ऋग्वेद इन्द्र सूक्तम् (2.12)-
वाम- सायण ने यहाँ 'वाम्'
का अर्थ 'यजमान और उसकी पत्नी किया है ।
परन्तु पाश्चात्य विद्वानों ने इस अर्थ को ठीक नहीं माना। उनके अनुसार यहाँ 'विष्णु' और उसके साथी 'इन्द्र'
इन दो देवताओं का ग्रहण करना चाहिए ।
मैक्डोनल और पीटर्सन
के अनुसार 'भूरिश्रृंगाः गावः का अर्थ अनेक सींगों वाली गायें हैं।'
यो
जात एव प्रथमो मनस्वान्, देवो–देवान्क्रतुना
पर्यभूषत् ।
यस्य
शुष्माद्रोदसी अभ्यसेतां, नृम्णस्य मह्ना स जनास
इन्द्रः ।। 1।।
अन्वय- यः जातः एव
प्रथमः मनस्वान् देवः क्रतुना देवान् पर्यभूषत् । यस्य शुष्मात् नृम्णस्य मह्ना
रोदसी अभयसेताम् जनासः स इन्द्रः ।
शब्दार्थ-- जात एवं
- उत्पन्न होते ही । क्रतुना - अपने सामर्थ्य से । शुष्मात् -
बल से । रोदसी- द्युलोक और पृथ्वी लोक । अभ्यसेताम्- कांपते है । जनासः-
हे मनुष्यों !
संदर्भ- प्रस्तुत
मंत्र ऋग्वेद के द्वितीय मण्डल के बारहवें सूक्त से अवतरित है। इस सूक्त में ऋषि
गृत्समद,
देवता इन्द्र तथा छन्द त्रिष्टुप् है । इन्द्र को राष्ट्रीय देवता
कहते है जो मुख्य रूप से वर्षा का देवता है।
अनुवाद - जिस प्रधान
बुद्धिमान देव ने उत्पन्न होते ही अपने पराक्रम से सर्वप्रथम देवताओं के ऊपर
आधिपत्य पाया, दिव्यगुणों से युक्त होते हुए, जिसने
यज्ञ से या वृत्र के वध आदि कर्मों से अन्य देवताओं को अलंकृत किया। महान बल की
महिमा से जिसकी शक्ति के सामने आकाश तथा पृथिवी कांपते है, हे
मनुष्यों ! वह इन्द्र है।
टिप्पणी-
(i) इसमें इन्द्र देवता, गृत्समद ऋषि और त्रिष्टुप् छन्द है।
(ii) एक पौराणिक कथा के अनुसार- 'एक बार यज्ञ में इन्द्र को असुरों ने घेर लिया। तब इन्द्र को कोई अन्य
उपाय नहीं दिखाई देने के कारण वह वहां उपस्थित गृत्समद ऋषि का रूप धारण दैत्यों के
पास से निकल गया। तब पीछे रहे वास्तविक गृत्समद को उन दैत्यों ने सोचा यही इन्द्र
है और कौन हो सकता है? जब उस गृत्समद को पीट रहे थे, तब वह कहता था 'हे मनुष्यों जिसकी मैं महिमा बता रहा
हूँ, वह इन्द्र है, मैं नही हूँ ।'
यः
पृथिवीं व्यथमानामंदृहद् यः पर्वतान् प्रकुपितां अरम्णात् ।
यो
अन्तरिक्षं विममे वरीयो यो द्यामस्तभ्नात्स जनास इन्द्रः ।। 2।।
अन्वय- य व्यथमानाम् पृथिवीम् अदृंहत्
यः प्रकुपितान् पर्वतान् अरम्णात् य वरीय अन्तरिक्षम् विममे, यः
द्याम् अस्तभ्नात्, जनासः स इन्द्रः।
शब्दार्थ - व्यथमानाम्— काँपती
हुई । अदृहत्- स्थिर किया । प्रकुपितान्- विक्षुब्ध | अरम्णात्– नियमित किया, संयमित
किया। वरीयः- विस्तृत । विममे— बनाया
है। द्याम्- द्युलोक को । अस्तभ्नात्- रोका, स्थिर
किया ।
संदर्भ-प्रस्तुत
मंत्र ऋग्वेद के द्वितीय मण्डल के बारहवें सूक्त 'इन्द्र - सूक्त'
से उद्धृत है। इस सूक्त के देवता इन्द्र, ऋषि
गृत्समद तथा छन्द त्रिष्टुप् है । इस मन्त्र में ऋषि गृत्समद इन्द्र के साहसिक
कार्यो का वर्णन किया है। ऋषि कहते हैं कि-
अनुवाद - जिसने
काँपती हुई पृथ्वी को स्थिर किया, जिसने विक्षुब्ध अर्थात् इच्छानुसार
इधर-उधर विचरण करते हुए पंखयुक्त पर्वतों को संयत किया, जिसने
अतिविस्तृत अन्तरिक्ष लोक को बनाया तथा जिसने लोक को रोका अथवा स्थिर किया । हे
मनुष्यों ! वह ही इन्द्र है । (मैं नहीं हूँ)
टिप्पणी-
(i) व्यथमानाम् व्यथ् धातु +
शानच् प्रत्यय ।
(ii) अदृहत् – दृह् धातु, लङ् लकार प्रथम पुरुष एकवचन।
(iii) प्रकुपितान् प्र उपसर्ग +
कुप् धातु ( इट्) + क्त प्रत्यय, पुल्लिंग द्वितीय के बहुवचन
का रूप | मैत्रायणी तथा काठक संहिता में उपलब्ध आख्यान में
पर्वत प्रजापति के पक्षधर ज्येष्ठ पुत्र कहे गये हैं। पर्वतों के पहले पंख थे तथा
वे इच्छानुसार भ्रमण करते थे । वे जहाँ बैठते थे, वहाँ आबादी
को विनष्ट कर देते थे। इन्द्र ने पर्वतों के पंख काट कर उनको एक स्थान पर स्थिर कर
दिया ।
(iv) अरम्णात् रम् धातु लङ्
लकार प्रथम पुरुष एकवचन का वैदिक रूप ।
(v) वरीयः – उरु+इयसुन्, नपुं, द्वितीया,
एकवचन । मैक्डोनल के मतानुसार यह विस्तृत होने के निर्मित फैला हुआ
भाव की अभिव्यक्ति करता है।
(vi) विममे— वि उपसर्ग + मा धातु + लिट् लकार प्रथम पुरुष एकवचन का रूप ।
(vii) अस्तभ्नात् स्तम्भ् धातु
+ लङ् लकार प्रथम पुरुष एकवचन ।
(viii)वैदिक भाषा में 'कुप्' धातु का मूल अर्थ 'संचलन'
