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उषःसूक्त- मूलपाठ, सायणभाष्य, अर्थ - व्याख्या


 

उषःसूक्त- मूलपाठ, सायणभाष्य, अर्थ - व्याख्या

इकाई की रूपरेखा

1 प्रस्तावना

2 उद्देश्य

3 उषस् सूक्त

4 सारांश

5 शब्दावली

6 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर

7 निबन्धात्मक प्रश्न

2.1. प्रस्तावना

स्नात्तकोत्तर संस्कृत प्रथम वर्ष के प्रथम प्रश्न पत्र के प्रथम खण्ड (वैदिक सूक्तों से सम्बन्धित) की यह द्वितीय इकाई है । इसके पूर्व की इकाई में आपने इन्द्र सूक्त के माध्यम से वैदिक देवता इन्द्र की समस्त विशेषताओं का अध्ययन किया है । इस इकाई के अन्तर्गत आप उषा के स्वरूप एवं उसके कार्यो का अध्ययन करेगें ।

उषस् सूक्त ऋग्वेद के तृतीय मण्डल का इकसठवाँ सूक्त है। इसके ऋषि विश्वामित्र तथा देवता उषस् हैं । सम्पूर्ण सूक्त में त्रिष्टुप् छन्द का प्रयोग किया गया है । प्रस्तुत सूक्त में वर्णित उषस् को सत्य एवं असत्य का उच्चारण करने वाली तथा विशेष रूप से शोभायमान बताया गया है। सूर्य को उषा का प्रेरयिता बताया गया है। रात्रि तथा उषा को दो बहनों के रूप में चित्रित किया गया है।

प्रस्तुत इकाई के अध्ययन से आप उषा के विभिन्न स्वरूपों एवं उसके पराक्रम को बतायेगें ।

उद्देश्य

उषस् सूक्त में वर्णित देवी की महत्ता के परिज्ञान से आप बता सकेंगे कि -

1. ऋग्वेद में वर्णित उषा का स्वरूप क्या है ?

2. उषस् के विभिन्न रूपों की महत्ता क्या है ?

3. उषस् सूक्त में उषा की स्तुतियाँ कितने मंत्रों के माध्यम से की गयी ?

4. उषस् का स्वरूप तथा अन्य देवताओं के स्वरूप एवं महत्व में अन्तर क्या है ? 5. उषा के विशिष्ट कार्य कौन-कौन से हैं?

उषस् सूक्त

ऋषि-विश्वामित्र,देवता- उषस् छन्द - त्रिष्टुप् मण्डल- 3, सूक्त - 69, मूलपाठ

उषो वाजेन । वाजिनि प्रचेतः स्तोमं जुषस्व गृणतो मघोनि ।

पुराणी देवि युवतिः पुरंधिरनु व्रतं चरसि विश्ववारे ।।1।।

पदपाठः

उषः । वाजेन वाजिनि । प्रऽचेताः ।

स्तोमम् जुषस्व। गृणतः। मघोनिः।

पुराणी। देवि। युवतिः। पुरंऽधिः । अनु। व्रतम्। चरसि । विश्वऽवारे ।।1।।

अन्वय- वाजेन वाजिनि मघोनि उषः। प्रचेताः गृणतः स्तोमम् जुषस्व । विश्ववारे देवि । पुराणी युवतिः पुरन्धिः व्रतम् अनुचरसि ।

सायण- वाजेन वाजिनि अन्नेन अन्नवति । मघोनि धनवति हे उषः । प्रचेताः प्रकृष्ट ज्ञानवती सती गृणतः तव सतोत्रं कुर्वतः स्तोतुः स्तोमं स्तोत्रं जुषस्व सेवस्व । यद्वा वाजेन हविर्लक्षणेनान्नेन सह स्तोमं जुषस्वेति सम्बन्धः । विश्ववारे सर्वैर्वरणीये हे उषो देवि पुराणी पुरातनी युवति तरणीत्युपमा । तद्वच्छोभना । सुसंकाशा मातृमृष्टेच योषेतिवत् । ( ऋग् 01/123/2 ) पुरन्धिः पुरू बहु धी स्तोत्रलक्षणं कर्म यस्याः सा । बहुस्तोत्रवती पुरूधिर्बहुधीरिति यास्कः । पुरन्धि शोभमाना वा । एवंविघगुणोपेत त्वमनुप्व्रतं यज्ञकर्माभिलक्ष्य चरसि यष्टव्यतया वर्तते ।

अर्थ - अन्न से अन्नवती तथा धन से सम्पन्न हे उषा देवी । तुम प्रकृष्ट ज्ञान वाली होती हुई स्तुति करने वाले के स्तोत्र को ग्रहण करो । सम्पूर्ण विश्व के द्वारा वरणीय, दिव्य गुणों से सम्पन्न हे उष देवी तुम पुरातनी युवती के समान हो अथवा सनातन काल से युवती ही बनी हुई हो, बहुत अधिक बुद्धिशालिनी हो और तुम हमारे यज्ञ आदि नियम व्रत को लक्ष्य करके विचरण करती हो अर्थात उनका पालन करती हो ।

