द्रोपदी की व्यथा
जब पाण्डव कौरवो से छीप कर राजा विराट के
राज्य में रहते थे। आज्ञात वास के समय यह घटना उसी समय की हैं। जो राजा विराट का
साला और सेनापति था वह कामसक्त हो गया, उसके साथ क्या हुआ?
इस कहानी से जो काम का दुष्परिणाम निकलता है। वह ज्ञान वर्धक हम सब
के लिए है। जब पहली बार राजा विराट का सेनापति कीचक ने द्रौपदी को देखा, तो वह काम वासना से अत्यधिक पीड़ित हो गया, फिर वह
देव कन्या तथा देवी तुल्य द्रौपदी को चाहने लगा, और काम
अग्नि से पीड़ित होकर अपनी बहन राजा विराट की पत्नी सुदेंष्णा के पास गया। और हंस
कर बोला कि यह सुन्दरी कौन है? मैंने आज तक ऐसी शुभ स्त्री
राजा के महल में अथवा नगर में कभी नहीं देखा है।
इसके स्वरूप को देखकर मनुष्य को ऐसा उन्माद या वासना चढ़ जाती है, जैसे अच्छी बनाई हुई मदिरा शराब चढ़ता है। शराब में क्या होता है? जो वह मनुष्य को पूर्णतः हल्का कर देती है। मतलब वह अपना होश हवास भूल
जाता है। सारी परेशानियों को जब तक नशा रहता है। तब तक आदमी सब कुछ भुला रहता है।
काम में भी ऐसा ही होता है। तब मनुष्य अपना सारा पद अहंकार भूल कर उसमें कुछ पल के
लिए डूब जाता है। जिस प्रकार विश्वामित्र अपनी तपस्या को भूल कर मेनका के साथ काम
में रत हो गये, व्यास के पिताजी पराशर ऋषि एक मछुआरन पर
मोहित हो गए, जिससे व्यास की उत्पत्ति हो पाई। पुलस्ति ऋषि
आस्ट्रेलिया जा कर नाग कन्या से काम सम्बन्ध स्थापित कर लिया जिससे वैस्वानर फिर
उससे रावण जैसा विद्वान आता ताई पैदा हुआ।
यहा अमरीकन राष्ट्रपति विल किल्टन ने भी अपने पद की परवाह किए बगैर मोनिका
लेविस्कि के साथ संभोग कर डाला। उनके उपर महाभियोग भी चला, जिससे
वह बच गए। क्योंकि वहां कि जनता के लिए काम या संभोग एक साधारण घटना है। संभोग
साधारण है। लेकिन जब यह अपनी अति पर आता है। तो सर्वनाश भी अपने साथ लाता है। जैसा
की कीचक के साथ हुआ, क्योंकि उसने किसी दूसरे कि स्त्री पर
लालच भरी कु दृष्टि डाली, यदि वह आज भारत या अमरीका में होता
तो शायद ऐसा नहीं होता। जो उसके साथ या उसके सम्पूर्ण खानदान के साथ हुआ। आज काम
का उपयोग मात्र क्षणिक सुख से ज्यादा नहीं है। उसको लोग करके उसके बाद भूल जाते
है। जैसा की जानवर करते है। पहले मनुष्य होते थे, जो
प्राकृतिक थे आज जो मनुष्य वह क्रीतिम है। यह कहानी नेचुरल या प्राकृतिक मनुष्यों
की है। चाहे कृतिम मनुष्य हो या प्राकृतिक काम तो वही है। काम में कोई बदलाव नहीं
आया है। हा अब उसको देखने वाले कि दृष्टि बदलाव अवश्य आ गया है। काम ने ही मनुष्य
को मजबूत बनाया था और काम ही है। जो मनुष्य को आता ताई कमजोर बनाया है। इस काम के
अनियंत्रित उपभोग से ही भगन्दर जैसा महा विनाशक प्राण लेवा बीमारी मानव को होती
हैं। पहले के जो मनुष्य थे उन्होंने काम के उपयोग को जाना था, आज सिर्फ अन्तर इतना है। की उसके दुर प्रयोग के कितने रास्ते है? वह जाना जा रहा है।
आगे देखते है। कीचक क्या कह रहा है? द्रौपदी
के लिए, वह अपनी बहन से कहता है कि यह किस की स्त्री है,
और कहा से आई है? मुझको इसके बारे में विस्तार
से बता, इसने मेरे चित्त को हर कर अपने वश में कर लिया है।
मैं इसकी और कोई दूसरी औषधी नहीं जानता हूं, जिससे यह मेरी
पीड़ा शांत हो सके या इससे निवृत्त हो जाए, मुझको बड़ा आश्चर्य
है, कि यह स्त्री तेरी दासी है। यह तो दिव्य रूप दिखती है।
लेकिन ना जाने क्यों? यह अपने रूप के अयोग्य कर्म को करती
है। तू मुझको उसके विषय में आज्ञा दे, तो यह स्त्री मेरे घर
में जो वृद्धि युक्त विकास कर रहा है। जहां हाथी घोड़ें महाजन तथा भोजन वस्त्र आदि
से परिपूर्ण है। सुशोभित करे, अर्थात मैं उससे विवाह करना
चाहता हु। इस प्रकार कीचक ने अपनी बहन सुदेष्णा से कह कर आज्ञा मांग कर उस राज
पुत्री द्रौपदी के पास गया और आष्वासन दे कर उससे इस प्रकार कहने लगा जैसे कोई
गीदण मृगेन्द्र अथवा शेर की कन्या से कुछ कहे कामसक्त व्यक्ति गीदण कें समान हो
जाता है। जबकी कीचक बड़ा पराक्रमी योद्धा था। उसने द्रौपदी से कहा कि हे कल्याणी
तुम कौन हो? और किस की स्त्री हो? और
विराट नगर में कहा से आयी हो? हे सुन्दरी तुम सब तात्विक
सत्य बतावो तुम्हारा स्वरूप श्रेष्ठ, क्रान्ति तथा सुकुमारता
सर्वोत्तम है, और तुम्हारे मुख की शोभा चन्द्रमा के समान
कोमल और निर्मल है। तुम्हारे नेत्र बड़े-बड़े कमल के समान, और
बोली कोकिला के समान यानी कोयल के समान मधुर है। और सर्वांग सुन्दर है। हे
सुश्रोणी मैंने आज तक तुम्हारे समान रूप वान स्त्री पृथ्वी पर कोई नहीं देखी है।
क्या तुम कमल में वास करने वाली लक्ष्मी हो, या कोई और देवी
हो? या ऋद्धि-सिद्धि क्रान्ति कीर्ति आदि देवियों में से कोई
हो, कही तुम काम देव के अंगों में विहार करने वाली रति तो
नहीं हो? जो चन्द्रमा के उत्तम प्रभा के समान विहार कर रही
हो। तेरा मनोरम चांदनी के समान चन्द्र मुख जिसकी उपमा मेरे पास नहीं है। और तेरा
मंद नेत्र के खुलने को देखकर ऐसा कौन मनुष्य इस पृथ्वी पर है? जो मोहित या आकर्षित होकर कामसक्त ना होगा और तेरे दोनों अस्तन जो हार तथा
अलंकार के योग्य शोभायमान सुन्दर, सुडौल, कठोर, पुष्ट गोल मिले हुए, और
कदली कमल के तुल्य जो मुझको कामदेव के कोड़े के समान सुन्दर पीड़ा दे रहे है। तेरी
कमर उत्तम श्रेष्ठ रेखा युक्त और तुम्हारे दोनों अस्तनों के भार से झुकी हुई कमर
वितस्ति के सदृश्य पतली है। तेरे नदी के समान सुन्दर जाघों को देखकर मुझ को काम
रूप असिद्ध रोग ग्रसित करता जा रहा है। यह दयाहीन काम अग्नि दावानल और असाध्य है।
तेरे संगम यानी संभोग के संकल्प से विशेष बढ़कर मुझको दग्ध करती चली जाती है। इसलिए
हे सुन्दरी तू मेरी इस अग्नि को अपने संग रूप बादल तथा आत्म प्रदान रूपी वर्षा से
शांत कर दे, हे चन्द्रमुखी तेरे साथ संगम यानी संभोग से मेरे
चित्त को उन्माद करने वाले काम देव के तीव्र वाण शांत हो जाएगा। नहीं तो वह
तीक्ष्ण तथा भय उत्पन्न करने वाले, वाण जिन्होंने मेरे चित्त
में उन्माद उत्पन्न कर दिया है। शरीर त्याग आदि बड़ा कारण या इससे बड़ा संकट यह काम