तथा 'रम्' धातु का अर्थ 'स्थिरीकरण' था। ये अर्थ भौतिक थे। लौकिक संस्कृत में
ये धातुएँ मानसिक अर्थो में प्रयुक्त होने लगीं तथा इनका अर्थ 'क्रोध करना' और क्रीड़ा करना' हुआ
।
(ix) इस मंत्र में त्रिष्टुप्
छन्द है ।
यो
हत्वाहिमरिणात्सप्त सिन्धून् यो गा उदाजदपदधा बलस्य।
यो
अश्मनोरन्तरग्निं जजान संवृक् समत्सु स जनास इन्द्रः ।। 3।।
अन्वय- यः अहिम्
हत्वा सप्त सिन्धून् अरिणाम्, बलस्य अपधा गाः उदाजत् यः अश्मनोः अन्तः
अग्निं जजान, समत्सु, संवृक्, हे जनासः स इन्द्रः।
शब्दार्थ- य— जिस
इन्द्र ने। अहिम्- वृत्र को । हत्वा- मारकर । सप्त सिंधून्-
सात नदियों को। अरिणात्– बहाया। बलस्य -
बल नामक असुर की । अपधा- गुफाओं से । गाः- गायों को। उदाजत्-
बाहर निकाला । अश्मनोः- दो पत्थरों में या दो बादलों के । अन्तः-
बीच में। अग्नि- अग्निं या बिजली को । जजान- उत्पन्न किया। समत्सु— संग्रामों में। संवृक्– मारने वाला। जनासः-
मनुष्य या असुरों।
संदर्भ—प्रस्तुत
मंत्र 'इन्द्र सूक्त से उद्धृत है । यह ऋग्वेद दूसरे मण्डल का बारहवाँ सूक्त है। इसके
देवता इन्द्र, ऋषि गृत्समद तथा छन्द त्रिष्टुप् है । इसमें
इन्द्र के वीरतापूर्ण कार्यो का वर्णन किया गया है। ऋषि कहते हैं कि-
अनुवाद— जिस
इन्द्र ने सर्प सदृश वृत्र को मारकर अर्थात् जल को रोकने वाले पर्वतों को हटाकर
सात धाराओं को बहाया है, जिसने बल नामक दैत्य की गुफा से या
बाड़े से गौओं को बाहर निकाला है, जिसने दो पत्थरों के बीच
में आग उत्पन्न की है और जो जिसने युद्धों में शत्रुओं का अच्छी प्रकार विनाश किया
था। हे पुरुषों! वह ही इन्द्र है ।
टिप्पणी-
(i) अहिम् – ऋग्वेद में इन्द्र - वृत्र के युद्ध का बहुत वर्णन आया है । वृत्र को
राक्षस माना जाता है, जो जलों को आवृत्त किए रहता है। इसको 'अहि' भी कहते हैं। सोमपान करके इन्द्र मारूतों
के साथ इस राक्षस का वध करता है और जलों को मुक्त करता है। इस आलंकारिक वर्णन में
भारी मतभेद रहा है। ऐतिहासिक वृत्र को त्वष्ट्रा 'असुर'
मानते थे ओर नैरूक्त 'मेघ' । कुछ इसे रात्रि का अंधकार, हिलेब्रांड पानी को
जमाने वाली घोर सर्दी, तिलक ध्रुव प्रदेशों में प्राप्त
दीर्घकालीन अंधकार मानते है। कुछ ने इसे दुर्भिक्ष और अकाल का असुर माना है ।
ऐतिहासिक के पक्ष में इन्द्र देवताओं का राजा है, शेष सब
वादों में इन्द्र सूर्य ही है ।
(ii) सप्त
सिन्धुन् – इसके दो पृथक अर्थ हैं एक सामान्य बहने वाला जल
और दूसरा गंगा आदि सात नदियाँ। इन नदियों के नाम हैं- (1) गंगा
(2) यमुना, (3) गोदावरी, (4) सरस्वती, (5) नर्मदा, (6) सिन्धु
और (7) कावेरी । मैक्समूलर के अनुसार ऋग्वेद के आर्यो का
जीवन सिन्धु की घाटी और पंजाब में बीता। यही क्षेत्र वैदिक सप्त -सिन्धु है । इनके
विचार में पंजाब की पाँच नदियाँ, सिन्धु और सरस्वती ही सात
नदियाँ है । ल्यूड्विग आदि सरस्वती के स्थान पर कुम्भा को रखते हैं। थामस के विचार
में ओक्सम प्रारम्भिक सात नदियों में अवश्य रही होगी । अन्य भी कई विद्वानों ने
सप्त सिन्धुओं को संसार के विभिन्न देशों में खोजने का प्रयास किया है। एक विद्वान
ने ईरान में एक सप्तसिन्धु की कल्पना की है।
(iii) सायणाचार्य
और आधुनिक विद्वानों ने इस मंत्र में बल नामक राक्षस के गायों को चुराने, इन्द्र का उसको मारने और उसके स्थान से गायों के उद्धार का वर्णन माना है
। सायणाचार्य ने बल को गायों का चोर तथा इन्द्र का वध्य असुर माना है। पाश्चात्य
विद्वान इसे अंधकार के असुर आदि अलंकार का द्योतक नहीं, अपितु
वास्तविक गौओं के चोर व्यक्ति विशेष का नाम मानते है।
(iv) ‘स
जनास इन्द्र' यह प्रतीक अन्तिम मंत्र को छोड़कर इस सूक्त के
शेष सब मंत्रों के अन्त में पाया जाता है। भारतीय आचार्यो ने इसका अर्थ यों किया
है- "हे जनों (असुरों) । मैं नहीं, किन्तु ऐसे पराक्रम
वाला व्यक्ति इन्द्र है ।" इस प्रकार के अर्थ करने का मूल कारण इस सूक्त के
सम्बन्ध में प्रचलित ये तीन गाथाएँ हैं -
(1) इन्द्र
और असुरों में सदा शुत्रता थी । असुर हमेशा इन्द्र के विरूद्ध सशस्त्र होकर अवसर
की प्रतीक्षा में रहते थे। एक बार गृत्समद ऋषि तप द्वारा इन्द्र का स्वरूप धारण कर
जब आकाश में विचरण कर रहा था, उस समय धुनि और चुमुरी नामक दो