व्याख्या- उषा को सदा नवीन रहने के कारण "पुराणी युवतिः" भी कहा जाता है । वाज शब्द के अनेक अर्थ है - Swiftness, Race, Prize of Race gain, treasure, food, oblation, strength, strife, contest, booty आदि । मैक्समूलर ने तो वाजेन वाजिनि का अर्थ ' Wealthy by wealth or booty ' किया है । यहाँ पर 'वार' का अर्थ सब वरणीय धनों से सम्पन्न हो सकता है। वार का मतलब दिन से भी होता है अतः विश्ववारे का अर्थ प्रतिदिन भी हो सकता है । व्याकरणीय दृष्टि से हम उषा सूक्त के इस मन्त्र के एक-2 शब्दों को इस पर समझ सकते हैं –

व्याकरण- जुषस्व - जुष् धातु, लोट लकार, मध्यम पुरुष एक वचन वजिनि-वाजः अस्य अस्ति अर्थ में वाज + इनि + ङीप । सम्बोधन एकवचन । गृणत:- गृ+ श्ना + शतृ। षष्ठी विभक्ति एक वचन। मघोनि-'मघ' शब्द से 'मतुप्' के अर्थ में वैदिक, 'वनिन् प्रत्यय । व को '' सम्प्रसारण और 'ऋन्नेभ्यो ङीप्' से ङीप्- मघोनी । सम्बोधन का एकवचन । युवति:- युवन् ति = युवतिः। न का लोप । विश्ववारे- विश्व नृण (अ) टाप् । सम्बोधन का एकवचन । चरसि - विचरण करती हो। स्तोमम्-स्तोत्र को । प्रचेताः-प्रकृष्ट ज्ञान वाली । पुरंधिः पुरम् धी यस्या अर्थ में 'पृषोदरा-दिव्वात् नियम से पुरू को पुरम् आदेश हुआ तो पुरंधि शब्द बना ।

मूलपाठ

2. उषो देव्यमर्त्या विभाहि चन्द्ररथा सूनृता ईरयन्ती ।

आ त्वा वहन्तु सुयभासो अश्वा हिरण्यवर्णा पृथुयाजसो ये ॥

पदपाठ -

उषः । देवि । अमर्त्या । वि । भाहि ।

चन्द्रऽरथा । सूनृताः । ईरयन्ती ।

आ । त्वा । वहन्तु । सुऽयमासः। अश्वाः। हिरण्यवर्णा पृथुऽपाजसः। ये ॥2 ॥

अन्वय- उषः देवि । अमर्त्या चन्द्ररथा सूनृताः ईरयन्ती विभाहि । पृथुपाजसः सुयमासः ये अश्वाः हिरण्यवर्णाम् त्वा आवहन्तु ।

सायण- हे उषो देवि अमर्त्या मरणधर्मरहिता चन्द्ररथा सुवर्णमयारथो-पेता सूनृताः प्रियसत्यरूपा वा च ईरयन्ती उच्चारण-पृथुपाजसः प्रभूत बलयुक्ता अरूणवर्णा येऽश विद्यन्ते सुयमासः सुष्णु नियन्तु शक्या रथे योजितास्तेऽश्वा हिरव्यवर्णा त्वा त्वामावहन्तु सुयमासः यमेरकृच्छ्रार्थे रवल् ।

अर्थ- हे उषा देवी! दिव्य गुणों वाली तुम मरण धर्म से रहित होती हुई, सुवर्णमय रथ पर आरूढ होती हुई, प्रिय और सत्य वाणियों का उच्चारण करती हुई, सूर्य किरणों के सम्बन्ध में विशेष रूप से शोभायमान बनो । अत्यधिक बलशाली और अच्छी प्रकार से नियन्त्रित जो तुम्हारे अरूण वर्ण घोड़े हैं, वे स्वर्ण के समान दीप्तिमान तुमको हमारे सम्मुख लायें ।

व्याख्या- दिव्यगुणवाली मरणधर्म से रहित आदि जो भी विशेषणयुक्त बातें बतलायी गयी है, ये उषा के विभिन्न गुणों को रेखांकित करती है। घोड़ो की विशेषता बतलाते हुए यह कहा गया है कि ये प्रतिभाशाली और अच्छी प्रकार से नियंत्रित है और ये घोड़े स्वर्ण के समान दीप्तिमान है ये ही तुमको हमारे सम्मुख लायें। उषा की प्रशंसा करते हुए विश्वामित्र ऋषि कहते है कि हे उषा देवी तुम मरणधर्म से रहित हो तथा तुम विशेष रूप से सुशोभित हो जाओ मेरी यही कामना है । तुम्हारी वाणी प्रिय है तथा तुम सत्य वाणी का उच्चारण करती हो । सूर्य की किरणों सम्बन्ध को रेखांकित कर ऋषि विश्वामित्र कहते है कि तुम इनके सम्बन्ध से विशेष प्रकार से शोभायमान हो जाओं। घोड़ो की विशेषता बतलाते हुए कहते हैं कि ये तुम्हारे अरूण वर्ण के घोड़े सब तरह से नियंत्रण में हैं ।

व्याकरण- भाहि -भा धातु, लोट लकार, मध्यम पुरुष एकवचन । ईरयन्ती-ईरणिच्शतृङीप् । सुनृता- सुऋतटाप् ( यहाँ पर नुत् का आगम तथा दीर्घ हुआ ) सुयमासः - सुयमखल् = सुयम । प्रथमा विभक्ति बहुवचन का वैदिक रूप । पृथुयाजसः पुथुपाजः येषां ते । याजुत् (ज्) असुन् (अस्) याजस् । पीटर्सन ने पृथुयाजसः का अर्थ ' अत्यधिक चमक वाला' बताया है। यहाँ पर सुयमासः का अर्थ 'सुख पूर्वक जोते जा सकने वाला' भी हो सकता है।