उन्माद उत्पन्न करेगा। इसलिए तुझ को उचित है। कि तू चित्र विचित्र माला वस्त्र
कपड़ा़ और अलंकार आभूषण धारण करके या पहन कर अपनी आत्मा को मुझको समर्पित करके
मेरी रक्षा कर। हे विलासिनी तू मेरे साथ रह कर उत्तम श्रेष्ठ सुखों को प्राप्त हो,
तू सुख स्वरूप हो कर, यहाँ दुःख ना प्राप्त कर,
और यहां मत रह, तू मेरे साथ मेरे महल में रह
कर जीवन का परम आनन्द ले कर स्वयं को तृप्त कर। तुझ को मेरे साथ जो संसार का परम
ऐश्वर्य है मिलेगा। उसे प्राप्त कर जो अमृत के समान विभिन्न प्रकार के भौतिक
सामग्री पदार्थ विशेष भोजन करना उत्तमोत्तम पेय पदार्थ पीना सुन्दर भोग विलास
भोगना, सुख पूर्वक आनन्द क्रीड़ा करना, और खेलना मन को प्रसन्न करने योग्य जो पदार्थ है। उन को ग्रहण करना और
सर्वोत्तम भोगों को प्राप्त करना, इत्यादि प्रकार के ऐश्वर्य
तुझ को मेरे यहां मिलेगा। हे सुन्दरी इस समय तेरा सौन्दर्य और नवीन यौवन निरर्थक
है। तू उत्तम तथा शुभ मालाओं को बिना धारण के ही शोभा के साथ सौन्दर्य को प्राप्त
हो रही हो। हे सौन्दर्य की देवी जो मेरी पहली स्त्रियां है। उन को मैं त्याग दूंगा
वह सब तेरी दासी होकर रहेगी, और मैं भी तेरे बस में रहकर,
तेरे दास के समान रहुंगा।
तब द्रौपदी बोली की हे कीचक तुझ को, मुझ
जैसी नीच वर्ण यानी नीच कुल की तथा बाल संवारने वाली सैरेन्धी को चाहना योग्य नहीं
है।
यहां राजा विराट के यहां पाण्डव द्रौपदी
समेत छिपकर अपना नाम बदल कर रहते थे, द्रौपदी अपना सैरेन्धी
नाम रखकर सुदेष्णा रानी की सेविका या उनका बाल सवारने का कार्य करती थी। आगे
द्रौपदी ने कहा कि मैं पराई स्त्री हुं, और सब प्राणीयों को
अपनी-अपनी स्त्रीयाँ प्यारी होती है। इसलिए तुझ को पर स्त्री की इच्छा नहीं करनी
चाहिए। और तू धर्म के बारे में बिचार कर, जिससे तेरा कल्याण
होगा, और दूसरे की स्त्री को किसी भी शर्त पर प्राप्त करने
की व्यर्थ इच्छा मत कर, सत्य पुरुष अकार्य जो कर्म करने
योग्य नहीं हैं। उसका सदैव त्याग कर देते है। द्रौपदी के उक्त बचन को सुन कर वह
दुर्बुद्धि, अजितेन्द्रिय तथा काम से मोहित हुआ कीचक यह जान
कर भी की पर स्त्री का संग या संभोग किसी भी प्रकार से उसके लिए शुभ या कल्याण
कारक नहीं है। यहां तक उसके प्राण भी संकट में पड़ सकते हैं। और इससे सर्वथा
निन्दित अपमान ही मिलता है। फिर भी वह कहने लगा कि हे वरनाने वरण करने योग्य,
प्राप्त करने योग्य हे चारु हंसिनी। मैं तेरे कारण काम से महा पीड़ित
हो रहा हु, तुझ को मुझको इस तरह से उत्तर देना कदापि ठीक
नहीं है। मैं तेरे वश में होकर तुझ से प्रिय वार्तालाप कर रहा हु, मुझे ऐसा उत्तर ना दें, नहीं तो तू निश्चय ही
प्रायश्चित करेगी।
मैं इस सम्पूर्ण राज्य का बसाने वाला
स्वामी हूं,
मेरे समान पराक्रमी इस पृथ्वी पर कोई और योद्धा नहीं है, और रूप यौवन सौभाग्य तथा उत्तम भोग्य भोंगने वाला ही कोई है। मेरे समान
दूसरा कोई इस पृथ्वी पर नहीं है। इसलिए हे कल्याणी उत्तमोत्तम मनोहर तथा असादृश्य
भोग्य पदार्थों के होने पर भी तू दासी कार्य क्यों कर रही है? शुभानने तू मेरी कामना कर और
उत्तमोत्तम भोगों को भोग मेरी कामना करने पर तू इस राज्य की स्वामिनी होगी।
ऐसे अशुभ वाक्य सुन कर द्रौपदी कीचक की
निन्दा करती हुई,
बोली कि हे सुत पुत्र तू मोहित न हों क्यों अपना जीवन त्यागना चाहता
है? तुझे ज्ञात नहीं है। कि मैं सदैव पांच वीरों से रक्षित
या उनकी सुरक्षा में रहती हूं। तू मुझको नहीं पा सकता क्योंकि मेरे पति गंधर्व है।
यदि वह क्रोधित हो गये तो वह तुझे मार डालेगे, इससे यही
अच्छा होगा की तू इस व्यर्थ की इच्छा को यही त्याग दे, और
स्वयं को नष्ट मत कर। तू उस मार्ग पर चलने के लिए उतावला मत बन जो तू व्यग्र
मतवाला पागल हाथी की तरह हो रहा है। जिस मार्ग पर कोई नहीं चल पायेगा। और तू मुझको
इस प्रकार प्राप्त करना चाहता है। जैसे कोई मंद बुद्धि बालक समंदर के एक किनारे से
दूसरे किनारे पर जाना चाहता है, या अपनी उंगलियों से चांद को
पकड़ना चाहता है। तू नहीं जानता की मेरे पति देव कुमार और आकाश चारी अथवा आकाश में
विचरण करने वाले है। उनसे तू पृथ्वी के भीतर अथवा समंदर के अन्दर घुस कर भी,
तू स्वयं को बचा नहीं पाऐगा। तू कीचक मेरे लिए तेरा इतना हट करना
ऐसा ही है जैसे कोई व्यक्ति भयंकर रोग से ग्रसित होकर मृत्यु की कामना करता है।
अथवा माता की गोद का बच्चा सूर्य को छूना चाहता है। उसे पता नहीं है कि यह कार्य
उसके लिए असम्भव है। उन गंधर्वों की प्रिया को चाहने से तुझे इस पृथ्वी पर ही नहीं
स्वर्ग में भी शरण नहीं मिल सकती है। हे कीचक मैं जानती हु की इस समय तेरी बुद्धि
स्थिर नहीं है। जिसके कारण तू अपना जीवन नाश करना चाहता है।
तदनंतर वह कामतरु मर्यादाहीन कीचक राज
पुत्री द्रौपदी से उपर्युक्त उत्तर सुन कर सुदेष्णा अपनी बहन के पास चला आया। और
उससे कहने लगा की हे,
कैकयि तू ऐसा उपाय कर, तथा प्रयास के साथ
कोशिश कर कि किसी प्रकार से यह गजगामनी सौरेन्धी मुझको प्राप्त होकर मुझे चाहने
लगे। नहीं तो मैं अपने प्राण त्याग दुंगा। तू कृपा करके किसी युक्ति या उपाय से
ऐसा कर जिससे मैं इसको प्राप्त कर सकू। यह सुन कर सुदेष्णा कीचक पर दया करके
द्रौपदी तथा कीचक के संगम या संभोग करने का उपाय पर विचार कर कीचक से कहने लगी,
कि अब जो आने वाला तेवहार है उस पर तू मेरा अपने यहां मेरा निमंत्रण
करना और सुरा के साथ खाने के अच्छे-अच्छे भोग पदार्थ बनवाना, तब मैं तेरे पास इसको सुरा यानी शराब लेने के लिए भेजुगी। तब तू एकांत में
इससे अपनी इच्छा पूर्वक ऐसी बातें करना जिससे यह शांति पूर्वक तेरे साथ रमण करने
या संभोग के लिए बिना किसी अवरोध के या विरोध के तैयार हो जाए। कीचक अपनी बहन
सुदेष्णा के उक्त वचन को सुन कर अपने महल में चला गया। और उत्तम शराब जो राजावों
के लिए योग्य था उसको मंगवाया और चालाक व्यक्तियों से सुन्दर स्वादिष्ट भोजन
विभिन्न प्रकार का तैयार करवाया। फिर सुदेष्णा ने समय आने पर द्रौपदी को कीचक के
पास भोजन की इच्छा से भेजते हुए, कहा हे सैरेन्ध्री तू जल्दी
से जा कीचक के पास और मेरे लिए शराब लेकर आ मुझे बहुत ज्यादा प्यास लग रही है।