राक्षसों ने उसे आ घेरा। ऋषि उनकी पाप भावना को समझा गया और उसने इन ऋचाओं या
मंत्रों द्वारा समझाया कि वास्तव में इन्द्र कोई दूसरा व्यक्ति है, मैं नहीं ।
(2) एक
बार इन्द्रादि देव तथा अन्य बहुत से ऋषि वैन्य के यज्ञ में आए हुए थे। उस समय
इन्द्र का वध करने के उद्देश्य से कुछ दैत्य गण भी वहाँ पहुँच गए, इन्द्र को जब यह ज्ञात हुआ तो वह गृत्समद ऋषि का रूप धारण कर वहाँ से
अन्यत्र कहीं पलायन कर गया । तदनन्तर ऋषि गृत्समद जब वहाँ से जाने लगा, तो दैत्यों ने उसे इन्द्र समझकर घेर लिया। उस समय ऋषि गृत्समद ने उन्हें
बताया कि ऐसे पराक्रम वाला व्यक्ति इन्द्र है, मैं नहीं ।
(3) एक
बार गृत्समद ऋषि ने अपने आश्रम में यज्ञ किया और उसमें अन्य देवों के साथ इन्द्र
भी आया। दैत्यों ने उसको देखकर घेर लिया। इस पर तपोवन में इन्द्र ने गृत्समद का
रूप धारण किया और स्वर्ग चला गया । असुर लोग बहुत देर तक उसकी प्रतीक्षा करते रहे
और अन्त में यज्ञशाला में घुस गये। वहाँ ऋषि गृत्समद को देखकर उन्होनें विचार किया
कि ऋषि तो पहले बाहर चला गया, अतः यह इन्द्र है। उस समय ऋषि
ने इस सूक्त द्वारा उनका भ्रम दूर किया ।
पाश्चात्य विद्वानों
ने इन कथाओं को कपोल-कल्पित माना है, अतः उन्होनें इस पंक्ति का
अर्थ किया है – हे लोगों, वह इन्द्र
है।
येनेमा
विश्वा च्यवना कृतानि यो दास वर्णमधरं गुहाकः ।
श्वघ्नीव
यो जिगीवां लक्षमाद दर्यः पुष्टानि स जनासः इन्द्रः।। 4।।
अन्वय - येन इमाः
विश्वा च्यवना कृतानि यः दासं वर्णम् अधरं गुहा अकः लक्षं जिगीवान् यः श्वघ्नी इव
अर्यः पुष्टानि आदत्, जनासः सः इन्द्रः ।
शब्दार्थ – येन
- जिस इन्द्र के द्वारा । इमाः- ये । विश्वा-
सभी । च्यवना- नश्वर । कृतानि– स्थापित
किये हैं, स्थिर बनाये हैं । दासं हीन। वर्णम् –
शूद्रादिक या निकृष्ट असुरों को । अधरं-अधोगत। गुहा- गुहा
या नरक में । अकः- कर दिया। लक्षं- लक्ष्य को। जिगीवान्-
जीतने वाले । श्वघ्नी- व्याघ्र (बहेलिया) या जुआरी । इव- भांति । अर्यः- शत्रु की। पुष्टानि- समृद्धि को । आदद- ग्रहण कर लेता है ।
संदर्भ- प्रस्तुत
मंत्र ‘इन्द्र सूक्त' से लिया गया है। यह ऋग्वेद के दूसरे
मण्डल का बारहवाँ सूक्त है। इसके देवता इन्द्र, ऋषि गृत्समद
तथा छन्द त्रिष्टुप् है । इस मंत्र में इन्द्र के वीरतापूर्ण कार्यो का विवरण
प्रस्तुत किया गया है।
अनुवाद- जिसने इन
सभी नश्वर भुवनों को स्थिर किया और जिसके द्वारा ये सम्पूर्ण पदार्थ गतिमान किये
गए हैं। जिसने दास वर्ण को वश में करके गुफा में स्थित कर दिया है। जिसने शत्रु की
समृद्धि दाँव के धन को विजयी जुआरी के समान को छीन लिया है। हे पुरुषो! वही इन्द्र
है।
टिप्पणी-
(1) “इमा विश्वा” ये इमानि और विश्वानि के वैदिक रूप
हैं। कभी-कभी नपुसंकलिंग के बहुवचन के रूप पुल्लिंग के बहुवचन के समान उपलब्ध होते
है । लौकिक संस्कृत में इस प्रकार का अभाव है।
(2) च्यवना कृतानि- सायणाचार्य के मतानुसार इनका
अर्थ है" नश्वर लोकों को स्थिर किया है ।" दूसरा अर्थ है "प्राप्त
हुए लोकों को दृढ़ किया ।"
(3) दास
वर्ण का भारतीय विद्वानों ने "शूद्रादि वर्ण" अर्थ किया है। पाश्चात्य
विद्वानों के अनुसार इसका अर्थ अनार्य वर्ण (कृष्ण रंग) या आदिवासी है। पीटर्सन
इसे विरोधी रंग या काली चमड़ी' कहता है। आज के समान उस काल
में भी गौरों की ओर से कालों को दी जाने वाली यह गाली थी । ऋग्वेद में दास और
दस्यु आर्यो के समस्त शत्रुओं (असुर और मानव ) के लिए प्रयुक्त हुए हैं । यहाँ पर
अनार्य जातियों की ओर संदेश स्पष्ट प्रतीत होता है ।
(4) श्वघ्नी इव- सायण कहते इन्द्र
ने श्वघ्नी अर्थात व्याध के समान लक्ष्य से जीता है । रोथ के अनुसार इसका अर्थ है-
'दाँव को जीतने वाले जुआरी के समान ।' अर्थो
में उपमा अलंकार झलकता है। जिस प्रकार जुआरी हारने वालों के जीत को लेकर उनको निः
शेष (अकिंचन) कर देता है, उसी प्रकार अथवा जैसे हिंसक पशु या
व्याध प्राणियों का जीवन पूर्णतया नष्ट कर देता है, वैसे ही
इन्द्र भी करता है ।
यं
स्मा पृच्छन्ति कुह सेति घोर मुतेमाहुर्नै षो अस्तीत्येनम् ।
सो
अर्यः पुष्टीर्विज इवा मिनाति श्रद्धस्मै धत्त स जनास इन्द्रः ।। 5।।
अन्वय— घोरं यं
पृच्छन्ति स्मः, कुह स इति, उत एनम् इम् आहुः न एष
