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यजुर्वेद अध्याय 10, हिन्दी भाष्य महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती

 



यजुर्वेद अध्याय 10, हिन्दी भाष्य महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

देवता: आपो देवताः ऋषि: वरुण ऋषिः छन्द: निचृद् आर्षी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः


अ॒पो दे॒वा मधु॑मतीरगृभ्ण॒न्नूर्ज॑स्वती राज॒स्व᳕श्चिता॑नाः। याभि॑र्मि॒त्रावरु॑णाव॒भ्यषि॑ञ्च॒न् याभि॒रिन्द्र॒मन॑य॒न्नत्यरा॑तीः ॥१॥

 

पद पाठ

अ॒पः। दे॒वाः। मधु॑मती॒रिति॒ मधु॑ऽमतीः। अ॒गृ॒भ्ण॒न्। ऊर्ज॑स्वतीः। राज॒स्व᳕ इति॑ राज॒ऽस्वः᳖। चिता॑नाः। याभिः॑। मि॒त्रावरु॑णौ। अ॒भि। असि॑ञ्चन्। याभिः॑। इन्द्र॑म्। अन॑यन्। अति॑। अरा॑तीः ॥१॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

इसके पश्चात् इस दशवें अध्याय के प्रथम मन्त्र में मनुष्य लोग विद्वानों के अनुकूल चलें, इस विषय का उपदेश किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! तुम लोग (देवाः) चतुर विद्वान् लोग (याभिः) जिन क्रियाओं से (मित्रावरुणौ) प्राण तथा उदान को (अभ्यसिञ्चन्) सब प्रकार सींचते और जिन क्रियाओं से (इन्द्रम्) बिजुली को प्राप्त और (अरातीः) शत्रुओं को (अनयन्) जीतते हैं, उन क्रियाओं से (मधुमतीः) प्रशंसनीय मधुरादि गुणयुक्त (ऊर्जस्वतीः) बल पराक्रम बढ़ाने (चितानाः) चेतनता देने और (राजस्वः) ज्ञान-प्रकाश-युक्त राज्य को प्राप्त करानेहारे (अपः) जल वा प्राणों को (अगृभ्णन्) ग्रहण करो ॥१॥


भावार्थभाषाः -मनुष्यों को चाहिये कि विद्वानों के सहाय से जल वा प्राणों की परीक्षा करके उनसे उपयोग लेवें। शत्रुओं को निवृत्त करके प्रजा के साथ प्राणों के समान प्रीति से वर्त्तें और इन जल तथा प्राणों से उपकार लेवें ॥१॥

 

देवता: वृषा देवता ऋषि: वरुण ऋषिः छन्द: स्वराड् ब्राह्मी पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः


वृष्ण॑ऽऊ॒र्मिर॑सि राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ देहि॒ स्वाहा॑ वृष्ण॑ऽऊर्मिर॑सि राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ देहि वृषसे॒नो᳖ऽसि राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ देहि॒ स्वाहा॑ वृषसे॒नो᳖ऽसि राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ देहि ॥२॥

 

पद पाठ

वृष्णः॑। ऊ॒र्मिः। अ॒सि॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। दे॒हि॒। स्वाहा॑। वृष्णः॑। ऊ॒र्मिः। अ॒सि॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्रऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। दे॒हि॒। वृ॒ष॒से॒न इति॑ वृषऽसे॒नः। अ॒सि॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। दे॒हि॒। स्वाहा॑। वृ॒ष॒से॒न इति॑ वृषऽसे॒नः। अ॒सि॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। दे॒हि॒ ॥२॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब विद्वान् लोग कैसे राजा से क्या-क्या मागें, यह उपदेश अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे राजन् ! जिस कारण आप (वृष्णः) सुख के वर्षाकारक ज्ञान के प्राप्त कराने (राष्ट्रदाः) राज्य के देनेहारे (असि) हैं, इससे (मे) मुझे (स्वाहा) सत्यनीति से (राष्ट्रम्) राज्य को (देहि) दीजिये। (वृष्णः) सुख की वृष्टि करनेवाले राज्य के (ऊर्मिः) जानने और (राष्ट्रदाः) राज्य प्रदान करनेहारे (असि) हैं, (अमुष्मै) उस राज्य की रक्षा करनेवाले को (राष्ट्रम्) न्याय से प्रकाशित राज्य को (देहि) दीजिये। (राष्ट्रदा) राजाओं के कर्मों के देनेहारे (वृषसेनः) बलवान् सेना से युक्त (असि) हैं, (मे) प्रत्यक्ष वर्त्तमान मेरे लिये (स्वाहा) सुन्दर वाणी से (राष्ट्रम्) राज्य को (देहि) दीजिये तथा (राष्ट्रदाः) प्रत्यक्ष राज्य को देनेवाले (वृषसेनः) आनन्दित पुष्टसेना से युक्त (असि) हैं, इससे आप (अमुष्मै) उस परोक्ष पुरुष के लिये (राष्ट्रम्) राज्य को (देहि) दीजिये ॥२॥


भावार्थभाषाः -जो राजपुरुष दुष्ट प्राणियों को जीत प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष श्रेष्ठ पुरुषों का सत्कार करके अधिकार और शोभा को देता है, उसके लिये चक्रवर्त्ती राज्य का अधिकार होना योग्य है ॥२॥

 

देवता: अपां पतिर्देवता ऋषि: वरुण ऋषिः छन्द: अभिकृतिः, निचृद् जगती स्वर: ऋषभः, निषादः


अ॒र्थेत॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॒र्थेत॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ द॒त्तौज॑स्वती स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहौज॑स्वती स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ द॒त्तापः॑ परिवा॒हिणी॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहापः॑ परिवा॒हिणी॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्ता॒पां पति॑रसि राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे देहि॒ स्वाहा॒ऽपां पति॑रसि राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ देह्य॒पां गर्भो॑ऽसि राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ देहि॒ स्वाहा॒ऽपां गर्भो॑ऽसि राष्ट्र्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ देहि ॥३॥

 

पद पाठ

अ॒र्थेत॒ इत्य॑र्थ॒ऽइ॑तः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। अ॒र्थेत॒ इत्य॑र्थ॒ऽइतः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। ओज॑स्वतीः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। ओज॑स्वतीः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मु॒ष्मै॑। द॒त्त॒। आपः॑। प॒रिवा॒हिणीः॑। प॒रि॒वा॒हिनी॒रिति॑ परिऽवा॒हिनीः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। आपः॑। प॒रिवा॒हिणीः॑। प॒रि॒वा॒हिनी॒रिति॑ परिऽवा॒हिनीः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। अ॒पाम्। पतिः॑। अ॒सि॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। दे॒हि॒। स्वाहा॑। अ॒पाम्। पतिः॑। अ॒सि॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। दे॒हि॒। अ॒पाम्। गर्भः॑। अ॒सि॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। दे॒हि॒। स्वाहा॑। अ॒पाम्। गर्भः॑। अ॒सि॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। दे॒हि॒ ॥३॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

राजा, मन्त्री, सेना और प्रजा के पुरुष आपस में किस प्रकार वर्त्तें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जो तुम लोग (अर्थेतः) श्रेष्ठ पदार्थों को प्राप्त होते हुए (स्वाहा) सत्यनीति से (राष्ट्रदाः) राज्य सेवनेहारे सभासद् (स्थ) हो, वे आप लोग (मे) मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये, जो तुम लोग (अर्थेतः) पदार्थों को जानते हुए (राष्ट्रदाः) राज्य देनेवाले (स्थ) हो, वे तुम लोग (अमुष्मै) राज्य के रक्षक उस पुरुष को (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये, जो तुम लोग (स्वाहा) सत्यनीति के साथ (ओजस्वतीः) विद्या बल और पराक्रम से युक्त हुई रानी लोग आप (राष्ट्रदाः) राज्य देने हारी (स्थ) हैं, वे (मे) मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जो आप लोग (ओजस्वतीः) जितेन्द्रिय (राष्ट्रदाः) राज्य की देनेवाली (स्थ) हैं, वे आप लोग (अमुष्मै) विद्या, बल और पराक्रम से युक्त पुरुष को (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जो तुम लोग (स्वाहा) सत्यनीति से (परिवाहिणीः) अपने तुल्य पतियों के साथ विवाह करनेहारी (आपः) जल तथा प्राण के समान प्यारी (राष्ट्रदाः) राज्य देनेहारी (स्थ) हैं, वे आप लोग (मे) मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जो तुम लोग (परिवाहिणीः) अपने अनुकूल पतियों के साथ प्रसन्न होनेवाली (आपः) आत्मा के समान प्रिय (राष्ट्रदाः) राज्य देनेवाली (स्थ) हैं, वे आप (अमुष्मै) उस ब्रह्मचारी वीर पुरुष को (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। हे सभाध्यक्ष ! जो आप (राष्ट्रदाः) राज्य देनेहारे (अपाम्) जलाशयों के (पतिः) रक्षक (असि) हैं, सो (मे) मुझे (स्वाहा) सत्यनीति के साथ (राष्ट्रम्) राज्य को (देहि) दीजिए, हे सभापति ! जो आप (स्वाहा) सत्य वचनों से (राष्ट्रदाः) राज्य देनेवाले (अपाम्) प्राणों के (पतिः) रक्षक (असि) हैं, वे (अमुष्मै) उस प्राणियों के पोषक पुरुष को (राष्ट्रम्) राज्य को (देहि) दीजिये। हे वीर पुरुष राजन् ! जो आप (स्वाहा) सत्यनीति के साथ (राष्ट्रदाः) राज्य देनेवाले (अपाम्) सेनाओं के बीच (गर्भः) गर्भ के समान रक्षित (असि) हैं, सो आप (मे) विचारशील मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (देहि) दीजिये। हे राजन् ! जो आप (राष्ट्रदाः) राज्य देनेहारे (अपाम्) प्रजाओं के विषय (गर्भः) स्तुति के योग्य (असि) हैं, सो आप (अमुष्मै) उस प्रशंसित पुरुष को (राष्ट्रम्) राज्य को (देहि) दीजिये ॥३॥


भावार्थभाषाः -जो राज्य के अधिकारी पुरुष और उनकी स्त्रियाँ हों, उनको चाहिये कि अपनी उन्नति के लिये दूसरों की उन्नति को सह के सब मनुष्यों को राज्य के योग्य कर और आप भी चक्रवर्त्ती राज्य का भोग किया करें, ऐसा न हो कि ईर्ष्या से दूसरों की हानि करके अपने राज्य का भङ्ग करें ॥३॥

 

देवता: सूर्य्यादयो मन्त्रोक्ता देवताः ऋषि: वरुण ऋषिः छन्द: जगती स्वराट् पङ्क्तिः, स्वराट् संकृतिः, भुरिग् आकृतिः, भुरिक् त्रिष्टुप् स्वर: मध्यमः, पञ्चमः, स्वरः


सूर्य॑त्वचस स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॒ सूर्य॑त्वचस स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त॒ सूर्य॑वर्चस स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॒ सूर्य॑वर्चस स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त॒ मान्दा॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॒ मान्दा॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त व्रज॒क्षित॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॑ व्रज॒क्षित॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त॒ वाशा॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॒ वाशा॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त॒ शवि॑ष्ठा स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे दत्त॒ स्वाहा शवि॑ष्ठा स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त॒ शक्व॑री स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॑ शक्व॑री स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त॒ जन॒भृत॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॒ जन॒भृत॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त विश्व॒भृत॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॑ विश्व॒भृत॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ द॒त्तापः॑ स्व॒राज॑ स्थ राष्ट्र॒दा राष्ट्र॒म॒मुष्मै॑ दत्त। मधु॑मती॒र्मधु॑मतीभिः पृच्यन्तां॒ महि॑ क्ष॒त्रं क्ष॒त्रिया॑य वन्वा॒नाऽअना॑धृष्टाः सीदत स॒हौज॑सो॒ महि॑ क्ष॒त्रं क्ष॒त्रिया॑य॒ दध॑तीः ॥४॥

 

