Ad Code

केनोपनिषद काण्ड -3 श्लोक 1-12

 ब्रह्म ह देवेभ्यो विजिग्ये तस्य ह ब्रह्मणो विजये देवा अमहीयन्त त ऐक्षन्तास्माकमेवायं विजयोऽस्माकमेवायं महिमेति ॥ १ ॥ 
आचार्य राजवीर शास्त्री
पदार्थ—(ब्रह्म) सब से महान् परमेश्वर ने (ह) निश्चय करके (देवेभ्यः) अग्नि आदि देवताओं से (विजिग्ये) विजय प्राप्त किया । (ह तस्य ब्रह्मणः) निश्चय से उस ब्रह्म की (विजये) जीत होने पर (देवाः) अग्नि आदि देवता (अमहीयन्त) महत्त्व को प्राप्त हो गए अर्थात् अपने को बड़ा मानने लगे । (ते) उन देवों ने (ऐक्षन्त) जान लिया कि (अयम् विजयः) यह विजय (अस्माकम् एव) हमारी ही है। (अयम् महिमा) यह महिमा (अस्माकम् एव) हमारी ही है । भावार्थ—यहां ब्रह्म और अग्न्यादि देवों की इस आख्यायिका को चार्वाकादि नास्तिक मतों के खण्डन करने के लिए बनाया है । अग्नि, वायु आदि देवों में जो भी सामर्थ्य है, वह ब्रह्म-द्वारा प्रदत्त है । उसके सामर्थ्य के बिना अग्नि जला नहीं सकता, और वायु गति नहीं कर सकता । जैसा कि अन्यत्र कहा है— तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥ (कठो० ५।१५) अर्थात् उस परमेश्वर के प्रकाश से ही सूर्यादि प्रकाशित हो रहे हैं। अतः अग्नि आदि अचेतन देवों को ही सब कुछ मानकर परब्रह्म को न मानने वालों के लिए इस आख्यायिका से उपदेश दिया गया है कि वह ब्रह्म सर्वोपरि तथा सर्वशक्तिमान् है । प्रकृति को ही सब कुछ मानने वाले अविद्याग्रस्त तथा भ्रान्त हैं । आचार्य शङ्कर ने इस आख्यायिका के विषय में लिखा है— “तथेदं ब्रह्माविज्ञातत्वादसदेवेति मन्दबुद्धीनां व्यामोहो मा भूदिति तदर्थेयमाख्यायिकाऽऽरभ्यते । तदेव हि ब्रह्म सर्वप्रकारेण प्रशास्तृदेवानामपि परो देवः, ईश्वराणामपीश्वरो, दुर्विज्ञेयो देवानां जयहेतुः, असुराणां पराजयहेतुः। .....अथवा ब्रह्मविद्यायाः स्तुतये । .....अथवा दुर्विज्ञेयं ब्रह्मेत्येतत् प्रदर्श्यते। .....वक्ष्यमाणोपनिषद् विधिपरं वा सर्वम् । ब्रह्मविद्याव्यतिरेकेण प्राणिनां कर्त्तृत्वभोक्तृत्वाद्यभिमानो मिथ्येत्येतद्दर्शनार्थं व्याख्यायिका ।” अर्थात् मन्दबुद्धि लोगों को ऐसी भ्रान्ति न हो कि ब्रह्म विज्ञात न होने से शशविषाण की भांति है ही नहीं, इस भ्रान्ति को दूर करने के लिए यह आख्यायिका है । क्योंकि वही ब्रह्म सर्वथा प्रशासक, देवों में भी बड़ा देव, ईश्वरों में भी ईश्वर, दुर्विज्ञेय तथा देवों के जय का और असुरों के पराजय का हेतु है । अथवा ब्रह्म-विद्या की स्तुति के लिए, अथवा ब्रह्म की दुर्विज्ञेयता प्रदर्शन करने के लिए, अथवा ब्रह्मज्ञान से भिन्न प्राणियों को जो कर्त्तृत्व, भोक्तृत्व का मिथ्या अभिमान है, उसको दूर करने के लिए यह आख्यायिका है । समीक्षा—यह आख्यायिका ब्रह्मविद्या को समझाने के लिए एक आलङ्कारिक वर्णन है । इससे ब्रह्म-विद्या की महिमा व ब्रह्म की