अस्ति इति, स विजः इव अर्यः पुष्टीः आमिनाति । अस्मै श्रद्
धत्त, जनास स इन्द्रः।
शब्दार्थ- घोरं-
शत्रु का क्षय करने वाले । यं- जिस इन्द्र के विषय में। पृच्छन्ति-
मनुष्य पूछते हैं । कुह- कहां। सः- वह है । इति- ऐसा । एनम्- इन्द्र
को । इम्- सर्वव्यापी । आहुः– कहते हैं । विजः-
क्षोभकारी या विस्मयकारी। इव- समान । आमिनाति- चारों ओर से संहार
करता है । अस्मै- इस इन्द्र के लिए । नत्- श्रद्धा विश्वास को । धत्त-
धारण करो ।
संदर्भ- यह मंत्र 'इन्द्र
सूक्त' से संकलित किया गया है। यह ऋग्वेद दूसरे मण्डल का
बारहवाँ सूक्त है। इसके देवता इन्द्र, ऋषि गृत्समद तथा छन्द
त्रिष्टुप् है । इस मंत्र में ऋषि इन्द्र के प्रति अविश्वास रखने वालों के विरूद्ध
कहता है कि
अनुवाद— जिस
भयंकर इन्द्र के बारे में लोग पूछते आये हैं कि वह इन्द्र कहाँ है? और सर्वव्यापक इस इन्द्र को कुछ लोग कहते हैं कि यह विद्यमान नहीं है ।
इन्द्र क्रुद्ध हुए विजेता के समान शत्रु की पोषक शक्तियों गाय आदि को छीन लेता
है। उस इन्द्र में विश्वास धारण करो । हे मनुष्यों! वह इन्द्र है।
टिप्पणी-
(i) “स्मा” यह स्म शब्द है, किन्तु संहिता में दीर्घ हो गया है।
(ii) सेति - सः + इति, इस प्रकार की अव्यवस्थित संधि वेद में बहुधा मिलती है ।
(iii) 'इम्” को सायणाचार्य पादपूरक मानते हैं । किन्तु निघंटु में इसे पद नहीं माना
गया है, जो गति,
ज्ञान और प्राप्ति का
द्योतक भी है। इसी आधार पर इसका अर्थ "सर्वव्यापक" किया गया है।
(iv) विज -
विजेता, जुआरी
यो
रध्रस्य चोदिता यः कृशस्य यो ब्राह्मणो नाधमानस्य कीरेः।
युक्तग्राव्णो
योऽविता सुशिप्रः सुतसोमस्य स जनास इन्द्रः ।। 6 ।।
अन्वय- यो रध्रस्य
चोदिता,
यः कृशस्य, यः नाधमानस्य कीरे: ब्राह्मणः,
य सुशिप्रः युक्तग्राव्णः सुतसोमस्य अविता, जनासः
स इन्द्रः ।
शब्दार्थ- यः- जो इन्द्र रध्रस्य-
सुसम्पन्न का। चोदिता- प्रेरयिता। कृशस्य- दरिद्र का। नाधमानस्य -
माँगने वाले का । कीरे:- स्तुति परायण का। ब्राह्मणः- विप्र पुरोहित
का। सुशिप्रः- शोभन हनु वाला। युक्तग्राव्ण– दो पत्थर
को मिलाने वाले । सुतसोमस्य- सोमरस को तैयार करने वाले का । अविता—
रक्षा करने वाला ।
संदर्भ- यह मंत्र ‘इन्द्र
सूक्त' में से उद्धृत है। यह ऋग्वेद के द्वितीय मण्डल का
बारहवाँ सूक्त है। इसके देवता इन्द्र, ऋषि गुत्समद तथा छन्द
त्रिष्टुप् है । इसमें इन्द्र के वैशिष्ट्य का वर्णन करते हुए बताया गया है कि
इन्द्र किस-किस को प्रेरणा देता है ।
अनुवाद - जो समृद्ध
का, क्षीण दुर्बल का, ब्राह्मण याचक स्तोता सभी का
अपने-अपने कर्मों में प्रेरक है। सुन्दर ठोड़ी वाला जो सिलबट्टे को मिलाने वाले,
सोमरस निकालने वाले यजमान की रक्षा करता है, हे
मनुष्यों ! वह इन्द्र है।
टिप्पणी-
(i) इस मंत्र में मानव जाति के
चार भाग किए गए हैं-
(1) रंध्र (2) कृश (3) ब्रह्मन नाधमान कीरे: और (4) युक्तग्रावन् सुतसोम ।
(ii) ब्राह्मण- इस शब्द के विभिन्न अर्थ हैं-
(क) सूक्त या प्रार्थना का
रचयिता या उच्चारक, चिन्तक, ऋषि,
कवि,
(ख) सामाजिक पूजा का संपादक,
पूजक, पुरोहित,
(ग) चारों वेद, विशेषतः अथर्ववेद का ज्ञाता या होतृ आदि से भिन्न कर्मों वाला एक विशेष
पुरोहित ब्रह्मा। कुछ मंत्रों में यह पद "पेशे से पुरोहित" भाव का
द्योतक है।
(iii) 'सुशिप्र " का अर्थ
सायण ने शोभन ठोडी या सिर वाला किया है। यास्क के मत से इसका अर्थ है उत्तम ठोडी
या नाक वाला ।
यस्याश्वासः
प्रदिशि यस्य गावो यस्य ग्रामा यस्य विश्वे रथासः ।
यः
सूर्य य उषसं जजान यो अपां नेता स जनास इन्द्रः ।। 7।।
अन्वय- यस्य, प्रदिशि
अश्वासः। यस्य गावः, यस्य ग्रामाः, यस्य
विश्वे रथासः, यः सूर्यम् यः उषसं जजान, यः अपां नेता, जनासः स इन्द्रः ।
शब्दार्थ- यस्य-
जिस कामनाओं के वर्षक इन्द्र के । प्रदिशि- अनुशासन में । अश्वासः-
धेनुएँ। गावः- धेनुओं। ग्रामाः- जनपद विशेष। विश्वे-
सभी। रथासः- रथ। जजान- पैदा किया है। अपां- जल का
। नेता- नायक।
संदर्भ-- प्रस्तुत
मन्त्र ‘इन्द्र सूक्त' में से लिया गया
है। यह ऋग्वेद के दूसरे मण्ल का बारहवाँ सूक्त है, जिसके
देवता इन्द्र, ऋषि गृत्समद तथा छन्द त्रिष्टुप् है । इसमें
बताया गया है कि इन्द्र के नियन्त्रण में कौन-कौनसी वस्तुएँ हैं तथा उसने किन -
किन को पैदा किया है?
