म आचारः परमं तपः।
आचारः परमं ज्ञानम् आचरात् किं न साध्यते॥
व्यवहार परम धर्म है, व्यवहार ही परम तप है, व्यवहार ही परम ज्ञान है, व्यवहार से क्या नहीं मिल सकता ।
शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे।
साधवो न हि सर्वत्र चन्दनं न वने वने॥
हर पत्थर मणि नहीं होता, हर हाथी पर मुक्ता नहीं होता । सज्जन सभी जगह नहीं होते और चंदन हर वन में नहीं होता ।
पुस्तकस्था तु या विद्या परहस्तगतं धनम्।
कार्यकाले समुत्पन्ने न सा विद्या न तद् धनम्॥
किताब में रखा ज्ञान और दूसरे को दिया धन, काम पडने पर न वह विद्या काम आती है और न वह धन ।
वरमेको गुणी पुत्रः न च मूर्खशतान्यपि।
एकश्चंद्रस्तमो हन्तिः न तारागणाऽपि च॥
मुझे एक गुणी पुत्र मिले न कि सौ मूर्ख पुत्र, एक ही चन्द्रमा अन्धेरे को खत्म करता है, सभी तारे मिल कर भी नहीं कर पाते ।
यस्य कृत्यं न विघ्नन्ति शीतमुष्णं भयं रतिः।
समृद्धिरसमृद्धिर्वा स वै पण्डित उच्यते॥
जिसके कर्म को शर्दी, गर्मी, भय, भावुकता, समपन्नता अथवा विपन्नता बाधा नहीं डालता है, उसे ही पंडित कहा गया है।
तत्वज्ञः सर्वभूतानां योगज्ञः सर्वकर्मणाम् ।
उपायज्ञो मनुष्याणां नरः पण्डित उच्यते ॥
सभी जीवों के आत्मा के रहस्य को जानने वाले, सभी कर्म के योग को जानने वाले और मनुष्यों में उपाय जानने वाले व्यक्ति को पंडित कहा जाता है।
अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहुभाषते ।
अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधमः ॥
जो व्यक्ति बिना बुलाए किसी के यहाँ जाता है, बिना पूछे बोलता है और अविश्वासीयों पर विश्वास कर लेता है, उसे मुर्ख कहा गया है।
एको धर्मः परं श्रेयः क्षमैका शान्तिरुत्तमा।
विद्यैका परमा तृप्तिः अहिंसैका सुखावहा ॥
एक ही धर्म सबसे श्रेष्ठ है। क्षमा शांति का उतम उपाय है। विद्या से संतुष्टि प्राप्त होती है और अहिंसा से सुख प्राप्त होती है।
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत् त्रयं त्यजेत् ॥
नरक के तीन द्वार है- काम, क्रोध और लोभ। इसलिए इन तीनों को त्याग देना चाहिए।
षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता ।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता ॥
एश्वर्य चाहने वाले व्यक्ति को निद्रा (अधिक सोना), तन्द्रा (उंघना), डर, क्रोध, आलस्य और किसी काम को देर तक करना। इन छः दोषों को त्याग देना चाहिए।
सत्येन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते ।
मृजया रक्ष्यते रूपं कुलं वृत्तेन रक्ष्यते ॥
सत्य से धर्म की रक्षा होती है। अभ्यास से विद्या की रक्षा होती है। श्रृंगार से रूप की रक्षा होती है। अच्छे आचरण से कुल ;परिवारद्ध की रक्षा होती है।
सुलभाः पुरुषा राजन् सततं प्रियवादिनः ।
अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः ॥
हे राजन! सदैव प्रिय बोलने वाले और सुनने वाले पुरूष आसानी से मिल जाते हैं, लेकिन अप्रिय ही सही उचित बोलने वाले कठिन है।
पूजनीया महाभागाः पुण्याश्च गृहदीप्तयः ।
स्त्रियः श्रियो गृहस्योक्तास्तस्माद्रक्ष्या विशेषतः ॥
स्त्रियाँ घर की लक्ष्मी होती हैं। इन्ही से परिवार की प्रतिष्ठा बढ़ती है। यह महापुरूषों को जन्म देनेवाली होती है। इसलिए स्त्रियाँ विशेष रूप से रक्षा करने योग्य होती है।
अकीर्तिं विनयो हन्ति हन्त्यनर्थं पराक्रमः ।
हन्ति नित्यं क्षमा क्रोधमाचारो हन्त्यलक्षणम् ॥
विनम्रता बदनामी को दुर करती है, पौरूष या पराक्रम अनर्थ को दुर करता है, क्षमा क्रोध को दुर करता है और अच्छा आचरण बुरी आदतों को दुर करता है।
अति का भला न बोलना, अतिकी भली न चूप ।
अतिका भला न बरसना अतिकि भली न धूप ॥
0 Comments
If you have any Misunderstanding Please let me know