दुर्विज्ञेयता का बोध होता है, और अहङ्कार का उन्मूलन भी होता है । किन्तु प्राणियों का मैं कर्त्ता हूं, मैं भोक्ता हूं इत्यादि अभिमान मिथ्या है, यह आचार्य शङ्कर का कथन सत्य नहीं है । यह केवल स्वाभिमत को बलात् दिखाने के लिए लिखा गया है । क्योंकि उनके मत में जीवात्मा की सत्ता ही नहीं है । यद्यपि ‘द्वा सुपर्णा०’ (मु०) मन्त्र की व्याख्या में शङ्करस्वामी ने आत्मा व ईश्वर को भिन्न-भिन्न मानकर जीवात्मा को कर्मफल का भोक्ता और ईश्वर को सर्वज्ञ तथा साक्षीमात्र माना है । पुनरपि यहां जीवात्मा के कर्त्तृत्व तथा भोक्तृत्व को मिथ्या दिखा रहे हैं। इस आख्यायिका में कहीं भी जीव के कर्त्तृत्वादि का निषेध भी नहीं किया गया है । अतः यह एक मिथ्या कल्पना ही है । उपर्युक्त आख्यायिका के स्पष्टीकरण से भी आचार्य शङ्कर को सन्तोष नहीं हुआ और इसमें पौराणिक-कल्पना का भी मिश्रण कर बैठे। इस खण्ड के अन्त में लिखते हैं—“अथवैवमेव हिमवतो दुहिता हैमवती नित्यमेव सर्वज्ञेनेश्वरेण सह वर्त्तत इति ज्ञातुं समर्थेति कृत्वा तामुपाजगाम।” अर्थात् हिमालय की पुत्री उमा, जो सदा सर्वज्ञ ईश्वर के साथ रहती है, और ईश्वर को जानने में समर्थ है, वह इन्द्र उसके समीप में आया । अद्वैतवाद को मानने वालों से यहां प्रश्न किए जाते हैं कि यह उमा=हिमालय की पुत्री ईश्वर के साथ रहने वाली कौन है ? क्या इसे मानकर तुम्हारा अद्वैतवाद द्वैतवाद में नहीं बदलता ? क्या जड़ हिमालय की पुत्री का होना सम्भव है । और इस आख्यायिका से इसकी क्या सङ्गति है? उमा हैमवती आदि शब्दों के सत्य अर्थ यथास्थान द्रष्टव्य हैं। अग्नि आदि देवों के अहङ्कार को खण्डित करने के लिए ब्रह्म यक्षरूप में प्रकट हुए, यह यहां कथन किया गया है—
तद्धैषां विजज्ञौ तेभ्यो ह प्रादुर्बभूव तन्न व्यजानत किमिदं यक्षमिति ॥ २ ॥ 
पदार्थ—(तत्) उस ब्रह्म ने (ह) निश्चय करके (एषाम्) अग्नि आदि देवों की चेष्टा को (विजज्ञौ) सर्वज्ञभाव से जान लिया । (तेभ्यः) और उनके (अहङ्कार या मिथ्या ज्ञान को समाप्त करने के लिए) (ह) निश्चय से (प्रादुर्बभूव) ब्रह्म प्रकट हुए । वे देव (तत्) उस ब्रह्म को (न व्यजानन्त) नहीं जान सके कि (इदम् यक्षम्) यह अप्रतिम तेजयुक्त यक्ष (किम् इति) कौन है । भावार्थ—यहां ब्रह्म का यक्ष रूप में प्रकट होना और अग्नि आदि देवों का उसे न जानना, एक आलङ्कारिक वर्णन है यथार्थ नहीं । ब्रह्म एक सर्वव्यापक चेतन सत्ता है, उसे अग्नि आदि जड़ देवता कदापि जान भी नहीं सकते । जैसे मुण्डकोपनिषद् में परमात्मा के मुख, नेत्रादि का आलङ्कारिक वर्णन किया गया है, वैसा ही यहां भी समझना चाहिए। इस आख्यायिका का एक भाव यह भी है कि शरीर में भी पञ्चभूत कार्य कर रहे हैं । जब जीव परब्रह्म की उपासना से अद्भुत तेज व सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है, तब अग्नि आदि