॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥
एक: स्वादु न मुञ्जीत । महाभारतम् - उद्योतपर्व - ३३।४६ ।
मिष्टान्न अकेला न खाये ।
राजान्नं तेज आदते शूद्रान्नं ब्रह्मवर्चसम् । महाभारतम् - शान्तिपर्व -३६।२७।
राजा का अन्न (खाया हुआ) तेज को हर लेता है और शूद्र का अन्न ब्रह्म तेज (वेदाभ्यास से जो तेज, प्रभाव होता है) को ।
चराणामचरा ह्यन्नमदंष्ट्रा दंष्ट्रिणामपि ।
आपः पिपासतामन्नमन्नं शूरस्य कातराः ॥ महाभारतम् - शान्तिपर्व -६६१५॥
स्थावर (ठहरे हुए, वृक्षादि) पदार्थ जङ्गम (चलने वाले) पदार्थों का भोजन हैं । जिन की चबाने के लिये लम्बी नुकीली दाढ़े नहीं हैं वे उनका भोजन हैं जिनकी वे हैं । जल प्यासों का भोजन हैं । कायर पुरुष वीरपुरुषों का भोजन हैं ।
भक्ष्यं पेयमथालेह्यं यच्चान्यत् साधु भोजनम् ।
प्रेक्षमाणेषु योऽश्नीयान्नृशंसमिति तं वदेत् ॥ महाभारतम् - शान्तिपर्व - १६४।११ ॥
खाने, पीने, चाटने योग्य अथवा जो भी कोई और खाद्य पदार्थ हो उसे, जो औरों के उस की ओर मुंह किये देखते हुए खाता है वह कठिनहृदय है (उसमे कुछ भी दया नहीं) ॥
पञ्चार्द्रा भोजनं भुञ्ज्यात्प्राङ मुखो मौनमास्थितः । महाभारतम् - शान्तिपर्व -१६३॥६॥
पाँच अंगों (दो हाथ, दो पैर और मुंह) को गीला कर, पूर्व की ओर मुंह कर मौन धारण किये हुए भोजन करे ।
सायं प्रातर्मनुष्याणामशनं वेदनिर्मितम् ।
नान्तरा भोजनं दृष्टम् ... ॥ महाभारतम् - शान्तिपर्व - १९३ । १० ॥
प्रातः काल और सायं काल, दो समय ही भोजन करना वेद - विहित है । इन दोनों कालों के बीच नहीं ।
मृन्मयं शरणं यद्वन्मृदेव परिलिप्यते ।
पार्थिवोऽयं तथा देहो मृद्विकारान्न नश्यति ॥ महाभारतम् - शान्तिपर्व -११२।११।।
जिस प्रकार मिट्टी से बने हुए घर की रक्षा मिट्टी के लेप से होती है उसी तरह पार्थिव (मिट्टी से बने हुए) शरीर की मिट्टी के विकार अन्न से होती है ॥
यात्रार्थ मन्नमादद्याद् व्याधितो भेषजं यथा ।
यात्रार्थ (जीवन निर्वाह के लिये) भोजन करे (जितने से भूख मिट जाये), जैसे रोगी औषध का सेवन करता है । (अपेक्षित मात्रा में ही दवाई लेता है) ।
आयुष्यं प्राङ्मुखो भुङ्क्ते । महाभारतम् - अनुशासनपर्व - १०४ । ५७ ।
पूर्व की ओर मुख किये खाने वाला अपनी आयु को बढ़ाता है ।
आर्द्रपादस्तु भुञ्जीत । महाभारतम् - अनुशासनपर्व - १०४ । ६१ ।
पाओं को धोकर भोजन करे ।
वाग्यतो नैकवस्त्रश्च नासंविष्टः कदाचन ।
भूमौ सदैव नाश्नीयान्नानासीनो न शब्दवत् ॥ महाभारतम् - अनुशासनपर्व - १०४ । ९६ ।
खाते हुए चुप रहे, एक वस्त्र को धारण किये हुए न हो, लेट कर न खाये, भूमि पर बैठ कर (आसन पर न बैठ कर) न खाये, खड़ा हो कर न खाये, तथा मुंह से शब्द करता हुआ न खाये ॥
भुञ्जानो मनुजव्याघ्र नैव शङ्कां समाचरेत् । महाभारतम् - अनुशासनपर्व - १०४ । १०० ।
हे पुरुष श्रेष्ठ खाता हुए कभी भी शङ्का न करे (कि मुझे यह अन्नपचेगा या नहीं) ।
