भागवत महापुराण में
एक उल्लेख आया है कि महर्षि व्यास ने अपने शिष्यों को वेद पढाया। इसके बाद इनके
शिष्य प्रशिष्यों ने वेद का बहुत प्रचार किया । 'चरणव्यूह' के अनुसार ऋग्वेद की मात्र 5 शाखाएँ थीं- शाकल,
वाष्कल, शाखायन, माण्डूकायन
। इनमें से आज शाकल शाखा उपलब्ध है । वाष्कल शाखा अपने आप में अपूर्ण है। शाकल
शाखा के कुल 1017 सूक्त पाए जाते है । यदि बाल्यखिल के 11 सूक्त मिला दिये जाए तो उनकी संख्या 102 हो जाती
है। इस प्रकार ऋग्वेद में कुल 102 सूक्त होते है ।
ऋग्वेद के निर्धारित सूक्तों के मंत्रों
का ससन्दर्भ अनुवाद एवं विशिष्ट शब्दों की टिप्पणी
ऋग्वेद अग्नि -
सूक्त
अग्निमीले
पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् ।
होतारं
रत्नधातमम् ।। 1।।
अन्वय- यज्ञस्य
पुरोहितम्, देवम्, ऋत्विजम् होतारम्,
रत्नधातमम् अग्निम् ईले ।
संदर्भ--प्रस्तुत
मन्त्र ऋग्वेद के प्रथम मण्डल का प्रथम सूक्त अग्नि- सूक्तम् से अवतरित है। इसके
देवता अग्नि हैं तथा ऋषि विश्वामित्र हैं । इस मंत्र में गायत्री छन्द है । ऋषि ने
इस मन्त्र में अग्नि देवता के वैशिष्ट्य का वर्णन किया है-
अनुवाद- यजमान की
कामनाओं को पूरा करने वाले, यज्ञ के पुरोहित, दान आदि
गुणों देवताओं के ऋत्विक एवं होता, रत्नों अर्थात् यज्ञ के
परिणाम स्वरूप प्राप्त होने वाले श्रेष्ठ पदार्थो को धारण करने वाले अग्नि देवता
की मैं विश्वामित्र स्तुति करता हूँ ।
टिप्पणी-(i) अग्निम्
'इण्' धातु से निष्पन्न 'अयन' शब्द से 'अ' का 'दह्' धातु से निष्पन्न ‘दग्ध’' शब्द से ‘ग्’ का और 'नी' धातु को ह्रस्व
करके 'नि' का ग्रहण कर 'अग्नि' शब्द निष्पन्न होता है। अतः इस शब्द में तीन
भाव सन्निहित हैं- गतिशील, जलाने वाला तथा सन्मार्ग पर ले
जाने वाला। एक अन्य व्युत्पत्ति 'अगि' धातु
से 'नि' प्रत्यय करके मानी गई है।
(ii) ईले
– 'ईल् स्तुतौ धातु, लट्लकार, उत्तम पुरुष एकवचन ।
(iii) पुरोहितम् – पुरस्+धा
+ क्त । 'धा' को 'हि' आदेश होता है।
(iv) यज्ञस्य-
यज् + नङ्। षष्ठी विभक्ति एकवचन का रूप ।
(v) रत्नधातमम्- रत्नानां
धाता = रत्न + धा + क्विप् = रत्नधा। तमप् प्रत्यय जोड़ने पर 'रत्नधातमम्'
बनता है ।
(vi) मैक्डोनल
ने ‘ईले' का अर्थ 'महत्त्व का गान करता हूँ (Magnify) किया है । यास्क
ने इस शब्द का अर्थ 'प्रार्थना करता हूँ किया है।
अग्निः
पूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्यो नूतनैरूत ।
स
देवां एह वक्षति ।। 2।।
अन्वय- अग्निः
पूर्वेभिः ऋषिभिः ईड्यः उत नूतनैः ।
स इह देवान् आवक्षति।
शब्दार्थ – पूर्वेभिः
= प्राचीन। ऋषिभिः और। नूतनैः= नवीन । इह— ऋषियों के द्वारा । इड्य- स्तुत किया जाता है। उत= इस यज्ञ में। आवक्षति= प्राप्त करायें।
संदर्भ– प्रस्तुत
मंत्र ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के प्रथम सूक्त 'अग्नि- सूक्त'