मूलपाठ

3. उषः प्रतीची भुवनानि विश्वोर्ध्वा तिष्ठस्यमृतस्य केतुः ।

समान्मर्थ चरणीयमाना चक्रर्मिक नण्यस्या ववृत्स्व॥

पदपाठ-

उषं । प्रतीची । भुवनानि विश्वा । उर्ध्वा। निष्टसि। अमृतस्य । केतुः ।

समानम् अर्थम् । चरणीयमाना । चक्रमिक नण्यसि । आ । ववृत्स्व ॥3॥

अन्वय- उषः। विश्वा भुवनानि प्रतीची अगृतस्य केतुः उर्ध्वा निष्टसि। नण्यसि। समानम् अर्थम् चरणीयमाना चक्रम् इव आंनृवत्स्व ।

सायण- हे उषो देवी! थ्वश्वा भुवनानि सर्वाणि प्रतीची । प्रति आभिमुचयेन अञ्चति प्राप्तोती प्रतीची । अमृतस्य मरणधर्म रहितस्य सूर्यत्य केतुः प्रज्ञाययित्रीति त्वमूर्ध्वा नभस्युन्नता तिष्ठसि। नण्यसि पुनः पुनर्जायमानतया नवतरे हे उषो देवी! अर्थम् अर्थते गम्यतेऽस्मिन्नित्यर्थो मार्गः समानमेकं मार्गमुदयात्प्राचीनकाललक्षणं चरणीयमाना चरितुमिच्छन्ती, त्वमस्यावनृत्सव पुनस्तस्मिन्मार्गम् आवृता भाव। तत्र दृष्टान्तः। चक्रमिव यथा नभसि चरितृः सूर्यस्थ रथाऽक्रूग पुनः पुनरावर्तते तद्वत्।

अर्थ-हे उषा देवी! तुम सम्पूर्ण लोकों के तरफ जाती हुई मरण धर्म से रहित सूर्य की ध्वजा अर्था उसका बोधन कराने वाली उपर आकाश में स्थित होती हो। सदा नवीन रहने वाली हे उषा । तुम एक ही मार्ग पर विचरण करती हुई सूर्य के पहिये के चक्र के समान पुनः पुनः घूमती रहो ।

व्याख्या- उषा देवी के बारे में यशगान करते हुए विश्वामित्र ऋषि का कहना है कि हे उषा देवी! सम्पूर्ण या जितने भी लोक है इस सृष्टि में आप उन सभी के सम्मुख अर्थात् सामने जाती है। आप सूर्य के ध्वजा अर्थात् उनकी सत्ता का बोध कराती है और आप आकाश में स्थित हैं। आप कभी प्राचीन नहीं हो सकती है। आप सर्वथा चिरस्थायी रहेगी। सूर्य का पहिया जिस प्रकार घूमता रहता है आप उसी प्रकार पुनः पुनः अर्थात बार-बार घूमती रहे।

व्याकरण-प्रतीची-प्रतिअञ्चुकिवन्। "अञ्चतेश्चोपसंख्यानम्से ड़ीप्। 'अञ्च्' के अं औरञ् तथा प्रति के इ को दीर्ध ई हुआ है। यहाँ पर विश्वा भुवनानि प्रतीची का अर्थ है- "In the Face of all Creatures’चरणीयमाना- 'चरणम् इच्छति' अर्थ में चरण क्यच्शानच्टाप् । केतुः- 'चाय् पूजायाम्' धातु से चाय् तुन् । 'चाय' को ही 'की' आदेश हुआ और गुण होकर केतु बना। ववृत्स्व- यड् लुगन्त वृत् धातु, लोट्लकार, मध्यमपुरूष एकवचन । नण्यसि- नवईयसुनड़ीप् । नव के '' और प्रत्यय के ई का वैदिक लोप = नण्यसि । सम्बोधन एकवचन यहाँ पर समानम् अर्थ चरणीयमाना का अर्थ है- "Pressing Forward to the Same Mark" अर्थात् As in Former days आप के सामने एक मंत्र प्रस्तुत है जिसकी तुलना ऋग्वेद से करनी चाहिए -

समानो अध्वा स्वत्रोरनन्तस्यमन्यान्या चरतोदेव शिष्टे ।

न मेथेते न तस्धतुः सुमेके नक्तोषासा समनसा विस्पे ॥

रात्रि और उषा को दो बहनें माना जाता है। ये न कभी रूकने वाली है न कभी ठहरने वाली हैं बल्कि अबाध गति से घूमती रहती हैं । इनके विचार एक दूसरे के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रहते हैं और एक दूसरे से मिलता जुलते हैं परन्तु इनके स्वरूप परस्पर भिन्न हैं। यहाँ पर छन्द के अनुरोध से ' विश्वोर्ध्वा ' को ' विश्वा 'उर्ध्वा' 'तिष्ठत्यमृतस्य' को 'तिष्टसि अमृतस्य तथा' नण्यस्या' को 'नण्यसि आ' पढ़ना चाहिए।

मूलपाठ

4. अव् स्युमैव चिन्वती मघोन्युषा याति स्वसरस्य पत्नी स्वर्जनन्ती सुभमा सुदंसा आन्तादिदवः प्रपथ आपृथिव्या