सैरेन्ध्री ने कहा कि हे महारानी मैं कीचक
के घर मैं नहीं जांउगी। तुम भी जानती हो, की वह बड़ा निर्लज्ज और
बेशर्म पुरुष है। मैं नहीं चाहती की तुम्हारे स्थान पर रह कर मैं इच्छा चारणी या
की व्याभ्चिरणी हो जाऊ, मैं निर्दोष अंग हु। यह तुम जानती
हो। तुम जानती हो की जिस समय मैं तुम्हारे घर आयीं थी तो मैंने क्या प्रतिज्ञा की
थी? सो मैं भले प्रकार से जानती की वह मूढ़ काम शक्त होकर
मेरा अपमान करेगा। इसलिए मैं उसके यहां नहीं जांउगी। आपका कल्याण हो, आपकी आज्ञा में और अनेक दासीयाँ हैं। इसलिए किसी और को भेज कर सुरा मँगा
लो। मेरे जाने में वह निश्चय मेरा अपमान
करेगा। सुदेष्णा बोली की हे सैरेन्ध्री यह सुनहरा पात्र ले जा, कीचक तुझे मेरी भेजी जान कर तुझ से कुछ नहीं बोलेगा, यह सुन कर द्रौपदी शंका करती है।
और ईश्वर की शरण लेती है और रोती हुई कीचक
के महल की तरफ चल पड़ी,
और मन में कहती गई की जो मैं अपने सत्य संकल्प में सिवाय अपने
पतियों के दूसरों को नहीं जानती हु। तो उस सत्य के प्रभाव से कीचक मुझ अप्राप्त को
वश में ना कर सके। जब द्रौपदी कीचक के घर
महल में पहुँचि। तब उसे मृगिनी के समान भयभीत देख कर, कीचक
मद के कारण ऐसे उठ खड़ा हुआ, जैसे नदी के पार जाने वाला नाव
को देख कर उठ कर खड़ा हो जाता है। कीचक ने बोला हे सुके शान्ते तेरा आना हमारे लिए
शुभ हो, आज मेरी रात्रि अच्छी तरह कटेगी, आवो स्वामिनी वैठों, और मेरा प्रिय करो यह स्वर्ण की
माला, शंख और अनेक प्रकार के रत्न जटित हीरे जवाहरात,
यह रेशमी वस्त्र मृग चर्म ले, और मेरे दिव्य
शैया पर विस्तर पर आ, जिस को मैंने तुम्हारे लिए सजा कर
अलंकृत किया है। चल कर मेरे साथ मधु-माधवी पान कर।
द्रौपदी बोली की हे कीचक रानी मुझे यह कह कर
तेरे पास भेजा है। की तू शीघ्र जा कर मेरे लिए सुरा लेकर आ मुझे प्यास लग रही है।
कीचक बोला हे भद्रे दूसरी दासियां रानी के लिए सुरा ले जाएगी, यह
कह कर कीचक ने, उसका दाहिना हाथ पकड़ लिया। तब द्रौपदी बोली
कि हे कीचक जिस प्रकार मैंने अपने पतियों के सिवाय पर पुरुष को कभी मन से भी नहीं
चाहा है। उसी अपने सत्य के प्रभाव से मैं तुझ पापी को वशीभूत तथा चारों ओर से
खींचता हुआ देंखुगी।
तब कीचक ने उस क्रोधित तथा निन्दा करती
हुई,
विशाल नेत्रों वाली द्रौपदी को देखकर, उसके
उत्तर वस्त्र-दुपट्टे का पकड़ लिया, उस समय द्रौपदी ने बड़े
रोष से बारबार स्वास लेकर उस नीच कीचक को अपनी पूरी शक्ति से एक ऐसा धक्का दिया,
जिससे वह एक ओर इस प्रकार पृथ्वी पर गीर पड़ा, जैसे
जड़ से कटा हुआ वृक्ष पृथ्वी पर गीर पड़ता है। इस प्रकार द्रौपदी उस नीच को गिरा कर
सभा की ओर दौड़ि, जिसमें राजा के साथ युधिष्ठिर थे, और उसने सभा की शरण ली, तब कीचक ने उस दौणती हुई
द्रौपदी को शीघ्रता से उसके बालों को पकड़ लिया और राजा के सम्मुख ले जा कर उसे
लाते मारने लगा॥
उस समय भिमसेन और युधिष्टिर सभा में वैठें
हुए थे। और द्रौपदी के पराभव- अपमान को सह नहीं सकते थे उन्होंने उसकी यह दुर्गति
को देखा।
तब महामन भिमसेन क्रोधित होकर उस दुरात्मा
कीचक को मारने की इच्छा से अपने दात पीसने लगा, और उसकी भौहें चढ़ गई,
ललाट पर पसीना आ गया, और नेत्र लाल हो गये,
इस समय महामन भीमसेन अपने हाथ से ललाट को मलने लगा, तथा क्रोध के कारण अकस्मात उठना चाहा, परन्तु राजा
युधिष्ठिर ने अपने पैरो के अँगूठे से उसका अँगूठा दबा दिया, और
स्वयं के प्रकट हो जाने के भय (से की वे सब पाण्डव है और दुर्योधन से छीप कर यहां
राजा विराट के यहां शरण लिया है।) उसको उठने से रोका भीमसेन उस सभी में मदमस्त
मतवाले हाथी के समान बाहर वृक्ष को देख रहा था। उसको देख कर युधिष्ठिर ने उससे कहा
कि अरे रसोंइया तू यहां बैठ कर इंधन के लिए वृक्ष की ओर क्यों देख रहा है? यदि तेरा प्रयोजन लकड़ी से है तो नगर के बाहर जा कर जंगल से सुखी लकड़ी
इंधन के लिए क्यों नहीं ले आता? (भीमसेन यहां राजा विराट के
राज्य में रसोइया का कार्य करते थे अपना नाम बदल कर) इसी अवसर में वह मलिन चित्त
भर्तारों अथवा पतियों के देखती हुई, सभा में आई और रौद्र
नेत्र के साथ धर्म तथा प्रतिज्ञा पूर्वक कहने लगी कि हे राजन आज सुत पुत्र कीचक ने
मुझ माननीय भार्या पत्नी को लातों से मारा है। जिनका बड़ा वैरी चिंतन करने से भयभीत
हो जाता है। वह मेरे पति सत्य वादी और दानी देव है। परन्तु किसी से याचना नहीं
करते है। मैं उनकी प्रतिष्ठित भार्या पत्नी हुं, मुझे सुत
पुत्र कीचक ने लातों से मारा है। जिनकी धनुष कि ज्या डोरी का शब्द दून्दुभी के
समान होता है। उनकी मुझ भार्या को आज सुत पुत्र कीचक ने लातों से प्रताड़ित किया
है। वह सब जितेन्द्रिय तेजस्वी बलवान अभिमानी और इस लोक को नष्ट कर सकते है।
परन्तु वह धर्म पाश में बंधे है। मैं उनकी प्रतिष्ठित भार्या पत्नी हु, मुझे सुत पुत्र कीचक ने लातों से मारा है। हाय अब वह महारथी कहां है?
जो शरणार्थी और शरणागत को अपनी शरण में लेते है और गुप्त रूप विचरते
हैं। हाय वह महाबली होकर मुझ प्रिया तथा सती को सुत पुत्र के हाथों पीटती हुई
देखकर, लाचार पशुओं के समान कैसे सह रहे है? उनका क्रोध तेज पराक्रम कहा गया? जो आज अपनी भार्या
को इस दुरात्मा के हाथ से पीटते हुए कैसे देख रहे है? हाय
मैं क्या करुँ? इस राजा विराट का धर्म खत्म हो चुका है,
इसलिए यह भी मुझ निरपराध को पिटती हुई देखता रहा है।
हे राजा विराट कीचक से तुम्हारा बर्ताव
राजावो के समान नहीं है। तुम्हारा धर्म चोरों के समान है और तुम सभा में बैठे हुए
हो शोभा नहीं देते हो,
क्योंकि तुम्हारे सामने मेरा पिटना योग्य नहीं है। हे सभासदों कीचक
के इस व्यक्ति क्रम अनुचित व्यवहार को देखों, और यह कीचक
किसी अवस्था में धर्मज्ञ नहीं है, और राजा विराट तथा यह चारों
ओर बैठे सभा सद भी धर्मज्ञ नहीं है। जब वह वरवार्णीनी सुलोचना द्रौपदी ने उक्त
प्रकार से राजा विराट की निन्दा की तब राजा ने कहा कि मैं तुम दोनों के मध्य इस
परोक्ष विग्रह को नहीं जानता हूं, और जब तक मैं किसी बात और
उसका सार तत्व को समझ नहीं जाता, तब तक मैं बिना जाने क्या
कर सकता हु?
