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यजुर्वेद अध्याय 31 हिन्दी व्याख्या

 


॥ वेद ॥

॥ वेद ॥>॥ यजुर्वेद ॥>॥ अध्याय ३१ ॥

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्.

भूमि सर्वत स्मृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम्.. (१)

परम पुरुष हजारों सिर वाला, हजारों नेत्रों वाला व हजारों पैर वाला है. वह परम पुरुष सारे ब्रह्मांड को घेर कर भी दस अंगुली ऊपर अधिष्ठित है. (१)

 

पुरुष एवेद सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्. 

उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति.. (२)

जो हो चुका है और जो होने वाला है वह परम पुरुष ही है, वह अमरता का स्वामी है. जो अन्न से बढ़ोतरी पाते हैं, उन के भी वही स्वामी हैं. (२)

 

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः.

पादोस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि .. (३)

परम पुरुष अत्यंत महिमावान है. इस के चरणों में सभी प्राणी हैं. इस का एक भाग पृथ्वी पर है, जिस में सब प्राणी हैं और तीन भाग स्वर्गलोक में स्थित हैं. (३)

 

त्रिपादूर्ध्व ऽ उदैत्पुरुषः पादोस्येहाभवत् पुनः.

ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशने अभि.. (४)

परम पुरुष के तीन पैर ऊर्ध्वलोक में समाए हुए हैं. एक भाग में इहलोक समाहित है. जड़, चेतन सभी इस के इस पैर में समाहित हैं. (४)

 

ततो विराडजायत विराजो अधि पूरुषः.

स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुर:.. (५)

उस परम पुरुष से विराट् उपजा. विराट् से सृष्टि उपजी. उस से भूमि पैदा हुई फिर जीव पैदा हुए. (५)

 

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम्.

पशूंस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये.. (६)

उस विराट् के यज्ञ से घी प्राप्त हुआ, जिस से सब को आहुति दी जाती है. उसी विराट् से पक्षी, पशु, गांव के जीव, जानवर उपजे. (६)

 

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुत ऽ ऋचः सामानि जज्ञिरे.

छन्दा सि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत.. (७)

उस विराट् यज्ञ रूपी पुरुष से ऋग्वेद प्रकटा. उसी से सामवेद प्रकटा. उसी से यजुर्वेद प्रकट हुआ. उसी से अथर्ववेद का प्रादुर्भाव हुआ. (७)

 

तस्मादश्वा ऽ अजायन्त ये के चोभयादतः.

गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता ऽ अजावयः.. (८)

उसी विराट् यज्ञ रूपी पुरुष से दोनों ओर दांतों वाले जीव उपजे. उसी से घोड़े उपजे. उसी से बकरियां उपजीं. उसी से भेड़ आदि उपजे. (८)

 

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः.

तेन देवाऽ अयजन्त साध्या ऽ ऋषयश्च ये.. (९)

सब से पहले यज्ञ से बाहर आए उस पुरुष को पूजा. उसी से देवताओं, ऋषियों और साधकों ने यज्ञ को उपजाया. ( ९ )

 

यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्.

मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादाऽ उच्येते .. (१०)

संकल्प से प्रकटे विराट् पुरुष का ज्ञानीजन भांतिभांति से वर्णन करते हैं. उस का मुख क्या है ? बाहु क्या है ? जांघ कौन सी है ? पांव क्या कहे जाते हैं. (१०)

 

ब्राह्मणोस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः.

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्या शूद्रो अजायत.. (११)

ब्राह्मण विराट् पुरुष का मुंह हुए, क्षत्रिय उस की भुजाएं हुए. वैश्य उस की जंघाएं हुईं. शूद्र उस के पैर हुए. ( ११ )

 

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायतः.

श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत.. (१)

विराट् पुरुष के मन से चंद्रमा, आंखों से सूर्य, कान से वायु और मुख से अग्नि उत्पन्न हुई. (१)

 

नाभ्याऽ आसीदन्तरिक्ष शीष्ण द्यौ: समवर्त्तत .

पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ  अकल्पयन् .. (१३)

परम पुरुष की नाभि से अंतरिक्ष प्रकट हुआ. परम पुरुष के सिर से स्वर्गलोक प्रकट हुआ. परम पुरुष के पैर से भूमि प्रकट हुई. परम पुरुष के कानों से दिशाएं प्रकट हुईं, परम पुरुष ने अनेक लोक रचे हैं. (१३)

 

यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत.