पदपाठ

अव। स्यूमऽइव। चिन्वती मघोनी ।

उषाः। याति। स्वसरस्य । पत्नी ।

स्वः। जनन्ती। सुऽभागा । सुडदंसाः ।

आ । अन्तात्। दिवः। पप्रथे । आ । पृथिव्या ।।4।।

अन्वय- मघोनी स्वसरस्य पत्नी उषाः स्यूम इव अवचिन्वती याति । स्वः जनन्ती सुभगा सुदंसाः दिवः आ अन्तात् पृथिव्याः आ पप्रथे ।

सायण-येयभुषाः वस्त्रमिव विस्तृतं नमः अवचिन्वती अवचयमपक्षयं प्रापयन्ती माघोनी धनवती । स्वसरस्य सुष्ठु अस्यति सिपति तम इति स्वसरः सूर्यो वासरो वा तस्य । पत्नी सती याति गच्छति। स्वः स्वकीयं तेजः जनन्ती जनयन्ती सुभागा सुघना सौभाग्ययुक्ता वा सुदंसाः शोभनाग्निहोत्रकर्म सेयमुषा दिवः द्युलोकस्य आ अन्तात् पृधिव्याश्च आ अन्तात् अवसानात्प्रपथे प्रकाशत इत्यर्थः।

अर्थ- धनसम्पत्ति से परिपूर्ण सूर्य की या दिन की पत्नी होती हुई यह उषा देवी वस्त्र के समान आच्छादित करने वाले अन्धकार का विनाश करती हुई अथवा अपने वस्त्र के अहंकार को फैकती हुई चली जाती है । अपने तेज को उत्पन्न करती हुई अथवा स्वर्ग को सजीव करती हुई, सुन्दर यज्ञरूपकर्म वाली यह उषा द्युलोक के अन्तिम किनारे से लेकर पृथ्वी के अन्तिम किनारे तक फैल जाती है।

व्याख्या-प्रस्तुत मंत्र में पीटर्सन नें स्यूम' का अर्थ वस्त्र बताया है और 'स्यूमेव चिन्वती' का अर्थ है- asting aside as it were, her garment उषा के विषय में वस्त्र का उदाहरण देकर बताया गया है कि जिस प्रकार शरीर को वस्त्र ढकते हैं उसी पर प्रकार उषा देवी अन्धकार का विनाश करती है । ये धन-सम्पत्ति से परिपूर्ण है । ये सुन्दर यज्ञ रूपी कर्मो वाली है जो द्युलोक से लेकर पृथ्वी के अन्तिम किनारे तक फैली हुई है। रॉथ ने ऋग्वेद के 1/113/7 वें मंत्र में 'स्यूमन' को Hymen नामक ग्रीक देवता के समानार्थक माना है। 'स्यूम' का अर्थ है- The mistress o the house bestirs herself, drawing back the Strap that closes the doo r। ग्रासमान के अनुसार 'अवस्यूमेव चिन्वती' का अर्थ है- ‘Unloosening her girdle। लुडविग ने इस प्रकार बताया है- 'Shaking reins in order to urge on her horses, or throwing reins away alto-gather in order to alight. सायण ने 'स्वरस्य पत्नी' का अर्थ बताया है उसे पीटर्सन ने अशुद्ध माना है और कहा है कि- ‘Queen of all World' होना चाहिए। पीटर्सन के अनुसार 'स्वर्जनन्ती' का अर्थ 'Bringing heaven to life' जव सपमिष् होना चाहिए और 'सुदंसा: ' का अर्थ Doing wonderful and glorious deed होना चाहिए। इसका अर्थ सुन्दर रूपवाली भी हो सकता है।

व्याकरण- चिन्वती- चि (सु) शतृड़ीप = चिन्वती मघोनी- मघवनिन् ङीप् = मघोनी स्यूम- 'षिवुतन्तुसन्ताने' धातु से मन् प्रत्यय । सिवम । सिव् के '' को 'च्छवोः शूडनुनासिके च से 'उठ' और '' को यण आदेश हुआ तो स्यूम बना । द्वितीया विभिक्त एकवचन वैदिक रूप । स्वसरस्य- 'सुष्ठु अस्यति सिपति तमः' अर्थ में 'सु अस् से अरक्' प्रत्यय = स्वसर । षष्ठी विभक्ति एकवचन । जनन्ती- णिजन्त 'जन' धातु से शतृ । 'छन्दस्यु- भयथासे णिच् का लोप होकर जनन्ती बना ।