पद पाठ

सूर्यत्वचस॒ इति॒ सूर्य॑ऽत्वचसः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। सूर्यत्वचस॒ इति॒ सूर्यऽत्व॒चसः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। सूर्यवर्चस॒ इति॒ सूर्य॑ऽवर्चसः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। सूर्यवर्चस॒ इति॒ सूर्य॑ऽवर्चसः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। मान्दाः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒दाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। मान्दाः॑। स्थः॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। व्र॒ज॒क्षित॒ इति॑ व्र॒ज॒ऽक्षितः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त। स्वाहा॑। व्र॒ज॒क्षित॒ इति॑ व्रज॒ऽक्षितः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। वाशाः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। वाशाः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। शवि॑ष्ठाः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। शवि॑ष्ठाः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। शक्व॑रीः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। शक्व॑रीः। स्थ॒। राष्ट्रदा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। ज॒न॒भृत॒ इति॑ जन॒ऽभृतः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। ज॒न॒भृत॒ इति॑ जन॒ऽभृतः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। वि॒श्व॒भृत॒ इति विश्व॒ऽभृतः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। वि॒श्व॒भृत॒ इति॑ विश्व॒ऽभृतः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। आपः॑। स्व॒राज॒ इति॑ स्व॒ऽराजः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। मधु॑मती॒रिति॒ मधु॑ऽमतीः। मधु॑मतीभि॒रिति॒ मधु॑मतीऽभिः। पृ॒च्य॒न्ता॒म्। महि॑। क्ष॒त्रम्। क्ष॒त्रियाय॑। व॒न्वा॒नाः। अना॑धृष्टाः। सी॒द॒त॒। स॒हौज॑स॒ इति॑ स॒हऽओ॑जसः। महि॑। क्ष॒त्रम्। क्ष॒त्रिया॑य। दध॑तीः ॥४॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को कैसा हो के किस-किस के लिये क्या-क्या देना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे राजपुरुषो ! तुम लोग (सूर्य्यत्वचसः) सूर्य के समान अपने न्याय प्रकाश से सब तेज को ढाँकनेवाले होते हुए (स्वाहा) सत्य न्याय के साथ (राष्ट्रदाः) राज्य देनेहारे (स्थ) हो, इसलिये (मे) मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। हे मनुष्यो ! जिस कारण (सूर्यत्वचसः) सूर्य्यप्रकाश के समान विद्या पढ़नेवाले होते हुए तुम लोग (राष्ट्रदाः) राज्य देनेहारे (स्थ) हो, इसलिये (अमुष्मै) उस विद्या में सूर्यवत् प्रकाशमान पुरुष के लिये (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। हे विद्वन् मनुष्यो ! (सूर्यवर्चसः) सूर्य के समान तेजधारी होते हुए तुम लोग (स्वाहा) सत्य वाणी से (राष्ट्रदाः) राज्यदाता (स्थ) हो, इस कारण (मे) तेजस्वी मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये, जिस कारण (सूर्यवर्चसः) सूर्य्य के समान प्रकाशमान होते हुए आप लोग (राष्ट्रदाः) राज्य देनेहारे (स्थ) हो, इसलिये (अमुष्मै) उस प्रकाशमान पुरुष के लिये (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिस कारण (मान्दाः) मनुष्यों को आनन्द देनेहारे होते हुए आप लोग (स्वाहा) सत्य वचनों के साथ (राष्ट्रदाः) राज्य देनेवाले (स्थ) हो, इसलिये (मे) आनन्द देनेहारे मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये, जिसलिये आप लोग (मान्दाः) प्राणियों को सुख देनेवाले होके (राष्ट्रदाः) राज्यदाता (स्थ) हो, इसलिये (अमुष्मै) उस सुखदाता जन को (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिस कारण आप लोग (व्रजक्षितः) गौ आदि पशुओं के स्थानों को बसाते हुए (स्वाहा) सत्य क्रियाओं के सहित (राष्ट्रदाः) राज्यदाता (स्थ) हैं, इसलिये (मे) पशुरक्षक मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिस कारण आप लोग (व्रजक्षितः) स्थान आदि से पशुओं के रक्षक होते हुए (राष्ट्रदाः) राज्य देनेहारे (स्थ) हैं, इससे (अमुष्मै) उस गौ आदि पशुओं के रक्षक पुरुष के लिये राज्य को (दत्त) दीजिये। जिसलिये आप लोग (वाशाः) कामना करते हुए (स्वाहा) सत्यनीति से (राष्ट्रदाः) राज्यदाता (स्थ) हैं, इसलिये (मे) इच्छायुक्त मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिस कारण आप लोग (वाशाः) इच्छायुक्त होते हए (राष्ट्रदाः) राज्य देनेवाले (स्थ) हैं, इसलिये (अमुष्मै) उस इच्छायुक्त पुरुष के लिये (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिस कारण आप लोग (शविष्ठाः) अत्यन्त बलवाले होते हुए (स्वाहा) सत्य पुरुषार्थ से (राष्ट्रदाः) राज्यदाता (स्थ) हैं, इस कारण (मे) बलवान् मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिस कारण आप लोग (शविष्ठाः) अति पराक्रमी (राष्ट्रदाः) राज्यदाता (स्थ) हैं, इस कारण (अमुष्मै) उस अति पराक्रमी जन के लिये (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। हे राणी लोगो ! जिसलिये आप (शक्वरीः) सामर्थ्यवाली होती हुई (स्वाहा) सत्य पुरुषार्थ से (राष्ट्रदाः) राज्य देने हारी (स्थ) हैं, इसलिये (मे) सामर्थ्यवान् मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिस कारण आप (शक्वरीः) सामर्थ्ययुक्त (राष्ट्रदाः) राज्य देनेवाली (स्थ) हैं, इस कारण (अमुष्मै) उस सामर्थ्ययुक्त पुरुष के लिये (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिसलिये आप लोग (जनभृतः) श्रेष्ठ मनुष्यों का पोषण करने हारी होती हुई (स्वाहा) सत्य कर्मों के साथ (राष्ट्रदाः) राज्य देनेवाली (स्थ) हैं, इसलिये (मे) श्रेष्ठ गुणयुक्त मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिसलिये आप (जनभृतः) सज्जनों को धारण करनेहारे (राष्ट्रदाः) राज्यदाता (स्थ) हैं, इसलिये (अमुष्मै) उस सत्यप्रिय पुरुष के लिये (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। हे सभाध्यक्षादि राजपुरुषो ! जिसलिये आप लोग (विश्वभृतः) सब संसार का पोषण करनेवाले होते हुए (स्वाहा) सत्य वाणी के साथ (राष्ट्रदाः) राज्य देनेहारे (स्थ) हैं, इसलिये (मे) सब के पोषक मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिसलिये आप लोग (विश्वभृतः) विश्व को धारण करनेहारे (राष्ट्रदाः) राज्यदाता (स्थ) हैं, इसलिये (अमुष्मै) उस धारण करनेहारे मनुष्य के लिये (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिस कारण आप लोग (आपः) सब विद्या और धर्म विषय में व्याप्तिवाले होते हुए (स्वाहा) सत्य क्रिया से (राष्ट्रदाः) राज्य देनेहारे (स्थ) हैं, इस कारण (मे) शुभ गुणों में व्याप्त मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिसलिये आप लोग (आपः) सब विद्या और धर्म मार्ग को जाननेहारे (स्वराजः) आप से आप ही प्रकाशमान (राष्ट्रदाः) राज्यदाता (स्थ) हैं, इसलिये (अमुष्मै) उस धर्मज्ञ पुरुष के लिये (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। हे सज्जन स्त्री लोगो ! आप को चाहिये कि (क्षत्रियाय) राजपूतों के लिये (महि) बड़े पूजा के योग्य (क्षत्रम्) क्षत्रियों के राज्य को (वन्वानाः) चाहती हुई (सहौजसः) बल-पराक्रम के सहित वर्त्तमान (क्षत्रियाय) राजपूतों के लिये (महि) बड़े (क्षत्रम्) राज्य को (दधतीः) धारण करती हुई (अनाधृष्टाः) शत्रुओं के वश में न आनेवाली (मधुमतीः) मधुर आदि रसवाली ओषधी (मधुमतीभिः) मधुरादि गुणयुक्त वसन्त आदि ऋतुओं से सुखों को (पृच्यन्ताम्) सिद्ध किया करें। हे सज्जन पुरुषो ! तुम लोग इस प्रकार की स्त्रियों को (सीदत) प्राप्त होओ ॥४॥


भावार्थभाषाः -हे स्त्री पुरुषो ! जो सूर्य के समान न्याय और विद्या का प्रकाश कर सब को आनन्द देने, गौ आदि पशुओं की रक्षा करने, शुभ गुणों से शोभायमान, बलवान्, अपने तुल्य स्त्रियों से विवाह और संसार का पोषण करनेवाले स्वाधीन हैं, वे ही औरों के लिये राज्य देने और आप सेवन करने में समर्थ होते हैं, अन्य नहीं ॥४॥

 

देवता: अग्न्यादयो मन्त्रोक्ता देवताः ऋषि: वरुण ऋषिः छन्द: स्वराड् धृतिः स्वर: ऋषभः


सोम॑स्य॒ त्विषि॑रसि॒ तवे॑व मे॒ त्विषि॑भूर्यात्। अ॒ग्नये॒ स्वाहा॒ सोमा॑य॒ स्वाहा॑ सवि॒त्रे स्वाहा॒ सर॑स्वत्यै॒ स्वाहा॑ पू॒ष्णे स्वाहा॒ बृह॒स्पत॑ये॒ स्वाहेन्द्रा॑य॒ स्वाहा॒ घोषा॑य॒ स्वाहा॒ श्लोका॑य॒ स्वाहाꣳशा॑य॒ स्वाहा॒ भगा॑य॒ स्वाहा॑र्य॒म्णे स्वाहा॑ ॥५॥

 

पद पाठ

सोम॑स्य। त्विषिः॑। अ॒सि॒। तवे॒वेति तव॑ऽइव। मे॒। त्विषिः॑। भू॒या॒त्। अ॒ग्नये॑। स्वाहा॑। सोमा॑य। स्वाहा॑। स॒वि॒त्रे। स्वाहा॑। सर॑स्वत्यै। स्वाहा॑। पू॒ष्णे। स्वाहा॑। बृह॒स्पत॑ये। स्वाहा॑। इन्द्रा॑य। स्वाहा॑। घोषा॑य। स्वाहा॑। श्लोका॑य। स्वाहा॑। अꣳशा॑य। स्वाहा॑। भगा॑य। स्वाहा॑। अ॒र्य्य॒म्णे स्वाहा॑ ॥५॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

राजा लोगों को चाहिये कि सत्यवादी धर्मात्मा राजाओं के समान अपने सब काम करें और क्षुद्राशय, लोभी, अन्यायी तथा लम्पटी के तुल्य कदापि न हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे राजन् ! जैसे आप (सोमस्य) ऐश्वर्य्य के (त्विषिः) प्रकाश करनेहारे (असि) हैं, वैसा मैं भी होऊँ, जिससे (तवेव) आप के समान (मे) मेरा (त्विषिः) विद्याओं का प्रकाश होवे, जैसे आप ने (अग्नये) बिजुली आदि के लिये (स्वाहा) सत्य वाणी और प्रियाचरणयुक्त विद्या (सोमाय) ओषधि जानने के लिये (स्वाहा) वैद्यक की पुरुषार्थयुक्त विद्या (सवित्रे) सूर्य्य को समझने के लिये (स्वाहा) भूगोल विद्या (सरस्वत्यै) वेदों का अर्थ और अच्छी शिक्षा जाननेवाली वाणी के लिये (स्वाहा) व्याकरणादि वेदों के अङ्गों का ज्ञान (पूष्णे) प्राण तथा पशुओं की रक्षा के लिये (स्वाहा) योग और व्याकरण की विद्या (बृहस्पतये) बड़े प्रकृति आदि के पति ईश्वर को जानने के लिये (स्वाहा) ब्रह्मविद्या (इन्द्राय) इन्द्रियों के स्वामी जीवात्मा के बोध के लिये (स्वाहा) विचारविद्या (घोषाय) सत्य और प्रियभाषण से युक्त वाणी के लिये (स्वाहा) सत्य उपदेश और व्याख्यान देने की विद्या (श्लोकाय) तत्त्वज्ञान का साधक शास्त्र, श्रेष्ठ काव्य, गद्य और पद्य आदि छन्द रचना के लिये (स्वाहा) तत्त्व और काव्यशास्त्र आदि की विद्या (अंशाय) परमाणुओं के समझने के लिये (स्वाहा) सूक्ष्म पदार्थों का ज्ञान (भगाय) ऐश्वर्य्य के लिये (स्वाहा) पुरुषार्थज्ञान (अर्य्यम्णे) न्यायाधीश होने के लिये (स्वाहा) राजनीति विद्या को ग्रहण करते हैं, वैसे मुझे भी करना अवश्य है ॥५॥


भावार्थभाषाः -मनुष्यों को ऐसी इच्छा करनी चाहिये कि जैसे सत्यवादी धर्मात्मा राजा लोगों के गुण, कर्म, स्वभाव होते हैं, वैसे ही हम लोगों के भी होवें ॥५॥

 

देवता: आपो देवताः ऋषि: वरुण ऋषिः छन्द: स्वराड् ब्राह्मी बृहती स्वर: मध्यमः


प॒वित्रे॑ स्थो वैष्ण॒व्यौ᳖ सविर्तुवः॑ प्रस॒वऽउत्पु॑ना॒म्यच्छि॑द्रेण प॒वित्रे॑ण॒ सूर्य॑स्य र॒श्मिभिः॑। अनि॑भृष्टमसि वा॒चो बन्धु॑स्तपो॒जाः सोम॑स्य दा॒त्रम॑सि॒ स्वाहा॑ राज॒स्वः᳖ ॥६॥

 

पद पाठ

प॒वित्रे॒ऽइति॑ प॒वित्रे॑। स्थः॒। वै॒ष्ण॒व्यौ᳖। स॒वि॒तुः। वः॒। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। उत्। पु॒ना॒मि॒। अच्छि॑द्रेण। प॒वित्रे॑ण। सूर्य॑स्य। र॒श्मिभि॒रिति॑ र॒श्मिऽभिः॑। अनि॑भृष्ट॒मित्यनि॑ऽभृष्टम्। अ॒सि॒। वा॒चः। बन्धुः॑। त॒पो॒जा इति॑ तपः॒ऽजाः। सोम॑स्य। दा॒त्रम्। अ॒सि॒। स्वाहा॑। रा॒ज॒स्व᳖ इति॑ राज॒ऽस्वः᳖ ॥६॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