है । इसके देवता अग्नि, ऋषि विश्वामित्र तथा
छन्द गायत्री है। अग्नि देवता की स्तुति प्राचीन व नवीन ऋषियों द्वारा की जाती है।
वह यज्ञ में देवताओं को लाने वाला है, इस बात का वर्णन
प्रस्तुत मन्त्र में करते हुए ऋषि विश्वामित्र कहते है कि
अनुवाद- यह अग्नि
देवता प्राचीन भृगु, अंगिरा आदि ऋषियों द्वारा स्तुति किया जाता है
तथा अब नवीन हम विश्वामित्र आदि ऋषियों द्वारा भी स्तुति किया जाता है। वह अग्नि
इस यज्ञ में देवताओं को प्राप्त (उपलब्ध) कराए।
टिप्पणी-
(i) पूर्वेभि - यह वैदिक
रूप है। लौकिक रूप 'पूर्वैः' है ।
(ii) ईड्य- ईड् + यत्।
(iii) वक्षति – 'वह्'
धातु से लोट् लकार के अर्थ में लट् लकार तथा छान्दस 'य' का लोप । कतिपय विद्वान 'लोट्
लकार का रूप मानते हैं ।
(iv) 'उत'- का
प्रयोग यहाँ समुच्चय के अर्थ में हुआ है।
अग्निना रयिमश्नवत्
पोषमेव दिवेदिवे |
यशसं वीरवत्तमम् ।।3।।
अन्वय- अग्निना
दिवेदिवे एव पोषम् यशसम् वीरवत्तमम् रयिम् अश्नवत् ।।
शब्दार्थ- दिवेदिवे
– प्रतिदिन
। पोषम्- पोषण को प्राप्त होने वाले । यशसम्-
यश को प्राप्त होने वाले। वीरवत्तमम्— पुत्र,
भृत्य आदि वीरों से अत्यधिक युक्त । रयिम्- धन को । अश्नवत्-
- प्राप्त करता है ।
संदर्भ- प्रस्तुत
मंत्र ऋग्वेद के अग्नि सूक्त से उद्धृत है। यह ऋग्वेद के प्रथम मण्डल का प्रथम
सूक्त है। इसके देवता अग्नि, ऋषि विश्वामित्र तथा छन्द
गायत्री है। अग्नि से यजमान क्या प्राप्त करता है - यह इस मन्त्र में ऋषि ने
प्रतिपादित किया है-
अनुवाद - स्तुति किये
जाते हुए अग्नि से यह यजमान प्रतिदिन ही निरन्तर पोषण को प्राप्त होने वाले, दान
आदि के द्वारा यश को प्राप्त होने वाले तथा पुत्र, भृत्य आदि
वीरों से अत्यधिक युक्त धन को प्राप्त करता है।
टिप्पणी- (i) दिवे
दिवे, (ii) अश्नवत्, (iii) पोषम्,
(iv) यशसम् दिव शब्द से सप्तमी का एकवचन । 'नित्यवीप्सयोः सूत्र से
यहाँ द्वित्व हुआ है। अश् धातु, लोट् लकार, 'तिय्' के 'इ'
का लोप और 'अट्' का
आगम । पुष् + छञ् प्रत्यय -पोषा । यशः
अस्य अस्ति अर्थ में 'अच्' प्रत्यय्
। यशस् + अच् - यशस ।
(v) मैक्डोनल
ने ‘यशसम्' का अर्थ 'कीर्तिकारक या प्रकाश कारक' (Glorious) किया है।
(vi) गायत्री
छन्द में 24 अक्षर होते हैं, 8-8 अक्षर
के तीन चरण होते है।
अग्ने
यं यज्ञमध्वरं, विश्वतः परिभूरसि ।
स
इन्द्र देवेषु गच्छति ।।4।।
अन्वय — अग्ने। यम् अध्वरम् यज्ञम् विश्वतः परिभूः असि स इत् देवेषु गच्छति।
शब्दार्थ —अध्वरम्
— हिंसा से रहित यज्ञ को । विश्वतः - सभी दिशाओं में । परिभूः-
असि वही यज्ञ । देवेषु- देवताओं को भी । गच्छति- प्राप्त होता है।
संदर्भ- प्रस्तुत
मंत्र ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के प्रथम सूक्त 'अग्नि- सूक्त' से उद्धृत है। इस मंत्र में विश्वामित्र ऋषि ने अग्नि के निमित्त सभी