के कार्य नेत्रादि इन्द्रियों में ऐसा गर्व पैदा हो जाता है कि यह तेज व शक्ति हमारी ही है । उस अहङ्कार को दूर करने के लिए भी इस आख्यायिका को बनाया है । ब्रह्म के निराकार होने से उसका शरीरधारी होकर संवाद करना कदापि सम्भव नहीं है, पुनरपि यहां आख्यायिका के रूप में ब्रह्म की सर्वोत्कृष्टता का ज्ञान कराने के लिए वर्णन किया गया है । क्योंकि आख्यायिका के द्वारा कठिन विषय भी सरल व सुगम हो जाता है । आलङ्कारिक आख्यायिका का स्पष्टीकरण— यह समस्त संसार प्रकृति का विकार है । यह स्वयं न तो बन सकता और नहीं बिगड़ सकता है । इस का रचयिता तथा प्रलय करने वाला परब्रह्म है । अतः अग्नि आदि देवों में ब्रह्म का विजय=महत्त्व अधिक है । परन्तु परब्रह्म इन्द्रियागोचर, सूक्ष्मातिसूक्ष्म तथा सर्वत्र व्यापक सत्ता है, उसका जानना सरल न होने से अनात्मज्ञानी भौतिक अग्नि आदि जड़ देवों को ही उत्कृष्ट मानकर परब्रह्म को मानने से इन्कार कर देते हैं । ऐसे अनात्मवादी नास्तिक पुरुषों को समझाने के लिए उपनिषत्कार ने यह आलङ्कारिक गाथारूप में वर्णन किया है । अग्नि आदि देवों के सम्मुख ब्रह्म तेजस्वी यक्षरूप में प्रकट हुआ देवता उसे न जान सके । सब देवों ने मिलकर अग्नि देव को यक्ष को जानने के लिए भेजा कि तुम प्रकाशमान होने से यक्ष को जान सकते हो। अग्नि यक्ष के पास गया और यक्ष के पूछने पर सगर्व उत्तर दिया कि मैं सब को जलाने का सामर्थ्य रखने वाला अग्नि और प्रत्येक उत्पन्न पदार्थ में विद्यमान होने से ‘जातवेदाः’ हूं । किन्तु यक्ष के तिनके को भी जला न सका और निराश होकर वापस आ गया । तदनन्तर देवों ने वायु से प्रार्थना की कि तुम बहुत बलवान् व वेगवान् हो, तुम ही पता लगाओ कि यह यक्ष कौन है । किन्तु यक्ष के पास जाकर वायु भी शक्तिहीन ही रहा और छोटे से तिनके को भी उड़ा न सका । वायु भी निराश होकर वापस आ गया । यहां अग्नि और वायु को भेजने का आशय यही है कि संसार में दो ही प्रमुख शक्तियां हैं—एक प्रकाश और दूसरी गति । इनके आश्रय से प्रत्येक वस्तु को पाया जा सकता है । किन्तु परब्रह्म को प्राप्त करने में ये दोनों शक्तियां भी तुच्छ व असमर्थ हैं । अग्नि भौतिक पदार्थों में व्यापक होकर भी विना व्यक्तरूप में आए तिनके को भी नहीं जला सकता । इसी प्रकार वायु भी व्यक्तावस्था में आकर ही तृण को उड़ा सकता है, अन्यथा नहीं । और अव्यक्त से व्यक्तावस्था में अग्नि आदि को परब्रह्म ही करता है । जो भी इनमें सामर्थ्य है, वह परब्रह्म से प्रदत्त है । अतः ब्रह्म की महिमा अपार तथा विलक्षण है । पुनः देवों ने इन्द्र=जीवात्मा को यक्ष के पास भेजा । यक्ष इन्द्र को देखकर अन्तर्धान हो गया । इस में एक रहस्य है कि यक्ष अग्नि तथा वायु को देखकर नहीं छिपा, पुनः इन्द्र को देखकर क्यों छिपा ? अग्नि व वायु जड़ होने से जानने में असमर्थ थे, किन्तु इन्द्र=जीवात्मा चेतन और ज्ञान-गुण वाला होता हुआ भी संसार के कला-कौशलों को बनाकर गर्व से पूर्ण था । ब्रह्म के छिपने का भाव यही है कि अहङ्कार युक्त जीवात्मा भी ब्रह्म को नहीं जान सकता । जब वह योग-साधनादि से दिव्य विभूति सम्पन्न हो जाता है और उमा=ब्रह्मविद्या से दिव्य प्रज्ञा को प्राप्त कर लेता है, तब यक्षरूप ब्रह्म को जानने में समर्थ हो जाता है । उस यक्षरूप ब्रह्म को जानने के लिए देवों का अग्नि को यक्ष के पास जाने का कथन करते हैं—
तेऽग्निमब्रुवन् जातवेद एतद्विजानीहि किमेतद्यक्षमिति तथेति ॥ ३ ॥ 
पदार्थ—(ते) वे सब देव (अग्निम्) अग्निदेव से (अब्रुवन्) कहने लगे कि (जातवेदः) हे उत्पन्नमात्र वस्तुओं में विद्यमान अग्नि देव ! (एतत्) यह (यक्षम्) यक्ष (किमिति) कौन है, (एतत्) इस रहस्य को (विजानीहि) तुम जानो । अग्नि ने उत्तर दिया (तथा, इति) वैसा ही करता हूं । भावार्थ—यक्ष के तेजस्वी स्वरूप को देखकर सभी देव विस्मित थे । अतः उन्होंने देवों में तेजस्वी अग्नि को ही सर्वप्रथम यक्ष के पास भेजा । ‘अग्नि’ का अर्थ भी ‘अग्रणीः’ है जो सब को आगे ले जाए । लोक में भी जो अग्रणी होता है, उसे ही मुखिया बनाकर भेजते हैं । वैसे अग्नि ने अग्रणी बनकर यक्ष के पास जाने की स्वीकृति दी । उपचाररूप से अग्निदेव यक्ष के पास जाता है—
तदभ्यद्रवत्तमभ्यवदत् कोऽसीत्यग्निर्वा अहमस्मीत्यब्रवीज्जातवेदा वा अहमस्मीति ॥ ४ ॥ 
पदार्थ—वह अग्निदेव (तत्) उस यक्ष के (अभ्यद्रवत्) सम्मुख गया । (तम्) उस अग्निदेव से, (अभ्यवदत्) यक्ष ने कहा—(कः, असि, इति) तुम कौन हो ? इस प्रकार । (वै) निश्चय से (अग्निः) अग्निदेव (अब्रवीत्) कहने लगे कि (अहम्) मैं (अग्निः अस्मि, इति) अग्नि हूं (वै) निश्चय से (अहम्) मैं (जातवेदाः) उत्पन्नमात्र पदार्थों में विद्यमान जातवेदा हूं । भावार्थ—यहां यक्ष और अग्नि का प्रश्नोत्तर रूप से संवाद दिखाया गया है । अग्नि ने अभिमान सहित उत्तर दिया कि मैं प्रकाश करने वाला अग्नि हूं । और प्रत्येक पदार्थ में जो रूप दिखाई देता है, वह मेरा ही है, अतः मेरा नाम ‘जातवेदाः’ भी है । यक्ष ने अग्नि से प्रश्न किया—
स्मिंस्त्वयि किं वीर्यमित्यपीदं सर्वं दहेयं यदिदं पृथिव्यामिति ॥ ५ ॥ 
पदार्थ—(तस्मिन् त्वयि) उस पूर्वोक्तगुणविशिष्ट तुझ अग्नि में (किम्, वीर्यम्, इति) क्या पराक्रम अथवा सामर्थ्य है ? अग्नि ने उत्तर दिया कि (यत् इदम्) यह जो कुछ (पृथिव्याम्) पृथिवी पर है (अपि) निश्चय करके (इदम्, सर्वम्) इस सब को (दहेयम् इति) जला सकता हूँ । भावार्थ—अग्नि के साभिमान वचनों को सुनकर उसकी यक्ष ने परीक्षा के लिए उसके सामर्थ्य के विषय में पूछा । अग्नि ने उत्तर दिया कि मैं सभी पार्थिव वस्तुओं को जला सकता हूं । यक्ष अग्निदेव के सामर्थ्य की परीक्षा करते हैं—
