*कुंभ मेला स्नान के वैकल्पिक मार्ग*:-
१) "गंगा गंगेति यो ब्रूयात् योजनानां शतैरपि ।
मुच्यन्ते सर्व पापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति ।।"
ब्रह्म पुराण (१७५/८२)
जो व्यक्ति सौ योजन (लगभग १५०० किमी०) दूर से भी यदि गंगा-गंगा पुकारता है, वह सब पापों से मुक्त होकर विष्णु लोक को प्राप्त होता है ।
२) "आजन्ममरणान्तं च गंगादितटिनी स्थिति ।
मण्डूक मत्स्य प्रमुखा योगिनस्ते भवन्ति किम् ।।
तस्मादित्यादिकं कर्म लोकरन्जन कारकम् ।
मोक्षस्य कारणं साक्षात् तत्वज्ञानं खगेश्वर ।।"
गरुड़ पुराण (१६/६८/७०)
मेंढक, मछली आदि प्राणी जन्म से मृत्यु तक गंगा आदि नदियों में ही निवास करते हैं, तो क्या वे योगी हो जाते हैं । हे गरुड़ ! ये मात्र मन को बहलाने वाली बातें हैं, मुक्ति तो साक्षात् तत्वज्ञान से ही मिलती है ।
३) "गंगातोयेन सर्वेण मृद् भरैरंगलेपन: ।
मर्त्यो दुर्गन्धदेहो$सौ भाव दुष्टो न शुद्धयति ।।"
पदम पुराण, भूमि खण्ड, (६६/८२)
चाहे कोई गंगाजल से स्नान करे या मिट्टी से, सारे शरीर को लीपा ले, परन्तु जिसका शरीर पापों के मल से लीपा है, ऐसी दुष्ट भावना वाला व्यक्ति कभी शुद्ध नहीं होता ।
४) "न जलाप्लुत देहस्य स्नानमित्यभिधीयते ।
स स्नातो यो दमस्नात: शुचि: शुद्ध: मनोमल: ।।"
स्कन्द पुराण, काशी खण्ड, (६/३३)
मात्र जल में डुबकी लगा लेने का नाम ही स्नान नहीं है, अपितु जिसने इन्द्रिय संयम रुपी स्नान किया है, वास्तव में वही स्नातक (नहाया हुआ) है और जिसका चित्त शुद्ध हो गया है, वही पवित्र है ।
५) "इदं तीर्थमिदं तीर्थं भ्रमन्ति तामसा जना: ।
आत्म तीर्थं न जानन्ति कथं मुक्तिर्वरानने ।।"
भागवत पुराण
यह तीर्थ है, वह तीर्थ है, ऐसा मानते हुए अज्ञानी लोग दर-दर भटकते हैं । वे आत्मा रुपी तीर्थ को नहीं जानते । ऐसे लोगों की मुक्ति भला कैसे हो सकती है ?
६) "नाम्बमयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामया: ।
न ते पुनन्त्युरुकालेन दर्शनादेव साधव: ।।"
भागवत पुराण (१०/८४/११)
जल के तीर्थ नहीं होते, मिट्टी-पत्थर की मूर्तियां देवता नहीं होती । वे बहुत समय में भी पवित्र नहीं करते, बल्कि संत-महात्माओं के दर्शन ही पवित्र करते हैं ।
७) "अद्भिर्गात्राणि शुद्धयन्ति मन: सत्येन शुद्धयति ।
विद्या तपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुद्धयति ।।"
मनु धर्मशास्त्र (५.१०९)
जल से तो मात्र शरीर शुद्ध होता है । मन की शुद्धि सत्य से, आत्मा की शुद्धि विद्या से और बुद्धि ज्ञान से शुद्ध होती है ।
८) "ज्ञानहृदे सत्यजले रागद्वेष मलापहे ।
य: स्नाति मानसे तीर्थे स वै मोक्षमाप्नुयात् ।।"
गरुण पुराण (१६/१११)
ज्ञान कुण्ड है, सत्य उसका जल है, जो रागद्वेष रुपी मल को दूर करने वाला है । जो व्यक्ति ज्ञान रुपी कुण्ड के सत्य रुपी जल में स्नान करता है, वह मोक्ष को प्राप्त होता है ।
९) "तीर्थो कुर्वन्ति तीर्थानि ।"
(भागवत पुराण)
भगवदीय गुणों के कारण महापुरुषों को ही तीर्थ कहा जाता है ।
१०) जिस भू-भाग में संत, महापुरुष वास करते हैं, उन संत, महापुरुषों के कारण ही वह स्थान तीर्थ कहलाता है तथा तीर्थ करने का अर्थ संत, महापुरुषों के दर्शन (उपदेशों, विचारों) का लाभ प्राप्त करना होता है ।
