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ईशा वास्योपनिषद चतुर्थमंत्र

 अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्षत् । तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठ—त्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति ॥ ४ ॥ 

स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

प० क्र० — (अनेजत्) अंकपन अभय । (एकम) उपमा रहित । (मनस) मन से । (जवीयः) शीघ्र गामी । (न) नहीं । (एनत्) इसे । (देवा) प्रकाश करने वाला । (आप्नुवन्) प्राप्त कर सके । (पूर्वम्) प्रथम ही । (अर्षत्) विद्यमान होने से । (तत्) वह । (धावतः) दौड़ते हुए । (अन्यान्) औरों को । (अत्येति) उलाँघ कर । (तिष्ठत्) ठहरा हुआ । (तस्मिन्) उसमें । (अप.) जलों को । (मातरिश्वा) वायु । (दधाति) धारण करता है । अर्थ— उपर्युक्त तीनों मन्त्रों मे ईश्वर का सर्व व्यापकत्व और उसकी आज्ञानुसार यावज्जीवन कर्म करने का उपदेश और उससे विरुद्ध आत्मा के अविकार को नाश करने वालों को दण्ड विधान बताकर, अब ईश्वर की परिभाषा करते हैं । क्योंकि बिना ठीक-ठीक परिभाषा जाने हुए उससे जो लाभ लेना चाहिये, उसमे मनुष्य नही लगते, जिससे सुख की सामग्री उपस्थित होते हुए भी सुख से रहित रहते है । इस मन्त्र का यह अर्थ है कि वह परमात्मा सर्व-व्यापी होने से कभी काँपता या क्रिया शील नहीं और एक होने के कारण कभी भय भी उनके समीप नही आता, क्योंकि जिसके बराबर कोई न हो और न उसमे कोई बड़ा हो, तो उसे किससे भय हो सकता है । वह परमात्मा सर्वव्यापक होने से मन से भी आने चलने वाला है । जहाँ मन जाता है, परमात्मा वहाँ उससे पूर्व उपस्थित पाया जाता क्योंकि परमात्मा सर्वज्ञ होने से पहिले सब स्थानों मे विद्यमान होता है, इसलिये इन्द्रयाँ उसको नही पा सकतीं अर्थात् उसका अनुभव नही कर सकती । जो परमात्मा को जानने के लिये इधर उधर दौड़ते है, वह परमात्मा को कदापि नही पा सकते अर्थात् जहाँ-जहाँ इन्द्रियाँ विषयो के लिये जाती है, वहाँ-वहाँ परमात्मा उनसे आगे पूर्व ही विद्यमान होते है । इस सब का यह तात्पर्य है कि ब्रह्म इन्द्रियों द्वारा अनुभव नही किया जा सकता और जो लोग इन्द्रियों से ईश्वर का दर्शन करने के लिये चारों ओर दौड़ते है, कभी परमात्मा को जानने के अधिकारी नही कहे जा सकते, जब तक कि वह संसार के विषयों से सर्वथा पृथक न हो जाये । प्रश्न- क्या ब्रह्म क्रिया शील नही ? उत्तर- ब्रह्म सर्वव्यापी होने से तनिक भी क्रिया नहीं करता परन्तु संसार की प्रत्येक वस्तु उसकी शक्ति से चलायमान है । प्रश्न- ब्रह्म साकार है या निराकार ? उत्तर- प्रत्येक साकार वस्तु परिछिन्न होती है और परिछिन्न पदार्थ चल-फिर सकते है, परन्तु