हिरण्यगर्भ सूक्त (10.121)
हिरण्यगर्भः
समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् ।
स
दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ।। 1।।
अन्वय- हिरण्यगर्भः
अग्रे समवर्तत, जातः भूतस्य एकः पतिः आसीत्, स इमां पृथिवीं उत द्यां दाधार, कस्मै
इकाई 2 अक्ष सूक्त
प्रस्तावना
उद्देश्य
अक्ष सूक्त, परिचय
अक्ष सूक्त मूल मन्त्र
सारांश
शब्दावली
अभ्यास प्रश्नों के उत्तर
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
निबन्धात्मक प्रश्न
प्रस्तावना
पूर्व की इकाइयों में
यह अध्ययन कर चुके हैं कि वेद मानवीय सभ्यता और संस्कृति के आदि ग्रन्थ हैं।
मानवीय मेधा के सर्वागीण का समग्र संकलन 'ऋग्वेद' में
प्राप्त होता है। ऋग्वेद में देवताओं की स्तुति के साथ ही मानव को चरित्र निर्माण
करने तथा जीवन में दुर्व्यसनों को छोड़ने की और शिक्षा भी प्रदान की गई है। इस
क्रम में ऋग्वेद का अक्ष सूक्त कर्मव्य जीवन का उपदेश देता है। यहाँ पर एक कितब
अर्थात जुआरी को सत् कर्म करने की व अपने परिवार का पालन पोषण करने की शिक्षा
प्रदान की गई है। प्रस्तुत इकाई में आप ऋग्वेद के दशन मण्डल के प्रमुख अक्ष सूक्त
(जो कि शिक्षाप्रद सूक्त है) का परिचय देते हुए उसमें वर्णित कथानक के सूक्ष्म
अध्ययन से बता सकेंगे कि अक्ष सूक्त क्यों महत्वपूर्ण है।
उद्देश्य
इस इकाई का अध्ययन
करने के पश्चात् आप बता सकेंगे कि—
अक्ष सूक्त ऋग्वेद का महत्वपूर्ण सूक्त
क्यों है?
अक्ष सूक्त से क्या महत्वपूर्ण शिक्षा
प्राप्त होती है।
अक्ष सूक्त मानव को किस वृत्ति की ओर
प्रेरित करता है I
कौन सा कार्य करने पर समाज में
सम्मान्नीय पद प्राप्त होता है।
मानव के लिए पुरूषार्थ अथवा श्रम क्यों
आवश्यक है।
अक्ष सूक्त (परिचय)
वैदिक युग से ही जुआ
खेलना एक सामाजिक दुर्व्यसन रहा है। ऋग्वेद के दशम मण्डल के 34वे सूक्त में एक
जुआरी की मानसिक व दीन हीन दशा का वर्णन किया गया है। प्रस्तुत सूक्त के ऋषि कवष
एलूष हैं तथा अनुष्टुप व जगती छन्दों का प्रयोग मन्त्रों में हुआ है। ऋशि ने स्वगत
कथन या आत्मालापपरक शैली में कितब की वैयक्तिक व पारिवारिक दशा का, उसके
पश्चाताप का, उसकी संकल्प विकल्पात्मक मनोदशा का और शाश्वत
सामाजिक संदेश का बड़ा ही यथार्थ और प्रेरक दृश्य प्रस्तुत किया है। वास्तव में
द्यूत के माध्यम से धन प्राप्त करने की इच्छा मनुष्य की अकर्मव्यता की सूचक है यह
प्रवृति उसके दुर्भाग्य का कारण बनती है। प्रस्तुत सूक्त में इन्ही तथ्यों का
समावेश किया गया है। सूक्त के मन्त्र निम्नलिखित हैं-
अक्ष सूक्त मूल
मन्त्र
1. प्रावेपा मा बृहतो मादयन्ति
प्रवातेजा इरिणे वर्वृतानाः ।
सोमस्येव मौजवतस्य भक्षो
विभीदको जागृविर्मह्यमच्छान् ।
अन्वय- वृहतः
प्रवातेजाः इरिणे वर्वृतानाः प्रावेपाः मा मादयन्ति । मौजवतस्य सोमस्य भज्ञक्षः इव
जागृतिः विर्भादकः मह्यम् अच्छान् ।
शब्दार्थ-
प्रावेपाः- कम्पनशील, मादयन्ति-
उन्मत्त कर देते हैं, इरिणे- जुआ
खेलने का पट्ट, जागृविः-
रात-दिन जगाने वाला, अच्छान्-
अत्यधिक उन्मत्त ।
अनुवाद- विशाल
पर्वतों के गिरते हुए भाग पर अथवा अत्यधिक तेज वायु वाले स्थानों पर उत्पन्न, जुआ
खेलने के पट्ट पर फेंके गये ये कम्पनशील अक्ष (पासे) मुझे उन्मत्त कर देते हैं। यह
पासे मुझे दिन-रात जगाने वाले होकर उसी प्रकार उन्मत्त कर देते हैं जिस प्रकार
मुस्जवान् पर्वत पर उत्पन्न सोनरस का पान मादकता प्रदान करता है।
