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यजुर्वेद अध्याय 11, हिन्दी भाष्य महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती

 


यजुर्वेद अध्याय 11, हिन्दी भाष्य महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती


देवता: सविता देवता ऋषि: प्रजापतिर्ऋषिः छन्द: विराडार्ष्यनुष्टुप् स्वर: गान्धारः


यु॒ञ्जा॒नः प्र॑थ॒मं मन॑स्त॒त्त्वाय॑ सवि॒ता धियः॑। 

अ॒ग्नेर्ज्योति॑र्नि॒चाय्य॑ पृथि॒व्याऽअध्याभ॑रत् ॥१ ॥


पद पाठ

यु॒ञ्जा॒नः। प्र॒थ॒मम्। मनः॑। त॒त्त्वाय॑। स॒वि॒ता। धियः॑। अ॒ग्नेः। ज्योतिः॑। नि॒चाय्येति॑ नि॒चाऽय्य॑। पृ॒थि॒व्याः। अधि॑। आ। अ॒भ॒र॒त् ॥१ ॥


हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती


अब ग्यारहवें अध्याय का आरम्भ किया जाता है। इसके प्रथम मन्त्र में योगाभ्यास और भूगर्भविद्या का उपदेश किया है ॥


पदार्थान्वयभाषाः -जो (सविता) ऐश्वर्य को चाहनेवाला मनुष्य (तत्त्वाय) उन परमेश्वर आदि पदार्थों के ज्ञान होने के लिये (प्रथमम्) पहिले (मनः) विचारस्वरूप अन्तःकरण की वृत्तियों को और (धियः) धारणारूप अन्तःकरण की वृत्तियों को (युञ्जानः) योगाभ्यास और भूगर्भविद्या में युक्त करता हुआ (अग्नेः) पृथिवी आदि में रहने वाली बिजुली के (ज्योतिः) प्रकाश को (निचाय्य) निश्चय करके (पृथिव्याः) भूमि के (अधि) ऊपर (आभरत्) अच्छे प्रकार धारण करे, वह योगी और भूगर्भ-विद्या का जाननेवाला होवे ॥१ ॥


भावार्थभाषाः -जो पुरुष योगाभ्यास और भूगर्भविद्या किया चाहे, वह यम आदि योग के अङ्ग और क्रिया-कौशलों से अपने हृदय को शुद्ध करके तत्त्वों को जानने के लिये बुद्धि को प्राप्त करके और इन को गुण, कर्म तथा स्वभाव से जान के उपयोग लेवे। फिर जो प्रकाशमान सूर्य्यादि पदार्थ हैं, उन का भी प्रकाशक ईश्वर है, उस को जान और अपने आत्मा में निश्चय करके अपने और दूसरों के सब प्रयोजनों को सिद्ध करे ॥१ ॥

 

देवता: सविता देवता ऋषि: प्रजापतिर्ऋषिः छन्द: शङ्कुमती गायत्री स्वर: षड्जः


यु॒क्तेन॒ मन॑सा व॒यं दे॒वस्य॑ सवि॒तुः स॒वे। स्व॒र्ग्या᳖य॒ शक्त्या॑ ॥२ ॥

 

पद पाठ


यु॒क्तेन॑। मन॑सा। व॒यम्। दे॒वस्य॑। स॒वि॒तुः। स॒वे। स्व॒र्ग्या᳖येति॑ स्वः॒ऽग्या᳖य॒। शक्त्या॑ ॥२ ॥


हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती


फिर भी उक्त विषय ही अगले मन्त्र में कहा है ॥


पदार्थान्वयभाषाः -हे योग और तत्त्वविद्या को जानने की इच्छा करनेहारे मनुष्यो ! जैसे (वयम्) हम योगी लोग (युक्तेन) योगाभ्यास किये (मनसा) विज्ञान और (शक्त्या) सामर्थ्य से (देवस्य) सब को चिताने तथा (सवितुः) समग्र संसार को उत्पन्न करने हारे ईश्वर के (सवे) जगद्रूप इस ऐश्वर्य में (स्वर्ग्याय) सुख प्राप्ति के लिये प्रकाश को अधिकाई से धारण करें, वैसे तुम लोग भी प्रकाश को धारण करो ॥२ ॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य परमेश्वर की इस सृष्टि में समाहित हुए योगाभ्यास ओर तत्त्वविद्या को यथाशक्ति सेवन करें, उनमें सुन्दर आत्मज्ञान के प्रकाश से युक्त हुए योग और पदार्थविद्या का अभ्यास करें, तो अवश्य सिद्धियों को प्राप्त हो जावें ॥२ ॥