फिर बाद में सभासदों ने सारा वृतांत जान कर
द्रौपदी की प्रशंसा की और उसको साधु-साधु कहा तथा कीचक की निन्दा की, और
फिर सब ने कहा कि हे सुन्दरी तथा विशाल नेत्रों वाली जिस किसी की भार्या होगी उसको
बड़ा लाभ होगा। वह इसकी ओर से किसी प्रकार की चिन्ता ना करे, हमारी
राय में तुम्हारी तरह वरवार्णीनी तथा सुन्दर अंगो वाली भार्या सब को मिलना सुलभ
नहीं है। अर्थात तुम बड़ी दुर्लभ हो।
जब द्रौपदी को देखकर सभासदों ने ऐसा कहा और
उसकी प्रशंसा की तब युधिष्ठिर के मस्तक पर पसीना आ गया फिर युधिष्ठिर ने कहा कि हे
सैरेन्ध्री तू सुदेष्णा के पास जा, यहां मत खड़ी हो, पति की सेवा करने वाली स्त्रियाँ क्लेश पाती है, और
वह उस क्लेश युक्त सेवा से पति लोक को जीत लेती है। अर्थात उन को स्वर्ग प्राप्त
होता है।
मेरी समझ में तेरे गंधर्व पतियों का अभी क्रोध
करने का समय नहीं देखता हूं, इसी कारण सब सूर्य के समान तेजस्वी
होकर तेरी सहायता के लिए नहीं आते है। हे सैरेन्ध्री तू काल को नहीं जानती,
इसी कारण निर्लज्ज होकर शैलसी नटनी के समान रोती है। राज्य सभा में
खेलते हुए मत्स्य देशियों का विघ्न करती है। इसलिए अब तू जा गंधर्व तेरा अवश्य
प्रिय कर देंगे।
तब उस सैरेन्ध्री ने कहा कि मैं उन
दयावानों के लिए बड़ा धर्म कर रही हुं। इसलिए जो-जो अपराधी है। वह सब उनके हाथों से
वध्य हैं। अर्थात मारे जायेगे, जिन में सबसे बड़ा अपराधी वह अक्ष
विद्या का ज्ञाता है। यानी जुआ का सबसे बड़ जानकार शकुनी जिसने छल कपट से राजा
युधिष्ठिर का राज्य छीन लिया है।
यह कह कर वह सुश्रोणी द्रौपदी जिसके नेत्र
क्रोध से लाल हो रहे थे,
शीर के बाल खोले हुए सुदेष्णा के महल में चली गयी, चिर काल तक रोने के कारण उसका मुख ऐसा सुशोभित हो रहा था, जैसे मेघ लेखा मेघ बादलों से मुक्त होकर चन्द्रमा निकल रहा हो।
सुदेष्णा बोली हे वरारोही तुझ को किसने
मारा है। तू क्यों रोती है। हे कल्याणी क्या किसी को सुख नहीं वा किसी ने तेरा
अप्रिय किया है?
तब द्रौपदी बोली हे महारानी मैं तुम्हारे लिए सुरा लेने गई थी सो
मुझको कीचक ने राजा के सामने सभा में इस प्रकार से लात मारी, जैसे कोई निर्जन वन में किसी प्राणी को मारता है।
फिर सुदेष्णा ने कहा कि हे सुन्दरी तू कह
तो मैं कीचक को मरवा दुं,
क्योंकि वह नीच काम से मतवाला होकर तुझ दुर्लभा का अपमान करता है।
द्रौपदी ने कहा कि हे महारानी उसको दूसरे ही मारेंगे, जिसका
उसने अपराध किया है। मैं जानती हुं यह प्रकट है। की वह परलोक को जायेगा। इसके
पश्चात द्रौपदी अपने रहने के स्थान में चली गई, वहां विधि
पूर्वक शौच आदि से निवृत्त होकर, और अपने वस्त्र आदि धो कर
उस सेना पति कीचक का वध या मरवाने की इच्छा से रोती हुई, यह
सोचने लगी, कि अब मैं क्या करुँ? और
कहां जाऊं, यह मेरा काम कैसे पूर्ण होगा? इसी अवसर में वह चिन्ता मग्न हो गई, तभी उसे भीमसेन
की याद आ गई, उसका स्मरण ध्यान आते ही वह विचार करने लगी,
कि सिवाय भीम सेन के और दूसरा कोई व्यक्ति मेरा प्रिय हित नहीं कर
सकता है। यह विचार करके वह रात्रि के समय अपना शयन छोड़ कर शय्या पर से उठ खड़ी हुई,
और वह सनाथ द्रौपदी अपने स्वामी के प्राप्ति की इच्छा से मानसिक
दुःख से विह्वल हुई। भीमसेन के स्थान को चल दिया, और उसके
द्वार पर पहुंच कर यह कहती हुई भीतर चली गई, कि पापात्मा
सेनापति के जीवित रहते हुए, जो मेरा शत्रु है। तुम कैसे सो
रहे हो? क्या तुम ने उस पापी को मार लिया, उस समय भीम अपनी पाक शाला के कक्ष में सिंह के समान गाढ़ निद्रा में सोया
हुआ था। जब द्रौपदी उसके कमरे के भीतर गई, तो वह स्थान भीमसेन
के रूप तथा द्रौपदी के तेज के साथ प्रज्वलित हो गया, अर्थात
चारों तरफ से जगमगाहट-सी फैल गई, तदोपरान्त द्रौपदी जल से
उत्पन्न बगुले के समान तथा तीन वर्ष की पुष्पिणी नौ के समान भीम सेन के पास जा कर
बैठ गई, और उससे इस प्रकार मिली मानो गोमती नदी के तट पर फूल
शाल के वृक्ष से लता मिल रही हो। और उस सोते हुए भीमसेन को हाथ पकड़ कर इस प्रकार
जगाया, जैसे सिहंनी निर्जन वन में सोए हुए सिंह को जगाती है।
और इस प्रकार आलिंगन किया जैसे हथिनी महागज को आलिंगन करती है। अथवा मधुर शब्द वान
वीणा गान्धार नामक स्वर को आलिंगन करता है। फिर द्रौपदी ने कहा कि हे भीमसेन क्या
मृतवत् पड़े हुए सो रहे हो? उठो - उठों पापी पुरुष सजीव पुरुष
की भार्या को लेकर जीवित नहीं रह सकता इस प्रकार जगाए जाने पर भीमसेन उठ कर रुई के
गद्दे पर बैठ गया। और अपनी प्रिय पटरानी से कहा ऐसा क्या कारण है? जो इस तरह इतनी जल्द हमारे पास आ गई है। तेरा वर्ण स्वाभाविक नहीं लग रहा
है। क्या कारण है? जो तू ऐसी लग रही और पीली पड़ गई है। तू
अपना सब वृतान्त मुझ से कह चाहे वह सुख या दुःख रूप हो, और
चाहे प्रिय हो या अप्रिय हो, जिस को सुन कर यथा योग्य उसका
उपाय करुंगा। सब कामों में केवल मैं ही तेरा विश्वास पात्र हूं। मैंने ही तुझे
बारबार विपत्तियों से बचाया है। इसलिए जो कुछ तेरा काम है उसको मुझ से जल्दी से कह
और अपने स्थान पर जा कर सो जा जिससे किसी का इसका भान ना हो की हम सब एक ही है।
द्रौपदी बोली कि हे भिमसेन! तुम सब कुछ जान
बूझ कर मुझ से क्या पुछते हो? जिस स्त्री का पति राजा युधिष्ठिर हो
वह बिना सोच किये कभी रह सकती है। पहले प्रातिकाम मुझको दासी कहता हुआ, सभा में लाया था, उसकी जलन अभी तक मेरे हृदय को दग्ध
कर रही है। हे स्वामिन्! मेरे सिवाय ऐसी कोई राज पुत्री होगी जो ऐसा दुःख पा कर भी
जीवित रहेगी।
फिर मुझ वनवासी का अपराध दुरात्मा जयद्रथ
ने किया,
उसको भी कोई अन्य स्त्री नहीं सह सकेगी, अब
मुझको कीचक ने जिस प्रकार राजा विराट के सनमुख और उस धूर्त के देखते हुए स्पर्श
किया है। उसको सह कर मेरे सिवाय कौन स्त्री जीवित रहेगी? हे भीमसेन!
इस प्रकार मैं अनेक प्रकार के दुखों से पीड़ित हु, आप मेरे
क्लेश को नहीं जानते, अब मुझे जीवित रहने का क्या फल है?