अनुवाद - जिसके शासन
में घोड़े, गायें, गाँव और सभी रथ विद्यमान हैं।
जिसने सूर्य और उषा को उत्पन्न किया है, जो जलों का बहाने
वाला है। हे पुरुषो! वह इन्द्र है।
टिप्पणी- इस मंत्र का
तात्पर्य यह है कि इन्द्र ने अश्व आदि सब कुछ उत्पन्न किया है अतः वे सब उसी की
शक्ति से ही अपने-अपने स्वभावानुकूल कर्मों से प्रवृत्त होते हैं । यहाँ पर अश्व
शक्ति का,
गाय अहिंसा और नम्रता का, ग्राम एकत्र होने,
'रथ' रम् धातु से बना होने के कारण आनन्द का,
सूर्य गति और प्रकाश का, उषस् कान्ति और
एकरूपता का तथा अपस् व्याप्ति का द्योतक है ।
यं
क्रन्दसी संयती विह्नयेते परेऽवर उभया अमित्राः ।
समानं
चिद्रथमातस्थिवांसा नाना हवेते स जनास इन्द्रः ।। 8।।
अन्वय- यम् संयती
क्रन्दसी विह्नयेते । परे अवरे उभयाः अमित्राः समानम् चित् रथम् आतस्थिवांसा नाना
हवेते। जनासः सः इन्द्रः।
शब्दार्थ – संयती- परस्पर संघर्ष करती हुई । क्रन्दसी- शोर मचाती हुई (दो सेनाएँ) । विह्नयेते-
बुलाती हैं। परे- उत्तम । अवरे- अधम । उभयाः- दोनों। अमित्राः-
शत्रु। आतस्थिवांसा— बैठे हुए | हवेते- पुकारते हैं ।
संदर्भ- प्रस्तुत
मन्त्र ऋग्वेद के दूसरे मण्डल के बारहवें सूक्त 'इन्द्र - सूक्त'
से उद्धृत है। इस सूक्त के देवता इन्द्र, ऋषि
गृत्समद तथा छन्द त्रिष्टुप् है । इस मन्त्र में ऋषि ने इन्द्र को विजय दिलाने
वाले देवता के रूप में चित्रित किया है। यही कारण है कि विजयेच्छु लोग युद्ध के
मैदान में उसे अपनी सहायता के लिए बुलाते हैं-
—
अनुवाद— शब्द
करते हुए द्युलोक और पृथिवीलोक अपनी रक्षा के लिए जिसका आह्वान करते हैं, जिसको युद्ध में परस्पर लड़ती हुई तथा कोलाहल करती हुई दो विरोधी सेनायें
पृथक्-पृथक् रूप से बुलाती हैं। उत्तम एवं अधम दोनों ही शत्रु जिसका विजय के लिए
आव्हान करते हैं। एक ही रथ पर विद्यमान दो योद्धा जिसको भिन्न- भिन्न प्रकार से
सहायता के लिए बुलाते हैं, इन्द्र और अग्नि यज्ञ के लिए
यजमानों द्वारा पुकारे जाते हैं, हे पुरुषों! वह इन्द्र है।
टिप्पणी-
(i) क्रन्दसी – सायण दैवी
और मानवी सेनाएँ, मैक्डोनल - मानवों की आपस में लड़ती हुई दो
सेनाएँ, दयानन्द सरस्वती- रोने का शब्द कराने वाले प्रकाश और
पृथ्वी, ये भिन्न-भिन्न अर्थ ग्रहण करते हैंI
(ii) संयती - सायण - आपस में मिलती हुई, वेंकट माधव - दो सेनायें, दयानन्द सरस्वती - संयम से
चलने वाले द्यु लोक और पृथ्वी लोक । सम् +इ+शतृ+ङीप् ।
(iii) विह्नयेते— वि
उपसर्ग + हे धातु, लट् लकार प्रथम पुरुष द्विवचन आत्मनेपद का
रूप ।
(iv) आतस्थिवांसा- आ उपसर्ग +
स्था धातु + क्वसु प्रत्यय । प्रथमा का द्विवचन ।
(v) ह्वेते– ह्ने
धातु लट् लकार प्रथम पुरुष द्विवचन ।
(vi) समानं चिद्रथमातस्थिवांसा
- सायण ने दो प्रकार के अर्थ प्रस्तुत किये हैं-
(1) इन्द्र रथ के सदृश रथ पर
आरूढ़ दो वीर ।
(2) एक रथ पर चढ़े हुए इन्द्र
और अग्नि ।
यस्मान्न
ऋते विजयन्ते जनासो यं युध्यमाना अवसे हवन्ते ।
यो
विश्वस्य प्रतिमानं बभूव यो अच्युतच्युत् स जनास इन्द्रः ।। 9।।
अन्वय- यस्मात् ऋते
जनासः न विजयन्ते, युध्यमानाः यम् अवसे हवन्ते । य विश्वस्य
प्रतिमानम् बभूव, यः अच्युतच्युत् जनासः । स इन्द्रः।
शब्दार्थ- न
विजयन्ते - विजय नहीं पाते हैं । युध्यमानाः - युद्ध करते हुए लोग । अवसे-
रक्षा के लिए । हवन्ते- पुकारते हैं। प्रतिमानम्- प्रतिरूप परिमाण
निश्चित करने वाला | अच्युतच्युत्-
स्थिरों को भी गतिशील बनाने वाला ।
संदर्भ- प्रस्तुत
मंत्र ऋग्वेद के दूसरे मण्डल के बारहवें सूक्त 'इन्द्र सूक्त' से उद्धृत है। इस सूक्त के देवता इन्द्र, ऋषि
गृत्समद तथा छन्द त्रिष्टुप् है । इस मंत्र में गृत्समद ऋषि ने इन्द्र देवता के
वैशिष्ट्य का वर्णन किया है-
अनुवाद- जिसके बिना
लोग विजय प्राप्त नहीं कर सकते हैं । युद्ध करते हुए सैनिक अपनी रक्षा के लिए
पुकारते हैं, जो विश्व का प्रतिरूप है तथा जो स्थिरों को भी गतिशील बना
देता है । जो क्षयरहित पर्वतों को अचल बनाने वाला है। हे मनुष्यों ! वह इन्द्र है।
टिप्पणी-
(i) यस्माद् ऋते- 'ऋ' के योग में पंचमी विभक्ति
का प्रयोग हुआ है। न ऋते' के स्थान पर उच्चारण ‘नर्ते' होगा क्योंकि त्रिष्टुप् छन्द में प्रत्येक
चरण 11 अक्षर होते हैं।
(ii) विजयन्ते- वि उपसर्ग + जि
धातु, प्रथम पुरुष बहुवचन ।
(iii) युद्धमाना- युध् +
(श्यन्) + (मुक्) + शानच् युध्यमान रूप बनता है।
(iv) अवसे- भव धातु + असे प्रत्यय (तुमान् के अर्थ में वैदिक असे प्रत्यय (तुमने के अर्थ में
