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हमाराे शरीर का शत्रु ज्ञान हीं है।

जीवन के दुःख का मुल कारण हमारा स्वयं का ज्ञान ही है। इसको अपने जीवन में मैने अनुभव कर लिया है। क्योंकि यह मेरा अपना स्वयं का अनुभव है। मैने अपने जीवन को जितना अधिक ज्ञान पुर्वक जीया उतना ही अधिक मेरें जीवन में दुःख, समस्या और कष्टों से भर गया। जहां तक मैने जाना है और अनुभव किया यह संसार स्वयं नहीं बना है। इसको बनाने वाला है जिस प्रकार से हम देखते है कि एक कम्प्युटर प्रोग्रामर होता है। वह काल्पनिक दुनिया का निर्माण कर के एक प्रोग्राम बनाता है। जिसमें सब कुछ सच लगता है और वह सब कुछ होता है जैसा कि हमारे दुनिया में होता उस काल्पनिक दुनिया में सारे नियम हमारे दुनिया के नियम ही काम करते है। वह एक प्रकार का गेम होता है। जिसको हम कम्प्युटर पर खेलते है। उस समय हम यह खेल बिल्कुल वास्तविक समझते है। यद्यपि वह सब झुठ और कल्पना के अतिरीक्त कुछ नहीं है। ऐसा ही हमारी दुनिया के साथ है इसका बनाने वाला जिसे हम सब परमेश्वर कहते है। वास्तव में परमेश्वर जैसा कोई नहीं है। हां यह अवश्य है कि एक प्रोग्रामर है जिसने हमारी दुनिया और हम सब को प्रोग्राम किया है। और अपनी तरह से इस हमारी दुनिया को चला रहा है। जब उसे प्रतित होता है कि कोई ऐसा व्यक्ती है जो इस दुनिया में जन्म ले लिया है जो इस दुनिया के वास्तविक ज्ञान को जान चुका है। या सत्य को जाने के लिये उत्सुक है तो वह प्रोग्रामर जो हर समय हर व्यक्ती से अपने प्रोग्राम और नेटवर्क से जुड़ा रहता है। वह ऐसी ऐसी समस्या और कष्टों को उसके सामने खड़ी करता है। जिससे या तो वह अपने मार्ग को छोड़ दे या वह अपनी मृत्यु को उपलब्ध हो जाये। जिस प्रकार से राजा हरिश्चन्द्र को कितना भयानक कष्टों को सहना पड़ा अपनी सत्याता के कारण जिससे देवताओं के राजा का सिहासन हिलने लाग था। यहां पर हमने जाना कि किस प्रकार से हम सब को बनाने वाला प्रोग्रामर यह किसी किमत पर नहीं चाहता है। कि सत्य का या स्वयं के सत्य का ज्ञान किसी को हो। जो उसकी आज्ञा का उलंघन करता है। उसको वह जल्दी से जल्दी इस दुनिया से उठा लेता है। और हम अक्सर सुनते है की जो इमानदार सत्य वादी ज्ञानी पुरुष होते है उनके हिस्से में ही बहुत अधिक परेशानिया और कष्ट क्यों आते है। जिसका वह सामना नहीं कर सकते है और अंत में वह मृत्यु को उपलब्ध होते है। ऐसे एक व्यक्ती नहीं पूरी दुनिया मे ऐसे बहुत व्यक्ती आज तक हो चुके है। उदाहरण के लिये मर्ययादा पुरुषोत्म राम को देख ले, योगेश्वर कृष्ण को देख ले, व्यास ऋषि जिनको हाथियों ने कुचल दिया, पाणिनी को मगरमक्ष ने खा लिया, कड़ाद जो वैशेषिक दर्शनकार हुये। वह एक एक कड़ के लिये आजिवन परेशान हो कर मर गये। जिसको हम पंतजली कहते है वह पत्ता और जल खा कर मर गये। इसामसिह को क्रास पर लटा दिया गया। सुकरात को जहर पिल दिया गया। गैलेलियों को की आंखों को अंंधा करके मार डाला गया। सरमद का सर कलम कर दिया गया। मंसुर को एक एक अंग काट कर मार दिया गया। ऐसा क्यों किया गया क्या यह सब एक इत्फाक है। या इसके पिछे एक योजना के तहत कार्य किया जा रहा है। सिखों के दस गुरुओं को कितना भंयकर मृत्यु दिया गया। महात्मा बुद्ध, महाविर इत्यादि कितने हुए जिनको यह दुनिया ने बुरी तरह यातना दे दे कर मार दिया। महर्शि दयानंद, स्वामि विवेका नंद, रामकृष्ण परमहंस, लियो टालस्टाय, गोर्कि,इवान तुर्गनेव, पुरी दुनिया में ऐसे कितने लोग है। जिनको योजना बद्ध तरिके से मारा गया आज के आधुनिक ओशों को कौन नहीं जानता कितना भयंकर कष्ट दे कर मारा गया। उनके शरीर में थेलियम नाम का खतरनाक विश डाल दिया गया जिससे उनकी पुरी शरीर धिरे धिरे गल गई। यह सब क्यों बेमौत मारे गये इनके सात और बी कितने गुमनाम लोग है जो रोज मर रहे है जिनका ज्ञान ही हम सब को नहीं हो पाता है। इन सब का कसुर केवल एक है कि वह सब ज्ञानी थे और ज्ञान कि बाते