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अथ सुभाषितसंग्रहः ॥ अहिंसा

 



॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥

अहिंसा

सर्वाण्येवापिधीयन्ते पदजातानिं कौञ्जरे ।

एवं सर्वमहिंसायां धर्मार्थमपिधीयते ॥ महाभारतम् - शान्तिपर्व - २४५।१८-१९।

जैसे हाथी के पैर में सभी पैर समा जाते हैं, वैसे ही अहिंसा में सभी धर्म और अर्थ समा जाते हैं । अर्थात् अहिंसा - व्रत का पालन करने से सभी धर्मों का पालन हो जाता है और सभी अर्थों की सिद्धि हो जाती है ॥

 

अहिंसा परमो धर्मस्तथाऽहिंसा परो दमः ।

अहिंसा परमम् दानम्.....।। महाभारतम् - अनुशासनपर्व - ११६।३८।

अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम दम (इन्द्रियों पर वश) है, और अहिंसा सबसे उत्तम दान है । दान यहाँ प्राण-दान के अर्थ में है ।

 

अहिंसया च दीर्घायुरिति प्राहुर्मनीषिण: ।। महाभारतम् - अनुशासनपर्व – १६८।३८।

अहिंसा व्रती को लम्बी आयु प्राप्त होती है । ऐसा बुद्धिमानों का कथन है ।

 

अहिंसा प्राणिनां प्राणवर्धनानामुत्कृष्टतममेकम् ।। (चरकसंहिता (सूत्रस्थानम्) -३०.१५)
    प्राणियों के प्राणों की वृद्धि करने वाले उपायों में एक अहिंसा ही सर्वोत्तम उपाय है ।

योऽहिंसकानि भूतानि, हिनस्त्यात्मसुखेच्छया ।
स जीवंश्च मृतश्चैव, न क्वचित् सुखमेधते ।।
    जो अपने सुख की कामना से निरपराध प्राणियों की हिंसा करता है, वह जीवित रहता हुआ भी और मरने के पश्चात् भी कहीं सुख नहीं पाता है ।
    
यो वन्धनवधक्लेशान्, प्राणिनां न चिकीर्षति ।
स सर्वस्य हितप्रेप्सः, सुखमत्यन्तमश्नुते ।। (मनुस्मृतिः - ५.४५,४६)
    जो मनुष्य किसी भी प्राणी के बांधने और उसकी हत्या करने आदि कष्टकारक कार्यों को करने की कामना नहीं करता, वह सबका हित चाहने वाला मनुष्य अत्यन्त सुख को प्राप्त करता है ।

सर्वकर्मस्वहिंसा हि, धर्मात्मा मनुरब्रवीत् ।
कामकाराद् विहिंसन्ति, बहिर्वेद्यां पश्त्रराः ।।
    धर्मात्मा मनु महर्षि ने सब कर्मों में अहिंसा (का ध्यान रखने) को कहा है । जो मनुष्य बाहर यज्ञवेदी आदि पर पशुओं को मारते हैं, वे अपनी क्षुद्र कामना के कारण ऐसा करते हैं (धर्मशास्त्र में ऐसा विधान नहीं है) ।

तस्मात् प्रमाणतः कार्यो, धर्मः सूक्ष्मो विजानता ।
माहामा सर्वभूतेभ्यो, धर्मेभ्यो ज्यायसी मता ।। (महाभा.शा. २६५/५/६)
    अतः विवेकशील ज्ञानी मनुष्य को प्रमाणानुसार सूक्ष्म धर्म का आचरण करना चाहिये । सब प्राणियों के प्रति अहिंसा रूपी धर्म, सब धर्मों से बड़ा है ।

मर्त्तव्यमिति यद् दुःखं, प्राणिन उपजायते ।
शक्यते नानुमानेन, परेण परिवर्णितुम् ।। (हितोपदेशः (मित्रलाभः) -६७)
    'अब मुझे मरना पड़ेगा' इस प्रकार विचारने पर जो मरण-दुःख प्राणी को होता है । उसका वर्णन दूसरे के द्वारा अनुमान से नहीं किया जा सकता ।

देहप्रवृत्तिर्या काचिद्, वर्त्तते परपीडया ।
स्त्रीभोग-स्तेय-हिंसाद्या, तस्या वेगान् विधारयेत् ।। (चरकसंहिता (सूत्रस्थानम्) -७.२१)
    परस्त्रीगमन, चोरी और हिंसा आदि जो भी शारीरिक कार्य दूसरों को कष्ट पहुँचा के किये जाते हैं, उन सबके वेगों को मनुष्य अवश्य रोके । 