(स्कन्द पुराण)
११) "कले: पन्चसहस्रं च वर्ष स्थित्वा तु भारते ।
जग्मुस्ताश्च सरिद्रूपं विहाय श्रीहरे: पदम् ।।"
(देवी भागवत पुराण)
कलियुग के पांच हजार वर्ष व्यतीत होने पर गंगा आदि तीर्थ भारत भूमि को त्यागकर वैकुण्ठ चले जायेगें ।
इस समय कलियुग के ५१६२ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं । अत: अब गंगा आदि में स्नान करने से मुक्ति नहीं होगी ।
१२) "यदाचरति कल्याणि शुभं वा यदि वा$शुभम् ।
तदेव लभते भद्रे कर्ता कर्मजमात्मन: ।।"
(बाल्मीकि रामा० अयो० काण्ड)
महाराज दशरथ श्रीराम वनवास के दु:ख में प्राण त्यागने से पहले श्रवण-वध के पाप का स्मरण करते हुए कौशल्या से कहते हैं, हे कल्याणी ! मनुष्य अपने जीवन में अच्छा या बुरा जैसा भी कर्म करता है, उसे उसका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है ।
इसकी पुष्टि में महाभारत ग्रंथ में भी सैंकड़ों प्रमाण उपलब्ध हैं ।
यहां तक हमने आपके समक्ष सभी पौरुषेय (मनुष्य-कृत) ग्रन्थों के उपदेश रखे हैं, किन्तु अब हम आपको अपौरुषेय ग्रन्थ ईश्वर की वाणी वेद का दर्शन कराते हैं कि आपसब के लिए सृष्टि कर्ता परमात्मा का क्या आदेश है ?
१३) वेद मनुष्य मात्र के लिए वह अनिवार्य ज्ञान है, जो परमात्मा के द्वारा मानव सृष्टि के आरम्भ में अग्नि आदि चार ऋषियों के माध्यम से सृष्टि की बुकलेट के रुप में मनुष्य को सुखी जीवन जीने के लिए दिया गया । वेद और मनुष्य कृत ग्रन्थों में एक बड़ा अंतर यह है कि मनुष्य कृत ग्रन्थों में अनेक परस्पर विरोधी कथन मिलते हैं, जबकि चारों वेदों में कहीं भी परस्पर विरोधी कथन नहीं हैं ।
कर्मफल नष्ट होने के सम्बंध में सब मनुष्यों के लिए वेद का स्पष्ट उपदेश है -
"न किल्विषमत्र नाधारो अस्ति न यन्मित्र: समममान एति ।
अनूनं पात्रं निहितं न एतत् पक्तारं पक्व: पुनराविशति ।।"
(अथर्ववेद १२.३.४८)
परमेश्वर के राज्य में कोई अन्याय नहीं है । वहां न देर है, न अंधेर है । कोई अकारण पीड़ित भी नहीं है । वहां न किसी की सिफारिश चलती है, न किसी के साथ कोई रियायत होती है । और न वहां कोई मित्र ही सहायक होता है । वहां तो पूरा-पूरा न्याय होता है । जो जैसा कर्म करता है, वैसा ही फल पाता है ।
अब भगवान मनुष्यों को मुक्ति का मार्ग बताते हुए कहते हैं -
"युजे वां ब्रह्म पूर्व्यं नमोभिर्वि श्लोक$एतु पथ्येव सूरे: ।
श्रृण्वन्तु विश्वे अमृतस्तस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थु: ।।"
(यजुर्वेद ११/५)
सब लोग यह बात कान खोलकर सुन लें कि आपके पूर्वजों ने योग मार्ग से ही परमधाम की यात्रा की है । इसलिए जो योग साधना करेगा, ब्रह्म में मन लगायेगा, वही परमगति को पायेगा ।
ऐसा नहीं है कि लोक में वेद का किसी ने अनुकरण नहीं किया । आदि सृष्टि से लेकर महाभारत काल के बहुत बाद तक सनातन धर्म की मुख्य धारा वेद के योगमार्ग पर ही चली है । बाल्मीकि रामायण के अनुसार रामायण काल में सब लोग संध्या, यज्ञ, योग के ही अनुरागी थे, गीता में भी अनेकत्र परमात्मा प्राप्ति के लिए योग मार्ग ही बताया गया है । सनातन धर्म में अनेक अवैदिक पूजा पद्धति महाभारत काल के बहुत बाद में प्रचलित हुई है । सभी मार्ग, सभी धर्म ईश्वर प्राप्ति के