देवता: सविता देवता ऋषि: प्रजापतिर्ऋषिः छन्द: निचृदनुष्टुप् स्वर: गान्धारः


यु॒क्त्वाय॑ सवि॒ता दे॒वान्त्स्व॑र्य॒तो धि॒या दिव॑म्। 

बृ॒हज्ज्योतिः॑ करिष्य॒तः स॑वि॒ता प्रसु॑वाति॒ तान् ॥३ ॥


पद पाठ


यु॒क्त्वाय॑। स॒वि॒ता। दे॒वान्। स्वः॑। य॒तः। धि॒या। दिव॑म्। बृ॒हत्। ज्योतिः॑। क॒रि॒ष्य॒तः। स॒वि॒ता। प्र। सु॒वा॒ति॒। तान् ॥३ ॥


हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती


फिर भी उक्त विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -जिन को (सविता) योग के पदार्थों के ज्ञान का करनेहारा जन परमात्मा में मन को (युक्त्वाय) युक्त करके (धिया) बुद्धि से (दिवम्) विद्या के प्रकाश को (स्वः) सुख को (यतः) प्राप्त करानेवाले (बृहत्) बड़े (ज्योतिः) विज्ञान को (करिष्यतः) जो करेंगे उन (देवान्) दिव्य गुणों को (प्रसुवाति) उत्पन्न करे (तान्) उनको अन्य भी (सविता) उत्पादक जन उत्पन्न करे ॥३ ॥


भावार्थभाषाः -जो पुरुष योग और पदार्थविद्या का अभ्यास करते हैं, वे अविद्या आदि क्लेशों को हटानेवाले शुद्ध गुणों को प्रकट कर सकते हैं। जो उपदेशक पुरुष से योग और तत्त्वज्ञान को प्राप्त हो के ऐसा अभ्यास करे, वह भी इन गुणों को प्राप्त होवे ॥३ ॥


देवता: सविता देवता ऋषि: प्रजापतिर्ऋषिः छन्द: जगती स्वर: निषादः


यु॒ञ्जते॒ मन॑ऽउ॒त यु॑ञ्जते॒ धियो॒ विप्रा॒ विप्र॑स्य बृह॒तो वि॑प॒श्चितः॑। 

वि होत्रा॑ दधे वयुना॒विदेक॒ऽइन्म॒ही दे॒वस्य॑ सवि॒तुः परि॑ष्टुतिः ॥४ ॥


पद पाठ


यु॒ञ्जते॑। मनः॑। उ॒त। यु॒ञ्ज॒ते। धियः॑। विप्राः॑। विप्र॑स्य। बृ॒ह॒तः। वि॒प॒श्चित॒ इति॑ विपः॒ऽचितः॑। वि। होत्राः॑। द॒धे॒। व॒यु॒ना॒वित्। व॒यु॒ना॒विदिति॑ वयुन॒ऽवित्। एकः॑। इत्। म॒ही। दे॒वस्य॑। स॒वि॒तुः। परि॑ष्टुतिः। परि॑स्तुति॒रिति॒ परि॑ऽस्तुतिः ॥४ ॥


हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती


योगाभ्यास करके मनुष्य क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥


पदार्थान्वयभाषाः -जो (होत्राः) दान देने-लेने के स्वभाववाले (विप्राः) बुद्धिमान् पुरुष जिस (बृहतः) बड़े (विपश्चितः) सम्पूर्ण विद्याओं से युक्त आप्त पुरुष के समान वर्त्तमान (विप्रस्य) सब शास्त्रों के जाननेहारे बुद्धिमान् पुरुष से विद्याओं को प्राप्त हुए विद्वानों से विज्ञानयुक्त जन (सवितुः) सब जगत् को उत्पन्न और (देवस्य) सब के प्रकाशक जगदीश्वर की (मही) बड़ी (परिष्टुतिः) सब प्रकार की स्तुति है, उस तत्त्वज्ञान के विषय में जैसे (मनः) अपने चित्त को (युञ्जते) समाधान करते (उत) और (धियः) अपनी बुद्धियों को (युञ्जते) युक्त करते हैं, वैसे ही (वयुनावित्) प्रकृष्टज्ञानवाला (एकः) अन्य के सहाय की अपेक्षा से रहित (इत्) ही मैं (विदधे) विधान करता हूँ ॥४ ॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो नियम से आहार-विहार करने हारे जितेन्द्रिय पुरुष एकान्त देश में परमात्मा के साथ अपने आत्मा को युक्त करते हैं, वे तत्त्वज्ञान को प्राप्त होकर नित्य ही सुख भोगते हैं ॥४ ॥


देवता: सविता देवता ऋषि: प्रजापतिर्ऋषिः छन्द: भुरिक्पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः


यु॒जे वां॒ ब्रह्म॑ पू॒र्व्यं नमो॑भि॒र्वि श्लोक॑ऽएतु प॒थ्ये᳖व सू॒रेः। 

शृ॒ण्वन्तु॒ विश्वे॑ऽअ॒मृत॑स्य पु॒त्राऽआ ये धामा॑नि दि॒व्यानि॑ त॒स्थुः ॥५ ॥


पद पाठ


यु॒जे। वा॒म्। ब्रह्म॑। पू॒र्व्यम्। नमो॑भि॒रिति॒ नमः॑ऽभिः। वि। श्लोकः॑। ए॒तु॒। प॒थ्ये᳖वेति॑ प॒थ्या᳖ऽइव। सू॒रेः। शृ॒ण्वन्तु॑। विश्वे॑। अ॒मृत॑स्य। पु॒त्राः। आ। ये। धामा॑नि। दि॒व्यानि॑। त॒स्थुः ॥५ ॥


हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती


मनुष्य लोग ईश्वर की प्राप्ति कैसे करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥


पदार्थान्वयभाषाः -हे योगशास्त्र के ज्ञान की इच्छा करनेवाले मनुष्यो ! आप लोग जैसे (श्लोकः) सत्य वाणी से संयुक्त मैं (नमोभिः) सत्कारों से जिस (पूर्व्यम्) पूर्व के योगियों ने प्रत्यक्ष किये (ब्रह्म) सब से बड़े व्यापक ईश्वर को (युजे) अपने आत्मा में युक्त करता हूँ, वह ईश्वर (वाम्) तुम योग के अनुष्ठान और उपदेश करने हारे दोनों को (सूरेः) विद्वान् का (पथ्येव) उत्तम गति के अर्थ मार्ग प्राप्त होता है, वैसे (व्येतु) विविध प्रकार से प्राप्त होवे। जैसे (विश्वे) सब (पुत्राः) अच्छे सन्तानों के तुल्य आज्ञाकारी मोक्ष को प्राप्त हुए विद्वान् लोग (अमृतस्य) अविनाशी ईश्वर के योग से (दिव्यानि) सुख के प्रकाश में होनेवाले (धामानि) स्थानों को (आतस्थुः) अच्छे प्रकार प्राप्त होते हैं, वैसे मैं भी उनको प्राप्त होऊँ ॥५ ॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। योगाभ्यास के ज्ञान को चाहनेवाले मनुष्यों को चाहिये कि योग में कुशल विद्वानों का सङ्ग करें। उन के सङ्ग से योग की विधि को जान के ब्रह्मज्ञान का अभ्यास करें। जैसे विद्वान् का प्रकाशित किया हुआ धर्म मार्ग सब को सुख से प्राप्त होता है, वैसे ही योगाभ्यासियों के सङ्ग से योगविधि सहज में प्राप्त होती है। कोई भी जीवात्मा इस सङ्ग और ब्रह्मज्ञान के अभ्यास के विना पवित्र होकर सब सुखों को प्राप्त नहीं हो सकता, इसीलिये उस योगविधि के साथ ही सब मनुष्य परब्रह्म की उपासना करें ॥५ ॥


देवता: सविता देवता ऋषि: प्रजापतिर्ऋषिः छन्द: निचृज्जगती स्वर: निषादः


यस्य॑ प्र॒याण॒मन्व॒न्यऽइद्य॒युर्दे॒वा दे॒वस्य॑ महि॒मान॒मोज॑सा। 

यः पार्थि॑वानि विम॒मे सऽएत॑शो॒ रजा॑ꣳसि दे॒वः स॑वि॒ता म॑हित्व॒ना ॥६ ॥


पद पाठ


यस्य॑। प्र॒याण॑म्। प्र॒यान॒मिति॑ प्र॒ऽयान॑म्। अनु॑। अ॒न्ये। इत्। य॒युः। दे॒वाः। दे॒वस्य॑। म॒हि॒मान॑म्। ओज॑सा। यः। पार्थि॑वानि। वि॒म॒म इति॑ विऽम॒मे। सः। एत॑शः। रजा॑ꣳसि। दे॒वः। स॒वि॒ता। म॒हि॒त्व॒नेति॑ महिऽत्व॒ना ॥६ ॥


हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती


मनुष्य किस की उपासना करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥


पदार्थान्वयभाषाः -हे योगी पुरुषो ! तुम को चाहिये कि (यस्य) जिस (देवस्य) सब सुख देने हारे ईश्वर के (महिमानम्) स्तुति विषय को (प्रयाणम्) कि जिस से सब सुख प्राप्त होवे उस के (अनु) पीछे (अन्ये) जीवादि और (देवाः) विद्वान् लोग (ययुः) प्राप्त होवें (यः) जो (एतशः) सब जगत् में अपनी व्याप्ति से प्राप्त हुआ (सविता) सब जगत् का रचने हारा (देवः) शुद्धस्वरूप भगवान् (महित्वना) अपनी महिमा और (ओजसा) पराक्रम से (पार्थिवानि) पृथिवी पर प्रसिद्ध (रजांसि) सब लोकों को (विममे) विमान आदि यानों के समान रचता है (सः) वह (इत्) ही निरन्तर उपासनीय मानना चाहिये ॥६ ॥