दुष्करं रसज्ञाने मांसस्य परिवर्जनम् । महाभारतम् - अनुशासनपर्व - ११५।१६।
एक बार मांस का स्वाद लेने पर मांस भक्षण का त्याग कठिन है ।
धन्यं यशस्यमायुष्यं स्वर्ग्य स्वस्त्ययनं महत् ।
मांसस्याभक्षणं प्राहुर्नियताः परमर्षयः ॥ महाभारतम् - अनुशासनपर्व - ११५। ३७ ।।
मांस का न खाना धन, यश, और आयु की वृद्धि का कारण होता है ।" स्वर्ग और कल्याण का बड़ा साधन है ऐसा जितेन्द्रिय महर्षि लोग कहते हैं ।
स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति ।
नास्ति क्षुद्रतरस्तस्मात् स नृशंसतरो नरः ।। महाभारतम् - अनुशासनपर्व - ११६ ११ ।।
जो दूसरों के मांस को खाने से अपना मांस बढ़ाना चाहता है उससे नीच कोई नहीं । वह पुरुष अत्यन्त क्रूर है ।
पञ्चानामशनं दत्त्वा शेषमश्नन्ति साधवः ।
न जल्पन्ति च भुञ्जाना न निद्रान्त्यार्द्रपाणयः ।। महाभारतम् - अनुशासनपर्व - १६२ ।३६।
सज्जन लोग पांचों (देवता, पितर, अतिथि, भृत्य और गौ आदि) को अन्न देकर शेष (बचे हुए) अन्न को खाते है । खाते हुए बोलते नहीं और सोते समय हाथों को गीला नहीं करते ।
दधि सक्तून् न भुञ्जीत वृथामांसं च वर्जयेत् । महाभारतम् - अनुशासनपर्व - १०४।६४ ।
(रात्रि समय) दही और सत्तू न खाये और वृथामांस (जो देवता आदि को भेंट किये बिना खाया जाता है) का त्याग करे ।
हिरण्यदानैर्गोदानैः भूमिदानैश्च सर्वशः ।
मांसस्याभक्षणे धर्मो विशिष्ट : स्यादिति श्रुतिः ॥ महाभारतम् - अनुशासनपर्व - २२६।४१ ।
सोने के दान से, गोदान से, भूमि-दान से भी बढ़कर पुण्य मांस न खाने से होता है ऐसी श्रुति है ॥
नालीढया परिहतं भक्षयीत कदाचन ।
तथा नोद्धृतसाराणि प्रेक्षतामप्रदाय च ॥ महाभारतम् - अनुशासनपर्व - १०४ ।६० ॥
रजस्वला के दर्शन स्पर्शन से दूषित अन्न कभी न खाये तथा जिसमें से सार निकाला जा चुका है, जो फोक है, उसे न खाये । भोजन करते समय उस की ओर मुंह उठाये देखने वालों को न देकर भी न खाये ॥
पृथिवीमलमश्नन्ति ये द्विजाः शूद्रभोजनः । महाभारतम् - अनुशासनपर्व - १३५ ।६ ।
वे ब्राह्मण पृथ्वी का मल खाते हैं जो शूद्र का अन्न खाते हैं ।
षट्त्रिंशतं सहस्राणि, रात्रीणां हितभोजनः ।
जीवत्यनातुरो जन्तुर्जितात्मा संमतः सताम् ।। (चरकसंहिता (सूत्रस्थानम्) -२७.३४६)
हितकारी भोजन करने वाला, अपने को संयम में रखने वाला और सज्जनों के द्वारा प्रशंसित मनुष्य नीरोग रहता हुआ सौ वर्ष तक जीवित रहता है ।
हिताशी स्यान्मिताशी स्यात्, कालभोजी जितेन्द्रियः ।
पश्यन् रोगान् बहून् कष्टान्, बुद्धिमान् विषमाशनात् ।। (चरकसंहिता (निदानस्थानम्) - ६.१२)
मनुष्य जितेन्द्रिय बने और विषम (अनियमित तथा अहितकारी) भोजन से उत्पन्न होने वाले रोगों और उनसे प्राप्तव्य कष्टों का विचार करके, सदा निर्धारित समय पर हितकारक और मात्रा में भोजन करने का अभ्यासी बने ।
पूजयेदशनं नित्यमद्याच्चै तदकुत्सयन् ।