हे पुरुष व्याघ्र! इस राजा विराट का साला कीचक जो सेनापति और दुष्ट
बुद्धि का है वह मुझे सैरेन्ध्री के वेश में देख कर राजगृह में वास करने वाली को,
नित्य प्रति वह कहता है। की तू मेरी भार्या होकर मेरे यहां वास कर।
उस वध योग्य कीचक की उस बात से मेरा हृदय, समय पर फल पकने के
समान मेरा हृदय विदीर्ण हो रहा है, तुम्हें दुष्ट द्यूत
खेलने वाले अपने बड़े भाई की निन्दा करनी चाहिए, जिसके कारण
मैं इस अनंत दुःख को प्राप्त हुई हूं। भला जुआरी के सिवाय ऐसा कौन मनुष्य होगा?
जो सब धन तथा राज्य को त्याग कर वनवास करने के लिए जूआ खेलेगा।
हमारे यहां इतना अनंत धन था। कि जो राजा प्रातः से सायंकाल तक सहस्र कनिष्ठ और
अन्य धन को लेकर भी जुआ खेलता तो भी चांदी, सोना, वस्त्र, यान, घोड़ा, खच्चर और भेड़ बकरी आदि कोई धन नहीं समाप्त होता, अब
देखों राजा सब धन जुए में हार कर लक्ष्मी हीन हो, अपने कर्म
का चिंतन करता हुआ मुढ़ के समान चुप है। जिस राजा युधिष्ठिर के पास दस हजार हाथी
तथा घोड़ें थी और वह सोने की माला पहन कर चलते थे, वही राजा
आज अपनी जीविका जुए से कमाए हुए धन पर करता है। जब वह इन्द्रप्रस्थ में था,
तो बड़े-बड़े पराक्रमी राजावों के एक लाख रथ उसकी सेवा में रहते थे,
और उसकी रसोई गृह पाकशाला में एक लाख दासीयां हाथ में सोने की थाल
लेकर अतीथियों को भोजन कराती थी। और वह दासीयों में श्रेष्ठ राजा हजारों स्वर्ण
मुद्राए दान करता था, अब वही राजा जुआ खेलने के कारण अनर्थ
में पड़ा है। अनेक स्वर संपन्न संगीतज्ञ तथा योद्धाओं के सेवक उज्ज्वल मणि तथा
कुण्डल पहन कर रोज सुबह-शाम उसकी उपासना करते थे। और हज़ारों तपस्वी जितेन्द्रिय
तथा विद्वान् ऋषि उसकी सभा में बैठते थे। इसके अतिरिक्त युधिष्ठिर के यहां अठासी
हजार स्नातक गृहस्थि ऋषि रहते थे, और उसने उनकी सेवा के लिए
प्रत्येक एक की सेवा के लिए तीस-तीस दासियो को नियुक्त कर रखा था। और दश हजार
उर्ध्वरेता ऋषि थे, जो किसी का दान नहीं लेते थे वह भी राजा
युधिष्ठिर के यहां भोजन पाते थे, देखों वही राजा नरेन्द्र अब
है। जिसमे अनिष्ठुरता, दया तथा सब का विभाग करना आदि सब गुण
स्थित है। यही धृतिमान तथा सत्यवादी राजा युधिष्ठिर किसी समय अंधे, क्षुद्र अनाथ, अनाथ बालक तथ राज्य में नाना प्रकार
के दुखियों का पालन पोषण करता था और दयावान शास्त्र की मर्यादा अनुसार कर्म करने
वाला है। देखों वही राजा युधिष्ठिर अब कैसे दुःख में पड़ा है? कि राजा विराट का आज्ञा कारी बन कर रहता है और राजा को सभा में जुआ खेलाता
है। और अपने को कंक नाम से प्रसिद्ध करके गुप्त रूप से रहता है, किसी समय जब यह राजा इन्द्र प्रस्थ में था, तब सब
राजा इसको भेंट तथा कर देते थे। और इसी की आज्ञानुसार ही चलते थे, वही राजा युधिष्ठिर अब दूसरों से अपनी आजीविका पाता तथा पराधीन है,
इसने पुरी पृथ्वी को अपने सूर्य तुल्य तेज से तपाया था। और इसकी सभा
में सब राजा तथा ऋषि इसका सत्कार करते थे, अब वही युधिष्ठिर
राजा विराट का सभासद होकर रहता है। और दूसरों की उपासना करके उन्हीं की-सी प्रिय
बात करता है। उस ज्ञानी तथा दुःख के अयोग्य धर्मात्मा युधिष्ठिर देखकर मेरा क्रोध
निः सन्देह बढ़ता है। और उसको ऐसी अवस्था में देख कर किस को दुःख नहीं होगा।
इधर, धर्मात्मा
युधिष्ठिर को जब अपनी जीविका के लिये दूसरे राजा की उपासना करते देखती हूं,
तो बहुत दुःख होता है। जब पाकशाला में भोजन तैयार होने पर तुम विराट
की सेवा में उपस्थित होते हो, और अपने को बल्लव-नामधारी
रसोइया बताते हो, उस समय मेरे मन में बड़ी वेदना होती है। यह
तरुण वीर अर्जुन, जो अकेले ही रथ में बैठ कर देवताओं और
मनुष्यों पर विजय पा चुका है, आज विराट की कन्याओं को नाचना
सीखा रहा है। धर्म में, शूरता और सत्य भाषण में जो सम्पूर्ण
जगत के लिये एक आदर्श था, उसी अर्जुन को ऐसे भेष में देख कर
आज मेरे हृदय में कितनी व्यथा हो रही है ! तुम्हारे छोटे भाई सहदेव को जब मैं गौओं
के साथ वालों के वेष में आते देखती हैं तो मेरे शरीर का रक्त सूख जाता है। मुझे
याद है, जब वन को आने लगी थी उस समय माता कुन्ती ने रोक कर
कहा था-'पांचाली ! सहदेव मुझे बड़ा प्यारा है; यह मधुर भाषी, धर्मात्मा तथा अपने सब भाइयों का आदर
करने वाला है। किंतु है बड़ा संकोची; तुम इसे अपने हाथ से
भोजन कराना, इसे कष्ट न होने पाये।' यह
कहते-कहते उन्होंने सहदेव को छाती से लगा लिया था। आज उसी सहदेव को देखती
हूं-रात-दिन गौओं की सेवा में जुटा रहता है और रात को बछड़ों के चमड़े बिछा कर
सोता है। यह सब दुःख देखकर भी मैं किस लिए जीवित हूँ? समय का
फेर तो देखों-जो सुन्दर रूप, अंक-विद्या और मेधा- शक्ति-इन
तीनों से सदा संपन्न रहता है, वह नकुल आज विराट के घर घोड़ों
की सेवा करता है। उनकी सेवा में उपस्थित होकर घोड़ों की चालें दिखाता है! क्या यह
सब देखकर भी मैं सुख से रह सकती हैं? जो युधिष्ठिर को जुए का
व्यसन है, और उसी के कारण मुझे इस राजभवन में सैरन्ध्री के
रूप में रहकर रानी सुदेष्णा की सेवा करनी पड़ती है। पाण्डवो की महारानी और पांचाल
नरेश की पुत्री होकर भी, आज मेरी यह दशा है। इस अवस्था में
मेरे सिवा कोई भी जीवित रहना चाहेगी? मेरे इस भेष से कौरव,
पाण्डव तथा पञ्चाल वंश का भी अपमान हो रहा है। तुम सब लोग जीवित हो,
और मैं इस अयोग्य अवस्था में पड़ी हूं। एक दिन समुद्र के पास तक की
सारी पृथ्वी जिसके अधीन थी, आज वही द्रौपदी सुदेष्णा के अधीन
होकर, उसके भय से डरी रहती है। कुन्तीनन्दन ! इसके सिवा एक
और असह्य दुःख, जो मुझ पर आ पड़ा है, सुनो
! पहले मैं माता कुन्ती को छोड़कर और किसी के लिये, स्वयं
अपने लिये भी कभी उबटन नहीं पीसती थी; परंतु अब राजा के लिये
चन्दन घिसना पड़ता है। देखों ! मेरे हाथों में खड्डे पड़ गये हैं, पहले ऐसे नहीं थे। । ऐसा कह कर द्रौपदी ने भीमसेन को अपने हाथ दिखायें।
फिर वह सिसकती हुई बोली-'न जाने देवताओं का मैंने कौन-सा
अपराध किया है, जो मेरे लिये मौत भी नहीं आती। भीम ने उसके
पतले-पतले हाथों को पकड़ कर देखा, सचमुच काले-काले दाग पड़
गये थे। अपने हाथों को अपने मुख पर लगाकर वे रो पड़े। आंसुओं की झड़ी लग गयी। फिर
आन्तरिक वेश से पीड़ित होकर भीमसेन कहने लगे' कृष्णे। मेरे
