🕉️🙏ओ३म् सादर नमस्ते जी 🙏🕉️
🌷🍃 आपका दिन शुभ हो 🍃🌷
दिनांक - -२७ अक्तूबर २०२४ ईस्वी
दिन - - रविवार
🌘 तिथि -- ( एकादशी ( पूरी रात्री )
🪐 नक्षत्र - - मघा ( १२:२४ तक तत्पश्चात पूर्वाफाल्गुन )
पक्ष - - कृष्ण
मास - - कार्तिक
ऋतु - - शरद
सूर्य - - दक्षिणायन
🌞 सूर्योदय - - प्रातः ६:३० पर दिल्ली में
🌞 सूर्यास्त - - सायं १७:४० पर
🌘चन्द्रोदय -- २६:४३ पर
🌘 चन्द्रास्त - - १५:०५
सृष्टि संवत् - - १,९६,०८,५३,१२५
कलयुगाब्द - - ५१२५
विक्रम संवत् - -२०८१
शक संवत् - - १९४६
दयानंदाब्द - - २००
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🚩‼️ओ३म्‼️🚩
🔥वैदिक सन्ध्या ऋषि दयानंद की मानव मात्र को अनुपम भेट।
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योग के क्षेत्र में स्वामी दयानन्द जी की एक प्रमुख देन हमें उनकी सन्ध्या पद्धति प्रतीत होती हैं। सन्ध्या भी ध्यान व समाधि प्राप्त ़कराने में साधन रूप एक प्रकार का योग का ही ग्रन्थ है। सन्ध्या के सफल होने पर साधक ईश्वर का साक्षात्कार कर सकता है। यदि ईश्वर साक्षात्कार न भी हो तब भी योग के सात संगों को तो वह प्राप्त करता ही है। सन्ध्या का प्रयोगकर्ता वा साधक सन्ध्या से समाधि को या तो प्राप्त कर लेता है या कुछ दूरी पर रहता है। ऋषि दयानन्द की प्रेरणा व आन्दोलन के फलस्वरूप आज विश्व के करोड़ों लोग उनकी लिखी विधि से प्रातः व सायं सन्ध्या वा सम्यक् ध्यान करते हैं। सन्ध्या में अघमर्षण, मनसा-परिक्रमा, उपस्थान, समर्पण आदि मन्त्रों का विशेष महत्व प्रतीत होता है। अघमर्षण के मन्त्रों से पाप न करने वा पाप छोड़ने की प्रेरणा सन्ध्या करने वाले साधक को मिलती है। मनसापरिक्रमा के मन्त्रों से भक्त व साधक ईश्वर को सभी दिशाओं में विद्यमान वा उपस्थित पाता है जो उसे हर क्षण हर पल देख रहा है। ईश्वर की दृष्टि हम पर हर पल व हर क्षण २३×७ रहती है। हम ऐसा कोई कार्य कर नहीं सकते जो ईश्वर की दृष्टि में आये।
अतः हमेंं अपने शुभ व अशुभ सभी कर्मों के फल अवश्यमेव भोगने होते हैं। अशुभ कर्मों का फल दुःख होता है। यह हमें कर्म के परिमाण के अनुसार ही मिलता है। जैसा व जितना शुभ व अशुभ कर्म होगा उसका वैसा व उतना ही सुख व दुःख रूपी परिणाम व परिमाण होगा। अतः सन्ध्या का साधक पाप करना छोड़ देता है। यह भी सन्ध्या की एक बहुत बड़ी उपलब्धि है जबकि अन्य मतों में प्रायः ऐसा नहीं होता। उपस्थान मन्त्र में हम ईश्वर को अपने समीप व आत्मा के भीतर अनुभव करने का प्रयास करते हैं और विचार करने पर यह सत्य सिद्ध होता है कि ईश्वर सर्वव्यापक होने से हमारे बाहर व भीतर दोनों स्थानों पर है। इसमें हम ईश्वर के गुणों