जैसे कुमार पुरुष ब्रह्मचर्य्य से विद्या ग्रहण करें, वैसे कन्या भी पढ़े, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे सभापति राजपुरुष ! जिस लिये आप (वाचः) वेदवाणी के (अनिभृष्टम्) भृष्टतारहित आचरण के लिये (बन्धुः) भाई (असि) हैं, (सोमस्य) ओषधियों के काटनेवाले (तपोजाः) ब्रह्मचर्य्यादि तप से प्रसिद्ध (असि) हैं, आप की आज्ञा से (सवितुः) सब जगत् को उत्पन्न करनेहारे ईश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न हुए जगत् में (वैष्णव्यौ) सब विद्या, अच्छी शिक्षा, शुभ गुण, कर्म और स्वभाव में व्यापनशील और (पवित्रे) शुद्ध आचरणवाली (स्थः) तुम दोनों हो। हे पढ़ाने, परीक्षा करने और पढ़नेहारी स्त्री लोगो ! मैं (सवितुः) ईश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये इस जगत् में (सूर्य्यस्य) सूर्य्य की (रश्मिभिः) किरणों के समान (अच्छिद्रेण) छेदरहित (पवित्रेण) विद्या, अच्छी शिक्षा, धर्मज्ञान, जितेन्द्रियता और ब्रह्मचर्य्य आदि करके पवित्र किये हुए से (वः) तुम लोगों को (उत्पुनामि) अच्छे प्रकार पवित्र करता हूँ, तुम लोग (स्वाहा) सत्य क्रिया से (राजस्वः) राजाओं में वीरों को उत्पन्न करनेवाली हो ॥६॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजा आदि पुरुषो ! तुम लोग इस जगत् में कन्याओं को पढ़ाने के लिये शुद्धविद्या की परीक्षा करनेवाली स्त्री लोगों को नियुक्त करो, जिससे ये कन्या लोग विद्या और शिक्षा को प्राप्त होके जवान हुई प्रिय वर पुरुषों के साथ स्वयंवर विवाह करके वीर पुरुषों को उत्पन्न करें ॥६॥

 

देवता: वरुणो देवता ऋषि: वरुण ऋषिः छन्द: विराड् आर्षी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः


स॒ध॒मादो॑ द्यु॒म्निनी॒राप॑ऽए॒ताऽअना॑धृष्टाऽअप॒स्यो᳕ वसा॑नाः। प॒स्त्या᳖सु चक्रे॒ वरु॑णः स॒धस्थ॑मपाᳬ शिशु॑र्मा॒तृत॑मास्व॒न्तः ॥७॥

 

पद पाठ

स॒ध॒माद॒ इति॑ सध॒ऽमादः॑। द्यु॒म्निनीः॑। आपः॑। ए॒ताः। अना॑धृष्टाः। अ॒प॒स्यः᳕। वसा॑नाः। प॒स्त्या᳖सु। च॒क्रे॒। वरु॑णः। स॒धस्थ॒मिति॑ स॒धऽस्थ॑म्। अ॒पाम्। शिशुः॑। मा॒तृत॑मा॒स्विति॑ मा॒तृऽत॑मासु। अ॒न्तरित्य॒न्तः ॥७॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

राजाओं को यह अवश्य चाहिये कि सब प्रजा और अपने कुल के बालकों को ब्रह्मचर्य्य के साथ विद्या और सुशिक्षायुक्त करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -जो (वरुणः) श्रेष्ठ राजा हो वह (एताः) विद्या और अच्छी शिक्षा को प्राप्त हुर्इं (सधमादः) एक साथ प्रसन्न होनेवाली (द्युम्निनीः) प्रशंसनीय धन कीर्ति से युक्त (अनाधृष्टाः) जो किसी से न दबें (आपः) जल के समान शान्तियुक्त (वसानाः) वस्त्र और आभूषणों से ढपी हुर्इं (पस्त्यासु) घरों के (अपस्यः) कामों में चतुर विद्वान् स्त्री होवें, उन (अपाम्) विद्याओं में व्याप्त स्त्रियों का जो (शिशुः) बालक हो, उसको (मातृतमासु) अति मान्य करनेहारी धायियों के (अन्तः) समीप (सधस्थम्) एक समीप के स्थान में शिक्षा के लिये रक्खे ॥७॥


भावार्थभाषाः -राजा को चाहिये कि अपने राज्य में प्रयत्न के साथ सब स्त्रियों को विद्वान् और उनसे उत्पन्न हुए बालकों को विद्यायुक्त धाइयों के अधीन करे कि जिससे किसी के बालक विद्या और अच्छी शिक्षा के विना न रहें और स्त्री भी निर्बल न हो ॥७॥


देवता: यजमानो देवता ऋषि: वरुण ऋषिः छन्द: कृतिः स्वर: निषादः


क्ष॒त्रस्योल्ब॑मसि क्ष॒त्रस्य॑ ज॒राय्व॑सि क्ष॒त्रस्य॒ योनि॑रसि क्ष॒त्रस्य॒ नाभि॑र॒सीन्द्र॑स्य॒ वार्त्रघ्नमसि मि॒त्रस्या॑सि॒ वरु॑णस्यासि॒ त्वया॒यं वृ॒त्रं व॑धेत्। दृ॒वासि॑ रु॒जासि॑ क्षु॒मासि॑। पा॒तैनं॒ प्राञ्चं॑ पा॒तैनं॒ प्र॒त्यञ्चं॑ पा॒तैनं॑ ति॒र्यञ्चं॑ दि॒ग्भ्यः पा॑त ॥८॥

 

पद पाठ

क्ष॒त्रस्य॑। उल्ब॑म्। अ॒सि॒। क्ष॒त्रस्य॑। ज॒रायु॑। अ॒सि॒। क्ष॒त्रस्य॑। योनिः॑। अ॒सि॒। क्ष॒त्रस्य॑। नाभिः॑। अ॒सि॒। इन्द्र॑स्य। वार्त्र॑घ्न॒मिति वार्त्र॑ऽघ्नम्। अ॒सि॒। मि॒त्रस्य॑। अ॒सि॒। वरु॑णस्य। अ॒सि॒। त्वया॑। अ॒यम्। वृ॒त्रम्। व॒धे॒त्। दृ॒वा। अ॒सि॒। रु॒जा। अ॒सि॒। क्षु॒मा। अ॒सि॒। पा॒त। ए॒न॒म्। प्राञ्च॑म्। पा॒त। ए॒न॒म्। प्र॒त्यञ्च॑म्। पा॒त। ए॒न॒म्। ति॒र्यञ्च॑म्। दि॒ग्भ्य इति॑ दि॒क्ऽभ्यः पा॒त॒ ॥८॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

सब प्रजापुरुषों को योग्य है कि सब प्रकार से योग्य सभापति राजा की निरन्तर सब ओर से रक्षा करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे राजन् ! जो आप (क्षत्रस्य) अपने राजकुल में (उल्बम्) बलवान् (असि) हैं, (क्षत्रस्य) क्षत्रिय पुरुष को (जरायु) वृद्धावस्था देनेहारे (असि) हैं, (क्षत्रस्य) राज्य के (योनिः) निमित्त (असि) हैं, (क्षत्रस्य) राज्य के (नाभिः) प्रबन्धकर्त्ता (असि) हैं, (इन्द्रस्य) सूर्य्य के (वार्त्रघ्नम्) मेघ का नाश करनेहारे के समान कर्मकर्त्ता (असि) हैं, (मित्रस्य) मित्र के मित्र (असि) हैं, (वरुणस्य) श्रेष्ठ पुरुषों के साथ श्रेष्ठ (असि) हैं, (दृवा) शत्रुओं के विदारण करनेवाले (असि) हैं, (रुजा) शत्रुओं को रोगातुर करनेहारे (असि) हैं और (क्षुमा) सत्य का उपदेश करनेहारे (असि) हैं, जो (अयम्) यह वीर पुरुष (त्वया) आप राजा के साथ (वृत्रम्) मेघ के समान न्याय के छिपानेवाले शत्रु को (वधेत्) मारे (एनम्) इस (प्राञ्चम्) प्रथम प्रबन्ध करनेवाले (एनम्) राजपुरुष की तुम लोग (दिग्भ्यः) सब दिशाओं से (पात) रक्षा करो, (प्रत्यञ्चम्) पीछे खड़े हुए सेनापति की (पात) रक्षा करो, इस (तिर्य्यञ्चम्) तिरछे खड़े हुए (एनम्) राजपुरुष की (पात) रक्षा करो ॥८॥


भावार्थभाषाः -जो कन्या और पुत्रों में स्त्री और पुरुषों मे विद्या बढ़ानेवाला कर्म है, वही राज्य का बढ़ाने, शत्रुओं का विनाश और धर्म आदि की प्रवृत्ति करानेवाला होता है। इसी कर्म से सब कालों और सब दिशाओं में रक्षा होती है ॥८॥

 

देवता: प्रजापतिर्देवता ऋषि: वरुण ऋषिः छन्द: भुरिग् अष्टिः स्वर: मध्यमः


आ॒विर्म॑र्या॒ऽआवि॑त्तोऽअ॒ग्निर्गृ॒हप॑ति॒रावि॑त्त॒ऽइन्द्रो॑ वृ॒द्धश्र॑वा॒ऽआवि॑त्तौ मि॒त्रावरु॑णौ धृतव्र॑ता॒वावि॑त्तः पू॒षा वि॒श्ववे॑दा॒ऽआवि॑त्ते॒ द्यावा॑पृथि॒वी वि॒श्वश॑म्भुवा॒वावि॒त्तादि॑तिरु॒रुश॑र्मा ॥९॥

 

पद पाठ

आ॒विः। म॒र्य्याः॒। आवि॑त्त॒ इत्याऽवि॑त्तः। अ॒ग्निः। गृ॒हप॑ति॒रिति॑ गृ॒हऽप॑तिः। आवि॑त्त॒ इत्याऽवि॑त्तः। इन्द्रः॑। वृ॒द्धश्र॑वा॒ इति॑ वृ॒द्धऽश्र॑वाः। आवि॑त्ता॒वित्याऽवित्तौ। मि॒त्रावरु॑णौ। धृ॒तव्र॑ता॒विति॑ धृ॒तऽव्र॑तौ। आवि॑त्त॒ इत्याऽवि॑त्तः। पू॒षा। वि॒श्ववे॑दा॒ इति॑ वि॒श्वऽवे॑दाः। आवि॑त्ते॒ इत्याऽवि॑त्ते। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑ऽपृथि॒वी। वि॒श्वश॑म्भुवा॒विति॑ वि॒श्वऽश॑म्भुवौ। आवि॒त्तेत्याऽवि॑त्ता। अदि॑तिः। उ॒रुश॒र्म्मेत्यु॒रुऽश॑र्म्मा ॥९॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को चाहिये कि अपना स्वभाव अच्छा करके आप्त विद्वान् आदि को अवश्य प्राप्त होवें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (मर्य्याः) मनुष्यो ! तुम लोग जो (गृहपतिः) घरों के पालन करनेहारे (अग्निः) प्रसिद्ध अग्नि के समान विद्वान् पुरुष को (आविः) प्रकटता से (आवित्तः) प्राप्त वा निश्चय करके जाना (वृद्धश्रवाः) श्रेष्ठता से सब शास्त्रों को सुने हुए (इन्द्रः) शत्रुओं के मारनेहारे सेनापति को (आविः) प्रकटता से (आवित्तः) प्राप्त हो वा जाना (धृतवतौ) सत्य आदि व्रतों को धारण करनेहारे (मित्रावरुणौ) मित्र और श्रेष्ठ जनों को (आविः) प्रकटता से (आवित्तौ) प्राप्त वा जाना (विश्ववेदाः) सब ओषधियों को जाननेहारे (पूषा) पोषणकर्त्ता वैद्य को (आविः) प्रसिद्धि से (आवित्तः) प्राप्त हुए (विश्वशम्भुवौ) सब के लिये सुख देनेहारे (द्यावापृथिवी) बिजुली और भूमि को (आविः) प्रकटता से (आवित्ते) जाने (उरुशर्म्मा) बहुत सुख देनेवाली (अदितिः) विद्वान् माता को प्रसिद्ध (आवित्ता) प्राप्त हुए तो तुम को सब सुख प्राप्त हो जावें ॥९॥


भावार्थभाषाः -जब तक मनुष्य लोग श्रेष्ठ विद्वानों, उत्तम विदुषी माता और प्रसिद्ध पदार्थों के विज्ञान को प्राप्त नहीं होते, तब तक सुख की प्राप्ति और दुःखों की निवृत्ति करने को समर्थ नहीं होते ॥९॥

 

देवता: यजमानो देवता ऋषि: वरुण ऋषिः छन्द: विराड् आर्षी पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः


अवे॑ष्टा दन्द॒शूकाः॒ प्राची॒मारो॑ह गाय॒त्री त्वा॑वतु रथन्त॒रꣳ साम॑ त्रि॒वृत् स्तोमो॑ वस॒न्तऽऋ॒तुर्ब्रह्म॒ द्रवि॑णम् ॥१०॥

 

पद पाठ

अवे॑ष्टा॒ इत्यव॑ऽइष्टाः। द॒न्द॒शूकाः॑। प्राची॑म्। आ। रो॒ह॒। गा॒य॒त्री। त्वा॒। अ॒व॒तु॒। र॒थ॒न्त॒रमिति॑ रथम्ऽत॒रम्। साम॑। त्रि॒वृदिति॑ त्रि॒ऽवृत्। स्तोमः॑। व॒स॒न्तः। ऋ॒तुः। ब्रह्म॑। द्रवि॑णम् ॥१०॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य क्या करके किस-किस को प्राप्त हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे राजन् ! जो आप (अवेष्टाः) विरोधी का सङ्ग करनेवाले (दन्दशूकाः) दूसरों को दुःख देने के लिये काट खानेवाले हैं, उनको जीत के (प्राचीम्) पूर्व दिशा में (आरोह) प्रसिद्ध हों, उस (त्वा) आप को (गायत्री) पढ़ा हुआ गायत्री छन्द (रथन्तरम्) रथों से जिसके पार हों, ऐसा वन (साम) सामवेद (त्रिवृत्) तीन मन, वाणी और शरीर के बलों का बोध करानेवाला (स्तोमः) स्तुति के योग्य (वसन्तः) वसन्त (ऋतुः) ऋतु (ब्रह्म) वेद, ईश्वर और ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मणकुलरूप (द्रविणम्) धन (अवतु) प्राप्त होवे ॥१०॥


भावार्थभाषाः -जो मनुष्य विद्याओं में प्रसिद्ध होते हैं, वे शत्रुओं को जीत के ऐश्वर्य्य को प्राप्त हो सकते हैं ॥१०॥

 

देवता: यजमानो देवता ऋषि: वरुण ऋषिः छन्द: आर्ची पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः


दक्षि॑णा॒मारो॑ह त्रि॒ष्टुप् त्वा॑वतु बृ॒हत्साम॑ पञ्चद॒श स्तोमो॑ ग्री॒ष्मऽऋ॒तुः क्ष॒त्रं द्रवि॑णम् ॥११॥

 

पद पाठ

दक्षि॑णाम्। आ। रो॒ह॒। त्रि॒ष्टुप्। त्रि॒स्तुबिति॑ त्रि॒ऽस्तुप्। त्वा॒। अ॒व॒तु॒। बृ॒हत्। साम॑। प॒ञ्च॒द॒श इति॑ पञ्चऽद॒शः। स्तोमः॑। ग्री॒ष्मः। ऋ॒तुः। क्ष॒त्रम्। द्रवि॑णम् ॥११॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह सभापति राजा क्या करके क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे विद्वान् राजन् ! जिस (त्वा) आप को (त्रिष्टुप्) इस नाम के छन्द से सिद्ध विज्ञान (बृहत्) बड़ा (साम) सामवेद का भाग (पञ्चदशः) पाँच प्राण अर्थात् प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान; पाँच इन्द्रिय अर्थात् श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण; पाँच भूत अर्थात् जल, भूमि, अग्नि, वायु और आकाश, इन पन्द्रह की पूर्त्ति करनेहारा (स्तोमः) स्तुति के योग्य (ग्रीष्मः) (ऋतुः) ग्रीष्म ऋतु (क्षत्रम्) क्षत्रियों के धर्म का रक्षक क्षत्रियकुलरूप और (द्रविणम्) राज्य से प्रकट हुआ धन (अवतु) प्राप्त हो। वह आप (दक्षिणाम्) दक्षिण दिशा में (आरोह) प्रसिद्ध हूजिये और शत्रुओं को जीतिये ॥११॥


भावार्थभाषाः -जो राजा विद्या को प्राप्त हुआ क्षत्रियकुल को बढ़ावे, उस का तिरस्कार शत्रुजन कभी न कर सकें ॥११॥

 

देवता: यजमानो देवता ऋषि: वरुण ऋषिः छन्द: आर्षी अनुष्टुप् स्वर: गान्धारः


प्र॒तीची॒मारो॑ह॒ जग॑ती त्वावतु वैरू॒पꣳ साम॑ सप्तद॒श स्तोमो॑ व॒र्षाऽऋ॒तुर्विड् द्रवि॑णम् ॥१२॥

 

पद पाठ

प्र॒तीची॑म्। आ। रो॒ह॒। जग॑ती। त्वा॒। अ॒व॒तु॒। वै॒रू॒पम्। साम॑। स॒प्त॒द॒श इति॑ सप्तऽद॒शः। स्तोमः॑। व॒र्षाः। ऋ॒तुः। विट्। द्रवि॑णम् ॥१२॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

राजपुरुषों को चाहिये कि वैश्य कुल को नित्य बढ़ावें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे राजपुरुष ! जिस (त्वा) आप को (जगती) जगती छन्द में कहा हुआ अर्थ (वैरूपम्) विविध प्रकार के रूपोंवाला (साम) सामवेद का अंश (सप्तदशः) पाँच कर्म इन्द्रिय; पाँच शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध विषय; पाँच महाभूत अर्थात् सूक्ष्म भूत, कार्य्य और कारण इन सत्रह का पूरण करनेवाला (स्तोमः) स्तुतियों का समूह (वर्षाः) वर्षा (ऋतुः) ऋतु (द्रविणम्) द्रव्य और (विट्) वैश्यजन (अवतु) प्राप्त हों। सो आप (प्रतीचीम्) पश्चिम दिशा को (आरोह) आरूढ़ और धन को प्राप्त हूजिये ॥१२॥


भावार्थभाषाः - जो राजपुरुष राजनीति के साथ वैश्यों की उन्नति करें, वे ही लक्ष्मी को प्राप्त होवें ॥१२॥

 

देवता: यजमानो देवता ऋषि: वरुण ऋषिः छन्द: आर्ची पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः


उदी॑ची॒मारो॑हानु॒ष्टुप् त्वा॑वतु वैरा॒जꣳ सामै॑कवि॒॑ꣳश स्तोमः॑ श॒रदृ॒तुः फलं॒ द्रवि॑णम् ॥१३॥

 

पद पाठ

उदाची॑म्। आ। रो॒ह॒। अ॒नु॒ष्टुप्। अ॒नु॒स्तुबित्य॑नु॒ऽस्तुप्। त्वा॒। अ॒व॒तु॒। वै॒रा॒जम्। साम॑। ए॒क॒वि॒ꣳश इत्ये॑कऽवि॒ꣳशः। स्तोमः॑। श॒रत्। ऋ॒तुः। फल॑म्। द्रवि॑णम् ॥१३॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा आदि पुरुषों को क्या प्राप्त करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे सभापति राजा ! आप (उदीचीम्) उत्तर की दिशा में (आरोह) प्रसिद्धि को प्राप्त हूजिये, जिससे (अनुष्टुप्) जिसको पढ़ के सब विद्याओं से दूसरों की स्तुति करें, वह छन्द (वैराजम्) अनेक प्रकार के अर्थों से शोभायमान (साम) सामवेद का भाग (एकविंशः) सोलह कला, चार पुरुषार्थ के अवयव और एक कर्त्ता इन इक्कीस को पूरण करनेहारा (स्तोमः) स्तुति का विषय (शरत्) शरद् (ऋतुः) ऋतु (द्रविणम्) ऐश्वर्य्य और (फलम्) फलरूप सेवाकारक शूद्रकुल (त्वा) आपको (अवतु) प्राप्त होवे ॥१३॥


भावार्थभाषाः -जो पुरुष आलस्य को छोड़ सब समय में पुरुषार्थ का अनुष्ठान करते हैं, वे अच्छे फलों को भोगते हैं ॥१३॥

 

देवता: यजमानो देवता ऋषि: वरुण ऋषिः छन्द: भुरिग् जगती स्वर: निषादः


ऊ॒र्ध्वामारो॑ह प॒ङ्क्तिस्त्वा॑वतु शाक्वररैव॒ते साम॑नी त्रिणवत्रयस्त्रि॒ꣳशौ स्तोमौ॑ हेमन्तशिशि॒रावृ॒तू वर्चो॒ द्रवि॑णं॒ प्रत्य॑स्तं॒ नमु॑चेः॒ शिरः॑ ॥१४॥

 

पद पाठ

ऊ॒र्ध्वाम्। आ। रो॒ह॒। प॒ङ्क्तिः। त्वा॒। अ॒व॒तु॒। शा॒क्व॒र॒रै॒वतेऽइति॑ शाक्वररै॒वते। साम॑नी॒ऽइति॑ सामनी। त्रि॒ण॒व॒त्र॒य॒स्त्रिꣳशौ। त्रि॒न॒व॒त्र॒य॒स्त्रि॒ꣳशाविति॑ त्रिनवऽत्रयस्त्रि॒ꣳशौ। स्तोमौ॑। हे॒म॒न्त॒शि॒शि॒रौ। ऋ॒तूऽइत्यृ॒तू। वर्चः॑। द्रवि॑णम्। प्रत्य॑स्त॒मिति॒ प्रति॑ऽअस्तम्। नमु॑चेः। शिरः॑ ॥१४॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को चाहिये कि प्रबल विद्या से अनेक पदार्थों को जानें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे राजन् ! आप जो (ऊर्ध्वाम्) ऊपर की दिशा में (आरोह) प्रसिद्ध होवें तो (त्वा) आपको (पङ्क्तिः) पङ्क्ति नाम का पढ़ा हुआ छन्द (शाक्वररैवते) शक्वरी और रेवती छन्द से युक्त (सामनी) सामवेद के पूर्व उत्तर दो अवयव (त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ) तीन काल, नव अङ्कों की विद्या और तैंतीस वसु आदि पदार्थ जिन दोनों से व्याख्यान किये गये हैं, उनके पूर्ण करनेवाले (स्तोमौ) स्तोत्रों के दो भेद (हेमन्तशिशिरौ) हेमन्त और शिशिर (ऋतू) ऋतु (वर्चः) ब्रह्मचर्य्य के साथ विद्या का पढ़ना और (द्रविणम्) ऐश्वर्य्य (अवतु) तृप्त करे और (नमुचेः) दुष्ट चोर का (शिरः) मस्तक (प्रत्यस्तम्) नष्ट-भ्रष्ट होवे ॥१४॥


भावार्थभाषाः -जो सब ऋतुओं में समय के अनुसार आहार-विहार युक्त होके विद्या योगाभ्यास और सत्सङ्गों का अच्छे प्रकार सेवन करते हैं, वे सब ऋतुओं में सुख भोगते हैं और इनको कोई चोर आदि भी पीड़ा नहीं दे सकता ॥१४॥

 

देवता: परमात्मा देवता ऋषि: वरुण ऋषिः छन्द: विराड् आर्ची पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः


सोम॑स्य॒ त्विषि॑रसि॒ तवे॑व मे॒ त्विषि॑र्भूयात्। मृ॒त्योः पा॒ह्योजो॑ऽसि॒ सहो॑ऽस्य॒मृत॑मसि ॥१५॥

 

पद पाठ

सोम॑स्य। त्विषिः॑। अ॒सि॒। तवे॒वेति॒ तव॑ऽइव। मे॒। त्विषिः॑। भू॒या॒त्। मृ॒त्योः। पा॒हि॒। ओजः॑। अ॒सि॒। सहः॒। अ॒सि॒। अ॒मृत॑म्। अ॒सि॒ ॥१५॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

राजा और प्रजापुरुषों को उचित है कि ईश्वर के समान न्यायाधीश होकर आपस में एक-दूसरे की रक्षा करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे परम आप्त विद्वन् ! जैसे आप (सोमस्य) ऐश्वर्य्य का (त्विषिः) प्रकाश करनेहारे (असि) हैं, (ओजः) पराक्रमयुक्त (असि) हैं, (सहः) बलवान् (असि) हैं (अमृतम्) जन्म-मरणादि धर्म से रहित (असि) हैं, वैसा मैं भी होऊँ। (तवेव) आपके समान (मे) मेरा (त्विषिः) विद्या प्रकाश से भाग्योदय (भूयात्) हो। आप मुझ को (मृत्योः) मृत्यु से (पाहि) बचाइये ॥१५॥


भावार्थभाषाः -हे पुरुषो ! जैसे धार्मिक विद्वान् अपने को जो इष्ट है, उसी को प्रजा के लिये भी इच्छा करें। जैसे प्रजा के जन राजपुरुषों की रक्षा करें, वैसे राजपुरुष भी प्रजाजनों की निरन्तर रक्षा करें ॥१५॥

 

देवता: मित्रावरुणौ देवते ऋषि: वरुण ऋषिः छन्द: स्वराड् आर्षी जगती स्वर: निषादः


हिर॑ण्यरूपाऽउ॒षसो॑ विरो॒कऽउ॒भावि॑न्द्रा॒ऽउदि॑थः॒ सूर्यश्च॑। आरो॑हतं वरुण मित्र॒ गर्त्तं॒ तत॑श्चक्षाथा॒मदि॑तिं॒ दितिं॑ च। मि॒त्रो᳖ऽसि॒ वरु॑णोऽसि ॥१६॥

 

पद पाठ

हिर॑ण्यरूपा॒विति हिर॑ण्यऽरूपौ। उ॒षसः॑। वि॒रो॒क इति॑ विऽरो॒के। उ॒भौ। इ॒न्द्रौ॒। उत्। इ॒थः॒। सूर्यः॑। च॒। आ। रो॒ह॒त॒म्। व॒रु॒ण॒। मि॒त्र॒। गर्त्त॑म्। ततः॑। च॒क्षा॒था॒म्। अदि॑तिम् दिति॑म्। च॒। मि॒त्रः। अ॒सि॒। वरु॑णः। अ॒सि॒ ॥१६॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब विद्वानों को चाहिये कि आप निष्कपट हो और अज्ञानी पुरुषों के लिये सत्य का उपदेश करके उनको बुद्धिमान् विद्वान् बनावें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे उपदेश करनेहारे (मित्र) सब के सुहृद् ! जिसलिये आप (मित्रः) सुख देनेवाले (असि) हैं तथा हे (वरुण) शत्रुओं को मारनेहारे बलवान् सेनापति ! जिसलिये आप (वरुणः) सबसे उत्तम (असि) हैं, इसलिये आप दोनों (गर्त्तम्) उपदेश करनेवाले के घर पर (आरोहतम्) जाओ (अदितिम्) अविनाशी (च) और (दितिम्) नाशवान् पदार्थों का (चक्षाथाम्) उपदेश करो। हे (हिरण्यरूपौ) प्रकाशस्वरूप (उभौ) दोनों (इन्द्रौ) परमैश्वर्य्य करनेहारे जैसे (विरोके) विविध प्रकार की रुचि करानेहारे व्यवहार में (सूर्य्यः) सूर्य्य (च) और चन्द्रमा (उषसः) प्रातः और निशा काल के अवयवों को प्रकाशित करते हैं, वैसे तुम दोनों जन (उदिथः) विद्याओं का उपदेश करो ॥१६॥


भावार्थभाषाः -जिस देश में सूर्य्य-चन्द्रमा के समान उपदेश करनेहारे व्याख्यानों से सब विद्याओं का प्रकाश करते हैं, वहाँ सत्याऽसत्य पदार्थों के बोध से सहित होके कोई भी विद्याहीन होकर भ्रम में नहीं पड़ता। जहाँ यह बात नहीं होती, वहाँ अन्धपरम्परा में फँसे हुए मनुष्य नित्य ही क्लेश पाते हैं ॥१६॥

 

देवता: क्षत्रपतिर्देवता ऋषि: देववात ऋषिः छन्द: आर्षी पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः


सोमस्य॑ त्वा द्यु॒म्नेना॒भिषि॑ञ्चाम्य॒ग्नेर्भ्राज॑सा॒ सूर्य॑स्य॒ वर्च॒सेन्द्र॑स्येन्द्रि॒येण॑। क्ष॒त्राणां॑ क्ष॒त्रप॑तिरे॒ध्यति॑ दि॒द्यून् पा॑हि ॥१७॥

 

पद पाठ

सोम॑स्य। त्वा॒। द्यु॒म्नेन॑। अ॒भि। सि॒ञ्चा॒मि॒। अ॒ग्नेः। भ्राज॑सा। सूर्य॑स्य। वर्च॑सा। इन्द्र॑स्य। इ॒न्द्रि॒येण॑। क्ष॒त्राणा॑म्। क्ष॒त्रप॑ति॒रिति॑ क्ष॒त्रऽप॑तिः। ए॒धि॒। अति॑। दि॒द्यून्। पा॒हि॒ ॥१७॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पूर्वोक्त कार्य्यों की प्रवृत्ति के लिये कैसे पुरुष को राज्याऽधिकार देना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे प्रशंसित गुण, कर्म और स्वभाववाले राजा ! जैसे मैं जिस तुझ को (सोमस्य) चन्द्रमा के समान (द्युम्नेन) यशरूप प्रकाश से (अग्नेः) अग्नि के समान (भ्राजसा) तेज से (सूर्य्यस्य) सूर्य्य के समान (वर्चसा) पढ़ने से और (इन्द्रस्य) बिजुली के समान (इन्द्रियेण) मन आदि इन्द्रियों के सहित (त्वा) आपको (अभिषिञ्चामि) राज्याधिकारी करता हूँ, वैसे वे आप (क्षत्राणाम्) क्षत्रिय कुल में जो उत्तम हों, उनके बीच (क्षत्रपतिः) राज्य के पालनेहारे (अत्येधि) अति तत्पर हूजिये और (दिद्यून्) विद्या तथा धर्म का प्रकाश करनेहारे व्यवहारों की (पाहि) निरन्तर रक्षा कीजिये ॥१७॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जो शान्ति आदि गुणयुक्त जितेन्द्रिय विद्वान् पुरुष हैं, उसको राज्य का अधिकार देवें और उस राजा को चाहिये कि राज्याऽधिकार को प्राप्त हो अतिश्रेष्ठ होता हुआ विद्या और धर्म आदि के प्रकाश करनेहारे प्रजापुरुषों को निरन्तर बढ़ावे ॥१७॥

 

देवता: यजमानो देवता ऋषि: देववात ऋषिः छन्द: स्वराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः


इ॒मं दे॑वाऽअसप॒त्नꣳ सु॑वध्वं मह॒ते क्ष॒त्रा॑य मह॒ते ज्यैष्ठ्या॑य मह॒ते जान॑राज्या॒येन्द्र॑स्येन्द्रि॒याय॑। इ॒मम॒मुष्य॑ पु॒त्रम॒मुष्यै॑ पु॒त्रम॒स्यै वि॒शऽए॒ष वो॑ऽमी॒ राजा॒ सोमो॒ऽस्माकं॑ ब्राह्म॒णाना॒ᳬ राजा॑ ॥१८॥

 

पद पाठ

इ॒मम्। दे॒वाः॒। अ॒स॒प॒त्नम्। सु॒व॒ध्व॒म्। म॒ह॒ते। क्ष॒त्राय॑। म॒ह॒ते। ज्यैष्ठ्या॑य। म॒ह॒ते। जान॑राज्या॒येति॒ जान॑ऽराज्याय। इन्द्र॑स्य। इ॒न्द्रि॒याय॑। इ॒मम्। अ॒मुष्य॑। पु॒त्रम्। अ॒मुष्यै॑। पु॒त्रम्। अ॒स्यै। वि॒शे। ए॒षः। वः॒। अ॒मी॒ऽइत्य॑मी। राजा॑। सोमः॑। अ॒स्माक॑म्। ब्रा॒ह्म॒णाना॑म्। राजा॑ ॥१८॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

सत्य के उपदेशक विद्वानों को चाहिये कि बाल्यावस्था से लेके अच्छी शिक्षा से राजाओं की कन्या और पुत्रों को श्रेष्ठ आचारयुक्त करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (देवाः) वेद शास्त्रों को जाननेहारे सेनापति लोगो ! आप जो (एषः) यह उपदेशक वा सेनापति (वः) तुम्हारा और (अस्माकम्) हमारा (ब्राह्मणानाम्) ईश्वर और वेद के सेवक ब्राह्मणों का (राजा) वेद और ईश्वर की उपासना से प्रकाशमान अधिष्ठाता है, जो (अमी) वे धर्मात्मा राजपुरुष हैं, उनका (सोमः) शुभ गुणों से प्रसिद्ध (राजा) सर्वत्र विद्या, धर्म और अच्छी शिक्षा का करनेहारा है, उस (इमम्) इस (अमुष्य) श्रेष्ठगुणों से युक्त राजपूत के (पुत्रम्) पुत्र को (अमुष्यै) प्रशंसा करने योग्य राजकन्या के (पुत्रम्) पवित्र गुण, कर्म और स्वभाव से माता-पिता की रक्षा करनेवाले पुत्र और (अस्यै) अच्छी शिक्षा करने योग्य इस वर्त्तमान (विशे) प्रजा के लिये तथा (महते) सत्कार करने योग्य (क्षत्राय) क्षत्रिय कुल के लिये (महते) बड़े (ज्यैष्ठ्याय) विद्या और धर्म विषय में श्रेष्ठ पुरुषों के होने के लिये (महते) श्रेष्ठ (जानराज्याय) माण्डलिक राजाओं के ऊपर बलवान् समर्थ होने के लिये (इन्द्रस्य) सब ऐश्वर्य्यों से युक्त धनाढ्य के (इन्द्रियाय) धन बढ़ाने के लिये (असपत्नम्) जिसका कोई शत्रु न हो, ऐसे पुत्र को (सुवध्वम्) उत्पन्न करो ॥१८॥


भावार्थभाषाः -जो उपदेशक और राजपुरुष सब प्रजा की उन्नति किया चाहें तो प्रजा के मनुष्य राजा और राजपुरुषों की उन्नति करने की इच्छा क्यों न करें। जो राजपुरुष और प्रजापुरुष वेद और ईश्वर की आज्ञा को छोड़ के अपनी इच्छा के अनुकूल प्रवृत्त होवें, तो इनकी उन्नति का विनाश क्यों न हो ॥१८॥

 

देवता: प्रजापतिर्देवता ऋषि: देववात ऋषिः छन्द: विराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः


प्र पर्व॑तस्य वृष॒भस्य॑ पृ॒ष्ठान्नाव॑श्चरन्ति स्व॒सिच॑ऽइया॒नाः। ताऽआव॑वृत्रन्नध॒रागुद॑क्ता॒ऽअहिं॑ बु॒ध्न्य᳕मनु॒ रीय॑माणाः। विष्णो॑र्वि॒क्रम॑णमसि॒ विष्णो॒र्विक्रा॑न्तमसि॒ विष्णोः॑ क्रा॒न्तम॑सि॒ ॥१९॥

 

पद पाठ

प्र। पर्व॑तस्य। वृ॒ष॒भस्य॑। पृ॒ष्ठात्। नावः॑। च॒र॒न्ति॒। स्व॒सिच॒ इति॑ स्व॒ऽसिचः॑। इया॒नाः। ताः। आ। अ॒व॒वृ॒त्र॒न्। अ॒ध॒राक्। उद॑क्ता॒ इत्युत्ऽअ॑क्ताः। अहि॑म्। बु॒ध्न्य᳖म्। अनु॑। रीय॑माणाः। विष्णोः॑। वि॒क्रम॑ण॒मिति॑ वि॒ऽक्रम॑णम्। अ॒सि॒। विष्णोः॑। विक्रा॑न्त॒मिति॒ विऽक्रा॑न्तम्। अ॒सि॒। विष्णोः॑। क्रा॒न्तम्। अ॒सि॒ ॥१९॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर इस जगत् में राजा और प्रजाजनों को किस प्रकार के यान बनाने चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे राजा के कारीगर पुरुष ! जो तू (स्वसिचः) जिनको अपने लोग जल से सींचते हैं, (इयानाः) चलते हुए (उदक्ताः) फिर-फिर ऊपर को जावें (अहिम्, बुध्न्यम्) अन्तरिक्ष में रहनेवाले मेघ के (अनुरीयमाणाः) पीछे-पीछे चलाने से चलते हुए (नावः) समुद्र के ऊपर नौकाओं के समान चलते हुए विमान (वृषभस्य) वर्षा करनेहारे (पर्वतस्य) मेघ के (पृष्ठात्) ऊपर के भाग से (प्रचरन्ति) चलते हैं, जिनसे तू (विष्णोः) व्यापक ईश्वर के इस जगत् में (विक्रमणम्) पराक्रम सहित (असि) है, (विष्णोः) व्यापक वायु के बीच (विक्रान्तम्) अनेक प्रकार चलने हारा (असि) है और (विष्णोः) व्यापक बिजुली के बीच (क्रान्तम्) चलने का आधार (असि) है, जो (अधराक्) मेघ से नीचे (आववृत्रन्) मेघ के समान विचरते हैं, उन विमानादि यानों को तू सिद्ध कर ॥१९॥


भावार्थभाषाः -जैसे मेघ वर्ष के भूमि के तले को प्राप्त होके पुनः आकाश को प्राप्त होता है। वह जल नदियों में जाके पीछे समुद्र को प्राप्त होता है। जो जल के भीतर अर्थात् जिनके ऊपर-नीचे जल होता है, वैसे ही सब कारीगर लोगों को चाहिये कि विमानादि यानों और नौकाओं को बना के भूमि जल और आकाश मार्ग से अभीष्ट देशों में यथेष्ट जाना-आना करें। जब तक ऐसे यान नहीं बनाते, तब तक द्वीप-द्वीपान्तरों में कोई भी नहीं जा सकता। जैसे पक्षी अपने शरीररूप संघात को आकाश में उड़ा ले चलते हैं, वैसे चतुर कारीगर लोगों को चाहिये कि इस अपने शरीर आदि को यानों के द्वारा आकाश में फिरावें ॥१९॥


देवता: प्रजापतिर्देवता ऋषि: देववात ऋषिः छन्द: भुरिग् अतिधृतिः स्वर: षड्जः


प्रजा॑पते॒ न त्वदे॒तान्य॒न्यो विश्वा॑ रू॒पाणि॒ परि॒ ता बभू॑व। यत्का॑मास्ते जुहु॒मस्तन्नो॑ऽअस्त्व॒यम॒मुष्य॑ पि॒ताऽसाव॒स्य पि॒ता व॒यꣳ स्या॑म॒ पत॑यो रयी॒णा स्वाहा॑। रुद्र॒ यत्ते॒ क्रिवि॒ परं॒ नाम॒ तस्मि॑न् हु॒तम॑स्यमे॒ष्टम॑सि॒ स्वाहा॑ ॥२०॥

 

पद पाठ

प्रजा॑पत॒ इति॒ प्रजा॑ऽपते। न। त्वत्। ए॒तानि॑। अ॒न्यः। विश्वा॑। रू॒पाणि॑। परि॑। ता। ब॒भू॒व॒। यत्का॑मा॒ इति॒ यत्ऽका॑माः। ते॒। जु॒हु॒मः। तत्। नः॒। अ॒स्तु॒। अ॒यम्। अ॒मुष्य॑। पि॒ता। अ॒सौ। अ॒स्य। पि॒ता। व॒यम्। स्या॒म॒। पत॑यः। र॒यी॒णाम्। स्वाहा॑। रुद्र॑। यत्। ते॒। क्रिवि॑। पर॑म्। नाम॑। तस्मि॑न्। हु॒तम्। अ॒सि॒। अ॒मे॒ष्टमित्य॑माऽइ॒ष्टम्। अ॒सि॒। स्वाहा॑ ॥२०॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को चाहिये कि ईश्वर की उपासना और उसकी आज्ञा पालने से सब कामनाओं को प्राप्त हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (प्रजापते) प्रजा के स्वामी ईश्वर ! जो (एतानि) जीव, प्रकृति आदि वस्तु (विश्वा) सब (रूपाणि) इच्छा, रूप आदि गुणों से युक्त हैं (ता) उनके ऊपर आप से (अन्यः) दूसरा कोई (न) नहीं (परिबभूव) जान सकता (ते) आप के सेवन से (यत्कामाः) जिस-जिस पदार्थ की कामनावाले होते हुए (वयम्) हम लोग (जुहुमः) आपका सेवन करते हैं, वह-वह पदार्थ आपकी कृपा से (नः) हम लोगों के लिये (अस्तु) प्राप्त होवे। जैसे आप (अमुष्य) उस परोक्ष जगत् के (पिता) रक्षा करनेहारे हैं, (असौ) सो आप इस प्रत्यक्ष जगत् के रक्षक हैं, वैसे हम लोग (स्वाहा) सत्य वाणी से (रयीणाम्) विद्या और चक्रवर्त्ति राज्य आदि से उत्पन्न हुई लक्ष्मी के (पतयः) रक्षा करनेवाले (स्याम) हों। हे (रुद्र) दुष्टों को रुलानेहारे परमेश्वर ! (ते) आप का जो (क्रिवि) दुःखों से छुड़ाने का हेतु (परम्) उत्तम (नाम) नाम है, (तस्मिन्) उसमें आप (हुतम्) स्वीकार किये (असि) हैं, (अमेष्टम्) घर में इष्ट (असि) हैं, उन आप को हम लोग (स्वाहा) सत्य वाणी से ग्रहण करते हैं ॥२०॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो सब जगत् में व्याप्त, सब के लिये माता-पिता के समान वर्त्तमान, दुष्टों को दण्ड देनेहारा, उपासना करने को इष्ट है, उसी जगदीश्वर की उपासना करो। इस प्रकार के अनुष्ठान से तुम्हारी सब कामना अवश्य सिद्ध हो जायेंगीं ॥२०॥

