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अथ सुभाषितसंग्रहः ॥ गुरुः

 


॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥

गुरुः

पञ्चैव गुरवो ब्रह्मन् पुरुषस्य बुभूषतः ।

पिता माताऽग्निरात्मा च गुरुश्च द्विजसत्तम ।। महाभारतम् - वनपर्व - २१४।२८ ।

हे ब्राह्मण ! वृद्धि चाहते हुए पुरुष के पाँच गुरु हैं—पिता, माता, अग्नि, आत्मा (अपना आप) तथा उपाध्याय ॥

 

गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः ।

उत्पथप्रतिपन्नस्य परित्यागो विधीयते  महाभारतम् - शान्तिपर्व - ५७।७।

अवलिप्त (दृप्त, घमंडी), कर्तव्य और अकर्तव्य की पहचान न करने वाला, उन्मार्गगामी - ऐसे गुरु का त्याग शास्त्र - विहित है ।

 

विद्यां श्रुत्वा ये गुरुं नाद्रियन्ते प्रत्यासन्ना मनसा कर्मणा वा ।

तेषां पापं भ्रूणहत्याविशिष्टं नान्यस्तेभ्यः पापकृदस्ति लोके ।। महाभारतम् - शान्तिपर्व - १०८।२३।

जो (शिष्य) गुरु मुख से शास्त्र श्रवण करके गुरु का आदर नहीं करते, वे मन और कर्म से नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं । उनका पाप गर्भपात के पाप से भी बड़ा है, लोक में उनसे अधिक पापी नहीं है ।

 

न वाच्यः परिवादोऽयं न श्रोतव्यः कथंचन ।

कर्णावथापिधातव्यौ प्रस्थेयं चान्यतो भवेत् ॥ महाभारतम् - शान्तिपर्व - १३२।१२

गुरु की निन्दा (उसके सामने) न करनी चाहिये और न दूसरे से की जा रही सुननी चाहिये । कान बन्द कर लेने चाहियें अथवा निन्दा के स्थल से परे हट जाना चाहिये ।

 

न विना गुरुसम्बन्धं ज्ञानस्याधिगमः स्मृतः । महाभारतम् - शान्तिपर्व - ३२६।२२।

बिना गुरु की सेवा में गये ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती ।

 

उपनीय तु यः शिष्यं, वेदमध्यापयेद् द्विजः ।
सकल्पं सरहस्यं च, तमाचार्य प्रचक्षते ।। (मनुस्मृतिः -२.१४०)
    जो विद्यावान् मनुष्य, शिष्य का उपनयम करके उसे कल्प (श्रौत, गृह्य, धर्म, शुल्व सूत्र) सहित और रहस्य (उपनिषद्) सहित सम्पूर्ण वेद पढ़ावे; उसे ही आचार्य कहते हैं ।

आचार्यः कस्मादाचार्यः आचारं ग्राहयत्याचिनोत्यर्थानाचिनोति बुद्धिमिति वा ।। (निरुक्तम्. १.४)
    आचार्य को आचार्य क्यों कहते हैं ? क्योंकि वह शिष्यों को आचरण का ग्रहण कराता है, उनके चित्त में शास्त्रों के अर्थों को सञ्चित करता है तथा उनकी बुद्धि की अभिवृद्धि करता है; इसीलिये उसे आचार्य कहते हैं ।

उत्पादक-ब्रह्मदात्रोर्गरीयान् ब्रह्मदः पिता ।
ब्रह्मजन्म हि विप्रस्य, प्रेत्य चेह च शाश्वतम् ।। (मनुस्मृतिः - २.१४६)
    उत्पन्न करने वाले (भौतिक शरीर देने वाले) और वेदज्ञान प्रदान करने वाले इन दो प्रकार के पिताओं में से; वेदज्ञान-प्रदाता (आचार्य) रूप पिता ही अधिक बड़ा है । माध्यम से अपने

आचार्यस्त्वस्य यां जातिं, विधिवद् वेदपारगः ।
उत्पादयति सावित्र्या, सा सत्या साऽजराऽमरा ।। (मनुस्मृतिः -२.१४८)
    वेदों का पारङ्गत आचार्य, सावित्री आदि मन्त्रों के ज्ञानादि-दान के शिष्य की जिस जाति (जन्म) को निर्धारित करता है, वही सच्ची जाति है और वही अजर अमर रहने वाली है ।

यः श्रोत्रयोरमृतं संनिषिञ्चेद्, विद्यामविद्यस्य यथा ममायम् ।
तं मन्येऽहं पितरं मातरं च, तस्मै न द्रुह्येत् कृतमस्य जानन् ।।
    जो मेरे जैसे विद्याहीन मनुष्य के कानों में विद्या रूपी अमृत सींचे उस आचार्य को मैं अपना पिता और माता मानता हूँ। कोई भी मनुष्य ऐसे गुरु से, उसके किये उपकार का स्मरण करते हुए कभी द्रोह न करे ।