दिशाओं में किये जाने वाले यज्ञों का वर्णन किया गया है।
अनुवाद— हे
अग्ने। तुम जिस हिंसा से रहित यज्ञ को सभी दिशाओं में प्राप्त कर रहे हो, वही यज्ञ सबी देवताओं को भी तृप्ति के लिए प्राप्त होता है ।
टिप्पणी- (i) अध्वरम्
न विद्यते ध्वरः हिंसा यत्र स अध्वरः।-
(ii) विश्वतः
विश्व : तसिल् ।
(iii) मैक्डोनल
ने ‘यज्ञ' का अर्थ पूजन (worship)
और 'अध्वर' का अर्थ 'यज्ञ' (Sacrifice) किया है।
अग्निर्होता
कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः।
देवो
देवेभिरागमत् ।। 5।।
अन्वय- होता, कविक्रतुः
सत्यः चित्रश्रवस्तमः देवः अग्निः देवेभिः आगमत्।।
शब्दार्थ – होता- होम को निष्पन्न करने वाला । कविक्रतुः- अतीत तथा
अनागत कर्मो को जानने वाला। सत्यः- मिथ्या से रहित । चित्राश्रवस्तमः-
विविध प्रकार की कीर्ति से युक्त । देवेभिः- अन्य देवों के साथ । आगमत्- आये।
संदर्भ– प्रस्तुत
मंत्र ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के प्रथम अग्नि- सूक्तम् से उद्धृत है । इसके
देवता अग्नि, ऋषि विश्वामित्र है । इसमें गायत्री छन्द है ।
ऋषि ने अग्नि देवता को अन्य देवताओं के साथ यज्ञ में आमंत्रित किया है।
अनुवाद- होम को
निष्पन्न करने वाला, अतीत और अनागत यज्ञ आदि कर्मो को जानने वाला,
मिथ्या से रहित, विविध प्रकार की कीर्ति से
युक्त होता हुआ, दिव्य गुणों से सम्पन्न यह अग्नि देवता अन्य
देवताओं के साथ यज्ञ में आए।
टिप्पणी- (i) कविक्रतु– कविः क्रतु यस्य सः (बहुव्रीहि समास )
अथवा कविश्चासौ क्रतुः (कर्मधारय समास )।-
(ii) चित्रश्रवस्तम
श्रूयते इव श्रवः कीर्तिः । चित्रं श्रवः यस्य स चित्रश्रवः । चित्रश्रव + तमप्
चित्रश्रवस्तमः ।
(iii) आगमत्
आगच्छतु अर्थ में लोट् लकार का वैदिक रूप ।
(iv) सत्य
सत्सु साधु अर्थ में निपातनात् निष्पन्न।
(v) मैक्डोनल
ने 'होता' का अर्थ 'आह्नान करने वाला' (Invoker) और 'कविक्रतु' का अर्थ 'बुद्धि से
युक्त बुद्धिमान' (of wise intelligence) किया है ।
यदङ्ग दाशुषे
त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि ।
तवेत्तत्सत्यमङ्गिरः
।। 6।।
अन्वय- अङ्ग अग्ने!
यत् त्वम् दाशुषे भद्रम् करिष्यसि तव तत् इत् । अङ्गिरः सत्यम्।।
शब्दार्थ– अङ्ग–
हे, अरे ! दाशुषे- हवि का दान करने
वाले यजमान के लिए । भद्रम्- कल्याण करने वाले पदार्थ। करिष्यसि-
प्रदान करोगे । अङ्गिरः- अङ्गिरा मुनि को जन्म देने वाले।
संदर्भ-प्रस्तुत
मंत्र ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के प्रथम 'अग्नि - सूक्त' से उद्धृत है। इसके देवता अग्नि, ऋषि विश्वामित्र
तथा छन्द गायत्री है। इसमें विश्वामित्र ऋषि ने अग्नि के वैशिष्ट्य का वर्णन किया
है, उसे अङ्गिरा मुनि को जन्म देने वाला तथा यजमान का कल्याण
करने वाला बतलाया है
अनुवाद- हे अग्ने !