बाहुवल को धिक्कार है! अर्जुन के गाण्डीय धनुष को भी धिक्कार है, जो तुम्हारे लाल-लाल कोमल हाथ आज काले पड़ गये ! उस दिन सभा में मैं विराट
का सर्वनाश कर डालता अथवा ऐश्वर्य के मद से उन्मत्त हुए, कीचक
का मस्तक पैरो से कुचल डालता, किंतु धर्मराज ने रुकावट डाल
दी, उन्होंने कनखियों से देखकर मुझे मना कर दिया। इसी प्रकार
राज्य से च्युत होने पर भी, जो कौरवों का वध नहीं किया गया,
दुयोंघन, कर्ण, शकुनि और
दुःशासन का सिर नहीं काट लिया गया। इसके कारण आज भी मेरा शरीर क्रोध से जलता रहता
है। वह भूल अब भी हृदय में काँटे की तरह
कसकती रहती है। सुन्दरी ! तुम अपना घर्म न छोड़ों। बुद्धिमती हो, क्रोध का दमन करो । पूर्वकाल में भी बहुत-सी स्त्रीयों ने पति के साथ कष्ट
उठाया है। भृगुवंशी च्यवनमुनि जब । तपस्या कर रहे थे, उस समय
उनके शरीर पर दीमकों की बॉबी जम गयी थी। उनकी स्त्री हुई राजकुमारी सुकन्या। उसने
उनकी बहुत सेवा की। जानकी जनक की पुत्री सीता का नाम तो तुमने सुना ही होगा। वह
घोर वन में पतिदेव श्री राम चन्द्र जी की सेवा में रहती थी। एक दिन से राक्षस रावण
हर कर लंका में ले गया और तरह-तरह के कष्ट देने लगा। तो भी उनका मन राम चन्द्र जी
में ही लगा रहा। और अन्त में वह उनकी सेवा में पहुँच भी गयी। इसी प्रकार
लोपामुद्रा ने सांसारिक सुख का त्याग करके अगस्त्य मुनि का अनुगमन किया था।
सावित्री तो अपने पति सत्यवान के पीछे यमलोक तक चली गयी थी। इन रूपवती पतिव्रता
स्त्रियों का जैसा महत्त्व बताया गया है।
वैसे ही तुम भी हो, तुम में भी वे सभी सद्गुण मौजूद हैं। कल्याणी अब तुम्हें अधिक दिनों तक
प्रतीक्षा नहीं करनी है। १३ वर्ष पूरा होने में सिर्फ डेढ़ महीना रह गया है।
तेरहवाँ वर्ष पूर्ण होते ही तुम राजरानी बनोगी।
द्रौपदी बोली अब ! इधर बहुत कष्ट सहना पड़ा
है,
इसलिए आर्त होकर मैंने आंसू बहाये हैं, उलाहना
नहीं दे रही हूं। अब इस समय जो कार्य उपस्थित है, उसके लिये
तैयार हो जाओ। पापी कीचक सदा मेरे आगे प्रार्थना किया करता है। एक दिन मैंने उससे
कहा-'कीचक ! तू काम से मोहित होकर मृत्यु के मुख जाना चाहता
है, अपनी रक्षा कर। मैं पाँच गंधर्वों की रानी है, वे बड़े वीर और साहस के काम करने वाले हैं। तुझे अवश्य मार डालेंगे।'
मेरी बात सुन कर इस दुष्ट ने कहा-'सैरन्ध्री !
मैं गंधर्वों से तनिक भी नहीं इरता। संग्राम में यदि लाख गंधर्व भी आयें तो मैं
उनका संहार कर डालूंगा। तुम मुझे स्वीकार करो ।' इसके बाद उसने रानी सुदेष्णा से
मिलकर उसे कुछ सिखाया। सुदेष्णा अपने भाई के प्रेम वश मुझ से कहने लगी-'कल्याणी ! तुम कीचक के घर जा कर मेरे लिये मदिरा लाओं। मैं गयी, पहले तो उसने अपनी बात मान लेने के लिये समझाया। किंतु जब मैंने उसकी
प्रार्थना ठुकरा दी, तो उसने कुपित होकर बलात्कार करना चाहा।
उस एका मनोभाव मुझ से छिपा न रहा। इसलिए
बड़े वेग से भाग कर मैं राजा की शरण में गयी। यहाँ भी पहुंचकर उसने राजा के सामने
ही मेरा स्पर्श किया, और पृथ्वी पर गिराकर लात मारी। कीचक
राजा का सारथी है, राजा और रानी दोनों ही उसे बहुत मानते
हैं। परंतु है यह बड़ा ही पापी और क्रूर। प्रज्ञा रोती-चिल्लाती रह जाती है और वह
उसका घन लूट लाता है। सदाचार और धर्म के मार्ग पर तो वह कभी चलता ही नहीं। उसका
भाव मेरे प्रति खराब हो चुका है; जब मुझे देखेगा, कुत्सित प्रस्ताव करेगा और ठुकराने पर मुझे मारेगा। इसलिए अब मैं अपने
प्राण दे दुंगी। वनवास का समय पूरा होने तक यदि चुप रहोगे। तो इस बीच में पत्नी से
हाथ धोना पड़ेगा। क्षत्रिय का सबसे मुख्य धर्म है शत्रु का नाश करना।
परंतु धर्मराज के और तुम्हारे देखते-देखते
कीचक ने मुझे लात मारी और तुम लोगों ने कुछ भी नहीं किया। तुमने जटा सुर से मेरी
रक्षा की है,
मुझे हर कर ले जाने वाले जयद्रथ को भी पराजित किया है। अब इस पापी
को भी मार डालों। यह बराबर मेरा अपमान कर रहा है। यदि यह सूर्योदय तक जीवित रह गया,
तो मैं विष घोलकर पी जाऊँगी। भीमसेन ! इस कीचक के अधीन होने की
अपेक्षा तुम्हारे सामने प्राण त्याग देना, मैं अच्छा समझती
हैं।
यह कह कर द्रौपदी भीमसेन के वक्ष पर गिर
पड़ी और फूट-फूट कर रोने लगी। भीमसेन ने उसे हृदय से लगाकर आश्वासन दिया, उसके
आँसुओं से भीगे हुए मुख को अपने हाथ से पोंछा, और कीचक के
प्रति कुपित होकर कहा' कल्याणी ! तुम जैसा कहती हो, वही करूंगा; आज ही कीचक को उसके बन्धु-बान्धव सहित मार
डालूंगा। तुम अपना दुःख और शोक दूर कर आज सांय काल में उसके साथ मिलने को संकेत कर
दो। राजा विराट ने जो नयी नृत्यशाला बनवायी है, उसमें दिन
में तो कन्याएँ नाचना सीखती है, परंतु रात में अपने घर चली
जाती हैं। वहाँ एक बहुत सुन्दर मजबूत पलंग भी बिछा रहता है। तुम ऐसी बात करो,
जिससे कीचक वहाँ आ जाये। वहीं मैं उसे यम पुरी भेज दूंगा।'
इस प्रकार बातचीत करके दोनों ने शेष रात्रि
बड़ी विकलता से व्यतीत की,
और अपने उग्र संकल्प को मन में ही छिपा रखा। सवेरा होने पर कीचक
पुनः राजमहल में गया और द्रौपदी से कहने लगा-'सैरन्ध्री !
सभा में राजा के सामने ही तुम्हें गिराकर मैंने लात लगा दी ! देखा मेरा प्रभाव ?
अब तुम मुझ-जैसे बलवान वीर के हाथों में पड़ चुकी हो। कोई तुम्हें
बचा नहीं सकता। विराट तो कहने मात्र के लिये मत्स्यदेश का राजा है। वास्तव में तो
मैं ही यहाँ का सेनापति और स्वामी हैं। इसलिए भलाई इसी में है कि तुम खुशी-खुशी
मुझे स्वीकार कर लो। फिर तो मैं तुम्हारा दास हो जाऊँगा।'
द्रौपदी बोली कीचक ! यदि ऐसी बात है, तो
मेरी एक शर्त स्वीकार करो। हम दोनों के मिलन की बात तुम्हारे भाई और मित्र भी न
जानने पाये। कीचक ने कहा सुन्दरी ! तुम जैसा कह रही हो, वही
होगा।
द्रौपदी बोली राजा ने जो नृत्यशाला बनवायी है, यह
रात में सूनी रहती है; अतः अँधेरा हो जाने पर तुम वहीं आ
जाना। । इस प्रकार कीचक के साथ बात करते समय द्रौपदी को आधा दिन भी एक महीने के
समान भारी मालूम हुआ। तत्पश्चात् वह दर्प में भरा हुआ अपने घर गया। उस मूर्ख को यह
पता न था कि सैरन्ध्री के रूप में उसकी मृत्यु आ गयी है। । इधर द्रौपदी पाकशाला
में जा कर अपने पति भीमसेन से मिली और बोली- 'परन्तप !