नाऽकृत्वा प्राणिनां हिंसां, मांसमुत्पद्यते क्वचित् ।
न च प्राणिवधः स्वर्य्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् ।।
    बिना प्राणियों की हिंसा किये कहीं भी मांस की प्राप्ति नहीं होती और प्राणियों की हिंसा करना सुखदायी नहीं है, अतः मनुष्य मांससेवन सर्वथा त्याग देवे ।

समुत्पत्तिं च मांसस्य, वधबन्धौ च देहिनाम् ।
प्रसमीक्ष्य निवर्तेत, सर्वमांसस्य भक्षणात् ।। (मनुस्मृतिः -५.४८,४९)
    मांस की प्राप्ति का और प्राणियों के बन्धन तथा हत्या आदि का विचार करके, मनुष्य को सब प्रकार के मांस के सेवन से दूर हो जाना चाहिये ।

अनुमन्ता विशसिता, निहन्ता क्रयविक्रयी ।
संस्कर्त्ता चोपहर्त्ता च, खादकश्चेति घातकाः ।। (मनुस्मृतिः -५.५१)
    किसी प्राणी को मारने की अनुमति देने वाला अथवा अनुमोदन करने वाला, प्राणी के अन्नों को काटने वाला, उसको प्राणों से वियुक्त करने वाला, मांस को (या मारे गये प्राणी को) खरीदने वाला, बेचने वाला, पकाने वाला, परोसने वाला और खाने वाला ये आठ प्रकार के घातक (हत्यारे) कहे जाते हैं ।

योऽत्ति यस्य यदा मांसमुभयोः पश्यतान्तरम् ।
एकस्य क्षणिका प्रीतिरन्यः प्राणैर्विमुच्यते ।। (हितोपदेशः (मित्रलाभः) -६६)
    जब, जो जिसके मांस को खाता है, उन दोनों के अन्तर को देखिये। एक की तो क्षणिक तृप्ति होती है और दूसरा प्राणों से हाथ धो बैठता है । 

न भूप्रदानं न सुवर्णदानं, न गोप्रदानं न तथाऽनदानम् ।
यथा वदन्तीह महाप्रदानं, सर्वेषु दानेष्वभयप्रदानम् ।। (हितोपदेशः (सन्धिः) -५७)
    भूमि का दान, स्वर्णदान, गोदान और अन्नदान ये वैसे बड़े दान नहीं है, जैसा कि विद्वान् सब दानों में अभयदान (प्राणदान) को महादान कहते हैं ।

सर्वहिंसानिवृत्ता थे, नराः सर्वसहाश्च ये ।
सर्वस्याश्रयभूताश्च, ते नराः स्वर्गगामिनः ।। (हि. मि.६४)
    जो सब प्रकार की हिंसा से दूर हैं, जो सबको सहन करने वाले हैं और सबको शरण देने वाले हैं, वे ही मनुष्य स्वर्ग (परम सुख) को प्राप्त करने वाले होते हैं ।

यो यजेताश्वमेधेन, मासि मासि यतव्रतः ।
वर्जयेन् मधु मांसं च, सममेतद् युधिष्ठिर ।।
    जो मनुष्य व्रती होकर प्रत्येक मास में अश्वमेध यज्ञ से यजन करे और जो शराब तथा मांस के सेवन को त्याग देवे, हे युधिष्ठिर ये दोनों बराबर हैं ।

न भक्षयति यो मांसं, न च हन्यान्न घातयेत् ।
तन्मित्रं सर्वभूतानां, मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत् ।।
    जो मांस नहीं खाता, जो हत्या नहीं करता और जो अन्य से भी हत्या नहीं करवाता, वह सब प्राणियों का मित्र है, ऐसा स्वयम्भू के पुत्र मनु ने कहा है ।

सदा यजति सत्रेण, सदा दानं प्रयच्छति ।
सदा तपस्वी भवति, मधुमांस-विवर्जनात् ।। (महाभा. अनु. ११५.८,१०,१५)
    शराब और मांस के त्याग देने से (वह त्यागने वाला मनुष्य) मानो सदा ही निरन्तर यज्ञ का अनुष्ठान करता है, सदा दान देता है और सदा तपस्वी बना रहता है ।

