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अथ सुभाषितसंग्रहः ॥ साधुः - सत्पुरुषः

 


॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥

साधुः - सत्पुरुषः

ध्रुवा साधुषु सन्नतिः । महाभारतम् - द्रोणपर्व - ७६।२५।

सज्जनों में नम्रता नित्य रहती है ।

 

श्रद्धेयः कथितो ह्यर्थः सज्जनश्रवणं गतः ।

चिरं तिष्ठति मेदिन्यां शैले लेखमिवापितम् ॥ महाभारतम् - अनुशासनपर्व -१३६ । ४३ ।

श्रद्धा के योग्य कही हुई बात सज्जन के कानों में पहुंची हुई पृथिवी पर पत्थर पर लकीर की तरह चिरतक ठहरती है ॥

 

न संस्मरन्त्यपराद्धानि स्मरन्ति सुकृतान्यपि ।

असंभिन्नमर्यादा : साधवः पुरुषोत्तमाः ॥ महाभारतम् - आश्रमवासिकपर्व - १२।२ ।

मर्यादा का भङ्ग न करने वाले पुरुष श्रेष्ठ सज्जन दूसरों के अपराधों को याद नहीं रखते, उनके शुभ कर्मों (उपकारों) को याद रखते हैं ।।

 

ओ३म् ऋतावान ऋतजाता ऋतावृधो घोरासो अनृतद्विषः ।
तेषां वः सुम्ने सुच्छर्दिष्टमे नरः स्याम ये च सूरयः ।। (ऋग्वेदसंहिता -७.६६.१३)
    हे नेतृत्व करने वाले सत्पुरुषो ! जो सत्याचरण से युक्त, सत्य से उत्पन्न, सत्य को बढ़ाने वाले, पाप निवारण में कठोरता बरतने वाले और झूठ से द्वेष रखने वाले आप लोग हो, उन आपके (द्वारा सेवित) अत्यन्त तेजोमय सुख में हम सदा वर्तमान रहें और जो ज्ञानी लोग हैं, वे भी आपके से सुख में निमग्न रहें ।

य उदाजन् पितरो गोमयं वसु, ऋतेनाभिन्दन् परिवत्सरे बलम् ।
दीर्घायुत्वमङ्गिरसो वो अस्तु, प्रति गृभ्णीत मानवं सुमेधसः ।। (ऋग्वेदसंहिता -१०.६२.२)
    हे प्रकाशमय जीवन वाले सत्पुरुषो ! जो आप लोग हमारे पालक होकर हमें पृथिवी गौ आदि से युक्त धन उत्कृष्टता से प्राप्त कराते हो और प्रतिवर्ष, बुद्धि को आवृत करने वाले अज्ञान को अपने सत्यज्ञान से विदीर्ण कर देते हो, ऐसे आप लोगों की आयु दीर्घ होवे । हे उत्तम मेधा सम्पन्न सज्जनो ! मानव-मात्र को अपनी शरण में लो।

वाक् सूनृता दया दानं, दीनोपगतरक्षणम् ।
इति सङ्गः सतां साधु, ह्येतत् सत्पुरुषव्रतम् ।। (कामन्द. ३.२)
    सत्य और मधुर वाणी, दया, दान, दीन-दुःखियों की रक्षा और भली प्रकार से सज्जनों की सङ्गति करना, ये ही सत्पुरुषों के व्रत हैं ।

प्रिया न्याय्या वृत्तिर्मलिनमसुभङ्गेऽप्यसुकरं, त्वसन्तो नाभ्यर्ध्याः सुहृदपि न याच्यः कृशधनः ।
विपद्युच्चैः स्थेयं पदमनुविधेयं च महतां, सतां केनोद्दिष्टं विषममसिधाराव्रतमिदम् ।। (नीतिशतकम् - २८)
    प्रिय किन्तु धर्म पर आधारित जीविका करना, प्राणान्त की संभावना होने पर भी अनुचित कार्य न करना, दुष्टों से कभी प्रार्थना न करना, अल्पधन वाले मित्र से भी याचना न करना, आपत्तिकाल में भी ऊँचे आदर्शों पर स्थिर रहना और महापुरुषों के चरणचिह्नों पर चलना, इन तलवार की धार के समान तीव्र व्रतों का सत्पुरुषों को किसने आदेश दिया है ? अर्थात् किसी ने नहीं। वे स्वभाव से ही इन व्रतों का पालन करते हैं ।

विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा, सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः ।
यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुती, प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम् ।।॥ (नीतिशतकम् - ६३)
    विपत्ति में धैर्य धारण करना, सम्पन्नता के दिनों में भी सहनशीलता, सभा में वाणी का कौशल प्रकट करना, युद्ध में पराक्रम दिखाना, कीर्ति प्राप्त करने में रुचि होना और वेदाभ्यास की आदत होना, ये महान् आत्माओं के स्वभावसिद्ध व्रत हैं ।

सम्पदि यस्य न हर्षो विपदि विषादो रणे च भीरुत्वम् ।
तं भुवनत्रयतिलकं जनयति जननी सुतं विरलम् ।। (हितोपदेशः, मित्रलाभः -३३)
    जिस मनुष्य को सम्पत्ति आने पर हर्ष नहीं होता, विपत्ति आने पर दुःख नहीं होता और युद्ध में भय नहीं होता । ऐसे तीनों लोकों को सुशोभित करने वाले विरले ही सन्तान को कोई माता जन्म देती है ।

मृद्धटवत् सुखभेद्यो, दुःसन्धानश्च दुर्जनो भवति ।
सुजनस्तु कनकघटवद् दुर्भेद्यश्चाशु सन्धेयः ।। (हितोपदेशः, मित्रलाभः -९२)
    दुष्ट मनुष्य, मिट्टी के घड़े के समान सरलता से फोड़ा (दूसरों से अलग किया) जा सकता है, पर उसको पुनः जोड़ना महाकठिन है; जबकि सज्जन मनुष्य सोने के घड़े के समान अति कठिनाई से फोड़ा जाता है, किन्तु उसे फिर से सरलता से जोड़ा जा सकता है ।

आमरणान्ताः प्रणयाः, कोपास्तत्क्षणभङ्गुराः ।
परित्यागाश्च निःसङ्गा, भवन्ति हि महात्मनाम् ।। (हितोपदेशः (मित्रलाभः) -१८)
    महापुरुषों की प्रीति मृत्युपर्यन्त स्थायी होती है, किन्तु उनका क्रोध तुरन्त शान्त होने वाला होता है और उनके यज्ञ दान आदि त्याग कर्म आसक्ति रहित होते हैं ।

श्लाघ्यः स एको भुवि मानवानां, स उत्तमः सत्पुरुषः स धन्यः ।
यस्यार्थिनो वा शरणागता वा, नाशाभिभङ्गाद् विमुखाः प्रयान्ति ।। (हितोपदेशः, मित्रलाभः -१९०)
    इस पृथिवी पर मनुष्यों में वही एक सत्पुरुष प्रशंसनीय, उत्तम और धन्य है, जिसके पास मांगने आये तथा जिसकी शरण की आस लेकर आये लोग, निराश होकर खाली हाथ नहीं लौटते हैं ।

यस्य प्रसादे पद्माऽऽस्ते, विजयश्च पराक्रमे ।
मृत्युश्च वसति क्रोधे, सर्वतेजोमय हि सः ।।
    जिस मनुष्य के प्रसन्न हो जाने पर लोगों को लक्ष्मी की प्राप्ति होती है, जिसके पराक्रम करने पर निश्चित विजय होती है और जिसके क्रोध करने पर दुष्टों की मृत्यु अवश्य होती है, वही मनुष्य सम्पूर्ण तेजों से युक्त है ।

आरभन्तेऽल्पमेवाऽज्ञाः कामं व्यग्रा भवन्ति च ।
महारम्भाः कृतधियस्तिष्ठन्ति च निराकुलाः ।। (हितोपदेशः (विग्रहः) -१२२)
    सामान्य अल्पज्ञ मनुष्य थोड़े से आरम्भ करते हैं; फिर भी शीघ्र दुःखी हो जाते हैं जबकि बुद्धिमान् लोग किसी कार्य को बड़े स्तरपर आरम्भ करते हैं, और कभी व्याकुल नहीं होते ।