वसन्तोस्यासीदाज्यं ग्रीष्म ऽ इध्मः शरद्धविः .. (१४)

देवताओं ने परम पुरुष को हवि माना. परम पुरुष को हवि मान कर यज्ञ की शुरुआत की. उस यज्ञ में घी वसंत ऋतु, ईंधन ग्रीष्म ऋतु एवं हवि शरद ऋतु हो गई. (१४ )

 

सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः.

देवा यद्यज्ञं तन्वाना ऽ अबध्नन् पुरुषं पशुम्.. (१५)

देवताओं ने जिस यज्ञ का विस्तार किया, उस यज्ञ में परम पुरुष को ही हवि के पशु के रूप में बांधा. उस यज्ञ में सात परिधियां और इक्कीस समिधाएं हुईं. (१५) 

 

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्.

ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः.. (१६)

देवताओं ने यज्ञ से यज्ञ किया. उस में धर्म को प्रथम आसन प्राप्त हुआ. जो लोग यज्ञ आदि विधिविधान से जीवन जीते हैं, ऐसे जीवन साधक महिमाशाली होते हैं. ऐसे व्यक्ति स्वर्ग प्राप्त करते हैं. (१६)

 

अद्भ्यः सम्भृतः पृथिव्यै रसाच्च विश्वकर्मणः समवर्तताग्रे.

तस्य त्वष्टा विदधद्रूपमेति तन्मर्त्यस्य देवत्वमाजानमग्रे.. (१७)

परम पुरुष ने सब से पहले जल का निर्माण किया. तत्पश्चात पृथ्वी का निर्माण किया. इस पृथ्वी का निर्माण जल के रस से हुआ. त्वष्टा देव संसार को रूप धारण कराते हैं. त्वष्टा देव मनुष्यों को देवत्व और अमरता प्रदान करते हैं. (१७)

 

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्.

तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेयनाय.. (१८)

परम पुरुष को जानने से परम तत्त्व की प्राप्ति होती है. वह अंधकार से परे है. वह आदित्य जैसे वर्ण ( रंग ) का है. उस को जान कर जो मृत्यु के पथ पर जाते हैं, उन्हें उस पथ से मोक्ष की प्राप्ति होती है. इस के अलावा मोक्ष का कोई और मार्ग नहीं है. (१८ )

 

प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा वि जायते.

तस्य योनिं परि पश्यन्ति धीरास्तस्मिन् ह तस्थुर्भुवनानि विश्वा.. (१९)

प्रजापति गर्भ में संचरण करते हैं. वे अजन्मा हैं. फिर भी बहुत रूपों में प्रकट होते हैं. उन्हीं में सारे लोक स्थित हैं. धीर पुरुष उस के कारण चारों ओर देखते हैं. (१९)

 

यो देवेभ्य आतपति यो देवानां पुरोहितः.

पूर्वो यो देवेभ्यो जातो नमो रुचाय ब्राह्मये.. (२०)

जो सभी देवताओं में सब से पहले प्रकटे, जो तेज संपन्न हैं, उन ब्रह्म को नमस्कार है. आप देवताओं के पुरोहित हैं. आप देवताओं को प्रकाशित करने वाले हैं. (२०)

 

रुचं ब्राह्मं जनयन्तो देवाऽ अग्रे तदब्रुवन्.

यस्त्वैवं ब्राह्मणो विद्यात्तस्य देवा ऽ असन् वशे.. (२१)

जो देवताओं में अग्रणी हैं, जिन के बारे में यह कहा गया है कि वे प्रकाशमय ब्रह्म को प्रकटाते हैं, उस परम पुरुष को ब्रह्मज्ञानी जानते हैं. उस परम पुरुष के वश में सारे देवता रहते हैं. (२१)

 

श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यावहोरात्रे पार्श्वे नक्षत्राणि रूपमश्विनौ व्यात्तम्.

इष्णन्निषाणामुं मऽइषाण सर्वलोकं मऽइषाण.. (२२)

हे परम पुरुष ! श्री और लक्ष्मी आप की पत्नी हैं. दोनों भुजाएं दिन और रात हैं. नक्षत्र आप के रूप हैं. आप सब की इच्छा पूर्ति की सामर्थ्य रखते हैं. आप सभी लोकों की इच्छा पूर्ति करने की कृपा कीजिए. (२२)

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