असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसा वृताः । तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः ॥ ३ ॥
स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
प्र० क्र० — (असुर्य्यान) प्रकाश-रहित । (नाम) नाम वाले है । (ते) वे । (लोका) शरीर । (अन्धेन) घोर । (तमसा) अंधकार से । (आवृत्ताः) ढके हुए है । (तान्) उनको । (ते) वे । (प्रेत्य) मरकर । (अपि) भी (गच्छन्ति) जाते है । (ये) जो । (के च) कोई । (आत्महन) आत्मा के विरुद्ध करने वाले । (जना) मनुष्य है । अर्थ— वे मनुष्य महा तामस शरीरों में मरने के पश्चात् जाते है, जोकि अपने आप को मार डालते है । अन्धकारवाले शरीर का अर्थ जिनमें जाने से जीव के ज्ञान की शक्ति बहुत ही न्यून हो जाती है, क्योकि सूर्य प्रकाशक शक्ति है और प्रकाश ज्ञान को भी कहते है, अतः सूर्य (ज्ञान) से रहित अन्धकार वाले लोक (शरीर) का तात्पर्य ज्ञान से रहित योनि से है, क्योंकि ज्ञान का अर्थ शुभाsशुभ को जानकर उसके द्वारा द्वारा दुःख से छूटकर सुख प्राप्त करना है । जिन योनियो मे सुख के प्राप्त करने के लिये और दुःख से छूटने के लिये जो साधन है, उनका ज्ञान न हो, वह सब योनियाँ ज्ञान के प्रकाश से रहित है और ज्ञान के प्रकाश का अर्थ वेदो की शिक्षा से है ; क्योकि वेद का अर्थ ज्ञान है और सृष्टि के आरम्भ मे होने से उनका स्वतः प्रकाश अर्थात् बिना किसी अन्य शिक्षा के प्रकाशित होना भी माना गया है । अतः जिन लोको (शरीर) मे वेदो की शिक्षा नही दी जा सकती, वह लोक (शरीर) सूर्य अर्थात् ज्ञान के प्रकाश से रहित है, परन्तु वेद-मन्त्र ने अंधकार से पूर्ण होने का समर्थन किया है । कुछ मनुष्यो का यह विचार हो सकता है कि जब सूर्य का प्रकाश ही नही होगा, तो मनुष्य स्वयं ही अन्धकार से भरपूर होंगे, फिर वेद में ऐसे शब्द क्यों प्रकट किये । परन्तु ज्ञानी मनुष्य जान सकते है कि सूर्य के न होने की अवस्था मे सर्वथा अन्धकार ही नही बना रहता, किन्तु दीपक के प्रकाश की दशा मे भी सूर्य नही होता । इस लिये वेद ने बता दिया कि जिन लोको में सूर्य (ईश्वरीय प्रकाश वेद) और (दीपक) अर्थात् मानुपी शिक्षा, किसी प्रकार का (ज्ञान) नहीं होता, आत्मा को नाश करने वाले मनुष्य उन लोकों (शरीरो) मे प्रवेश करते है। प्रश्न— जब कि तुम आत्मा की उत्पत्ति ही नही मानते, तो नाश भी किसी भाँति नही हो सकता । यह उपदेश जो कि उसकी आत्मा को नाश करने के अभिप्राय में है, किस प्रकार ठीक हो सकता है क्योकि अविनाशी आत्मा का नाश तो हो ही नहीं सकता । जब कि इस अपराध का होना असम्भव है, तो उसका दण्ड विधान प्रत्यक्ष मूर्खता है । उत्तर— नाश करने से तात्पर्य उस (आत्मा के) अधिकार नष्ट करने से है, क्योकि जीवात्मा को परमात्मा ने मन इत्यादि पर आधिपत्य दिया है और यह सब इन्द्रिय, मन और शरीर आत्मा को ध्येय स्थान