व्याख्या- प्रस्तुत
मन्त्र में कितव की आत्मा व्यथा का वर्णन है वह जुए के पासों को देखकर स्वयं को
रोक नहीं पाता और इन पासों से खेलने के लिए विवश हो जाता है जैसे ही पाशे तीव्र
गति से चौसर पर फेंके जाते हैं कितव भी उन्मत्त होकर रात – दिन इस क्रीडा में मग्न
हो जाता है। ये अक्ष सोम के पेय के समान उसके मन को स्फूर्ति और मादकता से भर देते
हैं ।
व्याकरणात्मक
टिप्पणी- प्रवातेजाः– प्रवाते + जन् + ड (प्रथम
पुरुष बहुवचन) मादयन्ति मद् + णिच् + लट् लकार, प्रथम
पुरूष, बहुवचन जागृतिः- जागृ + विन् प्रथम पुरूष, एक वचन।
2. न
मा मिमेथ न जिहील एषा, शिवा सखिभ्य उत मह्
यमासीत्।
अक्षस्याहमेकपरस्य
देतो रनुव्रतामप जायामरोधम् ।।
अन्वय— एषा मा न
मिमेथ न जिहीले सखिभ्यः- उत् मरूयम् शिवा आसीत् एकपरस्य अक्षस्य हेतोः अहम्
अनुव्रताम् जायाम् अप अरोधम् ।
शब्दार्थ- मिमेन-
क्रोध नहीं करती, जिहीले- लज्जित
करना, अनुव्रताम्- पतिव्रता,
अपरोधम्– छोड़ दिया ।
अनुवाद- यह मेरी
पत्नी पहले मुझ पर क्रोध नहीं करती थी और न ही लज्जित करती थी। यह मुझे और मेरे
मित्रों के लिए कल्याणकारी थी । एकमात्र जुएँ के कारण मैंने इस पतिव्रता पत्नी को
छोड़ दिया है ।
व्याख्या- प्रस्तुत
मन्त्र में जुआरी के पश्चाताप का वर्णन है वह पाशे के शब्दों को सुनकर स्वयं को
रोक नहीं पाता और रात - दिन इसी कर्म में संलग्न रहता है वह इस क्रीडा के लिए अपनी
पतिव्रता प्राणवल्लभा पत्नी का भी परित्याग कर देता है वह सब कुछ छोड़ सकता है
किन्तु द्यूत के इन पाशों का मोह नहीं छोड़ सकता । जब द्यूत का मोह समाप्त हो जाता
है और वह अपनी सामान्य स्थिति में आ जाता है तो उसे अपनी पती-परायणा पत्नी के
अकारण परित्याग के लिए बड़ा पश्चाताप होता है ।
व्याकरणात्मक
टिप्पणी- मिथेन- मिथ् धातु लिट् लकार, प्रथम पुरूष एक वचन जिहीडे-
हीड़ धातु, लिट् लकार, प्रथम पुरूष एक वचन।
3. द्वेवेष्टि
खश्रूरप जाया रुणद्धि न नाथितो विन्दते मार्डितारम् ।
अश्वस्येव
जरतो वस्नयस्य नाहं विन्दामि कितवस्य भोगम् ।।
अन्वय- खश्रू
द्वेवेष्टि जाया अपरूणद्धि नाथितो मर्डितारम् न विन्दते । वस्न्यस्य जरतः अश्वस्य
इव अहम् कितवस्य भोगम् व विन्दामि ।
अनुवाद- मेरी
(जुआरी की) सास मुझसे द्वेष करती है तथा पत्नी मुझसे विरूद्ध हो जाती है याचना
करने पर भी सुख की प्राप्ति नहीं होती है। जिस प्रकार बहुमूल्य होने पर भी बूढ़े
घोड़े का कोई मूल्य नहीं होता उसी प्रकार मैं जुआरी होने के भोग को नहीं प्राप्त
करता हूँ ।
व्याख्या- प्रस्तुत
मन्त्र में जुआरी को परिवार में अपनी हेय और तिरस्कृत स्थिति पर अनुताप होता है
उसकी सास उससे निन्दा करती है तथा उसकी पत्नी ही उसकी विरोधी हो गई है। जरूरत
पड़ने पर यदि वह अपने ईष्अ मित्रों अथवा रिश्तेदारों से धन की याचना करता है तो वे
उसकी वास्तविक आवश्यकताओ को न समझते हुए यह सोचते हैं कि वह धन जुए के लिए ही माँग
रहा है। जिस प्रकार बूढ़ा घोड़ा अपना मूल्य खो देता है उसी प्रकार जुआरी की भी
स्थिति हो गई है।
व्याकरणात्मक
टिप्पणी – अवरुणद्धि- अप् + रूध् + लट्
लकार प्रथम पुरुष एकवचन विन्दते नाथितः विदलृ धातु, लट्
लकार प्रथम पुरुष, एकवचन नाथ् धातु,क्त प्रत्यय द्वेष्टि – द्विष् धातु, लट् लकार प्रथम पुरुष, एकवचन भोगम् – भुज् धातु घञ् प्रत्यय" विन्दामि – विदलृ धातु, लट्
लकार, उत्तम पुरुष, एकवचन
4.
