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ईशा वास्योपनिषद मंत्र -17 हिन्दी भाष्य सहित

 वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम् । ओं क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर ॥ १७ ॥ 
स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
प० क्र० – (वायु) हवा । (अनिलम्) आपसे मिली हुई शक्ति । (अमृतम्) मरने से रहित । (अर्थ) उपरान्त । (इदम्) यह । (भस्मान्तम्) जिसके अन्त मे भस्म ही शेष रहे ऐसा । (शरीरम्) शरीर है । (ओ३म्) ईश्वर । (क्रतो) संकल्प करने वाले । (स्मर) यादकर । (कृतम्) किये हुए कर्मों को । क्रतो स्मर और क्रत स्मर । (स्मर कथन) याद कर । दो बार समाप्ति का सूचक है । अर्थ- वायु और अग्नि से मिली हुई शक्ति अर्थात् प्राण और मृत्यु से रहित अर्थात् जीवात्मा के निकल जाने के पश्चात् यह शरीर भस्म हो जाने वाला है । जब तक इसमें प्राण हैं, तभी तक भूख-प्यास और प्रत्येक प्रकार की चेष्टाये होती हैं और जब तक इसके भीतर जीवात्मा रहता है, तभी तक ज्ञान रहता है और जब प्राण और जीवात्मा निकल गये, तब यह शरीर किसी कार्य के योग्य नहीं रहता । वह सम्बन्धी जो पहले इसकी रक्षा के निमित्त हजारों प्रकार का परिश्रम करने के लिये उद्दत रहते थे, जो छोटी-सी बुराई को भी न देख सकते थे, जहाँ कुछ भी मिट्टी लग जाती थी, वहाँ धोने-पोछने का प्रबन्ध करते थे, जब प्राण और जीव निकल गया तो वह स्वयं अपने हाथो से लकड़ी लगाकर उसमें आग डाल इस शरीर को भस्म कर देते हैं । इस कारण हे कर्म करने वाले मनुष्य ! तू ’ओ३म्’ रक्षा करने वाले परमात्मा को स्मरण कर, जिससे तुझमें ज्ञान-शक्ति बढ़कर तुझे मोक्ष के रास्ते का अधिकारी बना सके । तुम आत्मिक बल के हेतु बल देने वाले का ध्यान करो और अपने किये हुए पुराने कर्मों को स्मरण करो जिससे तुम्हे दुःखों से छूटने का मार्ग मिल सके । तात्पर्य यह है कि इस शरीर को नाश होने वाला समझकर आत्मिक बल देने वाले परमात्मा की उपासना करनी चाहिये, जिससे मनुष्य की आत्मा बल पाकर संसार की कुरीतियों और इन्द्रियों की कामना का साम्मुख्य करती हुई जीवनध्येय पर पहुँच सके ।
आचार्य राजवीर शास्त्री
पदार्थः—(वायुः) धनञ्जयादिरूपः (अनिलम्) कारणरूपं वायुम् (अमृतम्) नाशरहितं कारणम् (अथ) (इदम्) (भस्मान्तम्) भस्म अन्ते यस्य तत् (शरीरम्) यच्छीर्य्यते=हिंस्यते तदाश्रयम् (ओ३म्) एतन्नाम- वाच्यमीश्वरम् (क्रतो) यः करोति जीवस्तत्सम्बुद्धौ (स्मर) पर्य्यालोचय (क्लिबे) स्वसामर्थ्याय (स्मर) (कृतम्) यदनुष्ठितं तत् (स्मर) ॥१५॥ अन्वयः—हे क्रतो ! त्वं शरीरत्यागसमये (ओ३म्) स्मर, क्लिबे परमात्मानं स्वस्वरूपं च स्मर, कृतं स्मर । अत्रस्थो वायुरनिलमनिलोऽमृतं धरति । अथेदं शरीरं भस्मान्तं भवतीति विजानीत ॥१५॥ सपदार्थान्वयः —हे क्रतो! यः करोति जीवस्तत्सम्बुद्धौ! त्वं शरीरत्यागसमये ओ३म् एतन्नाम- वाच्यमीश्वरं स्मर पर्य्यालोचय; क्लिबे स्वसामर्थ्याय परमात्मानं स्वस्व रूपं च स्मर पर्य्यालोचय; कृतं यदनुष्ठितं तत् स्मर पर्य्यालोचय। अत्रस्थो वायुः धनञ्जयादि- रूपः अनिलम् कारणरूपं वायुम् अनिलोऽमृतं नाशरहितं कारणं धरति । अथेदं शरीरं यच्छीर्य्यते= हिंस्यते तदाश्रयं भस्मान्तं भस्म अन्ते यस्य तत् भवतीति विजा- नीत ॥४०।१५॥ भावार्थः— मनुष्यैर्यथा मृत्युसमये चित्तवृत्तिर्जायते, शरीरादात्मनः पृथग्भावश्च भवति; तथैवेदानीमपि विज्ञेयम् । एतच्छरीरस्य भस्मान्ता क्रिया कार्या; नाऽतो दहनात्परः कश्चित् संस्कारः कर्त्तव्यः । भाषार्थ—हे (क्रतो) कर्म करने वाले जीव ! देहान्त के समय (ओ३म्) ओ३म्, यह जिसका निज नाम है उस ईश्वर को (स्मर) चारों तरफ देख; (क्लिबे) अपने सामर्थ्य की प्राप्ति के लिए परमात्मा और अपने स्वरूप को (स्मर) याद कर; (कृतम्) और जो कुछ जीवन में किया है उसको (स्मर) स्मरण कर। यहां विद्यमान (वायुः) धनञ्जयादि रूप वायु (अनिलम्) कारण रूप वायु को और अनिल (अमृतम्) नाशरहित कारण को धारण करता है । (अथ) और (इदम्) यह (शरीरम्) चेष्टादि का आश्रय, विनाशी शरीर (भस्मान्तम्) अन्त में भस्म होने वाला होता है, ऐसा जानो ॥४०।१५॥ भावार्थ—जैसे मृत्यु के समय चित्त की वृत्ति होती है; और शरीर से आत्मा का पृथक् भाव होता है; वैसी ही चित्त की वृत्ति तथा शरीर-आत्मा के सम्बन्ध को जीवनकाल में भी सब मनुष्य जानें। इस शरीर की भस्मान्त-क्रिया (अन्त्येष्टि) करनी चाहिए; इस दहन-क्रिया के पश्चात् कोई भी संस्कार नहीं करना चाहिए । वर्त्तमानसमय एकस्य परमेश्वरस्यैवाऽऽज्ञापालनमुपासनं; स्वसामर्थ्यवर्द्धनञ्चैव कार्यम् । कृतं कर्म विफलं न भवतीति मत्वा, धर्मे रुचिरधर्मेऽप्रीतिश्च कर्त्तव्या ॥४०।१५॥ इदम्=एतत् । ओ३म्=एकः परमेश्वरः । स्मर= आज्ञापालनमुपासनञ्च कुरु । क्लिबे=स्वसामर्थ्यवर्द्धनाय । कृतम्=कृतं कर्म ॥४०।१५॥ भाष्यसार—देहान्त के समय क्या करें—कर्म करने वाला जीव देहान्त अर्थात् शरीरत्याग के समय में ‘ओ३म्’ नाम का स्मरण करे। अपने सामर्थ्य की प्राप्ति के लिए परमात्मा को और अपने स्वरूप को स्मरण करे । जो कुछ जीवन में किया है उसको स्मरण करे । इस शरीर में स्थित धनञ्जय आदि नामक वायु कारण रूप सूक्ष्म वायु के और सूक्ष्म वायु नाशरहित कारण (प्रकृति) के आश्रित है । शरीर से आत्मा का पृथक्भाव उक्त वायु के आश्रित है । शरीर से आत्मा के पृथग्भाव अर्थात् मृत्यु के समय में यहां जैसी चित्तवृत्ति बतलाई है; वैसी ही चित्तवृत्ति अब जीवन-काल में भी रखे । देहान्त के समय इस शरीर की भस्मान्त क्रिया (अन्त्येष्टि कर्म) करें । भस्मान्त क्रिया के उपरान्त इस शरीर का कोई संस्कार-कर्तव्य शेष नहीं रहता । जीवन काल में एक परमेश्वर की ही आज्ञा का पालन, उपासना तथा अपनी शक्ति की वृद्धि करनी चाहिए । किया हुआ कर्म कभी निष्फल नहीं होता, ऐसा मानकर धर्म में रुचि और अधर्म में अप्रीति रखनी चाहिए ॥