॥ वेद ॥
देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्.
आ ददेदित्यै रास्नासि.. (१)
हे यज्ञ ऊर्जा ! हम सविता देव की जीवनदायी प्रेरणा से आप को ग्रहण करते हैं. हम अश्विनी देवताओं की भुजाओं से पूषा देव के हाथों से आप को ग्रहण करते हैं. आप देवताओं की माता अदिति को आवृत करने वाली हैं. ( १ )
दित एहि सरस्वत्येहि असावेह्यसावेह्यसावेहि.. (२)
हे इड़ा देवी! आप यहां पधारिए. हे अदिति देवी! आप यहां पधारिए. हे सरस्वती देवी! आप यहां पधारने की कृपा कीजिए. (२)
अदित्यै रास्नासीन्द्राण्या ऽ उष्णीषः पूषासि घर्माय दीष्व.. (३)
हे यज्ञ ऊर्जा! आप अदिति देव की ( मेखला ) आवृत्त करने वाली हैं. आप इंद्राणी के सिर का वस्त्र ( प्रतिष्ठा सूचक) हैं. आप पोषक हैं. आप यज्ञ जैसे हितकारी कार्यों में अपनी शक्ति को लगाने की कृपा कीजिए. (३)
अश्विभ्यां पिन्वस्व सरस्वत्यै पिन्वस्वेन्द्राय पिन्वस्व.
स्वाहेन्द्रवत् स्वाहेन्द्रवत् स्वाहेन्द्रवत्.. (४)
अश्विनी देव के लिए यह आहुति प्रवाहित हो रही है. आप इसे पीजिए. सरस्वती देवी के पीने के लिए यह आहुति झर रही है. इंद्र देव के पान (पीने) के लिए यह आहुति बह रही है. इंद्र देव के लिए स्वाहा. स्वाहा. स्वाहा. ( ४ )
यस्ते स्तनः शशयो यो मयोभूर्यो रत्नधा वसुविद्यः सुदत्र:.
येन विश्वा पुष्यसि वार्याणि सरस्वति तमिह धातवेकः. उर्वन्तरिक्षमन्वेमि.. (५)
हे सरस्वती देवी! आप का दिव्य ज्ञान सुखदायी, कल्याणदायी व समृद्धिदायी है. आप का दिव्य ज्ञान वैसा ही सुखद और आनंददायी है, जैसे मां का स्तन बच्चे के लिए सुखकारी नींद लाने वाला व आनंद देने वाला होता है. बच्चे में उत्तम बल संचरित करता है और उन में उत्तम गुण पैदा करने वाला होता है. (५)
गायत्रं छन्दोसि त्रैष्टुभं छन्दोसि द्यावापृथिवीभ्यां त्वा परि गृह्णाम्यन्तरिक्षेणोप यच्छामि.
इन्द्राश्विना मधुनः सारघस्य घर्मं पात वसवो यजत वाट्.
स्वाहा सूर्यस्य रश्मये वृष्टिवनये.. (६)
हे इंद्र देव! जो यजमान गायत्री छंद में आप की स्तुति करते हैं. आप उन के संरक्षक हैं. जो त्रिष्टुभ् छंद में इंद्र देव की उपासना करते हैं. इंद्र देव उन्हें भी संरक्षण देने वाले हैं. हे अश्विनी देव! हम स्वर्गलोक और पृथ्वीलोक हेतु आप दोनों का परिग्रहण करते हैं. हम आप से आरोग्य ( स्वास्थ्य ) की कामना करते हैं. हम इंद्र देव और दोनों अश्विनीकुमारों को अंतरिक्षलोक से अपने पास लाना चाहते हैं. आप दोनों अमृत व ऊर्जा बरसाने की कृपा करें. वसुगण उपयुक्त रीति से यज्ञ कार्य का निर्वाह करें. वे सूर्य की किरणों से अच्छी बरसात पाने के लिए उपयुक्त रीति से यज्ञ करने की कृपा करें. (६)
समुद्राय त्वा वाताय स्वाहा सरिराय त्वा वाताय स्वाहा.
अनाधृष्याय त्वा वाताय स्वाहाप्रतिधृष्याय त्वा वाताय स्वाहा. अवस्यवे त्वा वाताय स्वाहाशिमिदाय त्वा वाताय स्वाहा.. (७)
हे वायु ! समुद्र के लिए आप को आहुति प्रदान करते हैं. सभी को संरक्षण प्रदान करने के लिए हम आप को आहुति प्रदान करते हैं. हम अपार शक्ति के लिए आप को आहुति प्रदान करते हैं. सभी के वास (संरक्षण) प्रदाता के लिए हम आहुति प्रदान करते हैं. शांतिदायी वायु के लिए आहुति प्रदान करते हैं. आप हमारी ये सभी आहुतियां स्वीकार करने की कृपा कीजिए. (७)
इन्द्राय त्वा वसुमते रुद्रवते स्वाहेन्द्राय त्वादित्यवते स्वाहेन्द्राय त्वाभिमातिघ्ने स्वाहा.