तक पहुँचाने के लिये साधन दिये है । अतएव जो मनुष्य आत्मा को इस लक्ष्य पद से गिराकर मन, इन्द्रिय और शरीर का दास बना देते है, वह सचमुच आत्मा का हनन करते है । प्रश्न— जब कि परमात्मा ने आत्मा को शासक और मन आदि को दास बनाया है, तो मनुष्य उसके विरुद्ध किस प्रकार काम कर सकता है ? उत्तर— मनुष्य कर्म करने मे स्वतन्त्र है, परन्तु जिस समय परमात्मा के विरुद्ध करता है, तो उसे दुःख मिलता है और जब परमात्मा की आज्ञा के अनुकूल कार्य करता है, तो उसे सुख प्राप्त होता है । प्रश्न— तुम जो "नाश" करने का अर्थ "अधिकार—नाश" लेते हो, उसमें क्या प्रमाण ? क्योंकि मन्त्र में तो आत्मा का मारना लिखा है । उत्तर— यहाँ अर्थ करने में लक्षण शक्ति का आश्रय किया है, क्योंकि जहाँ अक्षरो से असम्भव अर्थ निकले वहाँ लक्षण शक्ति से काम लिया जाता है । जैसे किसी ने कहा "मचान पुकारते है ।" इस वाक्य मे मचान में पुकारने की शक्ति का होना असम्भव है, इसलिये वहाँ यह लक्षण करते है कि मचान पर बैठे हुए मनुष्य पुकारते है । प्रश्न— तुम्हारा यह हमेशा ठीक नहीं, क्योकि ऐसा कथन हमने कभी नही सुना । दृष्टान्त वह होता है, जिसे प्रत्येक मनुष्य मान ले । उत्तर— जब मनुष्य रेलगाडी पर बैठे हुए कहते है कि मेरठ आ गया, तो बुद्धिमान जानता है कि मेरठ तो जड़ पदार्थ है, उसमें आने की क्रिया का होना असम्भव है । इसलिये वह उसके अर्थ यह समझता है कि रेलगाड़ी मेरठ पहुँच गई, और आने की क्रिया को मेरठ के स्थान मे रेलगाड़ी पर लगा देता है । प्रश्न— यदि इस प्रकार मन-माना अर्थ किया जाय, तो किसी शब्द का कोई ठीक अर्थ कुछ भी न होगा, किन्तु जहाँ जो चाहो, कर लो । उत्तर— नहीं, शब्दो के यथार्थ समझने के लिये ही यह शक्तियाँ नियत की गई है जिसमें कि कहने वाला का ठीक-ठीक प्रयोजन समझ में आ जाय और मनुष्य भ्रम-जाल मे न पड़े रहे । प्रश्न— तुमने ’लोक’ शब्द का अर्थ ’शरीर’ (योनि) किस प्रकार किया; क्योंकि किसी कोप मे लोक का अर्थ ’शरीर’ नही किया गया । उत्तर— ’लोक’ शब्द का अर्थ दृश्य-पदार्थ है । देह के दृश्यमान होने से पिंड अर्थात् जगत् की तुलना की जाती है । इसलिये लोक शब्द का अर्थ शरीर करना ठीक है, और प्रेत्य शब्द अर्थात् मरने के पश्चात् प्राप्त होने से अन्य योनि (देह) का नाम भी लोक ठीक हो सकता है ।
आचार्य राजवीर शास्त्री
पदार्थः—(असुर्य्या) असुराणां=प्राणपोषणतत्पराणामविद्यादि- युक्तानामिमे सम्बन्धिनस्तत्सदृशः पापकर्माणः (नाम) प्रसिद्धौ (ते) (लोकाः) लोकन्ते=पश्यन्ति ते जनाः (अन्धेन) अन्धकाररूपेण (तमसा) अत्यावरकेण (आवृताः) समन्ताद्युक्ता=आच्छादिताः (तान्) दुःखान्ध- कारावृतान् भोगान् (ते) (प्रेत्य) मरणं प्राप्य (अपि) जीवन्तोऽपि (गच्छन्ति) प्राप्नुवन्ति (ये) (के) (च) (आत्महनः) य आत्मानं घ्नन्ति=तद्विरुद्धमाचरन्ति ते (जनाः) मनुष्याः ॥३॥ अन्वयः—ये लोका अन्धेन तमसावृता ये के चात्महनो जनाः सन्ति तेऽसुर्य्या नाम, ते प्रेत्यापि तान् गच्छन्ति ॥३॥ सपदार्थान्वयः— ये लोकाः लोकन्ते=पश्यन्ति ते जनाः अन्धेन अन्धकाररूपेण तमसा अत्यावरकेण आवृताः समन्ताद्युक्ता= आच्छादिताः ये के चात्महनः य आत्मानं घ्नन्ति=तद्विरुद्धमाचरन्ति ते जनाः मनुष्याः सन्ति तेऽसुर्य्याः असुराणां=प्राणपोषणतत्पराणाम- विद्यादियुक्तानामिमे सम्बन्धिन- स्तत्सदृशः पापकर्माणः नाम प्रसिद्धाः; ते प्रेत्य मरणं प्राप्य अपि जीवन्तोऽपि तान् दुःखान्धकारावृतान् भोगान् गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति ॥४०।३॥ भाषार्थ—जो (लोकाः) लोग (अन्धेन) अन्धकाररूप (तमसा) अज्ञान के आवरण से (आवृताः) सब ओर से ढके हुए (ये, के, च) और जो कोई (आत्महनः) आत्मा के विरुद्ध आचरण करने हारे (जनाः) मनुष्य हैं; (ते) वे (असुर्याः) अपने प्राणपोषण में तत्पर, अविद्या आदि दोषों से युक्त लोगों एवम् उनके सम्बन्धियों के सदृश पाप कर्म करने वाले (नाम) प्रसिद्ध हैं, (ते) वे (प्रेत्य) मरने के पीछे (अपि) और जीते हुए भी (तान्) उन दुःख अज्ञान रूप अन्धकार से युक्त भोगों को (गच्छन्ति) प्राप्त होते हैं ॥३॥ भावार्थः—त एव असुरा, दैत्या, राक्षसाः, पिशाचा, दुष्टा मनुष्या य आत्मन्यन्यद्वाच्यन्यत्कर्मण्यन्यदा- चरन्ति ते न कदाचिदविद्यादुःख- साङ्गारादुत्तीर्याऽऽनन्दं प्राप्तुं शक्नुवन्ति। ये च यदात्मना तन्मनसा यन्मनसा तद्वाचा, यद्वाचा तत्कर्मणा- ऽनुतिष्ठन्ति; त एव देवा, आर्याः, सौभाग्यवन्तोऽखिलजगत्पवित्रयन्त इहाऽमुत्राऽतुलं सुखमश्नुवते ॥४०।३॥ भावार्थ—वे ही मनुष्य असुर, दैत्य, राक्षस, पिशाच एवं दुष्ट हैं; जो आत्मा में और, वाणी में और तथा कर्म में कुछ और ही करते हैं, वे कभी अविद्या रूप दुःख-साङ्गार से पार होकर आनन्द को नहीं प्राप्त कर सकते । और जो लोग जो आत्मा में सो मन में, जो मन में सो वाणी में, जो वाणी में सो कर्म में कपटरहित आचरण करते हैं; वे ही देव, आर्य, सौभाग्यवान् जन सब जगत् को पवित्र करते हुए इस लोक तथा परलोक में अनुपम सुख को प्राप्त करते हैं ॥४०।३॥ आत्महनः=आत्मन्यन्यद्वाच्यन्यत्कर्मण्यन्यदाचरण- कर्त्तारः । गच्छन्ति=प्राप्तुं शक्नुवन्ति । भाष्यसार—आत्महन्ता लोग कैसे होते हैं—जो लोग अन्धकार रूप अज्ञान के आवरण से आच्छादित हैं; सब ओर से ढके हुए हैं; और जो आत्मा के विरुद्ध आचरण करने वाले हैं, वे आत्महन्ता कहलाते हैं । वे ही असुर अर्थात् प्राण-पोषण में तत्पर, अविद्यादि दोषों से युक्त, पापकर्म करने वाले हैं । जो आत्मा में और वाणी में और तथा कर्म में और ही आचरण करते हैं, वे ही असुर, दैत्य, राक्षस, पिशाच और दुष्ट मनुष्य हैं, वे मरकर तथा जीते हुए भी दुःख एवम् अन्धकार से युक्त भोगों को प्राप्त होते हैं । वे कभी भी अविद्या रूप दुःखसाङ्गार से पार होकर आनन्द को प्राप्त नहीं कर सकते । इसके विपरीत—जो मनुष्य जो आत्मा में सो मन में, जो मन में सो वाणी में, जो वाणी में सो कर्म में निष्कपट भाव से आचरण करते हैं; वे ही देव, आर्य, सौभाग्यशाली, सकल, जगत् को पवित्र करने वाले होते हैं; जो इस लोक और परलोक में अतुल सुख को प्राप्त करते हैं ॥