भावार्थभाषाः -जो विद्वान् लोग सब जगत् के बीच पोल में अपने अनन्त बल से धारण करने, रचने और सुख देने हारे सर्वशक्तिमान् सब के हृदयों में व्यापक ईश्वर की उपासना करते हैं, वे ही सुख पाते हैं, अन्य नहीं ॥६ ॥


देवता: सविता देवता ऋषि: प्रजापतिर्ऋषिः छन्द: आर्षी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः


देव॑ सवितः॒ प्रसु॑व य॒ज्ञं प्रसु॑व य॒ज्ञप॑तिं॒ भगा॑य। 

दि॒व्यो ग॑न्ध॒र्वः के॑त॒पूः केत॑न्नः पुनातु वा॒चस्पति॒र्वाचं॑ नः स्वदतु ॥७ ॥


पद पाठ


देव॑। स॒वि॒त॒रिति॑ सवितः। प्र। सु॒व॒। य॒ज्ञम्। प्र। सु॒व॒। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिम्। भगा॑य। दि॒व्यः। ग॒न्ध॒र्वः। के॒त॒पूरिति॑ केत॒ऽपूः। केत॑म्। नः॒। पु॒ना॒तु॒। वा॒चः। पतिः॑। वाच॑म्। नः॒। स्व॒द॒तु॒ ॥७ ॥


हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती


अब किसलिये परमेश्वर की उपासना और प्रार्थना करनी चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥


पदार्थान्वयभाषाः -हे (देव) सत्य योगविद्या से उपासना के योग्य शुद्ध ज्ञान देने (सवितः) और सब सिद्धियों को उत्पन्न करने हारे परमेश्वर ! आप (नः) हमारे (भगाय) सम्पूर्ण ऐश्वर्य के लिये (यज्ञम्) सुखों को प्राप्त कराने हारे व्यवहार को (प्रसुव) उत्पन्न कीजिये तथा (यज्ञपतिम्) इस सुखदायक व्यवहार के रक्षक जन को (प्रसुव) उत्पन्न कीजिये (गन्धर्वः) पृथिवी को धरने (दिव्यः) शुद्ध गुण, कर्म और स्वभावों में उत्तम और (केतपूः) विज्ञान से पवित्र करने हारे आप (नः) हमारे (केतम्) विज्ञान को (पुनातु) पवित्र कीजिये और (वाचस्पतिः) सत्य विद्याओं से युक्त वेदवाणी के प्रचार से रक्षा करनेवाले आप (नः) हमारी (वाचम्) वाणी को (स्वदतु) स्वादिष्ठ अर्थात् कोमल मधुर कीजिये ॥७ ॥


भावार्थभाषाः -जो पुरुष सम्पूर्ण ऐश्वर्य से युक्त शुद्ध, निर्मल ब्रह्म की उपासना और योगविद्या की प्राप्ति के लिये प्रार्थना करते हैं, वे सब ऐश्वर्य्य को प्राप्त अपने आत्मा को शुद्ध और योगविद्या को सिद्ध कर सकते हैं। जो ईश्वर की वाणी के तुल्य अपनी वाणी को शुद्ध करते हैं, वे सत्यवादी हो के सब क्रियाओं के फलों को प्राप्त होते हैं ॥७ ॥


देवता: सविता देवता ऋषि: प्रजापतिर्ऋषिः छन्द: भुरिक् शक्वरी स्वर: धैवतः


इ॒मं नो॑ देव सवितर्य॒ज्ञं प्रण॑य देवा॒व्य᳖ꣳ सखि॒विद॑ꣳ सत्रा॒जितं॑ धन॒जित॑ꣳ स्व॒र्जित॑म्। ऋ॒चा स्तोम॒ꣳ सम॑र्धय गाय॒त्रेण॑ रथन्त॒रं बृ॒हद् गा॑य॒त्रव॑र्त्तनि॒ स्वाहा॑ ॥८ ॥


पद पाठ


इ॒मम्। नः॒। दे॒व॒। स॒वि॒तः॒। य॒ज्ञम्। प्र। न॒य॒। दे॒वा॒व्य᳖मिति॑ देवऽअ॒व्य᳖म्। स॒खि॒विद॒मिति॑ सखि॒ऽविद॑म्। स॒त्रा॒जित॒मिति॑ सत्रा॒ऽजित॑म्। ध॒न॒जित॒मिति॑ धन॒ऽजित॑म्। स्व॒र्जित॒मिति॑ स्वः॒ऽजित॑म्। ऋ॒चा। स्तोम॑म्। सम्। अ॒र्ध॒य॒। गा॒य॒त्रेण॑। र॒थ॒न्त॒रमिति॑ रथम्ऽत॒रम्। बृ॒हत्। गा॒य॒त्रव॑र्त्त॒नीति॑ गाय॒त्रऽव॑र्त्तनि। स्वाहा॑ ॥८ ॥


हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (देव) सत्य कामनाओं को पूर्ण करने और (सवितः) अन्तर्यामिरूप से प्रेरणा करने हारे जगदीश्वर ! आप (नः) हमारे (इमम्) पीछे कहे और आगे जिसको कहेंगे उस (देवाव्यम्) दिव्य विद्वान् वा दिव्य गुणों की जिस से रक्षा हो (सखिविदम्) मित्रों को जिस से प्राप्त हों (सत्राजितम्) सत्य को जिससे जीतें (धनजितम्) धन की जिससे उन्नति होवे (स्वर्जितम्) सुख को जिस से बढ़ावें और (ऋचा) ऋग्वेद से जिस की (स्तोमम्) स्तुति हो उस (यज्ञम्) विद्या और धर्म का संयोग कराने हारे यज्ञ को (स्वाहा) सत्य क्रिया के साथ (प्रणय) प्राप्त कीजिये (गायत्रेण) गायत्री आदि छन्द से (गायत्रवर्त्तनि) गायत्री आदि छन्दों की गानविद्या (बृहत्) बड़े (रथन्तरम्) अच्छे यानों से जिस के पार हों, उस मार्ग को (समर्धय) अच्छे प्रकार बढ़ाइये ॥८ ॥


भावार्थभाषाः -जो मनुष्य ईर्ष्या द्वेष आदि दोषों को छोड़ ईश्वर के समान सब जीवों के साथ मित्रभाव रखते हैं, वे संपत् को प्राप्त होते हैं ॥८ ॥


देवता: सविता देवता ऋषि: प्रजापतिर्ऋषिः छन्द: भुरिगतिशक्वरी स्वर: पञ्चमः


दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वे᳕ऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। आद॑दे गाय॒त्रेण॒ छन्द॑साङ्गिर॒स्वत् पृ॑थि॒व्याः स॒धस्था॑द॒ग्निं पु॑री॒ष्य᳖मङ्गिर॒स्वदाभ॑र॒ त्रैष्टु॑भेन॒ छन्द॑साङ्गिर॒स्वत् ॥९ ॥

 

पद पाठ

दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व᳕ इति॑ प्रऽस॒वे᳕। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। आ। द॒दे॒। गा॒य॒त्रेण॑। छन्द॑सा। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। पृ॒थि॒व्याः। स॒धस्था॒दिति॑ स॒धऽस्था॑त्। अ॒ग्निम्। पु॒री॒ष्य᳖म्। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। आ। भ॒र॒। त्रैष्टु॑भेन। त्रैस्तु॑भे॒नेति॒ त्रैऽस्तु॑भेन। छन्द॑सा। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत् ॥९ ॥


हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्य भूमि आदि तत्त्वों से बिजुली का ग्रहण करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे विद्वन् पुरुष ! मैं जिस (त्वा) आप को (देवस्य) सूर्य्य आदि सब जगत् के प्रकाश करने और (सवितुः) सबको ऐश्वर्यव्यवस्था के प्रति प्रेरित करनेवाले के (प्रसवे) निष्पन्न ऐश्वर्य में (अश्विनोः) प्राण और उदान के (बाहुभ्याम्) बल और आकर्षण से तथा (पूष्णः) पुष्टिकारक बिजुली के (हस्ताभ्याम्) धारण और आकर्षण (अङ्गिरस्वत्) अंगारों के समान (आददे) ग्रहण करता हूँ सो आप (गायत्रेण) गायत्री मन्त्र से निकले (छन्दसा) आनन्ददायक अर्थ के साथ (पृथिव्याः) पृथिवी के (सधस्थात्) एक स्थान से (अङ्गिरस्वत्) प्राणों के तुल्य और (त्रैष्टुभेन) त्रिष्टुप् मन्त्र से निकले (छन्दसा) स्वतन्त्र अर्थ के साथ (अङ्गिरस्वत्) चिह्नों के सदृश (पुरीष्यम्) जल को उत्पन्न करने हारे (अग्निम्) बिजुली आदि तीन प्रकार के अग्नि को (आभर) धारण कीजिये ॥९ ॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि ईश्वर की सृष्टि के गुणों को जानने हारे विद्वान् की अच्छे प्रकार सेवा करके पृथिवी आदि पदार्थों में रहनेवाले अग्नि को स्वीकार करें ॥९ ॥