तस्मै तृणं निदधावेतद्दहेति तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न शशाक दग्धुं स तत एव निववृते नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद्यक्षमिति ॥ ६ ॥ 
पदार्थ—यक्ष ने (तस्मै) उस अग्निदेव के लिए (तृणम्) एक तिनका (निदधौ) धर दिया और (एतत्) इस तिनके को (दह, इति) जला दे, ऐसा कहा । अग्नि (तत्) उस तिनके के (सर्वजवेन, उपप्रेयाय) पूरे वेग से समीप गया, परन्तु (तत्) उसको (दग्धुम्) जलाने को (न, शशाक)समर्थ न हो सका । (ततः, एव) उसके बाद ही (सः) वह अग्निदेव (निववृते) वापस आ गए और दूसरे देवों से कहने लगे (यत्) जो (एतत्) यह (यक्षम्, इति) यक्ष है (एतत्) इसको (विज्ञातुम्) जानने को (न, अशकम्) मैं समर्थ नहीं हुआ । भावार्थ—यक्ष ने अग्नि के अहङ्कार का मर्दन करने के लिए अग्नि के सम्मुख एक छोटा सा तिनका रक्खा, किन्तु अग्नि अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी उस तिनके को न जला सका और निराश होकर वापस आ गया और देवों से आकर कहने लगा कि मैं इस यक्ष को नहीं जान सका ।
अथ वायुमब्रुवन् वायवेतद्विजानीहि किमेतद्यक्षमिति तथेति ॥ ७ ॥ 
पदार्थ—(अथ) अग्नि के सामर्थ्य जानने के बाद सब देव (वायुम्) वायु-देव से (अब्रुवन्) कहने लगे कि (वायो) हे वायु-देवता! (एतत्) इसको (विजानीहि) विशेषकर जानिए कि (एतत्) यह (यक्षम्) पूजनीय यक्ष (किमिति) कौन है ? वायु ने कहा (तथा इति) वैसे ही करता हूं । वायु का यक्ष के पास जाना और उसका संवाद कथन करते हैं—
तदभ्यद्रवत्तमभ्यवदत्कोऽसीति वायुर्वा अहमस्मीत्यब्रवीन्मातरिश्वा वा अहमस्मीति ॥ ८ ॥ 
पदार्थ—वायु देवता (तत्) उस यक्ष के (अभ्यद्रवत्) सम्मुख गया, और यक्ष (तम्) उस वायु से (अभ्यवदत्) कहने लगे कि (कः, असि, इति) तुम कौन हो ? वायु (अब्रवीत्) बोला कि (वै) निश्चय से (अहम्) मैं (वायुः, अस्मि, इति) वायु हूं । (वै) निश्चय से (अहम्) मैं वायु (मातरिश्वा) अन्तरिक्ष में विचरने वाला ‘मातरिश्वा’ नामक (अस्मि, इति) हूं । भावार्थ—वायु को ‘मातरिश्वा’ इसलिए कहते हैं कि— “मातरिश्वा वायुः, मातरि=अन्तरिक्षे श्वसिति, मातर्यश्वनितीति वा ॥” (निरुक्त० ७।२६) अर्थात् अन्तरिक्ष में शीघ्र गमन करने के कारण वायु को ‘मातरिश्वा’ कहते हैं । यक्ष ने वायु-देव से पूछा—
तस्मिंस्त्वयि किं वीर्यमित्यपीदं सर्वमाददीय यदिदं पृथिव्यामिति ॥ ९ ॥ 
पदार्थ—(तस्मिन्, त्वयि) पूर्वोक्त गुणों वाले तुझ वायु में (किम्) क्या (वीर्यम्) पराक्रम या सामर्थ्य है ? वायु-देव ने कहा कि (यत्, इदम्) यह जो कुछ (पृथिव्याम्) पृथिवी पर है, (अपि) निश्चय से (इदम्, सर्वम्) इन सब को (आददीयम्) ग्रहण कर लूं, उठा ले जाऊं, अथवा उड़ा दूं । इस प्रकार का सामर्थ्य मुझ में है । यक्ष वायु-देव के सामर्थ्य की परीक्षा करते हैं— तस्मै तृणं निदधावेतदादत्स्वेति । तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न शशाकादातुं, स तत एव निववृते नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद् यक्ष- मिति-