अभ्यास प्रश्न- 1

1. उषस् सूक्त के ऋषि हैं-

(i) वशिष्ट         (ii) कपिल

(iii) विश्वामित्र    (iv) भर्तृहरि

2. उषस् सूक्त में छन्द का प्रयोग किया गया है-

(i) त्रिष्टुप्                   (ii) वंशस्थ

(iii) मालिनी               (iv) बसन्ततिलका

3. उषस् सूक्त-61 ऋग्वेद के किस मण्डल से गृहीत है-

(i) चतुर्थ               (ii) तृतीय

(iii) प्रथम            (iv) षष्ट

4. "गृणतःशब्द किस विभक्ति एवं किस वचन का रूप है-

(i) षष्टी एकवचन                  (ii) सप्तमी बहुवचन

(iii) चतुर्थी द्विवचन                (iv) तृतीया एकवचन

5. "नण्यसिशब्द किस विभक्ति एवं किस बचन का रूप है-

(i) सम्बोधन द्विवचन                (ii) सप्तमी बहुवचन

(iii) सम्बोधन बहुवचन            (iv) सम्बोधन एकवचन

6. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए-

क. उषो वाजेन वाजिनि प्रचेतः.. .…....गृणतो मघोनि ।

ख. आत्वा नहन्तु सुयमासो……….....पृथुयाजसो ये ।

ग. समानमर्थ चरणीयमाना………....नण्यस्या ववृत्स्व ।

घ. पीटर्सन ने............................. ...का अर्थ अत्यधिक चमक वाला

बताया है ।

ङ. सदा नवीन रहने के कारण उषा को…………...की कहा जाता है।

च. उषा और…………………………....को दो बहने माना जाता है ।

छ. पीटर्सन ने स्यूम का

अर्थ…………………….. बताया है।

ज. रॉथ ने स्यूम का अर्थ…………….. नामक ग्रीन

देवता के समानार्थक माना है।

मूलपाठ

5. अच्छा वा देवी युषसं विभाती प्र वो भरध्वं नमसा सुवृक्तिन् । ऊर्ध्व मधुधा दिवि पाजो अश्रेत प्ररोचना रूरूचे रण्वसंदृक् ॥5

पदपाठ

अच्छा । व देवीम् । उषसम्। विडभातीम।

प्रा वः भरध्वम। नमसा। सुडवृक्तिम्।

ऊर्ध्वम। मधुधा। दिवि। पाजः। अश्रेत।

प्रा रोचना। रूरूचे। रण्वसंदृक् ॥

अन्वय- वः अच्छ विभातीम् देवीय् उष्सम वः नमसा सुवृक्तम् प्रभरध्वम् गधुधा दिवि ऊर्ध्वम् पाजः अश्रेत् रण्वसंध्क् रोचना प्ररूरूचे।

सायण- हे स्तोतारो व युष्माननश्च अभिलक्ष्य विभाती शोभमान मुषसं देवी प्रति यो युष्माकं सम्बन्धिनान मसा नमस्कारेण सह सुवृक्ति शोभनां स्तुति प्र भरध्व यूयं कुरुत । मधुआ मधुराणि लक्षणानि वाकयानि दधातीति मधु सोमः तं धारयतीति वा । यद्धा मधुधा आदित्यधात्री। यद्धा अवग्राहा-भावादन्ययुन्त्पन्नावयवमरखण्डभिदमुषो नाम । सेयमुषाः दिविनभसि ऊर्ध्व उर्ध्वाभिमुखं पाजः तेजः अश्रेत् श्रयति। तथा रोचना रोनशीला रण्वसंध्य रमणीयदशना उषा प्ररूरूचे प्रकर्षेण दीप्यते। यद्धा रोचनालोकान्प्ररूरूचे प्रकर्वेण स्वतेजसा दीप्यति ।

अर्थ- हे स्तुति करने वालो ! अपने सामने स्वच्छ रूप से प्रकाशित होती हुई देवी उषा के प्रति तुम सब नमस्कार के साथ उत्तम सुन्दर स्तुति करो। मधु अर्थात् स्तुतियों को या सम को अथवा आदित्य को धारण करेने वाली यह उषा देवी द्युलोक में उर्ध्वाभिमुख होकर तेज या बल का आश्रय लेती है और रमणीय दर्शन वाली होती हुई प्रकाशित होने वाले लोको को अपने तेज से अतिशय रूप से प्रकाशित करती है।

व्याख्या- प्रस्तुत मंत्र में विश्वामित्र ऋषि सभी स्तुति करने वालों से यह कहते है कि हे स्तुति करने वालों आपके सामने जो स्वच्छ रूप् से भली-भाँति अच्छी प्रकार से प्रकाशित होती हुई उषा देवी को तुम सभी नमस्कार करो तथा तुम सभी उत्तम तरीके से इनकी स्तुती करो। उषा देवी मधु तथा आदित्य को धारण करने वाली है। ये लोक को प्रकाशित करने वाली देवी है। द्युलोक में उर्ध्वाभिमुख तेज या बल का आश्रय (सहारा) लेती हो ।

प्रस्तुत मंत्र में वः का दो बार प्रयोग हुआ है। यहाँ पर पहले व को द्वितीयान्त मानकर इसका सम्बन्ध देवी उषस् के साथ जोड़ा गया है। द्वितीय 'वः' में षष्टी विभक्ति मानकर इसका सम्बन्ध 'नमसा' के साथ जोड़ा गया है। ग्रासमान, लुडविग और कोलबुक ने इसका सम्बन्ध 'सुवृक्तिम्' के साथ किया है। सुवृक्तिम्' का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ साफ करना या काटना (Cleaning of Trimming) पीटर्सन माना है। इस प्रकार यहाँ अर्थ होगा- Cleaning and trimming of grass on which as on a small altar, the oblation, is offered | "अपने प्रकाश को फैलाती हैऐसा माना है।

व्याकरण-1. विभातीम् - विभाशतृड़ीप । द्वितीया विभक्ति एकवचन । यहाँ पर लोक में विभान्तीम् रूप भी बल सकता है।

2. भरध्वम्- भृ धातु (आत्मनेपद) लोट् लकार, मध्यम् पुरूष एकवचन

3. श्रोचना- रचपुन (अन) टाप्।

4. स्वृक्तिम्-सु पूर्वक 'वृजी वजर्ने धातु' धातु से 'किन' प्रत्यय ।

5. अश्रेत- श्रिञ्' धातु, वर्तमान के अर्थ में लड् लकार, प्रथम पुरूष, एकवचन (वैदिक रूप)