 

देवता: क्षत्रपतिर्देवता ऋषि: देववात ऋषिः छन्द: भुरिग् ब्राह्मी बृहती स्वर: मध्यमः


इन्द्र॑स्य॒ वज्रो॑ऽसि मि॒त्रावरु॑णयोस्त्वा प्रशा॒स्त्रोः प्र॒शिषा॑ युनज्मि। अव्य॑थायै त्वा स्व॒धायै॒ त्वाऽरि॑ष्टो॒ अर्जु॑नो म॒रुतां॑ प्रस॒वेन॑ ज॒यापा॑म॒ मन॑सा॒ समि॑न्द्रि॒येण॑ ॥२१॥

 

पद पाठ

इन्द्र॑स्य। वज्रः॑। अ॒सि॒। मि॒त्रावरु॑णयोः। त्वा॒। प्र॒शा॒स्त्रो॑रिति॑ प्रऽशा॒स्त्रोः। प्र॒शिषेति॑ प्र॒ऽशिषा॑। यु॒न॒ज्मि॒। अव्य॑थाय। त्वा॒। स्व॒धायै॑। त्वा॒। अरि॒ष्टः॑। अर्जु॑नः। म॒रुता॑म्। प्र॒स॒वेनेति॑ प्रऽस॒वेन॑। ज॒य॒। आपा॑म। मन॑सा। सम्। इ॒न्द्रि॒येण॑ ॥२१॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् पुरुषों को क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे राजन् ! जो आप (अरिष्टः) किसी के मारने में न आनेवाले (अर्जुनः) प्रशंसा के योग्य रूप से युक्त (इन्द्रस्य) परम ऐश्वर्य्यवाले का (वज्रः) शत्रुओं के लिये वज्र के समान (असि) हैं, जिस (त्वा) आपको (अव्यथायै) पीड़ा न होने के लिये (प्रशास्त्रोः) सब को शिक्षा देनेवाले (मित्रावरुणयोः) सभा और सेना के स्वामी की (प्रशिषा) शिक्षा से मैं (युनज्मि) समाहित करता हूँ (मरुताम्) ऋत्विज लोगों के (प्रसवेन) करने से (स्वधायै) अपनी चीज को धारण करना रूप राजनीति के लिये जिस (त्वा) आपका योगाभ्यास से चिन्तन करता हूँ, (मनसा) विचारशील मन (इन्द्रियेण) जीव से सेवन की हुई इन्द्रिय से जिस (त्वा) आपको हम लोग (समापाम) सम्यक् प्राप्त होते हैं, सो आप (जय) दुष्टों को जीत के निश्चिन्त उत्कृष्ट हूजिये ॥२१॥


भावार्थभाषाः -विद्वानों को चाहिये कि राजा और प्रजापुरुषों को धर्म और अर्थ की सिद्धि के लिये सदा शिक्षा देवें, जिससे ये किसी को पीड़ा देने रूप राजनीति से विरुद्ध कर्म न करें। सब प्रकार बलवान् होके शत्रुओं को जीतें, जिससे कभी धन-सम्पत्ति की हानि न होवे ॥२१॥

 

देवता: इन्द्रो देवता ऋषि: देववात ऋषिः छन्द: विराड् आर्षी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः


मा त॑ऽइन्द्र ते व॒यं तु॑राषा॒डयु॑क्तासोऽअब्र॒ह्मता॒ विद॑साम। तिष्ठा॒ रथ॒मधि॒ यं व॑ज्रह॒स्ता र॒श्मीन् दे॑व यमसे॒ स्वश्वा॑न् ॥२२॥

 

पद पाठ

मा। ते॒। इ॒न्द्र॒। ते। व॒यम्। तु॒रा॒षा॒ट्। अयु॑क्तासः। अ॒ब्र॒ह्मता॑। वि। द॒सा॒म॒। तिष्ठ॑। रथ॑म्। अधि॑। यम्। व॒ज्र॒ह॒स्ते॒ति॑ वज्रऽहस्त। आ। र॒श्मीन्। दे॒व॒। य॒म॒से॒। स्वश्वा॒निति॑ सु॒ऽअश्वा॑न् ॥२२॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

प्रजापुरुषों को राजा के साथ कैसे वर्तना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (देव) प्रकाशमान (इन्द्र) सभापति राजन् ! (वज्रहस्त) जिसके हाथों में वज्र के समान शस्त्र हो, उस आप के साथ (वयम्) हम राजप्रजापुरुष (ते) आप के सम्बन्ध में (अयुक्तासः) अधर्मकारी (मा) न होवें, (ते) आप की (अब्रह्मता) वेद तथा ईश्वर में निष्ठारहितता (मा) न हो और न (विदसाम) नष्ट करें। जो (तुराषाट्) शीघ्रकारी शत्रुओं को सहनेहारे आप जिन (रश्मीन्) घोड़े के लगाम की रस्सी और (स्वश्वान्) सुन्दर घोड़ों को (यमसे) नियम से रखते हैं और जिस (रथम्) रथ के ऊपर (अधितिष्ठ) बैठें, उन घोड़ों और उस रथ के हम लोग भी अधिष्ठाता होवें ॥२२॥


भावार्थभाषाः -राजा और प्रजा के पुरुषों को योग्य है कि राजा के साथ अयोग्य व्यवहार कभी न करें तथा राजा भी इन प्रजाजनों के साथ अन्याय न करे। वेद और ईश्वर की आज्ञा का सेवन करते हुए सब लोग एक सवारी एक बिछौने पर बैठें और एकसा व्यवहार करनेवाले होवें और कभी आलस्य प्रमाद से ईश्वर और वेदों की निन्दा वा नास्तिकता में न फंसें ॥२२॥

 

देवता: अग्न्यादयो मन्त्रोक्ता देवताः ऋषि: वामदेव ऋषिः छन्द: जगती स्वर: निषादः


अ॒ग्नये॑ गृ॒हप॑तये॒ स्वाहा॒ सोमा॑य॒ वन॒स्पत॑ये॒ स्वाहा म॒रुता॒मोज॑से॒ स्वाहेन्द्र॑स्येन्द्रि॒याय॒ स्वाहा॑। पृथि॑वि मात॒र्मा मा॑ हिꣳसी॒र्मोऽअ॒हं त्वाम् ॥२३॥

 

पद पाठ

अ॒ग्नये॑। गृहप॑तय॒ इति॑ गृहऽप॑तये। स्वाहा॑। सोमा॑य। वन॒स्पत॑ये। स्वाहा॑। म॒रुता॑म्। ओज॑से। स्वाहा॑। इन्द्र॑स्य। इ॒न्द्रि॒याय॑। स्वाहा॑। पृथि॑वि। मा॒तः॒। मा। मा॒। हि॒ꣳसीः॒। मोऽइति॒ मो। अ॒हम्। त्वाम् ॥२३॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब माता और पुत्र आपस में कैसे सम्वाद करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे प्रजा के मनुष्यो ! जैसे राजा और राजपुरुष हम लोग (गृहपतये) गृहाश्रम के स्वामी (अग्नये) धर्म और विज्ञान से युक्त पुरुष के लिये (स्वाहा) सत्यनीति (सोमाय) सोमलता आदि ओषधि और (वनस्पतये) वनों की रक्षा करनेहारे पीपल आदि के लिये (स्वाहा) वैद्यक शास्त्र के बोध से उत्पन्न हुई क्रिया (मरुताम्) प्राणों वा ऋत्विज लोगों के (ओजसे) बल के लिये (स्वाहा) योगाभ्यास और शान्ति की देने हारी वाणी और (इन्द्रस्य) जीव के (इन्द्रियाय) मन इन्द्रिय के लिये (स्वाहा) अच्छी शिक्षा से युक्त उपदेश का आचरण करते हैं, वैसे ही तुम लोग भी करो। हे (पृथिवि) भूमि के समान बहुत से शुभ लक्षणों से युक्त (मातः) मान्य करने हारी जननी ! तू (मा) मुझ को (मा) मत (हिंसीः) बुरी शिक्षा से दुःख दे और (त्वाम्) तुझ को (अहम्) मैं भी (मो) न दुःख देऊँ ॥२३॥


भावार्थभाषाः -राजा आदि राजपुरुषों को प्रजा के हित, प्रजापुरुषों को राजपुरुषों के सुख और सब की उन्नति के लिये परस्पर वर्त्तना चाहिये। माता को योग्य है कि बुरी शिक्षा और मूर्खता रूप अविद्या देकर सन्तानों की बुद्धि नष्ट न करे और सन्तानों को उचित है कि अपनी माता के साथ कभी द्वेष न करें ॥२३॥

 

देवता: सूर्यो देवता ऋषि: वामदेव ऋषिः छन्द: भुरिग् आर्षी जगती स्वर: निषादः


ह॒ꣳसः शु॑चि॒षद् वसु॑रन्तरिक्ष॒सद्धोता॑ वेदि॒षदति॑थिर्दुरोण॒सत्। नृ॒षद्व॑र॒सदृ॑त॒सद् व्यो॑म॒सद॒ब्जा गो॒जाऽऋ॑त॒जाऽअ॑द्रि॒जाऽऋ॒तं बृ॒हत् ॥२४॥

 

पद पाठ

ह॒ꣳसः। शु॒चि॒षत्। शु॒चि॒सदिति॑ शु॒चि॒ऽसत्। वसुः॑। अ॒न्त॒रि॒क्ष॒सदित्य॑न्तरिक्ष॒ऽसत्। होता॑। वे॒दि॒षत्। वे॒दि॒सदिति॑ वे॒दि॒ऽसत्। अति॑थिः। दु॒रो॒ण॒सदिति॑ दुरोण॒ऽसत्। नृ॒षत्। नृ॒सदिति॑ नृ॒ऽसत्। व॒र॒सदिति॑ वर॒ऽसत्। ऋ॒त॒सदित्यृ॑त॒ऽसत्। व्यो॒म॒सदिति॑ व्योम॒ऽसत्। अ॒ब्जा इत्य॒प्ऽजाः। गो॒जा इति॑ गो॒ऽजाः। ऋ॒त॒जा इत्यृ॑त॒ऽजाः। अ॒द्रि॒जा इत्य॑द्रि॒ऽजाः। ऋ॒तम्। बृ॒हत् ॥२४॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्य लोग ईश्वर की उपासनापूर्वक सबके लिये न्याय और अच्छी शिक्षा करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! आप लोगों को चाहिये कि जो परमेश्वर (हंसः) सब पदार्थों को स्थूल करता (शुचिषत्) पवित्र पदार्थों में स्थित (वसुः) निवास करता और कराता (अन्तरिक्षसत्) अवकाश में रहता (होता) सब पदार्थ देता ग्रहण करता और प्रलय करता (वेदिषत्) पृथिवी में व्यापक (अतिथिः) अभ्यागत के समान सत्कार करने योग्य (दुरोणसत्) घर में स्थित (नृषत्) मनुष्यों के भीतर रहता (वरसत्) उत्तम पदार्थों में वसता (ऋतसत्) सत्यप्रकृति आदि नामवाले कारण में स्थित (व्योमसत्) पोल में रहता (अब्जाः) जलों को प्रसिद्ध करता (गोजाः) पृथिवी आदि तत्त्वों को उत्पन्न करता (ऋतजाः) सत्यविद्याओं के पुस्तक वेदों को प्रसिद्ध करता (अद्रिजाः) मेघ, पर्वत और वृक्ष आदि को रचता (ऋतम्) सत्यस्वरूप और (बृहत्) सब से बड़ा अनन्त है, उसी की उपासना करो ॥२४॥


भावार्थभाषाः -मनुष्यों को उचित है कि सर्वत्र व्यापक और पदार्थों की शुद्धि करनेहारे ब्रह्म परमात्मा ही की उपासना करें, क्योंकि उस की उपासना के बिना किसी को धर्म्म, अर्थ, काम, मोक्ष से होनेवाला पूर्ण सुख कभी नहीं हो सकता ॥२४॥

 

देवता: सूर्यो देवता ऋषि: वामदेव ऋषिः छन्द: आर्षी जगती स्वर: निषादः


इय॑द॒स्यायु॑र॒स्यायु॒र्मयि॑ धेहि॒ युङ्ङ॑सि॒ वर्चो॑ऽसि॒ वर्चो॒ मयि॑ धे॒ह्यूर्ग॒स्यूर्जं॒ मयि॑ धेहि। इन्द्र॑स्य वां वीर्य॒कृतो॑ बा॒हूऽअ॑भ्यु॒पाव॑हरामि ॥२५॥

 

पद पाठ

इय॑त्। अ॒सि॒। आयुः॑। अ॒सि॒। आयुः॑। मयि॑। धे॒हि॒। युङ्। अ॒सि॒। वर्चः॑। अ॒सि॒। वर्चः॑। मयि॑। धे॒हि॒। ऊर्क्। अ॒सि॒। ऊर्ज॑म्। मयि॑। धे॒हि॒। इन्द्र॑स्य। वा॑म्। वी॒र्य॒कृत॒ इति वीर्य॒ऽकृतः॑। बा॒हू इति॑ बा॒हू। अ॒भ्यु॒पाव॑हरा॒मीत्य॑भिऽ उ॒पाव॑हरामि ॥२५॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्य ईश्वर की उपासना क्यों करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे परमेश्वर ! आप (इयत्) इतना (आयुः) जीवन (मयि) मुझ में (धेहि) धरिये, जिससे आप (युङ्) सब को समाधि करानेवाले (असि) हैं, (वर्चः) स्वयं प्रकाशस्वरूप (असि) हैं, इस कारण (वर्चः) योगाभ्यास से प्रकट हुए तेज को (मयि) मुझ में (धेहि) धरिये। आप (ऊर्क्) अत्यन्त बलवान् (असि) हैं, इसलिये (ऊर्जम्) बल पराक्रम को (मयि) मेरे में (धेहि) धारण कीजिये। हे राज और प्रजा के पुरुषो ! (वीर्य्यकृतः) बल-पराक्रम को बढ़ानेहारे (इन्द्रस्य) ऐश्वर्य्य और परमात्मा के आश्रय से (वाम्) तुम राजप्रजाओं के (बाहू) बल और पराक्रम को (अभ्युपावहरामि) सब प्रकार तुम्हारे समीप में स्थापन करता हूँ ॥२५॥