देवता: सविता देवता ऋषि: प्रजापतिर्ऋषिः छन्द: भुरिगनुष्टुप् स्वर: गान्धारः


अभ्रि॑रसि॒ नार्य॑सि॒ त्वया॑ व॒यम॒ग्निꣳ श॑केम॒ खनि॑तुꣳ स॒धस्थ॒ आ। 

जाग॑तेन॒ छन्द॑साङ्गिर॒स्वत् ॥१० ॥


पद पाठ

अभ्रिः॑। अ॒सि॒। नारी॑। अ॒सि॒। त्वया॑। व॒यम्। अ॒ग्निम्। श॒के॒म॒। खनि॑तुम्। स॒धस्थ॒ इति॑ स॒धस्थे॑। आ। जाग॑तेन। छन्द॑सा। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत् ॥१० ॥


हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्य लोग भूमि आदि से सुवर्ण आदि पदार्थों को कैसे प्राप्त होवें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥


पदार्थान्वयभाषाः -हे कारीगर पुरुष ! जो (त्वया) तेरे साथ (सधस्थे) एक स्थान में वर्त्तमान (वयम्) हम लोग जो (अभ्रिः) भूमि खोदने और (नारी) विवाहित उत्तम स्त्री के समान कार्य्यों को सिद्ध करने हारी लोहे आदि की कसी (असि) है, जिससे कारीगर लोग भूगर्भविद्या को जान सकें, उस को ग्रहण करके (जागतेन) जगती मन्त्र से विधान किये (छन्दसा) सुखदायक स्वतन्त्र साधन से (अङ्गिरस्वत्) प्राणों के तुल्य (अग्निम्) विद्युत् आदि अग्नि को (खनितुम्) खोदने के लिये (आशकेम) सब प्रकार समर्थं हों, उस को तू बना ॥१० ॥


भावार्थभाषाः -मनुष्यों को उचित है कि अच्छे खोदने के साधनों से पृथिवी को खोद और अग्नि के साथ संयुक्त करके सुवर्ण आदि पदार्थों को बनावें, परन्तु पहिले भूगर्भ की तत्त्वविद्या को प्राप्त होके ऐसा कर सकते हैं, ऐसा निश्चित जानना चाहिये ॥१० ॥


देवता: सविता देवता ऋषि: प्रजापतिर्ऋषिः छन्द: भुरिक् पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः


हस्त॑ऽआ॒धाय॑ सवि॒ता बिभ्र॒दभ्रि॑ꣳ हिर॒ण्ययी॑म्। अ॒ग्नेर्ज्योति॑र्नि॒चाय्य॑ पृथि॒व्याऽअध्याभ॑र॒दानु॑ष्टुभेन॒ छन्द॑साङ्गिर॒स्वत् ॥११ ॥


पद पाठ


हस्ते॑। अ॒धायेत्या॒ऽधाय॑। स॒वि॒ता। बिभ्र॑त्। अभ्रि॑म्। हि॒र॒ण्ययी॑म्। अ॒ग्नेः। ज्योतिः॑। नि॒चाय्येति॑ नि॒ऽचाय्य॑। पृ॒थि॒व्याः। अधि॑। आ। अ॒भ॒र॒त्। आनु॑ष्टुभेन। आनु॑स्तुभे॒नेत्यानु॑ऽस्तुभेन। छन्द॑सा। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत् ॥११ ॥


हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती


फिर भी वही उक्त विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥


पदार्थान्वयभाषाः -(सविता) ऐश्वर्य का उत्पन्न करने हारा कारीगर मनुष्य (आनुष्टुभेन) अनुष्टुप् छन्द में कहे हुए (छन्दसा) स्वतन्त्र अर्थ के योग से (हिरण्ययीम्) तेजोमय शुद्ध धातु से बने (अभ्रिम्) खोदने के शस्त्र को (हस्ते) हाथ में (आधाय) (बिभ्रत्) लिये हुए (अङ्गिरस्वत्) प्राण के तुल्य (अग्नेः) विद्युत् आदि अग्नि के (ज्योतिः) तेज को (निचाय्य) निश्चय करके (पृथिव्याः) पृथिवी के (अधि) ऊपर (आभरत्) अच्छे प्रकार धारण करे ॥११ ॥


भावार्थभाषाः -मनुष्यों को चाहिये कि जैसे लोहे और पत्थरों में बिजुली रहती है, वैसे ही सब पदार्थों में प्रवेश कर रही है। उस की विद्या को ठीक-ठीक जान और कार्यों में उपयुक्त करके इस पृथिवी पर आग्नेय आदि अस्त्र और विमान आदि यानों को सिद्ध करें ॥११ ॥


देवता: वाजी देवता ऋषि: नाभानेदिष्ठ ऋषिः छन्द: आस्तारपङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः


प्रतू॑र्त्तं वाजि॒न्नाद्र॑व॒ वरि॑ष्ठा॒मनु॑ सं॒वत॑म्। दि॒वि ते॒ जन्म॑ पर॒मम॒न्तरि॑क्षे॒ तव॒ नाभिः॑ पृथि॒व्यामधि॒ योनि॒रित् ॥१२ ॥