मंत्र में बताया है कि ब्रह्म सर्वव्यापक होने से चलने आदि से रहित है, इसलिये वह साकार नही हो सकता, उसको शास्त्र में निराकार ही लिखा है । प्रश्न- ब्रह्म निराकार है, इसमें कोई प्रमाण नहीं, क्योकि आकारवाली वस्तुएं ही कार्य कर सकती है ब्रह्म सृष्टि की रचना इत्यादि का कार्य करता है, इसलिये वह किसी प्रकार निर्गुण अर्थात् निराकार नही हो सकता । उत्तर- आकार जाति का चिह्न है और वह जाति उन पदार्थों में रहती है, जो एक से अधिक हों । यतः ब्रह्म एक है, इसलिये उसमें जाति नही है । जब जाति नही, तो उसका चिह्न (आकार) भी नही और यह आवश्यक नहीं कि प्रत्येक सगुण वस्तु साकार ही हो, क्योंकि गुण प्रत्येक साकार व निराकार पदार्थ में रह सकते है । प्रश्न- कोई निराकार वस्तु काम करती हुई दृष्टिगोचर नही होती, इसलिये निराकार ब्रह्म जगत् को उत्पन्न करता है, यह असम्भव है । उत्तर- जितना काम करता है, निराकार ही करता है शरीर के अंग और यन्त्र इत्यादि जितनी साकार वस्तुएं हैं वह सब निराकार के कार्य करने के साधन है । क्या जीव साकार है ? यदि वह साकार होता, तो देह से निकलता हुआ अवश्य दृष्टिगोचर होता । क्योंकि जीव भी तो शरीर के चलाने आदि का कार्य करता है, इसलिये निराकार ब्रह्म भी जगत् की रचना आदि (कार्य) करता है । प्रश्न- मन्त्र मे यह लिखा है कि ब्रह्म के कारण जल वायु को धारण करता है, इसका अर्थ क्या है ? उत्तर- वायु, जो मेघ आदि जल के परमाणुओ को इकट्ठा करता है, वह सब ब्रह्म की सहायता से ही करता है, नही तो जड़ वायु मे कुछ भी करने की शक्ति नहीं, क्योंकि परमेश्वर सबसे अधिक शक्तिशाली है । कुछ मनुष्य इसका यह भी अर्थ निकालते है कि प्राण-वायु, जो कि माला के मणिकों मे धागे की भाँति शरीर की प्रत्येक इन्द्रिय और अवयव में पिरोया हुआ है, वह भी परमात्मा ही सहायता से सब कार्य्य करता है, नहीं तो प्राण-वायु में कोई शक्ति नही । माता के गर्भ मे जीवात्मा उस की सहायता से ही अपने कामो को पूरा करता है । सारांश यह है कि परमात्मा की सहायता के बिना कोई इन्द्रिय इत्यादि वस्तु काम नही कर सकती । इसी विषय को अगले मन्त्र मे और भी पुष्ट करते है ।

आचार्य राजवीर शास्त्री

पदार्थः—(अनेजत्) न एजते=कम्पते तदचलत्=स्वावस्थाया- श्च्युतिः कम्पनं तद्रहितम् (एकम्) अद्वितीयं ब्रह्म (मनसः) मनोवेगात् (जवीयः) अतिशयेन वेगवत् (न) (एनत्) (देवाः) चक्षुरादीनीन्द्रियाणि वा (आप्नुवन्) प्राप्नुवन्ति (पूर्वम्) पुरःसरं पूर्णम् (अर्षत्) गच्छत् (धावतः) विषयान् प्रति पततः (अन्यान्) स्वरूपाद्विलक्षणान्मनो- वागिन्द्रियादीन् (अति) उल्लङ्घते (एति) प्राप्नोति=गच्छति (तिष्ठत्) स्वस्वरूपेण स्थिरं सत् (तस्मिन्) सर्वत्राऽभिव्याप्ते (अपः) कर्म क्रियां वा (मातरिश्वा) मातर्य्यन्तरिक्षे श्वसिति=प्राणान् धरति वायुस्तद्वद्वर्त्तमानो जीवः (दधाति) ॥