यमर्थसिद्धिः परमा न मोहयेत्, तथैव काले व्यसनं न मोहयेत् ।
सुखं च दुःखं च तथैव मध्यमं, निषेवते यः स धुरन्धरो नरः ।। (महाभा.शा. २२६.१६)
    जिसको प्रयोजन की सफलता विचलित न कर सके और किसी समय आई हुई विपत्ति भी विचलित न करे तथा जो सुख, दुःख और दोनों के मध्य की स्थिति को यथावसर सह लेता है, वही मनुष्य 'धुरन्धर' (नेतृत्व करने वाला) कहलाता है ।

दाक्षिण्यं स्वजने दया परजने, दण्डः सदा दुर्जने, प्रीतिः साधुजने नयो नृपजने, विद्वज्जने चार्जवम् ।
शौर्यं शत्रुजने क्षमा गुरुजने, नारीजने सत्कृतिर् ये चैवं पुरुषाः कलासु कुशलास्तेष्वेव लोकस्थितिः ।। (नीतिशतकम् - २२)
    आत्मीय जनों के प्रति शालीनता, परायों के प्रति दया, दुष्टों को सदा दण्ड देना, सज्जनों के प्रति प्रेम, राजाओं के विषय में नीति का आचरण, विद्वानों के प्रति सरलता, शत्रुओं पर पराक्रम, गुरुजनों के प्रति सहनशीलता और स्त्रियों के प्रति सत्कार की भावना; इन कलाओं (व्यावहारिक गुणों) में जो मनुष्य कुशल हैं, उन्हीं पर मानो यह संसार टिका हुआ है ।

प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः, प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः ।
विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः, प्रारभ्य चोत्तमजना न परित्यजन्ति ।। (नीतिशतकम् - २७)
    निम्नकोटि के लोग विघ्नों के डर से किसी शुभ कार्य को आरम्भ ही नहीं करते और मध्य कोटि के लोग कर्म का आरम्भ तो कर देते हैं, किन्तु विघ्नों से सताये जाने पर उस कार्य को बीच में छोड़ देते हैं । पर उत्तम कोटि के लोग विघ्नों के द्वारा बारम्बार प्रताड़ित किये जाने पर भी, आरम्भ किये हुए सत्कार्य को बिना पूर्ण किये मध्य में नहीं त्यागते ।

वाञ्छा सज्जनसङ्गमे परगुणे प्रीतिर्गुरौ नम्रता, विद्यायां व्यसनं स्वयोषिति रतिर्लोकापवादाद् भयम् ।
भक्तिर्ब्रह्मणि शक्तिरात्मदमने, संसर्गमुक्तिः खले, एते येषु वसन्ति निर्मलगुणास्तेभ्यो नरेभ्यो नमः ।। (नीतिशतकम् -६२)
    सज्जनों की सङ्गति की इच्छा, अन्य मनुष्यों में स्थित गुणों में प्रीति, गुरुजनों के प्रति नम्रता, विद्याभ्यास की आदत, अपनी स्त्री से ही सन्तोष, लोकनिन्दा से भय, ईश्वर में भक्ति, अपने आपके नियन्त्रण में शक्ति का प्रयोग और दुष्टों की सङ्गति से बचे रहना, ये पवित्र गुण जिनमें निवास करते हैं; उन मनुष्यों को हमारा नमस्कार है ।

प्रदानं प्रच्छन्नं, गृहमुपगते सम्भ्रमविधिः, प्रियं कृत्वा मौनं, सदसि कथनं चाप्युपकृतेः ।
अनुत्सेको लक्ष्म्यां, निरभिभवसाराः परकथाः, सतां केनोद्दिष्टं, विषममसिधाराव्रतमिदम् ।। (नीतिशतकम् -६४)
    गुप्त रूप से दान देना, घर पर आये हुए का तत्परता से सत्कार करना, किसी का प्रिय कार्य करके चुप रहना और दूसरे के द्वारा अपना कार्य किये जाने पर उसका सभा में बखान करना, धनसम्पत्ति होने पर अभिमान न करना और दूसरों की चर्चा के प्रसंग में उनके लिये अपमानजनक वचन न कहना, इन तलवार की धार के समान तीक्ष्णव्रतों को करने का सत्पुरुषों को किसने आदेश दिया है ? अर्थात् किसी ने नहीं। वे अपने आप ही इन व्रतों का पालन करते हैं ।

