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अथ सुभाषितसंग्रहः ॥ सत्यम्

 


॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥

सत्यम्

अश्वमेधसहस्त्रं च सत्यं च तुलया धृतम् ।

अश्वमेधसहस्राद्धि सत्यमेव विशिष्यते ।। महाभारतम् - आदिपर्व - ७४।१०३।।

एक हजार अश्वमेध यज्ञों को और सत्य को तराजू में तोला गया । एक हजार अश्वमेध से सत्य का पलड़ा भारी रहा ॥

 

यद् भूतहितमत्यन्तं तत्सत्यमिति धारणा । महाभारतम् - वनपर्व ।

जो प्राणिमात्र का सबसे बड़ा हित है वह सत्य है ।

 

सत्यं व्रतपरं व्रतम् । 

सत्य व्रतों में बड़ा व्रत है ।

 

एकमेवाद्वितीयं तद्यद् राजन्नावबुध्यसे ।

सत्यं स्वर्गस्य सोपानं पारावारस्य नौरिव ॥ महाभारतम् - उद्योतपर्व - ३३।४७ ॥

हे राजन् जो एक चीज है जिस जैसी दूसरी कोई नही, तू उसे नही जानता । सत्य स्वर्ग की सीढ़ी है जैसे सागर पार करने के लिये नाव ॥

 

सत्येन रक्ष्यते धर्मः । महाभारतम् - उद्योतपर्व - ३४। ३९ 

सत्य से धर्म की रक्षा होती है ।

 

न तत् सत्यं यच्छलेनाभ्युपेतम् । महाभारतम् - उद्योतपर्व - ३५। ५८ ।

वह सत्य नहीं जो छल से युक्त हो ।

 

ओम् अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तच्छकेयं तन्मे राध्यताम् ।
इदमहमनृतात् सत्यमुपैमि ।। (यजुर्वेदसंहिता - १.५) व्रतेन दीक्षामाप्नोति, दीक्षयाऽऽप्नोति दक्षिणाम् ।
    हे ज्ञानप्रकाशमय ! कर्मों के रक्षक ईश्वर ! मैं उत्तम कर्म करूँगा (ऐसा सङ्कल्प करता हूँ), (ऐसी कृपा कीजिये कि मैं) उत्तम कर्माचरण में समर्थ हो सकूँ, मेरे कर्म को सिद्ध कीजिये । मैं अनृत (झूठ) से पृथक् होकर सत्य को प्राप्त होता हूँ ।

दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति, श्रद्धया सत्यमाप्यते ।। (यजुर्वेदसंहिता - १९.३०) अश्वमेधसहस्राणि, सत्यं च तुलया धृतम् ।
    मनुष्य उत्तम कर्म करने से दीक्षा (नियम-यज्ञादि-प्रधान निष्ठा) को प्राप्त करता है, दीक्षा से दक्षिणा (दक्षता और सम्पन्नता को) प्राप्त करता है । दक्षिणा से श्रद्धा को प्राप्त होता है और श्रद्धा से सत्य की प्राप्ति होती है ।

अश्वमेधसहस्राद्धि, सत्यमेवाति रिच्यते ।। (हितोपदेशः (सन्धिः) - १३१)
    यदि तराजू में एक ओर एक सहस्र अश्वमेध यज्ञों के अनुष्ठान को रखें और दूसरी ओर सत्य को रखें, तो सहस्र अश्वमेध यज्ञों की अपेक्षा सत्य वाला पलड़ा ही भारी होगा अर्थात् सहस्रों अश्वमेधों की अपेक्षा सत्य की महिमा अधिक है ।

स यः सत्यं वदति यथाग्निं समिद्धं तं घृतेनाभिषिञ्चति ।
एवं हैनं स उद्दीपयति । तस्य भूयो भूय एव तेजो भवति, श्वः श्वः श्रेयान् भवति ।। (शतपथ. २.२.२.१९)
    जो सत्य बोलता है वह वैसा ही आचरण करता है जैसे कोई प्रज्वलित अग्नि को घी से सींचे । घृत से अग्नि को सींचने वाले के समान ही वह सत्य से अपने आत्मा को प्रकाशित करता है । उस सत्यवादी का अधिकाधिक तेज बढ़ता है और वह दिन प्रतिदिन श्रेष्ठ होता जाता है ।

