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मकरसंक्रांति को ना भुले

साल 1657 में शिवाजी महाराज ने अफजल खान को मारा था। इसके ठीक 100 साल बाद 1758 में पेशवा रघुनाथ राव ने पेशवा नानासाहब को चिट्ठी लिखी थी.... "हमने लाहौर, मुल्तान, कश्मीर, और दूसरे सूबों को अटक की तरफ मिला लिया है. हमारे साम्राज्य में. जो नहीं आ पाए हैं, वो जल्द ही हमारी मातहती में होंगे. अहमद खान अब्दाली का बेटा तैमूर सुलतान और जहां खान हमारी सेनाओं द्वारा खदेड़े और लूटे जा चुके हैं. दोनों ही कुछ टूटे-फूटे दल-बल के साथ पेशावर पहुंचे हैं. हमने कांधार पर अपना राज घोषित करने का निर्णय ले लिया है"

100 साल के संघर्ष में #अटक_से_कटक तक भगवा फहरा दिया गया था। कंधार के लिये लड़़ने की तैयारी चल रही थी।

लेकिन फिर आई 1761 की #मकर_संक्रांति...
जहां एक तरफ देश की सारी सेक्युलर ताकतें थीं, तो 
दूसरी तरफ मराठे, जिनका अहंकार ठिकाने लगाने के लिए बाकी का सारा देश दिल थाम कर प्रतीक्षा कर रहा था।

पहले दोनों सेनाओं की तोपें आपस में लड़ीं, फिर बंदूकें चलीं, फिर तलवार और भाले निकले, फिर खंजर, चाकू और तीर चले, फिर पत्थर और ईंटें चलीं और अंत में मुक्के और घूसे बजे...

(पानीपत के युद्ध के बाद अब्दाली द्वारा पेशवा नाना साहब को लिखे गए पत्र से जिसमें वो अब्दाली कुल मिलाकर ये कह रहा है कि मुझे कुछ नहीं चाहिए, मैं वापस जा रहा हूं)

और कोई देश होता तो शायद त्योहार मनाना अगर बंद नहीं भी करता तो कम से कम हर साल मकर संक्रांति पर 10 मिनट का शोक जरूर मनाता। शोक भी नहीं मनाता तो कम से कम स्मरण तो करता ही कि कैसे साल 1761 की मकर संक्रांति में पानीपत के मैदान में युद्ध के बाद 7 घंटे तक निहत्थे हारे हुए हिन्दुओं को नरसंहार चला था।

मगर हमारे सामने ये सब छोटी बातें हैं। हमें इनसे कोई फर्क नहीं पड़ता। इतिहास के लगभग हर दशक में हमारा कोई ना कोई नरसंहार लिखा हुआ है, हमारी खोपड़ियों की पिरामिड बने हुए हैं। धर्म के आधार पर हिंसा करके हमारी मातृभूमि का विभाजन हो चुका है लेकिन हमें इस बात की ज्यादा चिंता रहती है कि हिटलर ने यहुदी कैसे मारे थे। वो यहूदी जिन्होंने इज़रायल बनने के बाद ढूंढ-ढूंढकर नाजी अफसर मारे, जिन्होंने अपने मरे हुए लोगों की याद में पूरी दुनिया में स्मारक बनाए और पूरी दुनिया को उनके साथ हुई ज्यादतियां बताईं।

हमारे रक्त रंजित इतिहास का एक भी स्मारक नहीं है, हमें जरूरत भी नहीं है क्योंकि हमें पता भी नहीं और हमें जानना भी नहीं है।

पानीपत में युद्ध के बाद जो घंटों मारकाट मची हम उसे ऐसे भूले हैं जैसे वो कभी हुआ ही नहीं, हम अपने ही देश का इतिहास ऐसे पढ़ते हैं जैसे ये किसी और दुनिया की बात हो रही है....

सोमनाथ मंदिर के साथ सोमनाथ मैमोरियल भी होना चाहिए ताकि लोगों को पता चले की गजनी से लेकर औरंगजेब तक ने सोमनाथ के साथ क्या-क्या किया। 

रामजन्मभूमि मंदिर, काशी विश्वनाथ और कृष्णजन्मभूमि सबके साथ में उनका इतिहास भी दिखाना चाहिए

लेकिन 1761 के बाद फिर पश्चिम से भारत में कोई गजनी से लेकर अब्दाली तक हमला करने की हिम्मत नहीं कर पाया।
इसके बाद 1920 में अफगानिस्तान के सुल्तान को गांधी जी ने भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया लेकिन वो योजना विफल रही और 1947 में मेज पर पूरा पश्चिमी भारत जिहादियों के सामने हम हार गये। 

जो हमने 1761 के कथित हार के बाद नहीं खोया
वो हमने 1947 की आजादी में खो दिया

लेकिन कहानी यहां भी खत्म नहीं हुई।

1925 में शुरू हुआ संघ अपनी पहली शताब्दी से पहले ही आज देश की नीति तय करने वाल संगठन बन चुका है। एक स्वयंसेवक देश का प्रधानमंत्री है।

अगर संकल्प करके कोई चले तो 100 साल में पूरे देश का राजनीतिक मानचित्र बदल सकता है। हमने ये काम दो बार करके दिखाया है।

लेकिन मकर संक्रांति का दिन ये सीख देता है कि भविष्य के पानीपत के लिये तैयार रहना है ताकि फिर संघर्ष को शुरू से शुरू न करना पड़े।
क्योंकि अब ये देश और 100 साल इंतजार नहीं कर सकता।

शत शत नमन...
हर हर महादेव

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