जो भी तुम हवि का दान करने वाले यजमान के लिए धन, गृह, प्रजा, पशु आदि कल्याण करने वाले पदार्थ प्रदान
करोगे, वे सब तुम्हारे ही हैं । हे अङ्गिरा मुनि को जन्म
देने वाले अग्नि-देवता! यह बात सत्य ही है। इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है ।
टिप्पणी- (i) दाशुषे – यह
चतुर्थी विभक्ति के एकवचन का रूप है । 'दाशृदाने' धातु से 'क्वसु' प्रत्यय लगने
पर यह शब्द बनता है ।
(ii) अङ्गिर
– ‘गत्यर्थक अगि' धातु से औणादिक 'इरच्' प्रत्यय के योग से यह शब्द बना है ।
(iii) मैक्डोनल
ने ‘दाशुषे' का अर्थ 'पूजन करने वाले के लिए' (For the worshiper) किया है
। छन्द की पूर्ति के लिए प्रथम पाद में 'त्वम्' को 'तुवम्' पढ़ना चाहिए।
उप
त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम् ।
नमो
भरन्त एमसि ।। 7।।
अन्वय- अग्ने। वयम्
दिवेदिवे दोषावस्तः धिया नमः भरन्तः उप त्वा आ इमसि । ।
शब्दार्थ-
दिवेदिवे— प्रतिदिन । दोषावस्तः- रात दिन । धिया- उत्तम
बुद्धि से। नमो भरन्तः- नमस्कार करते हुए। एमसि आते है।
संदर्भ- प्रस्तुत
मंत्र अग्नि - सूक्त से उद्धृत है। यह ऋग्वेद प्रथम मण्डल का प्रथम सूक्त है। इसके
देवता अग्नि तथा ऋषि विश्वामित्र हैं। ऋषि अग्नि- देवता को सम्बोधित करते हुए कह
रहे है-
अनुवाद - हे अग्निदेव
! हम यज्ञ के अनुष्ठाता प्रतिदिन और दिन-रात उत्तम बुद्धि से नमस्कार करते हुए
तुम्हारे समीप आते हैं ।
टिप्पणी- (i) दोषावस्तम्
दोषा च वस्तः च दोषावस्तम् । द्वन्द्व समास ।—
(ii) भरन्त- भृ + शतृ भरत्, प्रथमा विभक्ति का बहुवचन।
(iii) इमसि
'इण् गतौ’ धातु से लट् लकार, उत्तम पुरुष बहुवचन।
(iv) मैक्डोनल
ने 'दोषावस्तः' को अग्नि का विशेषण
मानकर सम्बोधन वाचक कहा है तथा इसका अर्थ किया है | Iluminer of gloom.
राजन्तमध्वराणां
गोपामृतस्य दीदिविम् ।
वर्धमानं
स्वे दमे ।। 8 ।।
अन्वय- राजन्तम्, अध्वराणाम्
गोपाम्, ऋतस्य दीदिविम्, स्वे दमे
वर्धमानम् ।।
शब्दार्थ- राजन्तम्— प्रकाशमान
होते हुए। अध्वराणाम्- हिंसा रहित यज्ञों के । गोपाम्- रक्षक । ऋतस्य–
सत्य कर्म फलों के । दीदिविम्- पुनः पुनः प्रकाशित करने वाले
। वर्धमानम्- बढ़ाने वाले । स्वे- अपने । दमे— घर, यज्ञशाला में।
संदर्भ- प्रस्तुत
मंत्र ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के प्रथम सूक्त अग्नि सूक्त से अवतरित है। इसमें ऋषि
विश्वामित्र ने अग्नि के विशेषणों का उल्लेख करते हुए उसके समीप जाने की बात कही
है-
अनुवाद- प्रकाशमान
होते हुए,
हिंसा रहित यज्ञों के रक्षक, सत्य कर्मफलों को
पुनः पुनः प्रकाशित करने वाले तथा अपने गृह यज्ञशाला में बढ़ने वाले ( अग्नि के
समीप हम जाते हैं) ।
टिप्पणी- (i) दीदिविम्
– यङ् लुगन्त 'दिव्' धातु से 'कि' प्रत्यय करने पर
बना रूप ।
(ii) मैक्डोनल
ने 'अध्वराणाम्' का सम्बन्ध 'राजन्तम्' के साथ करके 'यज्ञों