सवित्रे त्वऽ ऋभुमते विभुमते वाजवते स्वाहा बृहस्पतये त्वा विश्वदेव्यावते स्वाहा.. ( ८ )
हे इंद्र देव! आप धनवान व शक्तिमान हैं. हम आप के लिए आहुति अर्पित करते हैं. आप आदित्यवान (तेजोमय) हैं. आप के लिए आहुति समर्पित है. हे इंद्र देव! आप अभिमान को समाप्त करने वाले हैं. आप के लिए आहुति समर्पित है. सविता देव सत्यवान हैं. वे धनवान व बलवान हैं. उन के लिए आहुति समर्पित है. सभी देवताओं के लिए हितकारी बृहस्पति के लिए आहुति समर्पित है. (८)
यमाय त्वाङ्गिरस्वते पितृमते स्वाहा.
स्वाहा घर्माय स्वाहा: घर्मः पित्रे.. (९)
यम देव पितरगणों एवं अंगिरा से युक्त हैं. यम देव के लिए आहुतियां अर्पित हैं. यज्ञ के विस्तार के लिए आहुति समर्पित है. पितरों को तृप्ति देने के लिए आहुति समर्पित है. (९)
विश्वा ऽ आशा दक्षिणसद्विश्वान् देवानयाडिह.
स्वाहाकृतस्य घर्मस्य मधोः पिबतमश्विना.. (१०)
यज्ञ में होता दक्षिण दिशा में विराजमान हैं. उन होताओं ने सभी दिशाओं में निवास करने वाले देवताओं को आमंत्रित किया है. हे अश्विनीकुमारो ! यज्ञ के विस्तार के लिए जो रसमयी आहुतियां समर्पित की जा रही हैं, आप उन्हें पीने की कृपा कीजिए. (१०)
दिवि धाऽ इमं यज्ञमिमं यज्ञं दिवि धाः स्वाहाग्नये यज्ञियाय शं यजुर्भ्यः.. (११)
हे यजमानो! आप इस यज्ञ व आहुति को स्वर्गलोक तक पहुंचाइए. यजमान अग्नि के लिए आहुति अर्पित करते हैं. यजमान अपनी सुखशांति के लिए मंत्र पढ़ते हुए आहुतियां समर्पित कर रहे हैं. (११)
अश्विना घर्मं पात हार्द्धानमहर्दिवाभिरूतिभिः.
तन्त्रायिणे नमो द्यावापृथिवीभ्याम् .. (१२)
हे अश्विनीकुमारो ! आप अपनी शक्ति से इस यज्ञ की रक्षा करने की कृपा कीजिए. आप अपनी रक्षण शक्तियों के साथ इस हृदय को प्रिय लगने वाले यज्ञ में पधारने की कृपा कीजिए. सूर्य, स्वर्गलोक व पृथ्वीलोक के सभी देवों को नमन है. (१२)
अपातामश्विना घर्ममनु द्यावापृथिवी अम साताम् .
इहैव रातयः सन्तु .. (१३)
हे अश्विनीकुमारो! आप आपाततः (पूर्ण और हर रूप से ) हमारे यज्ञ की रक्षा करने की कृपा कीजिए. स्वर्गलोक और पृथ्वीलोक के देवता भी आप के साथ यज्ञ का विस्तार करने की कृपा करें. आप अपने निवास स्थल से ही हमें धन प्रदान ( भांतिभांति के ) करने की कृपा कीजिए. (१३)
इषे पिन्वस्वोर्जे पिन्वस्व ब्रह्मणे पिन्वस्व क्षत्राय पिन्वस्व द्यावापृथिवीभ्यां पिन्वस्व.
धर्मासि सुधर्मामेन्यस्मे नृम्णानि धारय ब्रह्म धारय क्षत्रं धारय विशं धारय.. (१४)
हे परब्रह्म! हम आप का अनुसरण करते हैं, ताकि आप हमारी और यजमानों की रक्षा करें. आप ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों की रक्षा कीजिए. आप प्रजा को धर्म से संचालित कीजिए. उस धर्म मार्ग का हम सब भी अनुकरण कर सकें. उस धर्म मार्ग पर चल कर हम कर्तव्य पालन करते हुए अपना लक्ष्य प्राप्त कर सकें. (१४)
स्वाहा पूष्णे शरसे स्वाहा ग्रावभ्यः स्वाहा प्रतिरवेभ्यः.