6. रूरूचे- रूच् धातु (आत्मनेपद) लिट् लकार, प्रथम पुरूष, एकवचन। लट् के अर्थ में लिट्

7. मधुधा- मधु दधाति अर्थ में मधु+ध+क्विप्।

8. रण्वसध्क्- रवि (एव्) $अच् = एवं। समध्श क्विय् =संहक् एवं संहक् यस्याः सा=एवसंहक्।

मूलपाठ

6. ऋतावरो दिनो अर्कैरबोध्या रेवती रोद्सी चित्रमस्थात्।

आयतीमग्न उषसं विभाति वाममेषि द्रविणं भिसमाणः।।

पदपाठ

ऋत्यडवरी| दिवः।अर्कै । अबोधि । आ ।

रवती। रोदसी इति। चित्रम् । अस्थात ।

आडयतीम्। अग्ने। उषसम्। विडभातीम्। वामम् एषि। द्रविणम्। भिसमाणः।।6।।

अन्वय-ऋतावरी दिवः अर्कैः अबोधि रेवती रोदसी चित्रम् आ अस्थात्। अग्ने। आयतीम् विभातीम् उषसम् भिसमाणः वामम् द्रविणम् एषि ।

सायण- ऋतावरी सत्यवती मेयमुषा दिवः द्यालोकादर्कैस्तेजोभिस्बोधि सर्वैर्ज्ञायते। ततो रेवती

धनवती सेयं रोदसी द्यावापृथिव्यों चित्रं नानाविधरूपयुक्तं यथा आ$अस्थात् सर्वतो व्याप्य तिष्टति। हे अम्ने। आयती त्वदभिमुखमागच्छन्ती विभाती भासमानामुषसमुषोदेवी मिसमाणो हवींषि याच मानस्टवं वामं वननीयं प्रविणमग्निहोत्रादिलसणं धनमेषि प्राप्नोषि ।

अर्थ-सत्य से युक्त अथवा सत्य नियमों का पालन कराने वाली उषा देवी द्युलोक से आने वाले अपने तेज पञ्ज से जानी जाती है । धन से युक्त होती हुई यह उषा द्युलोक और पृथिवी लोक को ना प्रकार के रूपों से युक्त होकर व्याप्त करके स्थित होती है । हे अग्नि देवता अपनी ओर आती प्रकाश मान उषा देवी से हवि की याचना करते हुए तुम अभीष्ट या बॉटने योग्य धन को प्राप्त करते हो । व्याख्या-उषा देवी सत्य से परिपूर्ण है तथा इन्हे सत्य नियमों का पालन कराने वाली के रूप में जाना जाता है । नाना प्रकार रूपों से युक्त तथा धन से युक्त उषा द्युलोक और पृथ्वी लोक व्याप्त करके स्थित होती । उषा की प्रशंसा करते हुए विश्वामित्र ऋषि अग्नि देव से कहते है कि हे अग्नि देव अपनी ओर आती हुई प्रकाशमान देवी से हवि की याचना करते हुए तुम अभीष्ट या बॉटने योग्य धन को प्रापत करते हो ।

प्रस्तुत मंत्र में पीटर्सन ने इस मंत्र का अर्थ भिन्न प्रकार से बताया है- पवित्र उषा देवी आकाश से आने वाले गानों द्वारा जगाई गयी है। उसकी महिमा आकाश के ऊपर फैल रही है। हे अग्ने ! चमकती हुई उषा आ रहीं है। तुम उसके पास जाओ और उससे वह धन माँगो जो अभीष्ट है। यहाँ पर छन्द के आग्रह से 'अबोध्या' को 'अबोधि आ' पढ़ना चाहिये ।

व्याकरण- 1. ऋतावरी - ऋतवृज (अ) टाप । '' के '' को वैदिक दीर्घ अथवा ऋत्वनिन्ड़ीप्। "वनो र च" से '' को '' आदेश ।

2. अबोधि, अस्थत्-बुध और स्था धातु, लुङ लकार, प्रथम पुरूष, एकवचन ।

3. रेवती-रयि मतुप्ङीप् 'रयेर्मतौ छन्दसि ' सूत्र से '' को सम्प्रसारण पूर्वरूप और गुण होते है । 'मतुप्' के 'म्' को '' आदेश 'छन्दसीर:" (पा0 8/2/15) से हुआ।

4. आयतीम्-आइण् गतौशतृङीप् '' को '' आदेश ।

5. विभातीय- विभाशतृङीप् = विभाति । द्वितीया का एकवचन

6. भिस्माणः-भिस् (शप्) (मुक्) शानच् (आन) = भिसमाण

मूलपाठ

7. ऋतस्य बुध्न उषसामिषण्यन्वृषा मही रोदसी आ विवेश ।

मही मित्रस्य वरूणस्य माया चन्द्रेव भानु विदधे पुरुत्रा।।7।।

पदपाठ

ऋतस्य । बुहने । उषसाम्। इबण्यन ।

वृषा । महीइति । रोदसी इति । आ । विवेश ।

मही । मित्रस्य। वरूणस्य । माया ।

चन्द्राऽइव । भानुम् । विदधे । पुरुत्रा ॥7

अन्वय-वृषा ऋतस्य बुध्ने उषसाम् इषण्यन मही रोदसी आ विवेश । मित्रस्य वरूणस्य मही माया