अन्ये जायां परिमृशन्त्यस्य यस्याग्रधवेदने वाज्यक्षः ।
पिता
माता भ्रातर एनमाहुः न जानीमो नयता बद्धमेतम् ।।
अन्वय- यस्य वेदने
वाजी अक्षः अगृधत् अस्य जायाम् अन्ये परिमृशन्ति । पिता माता भ्रातरः- एनम् आहुः न
जानीमः बद्धम् एवं नयत ।।
शब्दार्थः - वेदने - धन पर, वाजी- धनवान, परिमृशन्ति – अपमानित करते
हैं।
अनुवाद- जिसके धन पर
बलवान जुएँ का पासा ललचाने लगता है अर्थात जो जुआरी जुआ खेलने लग जाता है उसकी
पत्नी को दूसरे जुआरी अपमानित करते हैं। जुआरी के पकड़े जाने पर उसके माता-पिता और
भाई इसके विषय में कहते हैं कि हम इसे नहीं जानते। बँधे हुए इसको ले जाओ।
व्याख्या- प्रस्तुत
मन्त्र से यह ज्ञात होता है कि वैदिक युग में भी लोग अपनी पत्नी को दाँव पर लगा देते
थे और हार जाने पर अपनी आँखों के सामने पत्नी को अपमानित होते हुए देखते थे। इस
प्रकार पश्चाताप भरे स्वर में जुआरी कहता है कि जो पासों को देखकर ललचाता है और
जुआ खेलने में लीन हो जाता है उसके हार जाने पर उसकी पत्नी को अन्य जीतने वाले
जुआरी अपमानित करते हैं। जब जुआरी को पकड़ लिया जाता है तब उसके सम्बन्धी भी उसे
पहचानने से मना कर देते हैं और कहते हैं कि इसे बाँधकर ले जाओ। इस प्रकार जुआ
खेलकर वह अपना सर्वस्य त्याग कर देता है।
5.
यदादीध्ये न दविषाण्येभिः पराद्भ्योडव हीये सखिभ्यः ।
न्युप्ताश्च
बभ्रवो वाचमक्रतँ एमीदेषां निष्कृतं जारिणीव ।।
अन्वय- यत् आदीध्ये
एभिः- न दविषाणि परायद्भ्यः सखिभ्यः अवहीये । बभ्रवः न्युप्ताः च बाचम्
अकृत • एषाम् निष्कृतम् जारिणी इव एमि इत् ।
शब्दार्थ- आदीध्ये-
ध्यान करता हूँ, दविषाणि- नहीं खेलूँ अवहीए-छिप जाता हूँ, जारिणीइव- व्यभिचारिणी स्त्री के समान ।
अनुवाद- जब मैं ऐसा
सोचता हूँ कि मैं इन पासों से न खेलूँ तब मैं यह निश्चय करके द्यूतक्रीडा स्थल की
ओर जाते हुए मित्रों से छिप जाता हूँ किन्तु जब भूरे रंग के अक्षपट्ट पर फैंके
जाते हुए पासे शब्द करते हैं उस समय उनकी आवाज सुनकर मैं व्यभिचारिणी स्त्री के
समान द्यूतक्रीडा स्थल में पहुँच जाता हूँ ।
व्याख्या- प्रस्तुत
मन्त्र में जुआरी को जब पश्चाताप होता है कि वह इस गलत कार्य में प्रवृत्त हो गया
है तब वह अपने मित्रों से छिपने लगता है जो कि उसे इस कार्य के लिए प्रेरित करते
हैं, किन्तु मन में निश्चय कर लेने के बाद भी कि वह द्यूतक्रीडा नहीं करेगा,
पासों की आवाज सुनकर वह व्यभिचारिणी स्त्री जैसे पुरूष के समक्ष आती
है वैसे ही पासों से खेलने पहुँच जाता है।
व्याकरणात्मक
टिप्पणी- बभ्रवः - भ्रू धातु प्रथमा विभक्ति बहुवचन, न्युप्ताः
-नि + वप् + क्त प्रथम पुरूष, बहुवचन, निष्कृतम् - निस् + कृ + क्त जारिणी इन् + डीप्
6.