४॥ अन्वयः—हे विद्वांसो मनुष्याः ! यदेकमनेजन्मनसो जवीयः पूर्वमर्षद् ब्रह्माऽस्त्येनद्देवा नाप्नुवँस्तत्स्वयं तिष्ठत्सत्स्वानन्तव्याप्त्या धावतोऽन्यान- त्येति तस्मिन्स्थिरे सर्वत्राभिव्याप्ते मातरिश्वा वायुरिव जीवोऽपो दधातीति विजानीत ॥४॥ सपदार्थान्वयः—हे विद्वांसो मनुष्या ! यदेकम् अद्वितीयं ब्रह्म अनेजत् न एजते=कम्पते तदचलत्=स्वावस्थायाश्च्युतिः कम्पनं तद्रहितं, मनसः मनोवेगात् जवीयः अतिशयेन वेगवत् पूर्वं पुरःसरं पूर्णम् अर्षत् गच्छत् ब्रह्माऽस्त्येनद् देवाः चक्षुरादीनीन्द्रियाणि वा नाप्नुवन् प्राप्नुवन्ति; तत्स्वयं तिष्ठत् स्व- स्वरूपेण स्थिरं सत् स्वानन्तव्याप्त्या धावतः विषयान् प्रति पततः अन्यान् स्वस्वरूपाद्विलक्षणान्मनोवागिन्द्रि- यादीन् अति+एति उल्लङ् घ्य प्राप्नोति=गच्छति । तस्मिन्=स्थिरे सर्वत्राभि- व्याप्ते मातरिश्वा=वायुरिव जीवः मातर्य्यन्तरिक्षे श्वसिति=प्राणान् धरति वायुस्तद्वद् वर्त्तमानो जीवः अपः कर्म क्रियां वा दधातीति विजानीत ॥४०।४॥ भाषार्थ—हे विद्वान् मनुष्यो! जो (एकम्) अद्वितीय ब्रह्म है वह (अनेजत्) कम्पन रहित अर्थात् अपनी अवस्था-स्वरूप से कभी विचलित नहीं होता; वह (मनसः) मन के वेग से भी (जवीयः) अति वेगवान् (पूर्वम् सब का अग्रणी, पूर्ण (अर्षत्) सर्वत्र मन से पहले पहुंचा हुआ ब्रह्म है । (एनत्) इस ब्रह्म को (देवाः) अविद्वान् अथवा चक्षु आदि इन्द्रियां (न) नहीं (आप्नुवन्) प्राप्त कर सकती हैं । (तत्) वह स्वयं (तिष्ठत्) अपने स्वरूप में स्थिर हुआ अपनी अनन्त व्यापकता से (धावतः) विषयों की ओर भागने वाले (अन्यान्) उसके अपने स्वरूप से भिन्न मन, वाणी, इन्द्रिय आदिकों को (अत्येति) प्राप्त नहीं होता । (तस्मिन्) उस सर्वत्र व्यापक स्थिर ब्रह्म में (मातरिश्वा) जैसे अन्तरिक्ष में वायु क्रियाशील रहता है वैसे ही जीव (उस ब्रह्म में) (अपः) कर्म वा क्रिया को धारण करता है, ऐसा जानो ॥४॥ भावार्थः—ब्रह्मणोऽनन्तत्वाद्यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र पुरस्तादेवाऽभिव्याप्तमग्रस्थं ब्रह्म वर्त्तते; तद्विज्ञानं शुद्धेन मनसैव जायते । चक्षुरादिभिरविद्वद्भिश्च द्रष्टुम- शक्यमस्ति । स्वयं निश्चलं सत् सर्वान् जीवान् नियमेन चालयति धरति च । तस्याऽतिसूक्ष्मत्वादतीन्द्रियत्वाद्धार्मिकस्य विदुषो योगिन एव साक्षात्कारो भवति, नेतरस्य ॥४०।