चन्द्रा इव भानुम् पुस्त्रा विदधे ।

सायण- वृषा वृष्टिद्वारा प्रेरक आदित्यः ऋतस्य अग्निहोत्रादिकर्मकरणसत्यभूतस्य अह्नः बुध्ने मूले उषसाभिषण्यन प्रेरणं कुर्वन् मही महत्यौ रोदसी धावपृपिण्यौ आवा विवेष सर्वतः प्रविष्टवान। यद्धा वृषा वर्षिता इषण्यन सर्वतो गच्छन्नुषसां सम्बन्धी रश्मिसमूहः रोदसी धावपृथिव्यौ विष्टवानिति योजनीयम् ततः उषाः मही महती मित्रस्य वरूणस्य मित्रवरूणयोर्माया प्रभारूपा सती चनद्रेव सुवर्णानीव भानुं स्वप्रभां पुरात्रा बहुषु देशेषु विदधे विदधति सर्वत्र प्रसारयति।

अर्थ- वर्षा करने वाला सूर्य प्राकृतिक नियमों के अथवा अग्नि होत्र आदि नित्य नियमों के ज्ञापक सत्यभूत दिन के मूल में उषा को प्रेरित करता हुआ या उसको चाहता हुआ महान द्युलोक और पृथ्वी लोक में सब ओर से प्रविष्ट हो गया । मित्र देवता और वरुण देवता की महती माया अर्थात विचित्र शक्ति रूपा उषा देवी सुनहली कान्ति के समान स्वर्णिम सूर्य को अधिक स्थानो से प्रसारित करती है।

व्याख्या-प्रस्तुत मंत्र में 'ऋतस्य बुघ्ने' की व्याख्या अनेक प्रकार से की गई है। इस विषय में सायण ने अर्थ किया है कि- अग्निहोत्र आदि कर्मों को करने में सत्यभूत दिन के मूल में। 'वृषा' को अर्थ वर्षा करने वाला सूर्य किया है किन्तु ऋतस्य बुध्न उषसा- -मिषण्यन् वृषा का मैक्समूलर ने अर्थ किया है-

The hero in the depth of Heaven, yearning for the dawns, has entered the great sky and the earth.

प्रासमान ने 'रोदसी' का अर्थ पवित्र भूमि (Holy ground) और लुडविक ने यज्ञ भूमि की पवित्र भूमि (the ground of the haiy rite) किया है राध ने ऋग्वेद के 9/10/999 मंत्र में 'बहन' का अर्थ मध्य और अन्त' किया है।

सूर्य जो वर्षा करने वाला है तथा प्राकृमिक नियमों के, दिन के मूल में उषा को प्रेरित करता है। यह विभिन्न शक्ति रूपा उषा ही सुनहली कान्ति वाले सूर्य को बहुत स्थानों पर प्रसारित करती है । लुडविग ने 'उषसाम्' को प्राचीन और अप्रयुक्त कहकर इसमें तृतीया विभक्ति मानी है तथा विशेल ने इसे द्वतीयान्त माना है ।

सायण के अनुसार 'महि मित्रस्य वरूणस्य माया' में उषा का वर्णन है, परन्तु ग्रासमान ने इसको सूर्य का विशेषण माना है ।

व्याकरण-

1. ऋतस्य- ऋक्त = ऋत । षष्ठी एकवचन ।

2. बुध्ने -बुधनङ्=बुध्न । सप्तमी विभक्ति का एकवचन

3. इषण्यन-इच्छति इति एषन । इषन्तमात्मानम् इच्छति अर्थ में निर्यातित 'इषण्य' धातु से शतृ

प्रत्यय।

4 . वृषा वृष् कनिन् (अन्) = वृषन् ।

5. विवेश - विश् धातु, लिटलकार, प्रथम पुरूष एकवचन ।

6. दधे-धा धातु (आत्मनेपद), लिट्लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन ।