सभामेति कितवः पृच्छमानो जेष्यामीति तन्वाशूशुजानः ।
अक्षासो
अस्य वि तिरन्ति कामं प्रतिदीने कृतानि आदधतः
अक्षास
अस्य कामम् वितिरनित ।
अन्वय — तन्वा
शूशुजानः जेष्यामि इति पृच्छमानः कितव सभाम् एति । प्रतिदीने कृतानि आदधतः अक्षास
अस्य कामम् वितिरन्ति ।
शब्दार्थ-
शुशूजानः- चमकता हुआ, प्रतिदीव्ने ―प्रतिद्वन्दी कृतानि – दाँवों को।
अनुवाद- शरीर से
चमकता हुआ मैं। विजयी ही रहूँगा इस प्रकार द्यूतस्थल को खोजता हुआ जुआरी सभा में
पहुँचता है। वहाँ पर प्रतिद्धन्दी जुआरी के साथ दाव लगाते हुए उसकी इच्छा को बढ़ा
देते हैं।
व्याख्या- जुआरी को
यह भ्रम होता है कि खेल में वहीं विजयी होगा अतः जैसे ही वह द्यूतक्रीड़ा स्थल में
पहुँचता है वहाँ उसके प्रतिद्धन्दि जुआरी उसके खेलने की इच्छाशक्ति को और अधिक
वृद्धिगंत कर देते हैं और वह पूर्णतया उन्मत्त होकर द्यूतक्रीडा में लीन हो जाता
है ।
व्याकरणात्मक टिप्पणी
- तन्वा + शानच् जेष्यामि - पृच्छ् + शानच्- तनु, तृतीया
विभक्ति एकवचन, शूशुजानः शुच्
जि धातु, लट् लकार, प्रथम पुरूष,
एकवचन, पृच्छमानः – पृच्छमान- पृच्छ+
शानच्।
7.
अक्षास इदड्. कुशिनो नितोदिनो निकृत्वानस्तपनास्तापयिष्णवः ।
कुमारदेष्णो
जयत पुनर्हणा मध्वा संपृक्ताः कितवस्य बर्हणा ।।
अन्वय- अक्षासः इत्
अङ्.कुशिनः नितोदिनः निकृत्वान तपना तापयिष्णवः । जयतः कितवस्य कुमारदेष्णाः पुनः
मध्वा सम्प्रक्ताः बर्हणा हनः ।
शब्दार्थः-
अक्षा- पासे, नितोदिनः- चाबुक
से युक्त," तपनाः- संताप देने वाले, तापयिष्णवः-
परिवार को दुःखी करने वाले, कुमारदेष्णा- धन व पुत्र देने वाले, मध्वा– शहद से,
सम्पृक्ताः- सने हुए ।
अनुवाद- ये पासे
निश्चित रूप से अंकुश से युक्त होते हैं अर्थात जुआरी पर शासन करने वाले होते हैं।
ये चाबुक से युक्त, जड़ से बरबाद करने वाले जुआरी के परिवार को
दुखी करने वाले होते हैं। जीत जाने वाले जुआरी को धन व पुत्र देकर पुनः शहद से सने
हुए जुआरी का सब कुछ हरण कर उसे मारने वाले होते हैं ।
व्याख्या- प्रस्तुत
मन्त्र में द्यूत क्रीडा की निन्दा करते हुए यह कहा गया है कि ये द्यूत के पासे
जुआरी पर अंकुश रखते हैं तथा जुआरी को बर्बाद करने वाले होते हैं इनके कारण ही वह
अपने परिवार को दुख देता है तथा संतप्त करता है। ये पासे जुआरी को जीत जाने पर
बहुत सा धन प्रदान करते हैं जिससे वह अपनी समस्त कामनाओं की पूर्ति करते हैं अतः
ये शहद की तरह घुल कर जुआरी का सब कुछ हरण कर लेते हैं। और अन्त में उसी को मार
देने वाले होते हैं।
व्याकरणात्मक
टिप्पणी - अंकुशिनः- अंकुश + इनि प्रथम पुरूष, बहुवचन,
निकृत्वान नि + कृ + क्वनिप् प्रथम पुरूष, बहुवचन,
सम्पृक्ताः सम् + पृच् + क्त प्रथम पुरूष, बहुवचन
।
8.