वैदिक असे प्रत्यय) ।
(v) प्रतिमानम् – प्रति उपसर्ग + माङ् धातु + ल्युट् प्रत्यय। सायण- प्रतिनिधि। मैक्डोनल समर्थ।
(vi) अच्युतच्युत् सायण –
क्षयहीन पर्वत आदि को चला देने वाला । मैक्डोनल - अचरों को चर बनाने
वाला ।
(vii) बभूव- भू धातु लिट् लकार, प्रथम पुरुष एकवचन ।
यः
शश्वतो मह्येनो दधाना नमन्यमानाच्छर्वा जघान ।
यः
शर्धते नानुददाति शृध्यां यो दस्योर्हन्ता स जनास इन्द्रः ।। 10।।
अन्वय यः महि एनः
दधानाम् शश्वतः अमन्यमानान् शर्वा जघान । यः शर्धते शृध्याम् न अनुददाति। यः दस्योः
हन्ता जनासः स इन्द्रः ।
शब्दार्थ महि- महान् या
विशाल । एनः- पाप को। दधानान्– धारण करने वाले । शश्वतः-
बहुसंख्यक । अमन्यमानान्- इन्द्र को मानने वालों को । शर्वा- वज्र
से । जघान- मारता है या नष्ट कर देता है। शर्धते— उद्दण्ड अथवा अभिमानी की । शृध्याम्- उच्छृंखलता अथवा अभिमान को ।
न अनुद्दाति- सहन नहीं करता है । हन्ता- विनाश करने वाला।
संदर्भ- प्रस्तुत
मंत्र ऋग्वेद के दूसरे मण्डल के बारहवें सूक्त 'इन्द्र सूक्त'
से उद्धृत किया गया है। इसके देवता इन्द्र, ऋषि
गृत्समद तथा छन्द त्रिष्टुप् है । इस मंत्र में ऋषि गृत्समद ने इन्द्र के
वीरतापूर्ण कृत्यों का वर्णन करते हुए तत्सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण तथ्यों को
प्रस्तुत किया है।
अनुवाद— ऋषि
गृत्समद कहते हैं कि जो महान् पाप को धारण करने वाले बहुसंख्यक इन्द्र को न मानने
वालों (अवज्ञा करने वालों) को वज्र से मार देता है, जो
अभिमानी की उच्छृंखलता अथवा अभिमान को सहन नहीं करता है, जो
असुरों का वध करने वाला है, लोगों ! वह इन्द्र है ।
टिप्पणी-
(i) प्रस्तुत
मंत्र का भाव यह है कि इन्द्र पापियों तथा अपने अपूजकों अर्थात् उसके प्रति
शत्रुता रखने वालों को मार डालता है । वह दस्युओं का विनाश करने वाला है । इस
प्रकार इन्द्र एक शक्तिशाली देवता है।
(ii) अमन्यमानाम्— न मन्यमानान् इति। मन् धातु + लट्
शानच् पुल्लिंग द्वितीया, बहुवचन । सायण ने इसका अर्थ ‘अपने को न जानने वाले, अनात्मज्ञ अथवा इन्द्र की पूजा
न करने वाले' किया है। वेंकटमाधव ने ‘इन्द्र
को न मानने वाले तथा मैक्डोनल ने इन्द्र उन्हें मार डालेगा, ऐसा
विचार न करने वाले' अर्थ किया है।
(iii) शर्वा- श्रृणाति अनेनेति शरूः, तृतीया, एकवचन । सायण ने इसका अर्थ शत्रु की समृद्धि
'वज्र से' किया है। वज्र इन्द्र का
प्रमुख आयुध है । छन्द की दृष्टि से 'शर्वा' के स्थान पर 'शरूआ' पढ़ा जाता है
|
(iv) शर्ध— शृध धातु + लट् शतृ, पुल्लिंग, चतुर्थी एकवचन ।
(v) अनुददाति
- अनु + दा धातु + लट्, प्रथम पुरुष, एकवचन
।
यः
शंबरं पर्वतेषु क्षियन्तं चत्वारिश्यां शरद्यन्वविन्दत् ।
ओजायमानं
यो अहिं जघान दानुं शयानं स जनास इन्द्रः ।। 11।।
-
अन्वय- यः
पर्वतेषु क्षियन्तं शम्बरं चत्वारिश्यां शरदि अन्वविन्दत्। यः ओजायमानम् अहिम्
शयानम् दानुम् जघान, हे जनासः स इन्द्रः ।
शब्दार्थ – पर्वतेषु
– शैलों पर । क्षियन्तम्- निवास करने वाले । चत्वारिश्यां-
चालीसवें । शरदि- वर्ष में । अन्वविन्दत् खोजकर प्राप्त किया । ओजायमानं-
शक्ति का प्रदर्शन करने वाले । अहिं- सर्प रूप में । शयानं- सुप्त ।
दानुम् - दानव को । जघान- मार डाला ।
संदर्भ- प्रस्तुत
मन्त्र ऋग्वेद के दूसरे मण्डल का बारहवाँ सूक्त है । इसके देवता इन्द्र, ऋषि
गृत्समद तथा छन्द त्रिष्टुप् है। इन्द्र के पराक्रम का वर्णन किया गया है, जिसके अन्तर्गत उसने शम्बर तथा अहिं का वध किया था।
अनुवाद - जिसने डर के
कारण पहाड़ों में छिप कर रहने वाले शम्बर को चालीसवें वर्ष में पा लिया तथा जिसने
बल का प्रदर्शन करते हुए दानशील, गतिहीन मेघ को मारा, अथवा प्रहार करने वाले दनु के पुत्र असुर को, सोते
समय ही मार डाला, हे पुरुषों, वह
इन्द्र है ।
टिप्पणी--
(i) शम्बर- यह असुर था । वृत्र, बल और शुष्ण को छोड़कर शम्बर इन्द्र का बहुत अधिक वर्णित राक्षस शत्रु है।
इन्द्र उस पर अपने पर्वत से ही आक्रमण करता है। इसे बहुत से दुर्गो का स्वामी कहा
गया है।
(ii) शरदि
वर्ष में शिशिर, बसन्त, ग्रीष्म,
वर्षा, शरद और हेमन्त - ये छ: ऋतुएँ होती है।
वैदिक काल में वर्ष का प्रारम्भ “शरद् ऋतु से माना जाता था
और क्योंकि शरद् ऋतु वर्ष में एक बार आती है, अतः यह शब्द 'वर्ष' का अर्थ देने वाला बन गया । जैसे कि "पश्येमः
शरदः शतम् प्रबुध्याम- शरदः शतात्' अर्थात् हम सौ
वर्षो तक देखते रहें, सौ वर्षो तक बोलते रहें, आदि वाक्यों में हम इसी अर्थ को प्राप्त करते हैं।