स्वाहा पितृभ्यऽऊर्ध्वबर्हिर्भ्यो घर्मपावभ्यः स्वाहा द्यावापृथिवीभ्या : स्वाहा विश्वेभ्यो देवेभ्यः.. (१५)
प्रेम करने वाले पूषा, शब्द करने वाले प्राणियों, सोम रस पीने वाले देवताओं, विशेष यज्ञ को पवित्र करने वाले पितरों, पृथ्वीलोक, स्वर्गलोक और दूसरे सभी देवताओं के लिए ये आहुतियां समर्पित हैं. (१५ )
स्वाहा रुद्राय रुद्रहूतये स्वाहा सं ज्योतिषा ज्योति:. अहः केतुना जुषता सुज्योतिर्ज्योतिषा स्वाहा. रात्रिः केतुना जुषतासुज्योतिर्ज्योतिषा स्वाहा.
मधु हुतमिन्द्रतमे अग्नावश्याम ते देव घर्म नमस्ते अस्तु मा मा हि सी:.. (१६)
हे दिव्य गुण वाली परम शक्ति! यह आहुति रुद्र देव को समर्पित है. ज्योति से ज्योति प्रज्वलित करने के लिए यह आहुति समर्पित है. दिन में तेज से तेज को संयुक्त करने के लिए यह आहुति हैं. रात में तेज से तेज को संयुक्त करने के लिए यह आहुति समर्पित है. आप इन आहुतियों को स्वीकार करते हुए हमारी रक्षा करें. (१६)
अभीमं महिमा दिवं विप्रो बभूव सप्रथाः.
उत श्रवसा पृथिवी स सीदस्व महाँ असि रोचस्व देववीतमः .
वि धूममग्ने अरुषं मियेध्य सृज प्रशस्त दर्शतम्.. (१७)
हे अग्नि ! आप का यश पृथ्वी और स्वर्ग में फैला है. आप प्रज्वलित हो कर सभी देवताओं को तृप्त करते हुए लाल रंग वाला आकर्षक धुआं चारों ओर फैलाएं. ( १७ )
या ते घर्म दिव्या शुग्या गायत्र्या & हविर्धाने. सात आप्यायतां निष्ट्यायतां तस्यै ते स्वाहा.
या ते घर्मान्तरिक्षे शुग्या त्रिष्टुब्भ्याग्नीध्रे.
सात ऽ आप्यायतां निष्ट्यायतां तस्यै ते स्वाहा.
या ते घर्म पृथिव्या शुग्या जगत्या सदस्या.
सात आप्यायतां निष्ट्यायतां तस्यै ते स्वाहा.. (१८)
हे अग्नि ! आप की चमक स्वर्गलोक, विशेष यज्ञ और गायत्री छंद में फैली है. वह चमक अंतरिक्ष तथा त्रिष्टुप् छंद में भी विद्यमान है. आप की वही चमक पृथ्वी, सभास्थल और जगती छंद में भी है. आप की चमक या यश और भी अधिक फैले इसी उद्देश्य से यह आहुति समर्पित है. (१८ )
क्षत्रस्य त्वा परस्पाय ब्रह्मणस्तन्वं पाहि.
विशस्त्वा धर्मणा वयमनु क्रामाम सुविताय नव्यसे.. (१९)
हे परम शक्ति! आप शत्रुओं से हमारी रक्षा करें. क्षत्रियों के बल तथा ब्राह्मणों के ज्ञान की रक्षा करें. प्रजा को धर्म मार्ग पर चलाएं. उत्तम पदार्थ प्रदान करें. श्रेष्ठ मार्ग पर चलने तथा कर्तव्य पालन के लिए हम आप का अनुसरण करते हैं. (१९)
चतुः स्रक्तिर्नाभिर्ऋतस्य सप्रथाः स नो विश्वायुः सप्रथाः स नः सर्वायुः सप्रथाः. अप द्वेषो अप ह्वरोन्यव्रतस्य सश्चिम.. ( २० )
हे परम शक्ति! आप चारों दिशाओं में व्याप्त हैं. आप ऋत (सत्य) की नाभि (केंद्र) हैं. आप यज्ञ की प्रथा के संचालक व विख्यात हैं. आप हमें पूर्णायु प्रदान करने की कृपा कीजिए. आप हमें यशस्वी बनाइए व यश सहित सारी आयु प्रदान कीजिए. आप हमें द्वेषियों (द्वेष करने वालों) से दूर कीजिए. आप हमें जन्ममरण के चक्र से मुक्त कीजिए. आप संकल्पशील व कृपालु हैं.(२०)
घर्मैतत्ते पुरीषं तेन वर्धस्व चा च प्यायस्व.