त्रिपञ्चाशः क्रीडति व्राता एषां देव इव सविता सत्यधर्मा ।
उग्रस्य
चिन्मन्येव ना नमन्ते राजा चिदेभ्यो नम इत्कृणोति ।।
अन्वय- सत्यधर्मा
सविता देवः इव एषाम् त्रिपञ्चाशः व्राताः क्रीडति । उग्रस्य चित् मन्यवे न नमन्ते
। एभ्यः राजा चित् मनः इत् कृणोति ।
शब्दार्थ- सविता
प्रेरक सूर्य देव त्रिपञ्चाशः-- तिरपन का।
अनुवाद- सत्य नियमों
वाले सभी के प्रेरक सूर्य देव के समान इन पासों का तिरपन का समूह अक्ष पट्ट पर
खेलता है। ये पासे भयानक और क्रोधी पुरूष के आगे भी नहीं झुकते हैं इनके लिए तो
राजा भी नमस्कार करता है ।
व्याकरणात्मक टिप्पणी-
सविता- सु + तृच् प्रथम पुरूष एक वचन देवः - दिव् + अच् प्रथम पुरूष एक
वचन मन्यवे– 'मन्यु' चतुर्थी एक वचन ।
मूल 9 नीचा
वर्तन्त उपरि स्फुरन्त्य- हस्तासो हस्तवन्तं सहन्ते ।
दिव्या
अड्.गारा इरिणे न्युप्ताः शीताः सन्तो हृदयं निर्दहन्ति ।।
अन्वय- नीचा
वर्तन्ते उपरि स्फुरन्ति । अहस्तासः हस्तवन्तम् सहन्ते । अंगाराः इरिणे न्युप्ताः
शीताः सन्तः हृदयम् निर्दहन्ति ।।
शब्दार्थ- स्फुरन्त-
उछाल देते हैं, अहस्तासः- हाथों से रहित, हस्तवन्तम्- हाथ वाले
को, न्युप्ताः- फेंक जाते हुए, निर्दहन्ति- जला देते हैं, इरणे- अक्षपट्ट पर, शीताः-
शीतल ।
अनुवाद- ये
पासे नीचे अक्षपट्ट पर डाले जाते हैं और ऊपर जुआरियों के हृदय को उछाल देते हैं।
हाथों से रहित होने पर भी हाथ वाले जुआरी को अभिभूत कर देते हैं अनोखे अंगारों की
तरह ये पासे अक्षपट्ट पर फेंके जाते हुए शीतल होते हुए भी हृदय को जला देते हैं।
व्याख्या- प्रस्तुत
मन्त्र में विरोधाभास अलंकार द्वारा पाशों की शक्तिमत्ता का बहुत सजीव व
काव्यात्मक चित्र प्रस्तुत किया है। यद्यपि ये पाशे नीचे स्थान (फलक) पर रहते हैं
तथापि ऊपर उछलते या प्रभाव दिखलाते हैं और जुआरियों के हृदय में हर्ष, विषाद
आदि भावों की सृष्टि करते हैं उनके मस्तक को जीतने पर ऊँचा कर देते हैं और हारने
पर झुका देते हैं । ये बिना हाथ वाले होकर भी हाथ वालों को पराजित कर देते हैं।
ऐसा लगता है मानो ये पाशे फलक पर फैंके गए दिव्य अंगारे हैं जिन्हें बुझाया नहीं
जा सकता । शीतल होकर भी ये पासे नित्य ही जुआरी के हृदय को खेलने के लिए जलाते
रहते हैं। विशेष प्रस्तुत मन्त्र में विरोधाभास अलंकार है।
व्याकरणात्मक टिप्पणी
स्फुरन्ति- स्फुर धातु, लट्
लकार प्रथम पुरूष बहुवचन अहस्तासः- हस्तासः हस्तवनतम् हस्त + मतुप् द्वितीया एकवचन,
सहन्ते-"सह धातु लट् लकार, प्रथम पुरुष बहुवचन, दिव्याः दिव् + यत्,न्युप्ताः नि + वप् + क्त प्रथम पुरूष बहुवचन निर्दहन्ति निर + दह् + लट्
लकार प्रथम पुरूष बहुवचन।
10.