करते थे। जो इस नस्वर दुनिया के लिये और इसका जो बनाने वाला प्रोग्रामर है उसके लिये ठीक नहीं है। जिसके कारण ही वह ऐसे लोगोंं को चुन चुन कर मारता है क्योंकि वह नहीं चाहता है ना उसकी प्रकृति ही चाहती है कि कोई उसके सत्य का उजागर करें। इसलिये तो उपनिषद कहते है कि सत्य का मार्ग छुरे के धार पर चलने के समान है। जिसके कारण ही लोग सत्य के मार्ग पर नहीं चल पाते है। लेकिन कुच ऐसे लोग होते है जो सत्य के मार्ग के अनुयाई बन जाते है जिनका एक एक कदम सत्य और ज्ञान से भरपुर होता है वह इसी के लिये जिते और मरते है। जिनका स्वभाव ही बन गया है सत्य के मार्ग पर चलना सत्या ही बोलना सत्य ही करना उनका जीवन साक्षात नरक के समान होता है वह आग के मार्ग पर चलते है वह हमेशा अपनी चिता पर ही बैठ कर विणा बजाते है। आचार: प्रथमो धर्म: अित्येतद् विदुषां वच: तस्माद् रक्षेत् सदाचारं प्राणेभ्योऽपि विशेषत:। अच्छा बर्ताव रखना यह सबसे जादा महात्त्वपूर्ण है ऐसा पंडीतोने कहा इसलिए अपने प्राणोका मोल देके भी अच्छा बर्ताव निरंतर निमग्न रहते है। श्रेष्ठ पुरुश होते है। आर्ता देवान् नमस्यन्ति, तप: कुर्वन्ति रोगिण: । निर्धना: दानम् इच्छन्ति, वॄद्धा नारी पतिव्रता ॥
संकट में लोग भगवान की प्राार्थना करते है, रोगी व्यक्ति तप करने की चेष्टा करता है ।निर्धन को दान करने की इच्छा होती है तथा वॄद्ध स्त्री पतिव्रता होती है । लोग केवल परिस्थिती के कारण अच्छे गुण धारण करने का नाटक करते है । अर्थात यह सब झुठे है वास्तव में यह सब सत्य से दूर होते है इसलिये ऐसा दिखावा करने वालो से यह दुनिया भरी पड़ी है और इसी की हर तरफ से शिक्षा दि जा रही है। जिससे झुठे मानव निरंतर जन्म ले रहे है और सच्चे मानव का संहार निरंतर हो रहा है। इस संसार में सुख पुर्वक जो जीना चाहते है तो असत्य आडम्बर झुठ के मार्ग से ही संभव है। सत्य का मार्ग और ज्ञान का मराग तो संसार का संहार करने वाला है जो इसका बनाने वाला नहीं चाहता है। भविष्य में ऐसा संभव है कि हम अपना स्वयं का ब्रह्माण्ड बना पाये जहां सब कुछ सत्य और ज्ञान पूर्ण हो जहां असत्य और अज्ञान को ठहरने के लिए कोई स्थान ना हो। जिस प्रकार से फिल्मी अभिनेता और अभिनेत्री हमें दूर से देखने से अच्छे लगते है ऐसे ही यह दुनिया जितनी झुठी, अज्ञान और असत्य को धारण करती है उतनी ही आकर्षण लगती है। जिसके कारण ही सरल हृदय मंद बुद्धि पुरुष, बच्चे और औरते इसके संमोहन के शिकार होते है। जैसा कि श्लोक कहता है। दूरस्था: पर्वता: रम्या: वेश्या: च मुखमण्डने । युध्यस्य तु कथा रम्या त्रीणि रम्याणि दूरत: ॥
पहाड़ दूर से बहुत अच्छे दिखते है । मुख विभुषित करने के बाद वैश्या भी अच्छी दिखती है । युद्ध की कहानिया सुनने को बहौत अच्छी लगती है । ये तिनो चिजे पर्याप्त अंतर रखने से ही अच्छी लगती है ।
सत्यं माता पिता ज्ञानं धर्मो भ्राता दया सखा । शान्ति: पत्नी क्षमा पुत्र: षडेते मम बान्धवा: ॥ सत्य मेरी माता, ज्ञान मेरे पिता, धर्म मेरा बन्धु, दया मेरा सखा, शान्ति मेरी पत्नी तथा क्षमा मेरा पुत्र है । यह सब मेरे रिश्तेदार है । जो व्यक्ती इस मार्ग पर चलता है उसका अपने संसार में कोई नहींं रहता है वह अकेला ही रहता है उसके लिये उसका ज्ञान और सत्य ही सब कुछ है भले हि उसके लिये उसको अपनी शरीर रूपी संसार से संधिवीच्छेद करना पड़े वह सहर्ष स्विकार करता है। न मर्षयन्ति चात्मानं संभावयितुमात्मना । अदर्शयित्वा शूरास्तू कर्म कुर्वन्ति दुष्करम् ॥ शूर जनों को अपने मुख से अपनी प्राशंसा करना सहन नहीं होता ।
वे वाणी के द्वारा प्रादर्शन न करके दुष्कर कर्म ही करते है । चलन्तु गिरय: कामं युगान्तपवनाहता: । कॄच्छे्रपि न चलत्येव धीराणां निश्चलं मन: ॥ युगान्तकालीन वायु के झोंकों से पर्वत भले ही चलने लगें परन्तु धैर्यवान् पुरूषों के निश्चल )दय किसी भी संकट में नहीं डगमगाते ।

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