7. मही- महत् ङीप् ('अत' का वैदिक लोप )।

8. पुरूत्रा - 'पुर' शब्द से "देवमनुस्य पुरूष सूत्र से 'वा' प्रत्यय।

अभ्यास प्रश्न-2

1. सुवृक्तिम् का व्युत्तपत्तिमूलक अर्थ पीटर्सन ने माना है-

(i) साफ करना                        (ii) फेंकना

(iii) नमस्कार करना                   (iv) उपयुक्त सभी

2. "विभातीय’” की व्युत्पत्ति है-

(i) विभा शतृ                      (ii) वि भा शतृ ङीप्

(iii) वी भा ङीप्                  (vi) वि शतृ भा

3. "विभातीय' किस विभक्ति एवं वचन का रूप है-

(i) प्रथमा एकवचन              (ii) पंचमी बहुवचन

(iii) तृतीया एकवचन            (iv) द्वितीया विभक्ति एकवचन

4. 'अश्रेत्' किस लकार एवं किस विभक्ति का रूप है-

(i) लङ् लकार प्रथम पुरूष एकवचन   (ii) लोट्लकार मध्यमपुरुष एकवचन

(iii) लृट् लकार मध्यमपुरुष एकवचन     (iv) उपर्युक्त में से कोई नही

5. "विवेशशब्द किस लकार में बनता है-

(i) लिट् लकार             (ii) लोट् लकार

(iii) लृट् लकार             (iv) लड् लकार

6. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए -

क. अच्छा वो देवी मुषसं विभाती………….....नमसा सुवृक्तिम्

ख. ऋतावरो दिवो अर्कैरबोध्या.....................चित्रमस्थात्।

ग. यहीं मित्रस्य वरूणस्य………………....भानुं विदधे पुत्रा

घ. पवित्र उषा देवी आकाश से आने वाले…………. जगाई गयी है ।

ड. उषा देवी………………...विनाश करती है।

सारांश

वैदिक सूक्त से सम्बन्धित यह दूसरी इकाई है। इसके पूर्व की इकाई में आपने वैदिक देवता इन्द्र की विशेषताओ का अध्ययन किया है। प्रस्तुत इकाई में उषस् की स्तुति दृषि विश्वामित्र द्वारा की गयी है जिसमें उषा को अन्नधन से सम्पन्न सम्पूर्ण विश्व के द्वारा वरणीय एवं मरणधर्म से रहित सूर्य के ध्वज का बोध कराने वाली आकाश में स्थित बताया गया है । उषा सूर्य की पत्नी है । वह अपने तेज से स्वर्ग को सजीव बनाती है। द्युलोक से पृथ्वी तक इसका अन्तिम विस्तार है । रात्रि एवं उषा दो बहने है जो सम्पूर्ण कालावधि में कभी रूकने वाली नहीं होती। ये दोनो अबाध गति से चलती रहती है । अग्नि भी अपनी ओर आती हुयी उषा देवी से हवि की याचना करता है जो सबको व्याप्त कर स्थित रहती हैं। सूर्य भी जो प्राकृतिक नियमों के पालन के मूल में उषा को प्रेरित करता है। उषा मित्र और वरूण की विचित्र शक्ति रूपा देवी है। इस इकाई के अध्ययन से आप उषस् की समस्त विशेषताओं का ज्ञान पाकर उसके स्वरूप का उल्लेख कर सकेगें ।

पारिभाषिक शब्दावली

1. वाजेन वाजिनि- मैक्समूलर ने इसका अर्थ "wealthy wealth are boaty “ माना है।

2. पुरंधि- बहुत अधिक शक्तिशाली

3. विभाहि- विशेष रूप से शोभायमान

4. सुयमासः- सुखपूर्वक रथ में जोते जा सकने वाले अथवा अच्छी प्रकार से नियंत्रित।

5. प्रतीची- सम्मुख जाती हुई ।

6. चरपीयमाना- विचरण करती हुई ।

7. अववृत्स्व- पुनः-पुनः घूमती रहो ।

8. नण्यसि - सदा नवीन रहने वाली ।

9. अवचिन्वती- आच्छादित करने वाले अन्धकार का विनाश करती हुई ।

10. सुभगा- सुन्दर धनों वाली

11. अन्तात- द्युलोक लोक के अन्तिम किनारे से

12. अपप्रथे- फैल जाता है ।

13. स्युमैव- वस्त्र के समान ।

14 स्वसरस्य- सूर्य की अथवा दिन की

15. विभातीम्- प्रकाशित करती हुई

16 प्रभरध्वम्- करो

17. प्रसूपे - अतिशय रूप प्रकाशित करती है।

18. रेवती- छन्दासिसूत्र से य' को सम्प्रसारण, पूर्वरूप और गुण होते है । यहाँ पर 'मतुप्' के 'म्' '' आदेश 'छन्दसीरा' सूत्र से हुआ । रेवती का अर्थ धन से मुक्त होता है।

19. इषण्यन्- प्रेरित करता हुआ, चाहता हुआ।

20. आविवेश- सभी ओर से प्रविष्ट हो गया है।

अभ्यास प्रश्नों के उत्तर

अभ्यास प्रश्न-1

 

1.(i) विश्वामित्र         2. (ii) त्रिष्टुप्

3. (iii) तृतीय         4. (iv) षष्ठी एक वचन

5. (v) सम्बोधन एक वचन

6. (क) स्तोमं जषस्व (ख) अश्वा हिरण्यवगों

(ग) चक्रमिव          (घ) पृथुपाजसः

(ड़) पुराणी भवतिः    (च) रात्रि

(छ) वस्त्र     (ज) HYMEN

अभ्यास प्रश्न- 2

 

1. (i) साफ करना 2. (ii) विभा शतृ डीप्

3. (iii) द्वितीया विभक्ति एकवचन 4. (iv) लड्लकार मध्यम् पुरूष एकवचन

5. (v) लिट्लकार

6. (क) प्र वो भरध्वं     (ख) रेवती रोदसी

(ग) माया चन्द्रेव         (घ) गानों द्वारा

(ङ) उषा देवी अन्धकार का विनाश करती है

निबन्धात्मक प्रश्न

उषस् के स्वरूप् का वर्णन कीजिए?

अधोलिखित मंत्रो की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए ?

उषो वाजेन वाजिनिप्रचेतः स्तोमं जुषस्व गृणतो मघोनि ।

पुराणी देवि युवतिः पुरंधिरनु व्रतं चरसि विश्ववारे ।।

उषः प्रतीची भुवनानि विश्वोर्ध्वा तिष्ठस्यमृतस्य केतुः ।

समानमर्थं चरणीयमाना चक्रमिव नव्यस्या ववृत्स्य ॥

उषस् सूक्त का सारांश अपने शब्दों में लिखिए?

उषा की विशेषताओं का उदाहरण सहित वर्णन कीजिए?

 

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