दृष्ट्वा हृष्येत् प्रसीदेच्च, प्रतिनन्देच्च सर्वशः ।।
सदा भोजन को श्रद्धा से देखे और उसकी निन्दा न करते हुए उसका सेवन करे। भोजन को देखकर हर्ष और प्रसन्नता व्यक्त करे और सब प्रकार से उसकी प्रशंसा करे ।
पूजितं ह्यशनं नित्यं, बलमूर्जं च यच्छति ।
अपूजितं तु तद् भुक्तमुभयं नाशयेदिदम् ।। (मनुस्मृतिः - २.५४,५५)
श्रद्धा से किया हुआ भोजन, सदा बल और पराक्रम प्रदान करता है । अपमानपूर्वक खाया हुआ भोजन, बल और पराक्रम दोनों को नष्ट कर देता है ।
विघसाशी भवेन्निनत्यं, नित्यं वाऽमृतभोजनः ।
विघसो भुक्तशेषं तु, यज्ञशेषं तथाऽमृतम् ।। (मनुस्मृतिः - ४.२८५)
सदा 'विघस' भोजन का सेवन करे अथवा 'अमृत' भोजन का सेवन करे। अन्यों के भोजन कर लेने पर बचे हुए भोजन को 'विघस' तथा यज्ञ में आहुति देने से अवशिष्ट भोजन को 'अमृत' कहते हैं ।
गुणाश्च षण् मितमुक्तं भजन्ते, ह्यारोग्यमायुश्च बलं सुखं च ।
अनाविलं चास्य भवत्यपत्यं, न चैनमाद्यून इति क्षिपन्ति ।। (महा.उ. ३७.३४)
मात्रा में भोजन करने वाले में छः गुण आते हैं - स्वास्थ्य, दीर्घ आयु, बल, सुख, स्वरूपवान् सन्तान की प्राप्ति और इसकी पेटू कहकर लोग निन्दा नहीं करते ।
अनारोग्यमनायुष्यमस्वयं चातिभोजनम् ।
अपुण्यं लोकविद्विष्टं, तस्मात्तत् परिवर्जयेत् ।। (मनुस्मृतिः - २.५७)
मात्रा से अधिक भोजन करना स्वास्थ्य-नाशक, आयुहासक, दुःखदायी, पाप और लोगों में द्वेषोत्पादक होता है, अतः अधिक भोजन करने की प्रवृत्ति को त्याग देवे ।
आयुः-सत्त्व-बलारोग्य-सुख-प्रीति-विवर्धनाः ।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या, आहाराः सात्त्विकप्रियाः ।।
आयु, सामर्थ्य, बल, स्वास्थ्य, सुख और रुचि को बढ़ाने वाले, रसीले, चिकने (घृत-दुग्धादियुक्त), शीघ्र न बिगड़ने वाले और हृदय को पुष्ट करने वाले भोजन सात्त्विक लोगों को प्रिय होते हैं अर्थात् ऐसे भोजन सात्त्विक हैं ।
कट्वम्ललवणात्युष्ण-तीक्ष्णरूक्षविदाहिनः ।
आहारा राजसस्येष्टा, दुःखशोकामयप्रदाः ।।
चरपरे, खट्टे, नमकीन, अति उष्ण, तीखे, रूखे और जलन उत्पन्न करने वाले भोजन राजसिक लोगों को प्रिय हैं । ये भोजन दुःखदायी, शोककारक और रोगोत्पादक होते हैं ।
यातयामं गतरसं, पूति पर्युषितं च यत् ।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं, भोजनं तामसप्रियम् ।। (महाभा. भी. ४१.८-१०)
अधपका, नीरस, दुर्गन्धयुक्त, बासी, जूठा और बुद्धिनाशक तथा अपवित्र भोजन तामसिक लोगों को प्रिय है ।
अश्नीयात्तन्मना भूत्वा, पूर्वन्तु मधुरं रसम् ।
मध्येऽम्ललवणौ पश्चात्, कटुतिक्तकषायकम् ।।
भोजन करते समय तन्मय होकर पहिले मधुर पदार्थ खावे, तदनन्तर खट्टे तथा नमकीन और तत्पश्चात् चरपरे, कड़वे और कसैले पदार्थ ।
उष्णमश्नीयात्० स्निग्धमश्नीयात् मात्रावदश्नीयात्० जीर्णेऽश्नीयात्, वीर्याऽविरुद्धमश्नीयात्० इष्टे देशेऽश्नीयात् ० नातिद्रुतमश्नीयात् नातिविलम्बितमश्नीयात्० अजत्पन्नहसंस्तन्मना भुञ्जीत आत्मानमभिसमीक्ष्य भुञ्जीत सम्यक् ।। (चरकसंहिता (विमानस्थानम्) - १.३१-४०)