जाया तप्यते कितवस्य हीना माता पुत्रस्य चरतः क्व स्वित् ।
ऋणावा
बिभ्यद्धनमिच्छमानो अन्येषामस्तमुप नक्तमेति ।।
अन्वय– क्व
स्वित् चरतः कितवस्य जाया तप्यते । पुत्रस्य माता ऋणा विभ्यद् धनम् इच्छमानः
अन्येषांम् अस्तम् नक्तम् उप एति । ।
शब्दार्थ – क्वस्वित्- कहीं पर, चरतः-, घुमते
हुए, तप्यते-दुःखी होती है, ऋणावा- कर्जदार होता हुआ। बिभ्यद्धनम्-
चोरी के धन की कामना करता हुआ दूसरों के घर में रात्रि के समय में आता है।
अनुवाद- उस (पराजित
होकर) घूमते हुए जुआरी की पत्नी दुखी होती है और उस जुआरी पुत्र की माता भी दुखित
होती है। कर्जदार होकर वह चोरी के धन की कामना करता हुआ दूसरों के घर में रात्रि
के समया आता है।
व्याख्या- प्रस्तुत
मन्त्र में जुआरी की पारिवारिक दीन - दशा और वैयक्तिक अध: पतन का मार्मिक दृश्य
अंकित किया गया है। धन इत्यादि साधनों से वंचित और द्यूत क्रीडा में पराजित होकर
घर से बाहर घूमने वाले जुआरी की पत्नी संतप्त होती रहती है। जुआरी की उपेक्षा भरे
व्यवहार से और उसके अध: पतन पर माँ भी आँसू बहाती रहती है ऋण के बोझ में दबा हुआ
जुआरी आप के अन्य साधनों से वंचित हो जाता है और कर्ज चुकाने के लिए रात्रि के समय
दूसरों के घरों में चोरीयाँ करता है ।
व्याकरणात्मक
टिप्पणी- चरतः- चर् + शतृ षष्ठी विभक्ति एकवचन, तप्यते-
तप धातु लट् लकार, प्रथम पुरूष एकवचन, इच्छमानः-
इच्छ् + शानच्, बिभ्यतः भी धातु ।
11.
स्त्रियं दृष्ट्वाय कितवं ततापान्येषां जायां सुकृतं च योनिम् ।
पूवहिणे
अश्वान् युयुजे हि बभ्रुन्सो अग्नेरन्ते वृषलः पपाद ।।
अन्वय-- कितवम्
स्त्रियम् अन्येषाम् जायाम् सुकृतम् च योनिम् दृष्ट्वाय तताप । पूवहि हि बभ्रून
अश्वान् ययुजे । वृषलः सः अग्नेः अन्ते पपाद ।
शब्दार्थ- सुकृतम्- सुन्दर सजे
हुए, योनिम्- घर को, तातापः
–दुःखी होता है. पूर्वहिणे – पूवहिन में वभ्रून- भूरे रंग के युयुजे - दाँव पर लगाता है,
वृषलः- नीच आचरण करता हुआ, पपाद- पड़ा रहता है।
अनुवाद- जुआरी अपनी
पत्नी को,
दूसरों की पत्नी को और उनके सुन्दर सजे हुए घर को देखकर दुखी होता
है। दिन में वह निश्चय ही भूरे रंग के पासों को दाँव पर लगाता है तत्पश्चात रात्रि
में नीच आचरण करता हुआ अग्नि के समीप पड़ा रहता है।
भावार्थ- प्रस्तुत
मन्त्र में जुआरी की मनोदशा का चित्रण किया गया है दूसरों की सुखी व प्रसन्न पत्नी
को देखकर वह दुखी हो जाता है क्योंकि उसके आचरण से उसकी पत्नी सदैव दुखी रहती है ।
वह अन्य लोगों के सुसज्जित घरों को देखकर और अपने जीर्ण-शीर्ण विद्रूप घर को देखकर
संतप्त हो उठता है। वह निश्चय करता है कि वह पासों से नहीं खेलेगा किन्तु दिन में
तो वह पासों को दाँव पर लगाता है और रात्रि में पराजित होकर अग्नि के समक्ष पड़ा
रहता हैं ।
व्याकरणात्मक
टिप्पणी - सुकृतम्—दृश् सु + कृ + क्त, सुष्ठु सम्पादितम्,
दृष्ट्वाय + क्त्वा तातप् तप् धातु लिट् लकार प्रथम पुरूष एकवचन
युयुजे - युज् धातु लिट् लकार प्रथम पुरूष एकवचन ।
12.