४ भावार्थ—ब्रह्म अनन्त है, अतः जहां-जहां मन जाता है, वहां-वहां पहले से ही व्यापक एवम् आगे आगे स्थित है; उस ब्रह्म का ज्ञान शुद्ध मन से ही होता है । उसे चक्षु आदि इन्द्रियां और अविद्वान् लोग नहीं देख सकते । वह स्वयं स्थिर रहता हुआ सब जीवों को नियम में चलाता है और उनको धारण करता है उस ब्रह्म के अति सूक्ष्म एवम् अतीन्द्रिय होने से धार्मिक, विद्वान्, योगी को ही उस का साक्षात्कार होता है; अन्य को नहीं ॥४०॥४॥ अर्षत्=अग्रस्थं वर्त्तते । देवा=विद्वांसश्चक्षुरादीनि च । आप्नुवन्=द्रष्टुं शक्नुवन्ति । अनेजत्=निश्चलं सत् ॥ भाष्यसार—कैसा मनुष्य ईश्वर का साक्षात्कार करता है— अद्वितीय ब्रह्म कम्पन रहित है अर्थात् अपने स्वरूप से कभी विचलित नहीं होता । वह मनोवेग से अधिक वेगवान् है अर्थात् ब्रह्म अनन्त है; जहां-जहां मन जाता है वहां-वहां ब्रह्म पहले से ही व्यापक है । उसका विशिष्ट ज्ञान शुद्ध मन से ही होता है । चक्षु आदि इन्द्रियां और अविद्वान् लोग उसका साक्षात्कार नहीं कर सकते; उसे प्राप्त नहीं कर सकते । वह अपने स्वरूप में स्थिर है । विषयों की ओर दौड़ने वाली, ब्रह्म के स्वरूप से भिन्न मन और वाणी आदि इन्द्रियों को वह अपनी अनन्त व्याप्ति से लांघ जाता है । वह स्वयं निश्चल है तथा सब जीवों को नियम से चलाता है और उन्हें धारण करता है । उस सर्वत्र व्याप्त तथा स्थिर ब्रह्म में जीव अपने कर्मों को स्थापित करता है । वह अति सूक्ष्म और अतीन्द्रिय है। धार्मिक विद्वान् योगी ही उसका साक्षात्कार करता है ॥ ४०।४॥ अन्यत्र व्याख्यात—“नैनद्देवा आप्नुवन् पूर्वमर्षत्” (य० ४०।४)—इस वचन में देव शब्द से इन्द्रियों का ग्रहण होता है; जो कि श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जीभ, नाक और मन ये छः देव कहाते हैं । क्योंकि शब्द स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, सत्य और असत्य इत्यादि अर्थों का इनसे प्रकाश होता है । और ‘देव’ शब्द से स्वार्थ में ‘तल्’ प्रत्यय करने से देवता शब्द सिद्ध होता है॥४०।४॥ (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका-वेदविषयविचार) समीक्षा—ईशावास्योपनिषत् के चतुर्थ मन्त्र की व्याख्या में श्री शङ्कराचार्य जी लिखते हैं— क—“वह आत्मतत्त्व कम्पन=चलन-अर्थात् अपनी अवस्था से च्युत होने से रहित हैः अर्थात् सर्वदा एक रूप ही रहता है । वह एक ही सब प्राणियों में वर्त्तमान है ।”*[*“अनेजत्=न एजत् । एजृ कम्पने, कम्पनं चलनं स्वावस्थाप्रच्युतिः, तद्वर्जितम्=सर्वदैकरूपमित्यर्थः । तच्चैकं सर्वभूतेषु ।” (ईशावा० मं० ४ । शा० भा०)] ख—“वह सर्वव्यापी आत्मतत्त्व अपने निरुपाधिक स्वरूप से समस्त संसारधर्मों से रहित तथा निर्विकार होकर ही उपाधिकृत सम्पूर्ण सांसारिक विकारों को अनुभव करता है और अविवेकी मूढ पुरुषों को प्रत्येक शरीर में अनेक सा प्रतीत होता है ।”