करे श्लाघ्यस्त्यागः, शिरसि गुरुपादप्रणयिता, मुखे सत्या वाणी, विजयि भुजयोर्वीर्यमतुलम् ।
हृदि स्वच्छा वृत्तिः, श्रुतमधिगतं च श्रवणयो - विंनाऽप्यैश्वर्येण, प्रकृतिमहतां मण्डनमिदम् ।। (नीतिशतकम् -६५)
    हाथ में प्रशंसनीय दानकर्म, सिर में गुरुजनों के चरणों के प्रति श्रद्धा, मुख में सत्यवाणी, भुजाओं में विजय दिलाने वाला अनुपम बल, हृदय में निर्मल स्वभाव और कानों में प्राप्त किया हुआ शास्त्रज्ञान, ये उत्तम गुण, स्वभाव से ही महान् पुरुषों के बिना सम्पत्ति के भी उत्तम आभूषण हैं ।

सम्पत्सु महतां चित्तं, भवत्युत्पलकोमलम् ।
आपत्सु च महाशैल-शिलासङ्घात-कर्कशम् ।। (नीतिशतकम् -६६)
    सम्पन्नता के दिनों में महापुरुषों का चित्त कमल पुष्प की पंखुड़ी के समान कोमल रहता है और आपत्तियों में महापर्वत की विशाल शिला के समान कठोर बन जाता है ।

भवन्ति नम्रास्तरवः फलोद्गमै - र्नवाम्बुभिदूरविलम्बिनो घनाः अनुद्धताः सत्पुरुषाः समृद्धिभिः, स्वभाव एवैष परोपकारिणाम् ।। (नीतिशतकम् -७१)
    जैसे फलों के लगने पर वृक्ष झुक जाते हैं और नये-नये जलों से भरे हुए बादल, भूमि की ओर नीचे दूर-दूर तक लटक जाते हैं, ऐसे ही ऐश्वर्यों के आने पर सत्पुरुष अभिमान रहित - विनम्र हो जाते हैं, क्योंकि परोपकारी जनों का ऐसा स्वभाव ही है ।

एके सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थं परित्यज्य ये, सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाऽविरोधेन ये ।
तेऽमी मानुषराक्षसाः परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये, ये निघ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे ।। (नीतिशतकम् - ७५)
    एक तो वे सत्पुरुष होते हैं जो स्वार्थ को त्यागकर भी परोपकार में लगे रहते हैं; साधारण मनुष्य वे होते हैं, जो स्वार्थ की हानि न करते हुए परोपकार के कार्य में भाग लेते हैं और वे मनुष्य के रूप में राक्षस हैं जो स्वार्थ सिद्धि के लिये दूसरों के हित को नष्ट करते हैं; किन्तु जो निरर्थक ही-अपने स्वार्थ की सिद्धि उससे चाहे न हो, तो भी परहित को नष्ट करते हैं, उन्हें हम किस दुष्ट नाम से पुकारें ?

मनसि वचसि काये, पुण्यपीयूषपूर्णास् त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः ।
परगुणपरमाणून, पर्वतीकृत्य नित्यं, निजहृदि विकसन्तः, सन्ति सन्तः कियन्तः ।। (नीतिशतकम् -७९)
    जिन्होंने अपने मन, वाणी तथा शरीर में पुण्य-कर्म रूपी अमृत भरा हुआ है और जो अपने परोपकार के कर्मों से तीनों लोकों को तृप्त करते हैं । जो अन्यों के अल्प से भी गुणों को पर्वत के समान विशाल समझते हुए अपने हृदय में विकसित करते हैं, ऐसे सत्पुरुष कितने हैं ? अर्थात् कोई-कोई विरले ही हैं ।

अप्रियवचनदरिद्रैः प्रियवचनाढ्यैः स्वदारपरितुष्टैः ।
परपरिवादनिवृत्तैः क्वचित् क्वचिन्मण्डिता वसुधा ।। (नीतिशतकम् - १०६)
    कटुवचन बोलने में कंजूसी करने वाले, मधुर वचन बोलने में अति उदार, अपनी स्त्री से ही सन्तुष्ट रहने वाले और पराई निन्दा से बचने वाले, ऐसे सत्पुरुषों से यह पृथिवी कहीं कहीं ही सुशोभित है (सर्वत्र नहीं) ।

 

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