वर्धिषीमहि च वयमा च प्यासिषीमहि.. (२१)
हे यज्ञ देव! आप क्षमतावान व समृद्धिवान हैं. आप की क्षमता और समृद्धि में और भी बढ़ोतरी हो. हम भी आप की क्षमता और समृद्धि की बढ़ोतरी पाएं और उस से आप्यायित (तृप्त ) हो जाएं. (२१)
अचिक्रदद्वृषा हरिर्महान्मित्रो न दर्शतः.
स सूर्येण दिद्युतदुदधिर्निधिः.. (२२)
हे यज्ञ देव! आप निरंतर सुख बरसाने वाले, दुःखहारी, महान् मित्र व सर्वद्रष्टा हैं. आप सूर्य की तरह द्युतिमान (प्रकाशमान) और उदधि (समुद्र) की तरह गहरे ( गंभीर ) हैं. आप सुखों का खजाना हैं. (२२)
सुमित्रिया न ऽ आप ऽ ओषधयः सन्तु दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योस्मान्द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मः.. (२३)
हे यज्ञ देव! जल व ओषधियां हमारे लिए मित्र के समान हों. जो हम से द्वेष रखते हैं या जिन से हम द्वेष रखते हैं, उन के लिए जल और ओषधियां दुर्मित्र (बुरे मित्र) की तरह हानिकर हो जाएं. (२३)
उद्वयं तमसस्परि स्वः पश्यन्त ऽ उत्तरम्.
देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम्.. (२४)
हे यज्ञ देव! हम तमसलोक से भी अधिक ऊपर उठें. हम ऊर्ध्वलोक में सूर्य जैसे देवों का भी कल्याण करने वाले देवों को देखें. हम श्रेष्ठ ज्योतिमान के दर्शन करें. (२४)
एधोस्येधिषीमहि समिदसि तेजोसि तेजो मयि धेहि.. (२५)
हे यज्ञ देव! आप ज्योतिर्मय (प्रकाशमान ) हैं. आप की ज्योति और भी फैले. आप समिधा जैसे तेजस्वी हैं. आप की कृपा से हम भी उस तेज को धारण कर सकें. (२५)
यावती द्यावापृथिवी यावच्च सप्त सिन्धवो वितस्थिरे.
तावन्तमिन्द्र ते ग्रहमूर्जा गृह्णाम्यक्षितं मयि गृह्णाम्यक्षितम्.. (२६)
हे यज्ञ देव! जहां तक स्वर्गलोक का विस्तार है, जहां तक पृथ्वीलोक का विस्तार है, जहां तक सप्त सिंधु (समुद्र) विस्तृत है, वहां तक हम आप से ऊर्जा ग्रहण कर सकें. हम आप की कृपा से इसे ग्रहण करने की सामर्थ्य पा सकें. (२६)
मयि त्यदिन्द्रियं बृहन्मयि दक्षो मयि क्रतुः .
घर्मस्त्रिग्वि राजति विराजा ज्योतिषा सह ब्रह्मणा तेजसा सह... (२७)
जो परम शक्ति और परम तेज से सुशोभित हो कर विराजमान है, जो प्रकाश के साथ शोभती है, जो विविध तेज से तेजोमयी है, वह विशाल परम शक्ति मुझे बलवान और निपुण बनाने की कृपा करे. हमें कार्य करने की शक्ति प्रदान करे. (२७)
पयसो रेत ऽ आभृतं तस्य दोहमशीमह्युत्तरामुत्तरा समाम्.
त्विषः संवृक् क्रत्वे दक्षस्य ते सुषुम्णस्य ते सुषुम्णाग्निहुतः.
इन्द्रपीतस्य प्रजापति भक्षितस्य मधुमतऽ उपहूत ऽ उपहूतस्य भक्षयामि .. ( २८ )
हे यज्ञ देव! आप की कृपा से बरसात से बरसे हुए अमृतजल से प्रकृति पूरी तरह भर गई है. आप की ही कृपा से हम आगे भी निरंतर अपने लाभ के लिए उस का दोहन कर सकने में समर्थ हो सकें. आप संकल्प सिद्ध करने में दक्ष (कुशल) व प्रकाशमान हैं. हम यज्ञ में आप का आह्वान करते हैं. यज्ञ में दी गई सुखदायी आहुतियां हमारे लिए सुखदायक हैं. इंद्र देव द्वारा पी गई मधुर हवि और प्रजापति द्वारा खाई गई ( सेवन की गई ) मधुर हवि का, हम उन को अपने पास आमंत्रित कर के, सेवन करना चाहते हैं. ( २८ )
॥ वेद ॥
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