ऋतस्य दातारमनुत्तमस्य, निधिं निधीनामपि लब्धविद्याः ।
ये नाद्रियन्ते गुरुमर्चनीयं, पापान् लोकांस्ते व्रजन्त्यप्रतिष्ठाः ।। (महाभा. आदि.७६.६३,६४)
    अतिश्रेष्ठ सत्यज्ञान को देने वाले तथा कोशों में उत्तम विद्या रूपी कोश को प्राप्त कराने वाले पूजनीय गुरु का, जो उनसे विद्या पाये लोग आदर नहीं करते; वे अस्थिर - मति होकर पापजनित दुःखमय लोकों को प्राप्त होते हैं ।

अल्पं वा बहु वा यस्य, श्रुतस्योपकरोति यः ।
तमपीह गुरुं विद्याच्छुतोपक्रियया तया ।। (मनुस्मृतिः -२.१४९)
    जो किसी का थोड़े या अधिक रूप में विद्यादान से उपकार करता है, उसे भी विद्या रूपी उपकार के कारण गुरु जानना चाहिये ।

स्वर्गों धनं वा धान्यं वा, विद्या पुत्रः सुखानि च ।
गुरुवृत्त्यनुरोधेन, न किञ्चिदपि दुर्लभम् ।। (वाल्मीकि.अ. ३०.३६)
    स्वर्ग, धन, अन्न, विद्या, सन्तान और अन्य जो सुख हैं; उनमें से कोई भी दुर्लभ नहीं है, यदि गुरु के सन्मार्ग का अनुसरण किया जाय तथा गुरु का पालन-पोषण किया जाय तो ।

विद्या ह वै ब्राह्मणमाजगाम, गोपाय मा शेवधिष्टेऽहमस्मि ।
असूयकायाऽनृजवेऽयताय, न मा ब्रूया वीर्यवती यथा स्याम् ।।
यमेव विद्याः शुचिमप्रमत्तं, मेधाविनं ब्रह्मचर्योपपन्नम् ।
यस्ते न द्रुह्येत् कतमच्चनाह, तस्मै मा ब्रूया निधिपाय ब्रह्मन् ।।
    विद्या ब्राह्मण (विद्वान्) के समीप आई और बोली-हे विद्वन् ! मेरी रक्षा कर, मैं तेरा खजाना हूँ। जो गुणों में दोषारोपण करने वाला, कुटिल और असंयमी आलसी हो उसे मेरा प्रवचन मत करना, जिससे मैं सामर्थ्य वाली बनी रहूं। किन्तु हे ब्रह्मन् ! जिसे तुम पवित्र, अप्रमादी, बुद्धिशाली, ब्रह्मचर्यपालक समझो तथा जो तुमसे कभी द्रोह न करे उस, विद्याकोश के रक्षक शिष्य को, मेरा प्रवचन करना ।

उपनीय गुरुः शिष्यं, शिक्षयेच्छौचमादितः ।
आचारमग्निकार्यं च, सन्ध्योपासनमेव च ।। (मनुस्मृतिः -२.६९)
    गुरु शिष्य का उपनयन करके सर्वप्रथम उसे पवित्रता सिखावे । तत्पश्चात् शिष्टाचार, अग्निहोत्र और सन्ध्योपासना की शिक्षा दे ।

धर्मार्थों यत्र न स्यातां, शुश्रूषा वाऽपि तद्विधा ।
तत्र विद्या न वक्तव्या, शुभं बीजमिवोषरे ।। (मनुस्मृतिः -२.११२)
    जहाँ धर्म और अर्थ की सिद्धि सम्भव न हो और न ही अच्छी सेवापूर्वक श्रवणलालसा हो वहाँ विद्या न देवे । ऐसे मनुष्य को विद्या पढ़ाना ऊसर भूमि में उत्तम बीज बोने के समान है ।

अध्यापिता ये गुरूत्राद्रियन्ते, विप्रा वाचा मनसा कर्मणा वा ।
यथैव ते न गुरोर्भोजनीयास्तथैव तान्न 'भुनक्ति श्रुतं तत् ।। (निरु.२.४)
    जो विद्या पढ़ाये हुए ज्ञानवान् शिष्य अपने गुरुओं का वाणी, मन और आचरण से आदर नहीं करते, तो जैसे वे गुरु का पालन नहीं करते, वैसे ही उनका पढ़ा हुआ ज्ञान भी उनके काम नहीं आता ।

नमो नमस्ते गुरवे महात्मने, विमुक्तसङ्गाय सदुत्तमाय ।
नित्याद्वयानन्दरसस्वरूपिणे, भूप्ने सदाऽपारदयाम्बुधाप्ने ।। (विवेकचूडामणिः - ४८७)
    महान् आत्मा वाले, आसक्ति से रहित, सत्पुरुषों में उत्तम, सदा परमानन्दरस में निमग्र रहने वाले, विशाल ज्ञान वाले और अपार दया के सागर आप गुरु देव के प्रति हमारा बारम्बार नमस्कार है ।
 

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