तुम्हारे कथनानुसार मैंने कीचक से नृत्यशाला में मिलने को संकेत कर दिया है। वह
रात्रि के समय उस सुने घर में अकेले आवेगा, अत: आज अवश्य उसे
मार डालो।' भीम ने कहा- 'मैं धर्म,
सत्य तथा भाइयों की शपथ खा कर कहता है कि इन्द्र ने जिस प्रकार
वृत्रासुर को मार डाला था, उसी प्रकार मैं भी कीचक का प्राण
ले लुंगा । यदि मत्स्यदेश के लोग उसकी सहायता में आयेंगे तो में भी मार डालूंगा;
इसके बाद दुर्योधन को मार कर पत्नी का राज्य प्राप्त करूंगा।'
द्रौपदी बोली नाथ ! तुम मेरे लिये सत्य का
त्याग न करना। अपने को छिपाये हुए ही कीचक को मार डालना। । भीमसेन ने कहा—भीरु
। तुम जो कुछ कहती हो, वही करुगा; आज
कीचक को मैं उसके बंधुओं सहित नष्ट कर दूंगा।
इसके बाद भीमसेन रात्रि के समय नृत्यशाला
में जा कर छिपकर बैठ गये और इस प्रकार कीचक की प्रतीक्षा करने लगे, जैसे
सिंह मृग की घात में बैठा रहता है। इस समय पांचाली के साथ समागम होने की आशा से
कीचक भी मनमानी तरह से सज- धज कर नृत्यशाला में आया। वह संकेत स्थान समझ कर
नृत्यशाला के भीतर चला गया। उस समय वह भवन सब ओर अंधकार से व्याप्त था। अतुलित
पराक्रमी भीमसेन तो यहाँ पहले ही से मौजूद थे और एकांत में एक शैय्या पर लेटे हुए
थे। दुर्मति कीचक भी वहीं पहुँच गया और उन्हें हाथ से टटोलने लगा। द्रौपदी के
अपमान के कारण भीम इस समय क्रोध से जल रहे
थे। काम से मोहित कीचक ने उनके पास
पहुंचकर हर्ष से उत्पत्तचित्त हो मुसकरा कर कहा-'सुरेन्द्री ! मैंने
अनेक प्रकार से जो अनंत धन संचित किया है, वह सब मैं तुम्हें
भेट करता हूं। तथा मेरा जो धन-आदि से संपन्न सैकड़ों दासियों से सेवित, रूप-लावण्यमयी रमणीरत्नों से विभूषित और क्रीडा एवं अनेक सामग्रियों से
सुशोभित भवन है, यह भी तुम्हारे लिये ही निछावर करके मैं
तुम्हारे पास आया हूं। मेरे अन्तःपुर की नारियाँ अकस्मात् मेरी प्रशंसा करने लगती
हैं। कि मेरे समान सुन्दर वेष-भूषा से सुसज्जित और दर्शनीय कोई दूसरा पुरुष नहीं
है। । भीमसेन ने कहा- आप दर्शनीय है-यह बड़ी प्रसन्नता की बात है, किंतु आपने ऐसा स्पर्श पहले कभी नहीं किया होगा।
ऐसा कह कर महाबाहु भीमसेन सहसा उछल कर खड़े
हो गये,
और उससे हँसकर कहने लगे, 'ए पापी ! तू पर्वत
के समान बड़े डील-डौलवाला है; किंतु सिंह जैसे विशाल गजराज
को घसीटता है, उसी प्रकार आज मैं तुझे पृथ्वी पर मसलूंगा और
तेरी बहिन यह सब देखेगी। इस प्रकार जब तू मर जायगा तो सैरन्ध्री बेखटके विचरेगी
तथा उसके पति भी आनन्द से अपने दिन बितावेंगे। तब महाबली भीम ने उसके ।
पुष्पगुम्फित केश पकड़ लिये। कीचक भी बड़ा बलवान् था। । उसने अपने कैश को छुड़ा
लिया और बड़ी फुर्ती से दोनों हाथों से । भीमसेन को पकड़ लिया। फिर उन क्रोधित
पुरुष सिंहों में परस्पर बाहु युद्ध होने लगा। दोनों ही बड़े वीर थे। उनकी भुजाओं
की गड़गड़ाहट से बाँस फटने की कड़क के समान बड़ा भारी शब्द होने लगा। फिर जिस
प्रकार प्रचण्ड आँधी वृक्ष को झझोड़ डालती है, उसी प्रकार
भीमसेन कीचक को धक्के देकर सारी नृत्यशाला में घुमाने लगे। महाबली कीचक ने भी अपने
घुटनों की चोट से भीमसेन को भूमिपर गिरा दिया। तब भीमसेन दण्डपाणि यमराज के समान
यो वेग से उछल कर खड़े हो गये। भीम और कीचक दोनों ही वो बलवान् थे। इस समय स्पर्श
के कारण वे और भी उन्मत्त हो गये, तथा आधी रात के समय उस
निर्जन नाट्यशाला में एक-दूसरे को रगड़ने लगे। वे क्रोध में भरकर भीषण गर्जना कर
रहे थे, इससे वह भवन बार-बार गूंज उठता था। अन्त में भीमसेन
ने क्रोध में भरकर उसके बाल पकड़ लिये और उसे थका देख कर इस प्रकार अपनी भुजाओं
में कस लिया, जैसे रस्सी से पशु को बाँध देते है। अब कीचक
फुटे हुए नगारे के समान जोर-जोर से टकराने और उनकी भुजाओं से छूटने के लिये
छटपटाने लगा। किंतु भीमसेन ने उसे कई बार पृथ्वी पर घूमा कर उसका गला पकड़ लिया,
और कृष्णा के कोप को शांत करने के लिये उसे घोंटने लगे। इस प्रकार
जब उसके सब अंग चकनाचूर हो गये, और आँखो की पुतलियाँ बाहर
निकल आयीं तो उन्होंने उसकी पीठ पर अपने दोनों घुटने टेक दिये और उसे अपनी भुजाओं
से मरोड़ कर पापी को मार डाला।
कीचक को मार कर भीमसेन ने उसके हाथ, पैर,
सिर और गरदन आदि अंगों को पिण्ड के भीतर ही घुसा दिया। इस प्रकार
उसके सब अंगों को तोड़-मरोड़ कर उसे मांस का लोंदा बना दिया, और द्रौपदी को दिखा कर कहा, 'पाञ्चाली ! जरा यहाँ
आकर देखों तो इस कान के कीड़े की क्या गति बनायी है।' ऐसा कह
कर उन्होंने दुरात्मा कीचक के पिण्ड को पैरों से ठुकराया, और
द्रौपदी से कहा, भीरु । जो कोई तुम्हारे ऊपर कुदृष्टि डालेगा,
वह मारा जायगा। और उसकी यही गति होगी। इस प्रकार कृष्णा की
प्रसन्नता के लिये उन्होंने यह दुष्कर कर्म किया। फिर जब उनका क्रोध ठंडा पड़ गया,
तो वे द्रौपदी से पूछ कर पाकशाला में चले आये।
कीचक का वध करा कर द्रौपदी बड़ी प्रसन्न हुई, उसका
सारा संताप शांत हो गया। फिर उसने इस नृत्यशाला की रखवाली करने वालों से कहा,
देखो, वह कीचक पड़ा हुआ है।
मेरे पति गंधर्वों ने इसकी यह गति की है, तुम
लोग जा कर उस को देख तो लो, द्रौपदि की बातों को सुन कर
नाट्यशाला में सहस्त्रों चौकीदार हाथ में मशाल को लेकर वहां आये, फिर उन्होंने उसे वहां खून से लथ पथ प्राण विहीन अवस्था में जमीन पर पड़े
हुए देखा, उसको बिना हाथ पाँव के देख कर उन सब को बहुत बड़ा
दुःख हुआ। उन सब ने कीचक के शरीर की दुर्दशा की ऐसी स्थिति को देख कर उन सब को
बड़ा विस्मय हुआ। उसी समय वहां कीचक के सभी बंधु बांधव भी वहाँ पर आ कर जमा हो
गये। और उसकी लास के चारों तरफ एकत्रित हो कर विलाप करने लगे। उसकी ऐसी दुर्गति को
देख कर सभी के रोंगटे खड़े हो गये, उसके सारे शरीर के अंग
शरीर में घुस जाने के कारण वह पृथ्वी पर निकाल कर रखे गये कछुआ के समान दिख रहा
था। फिर उसके सगे संबंधि उसका दाह संस्कार करने के लिए उसकी तैयारी करने लगे। तभी
उनकी दृष्टि कुछ दुरी एक खंभा के सहारे खड़ी हुई, द्रौपदी पर
पड़ी, जब सभी लोग एकत्रित हो गये, तो