तस्मै तृणं निदधावेतदादत्स्वेति तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न शशाकादातुं स तत एव निववृते नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद्यक्षमिति ॥ १० ॥ 
पदार्थ—यक्ष ने (तस्मै) उस वायु के लिए (तृणम्) एक तिनका (निदधौ) धर दिया और कहा (एतत्) इसको (आदत्स्व) उठा ले वा उड़ा दे । वायु (सर्वजवेन) सम्पूर्ण वेग से (तत्) उस तिनके के (उपप्रेयाय) समीप प्राप्त हुआ तो भी (तत्) उस तिनके को (आदातुम्) ग्रहण करने वा उड़ाने को (न शशाक) समर्थ न हुआ । (सः) वह वायु-देव (ततः, एव) उसी समय वहां से (निववृते) लौट आया और लौटकर दूसरे देवों से बोला कि (यत्) जो (एतत्) यह (यक्षमिति) तेजस्वी यक्ष है (एतत्) इसको (विज्ञातुम्) जानने के लिए (न, अशकम्) मैं समर्थ नहीं हुआ । भावार्थ—वायु के सम्मुख यक्ष ने एक तिनका रखकर कहा कि इसको उड़ा । वायु ने अपने सम्पूर्ण वेग से तिनके को उड़ाने का यत्न किया, परन्तु तिनके को उड़ा न सका । तब वायु लज्जित होकर वापस आकर देवों से कहने लगा कि मैं यक्ष को जानने में असमर्थ हूं । यक्ष को जानने में असमर्थ वायु के बाद देवता इन्द्र को यक्ष के पास भेजते हैं—
अथेन्द्रमब्रुवन्मघवन्नेतद्विजानीहि किमेतद्यक्षमिति तथेति तदभ्यद्रवत्तस्मात्तिरोदधे ॥ ११ ॥ 
पदार्थ—(अथ) इसके बाद सब देवता (इन्द्रम्) इन्द्र अर्थात् जीवात्मा देव से (अब्रुवन्) कहने लगे कि (मघवन्) हे ऐश्वर्यसम्पन्न जीवात्मन् ! (एतत्) यह (यक्षम्) यक्ष (किमिति) कौन है ? (एतत्) इसको (विजानीहि) विशेषकर जानने का प्रयत्न करें । इन्द्र ने (तथा, इति) वैसा ही करूंगा, ऐसा कहा और (तत्) उस यक्ष के (अभ्यद्रवत्) सम्मुख गया । (तस्मात्) उस इन्द्र से यक्ष (तिरोदधे) छिप गया । भावार्थ—सब देवों की प्रार्थना पर इन्द्र (जीवात्मा) यक्ष के सम्मुख गया, किन्तु इन्द्र को देखकर यक्ष छिप गया । यहां जीवात्मा को ही ऐश्वर्य सम्पन्न होने से ‘मघवन्’ कहा गया है । यहां यक्ष के छिपने का तात्पर्य यह है कि जब यक्ष के पास अग्नि और वायु जड़ देव आए थे तो यक्ष उनसे छिपा नहीं । इसमें रहस्य यह है कि वे दोनों देव अचेतन होने से यक्ष (ब्रह्म) को कदापि जान नहीं सकते थे । परन्तु चेतन जीवात्मा चेतनशक्ति ब्रह्म को जान सकता है । यदि जीव विद्याविहीन होने से अविद्या से ग्रस्त है और सांसारिक ऐश्वर्यों में लिप्त है, तब भी परमात्मा की प्राप्ति जीव को नहीं हो सकती । ऐश्वर्यसम्पन्न इन्द्र को देखकर यक्ष के अन्तर्धान से यही भाव द्योतित हो रहा है । समीक्षा—आचार्य शङ्कर ने इस आख्यायिका में इन्द्र कौन है ? और उससे यक्ष का अन्तर्भाव क्यों हुआ ? वे इस रहस्य को समझने में असमर्थ ही रहे हैं । उनके विचार में इन्द्र स्वर्गस्थ देवों का राजा है । जैसा कि उन्होंने अपने भाष्य में लिखा है— (१) इन्द्रः=देवानामीश्वरः । (केनोप० ३।