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अथ सुभाषितसंग्रहः ॥ अभयम्

 


॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥

अभयम्

ओ३म् यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कुरु ।
शन्नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः ।। (यजुर्वेदसंहिता - ३६.२२)

    हे भगवन् ! जिस जिस स्थान में आप अपने जगत्पालनादि कर्मों में सम्यक्तया प्रवृत्त हो, वहाँ वहाँ हमें निर्भयता प्रदान कीजिये । हम प्रजाओं के लिये शान्ति स्थापित कीजिये और हमारे पशुओं के लिये भी निर्भयता प्रदान कीजिये ।

अभयं नः करत्यन्तरिक्षमभयं द्यावापृथिवी उभे इमे ।
अभयं पश्चादभयं पुरस्तादुत्तरादधरादभयं नो अस्तु ।।

    ईश्वरकृपा से अन्तरक्षि हमें निर्भयता प्रदान करे, द्युलोक और पृथिवीलोक ये दोनों भी निर्भयता प्रदान करें । पीछे, आगे, ऊपर और नीचे भी हमें निर्भयता प्राप्त हो ।

अभयं मित्रादभयममित्रादभयं ज्ञातादभयं परोक्षात् ।
अभयं नक्तमभयं दिवा नः, सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु ।। (अथर्ववेदसंहिता - १९.१५.५,६)

    मित्र से और शत्रु से भी हमें निर्भयता प्राप्त हो। ज्ञात (जाने पहिचाने) से और अज्ञात प्राणी से भी हमें निर्भयता प्राप्त हो। रात्रि में और दिन में भी हमें निर्भयता मिले और सभी दिशाएँ (दिशाओं में स्थित प्राणी) मेरे मित्र बन जावें ।

यदन्ति यच्च दूरके भयं विन्दति मामिह ।
पवमान वि तज्जहि ।। (ऋग्वेदसंहिता - ९.६७.२१)

    हे पवित्र तथा सर्वत्र प्राप्त प्रभो ! समीप स्थान में और दूर स्थान में जो भय मुझे प्राप्त हो रहा है, उसे आप दूर कर दीजिये ।

यथा द्यौश्च पृथिवी च न विभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा बिभेः ।।

    जैसे द्युलोक और पृथिवीलोक न तो डरते हैं और न परेशान होते हैं, ऐसे ही हे मेरे प्राण ! तू मत डर ।

यथा सूर्यश्च चन्द्रश्च न विभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा विभेः ।। (अथर्ववेदसंहिता - २.१५.१,३)

    जैसे सूर्य और चन्द्रमा न तो डरते हैं और न ही परेशान होते हैं, ऐसे ही हे मेरे प्राण ! तू भी मत डर ।

सत्यमेवाभिजानीमो, नानृते कुर्महे मनः ।
स्वधर्ममनुतिष्ठामस्तस्मान्मृत्युभयं न नः ।।

    हम (महर्षि अरिष्टनेमि आदि) सत्य को ही जानते हैं असत्य में कभी अपना मन ही नहीं लगाते और अपने धर्म का पालन करते हैं, इसलिये हमें मृत्यु का भय नहीं है ।

यद् ब्राह्मणानां कुशलं, तदेषां कथयामहे ।
नैषां दुश्चरितं ब्रूमस्तस्मान्मृत्युभयं न नः ।।

    हम वेद और ईश्वर के ज्ञाता विद्वानों से उनका कुशल मङ्गल पूछते रहते हैं और उन पर कभी दुश्चरित्र का व्यर्थ आरोप नहीं लगाते, अतः हमें मृत्यु का भय नहीं है ।

अतिथीनन्नपानेन भृत्यानत्यशनेन च ।
सम्भोज्य शेषमश्नीमस्तस्मान्मृत्युभयं न नः ।।

    हम अतिथियों को विविध भोजन दूध आदि से खिला पिलाकर और भृत्यों को उत्तम भोजन से छकाकर-अच्छी प्रकार तृप्त करके, तब हम बचे हुए भोजन का सेवन करते हैं, अतः हमें मृत्यु का भय नहीं है ।

शान्ता दान्ताः क्षमाशीलास्तीर्थदानपरायणाः ।
पुण्यदेशनिवासाच्च तस्मान्मृत्युभयं न नः ।। तेजस्विदेशवासाच्च, तस्मान्मृत्युभयं न नः ।। (महाभा.व. १८४.१८-२१)

    हम लोग अपनी वृत्तियों को शान्त रखते हैं, मन को कुमार्ग से रोकते हैं, क्षमाशील हैं, गुरुजनों की सेवा में और दान करने में लगे रहते हैं तथा पुण्यात्मा लोगों से युक्त स्थान में निवास करते हैं, अतः हमें मृत्यु का भय नहीं है । तेजस्वी लोगों वाले देश में निवास करने के कारण भी हमें मृत्यु का भय नहीं है ।

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