पद पाठ

प्रतू॑र्त्त॒मिति॒ प्रऽतू॑र्त्तम्। वा॒जि॒न्। आ। द्र॒व॒। वरि॑ष्ठाम्। अनु॑। सं॒वत॒मिति॑ स॒म्ऽवत॑म्। दि॒वि। ते॒। जन्म॑। प॒र॒मम्। अ॒न्तरि॑क्षे। तव॑। नाभिः॑। पृ॒थि॒व्याम्। अधि॑। योनिः॑। इत् ॥१२ ॥


हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥


पदार्थान्वयभाषाः -हे (वाजिन्) प्रशंसित ज्ञान से युक्त विद्वन् ! जिस (ते) आप का शिल्पविद्या से (दिवि) सूर्य्य के प्रकाश में (परमम्) उत्तम (जन्म) प्रसिद्धि (तव) आप का (अन्तरिक्षे) आकाश में (नाभिः) बन्धन और (पृथिव्याम्) इस पृथिवी में (योनिः) निमित्त प्रयोजन है सो आप विमानादि यानों के अधिष्ठाता होकर (वरिष्ठाम्) अत्यन्त उत्तम (संवतम्) अच्छे प्रकार विभाग की हुई गति को (प्रतूर्त्तम्) अतिशीघ्र (इत्) ही (अनु) पश्चात् (आ) (द्रव) अच्छे प्रकार चलिये ॥१२ ॥


भावार्थभाषाः -जब मनुष्य लोग विद्या और क्रिया के बीच में परम प्रयत्न के साथ प्रसिद्ध हो और विमान आदि यानों को रच के शीघ्र जाना-आना करते हैं, तब उन को धन की प्राप्ति सुगम होती है ॥१२ ॥


देवता: वाजी देवता ऋषि: कुश्रिर्ऋषिः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः


यु॒ञ्जाथा॒ꣳ रास॑भं यु॒वम॒स्मिन् यामे॑ वृषण्वसू। अ॒ग्निं भर॑न्तमस्म॒युम् ॥१३ ॥

 

पद पाठ

यु॒ञ्जाथा॑म्। रास॑भम्। यु॒वम्। अ॒स्मिन्। यामे॑। वृ॒ष॒ण्व॒सू॒ इति॑ वृषण्ऽवसू। अ॒ग्निम्। भर॑न्तम्। अ॒स्म॒युमित्य॑स्म॒ऽयुम् ॥१३ ॥

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या कहाँ जोड़ना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥


पदार्थान्वयभाषाः -हे (वृषण्वसू) सूर्य्य और वायु के समान सुख वर्षाने वा सुख में बसने हारे कारीगर तथा उसके स्वामी लोगो ! (युवम्) तुम दोनों (अस्मिन्) इस (यामे) यान में (रासभम्) जल और अग्नि के वेगगुणरूप अश्व तथा (अस्मयुम्) हम को ले चलने तथा (भरन्तम्) धारण करने हारे (अग्निम्) प्रसिद्ध वा बिजुली रूप अग्नि को (युञ्जाथाम्) युक्त करो ॥१३ ॥


भावार्थभाषाः -जो मनुष्य इस विमान आदि यान में यन्त्र, कला, जल और अग्नि के प्रयोग करते हैं, वे सुख से दूसरे देशों में जाने को समर्थ होते हैं ॥१३ ॥

देवता: क्षत्रपतिर्देवता ऋषि: शुनःशेप ऋषिः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः


योगे॑योगे त॒वस्त॑रं॒ वाजे॑वाजे हवामहे। सखा॑य॒ऽइन्द्र॑मू॒तये॑ ॥१४ ॥

 

 पद पाठ


योगे॑योग॒ इति योगे॑ऽयोगे। त॒वस्त॑र॒मिति॑ त॒वःऽत॑रम्। वाजे॑वाज॒ इति॒ वाजे॑ऽवाजे। ह॒वा॒म॒हे॒। सखा॑यः। इन्द्र॑म्। ऊ॒तये॑ ॥१४ ॥

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती


प्रजाजन कैसे पुरुष को राजा मानें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥


पदार्थान्वयभाषाः -हे (सखायः) परस्पर मित्रता रखने हारे लोगो ! जैसे हम लोग (ऊतये) रक्षा आदि के लिये (योगेयोगे) जिस-जिस में युक्त होते हैं, उस-उस तथा (वाजेवाजे) सङ्ग्राम-सङ्ग्राम के बीच (तवस्तरम्) अत्यन्त बलवान् (इन्द्रम्) परमैश्वर्ययुक्त पुरुष को राजा (हवामहे) मानते हैं, वैसे ही तुम लोग भी मानो ॥१४ ॥


भावार्थभाषाः -जो मनुष्य परस्पर मित्र हो के एक दूसरे की रक्षा के लिये अत्यन्त बलवान् धर्मात्मा पुरुष को राजा मानते हैं, वे सब विघ्नों से अलग हो के सुख की उन्नति कर सकते हैं ॥१४ ॥