*[*“सर्वव्यापि तदात्मतत्त्वं सर्वसंसारधर्मवर्जितं स्वेन निरुपाधिकेन स्वरूपेणाविक्रियमेव सदुपाधिकृताः सर्वाः संसार-विक्रिया अनुभवतीत्य- विवेकिनां मूढानामनेकमिव च प्रतिदेहं प्रत्यवभासते ।” (ईशा० मं० ४ । शा० भा०)] ग—“उस नित्य चैतन्यस्वरूप आत्मतत्त्व के वर्त्तमान रहते हुए ही, जो अन्तरिक्ष में सञ्चार=गमन करता है, वह मातरिश्वा वायु, जो समस्त प्राणों का पोषक और क्रियारूप है, जिसके अधीन ये सारे शरीर और इन्द्रियां हैं तथा जिसमें ये सब ओत-प्रोत हैं और जो सूत्रसंज्ञक तत्त्व निखिल जगत् का विधारक है, वह मातरिश्वा (वायु) प्राणियों के चेष्टारूप कर्म अर्थात् अग्नि, सूर्य मेघादि के ज्वलन, दहन, प्रकाशन एवं वर्षादि कर्म विभक्त करता है।”*[*“तस्मिन्नात्मतत्त्वे सति नित्यचैतन्यस्वभावे मातरि=अन्तरिक्षे श्वयति=गच्छतीति मातरिश्वा वायुः सर्वप्राणभृत् क्रियात्मको यदाश्रयाणि कार्यकरणजातानि यस्मिन्नोतानि प्रोतानि च यत्सूत्रसंज्ञकं सर्वस्य जगतो विधारयितृ स मातरिश्वा, अपः कर्माणि प्राणिनां चेष्टालक्षणानि, अग्न्यादित्य- पर्जन्यादीनां ज्वलन-दहन-प्रकाशाभिवर्षणादिलक्षणानि दधाति विभजति इत्यर्थः।” (ईशावा० ४। मं० शा० भा०)] यहां शङ्कराचार्य जी ने आत्मतत्त्व (ब्रह्म) को आकाश की भांति सर्वव्यापक अपनी अवस्था से च्युत न होने वाला सर्वदा एकरस तथा निरुपाधिक स्वरूप से सांसारिक धर्मों से रहित माना है, और फिर उसे ही यह भी कह दिया कि वही सोपाधिक होकर सब संसार के विकारों को अनुभव करता है । ये परस्पर विरोधी बातें कदापि सत्य नहीं हो सकतीं । जो निरुपाधिस्वरूप है, वह उपाधिस्वरूप कैसे होगा ? जो निर्विकार है, वह विकारों का अनुभव कैसे करेगा ? स्वयं श्री शङ्कराचार्य जी ने ‘द्वा सुपर्णा सयुजा० (मुण्डकोप० ३।१।१) के भाष्य में “सर्वसत्त्वो- पाधिरीश्वरो नाश्नाति” वह ईश्वर भोग नहीं करता है, ऐसा माना है, और यहां उसे ही विकारों का अनुभव करने वाला मान लिया है । क्या ये परस्पर विरोधी बातें विद्वानों को मान्य हो सकती हैं ? और जो बात मन्त्र में ही नहीं है, उसको व्याख्या में कैसे कहा जा सकता है ? श्री शङ्कराचार्य जी का यह कथन भी मिथ्या तथा शास्त्रविरुद्ध है कि अविवेकी मूढ पुरुषों को वह ब्रह्म ही प्रत्येक शरीर में अनेक सा प्रतीत होता है । यदि प्रत्येक शरीर में एक ही चेतन सत्ता कार्य कर रही है, उस ब्रह्म से भिन्न जीवात्मा की कोई सत्ता नहीं है तो एक दूसरे की बातों का ज्ञान क्यों नहीं होता ? एक के विद्वान् होने से सभी विद्वान् तथा एक के दुष्कर्म करने से सभी पापी क्यों नहीं हो जाते ? सब शरीरों में एक ही चेतन ब्रह्म है तो कर्मों का फल किसको मिलता है और कौन देता है ? एक के मुक्त होने से सब मुक्त क्यों नहीं हो जाते ? इत्यादि प्रश्नों का क्या इस मान्यता में कोई उत्तर सम्भव है ? और यह मान्यता उपनिषदों के भी विरुद्ध है, और नहीं इस मन्त्र में ही कही गई है । मन्त्र में ब्रह्म को एक कहा है, उसमें प्रतिशरीर में विद्यमान जीवों का कोई प्रसङ्ग ही नहीं है । उपनिषदों में ब्रह्म से भिन्न जीवात्मा की पृथक् सत्ता को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है । जैसे— (अ) ‘द्वा सुपर्णा सयुजा०’ (मुण्डक०) में परमात्मा को अभोक्ता और जीवात्मा को भोक्ता पृथक् मानकर ही वर्णन किया है । (आ) ‘य आत्मनि तिष्ठन्नात्मनोऽन्तरो यमात्मा न वेद यस्यात्मा शरीरम् ।’ (बृहदारण्यको०) में जीवात्मा को परमात्मा का शरीर बताया है अर्थात् वह सूक्ष्मतम होने से जीवात्मा में भी व्यापक है । (इ) ‘नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानाम्०’ (कठोप०) में नित्य व चेतन ब्रह्म से भिन्न जीवात्माओं को नित्य तथा चेतन माना है । इत्यादि अनेक प्रमाण दिए जा सकते हैं। श्री शङ्कराचार्य जी की यह भी मान्यता कैसी बेतुकी है कि ब्रह्मतत्त्व के वर्त्तमान रहते हुए वायु शरीर-इन्द्रियों को चलाता है और सब प्राणियों के कर्मों को धारण करता या विभक्त करता है । यदि इस मान्यता को मान लिया जाए, तब तो कोई भी प्राणी मरे ही नहीं । मृत्यु का अर्थ है, शरीर से जीवात्मा का वियोग होना । जब जीवात्मा की कोई सत्ता ही नहीं तो परब्रह्म तो सर्वत्र व्यापक तथा शाश्वत है, मृत शरीर में भी है, तब तो किसी की मृत्यु होनी ही नहीं चाहिए । और वायु जड़ है, वह ज्ञानेन्द्रियों व शरीरादि को चलाता है, ऐसी निराधार बातों को कोई मूढ़ व्यक्ति भी स्वीकार नहीं कर सकता । पता नहीं इन नवीन वेदान्तियों ने इन्हें कैसे मान रक्खा है । जो स्वयं प्रत्येक व्यक्ति को साक्षात् अनुभव में आ रहा है, उससे भी विरुद्ध कहना या मानना क्या विवेक की बात हो सकती है ? वायु देखना चाहे देखे, सुनना चाहे सुने, यह कैसे सम्भव है ? परब्रह्म को तो देखने सुनने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। अचेतन वायु शरीर में इन्द्रियों को वश में रक्खे, और प्राणियों के कर्मों को विभक्त करे, क्या ये बातें बुद्धिगम्य हो सकती हैं ? प्राणियों से यहां श्री शङ्कराचार्य जी ने अग्नि, सूर्य, मेघादि का ग्रहण किया है । यह भी वेदादि शास्त्रों से विरुद्ध मान्यता है । समस्त शास्त्रों में प्राण, अपानादि क्रियाओं को जीवात्मा का लिङ्ग=ज्ञापक माना है किन्तु श्री शङ्कर-स्वामी कह रहे हैं कि प्राणी से अभिप्राय जड़ सूर्यादि से है । जीवात्मा की सत्ता न मानकर पक्षपात एवं दुराग्रहग्रस्त होकर ही ऐसी शास्त्रविरोधी एवं बुद्धिविरोधी बातें लिखी गई हैं । स्वयं को ब्रह्म