इज्यायज्ञश्रुतिकृ तैर्यो मार्गेरबुधोऽधमः ।
हन्याज्जन्तून् मांसगृध्नुः, स वै नरकभाङ् नरः ।। (महाभा. अनु. ११५.४३)
    जो मांस का लोभी मनुष्य हवन, यज्ञ और शास्त्र आदि के बनावटी मार्गों (बहानों) से प्राणियों का वध करता है, वह अज्ञानी और नीच हैं । वह मनुष्य नरक को प्राप्त होता है ।

स्वमांसं परमांसेन, यो वर्धयितुमिच्छति ।
नास्ति क्षुद्रतरस्तस्मात्, स नृशंसतरो नरः ।। (महाया. अनु. १६:४५)
    जो अपने (शरीर के) मांस को पराये मांस से बढ़ाना चाहता है, उससे अधिक नीच अन्य कोई मनुष्य नहीं है । वह मनुष्य महाक्रूर है ।

तदेतदुत्तमं धर्ममहिंसाधर्मलक्षणम् ।
ये चरन्ति महात्मानो, नाकपृष्ठे वसन्ति ते ।।। (महाभा. अनु.११५.६१)
    अहिंसा धर्म ही जिसका लक्षण है, ऐसे इस उत्तम धर्म का जो आचरण करते हैं वे महात्मा हैं, वे मोक्ष-धाम में निवास करते हैं ।

अहिंसा सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामनभिद्रोहः ।
उत्तरे च यमनियमादयः तन्मूलाः तत्सिद्धिपरतयैव तत्प्रतिपादनाय प्रतिपाद्यन्ते । तदवदातरूपकरणायैवोपादीयन्ते ।। (योग.व्या. २.३०)
    सब प्रकार से सदा किसी भी प्राणी के प्रति हिंसा की भावना न रखना 'अहिंसा' है । सत्य आदि यम और शौच आदि नियम अहिंसामूलक है अर्थात् अहिंसा पर आधारित हैं । अहिंसा की साधना करना ही उनका मुख्य लक्ष्य है । अहिंसा की सिद्धि के लिये ही उनको सिद्ध किया जाता है । अहिंसा के स्वरूप को शुद्ध करने के लिये अहिंसा को निखारने के लिये ही यमनियम आदि का ग्रहण (साधना के लिये) किया जाता है ।

 

प्राणिनामवधेनैव सर्वपुण्यफलं भवेत् । 

हननात्प्राणिवर्गाणां सर्वपापफलं भवेत् ॥

 

लब्धं विभज्य भुक्त्वा तु यत्प्राणिपरिरक्षणम् । 

शास्त्रकारोक्त धर्मेषु प्रशस्तमिदमीर्यते ॥

 

आद्यो निरुपमो धर्मः प्राणिनामवधो मतः । 

विमृष्टे सत्यकथनं द्वितीयं स्थानमर्हति ॥

 

अकृत्वा प्राणिनां हत्यां लक्ष्यमार्गे प्रवर्तनम् । 

मोक्षादिलोकजनकः सन्मार्ग इति मन्यते ॥

 

अवधाख्यं वरं धर्मे यः सदा परिरक्षति । 

संसारभीत्या सन्न्यास भाजिनोऽप्युत्तमो हि सः ॥

 

अवधाख्ये वरे धर्मे विद्यमानस्य शाश्वतम् । 

जीवितेऽग्रये कृतान्तोऽपि न विशेत् प्राणभक्षकः ॥

 

आत्मानो मरणं वापि जायतां प्राणिमूलकम् । 

न कार्या प्राणिनां हत्या स्वात्मरक्षणमिच्छता ॥

 

जीवनां हत्यया श्रेष्ठं भाग्यं कामं भवेद् भृशम् । 

वधमूलगातं भाग्यं सन्तः पश्यन्ति गार्हितम् ॥

 

वधदोषं विजानन्तः सन्तो हत्याकारन् जनान् । 

कुलीनानपि चण्डालसमान् पश्यन्ति कर्मणा ॥

 

रुग्णान् दरिद्रान् शास्त्रज्ञाः पश्यन्तो नीवजीवनान् । 

"इमे जन्मान्तरे जघ्नुः प्राणा" नित्येव जानते ॥
 

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