१) (२) इन्द्रः=परमेश्वरो मघवा । (केनो० ३।११) (३) स्वर्गे देवानां पतिरिन्द्र एकः सर्वान् उपरि अधिवसति । (मु० १।२।५) उपर्युक्त व्याख्या से स्पष्ट है कि इन्द्र को शङ्कर-स्वामी क्या मानते हैं । स्वर्ग कहां है ? वहां का राजा इन्द्र कौन है ? वह चेतन है अथवा अचेतन ? इत्यादि अनेक प्रश्नों का उनकी व्याख्या से कोई उत्तर नहीं मिलता। उनकी स्वर्गसम्बन्धी मिथ्या कल्पनाओं पर आज के वैज्ञानिक युग में कौन विश्वास कर सकता है ? यथार्थ में न कोई स्वर्गस्थान है और न वहां का कोई राजा इन्द्र है । केवल एक ब्रह्म की सत्ता को मानने वाले इन्द्रादि देवों को मानकर कैसे अद्वैतवाद का मिथ्या दम्भ करते हैं? और इस आख्यायिका में अग्नि वा वायु देव तो इस लोक के, उनके साथ स्वर्ग के राजा इन्द्र की सङ्गति कैसे ? अतः यह सब असङ्गत कल्पना ही है । ‘स्वर्ग’ शब्द का सत्य अर्थ सुखविशेष है । इस केनोपनिषद् के (४।९) खण्ड में ‘स्वर्गे लोके’ शब्द पठित है । जिसका अर्थ स्वयम् आचार्य शङ्कर ने ‘सुखात्मके ब्रह्मणि’ किया है । स्वर्गलोक विशेष नहीं। और अन्यत्र उपनिषदों में भी जो ‘स्वर्ग’ का वर्णन मिलता है, वह ‘मोक्ष’ के लिए ही है, स्थानविशेष के लिए नहीं । जैसे— (१) स्वर्गे लोके न भयं किञ्चनास्ति न तत्र त्वं न जरया बिभेति । (कठो० १।१२) अर्थात् स्वर्ग में मृत्यु, बुढ़ापे आदि का भय नहीं होता । (२) शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके ॥ (कठो० १।१८) अर्थात् स्वर्गलोक में शोकादि दुःखों से छूटकर आनन्द में रहता है। (३) एषः वः पुण्यः सुकृतो ब्रह्मलोकः ॥ (मुण्डक० १।२।६) इस की व्याख्या में आचार्य शङ्कर ने ‘ब्रह्मलोकः स्वर्गः प्रकरणात्’ स्वर्ग में ब्रह्मलोक शब्दों को पर्यायवाची माना है । अब विद्या की सहायता से जीवात्मा को ब्रह्मप्राप्ति का कथन करते हैं—
स तस्मिन्नेवाकाशे स्त्रियमाजगाम बहु शोभमानामुमां हैमवतीं तां होवाच किमेतद्यक्षमिति ॥ १२ ॥ 
पदार्थ—(सः) वह इन्द्र=जीवात्मा (तस्मिन्, एव) उसी अर्थात् जहां ब्रह्म यक्षरूप में प्रकट हुआ और अन्तर्धान हुआ, (आकाशे) हृदयाकाश में (हैमवतीम्) हिरण्यमयी दिव्यप्रज्ञावाली अथवा सन्ताप को नष्ट करने वाले शान्त्यादि गुणों से सम्पन्न (बहुशोभमानाम्) (उमाम्) ब्रह्मविद्यारूपी (स्त्रियम्) स्त्री के समीप (आजगाम) प्राप्त हुआ और (ताम्) उससे (ह) दुःखी सा होकर (उवाच) बोला कि (एतत्) यह (यक्षम्) यक्ष (किम्, इति) कौन है ? भावार्थ—इन्द्र (जीवात्मा) को यक्ष (ब्रह्म) के अन्तर्धान होने पर बहुत दुःख हुआ कि वह यक्ष को जानने के लिए आया था किन्तु जानने का ही अवसर नहीं मिला । तत्पश्चात् जीवात्मा ने योगाङ्गों का अनुष्ठान करते हुए अन्तःकरण को शुद्ध किया और ब्रह्मविद्या को प्राप्त किया । यही इन्द्र की उमा=ब्रह्मविद्या से यक्ष को जानने की प्रार्थना है। यहां ‘उमा’ कोई स्त्रीविशेष नहीं है अपितु ‘उमा ब्रह्मविद्या’ (तैत्तिरीयोप० १।