नास्ति सत्यात् परो धर्मो, नानृतात्पातकं परम् ।
स्थितिर्हि सत्यं धर्मस्य, तस्मात्सत्यं न लोपयेत् ।। (महाभा.शा. १६२.२४)
    सत्य से बढ़कर अन्य कोई श्रेष्ठ धर्म नहीं है और झूठ से बढ़कर पाप नहीं है । सत्य ही धर्म का आधार है । अतः सत्य का लोप न करे ।

सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् ।
प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः ।। (मनुस्मृतिः - ४.१३८)
    मनुष्य सत्य बोले और प्रिय बोले । ऐसा सत्य न बोले जो अप्रिय हो और ऐसा प्रिय वचन न बोले जो असत्य हो । यही सदा से चला आ रहा धर्म है ।

सत्यमेव जयते नानुतं, सत्येन पन्था विततो देवयानः ।
सत्यमेवन्त्यूषयो हह्याप्तकामा, यत्र तत्सत्यस्य परमं निधानम् ।। (मुण्ड. ३.१.६)
    सत्य ही जीतता है, झूठ नहीं, सत्य से ही देवयान मार्ग विस्तृत होता है - सदाचारी विद्वानों का मार्ग प्राप्त होता है । जिससे कि पूर्ण अभिलाषा वाले ऋषिलोग उस पद को प्राप्त करते हैं, जहाँ सत्य का परम भण्डार है ।

यथार्थकथनं यच्च, सर्वलोकसुखप्रदम् ।
तत्सत्यमिति विज्ञेयमसत्यं तद्विपर्ययः ।।
    किसी का ठीक ठीक ऐसा कथन करना, कि जो सब जगत् के लिये सुखदायी हो, वही सत्य जानना चाहिये और उससे विपरीत को असत्य ।

चत्वार एकतो वेदाः, साङ्गोपाङ्गाः सविस्तराः ।
स्वधीता मनुजव्याघ्र, सत्यमेकं किलैकतः ।। (महाभा. )
    हे नरश्रेष्ठ ! अन्नों, उपाङ्गों तथा व्याख्यानों सहित अच्छी तरह से अभ्यास किये हुए चारों वेद एक ओर तो अकेला सत्य एक ओर (उनसे स्पर्धा में डटा रहेगा) ।

सत्यस्य वचनं साधु, न सत्याद् विद्यते परम् ।
तत्त्वेनैव सुदुर्जेयं, पश्य सत्यमनुष्ठितम् ।।
    सत्य बोलना उत्तम है, सत्य से बढ़कर कुछ नहीं है । किन्तु देखो, तात्त्विक दृष्टि से सत्य के पालन का विषय अति कठिनाई से ही जाना जा सकता है ।

प्राणात्यये विवाहे वा, सर्वज्ञातिवधात्यये ।
नर्मण्यभिप्रवृत्ते वा, न च प्रोक्तं मृषा भवेत् ।।
    प्राणों पर सङ्कट आने के समय, विवाह-सम्बन्ध में, सम्पूर्ण ज्ञाति के नाश की सम्भावना के समय और हंसी मजाक में यदि कुछ अन्यथा भी कहा जाय, तो वह झूठ कहलाने योग्य नहीं है ।

अधर्म नात्र पश्यन्ति, धर्मतत्त्वार्थदर्शिनः ।
यः स्तेनैः सह सम्बन्धान्मुच्यते शपथैरपि ।।
    यदि प्राणघाती चोर आदि से पाला पड़ जाय, तो उस समय यदि (धनादिदान की) शपथ के द्वारा भी उनसे मुक्त हुआ जाय, तो इसमें अधर्म नहीं है, ऐसा धर्म के तत्त्व को जानने वालों का मत है ।

श्रेयस्तत्रानृतं वक्तुं, तत् सत्यमविचारितम् ।
न च तेभ्यो धनं देयं, शक्ये सति कथञ्चन ।।
    ऐसे स्थानों पर असत्य बोलना भी कल्याणकारक है, वस्तुतः वह अविचारित सत्य ही है । उन चोरों को यथासम्भव कभी भी धन नहीं देना चाहिये ।

पापेभ्यो हि धनं दत्तं, दातारमपि पीडयेत् ।
तस्माद् धर्मार्थमन्तमुक्त्वा नानृतभाग्भवेत् ।। (महाभा.क. ६९.३१,६२-६५)
    पापियों को दिया हुआ धन, दानदाता को भी पीड़ित कर सकता है । अतः धर्म-हेतु असत्य बोलकर भी मनुष्य असत्य के फल का भोक्ता नहीं होता है ।
 

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