४०।१५॥ जीवन-काल में एक परमेश्वर की ही आज्ञा का पालन, उसकी उपासना और अपने सामर्थ्य की वृद्धि करें । किया हुआ कर्म विफल नहीं होता, ऐसा समझ कर धर्म में रुचि और अधर्म में अप्रीति रखें ॥१५॥ अन्यत्र व्याख्यात—“भस्मान्तꣳशरीरम्” (य० ४०।१५)॥ इस शरीर का संस्कार (भस्मान्तम्) अर्थात् भस्म करने पर्यन्त है (संस्कार- विधि, अन्त्येष्टिकर्म) ॥४०।१५॥ समीक्षा—ईशावास्योपनिषत् के १७वें मन्त्र तथा यजुर्वेद के ४०।१५वें मन्त्र के उत्तरार्द्ध में निम्नलिखित पाठभेद है— (वेद में) ओ३म् क्रतो स्मर क्लिबे स्मर कृतं स्मर ॥ (ईशावा०) ओ३म् क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर ॥ इस मन्त्र के भाष्य में श्री शङ्कराचार्य जी लिखते हैं— (क) “ओ३म्” ऐसा कहकर यहां उपासना के अनुसार सत्यस्वरूप अग्नि संज्ञक ब्रह्म ही अभेदरूप से कहा गया है । क्योंकि ‘ओम्’ उसका प्रतीक है । हे क्रतो ! सङ्कल्पात्मक मन ! तू इस समय जो मेरा स्मरणीय है उसका स्मरण कर । अब यह उसका समय उपस्थित हो गया है, अतः तू स्मरण कर ।” (ख) “और यह लिङ्ग शरीर उत्क्रमण करे ।” २ समीक्षा—यहां श्री शङ्कराचार्य जी ने ‘ओम्’ का अभिप्राय ‘अग्नि’ नामक ब्रह्म बतलाया है । क्या अग्नि नामक कोई विशेष ब्रह्म है, जिसको मृत्यु समय में स्मरण के लिए कहा गया है । अद्वैतवाद को मानने वालों को यह भ्रान्ति कैसे हो गई ? क्या ‘अग्नि ब्रह्म’ को मानकर ‘अद्वैतब्रह्म’ की सिद्धि सम्भव है, यदि मरते समय उनका अभिप्राय भौतिकाग्नि से है तो क्या मन्त्र में जडाग्नि को स्मरण करने के लिए कहा गया है ? और फिर अग्निब्रह्म की तरह वायु आदि महाभूत भी ब्रह्म हुए, उनको भी स्मरण करना चाहिए । अतः परब्रह्म से ‘अग्नि’ नामक ब्रह्म कोई भिन्न नहीं है । और न ही मन्त्र में ही ‘अग्नि’ का निर्देश किया है, फिर ऐसी व्याख्या मूल मन्त्र से विरुद्ध ही है । ‘ओम्’ ब्रह्म का प्रतीक है, यह भी कथन सत्य नहीं । क्योंकि प्रतीक तो स्मृति-चिह्न होता है । ‘ओम्’ परब्रह्म का प्रतीक नहीं, अपितु उसका मुख्य निज नाम है । अतः जीवों के लिए इसी नाम का स्मरण करने का परमात्मा का उपदेश है । शाङ्कर-भाष्य में मन्त्र-पठित ‘क्रतो’ शब्द का ‘सङ्कल्पात्मक मन’ अर्थ किया है । मन स्मरण करने का साधन अन्तःकरण अवश्य है, किन्तु वह स्वयम् अचेतन होने से स्मरण नहीं कर सकता । स्मरण करने वाला क्रतु=जीवात्मा ही अर्थ यहां सङ्गत होता है । ‘क्रतु=कर्म करने वाला’ इस शब्दार्थ के अनुसार भी जीवात्मा ही अर्थ उचित है । श्री १. “ओमिति यथोपासनम् । ओम् प्रतीकात्मकत्वात्सत्यात्मकमग्न्याख्यं ब्रह्माभेदेनोच्यते । हे क्रतो ! सङ्कल्पात्मक ! स्मर यन्मम स्मर्त्तव्यं तस्य कालोऽयं प्रत्युपस्थितोऽतः स्मर ।” (शा० भा०) २. “लिङ्गं चेदं ज्ञानकर्मसंस्कृतमुत्क्रामतु ।” (शा० भा०) शङ्कराचार्य जी ‘क्रतु’ पद का जीवात्मा अर्थ कैसे करते ? उन्हें अपनी प्रतिज्ञा-हानि का भय दिखाई दे रहा था । किन्तु जब उन्होंने ‘द्वा सुपर्णा सयुजा’ इत्यादि स्थानों पर जीवात्मा को कर्म-फल भोक्ता माना है । कर्म करने वाला ही भोक्ता होता है तो यहां कर्म करने वाला ‘मन’ क्यों माना गया ? और स्वयम् उपनिषद् में अन्यत्र लिखा है— आत्मानं रथिनं विद्धि ...... मनः प्र्रग्रहमेव च ॥ (कठो० ३।३) आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ॥ (कठो० ३।४) अर्थात् शरीररूपी रथ का जीवात्मा स्वामी है और मन इन्द्रियरूपी घोड़ों को वश में करने के लिए प्रग्रह=लगाम के समान है । और ‘मनः’ को अन्तःकरण तो सभी शास्त्रकारों ने स्वीकार किया है । क्या साधन स्वयं विना कर्त्ता के कार्य कर सकता है ? क्या तलवार स्वयं ही किसी को दण्ड दे सकती है ? अतः ‘क्रतु’ का सङ्कल्पात्मक मन अर्थ मिथ्या कल्पित ही है । और कर्मों को ज्ञान का विरोधी मानने वाले ‘कृतं=जीवन में किए कार्यों को कैसे स्मरण कर सकते हैं । परन्तु मन्त्र में तो कृत कार्यों को स्मरण करने का स्पष्ट उपदेश है, उसको कैसे पृथक् करके छोड़ा जा सकता है ? मृत्यु के समय शरीर का तो भस्म (राख) ही अन्त हो जाता है और शाङ्कर भाष्य के अनुसार भी लिङ्ग शरीर (सूक्ष्म-शरीर) दूसरे जन्म में उत्क्रमण करता है । यह लिङ्ग शरीर क्या जीवात्मा के विना ही उत्क्रमण करता है । ईशावास्यो० के मन्त्र ३ की व्याख्या में श्री शङ्कराचार्य जी लिखते हैं—‘त्यक्त्वेमं देहमभिगच्छन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम्।” अर्थात् इस शरीर को छोड़कर कर्म और ज्ञान के अनुसार शरीरान्तरों में चले जाते हैं । क्या यहां जीवात्मा से भिन्न का निर्देश है ? अतः यह लिङ्गदेह स्वयं जड़ होने से स्वयम् उत्क्रमण नहीं कर सकता । जीवात्मा ही लिङ्गदेह से आवेष्टित होकर जाता है । जीवात्मा को स्वीकार किए विना इन स्थलों की सङ्गति कदापि नहीं लग सकती । अतः शाङ्कर-भाष्य का ‘क्रतु’ शब्द का अर्थ सर्वथा ही परित्याज्य है । श्री उव्वट इस मन्त्र की व्याख्या में लिखते हैं—“इदानीं योगिन आलम्बनभूतमक्षरं कथ्यते—ओम् इति नाम वा प्रतिमा वा ब्रह्मणः ।” अर्थात् अब योगी के आलम्बन भूत अक्षर का कथन किया जाता है । ‘ओम्’ यह नाम योगी का आलम्बन है अथवा ब्रह्म की प्रतिमा योगी का आलम्बन है। समीक्षा—इस मन्त्र में क्रतु=आत्मा के लिए ‘ओ३म्’ नाम-स्मरण का उपदेश है । श्री उव्वट ने उसे केवल योगी के लिए ही सीमित कर दिया है, यह अनुचित है और योगी के लिए ‘ओ३म्’ नाम के साथ मन्त्र में अकथित ‘ब्रह्म की प्रतिमा’ का आलम्बन बताना कल्पना ही है । प्रथम तो यह बात मन्त्र में नहीं कही, और ब्रह्म की कोई प्रतिमा नहीं होती । वेद में ब्रह्म की प्रतिमा का स्पष्टरूप से निषेध किया है—“न तस्य प्रतिमाऽस्ति ।”

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