उष्ण भोजन करे । घृत दुग्धादियुक्त चिकना भोजन करे। मात्रा में भोजन करे । पहिले खाये हुए के अच्छी तरह से पच जाने पर भोजन करे। जो भोज्यपदार्थ परस्पर विरुद्ध न हों उन्हें खावे । उत्तम स्थान पर भोजन करे। अतिशीघ्र न खावे । बहुत धीरे-धीरे भी न खावे । बिना अधिक बोलते हुए और बिना हंसते हुए भोजन करे । अपने स्वास्थ्य आदि का भली-भांति विचार करके अच्छी प्रकार भोजन करे ।
त्रिविधं कुक्षौ स्थापयेदवकाशांशमाहारस्याऽऽहारमुपयुञ्जानः ।
तद्यथा-एकमवकाशांशं मूत्र्तानामाहारविकाराणामेकं द्रवाणामेकं पुनर्वातपित्तश्लेष्मणाम् ।। (च. वि. २.३)
भोजन करने वाला मनुष्य अपने पेट (आमाशय) के तीन भाग करे। एक भाग रोटी आदि ठोस पदार्थों के लिये, दूसरा भाग दूध, रस, पानी आदि द्रवपदार्थों के लिये और तीसरा भाग रिक्त रखे जिससे उस भाग में वात, पित्त, कफ का संचार हो सके ।
गुरूणामल्पमादेयं, लघूनां तृप्तिरिष्यते ।
मात्रां द्रव्याण्यपेक्षन्ते, मात्रा चाग्निमपेक्षते ।। (चरकसंहिता (सूत्रस्थानम्) - २७.३३९)
पचने में भारी भोज्य पदार्थ अल्प मात्रा में खाने चाहियें, हल्के पदार्थ तृप्ति पर्यन्त खाये जा सकते हैं । भोज्य पदार्थ मात्रा पर निर्भर हैं और मात्रा जठराग्नि पर निर्भर है ।
अत्यम्बुपानाद्विषमाशनाच्च, सन्धारणात् स्वप्नविपर्ययाच्च ।
कालेऽपि सात्म्यं लघु चापिभुक्तमन्नं न पाकं भजते नरस्य ।।
अति जल पीने से, अनियमित और अहितकारी भोजन करने से, वेगों के रोकने से और निद्रा की गड़बड़ी से मनुष्य के द्वारा खाया हुआ भोजन पचता नहीं है, भले ही वह समय पर खाया जाय, अपने अनुकूल हो और हल्का भी क्यों न हो ।
ईष्यांभयक्रोध-परिप्लुतेन, लुब्धेन रुग्दैन्यनिपीडितेन ।
प्रद्वेषयुक्तेन च सेव्यमानमन्त्रं न सम्यक् परिपाकमेति ।। (माधवनिदानम् -.अ.)
ईर्ष्या, भय तथा क्रोध से परिपूर्ण, लोभ से युक्त, रोग और दीनता से ग्रस्त तथा द्वेष से पूर्ण मनुष्य के द्वारा खाया जाता हुआ अन्न भली प्रकार से नहीं पचता है ।
मात्रयाऽप्यभ्यवहतं, पथ्यं चान्नं न जीर्यते ।
चिन्ताशोकभयक्रोध-दुःखशय्याप्रजागरैः ।। (चरकसंहिता (विमानस्थानम्) -२.१३)
मात्रा में खाया गया और हितकारक भी भोजन चिन्ता, शोक, भय, क्रोध, दुःख, कष्टदायी शय्या और विशेष जागरण आदि के कारण नहीं पचता है ।
बलमारोग्यमावुश्च, प्राणाश्चाम्नौ प्रतिष्ठिताः ।
अन्नपानेन्धनैश्चाग्निर्दीप्यते शाम्यतेऽन्यथा ।। (चरकसंहिता (सूत्रस्थानम्) -२७.३४०)
बल, स्वास्थ्य, आयु और प्राण जठराग्नि पर निर्भर हैं । जठराग्नि की दीप्ति अन्नपान रूपी इन्धन से होती है, अन्नपान के अभाव में वह बुझ जाती है ।
॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥
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