मार्ग है । यह कहकर जनता को भ्रमित करने वाले कलियुगी कथाकर यदि बाल्मीकि रामायण और महाभारत को भी ठीक से पढ़ लें, तो इनकी आखें खुल जाये । वेद, उपनिषद आदि सत्यशास्त्र इस बात को कहते हैं कि मोक्ष प्राप्ति होने में कई-कई जन्म लग जाते हैं, और जो अनभिज्ञ लोग मोक्ष प्राप्ति के लिए मिथ्यामार्ग पकड़ लेते हैं, उन्हें भी घूम फिर कर अन्त में योगमार्ग पर ही आना पड़ता है । मुक्ति प्राप्ति का मार्ग बताते हुए वेद के स्वर में स्वर मिलाते हुए महर्षि वेदव्यास लिखते हैं -
"पूर्वे समुद्रे य: पन्था स न गच्छति पश्चिमम् ।
एक: पन्था हि मोक्षस्य तन्मे निगदत: श्रृणु ।।
----------------------------- योग साधनम् ।।"
(महाभारत शान्ति पर्व)
हे युधिष्ठिर ! जो मार्ग पूर्व समुद्र की ओर जाता है, वह कभी पश्चिमी समुद्र की ओर नहीं जा सकता । इसी प्रकार मोक्ष प्राप्ति के भी अनेक मार्ग नहीं हैं, मात्र एक ही मार्ग है - योगमार्ग ।
"अप्रमाण्यं च वेदानां शास्त्राणां चाभिलंघनम् ।
अव्यवस्था च सर्वत्र एतन्नाशनमात्मन: ।।"
(महा० अनुशासन पर्व)
महर्षि व्यास कहते हैं कि वेद की बात का प्रमाण न मानना, शास्त्राज्ञा का उलंघन करना और सब जगह अव्यवस्था फैलाना, ये सब अपने ही नाश के कारण हैं ।
निष्कर्ष :- उपर्युक्त कथनों से निष्कर्ष -
१) ब्रह्म पुराण (क्रमांक १) के अनुसार श्रद्धालुओं को पाप नाश, मुक्ति अथवा स्वर्ग प्राप्ति के लिए गंगा के तट पर जाने की आवश्यकता नहीं, बल्कि गंगा तट से १५०० किलोमीटर दूर रहकर अथवा अपने घर से ही गंगा-गंगा पुकार कर स्वर्ग प्राप्ति कर सकते हैं ।
२) क्रमांक (२-१०) के के अनुसार जल के कुंड कभी तीर्थ नहीं होते और न ही इनमें स्नान करने से पाप नष्ट होते हैं, अपितु सन्त, महापुरुष ही वास्तविक तीर्थ होते हैं और संत, महापुरुषों के दर्शन (सिद्धान्त, विचार) ही मनुष्यों को पवित्र करने वाले होते हैं ।
३) माना कि गंगा आदि नदी तीर्थ हैं, तो भी देवी भागवत पुराण (क्रमांक ११) के उपदेशानुसार कलियुग के पांच हजार वर्ष से अधिक व्यतीत हो जाने के कारण गंगा आदि तीर्थ भारत भूमि को त्यागकर बैकुंठ जा चुके हैं और अब इनमें स्नान करने से मुक्ति नहीं मिलती । प्रत्यक्ष प्रमाण के अनुसार भी इस प्रकार किसी की मुक्ति होती नहीं दिखती, क्योंकि इन तीर्थों पर जाकर मुक्त कितने लोग हुए उसका कोई स्पष्ट प्रमाण अथवा साक्षी नहीं है, किंतु प्रति वर्ष कटकर, डूबकर और कुचलकर मरने वालों का इतिहास साक्षी है । विदुर नीति के अनुसार भी प्रत्यक्ष को छोड़कर अप्रत्यक्ष पर भरोसा करना अनुचित है ।
४) वेद, बाल्मीकि रामायण और महाभारत (क्रमांक १२, १३) के प्रमाणानुसार शुभ-अशुभ कर्मों का फल कभी भी बिना भोगे नष्ट नहीं होता । इसलिए परमात्मा की सृष्टि में रहते हुए सभी मनुष्यों को लौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के सुखों की सिद्धि के लिए दर-दर भटकने के अपेक्षा परमात्मा का बताया हुआ वेदमार्ग ही अपनाना चाहिये ।
अत: विवेकी जन उपर्युक्त उपदेशों पर विचार करते हुए मुक्ति के लिए लम्बी-लम्बी यात्राएं, मेले और झमेलों का चक्कर छोड़कर सही मार्ग से अपनी मनोकामना पूर्ण कर सकते हैं ।
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