मानने वालों की बुद्धि का यहां दिवाला ही निकल गया है । और जड़ वायु सूर्यादि प्राणियों के कर्मों को धारण करें या विभक्त करें, इसे भी कौन विद्वान् स्वीकार करेगा ? वायु, सूर्यादि परमात्मा की प्रेरणा से अपने-अपने कार्यों में रत हैं । इन में ऐसा ज्ञान कहां कि एक दूसरे के कर्मों को विभक्त कर सकें । यथार्थ में सत्य से विमुख व्यक्ति पद-पद पर ठोकरें ही खाता है। उसकी मानी हुई मिथ्या-मान्यता सर्वत्र परस्पर विरुद्ध होने से अवश्य ही टकराती हैं । इस मन्त्र का महर्षि दयानन्द का सुसङ्गत, शास्त्रसम्मत तथा अविरुद्ध अर्थ देखने से उपर्युक्त समस्त मिथ्या, मान्यताओं का समूल परिहार हो जाता है । श्री उव्वट तथा श्री महीधर के भाष्य की समीक्षा— इस मन्त्र के ‘पूर्वम् अर्षत्’ पदों की व्याख्या में श्री उव्वट ने ‘अर्षत्’ पद में रिशति हिंसाकर्मा’ धातु मानकर ‘अविनश्यत्’ (अविनाशी) अर्थ किया है । श्री महीधर ने ‘अर्शत्’ पद ही मानकर लिखा है— “अर्शत्=रिश हिंसायाम्, रिश्यति=नश्यति रिशत्, न रिशद्, अरिशत्, धातोरिकारलोपश्छान्दसः ।” इस प्रकार दोनों ही भाष्यकारों ने ‘अर्षत्=अविनाशी’ अर्थ किया है। इस अर्थ के अनुसार “वह ब्रह्म पहले अविनाशी” था । क्या बाद में विनाशी हो जाता है ? यदि नहीं, तो पहले अविनाशी कहना असङ्गत ही है । इस का महर्षि दयानन्दकृत अर्थ द्रष्टव्य है, क्योंकि उसमें किसी भी तरह की असङ्गति नहीं है । इस मन्त्र के भाष्य में श्री शङ्कराचार्य, श्री उव्वट तथा श्री महीधर ने ‘मातरिश्वा’ पद का वायु अर्थ किया है । किन्तु यह अर्थ प्रकरण के अनुकूल नहीं है । मन्त्र के प्रथम तीन चरणों में ब्रह्म के स्वरूप का वर्णन है । उसी का स्मारक ‘तस्मिन्’ पद मन्त्र के चतुर्थ-चरण में विद्यमान है । इस पद का वायुपरक अर्थ करने पर मन्त्रार्थ यह होगा । “उस ब्रह्म में वायु कर्मों को स्थापित करता है ।” वायु अचेतन है, वह ब्रह्म में क्या कर्मों को स्थापित करेगा ? महर्षि दयानन्द ने इस पद का अर्थ करते हुए लिखा है—“मातर्यन्तरिक्षे श्वसिति=प्राणान् धरति वायुः, तद्वद् वर्त्तमानो जीवः ।” अर्थात् जैसे अन्तरिक्ष में रहने से वायु को ‘मातरिश्वा’ कहते हैं, वैसे ही जीव भी ब्रह्मरूपी माता के आश्रय से प्राणादि धारण करता है और अपने कर्मों को ब्रह्म में स्थापित करता है । अर्थात् स्वकर्मानुसार ब्रह्म जीवों को कर्मफल देता है । अतः यह अर्थ प्रकरणानुकूल होने से सुसङ्गत है । दीर्घतमाः । आत्मा =परमात्मा । निचृदनुष्टुप् । गान्धारः ॥ विदुषां निकटेऽविदुषां च ब्रह्म दूरेऽस्तीत्याह ॥ विद्वानों के निकट और अविद्वानों से ब्रह्म दूर है, यह उपदेश किया है ॥


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