कीचक के भाईयों ने कहा की इस दुष्टा को अभी मार डाला चाहिए। इसी के कारण कीचक की
हत्या हुई है। अथवा मारने की भी क्या जरूरत है इसको भी मरे हुए कामासक्त कीचक के
साथ आग में जला देना चाहिए। ऐसा करने पर सुतपुत्र का प्रिय ही होगा। यह सोच कर
उन्होंने विराट के राजा से कहा की कीचक की मृत्यु इस सैरेन्ध्री के कारण ही हुई
है। अतः हमें कीचक के साथ इसको भी आग में जला देना चाहते हैं। आप इसके लिए आज्ञा
दे दीजिए, राजा ने सुत पुत्र कीचक के पराक्रम को ध्यान में
रख कर सैरेन्ध्री को भी उसके साथ जला डालने के लिए सहमति को दे दिया।
इस पर कीचक के संबंधियों ने तत्काल भय से
आक्रांत सैरेन्ध्रि को पकड़ कर कीचक की अर्थी के साथ बाँध दिया, और
उसको लेकर अंतिम संस्कार के लिए वहां से मरघट की तरफ चल पड़े, कृष्णा सनाथ होने पर भी सुत पुत्रों के चंगुल में पड़ कर, अनाथों कि तरह सो विलाप करने लगी, और अपनी सहायता के
लिए चिल्ला - चिल्ला कर कहने लगी, जय, जयंत, विजय, जयत्सेन, और जंयग्ल मेरी पुकार को सुनें, ये सुत पुत्र मुझे लिए जा रहें हैं। जिन वेगवान गंधर्वों की धनुष की
प्रत्यञ्चा की भीषण शब्द संग्राम भूमि में वज्र घात के समान सुनाई देता है,
और जिनके रथों का घोष बड़ा ही प्रबल है। वे मेरी पुकार को सुने,
हाय ये सुत पुत्र मुझे लिए जा रहें है।
कृष्णा कि दिन वाणी और विलाप को सुन कर
भीमसेन ने बिना कोई विचार किए अपनी शैया पर उठ कर खड़े हो गये, और
कहने लगे सैरेन्दध्री! तू जो कुछ कह रही है मैं उसको सुन रहा हूं, इसलिए अब इन सुत पुत्रों से तुम को कोई भी भय नहीं है। ऐसा कह कर वह नगर
का परकोटा लांघ कर नगर के बाहर आए, और श्मशान की तरफ बड़ी
तीव्रता से चल पड़े। वे इतनी तेजी से गये कि मरघट पर सुत पुत्रों से पहले ही पहुंच
गये। और उसके समीप ही उन को एक विशाल ताड़ के वृक्ष से दस गुना बड़ा वृक्ष दिखा,
जिसकी मोटी – मोटी शाखाएं थी, और उपर से सुख चुका था। उस वृक्ष को भीमसेन ने अपनी भुजाओं में भरकर हाथी
के समान जोर लगा कर जड़ से उखाड़ लिया, और दण्डपाड़ी यमराज
की तरह से अपने कंधे पर रख कर सुत पुत्रों की तरफ चल दिया। इस समय उनकी जंघाओं से
टकरा कर वहां अनेक बड़, पीपल और ढाक के वृक्ष गीर गए।
भीमसेन के सिंह के समान क्रोध पूर्वक अपनी
तरफ आते देख कर,
सब सुत पुत्र भयभीत हो गये, और डर से कांपते
हुए आपस में विवाद के साथ कहने लगे, अरे! देखो, यह बलवान गंधर्व वृक्ष को उठाए हुए, क्रोध में भरकर
हमारी तरफ आ रहा है, जल्दी से इस सैरेन्ध्री को छोड़ों,
इसी के कारण यह भय हम सब के लिए उपस्थित हो रहा है, अब तो वह सब सैरेन्ध्री को छोड़कर भय के कारण भीमसेन से दूर भाग कर नगर की
तरफ जाने लगे। उन्हें भागते हुए देख कर पवन नंदन भीमसेन ने, इन्द्र
जैसे दानवों का वध करते हैं, उसी प्रकार से एक सौ पाँच कीचक
के भाईयों को मार कर यमराज के घर भेज दिया। उसके बाद उन्होंने सैरेन्ध्री को
बंधनों से छुड़ा कर उसे ढाढ़स दिया। इस समय पाञ्चाली के नेत्रों से निरन्तर आँसुओं
की धारा बह रही थी और वह अत्यन्त दीन हो रही थी। उससे दुर्जय वीर भीमसेन ने कहा,
'कृष्णे | तेरा कोई अपराध न होने पर भी जो लोग
तुझे तंग करेंगे, वे इसी प्रकार मारे जायेंगे। अब तू नगर को
चली जा, तेरे लिये कोई भय की बात नहीं है। मैं दूसरे रास्ते
से राजा विराट के रसोई घर की ओर जाऊँगा।
जब नगर निवासियों ने यह सारा काण्ड देखा तो
उन्होंने राजा विराट के पास जा कर निवेदन किया कि गन्धवों ने महाबली सूतपुत्रों को
मार डाला है और सैरन्त्री उनके हाथ से छूट कर राजभवन की ओर जा रही है। उनकी यह बात
सुन कर महाराज विराट ने कहा, 'आप लोग सूतपुत्रों की अन्त्येष्टि
क्रिया करें। बहुत-से सुगन्धित पदार्थ और रत्नों के साथ, सब
कीचक के एक ही प्रज्वलित चिता में जला दो।' फिर कीचकों के वध
से भयभीत हो जाने के कारण उन्होंने महारानी सुदेष्णा के पास जाकर कहा,
"जब सैरन्धी यहाँ आवे तो तुम मेरी ओर से उससे यह कह देना कि 'समुखि! तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम्हारी जहाँ इच्छा
हो वहाँ चली जाओ; महाराज गन्धयों कि तिरस्कार से डर गये
हैं।"
जब मनस्वनि सिंह से डरी हुई, मृगी
के समान अपने शरीर और वस्त्रों को धो कर नगर में आयी तो उसे देखकर पुरवासी लोग
गंधर्वो से भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगे तथा किन्ही- किन्हीं ने नेत्र ही मूंद
लिये। रास्ते में द्रौपदी नृत्यशाला में अर्जुन से मिली, जो
उन दिनों राजा विराट की कन्या को नाचना सिखाते थे। उन्होंने कहा, 'सैरन्त्री ! तू उन पापियों के हाथ से कैसे छूटी और वे कैसे मारे गये?
मैं सब बातें तेरे मुख से ज्यों-की-त्यों सुनना चाहती हूँ।'
सैरन्धी ने कहा,
'बृहनले ! अब तुम्हें सैरन्धी से क्या काम है ? क्योंकि तुम तो मौज में इन कन्याओं के अन्तःपुर में रहती हो । आजकल
सैरन्धी पर जो-जो दुःख पड़ रहे हैं, उनसे तुम्हें क्या मतलब
है। इसी से मेरी हंसी करने के लिये तुम इस प्रकार पूछ रही हो।' बृहनला ने कहा, 'कल्याणी । इस नपुंसक योनि में पड़
कर वृहनला भी जो महान् दुःख पा रही है, उसे क्या तू नहीं
समझती? मैं तेरे साथ रही हूँ और तू भी हम सबके साथ रहती रही
है। भला, तेरे ऊपर दुःख पड़ने पर किसको दुःख न होगा?
इसके पश्चात् कन्याओं के साथ ही द्रौपदी
राजभवन में गयी और रानी सुदेष्णा के पास जा कर खड़ी हो गयी । तब सुदेष्णा ने | राजा
विराट के कथना नुसार उससे कहा, 'भद्रे ! महाराज को | गन्धर्वों से तिरस्कृत होने का भय है। तू भी तरुणी है और संसार में तेरे
समान कोई रूपवती भी दिखायी नहीं देती। पुरुषों को विषय तो स्वभाव से ही प्रिय होता
है और तेरे गन्धर्व बड़े क्रोधी है। अतः जहाँ तेरी इच्छा हो, वहाँ चली जा।' सैरन्ध्री ने कहा, 'महारानी जी ! तेरह दिन के लिये महाराज मुझे और क्षमा करें। इसके पश्चात्
गन्धर्व गण मुझे स्वयं ही ले जायेंगे और आपका भी हित करेंगे। उनके द्वारा महाराज
और उनके बन्धु-बान्धवों का भी अवश्य ही बड़ा हित होगा।
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