का वर्णन करते हैं और उससे स्वस्थ शरीर, बलवान इन्द्रिय शक्ति और सौ व अधिक वर्षों की आयु मांगते हैं। गायत्री मन्त्र बोल कर हम ईश्वर से बुद्धि की पवित्रता व उसे सन्मार्ग में चलने की प्रेरणा करने की प्रार्थना करते हैं। समर्पण मन्त्र बोलकर हम ईश्वर से धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को आज व अभी प्रदान करने की प्रार्थना करते हैं। ईश्वर को नमन के साथ हमारी सन्ध्या समाप्त होती है। वेदों का स्वाध्याय भी सन्ध्या का अनिवार्य अंग है। सभी वैदिक धर्मी अनुयायी वेदों का स्वाध्याय करते हैं जिससे वह अन्धविश्वास, मिथ्या ज्ञान व दुर्गुणों से बचते हैं। वैदिक सन्ध्या भी ऋषि दयानन्द की मानव मात्र को बहुत बड़ी देन है। यह बात अलग है कि कोई मनुष्य मत-मतान्तरों की अविद्या के कारण उसे ग्रहण करे या न करे। जो करता है वह अपना लाभ करता है और जो नहीं करता वह अपनी हानि करता है।
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🚩‼️आज का वेद मन्त्र‼️🚩
🌷ओ३म् मर्माणि ते वर्मणा छादयामि सोमस्त्वा राजामृतेनानु वस्ताम्।
उरोर्वरीयो वरुणस्ते कृणोतु जयन्तं त्वानु देवा मदन्तु॥ यजुर्वेद १७-४९॥
💐हे विद्वान योद्धा, विलासितापूर्ण इच्छाओं के साथ संग्राम में जहां सभी दिशाओं से आप के ऊपर आक्रमण किए जा रहे हो। तुम्हारा ज्ञान तुम्हारा कवच बना रहे और तुम्हारा ज्ञान और अधिक शक्तिशाली बने। ईश्वर तुम्हें सदैव शांति दे और विजयी बनाए।
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🔥विश्व के एकमात्र वैदिक पञ्चाङ्ग के अनुसार👇
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🙏 🕉🚩आज का संकल्प पाठ 🕉🚩🙏
(सृष्ट्यादिसंवत्-संवत्सर-अयन-ऋतु-मास-तिथि -नक्षत्र-लग्न-मुहूर्त) 🔮🚨💧🚨 🔮
ओ३म् तत्सत् श्रीब्रह्मणो द्वितीये प्रहरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे 【एकवृन्द-षण्णवतिकोटि-अष्टलक्ष-त्रिपञ्चाशत्सहस्र- पञ्चर्विंशत्युत्तरशततमे ( १,९६,०८,५३,१२५ ) सृष्ट्यब्दे】【 एकाशीत्युत्तर-द्विसहस्रतमे ( २०८१) वैक्रमाब्दे 】 【 द्विशतीतमे ( २००) दयानन्दाब्दे, काल -संवत्सरे, रवि- दक्षिणायने , शरद -ऋतौ, कार्तिक - मासे, कृष्ण पक्षे , एकादश्यां
तिथौ, मघा
नक्षत्रे, रविवासरे,
, शिव -मुहूर्ते, भूर्लोके जम्बूद्वीपे, आर्यावर्तान्तर गते, भारतवर्षे भरतखंडे...प्रदेशे.... जनपदे...नगरे... गोत्रोत्पन्न....श्रीमान .( पितामह)... (पिता)...पुत्रोऽहम् ( स्वयं का नाम)...अद्य प्रातः कालीन वेलायाम् सुख शांति समृद्धि हितार्थ, आत्मकल्याणार्थ,रोग,शोक,निवारणार्थ च यज्ञ कर्मकरणाय भवन्तम् वृणे
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