(iii) अहिम्– इसी सूक्त के तीसरे मन्त्र में भी 'अहिं' का उल्लेख प्राप्त हुआ है । यह जलों का आवृत्त
करने वाला राक्षस माना जाता था । इन्द्र ने बल दिखाते हुए सर्परूपी सोते हुए दानव
का संहार किया - ऐसी प्रसिद्धि भी है ।
यः
सप्तरश्मिर्वृषमस्तुविष्मान् वासृजत सर्तवे सप्त सिन्धून् ।
यो
रौहिणमस्फुरद् वज्रबाहुर् द्यामारोहन्तं स जनास इन्द्रः ।। 12।।
अन्वय- सप्तरश्मिः
वृषभः तुविष्मान् यः सर्तवे सप्त सिन्धून् अवासृजत, वज्रबाहु यः द्याम्
आरोहन्तम् रौहिणम् अस्फुरत्, जनासः! सः इन्द्र।
शब्दार्थ- सप्तरश्मिः- सात किरणों
वाले। वृषभः- कामनाओं के पूरक । तुविष्मान्- शक्तिशाली । सर्तवे– बहने
के लिए। अवासृजत्- बहाया है। वज्रबाहु- वज्र है भुजा में जिसके अथवा
वज्र- वज्र के सदृश भुजाओं वाले। द्याम्— स्वर्ग में। आरोहन्तम्- चढ़ते हुए । रौहिणम्- रौहिण नामक
असुर को। अस्फुरत् मार डाला ।
संदर्भ-- प्रस्तुत
मंत्र ऋग्वेद के दूसरे मण्डल के बारहवें 'इन्द्र - सूक्त'
से उद्धृत है। इसमें मन्त्रद्रष्टा ऋषि गृत्समद ने इन्द्र के साहसिक
एवं वीरतापूर्ण कृत्यों का वर्णन किया है-
अनुवाद - सात प्रकार
के मेघों के नियन्ता, वर्षा करने वाले, सात
किरणों वाले, कामनाओं पूरक, शक्तिशाली
जिस (इन्द्र) ने बहने के लिए सात धाराओं को बहाया है । हाथ में वज्र धारण करने
वाले जिसने द्यु लोक पर आरोहण करते हुए रोहिण नामक असुर को मार डाला, लोगो ! वह इन्द्र है।
टिप्पणी-
(i) सप्तरश्मि
- सायण— सात रश्मियों वाला। मैक्डोनल - सात नाथों वाला।
उनके मत में इसका संभाव्य अर्थ–दुर्धर्ष, दुर्घट, अप्रतिहत, अव्याहत है।
पीटर्सन- उन सात रज्जुओं से युक्त जो उसे नेतृत्व प्रदान करती हैं।
(ii) वृषभ- ऋषि गतौ +
अभच्, वृष् (सेचने) + अभच् । वेंकटमाधव - वर्षक। मैक्डोनल – बैल।
(iii) तुविष्मान्– 'तु गतौ' धातु
से 'असुच्' प्रत्यय- तुविष् । तुविष् +
मतुप् ।
(iv) सर्तवे- 'सृ' धातु से 'तुमुन्' के अर्थ में वैदिक प्रयोग ।
(v) अस्फुरत्- स्फुर् धातु, लङ् लकार, प्रथम
पुरुष एकवचन।
(vi) आरोहन्तम्— आ उपसर्ग + रूह् धातु + शतृ – आरोहत् । द्वितीया का
एकवचन ।
(vii) रौहिणम्– सायण
ने इसका अर्थ 'असुर' किया है ।
हिलेब्रान्त ने इसे रोहिणी नक्षत्र का अभियान माना है। निघण्टु में इसे मेघ नामों
में परिगणित किया गया है। मैक्डोनल इसे 'रोहिणी' का पुत्र मानते हैं ।
धावा
चिदस्मै पृथिवी नमेते शुष्माच्चिदस्य पर्वता भयन्ते ।
यः
सोमपा निचितो वज्रबाहु र्यो वज्रहस्तः स जनास इन्द्रः ।। 13 ।।
अन्वय - अस्मै
द्यावा पृथिवी चित् नमेते । अस्य शुष्मात् पर्वताः भयन्ते। यः सोमपा निचितः।
वज्रबाहुः यश्च वज्रहस्तः । हे जनासः स इन्द्रः ।
शब्दार्थ
अस्मै - इन्द्र के लिए । द्यावा पृथिवीं- आकाश और भूमि अर्थात
रोदसी । चित्- ही। नमेते— प्रणाम करते हैं। अस्य-
इन्द्र के । शुष्मात्- ' बल से । भयन्ते- डरते
हैं । यः- जो इन्द्र । सोमपा- सोमरस का आस्वादक । निचितः-
कहा गया है। वज्रबाहुः- वज्र नामक शस्त्र) को हाथ में रखने वाला ।
संदर्भ— वज्र
के समान दृढ़ भुजा वाला। वज्रहस्तः- कुलिश
(इन्द्र का प्रस्तुत मन्त्र ऋग्वेद के दूसरे मण्डल के बारहवें 'इन्द्र - सूक्तम्' में से लिया गया है। इस सूक्त के
देवता इन्द्र, ऋषि गृत्समद तथा छन्द त्रिष्टुप् है । इस
मंत्र में इन्द्र के महान पराक्रम का उल्लेख किया गया है।
अनुवाद - जिसको
प्रमाण करने के लिए आकाश और पृथ्वी झुकते हैं। जिसके भय से पर्वत भयभीत होते हैं।
जो सोम रस को पीने वाला विख्यात है। जो वज्र के समान दृढ़ भुजा वाला है तथा जो
वज्र को हाथ में धारण किए हुए है, हे मनुष्यो ! वह इन्द्र ही है ।
टिप्पणी-
(i) वैदिक साहित्य में 'द्यावा - पृथिवी' अर्थात् रोदसी एक शब्द होते हुए भी
इसके मध्य में दो अन्य शब्दों का प्रयोग प्राप्त होता है ।
(ii) इन्द्र के भय से पर्वतों
के काँपने का उल्लेख इसके पूर्ववर्ती मंत्रों में प्राप्त होता है। इससे ज्ञात
होता है कि इन्द्र वास्तव इतना पराक्रमी है कि उससे पर्वत भी भयभीत होते थे ।
(iii) सोमपा-इन्द्र को सोम रस के पीने में अत्यन्त आनन्द का अनुभव होता था। वैसे भी 'सोम' वैदिक कार्यों तथा देवताओं के लिए मादक,
उत्तेजक तथा और प्रिय पदार्थ था। ऋग्वेद के नवें मण्डल में तो इसी
सोम का वर्णन प्राप्त होता है । सोम रस द्वारा यज्ञ भी किए जाते थे।
(iv) वज्रबाहु
व वज्रहस्तः- ये दोनों शब्द ऐसे प्रतीत होते हैं, मानो एक ही
ओर व्यक्त करने वाले हों और यहाँ इनकी पुनरावृत्ति हुई हो, किन्तु