यो वः सेनानीर्महतो गणस्य राजा व्रातस्य प्रथमो बभूव ।
तस्मै
कृणो न धना रुणध्मि दशाहं प्राचीस्तपृतं वदामि ।।
अन्वय— वः महतः
गणस्य यः सेनानी बभूव, व्रातस्य प्रथम राजा, तस्मै अहम् दश प्राचीः कृणोमि,
धना न रूणध्मि तत् ऋतम् वदामि ।।—,
अनुवाद हे
अक्ष! तुम्हारे महान् तिरपन संख्या वाले समुदाय का जो नायक है और जो
तुम्हारे समूह का मुख्य राजा है उसके लिए मैं दश अंगुलियों को सामने कर हाथ जोड़ता
हूँ। उसके लिए मैं धन को राकता हूँ। यह मैं सत्य कह रहा हूँ ।
व्याख्या-प्रस्तुत
मन्त्र में जुआरी यह निश्चय करता है कि वह द्यूत क्रीडा में धन को नहीं सम्पादित
करेगा अर्थात वह व्यर्थ ही द्यूत क्रीडा में धन खर्च नहीं करेगा और ऐसा वह सत्य ही
निश्चय करता है ।
व्याकरणात्मक
टिप्पणी – बभूव-भू धातु लिट् लकार, प्रथम पुरूष, एक वचन रूणमि रूध् धातु लट् लकार उत्तम पुरूष, एक
वचन ।
13.
अक्षैमां दीव्यः कृषिमित कृषस्वः वित्ते रमस्व बहु मन्यमानः ।
तत्र
गावः कितव तत्र जाया तन्मे वि चष्टै सवितायमर्यः ।।
अन्वय- कितव!
अक्षैः मा दीव्यः । कृषिम् इत् कृषस्व । वित्ते बहु मन्यमानः रमस्व । तत्र गावः
तत्र जाया। अयं सवितः अर्यः तत् में वि चष्टे।
शब्दार्थ- मा
दीव्यः- मत खेलो, कृषस्व- खेती कर्म
करो, रमस्व- रमण करो गावः –
गाय, अर्यः- ईश्वर ने
विचष्टे –
बताई है।
अनुवाद
व्याख्या-- हे जुआरी !
पासों से मत खेलो। खेती ही करों उससे प्राप्त धन को बहुत समझते हुए उसी में
प्रसन्न रहो। उसी में गौ प्राप्त होंगी। उसी में पत्नी अर्थात दाम्पत्य सुख
प्राप्त होगा। इस जगत के प्रेरक सबके स्वामी ईश्वर ने यह बात मुझे बतायी है।
प्रस्तुत मन्त्र में जुआरी को कर्म करने की प्रेरणा दी गई है ऋषि ने जुआरी को यह
परामर्श दिया है कि द्यूतक्रीडा जैसे दुर्व्यसन का त्याग कर वह कृषि कार्य करे तथा
स्वयं के लिए और समाज के लिए अन्न का उत्पादन करे । उस खेती के कर्म से जो धन
प्राप्त होता है वह उसी में सन्तुष्ट एवं प्रसन्न रहे । निरन्तर कर्म करते हुए ही
उसे गौ धन एवं पत्नी का सुख प्राप्त होगा । और खेती कर्म करने की प्रेरणा स्वयं
ईश्वर ने ही दी है।
सारांश- उपरोक्त अक्ष
सूक्त में जुआरी को कर्म करने की शिक्षा दी गई है वास्तव खेलना और उसके माध्यम से
धन पाने की इच्छा करना मानव की अकर्मण्य या पुरूषार्थहीन वृत्ति का परिचायक
जुआरी बिना श्रम किए दूसरों का धन हथिया लेना चाहता है। यह प्रवृत्ति उसे
पुरुषार्थहीन बना देती है जो अन्ततः उसके दुर्भाग्य का कारण बनती है। ये पासे उसी
प्रकार जुआरी पर शासन करते हैं जिस प्रकार अंकुश हाथी पर शासन करता है जिस प्रकार
कोई चाबुक गाय बैल को चलाता है उसी प्रकार वे जुआरी को चलाते हैं। और उसे मूलतः
बरबाद कर देते हैं। ये कुटुम्ब को सन्तप्त कर देते हैं। इन पासों की संख्या ( 53 ) तिरपन
है और ये अक्ष क्रोधी और भयानक पुरूष के समक्ष भी नहीं झुकते । जुआरी की दुर्दशा
का वर्णन करते हुए बताया गया है कि हारकर घर से भागकर कहीं घूमते हुए जुआरी की
पत्नी भी उससे दुखी होती है तथा माता खिन्न होती है। जुआ खेलकर जुआरी ऋणी होकर
दूसरों के घर में रात्रि के समय चोरी करता है। खिन्न होता हुआ जुआरी दूसरों के
