पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मीन्समूह तेजो यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि योऽसावसौ पुरुषः सोऽहमस्मि ॥ १६ ॥ स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
प. क्र० – (पूषन्) उन्नति करने वाला । (एकर्षे) वेदज्ञ (यम) न्यायकारी । (सूर्य) अन्तर्यामी प्रकाशक, (प्राजापत्य) संसार रक्षक । (व्यूह) हमसे दूर कर । (रश्मीन्) किरणें । (समूहः) कुल । (तेजः) तेज (यत्) जो । (ते) तेरा । (रूपं) रूप । (कल्याणतमम्) कल्याण देने वाला । (तत्) वह (ते) तेरा । (पश्यामि) देखता हूँ । (यः) जो (सः) वह । (असौ) यह । (पुरुषः) व्यापक चैतन्य परमात्मा (सः) वह । (अहम्) मैं । (अस्मि) हूँ । अर्थ- हे वेद के जानने वालो मैं सब से श्रेष्ठ परमात्मन् ! आप सबके अन्तर्यामी, प्रेरणा करने वाले, सूर्य के समान प्रकाश वाले, सब दुखों से मुझे पृथक करके सुख का रास्ता दिखाने वाले अपने, तेज को हम पर फैलाइये । आपका सबसे अधिक कल्याण करने वाला जो स्वरूप है जिससे प्राणियों को ऐसा आनन्द मिलता है कि जिससे बढ़कर या उसके तुल्य आनन्द कहीं नहीं मिलता, हम समाधि के द्वारा उस आनन्द को देख सकें । ऐसी विद्या हमे दान कीजिये, जिससे हमको प्रकट हो जाय कि हम पुरुष अर्थात् विकारों से हमारा कोई सम्बन्ध नहीं ।
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