पर शासन करने वाला'
(Ruling over the
sacrifices) अर्थ किया है। उसने 'ऋतस्य
दीदिविम् गोपाम्' का अर्थ किया है-
'Shining guardian of
order'
स
नः पितेव सूनवे, अग्ने सूपायनो भव ।
सचस्वा
नः स्वस्तये ।। 9 ।।
अन्वय- सः अग्ने ।
सूनवे पिता इव न सूपायनः भव । नः स्वस्तये सचस्व।
शब्दार्थ- सूनवे- पुत्र के
लिए | सूपायनः– सुप्राप्य, कल्याण
करने वाला । सचस्व- साथ रहो। स्वस्तये-- कल्याण के लिए ।
संदर्भ – प्रस्तुत
मंत्र अग्नि - सूक्त का अन्तिम मंत्र है। यह सूक्त ऋग्वेद के प्रथम मण्डल का प्रथम
सूक्त है । इसके देवता अग्नि, ऋषि विश्वमित्र तथा छन्द
गायत्री है। इसमें ऋषि विश्वामित्र ने अग्नि देव से यजमान के लिए सुप्राप्य एवं
कल्याणकारी बनने की कामना की है-
अनुवाद - हे अग्नि
देव ! जिस प्रकार पिता पुत्र के लिए सुप्राप्य और कल्याण करने वाला होता है, उसी
प्रकार तुम भी हमारे लिए सुप्राप्य बनो तथा हमारे कल्याण के लिए हमारे साथ रहो ।
टिप्पणी-
(i) सूपायनः-शोभनः उपायनः यस्य
सः । सु + उप + इ ( इण्) + ल्युट् (अन) ।
(ii) सचस्व 'ष च्' धातु, लोट् लकार,
मध्यम पुरुष एकवचन । 'ऋचि तू नू' से यह दीर्घ हुआ है।
—
(iii) मैक्डोनल ने 'सचस्व' का अर्थ 'साथ रहना'
(Abide with ) किया है।
विष्णुः सूक्तम् (1.154)
विष्णोर्नु कं वीर्याणि प्रवोचं
यः पार्थिवानि विममे रजांसि ।
यो अस्कभायदुत्तरं सधस्थं
विचक्रमाणस्त्रेधोरुगायः।। 1।।
अन्वय (हे नराः) विष्णोः वीर्याणि नु
कम् प्रवोचं, त्रेधा विचक्रमाणः यः पार्थिवानि रजांसि विममे, उरुगायः यः उत्तरं सधस्थं अस्कभायत् ।
शब्दार्थ
-
विष्णोः –विष्णु
के। वीर्याणि - पराक्रम का। धा- तीन प्रकार से । विचक्रमाणः विचरण करते हुए। यः
—
रजांसि - लोकों का । विममे - निर्माण
किया, बनाया । उरुगायः
नुकम्— शीघ्र । प्रवोचम् —
वर्णन करता हूँ। जिस विष्णु ने। पार्थिवानि — पृथ्वी
आदि । जन समूह द्वारा प्रशंसित। यः जिस विष्णु
ने। उत्तरं— अधिक
ऊँचे । सधस्थम् - लोकों का । अस्कभायत्- बनाया है।
संदर्भ प्रस्तुत मंत्र ऋग्वेद के प्रथम
मण्डल से अवतरित है । यह प्रथम मण्डल का 154 वाँ सूक्त है। इसके देवता
विष्णु, ऋषि दीर्घतमा तथा छन्द त्रिष्टुप् है। ऋषि ने इस
मंत्र में विष्णु के पराक्रम का वर्णन किया है। अनुवाद - मैं विष्णु के पराक्रम का
शीघ्र वर्णन करता हूँ। तीन प्रकार से विचरण करते हुए जिस विष्णु ने पृथ्वी आदि
लोकों का निर्माण किया है, जनसमूह द्वारा प्रशंसित जिस
विष्णु ने अधिक ऊँचे लोकों को बनाया है। टिप्पणी-
(i) विष्णोः – 'विष्लृ व्याप्तौ' धातु से 'विष्
+ नु – विष्णु । विष्णो - षष्ठी विभक्ति के एकवचन का रूप है।
(ii) प्रवोचम् – 'प्र + वच्' धातु लङ् लकार, उत्तम पुरुष एकवचन ।
(iii) पार्थिवानि – पृथिवी + अण्
पार्थिव । बहुवचन का रूप है।
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