४०।३॥ अन्यत्र व्याख्यात—(ये) जो (आत्महनः) आत्महत्यारे अर्थात् आत्मस्थ ज्ञान से विरुद्ध कहने, मानने और करने हारे हैं (ते) वे ही (लोकाः) लोग (असुर्या नाम) असुर अर्थात् दैत्य, राक्षस नाम वाले मनुष्य हैं; और वे ही (अन्धेन तमसावृताः) बड़े अधर्म रूप अन्धकार से युक्त होके जीते हुए और मरण को प्राप्त होकर (तान्) दुःखदायक देहादि पदार्थों को (अभिगच्छन्ति) सर्वथा प्राप्त होते हैं । और जो आत्मरक्षक अर्थात् आत्मा के अनुकूल ही कहते, मानते और आचरण करते हैं; वे मनुष्य विद्यारूप शुद्ध प्रकाश से युक्त होकर देव अर्थात् विद्वान् नाम से प्रख्यात हैं । वे ही सर्वदा सुख को प्राप्त होकर मरने के पीछे भी आनन्द युक्त देहादि पदार्थों को प्राप्त होते हैं । (व्यवहारभानु) समीक्षा—ईशावास्योपनिषत् के तृतीय-मन्त्र की व्याख्या में शङ्कराचार्य जी लिखते हैं— क—“अब अज्ञानी की निन्दा करने के लिए यह (तीसरा) मन्त्र आरम्भ किया जाता है ।”* [*“अथेदानीमविद्वन्निन्दार्थोऽयं मन्त्र आरभ्यते ।” (ईशावा० मं० ३ शाङ्करभाष्य)] ख—“अद्वय परमात्म-भाव की अपेक्षा से देवतादि भी असुर ही हैं। उनके अपने लोक ‘असुर्य’ हैं । जिनमें कर्मफलों का लोकन=दर्शन यानी भोग होता है, वे लोक अर्थात् जन्म अन्ध=अदर्शनात्मक तम=अज्ञान से आच्छादित हैं । वे इस शरीर को छोड़कर अपने कर्म और ज्ञान के अनुसार ब्रह्मा से लेकर स्थावर पर्यन्त योनियों में ही जाते हैं ।”* [*“असुर्याः=परमात्मभावमद्वयमपेक्ष्य देवादयोऽप्यसुरास्तेषाञ्च स्वभूता लोका असुर्या नाम । ते लोकाः कर्मफलानि, लोक्यते दृश्यन्ते भुज्यन्त इति जन्मानि । अन्धेनादर्शनात्मकेनाज्ञानेन तमसावृता आच्छादिताः तान् स्थावरान्तान् प्रेत्य=त्यक्त्वेमं देहमभिगच्छन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम् ।” (ईशावा० मं० ३ । शा० भा०)] ग—“जो आत्मा का घात करते हैं, वे आत्मघाती हैं । वे लोग कौन हैं ? जो अज्ञानी हैं । वे सर्वदा अपने आत्मा की किस प्रकार हिंसा करते हैं ? अविद्यारूप दोष के कारण अपने नित्यसिद्ध आत्मा का तिरस्कार करने से ।” “प्राकृत अज्ञानी जन आत्मघाती कहे जाते हैं । इस आत्मघातरूप दोष के कारण ही वे जन्म-मरण को प्राप्त होते हैं ॥”