भावार्थभाषाः -जो मनुष्य अपने हृदय में ईश्वर की उपासना करते हैं, वे सुन्दर जीवन आदि के सुखों को भोगते हैं और कोई भी पुरुष ईश्वर के आश्रय के विना पूर्ण बल और पराक्रम को प्राप्त नहीं हो सकता ॥२५॥

 

देवता: आसन्दी राजपत्नी देवता ऋषि: शुनःशेप ऋषिः छन्द: भुरिग् अनुष्टुप् स्वर: गान्धारः


स्यो॒नासि॑ सु॒षदा॑सि क्ष॒त्रस्य॒ योनि॑रसि। स्यो॒नामासी॑द सु॒षदा॒मासी॑द क्ष॒त्रस्य॒ योनि॒मासी॑द ॥२६॥

 

पद पाठ

स्यो॒ना। अ॒सि॒। सु॒षदा॑। सु॒सदेति॑ सु॒ऽसदा॑। अ॒सि॒। क्ष॒त्रस्य॑। योनिः॑। अ॒सि॒। स्यो॒नाम्। आ। सी॒द॒। सु॒षदा॑म्। सु॒सदा॒मिति॑ सु॒ऽसदा॑म्। आ। सी॒द॒। क्ष॒त्रस्य॑। योनि॑म्। आ। सी॒द॒ ॥२६॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

स्त्रियों का न्याय, विद्या और उनको शिक्षा स्त्री लोग ही करें और पुरुषों के लिये पुरुष, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे राणी ! जिसलिये आप (स्योना) सुखरूप (असि) हैं, (सुषदा) सुन्दर व्यवहार करनेवाली (असि) हैं, (क्षत्रस्य) राज्य के न्याय के (योनिः) करनेवाली (असि) हैं, इसलिये आप (स्योनाम्) सुखकारक अच्छी शिक्षा में (आसीद) तत्पर हूजिये, (सुषदाम्) अच्छे सुख देनेहारी विद्या को (आसीद) अच्छे प्रकार प्राप्त कीजिये तथा कराइये और (क्षत्रस्य) क्षत्रिय कुल की (योनिम्) राजनीति को (आसीद) सब स्त्रियों को जनाइये ॥२६॥


भावार्थभाषाः -राजाओं की स्त्रियों को चाहिये कि सब स्त्रियों के लिये न्याय और अच्छी शिक्षा देवें और स्त्रियों का न्यायादि पुरुष न करें, क्योंकि पुरुषों के सामने स्त्री लज्जित और भययुक्त होकर यथावत् बोल वा पढ़ ही नहीं सकती ॥२६॥

 

देवता: वरुणो देवता ऋषि: शुनःशेप ऋषिः छन्द: पिपीलिकामध्या विराड् गायत्री स्वर: षड्जः


निष॑साद धृ॒तव्र॑तो॒ वरु॑णः प॒स्त्या᳕स्वा। साम्रा॑ज्याय सु॒क्रतुः॑ ॥२७॥

 

पद पाठ

नि॒। स॒सा॒द॒। धृ॒तव्र॑त॒ इति॑ धृ॒तऽव्र॑तः। वरु॑णः। प॒रत्या᳖सु। आ। साम्रा॑ज्या॒येति॑ साम्ऽरा॑ज्याय। सु॒क्रतु॒रि॒ति॑ सु॒ऽक्रतुः॑ ॥२७॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

राजा के समान राणी भी राजधर्म का आचरण करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे राणी ! जैसे आपका (धृतव्रतः) सत्य का आचरण और ब्रह्मचर्य आदि व्रतों का धारण करनेहारा (सुक्रतुः) सुन्दर बुद्धि वा क्रिया से युक्त (वरुणः) उत्तमपति (साम्राज्याय) चक्रवर्त्ती राज्य होने और उसके काम करने के लिये (पस्त्यासु) न्यायघरों में (आ) निरन्तर (नि) नित्य ही (ससाद) बैठ के न्याय करे, वैसे तू भी न्यायकारिणी हो ॥२७॥


भावार्थभाषाः -जैसे चक्रवर्त्ती राजा चक्रवर्त्ती राज्य की रक्षा के लिये न्याय की गद्दी पर बैठ के पुरुषों का ठीक-ठीक न्याय करे, वैसे ही नित्यप्रति राणी स्त्रियों का न्याय करे। इससे क्या आया कि जैसा नीति, विद्या और धर्म से युक्त पति हो, वैसी ही स्त्री को भी होना चाहिये ॥२७॥

 

देवता: यजमानो देवता ऋषि: शुनःशेप ऋषिः छन्द: विराड् धृतिः स्वर: ऋषभः


अ॒भि॒भूर॑स्ये॒तास्ते॒ पञ्च॒ दिशः॑ कल्पन्तां॒ ब्रह्मँ॒स्त्वं ब्र॒ह्मासि॑ सवि॒तासि॑ स॒त्यप्र॑सवो॒ वरु॑णो॑ऽसि स॒त्यौजा॒ऽइन्द्रो॑ऽसि॒ विशौ॑जा रु॒द्रो᳖ऽसि सु॒शेवः॑। बहु॑कार॒ श्रेय॑स्कर॒ भूय॑स्क॒रेन्द्र॑स्य॒ वज्रो॑ऽसि॒ तेन॑ मे रध्य ॥२८॥

 

पद पाठ

अ॒भि॒भुरित्य॑भि॒ऽभूः। अ॒सि॒। ए॒ताः। ते। पञ्च॒। दि॒शः॑। क॒ल्प॒न्ता॒म्। ब्रह्म॑न्। त्वम्। ब्र॒ह्मा। अ॒सि॒। स॒वि॒ता। अ॒सि॒। स॒त्य॑प्रसव॒ इति॑ स॒त्यऽप्र॑सवः। वरु॑णः। अ॒सि॒। स॒त्यौजा॒ इति॑ स॒त्यऽओ॑जाः। इन्द्रः॑। अ॒सि॒। विशौ॑जाः। रु॒द्रः। अ॒सि॒। सु॒शेव॒ इति॑ सु॒ऽशेवः॑। बहु॑का॒रेति॒ बहु॑ऽकार। श्रेय॑स्कर। श्रेयः॑क॒रेति॒ श्रेयः॑ऽकर। भूय॑स्कर। भूयः॑क॒रेति॒ भूयः॑ऽकर। इन्द्र॑स्य। वज्रः॑। अ॒सि॒। तेन॑। मे॒। र॒ध्य॒ ॥२८॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा कैसा होके किसके लिये क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (बहुकार) बहुत सुखों (श्रेयस्कर) कल्याण और (भूयस्कर) बार-बार अनुष्ठान करनेवाले (ब्रह्मन्) आत्मविद्या को प्राप्त हुए जैसे जिस (ते) आपके (एताः) ये (पञ्च) पूर्व आदि चार और ऊपर नीचे एक पाँच (दिशः) दिशा सामर्थ्ययुक्त हों, वैसे मेरे लिये आपकी पत्नी की कीर्ति से भी (कल्पन्ताम्) सुखयुक्त होवें। जैसे आप (अभिभूः) दुष्टों का तिरस्कार करनेवाले (असि) हैं, (सविता) ऐश्वर्य के उत्पन्न करनेहारे (असि) हैं, (सत्यप्रसवः) सत्य कर्म के साथ ऐश्वर्य है जिसका ऐसे (वरुणः) उत्तम स्वभाववाले (असि) हैं (सत्यौजाः) सत्य बल से युक्त (इन्द्रः) सुखों के धारण करनेहारे (असि) हैं (विशौजाः) प्रजाओं की बीच पराक्रमवाले (सुशेवः) सुन्दर सुखयुक्त (रुद्रः) शत्रु और दुष्टों को रुलानेवाले (असि) हैं, (इन्द्रस्य) ऐश्वर्य के (वज्रः) प्राप्त करनेहारे (असि) हैं, वैसे मैं भी होऊँ, जैसे मैं आप के वास्ते ऋद्धि-सिद्धि करूँ, वैसे (तेन) उससे (मे) मेरे लिये (रध्य) कार्य्य करने का सामर्थ्य कीजिये ॥२८॥


भावार्थभाषाः -सब मनुष्यों को चाहिये कि जैसा पुरुष सब दिशाओं में कीर्तियुक्त, वेदों को जानने, धनुर्वेद और अर्थवेद की विद्या में प्रवीण, सत्य करने और सब को सुख देनेवाला, धर्मात्मा पुरुष होवे, उसकी स्त्री भी वैसे ही होवे। उनको राजधर्म में स्थापन करके बहुत सुख और बहुत सी शोभा को प्राप्त हों ॥२८॥


देवता: अग्निर्देवता ऋषि: शुनःशेप ऋषिः छन्द: भुरिग् ब्राह्मी त्रिष्टुप् स्वर: निषादः


अ॒ग्निः पृ॒थुर्धर्म॑ण॒स्पति॑र्जुषा॒णोऽअ॒ग्निः पृ॒थुर्धर्म॑ण॒स्पति॒राज्य॑स्य वेतु॒ स्वाहा॒। स्वाहा॑कृताः॒ सूर्य॑स्य र॒श्मिभि॑र्यतध्वꣳ सजा॒तानां॑ मध्य॒मेष्ठ्या॑य ॥२९॥

 

पद पाठ

अ॒ग्निः। पृ॒थुः। धर्म॑णः। पतिः॑। जु॒षा॒णः। अ॒ग्निः। पृ॒थुः। धर्म॑णः। पतिः॑। आज्य॑स्य। वे॒तु॒। स्वाहा॑। स्वाहा॑कृता॒ इति॒ स्वाहा॑ऽकृताः। सूर्य॑स्य। र॒श्मिभि॒रिति॑ र॒श्मिऽभिः॑। य॒त॒ध्व॒म्। स॒जा॒ताना॒मिति॑ सऽजा॒ताना॑म्। म॒ध्य॒मेष्ठ्या॑य। म॒ध्यमेस्थ्या॒येति॑ मध्य॒मेऽस्थ्या॑य ॥२९॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा और प्रजा के जन किस के समान क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे राजन् वा राजपत्नि ! जैसे (पृथुः) महापुरुषार्थयुक्त धर्म का (पतिः) रक्षक (जुषाणः) सेवक (अग्निः) बिजुली के समान व्यापक (सजातानाम्) उत्पन्न पदार्थों के रक्षक के साथ वर्त्तमान पदार्थों के (मध्यमेष्ठ्याय) मध्य में स्थित होके (स्वाहा) सत्य क्रिया से (आज्यस्य) घृत आदि होम के पदार्थों को प्राप्त करता हुआ (सूर्य्यस्य) सूर्य्य की (रश्मिभिः) किरणों के साथ होम किये पदार्थों को फैला के सुख देता है, वैसे (धर्मणः) न्याय के (पतिः) रक्षक (पृथुः) बड़े (जुषाणः) सेवा करनेवाला (अग्निः) तेजस्वी आप राज्य को (वेतु) प्राप्त हूजिये। वैसे ही हे (स्वाहाकृताः) सत्य काम करनेवाले सभासद् पुरुषों वा स्त्री लोगो ! तुम भी (यतध्वम्) प्रयत्न किया करो ॥२९॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राज और प्रजा के पुरुषो तथा राणी वा राणी के सभासदो ! तुम लोग सूर्य्य और प्रसिद्ध विद्युत् अग्नि के समान वर्त्त, पक्षपात छोड़, एक जन्म में मध्यस्थ हो के न्याय करो। वैसे यह अग्नि सूर्य्य के प्रकाश में और वायु में सुगन्धियुक्त द्रव्यों को प्राप्त करा, वायु जल और ओषधियों की शुद्धि द्वारा सब प्राणियों को सुख देता है, वैसे ही न्याययुक्त कर्मों के साथ आचरण करनेवाले होके सब प्रजाओं को सुखयुक्त करो ॥२९॥

 

देवता: सवित्रादिमन्त्रोक्ता देवताः ऋषि: शुनःशेप ऋषिः छन्द: स्वराड् आर्षी जगती स्वर: धैवतः


स॒वि॒त्रा प्र॑सवि॒त्रा सर॑स्वत्या वा॒चा त्वष्ट्रा॑ रू॒पैः पू॒ष्णा प॒शुभि॒रिन्द्रे॑णा॒स्मे बृह॒स्पति॑ना॒ ब्रह्म॑णा॒ वरु॑णे॒नौज॑सा॒ऽग्निना॒ तेज॑सा॒ सोमे॑न॒ राज्ञा॒ विष्णु॑ना दश॒म्या दे॒वत॑या॒ प्रसू॑तः प्रस॑र्पामि ॥३०॥

 

पद पाठ

स॒वि॒त्रा। प्र॒स॒वि॒त्रेति॑ प्रऽसवि॒त्रा। सर॑स्वत्या। वा॒चा। त्वष्ट्रा॑। रू॒पैः। पू॒ष्णा। प॒शुभि॒रिति॑ प॒शुऽभिः॑। इन्द्रे॑ण। अ॒स्मेऽइत्य॒स्मे। बृह॒स्पति॑ना। ब्रह्म॑णा। वरु॑णेन। ओज॑सा। अ॒ग्निना॑। तेज॑सा। सोमे॑न। राज्ञा॑। विष्णु॑ना। द॒श॒म्या। दे॒वत॑या। प्रसू॑त॒ इति॒ प्रऽसू॑तः। प्र। स॒र्पा॒मि॒ ॥३०॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