सुसज्जित घरों को देखकर दुखी होता है। जुआरी दिन-रात द्यूतक्रीडा करने की इच्छा
करता है और उन्मत्त रहता है। जुआरी की सास उससे द्वेष करती है पत्नी उसके विरूद्ध
हो जाती है। वह जुआरी अच्छे सुख देने वाले मित्र भी प्राप्त नहीं कर पाता और जुआ
खेलने के कारण अपना सम्मान खो बैठता है । उस जुआरी की पत्नी को दूसरे जीतने वाले
जुआरी केश, वस्त्र इत्यादि खींचकर अपमानित करते हैं और जुआरी
को जब पकड़ लिया जाता है तो उसके परिवार के लोग कहते हैं कि हम इसे नहीं जानते। इस
प्रकार अक्ष सूक्त के अन्त में ऋषि जुआरियों को सदुपदेश देते हैं कि तुम अपना समय
व धन उस कार्य में व्यर्थ मत गँवाओ। यह निन्दनीय कार्य है। समाज में कृषिकर्म करना
एक सम्मान्नीय कर्म है अतः तुम कृषि कर्म करो क्योंकि जीविका का प्रमुख आधार
कृषिकर्म ही है। खेती करने के पश्चात तुम बहुत सा अन्न स्वयं के लिए और समाज के
लिए उपजाओगे साथ ही कृषि कर्म द्वारा ही तुम्हें धन की प्राप्ति होगी । उस धन से
ही तुम सन्तुष्ट रहो एवं प्रसन्न रहो। इस प्रकार उत्तम रीति से धन कमाकर तुम अपनी
पत्नी को भी प्रसन्न करोगे और स्वयं के परिवार को भी निन्दित नहीं करोगे । यही
संसार के प्रेरक परमेश्वर का निर्देश है। इस प्रकार अक्ष सूक्त में द्यूत - क्रीडा
के अनेक प्रकार के अवगुणों को बतलाकर यह स्पष्ट किया गया है कि द्यूतकर्म की
अपेक्षा कृषिकर्म श्रेयस्कर है।
शब्दावली
इरणे- जुआ खेलने का पट्टा
प्रावेपाः- काँपते
हुए
मा – मुझको
जागृविः – जगाने
वाला
विभीतकः- जुआ खेलने का पासा
मिमेथ- क्रोध न करना
जिहीले- लज्जित न करना
अनुव्रताम्- पतिव्रता
नाथितः- याचना करना
वस्न्यस्य —बहुमूल्य
सुख देने के लिए
जरतः - बृद्ध
कितवः – जुआरी
मर्डितारम्-सुख देने के लिए,
वेदने- धन पर
वाजी- बलवान
अगृधत- ललचाना
आदीध्ये ध्यान करता हूँ
बभ्रवः- भूरे रंग के
जारिणी- व्यभिचारी स्त्री
शूशुजानः- चमकता हुआ
नितोदिनः चाबुक
इरिणे - अक्षपट्ट पर
न्युप्ताः- फेंके जाते हुए
ऋणावा — कर्जदार
नक्तम्- रात्रि
युयुजे – दाँव पर लगाना
वृषलः- नीच आचरण करता हुआ
व्रातस्य प्राचीः —समूह
का
प्रचीः- सामने
बहुमन्यमानः- बहुत मानते हुए
विचष्टे – बताई
है।
अभ्यास प्रश्न
प्रश्न 1. सही
उत्तर पर (V) का निशान लगाइये ?
(क) 'अक्ष
सूक्त' कौन से वेद का प्रमुख सूक्त है ?
(i) सामवेद (ii) अथर्ववेद (iii) ऋग्वेद
(ख) अक्ष सूक्त में सि
दुर्व्यसन का वर्णन है ?
(i) द्यूत क्रीडा (ii) मदिरा पान (iii)
(ग) कितव' शब्द का क्या अर्थ है ?
(i) कृषक (ii) जुआरी (iii) शराबी
(घ) 'ऋणावा'
शब्द का क्या अर्थ है ?
(i) ऋण लेने वाला (ii) ऋण देने वाला (iii) चोरी करने वाला
(ड.) 'शुशुजानः'
शब्द का अर्थ है-
(i) खेलता हुआ (ii) चमकता हुआ (iii) जुआ
अभ्यास प्रश्नों के उत्तर
(क) 111
(ख) (i)
(ग) (ii)
(घ) (i)
(ड.) (ii)
2.6 सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
(i) कल्याण वेद कथा अंक
(ii) वेद भारती डा. शिवबालक
द्विवेदी
सहायक ग्रन्थ सूची
(ii) वैदिक साहित्य का इतिहास
वाचस्पति गैरोला
2.8 निबन्धात्मक प्रश्न
(i) ’अक्षैमांदीव्यः कृषिमित
कृषस्वः " की व्याख्या कीजिए ? (ii) अक्ष सूक्त में
कितव के पश्चाताप का वर्णन कीजिए ?
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