* [*“आत्मानं घ्नन्तीत्यात्महनः । के ते जनाः ? येऽविद्वांसः । कथं त आत्मानं हिंसन्ति ? अविद्यादोषेण विद्यमानस्यात्मनः तिरस्करणात् ।” “प्राकृताऽविद्वांसो जना आत्महन उच्यन्ते । तेन ह्यात्महननदोषेण संसरन्ति ते ।” (ईशावा० मं० ३। शा० भा०)] इस मन्त्र का देवता ‘आत्मा’ है । अतः आत्म-विषयक चर्चा ही मन्त्र का विषय होना चाहिए । शाङ्कर-भाष्य में इस मन्त्र का विषय ‘अज्ञानी की निन्दा’ माना है । जब उनके मत में एक परमात्मा ही परमतत्त्व है, उससे भिन्न और किसी की सत्ता ही नहीं तो अज्ञानी कौन हैं ? क्या परमात्मा ही अज्ञानी बन जाता है ? और ‘असुर्याः’ पद की व्याख्या में देवतादि को भी असुर कहना बिल्कुल गलत है । शतपथ ब्राह्मण के अनुसार ‘विद्वांसो हि देवाः’ विद्वान् पुरुषों को देव कहते हैं । क्या देव और असुर में कोई अन्तर नहीं है ? और ‘सर्वं खलु ब्रह्म’ मानने वाले यह भी भूल गए कि इससे वह ब्रह्म भी असुर हो जायेगा । और ‘लोकाः’ पद की व्याख्या की है—कर्मफल तथा जन्म । ‘लोक’ शब्द ‘लोकृ दर्शने’ धातु से बना है, किन्तु शाङ्कर-भाष्य में धात्वर्थ की भी उपेक्षा करके उसका ‘भोगना’ अर्थ कर दिया । क्या ही विचित्र कल्पना है ? और इस अर्थ की मन्त्रार्थ में सङ्गति भी नहीं लगती । क्योंकि मन्त्र में कहा है कि वे लोक तमसा=अन्धकार से ढके हुए हैं। क्या कर्मफल या जन्म अन्धकार से ढके होते हैं? यथार्थ में ‘लोकन्ते पश्यन्ति ये ते जनाः’ इस धात्वर्थ के अनुसार मनुष्य अज्ञान से ढके हुए होते हैं ? अतः यहां ‘लोकाः’ का अर्थ ‘जनाः’ ही सुसङ्गत है । इस मन्त्र की व्याख्या में श्री शङ्कराचार्य जी ने ‘यथाकर्म यथाश्रुतम्’ कहकर अपने-अपने कर्म और ज्ञान के अनुसार योनियों में जाना स्वीकार कर ही लिया । किन्तु यहां यह भूल गए कि कर्मफल के सिद्धान्त को स्वीकार करने से अद्वैतवाद खिसक जायेगा । क्योंकि कर्मों का फल कौन भोगता है, परमात्मा या जीवात्मा ? परमात्मा को तो स्वयं ही भोक्ता नहीं मानते, और जीवात्मा की सत्ता ही नहीं मानते, किन्तु यहां तो माननी ही पड़ेगी । यह अचेतन शरीर तो अग्नि-द्वारा ही भस्म हो जाता है । अतः कर्म-फल का भोग जीवात्मा ही करेगा । पूर्व शरीर का त्याग और नवीन शरीर की प्राप्ति जीवात्मा की ही माननी होगी । मन्त्र-पठित ‘आत्महनः’ पद का अर्थ भी श्री शङ्कराचार्य जी ने ठीक नहीं किया है । मन्त्र में दो बातें कही हैं और उन का चकार से समुच्चय किया है । एक तो यह है—जो मनुष्य अज्ञान से ढके हुए हैं और दूसरी यह है कि जो आत्महनः=आत्मा के विरुद्ध आचरण करने वाले हैं। परन्तु शाङ्करभाष्य में ‘चकार’ को न समझकर एक ही अर्थ कर दिया। आत्मघाती कौन हैं ? जो अज्ञान से ढके हैं । महर्षि दयानन्द ने मन्त्र के रहस्य को अच्छी प्रकार समझा और उसकी अत्युत्तम सुसङ्गत व्याख्या की है । उन्होंने लिखा है कि आत्मघाती वे मनुष्य होते हैं जो अपनी आत्मा के विरुद्ध आचरण करते हैं । वे दोनों प्रकार के ही मनुष्य हो सकते हैं—ज्ञानी और अज्ञानी । केवल अज्ञानी ही नहीं । विद्वान् भी बहुत बार लोभादि के कारण आत्मा के विरुद्ध आचरण करते रहते हैं, और अविद्वान् आत्मा के विरुद्ध आचरण न करने से आत्मघात-दोष