राजा वा राणी को कैसे गुणों से युक्त होना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे प्रजा और राजपुरुषो ! जैसे मैं (प्रसवित्रा) प्रेरणा करनेवाले वायु (सवित्रा) सम्पूर्ण चेष्टा उत्पन्न करानेहारे के समान शुभ कर्म (सरस्वत्या) प्रशंसित विज्ञान और क्रिया से युक्त (वाचा) वेदवाणी के समान सत्यभाषण (त्वष्ट्रा) छेदक और प्रतापयुक्त सूर्य के समान न्याय (रूपैः) सुखरूपों (पूष्णा) पृथिवी (पशुभिः) गौ आदि पशुओं के समान प्रजा के पालन (इन्द्रेण) बिजुली (अस्मे) हम (बृहस्पतिना) बड़ों के रक्षक चार वेदों के जाननेहारे विद्वान् के समान विद्या और सुन्दर शिक्षा के प्रचार (ओजसा) बल (वरुणेन) जल के समुदाय (तेजसा) तीक्ष्ण ज्योति के समान शत्रुओं के चलाने (अग्निना) अग्नि (राज्ञा) प्रकाशमान आनन्द के होने (सोमेन) चन्द्रमा (दशम्या) दशसंख्या को पूर्ण करनेवाली (देवतया) प्रकाशमान और (विष्णुना) व्यापक ईश्वर के समान शुभ गुण, कर्म और स्वभाव से (प्रसूतः) प्रेरणा किया हुआ मैं (प्रसर्पामि) अच्छे प्रकार चलता हूँ, वैसे तुम लोग भी चलो ॥३०॥


भावार्थभाषाः -जो मनुष्य सूर्य्यादि गुणों से युक्त पिता के समान रक्षा करनेहारा हो, वह राजा होने के योग्य है, और जो पुत्र के समान वर्त्ताव करे, वह प्रजा होने योग्य है ॥३०॥

 

देवता: क्षत्रपतिर्देवता ऋषि: शुनःशेप ऋषिः छन्द: आर्षी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः


अ॒श्विभ्यां॑ पच्यस्व॒ सर॑स्वत्यै पच्य॒स्वेन्द्रा॑य सु॒त्राम्णे॑ पच्यस्व। वा॒युःपू॒तः प॒वित्रे॑ण प्र॒त्यङ्क्सोमो॒ अति॑स्रुतः। इन्द्र॑स्य॒ युज्यः॒ सखा॑ ॥३१॥

 

पद पाठ

अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। प॒च्य॒स्व॒। सर॑स्वत्यै। प॒च्य॒स्व॒। इन्द्रा॑य। सु॒त्राम्ण॒ इति॑ सु॒ऽत्राम्णे॑। प॒च्य॒स्व॒। वा॒युः। पू॒तः। प॒वित्रे॑ण। प्र॒त्यङ्। सोमः॑। अति॑स्रुत॒ इत्यति॑ऽस्रु॒तः। इन्द्र॑स्य। युज्यः॑। सखा॑ ॥३१॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य कैसे हो क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे राजा तथा प्रजापुरुषो ! तुम (अश्विभ्याम्) सूर्य चन्द्रमा के समान अध्यापक और उपदेशक (पच्यस्व) शुद्ध बुद्धिवाले हो (सरस्वत्यै) अच्छी शिक्षायुक्त वाणी के लिये (पच्यस्व) उद्यत हो, (सुत्राम्णे) अच्छी रक्षा करनेहारे (इन्द्राय) परमैश्वर्य के लिये (पच्यस्व) दृढ़ पुरुषार्थ करो, (पवित्रेण) शुद्ध धर्म के आचरण से (वायुः) वायु के समान (पूतः) निर्दोष (प्रत्यङ्) पूजा को प्राप्त (सोमः) अच्छे गुणों से युक्त ऐश्वर्य्यवाले (अतिस्रुतः) अत्यन्त ज्ञानवान् (इन्द्रस्य) परमेश्वर के (युज्यः) योगाभ्यासयुक्त (सखा) मित्र हो ॥३१॥


भावार्थभाषाः -मनुष्य को चाहिये कि सत्यवादी धर्मात्मा आप्त अध्यापक और उपदेशक से अच्छी शिक्षा को प्राप्त हो, शुद्ध धर्म के आचरण से अपने आत्मा को पवित्र योग के अङ्गों से ईश्वर की उपासना और सम्पत्ति होने के लिये प्रयत्न करके आपस में मित्रभाव से वर्त्तें ॥३१॥

 

देवता: क्षत्रपतिर्देवता ऋषि: शुनःशेप ऋषिः छन्द: निचृत् ब्राह्मी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः


कु॒विद॒ङ्ग यव॑मन्तो॒ यवं॑ चि॒द्यथा॒ दान्त्य॑नुपू॒र्वं वि॒यूय॑। इ॒हेहै॑षां कृणुहि॒ भोज॑नानि॒ ये ब॒र्हिषो॒ नम॑उक्तिं॒ यज॑न्ति। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽस्य॒श्विभ्यां॑ त्वा॒ सर॑स्वत्यै॒ त्वेन्द्रा॑य त्वा सु॒त्राम्णे॑ ॥३२॥

 

पद पाठ

कु॒वित्। अ॒ङ्ग। यव॑मन्त॒ इति॒ यव॑ऽमन्तः। यव॑म्। चि॒त्। यथा॑। दान्ति॑। अ॒नु॒पू॒र्वमित्य॑नुऽपूर्व॑म्। वि॒यूयेति॑ वि॒ऽयूय॑। इ॒हेहेती॒हऽइ॑ह। ए॒षा॒म्। कृ॒णु॒हि॒। भो॑जनानि। ये। ब॒र्हिषः॑। नम॑उक्ति॒मिति॒ नमः॑ऽउक्तिम्। यज॑न्ति। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत इत्यु॑पयाम॒ऽगृ॑हीतः॒। अ॒सि॒। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। त्वा॒। सर॑स्वत्यै। त्वा॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। सु॒त्राम्ण॒ इति॑ सु॒ऽत्राम्णे॑ ॥३२॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

राजा आदि सभा के पुरुष किस के तुल्य क्या-क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अङ्ग) ज्ञानवान् राजन् ! जो (कुवित्) बहुत ऐश्वर्य्यवाले आप (अश्विभ्याम्) विद्या को प्राप्त हुए शिक्षक लोगों के लिये (उपयामगृहीतः) ब्रह्मचर्य के नियमों से स्वीकार किये (असि) हैं, उन (सरस्वत्यै) विद्यायुक्त वाणी के लिये (त्वा) आपको (इन्द्राय) उत्तम ऐश्वर्य के लिये (त्वा) आप को और (सुत्राम्णे) अच्छी रक्षा के लिये (त्वा) आपको हम लोग स्वीकार करते हैं। (ये) जो (बर्हिषः) वृद्धपुरुष (नमउक्तिम्) अन्न के कहने को (यजन्ति) सङ्गत करते हैं, उन के लिये सत्कार के साथ भोजन आदि दीजिये। जैसे (यवमन्तः) बहुत जौ आदि धान्य से युक्त खेती करनेहारे लोग (इहेह) इस-इस व्यवहार में (यवम्) यवादि अन्न को (अनुपूर्वम्) क्रम से (दान्ति) लुनते हैं, भुस से (चित्) भी (यवम्) जवों को (वियूय) पृथक् करके रक्षा करते हैं, वैसे सत्य-असत्य को ठीक-ठीक विचार के इन की रक्षा कीजिये ॥३२॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे खेती करनेवाले लोग परिश्रम के साथ पृथिवी से अनेक फलों को उत्पन्न और रक्षा करके भोगते और असार को फेंकते हैं, और जैसे ठीक-ठीक राज्य का भाग राजा को देते हैं, वैसे ही राजा आदि पुरुषों को चाहिये कि अत्यन्त परिश्रम से इनकी रक्षा, न्याय के आचरण से ऐश्वर्य्य को उत्पन्न कर और सुपात्रों के लिये देते हुए आनन्द को भोगें ॥३२॥

 

देवता: अश्विनौ देवते ऋषि: शुनःशेप ऋषिः छन्द: निचृद् अनुष्टुप् स्वर: गान्धारः


यु॒वꣳ सु॒राम॑मश्विना॒ नमु॑चावासु॒रे सचा॑। वि॒पि॒पा॒ना शु॑भस्पती॒ऽइन्द्रं॒ कर्म॑स्वावतम् ॥३३॥

 

पद पाठ

यु॒वम्। सु॒राम॑म्। अ॒श्वि॒ना॒। नमु॑चौ। आ॒सु॒रे। सचा॑। वि॒पि॒पा॒नेति॑ विऽपि॒पा॒ना। शु॒भः॒। प॒ती॒ऽइति॑ पती। इन्द्र॑म्। कर्म॒स्विति॒ कर्म॑ऽसु। आ॒व॒त॒म् ॥३३॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

सभा और सेनापति प्रयत्न से वैश्यों की रक्षा करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (सचा) मिले हुए (विपिनाना) विविध राज्य के रक्षक (शुभः) कल्याणकारक व्यवहार के (पती) पालन करनेहारे (अश्विना) सूर्य्य-चन्द्रमा के समान सभापति और सेनापति (युवम्) तुम दोनों (नमुचौ) जो अपने दुष्ट कर्म को न छोड़े (आसुरे) मेघ के व्यवहार में (कर्मसु) खेती आदि कर्मों में वर्त्तमान (सुरामम्) अच्छी तरह जिस में रमण करें, ऐसे (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्यवाले धनी की निरन्तर (आवतम्) रक्षा करो ॥३३॥


भावार्थभाषाः -दुष्टों से श्रेष्ठों की रक्षा के लिये ही राजा होता है। राज्य की रक्षा के विना किसी चेष्टावान् नर की कार्य में निर्विघ्न प्रवृत्ति कभी नहीं हो सकती और न प्रजाजनों के अनुकूल हुए विना राजपुरुषों की स्थिरता होती है। इसलिये वन के सिंहों के समान परस्पर सहायी होके सब राज और प्रजा के मनुष्य सदा आनन्द में रहें ॥३३॥

 

देवता: अश्विनौ देवते ऋषि: शुनःशेप ऋषिः छन्द: भुरिक् पङ्क्तिः स्वर: गान्धारः


पु॒त्रमि॑व पि॒तरा॑व॒श्विनो॒भेन्द्रा॒वथुः॒ काव्यै॑र्द॒ꣳसना॑भिः। यत्सु॒रामं॒ व्यपि॑बः॒ शची॑भिः॒ सर॑स्वती त्वा मघवन्नभिष्णक् ॥३४॥

 

पद पाठ

पु॒त्रमि॒वेति॑ पु॒त्रम्ऽइ॑व। पि॒तरौ॑। अ॒श्विना॑। उ॒भा। इन्द्र॑। आ॒वथुः॑। काव्यैः॑। द॒ꣳसना॑भिः। यत्। सु॒राम॑म्। वि। अपि॑बः। शची॑भिः। सर॑स्वती। त्वा॒ म॒घ॒व॒न्निति॑ मघऽवन्। अ॒भि॒ष्ण॒क् ॥३४॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

राजा और प्रजा को पिता पुत्र के समान वर्त्तना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (मघवन्) विशेष धन के होने से सत्कार के योग्य (इन्द्र) सब सभाओं के मालिक राजन् ! (यत्) जो आप (शचीभिः) अपनी बुद्धियों के बल से (सुरामम्) अच्छा आराम देनेहारे रस को (व्यपिबः) विविध प्रकार से पीवें, उस आप का (सरस्वती) विद्या से अच्छी शिक्षा को प्राप्त हुई, वाणी के समान स्त्री (अभिष्णक्) सेवन करे (अश्विना) राजा से आज्ञा को प्राप्त हुए (उभा) तुम दोनों सेनापति और न्यायाधीश (काव्यैः) परम विद्वान् धर्मात्मा लोगों के लिये (दंसनाभिः) कर्मों से (पितरौ) जैसे माता-पिता (पुत्रमिव) अपने सन्तान की रक्षा करते हैं, वैसे सब राज्य की (आवथुः) रक्षा करो ॥३४॥


भावार्थभाषाः -सब अच्छे-अच्छे गुणों से युक्त राजधर्म का सेवनेहारा धर्मात्मा, अध्यापक और पूर्ण युवा अवस्था को प्राप्त हुआ पुरुष, अपने हृदय को प्यारी, अपने योग्य, अच्छे लक्षणों से युक्त, रूप और लावण्य आदि गुणों से शोभायमान, विदुषी स्त्री के साथ विवाह करे, जो कि निरन्तर पति के अनुकूल हो, और पति भी उसके सम्मति का हो। राजा अपने मन्त्री, नौकर और स्त्री के सहित प्रजाओं में सत्पुरुषों की रीति पर पिता के समान और प्रजापुरुष पुत्र के समान राजा के साथ वर्त्तें। इस प्रकार आपस में प्रीति के साथ मिल के आनन्दित होवें ॥३४॥ इस अध्याय में राजा और प्रजा के धर्म का वर्णन होने से इस अध्याय में कहे अर्थ की पूर्व अध्याय के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ इति श्रीमत्परिव्राजकाचार्य्याणां श्रीमत्परमविदुषां विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण दयानदसरस्वतीस्वामिना निर्मिते संस्कृतभाषाऽऽर्य्यभाषाभ्यां विभूषिते सुप्रमाणयुक्ते यजुर्वेदभाष्ये दशमोऽध्यायः सम्पूर्णः ॥४॥



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