वास्तव में ऐसा नही है। दोनों शब्दों में वज्र शब्द आया है तथा दोनों में बाहु व
हस्त का प्रयोग हुआ है । परन्तु इनका अर्थ भिन्न है । प्रथम शब्द का अर्थ है 'वज्र के समान दृढ़ भुजा वाला और दूसरे का अर्थ है 'वज्र
को हाथ में धारण करने वाला ।' वज्र इन्द्र का सुपसिद्ध
शस्त्र है, जिससे वह वृत्र का विनाश करता है। यह नुकीला माना
जाता था, जिसके कोने होते थे। पौराणिक विवरण के अनुसार
वृत्रासुर का वध करने के लिए इन्द्र दधीचि मुनि की अस्थियों से वज्र का निर्माण
किया था । एक अन्य विवरण के अनुसार आकाश में चमकने वाली बिजली (विद्युत) ही इन्द्र
का वज्र है।
यः
सुन्वन्तमवति यः पचन्तं यः शंसन्तं यः शशमानमूती ।
यस्य
ब्रह्म वर्धनं यस्य सोमो यस्येदं राधः स जनास इन्द्रः ।। 14।।
अन्वय- यः
सुन्वन्तम् यः पचन्तम् यः ऊती शंसन्तम् यः शशमानम् अवति । य ब्रह्म यस्य सोमः यस्य
इदम् राधः वर्धनम्। जनासः स इन्द्रः।
शब्दार्थ- सुन्वन्तम्– सोम
रस निकालने वाले की । पचन्तम्- हरि को पकाने वाले की। शंसन्तम्-
स्तुति करने वाले की । शशमानम्- स्तोत्र पर वाले की । ऊती- रक्षा
करने के लिए । अवति- रक्षा करता है। ब्रह्म-स्ते । राधः- परिपक्व
हविष्यान्न। वर्धनम्- उन्नति कारक ।
संदर्भ- प्रस्तुत
मंत्र ऋग्वेद के दूसरे मण्डल के बारहवें सूक्त 'इन्द्र - सूक्त'
से उद्धृत है। इस सूक्त के देवता इन्द्र, ऋषि
गृत्समद तथा छन्द त्रिष्टुप् है । इस मन्त्र में ऋषि गृत्समद ने इन्द्र सम्बन्धी
महत्त्वपूर्ण तथ्यों का व्यक्त किया है-
अनुवाद - जो (इन्द्र)
सोमरस निकालने वाले की, हवि सम्पादन करने वाले अपनी सुरक्षा के लिए
स्तुति करने वाले यजमान की रक्षा करता है । वृद्धि करने ब्रह्म नामक स्तोत्र,
सोमरस तथा पुरोडाशादि अन्न जिसके वृद्धिकारक हैं, हे पुरुषों ! इन्द्र है।
टिप्पणी-
(i) प्रस्तुत मंत्र का भाव यह
है कि कर्मशील, परोपकारी तथा भक्ति से युक्त लोग इन्द्र को
सदैव प्रिय लगते हैं। ऐसे लोगों की वह सदैव रक्षा करता है।
(ii) सुन्वन्तम् – सु + शतृ, पुल्लिंग द्वितीय एकवचन ।
(iii) पचन्तम् पच् धातु + लट्
के स्थान पर शतृ, पुल्लिंग द्वितीया एकवचन का रूप ।
(iv) शसन्तम् शंस् + लट्
स्थानीय शतृ द्वितीया एकवचन । सायण - शास्त्र पाठ करते हुए ।
मैक्डोनल— देवताओं
की प्रशंसा करने वाला । पीटर्सन- गायक स्तोता ।
(v) शशमानम् शश् धातु + शानच्
प्रत्यय, पुल्लिंग द्वितीया एकवचन । ग्रासमेन ने इसे शम्
धातु से कानच् प्रत्ययान्त रूप माना है ।
(vi) राधः राध् (सिद्ध करना,
प्रसन्न करना) से यह शब्द निष्पन्न है । सायण ने पुरोडाशादि अन्न
अर्थ
किया है। मैक्डोनल ने 'उपहार'
अर्थ किया है।
(vii) वर्धनम् – वृध् धातु + णिच् + ल्युट्, नपुंसक लिंग प्रथमा
एकवचन ।
यः
सुन्वते पचते दुध आ चिद् वाजं दर्दषि स किलासि सत्यः ।
वयं
ते इन्द्र विश्वह प्रियासः सुवीरासो विदथमा वदेम ।। 15 ।।
अन्वय-- दुध्रः
यः पचते वाजम् चित् आ दर्दषि, सः किल सत्यः असि । इन्द्र ।
सुवीरासः ते प्रियासः वयम् विश्वह विदथम् आवदेन ।
शब्दार्थ- दुधः- घोर । सुन्वते-
सोमरस निकालने वाले के लिए । पचते- पकाने वाले के लिए । वाजम्— अन्न
या बल । आ दर्दषि- देते हो । सुवीरासः- उत्तम वीर संतानों वाले । विश्वह-
सदा ही। विदथम्— प्रार्थना के वाक्य । आवदेम्–
बोलते रहें।
संदर्भ- प्रस्तुत
मंत्र ऋग्वेद के दूसरे मण्डल के बारहवें सूक्त 'इन्द्र सूक्त' का अन्तिम मंत्र है। इसके देवता इन्द्र, ऋषि गृत्समद
तथा छन्द त्रिष्टुप् है। इस मन्त्र में ऋषि गृत्समद ने इन्द्रदेव से अन्न एवं धन-धान्यादि
की कामना की है तथा यह विश्वास दिलाने का प्रयास किया है कि वह सदैव सपरिवार
इन्द्र को स्तवन करता रहेगा ।
अनुवाद— ऋषि
गृत्समद इन्द्र देव की महिमा का वर्णन करते हुए प्रार्थना करते है कि घोर (दुर्धर)
जो सोमरस निकालने वाले के लिए, हवि पकाने वाले के लिए अन्न
या बल प्रदान करता है, वह (तुम) नि:संदेह ही यथार्थ हो
अर्थात् इन्द्र नाम से सिद्ध हो । हे इन्द्र ! उत्तम वीर संतानों वाले तुम्हारे
प्रिय हम सदैव प्रार्थना के वाक्य बोलते रहें अर्थात् सदैव तुम्हारी स्तुति करते
रहें ।
टिप्पणी-
(i) दुध्रः - दुर् उपसर्ग + धृ
(धारणे ) धातु + क प्रत्यय ।
(ii) सुन्वते - सु धातु + लट्
स्थानीय, शतृ प्रत्यय, तस्मै । (iii)
पचते. पच् धातु + लट् स्थानीय, शतृ, तस्मै ।
(iv) प्रियासः यह लौकिक 'प्रियाः' का वैदिक रूप I
(v) विश्वह – विश्वानि अहानि अर्थ में छान्दस् रूप।
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