से मुक्त भी रह जाते हैं । और जन्म-मरण में आवागमन के चक्र का कारण अविद्या-ग्रस्त आत्मघात ही नहीं है, अपितु जीवों के अपने शुभाशुभ कर्म भी हैं । चाहे कितना भी विद्वान् हो गया हो यदि कर्म अच्छे नहीं हैं, वह कभी भी जन्म-मरण से मुक्त नहीं हो सकता । इस मन्त्र के भाष्य में भी उव्वट लिखते हैं— “ये के चात्महनो जनाः=आत्मानं घ्नन्ति ये जनाः ते आत्महनः। आत्मानं च ते घ्नन्ति ये स्वर्ग-प्राप्तिहेतूनि कर्माणि कुर्वन्ति ॥” (अर्थ) जो लोग आत्मा का हनन करते हैं, वे ‘आत्महन्’ कहलाते हैं । और आत्मा का हनन वे लोग करते हैं, जो स्वर्गप्राप्ति के निमित्त कर्म करते हैं । समीक्षा—मन्त्र में कहा है कि जो आत्मा का हनन करते हैं वे असुर=राक्षस हैं और वे मरकर घोर अन्धकार वाले लोकों को प्राप्त करते हैं । किन्तु ‘स्वर्गकामो यजेत’ (ब्राह्मण०) स्वर्ग की कामना करने वाले यज्ञ करें, इस प्रमाण के अनुसार स्वर्गप्राप्ति के हेतुभूत यज्ञादि शुभ कर्मों को करने वाले मनुष्यों को आत्मघाती तथा राक्षस बताना कैसा अद्भुत भाष्य है ? जिस स्वर्ग के विषय में उपनिषदों में अन्यत्र ऐसा लिखा है— क—स्वर्गलोका अमृतत्वं भजन्ते ॥ (कठो०) स्वर्ग को प्राप्त मनुष्य अमृतत्व=अमरता को प्राप्त करते हैं । ख—शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके ॥ (कठो०) शोकादि दुःखों से पार हुआ मनुष्य स्वर्गलोक में आनन्द से रहता है। ग—स्वर्गे लोके न भयं किञ्चनास्ति न तत्र त्वं न जरया बिभेति ॥ (कठो०) अर्थात् स्वर्गलोक को प्राप्त करने वाले को भय तथा बुढ़ापादि नहीं रहते । घ—त्रिकर्मकृत् तरति जन्ममृत्यू ॥ (कठो०) अर्थात् त्रिकर्मकृत्=यज्ञ, अध्ययन तथा दान करने वाला जन्म तथा मृत्यु के दुःख को पार कर लेता है । इत्यादि स्थलों पर स्वर्ग के विषय में पर्याप्त वर्णन मिलता है, जिस से स्पष्ट होता है कि स्वर्गलोक घोर अन्धकार या दुःख अथवा असुरों का स्थान नहीं है । स्वयं श्री शङ्कराचार्य जी ने भी लिखा है— ‘यस्मिन् स्वर्गे देवानां पतिरिन्द्रः एकः सर्वानुपरि अधिवसति ।’ (मुण्डको० १।२।५ शा० भा०) अर्थात् स्वर्गलोक में देवों का स्वामी इन्द्र सर्वोपरि है । यद्यपि स्वर्गलोक कोई स्थान विशेष नहीं है, परन्तु जो सनातनी बन्धु स्थान विशेष ही मानते हैं, उनके मत में भी घोर अन्धकार वाला लोक कदापि सिद्ध नहीं हो सकता। अतः स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाले कर्मों को करने वालों को आत्मघाती बताना एक मिथ्याग्रह से उत्पन्न प्रतिभा का ही फल हो सकता है; शास्त्रों तथा मूल मन्त्र से यह व्याख्या सर्वथा ही विपरीत है । दीर्घतमाः । ब्रह्म=स्पष्टम् । निचृत्त्रिष्टुप् । धैवतः ॥ कीदृशो जन ईश्वरं साक्षात्करोतीत्याह ॥ कैसा मनुष्य ईश्वर को साक्षात् करता है, यह उपदेश किया है ॥
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