४८) इस प्रमाण से ब्रह्मविद्या का नाम ही ‘उमा’ है । ‘उमा’ अर्थ ही—‘उम्=परमात्मानं माति प्रमापयति’ अर्थात् जो परब्रह्म का ज्ञान कराती है । जब जीव योगसाधना करके दिव्य प्रज्ञा प्राप्त करता है, तब ब्रह्मविद्या से मिलन=ब्रह्म-प्राप्ति होती है और यक्ष (ब्रह्म) को जान पाता है । योग की दिव्यविभूतियां प्राप्त करना ही ब्रह्मविद्या (उमा) के दिव्य आभूषण हैं । इस उमा (ब्रह्मविद्या) से ब्रह्म की प्राप्ति होती है, इस विषय में उपनिषदों में अन्यत्र भी कहा है—दृश्यते त्वग्र्या बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्म- दर्शिभिः ॥ (कठोप०) अर्थात् ब्रह्म का ज्ञान सूक्ष्मबुद्धि से होता है । यह सूक्ष्मबुद्धि ब्रह्मज्ञान से ही होती है । ब्रह्म की प्राप्ति कहां होती है ? इस प्रश्न का भी यहां स्पष्ट समाधान किया है । ब्रह्म को खोजने के लिए बाह्य जगत् की कोई आवश्यकता नहीं होती । ब्रह्म को तो हृदय रूप आकाश में प्राप्त किया जाता है, जैसा कि छान्दोग्योपनिषद् (प्रपा० ८ । मं० १) में स्पष्टरूप से कहा है— अथ यदिमस्मिन् ब्रह्मपुरे दहरं पुण्डरीकं वेश्म दहरोऽस्मिन्नन्तरा- काशस्तस्मिन् यदन्तस्तदन्वेष्टव्यं तद्वाव विजिज्ञासितव्यमिति ॥ इसका अर्थ करते हुए महर्षि दयानन्द लिखते हैं— “कण्ठ के नीचे, दोनों स्तनों के बीच में और उदर के ऊपर जो हृदय देश है, जिसको ब्रह्मपुर अर्थात् परमेश्वर का नगर कहते हैं, उसके बीच में जो गर्त्त है, उसमें कमल के आकार वेश्म अर्थात् अवकाश रूप एक स्थान है और उसके बीच में जो सर्वशक्तिमान् परमात्मा बाहर भीतर एकरस होकर भर रहा है, वह आनन्दस्वरूप परमेश्वर उसी प्रकाशित स्थान के बीच में खोज करने से मिल जाता है । दूसरा उसके मिलने का कोई उत्तम स्थान वा मार्ग नहीं है ।” (ऋ० भू० उपासनाविषय) इस खण्ड में वर्णित आख्यायिका के विषय में महर्षि दयानन्द कहते हैं— “केनोपनिषद् में एक यक्ष की वार्त्ता है । यक्ष ने अग्नि के सम्मुख तृण डाला और अग्नि से कहा कि इस तिनके को तू जला दे । अग्नि से वह तिनका न जल सका, फिर वायु से कहा कि तू इस तिनके को उड़ा ले जा, वायु से भी वह तिनका न उड़ सका । ऐसा कहकर जो हैमवती नामक ब्रह्मविद्या है, उसका माहात्म्य दर्शाया है ।” (पूना प्रवचन ७४ पृ०) इस तृतीय खण्ड में आलङ्कारिक आख्यायिका के द्वारा ब्रह्म की महत्ता, अग्नि आदि समस्त देवों की ब्रह्म की शक्ति से ही शक्तिसम्पन्नता, ब्रह्म का अविद्याग्रस्त से छिप जाना और विद्वान् व शान्त्यादि गुणों से सम्पन्न व्यक्ति को ब्रह्मज्ञान होना इत्यादि विषयों का वर्णन किया गया है ।


Post a Comment

0 Comments

Ad Code