देवता: गणपतिर्देवता ऋषि: शुनःशेप ऋषिः छन्द: आर्षी स्वर: निषादः


प्र॒तूर्व॒न्नेह्य॑व॒क्राम॒न्नश॑स्ती रु॒द्रस्य॒ गाण॑पत्यं मयो॒भूरेहि॑। उ॒र्व᳕न्तरि॑क्षं॒ वी᳖हि स्व॒स्तिग॑व्यूति॒रभ॑यानि कृ॒ण्वन् पू॒ष्णा स॒युजा॑ स॒ह ॥१५ ॥


पद पाठ

प्र॒तूर्व॒न्निति॑ प्र॒ऽतूर्व॑न्। आ। इ॒हि॒। अ॒व॒क्राम॒न्नित्य॑व॒ऽक्राम॑न्। अश॑स्तीः। रु॒द्रस्य॑। गाण॑पत्य॒मिति॒ गाण॑ऽपत्यम्। म॒यो॒भूरिति॑ मयः॒ऽभूः। आ। इ॒हि॒। उ॒रु। अ॒न्तरि॑क्षम्। वि। इ॒हि॒। स्व॒स्तिग॑व्यूति॒रिति॑ स्व॒स्तिऽग॑व्यूतिः। अभ॑यानि। कृ॒ण्वन्। पू॒ष्णा। स॒युजेति॑ स॒ऽयुजा॑। स॒ह ॥१५ ॥


हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा क्या करके किस को प्राप्त हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥


पदार्थान्वयभाषाः -हे राजन् ! (स्वस्तिगव्यूतिः) सुख के साथ जिस का मार्ग है, ऐसे आप (सयुजा) एक साथ युक्त करनेवाली (पूष्णा) बल पुष्टि से युक्त अपनी सेना के (सह) साथ (अशस्तीः) निन्दित शत्रुओं की सेनाओं को (प्रतूर्वन्) मारते हुए (एहि) प्राप्त हूजिये। शत्रुओं के देशों का (अवक्रामन्) उल्लङ्घन करते हुए (एहि) आइये (मयोभूः) सुख को उत्पन्न करते आप (रुद्रस्य) शत्रुओं को रुलाने हारे अपने सेनापति के (गाणपत्यम्) सेनासमूह के स्वामीपन को (एहि) प्राप्त हूजिये और (अभयानि) अपने राज्य में सब प्राणियों को भयरहित (कृण्वन्) करते हुए (अन्तरिक्षम्) (उरु) परिपूर्ण आकाश को (वीहि) विविध प्रकार से प्राप्त हूजिये ॥१५ ॥


भावार्थभाषाः -राजा को अति उचित है कि अपनी सेना को सदैव अच्छी शिक्षा, हर्ष, उत्साह और पोषण से युक्त रक्खे। जब शत्रुओं के साथ युद्ध किया चाहे, तब अपने राज्य को उपद्रवरहित कर युक्ति तथा बल से शत्रुओं को मारे और सज्जनों की रक्षा करके सर्वत्र सुन्दर कीर्ति फैलावे ॥१५ ॥


देवता: अग्निर्देवता ऋषि: शुनःशेप ऋषिः छन्द: भुरिक्पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः


पृ॒थि॒व्याः स॒धस्था॑द॒ग्निं पु॑री॒ष्य᳖मङ्गिर॒स्वदाभ॑रा॒ग्निं पु॑री॒ष्य᳖मङ्गिर॒स्वदच्छे॑मो॒ऽग्निं पु॑री॒ष्य᳖मङ्गिर॒स्वद्भ॑रिष्यामः ॥१६ ॥


पद पाठ


पृ॒थि॒व्याः। स॒धस्था॒दिति॑ स॒धऽस्था॑त्। अ॒ग्निम्। पु॒री॒ष्य᳖म्। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। आ। भ॒र॒। अ॒ग्निम्। पु॒री॒ष्य᳖म्। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। अच्छ॑। इ॒मः॒। अ॒ग्निम्। पु॒री॒ष्य᳖म्। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। भ॒रि॒ष्या॒मः॒ ॥१६ ॥


हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती


मनुष्य किस पदार्थ से बिजुली का ग्रहण करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥


पदार्थान्वयभाषाः -हे विद्वन् ! जैसे हम लोग (पृथिव्याः) भूमि और अन्तरिक्ष के (सधस्थात्) एक स्थान से (अङ्गिरस्वत्) प्राणों के समान (पुरीष्यम्) अच्छा सुख देने हारे (अग्निम्) भूमिमण्डल की बिजुली को (अच्छ) उत्तम रीति से (इमः) प्राप्त होते और जैसे (अङ्गिरस्वत्) प्राणों के समान (पुरीष्यम्) उत्तम सुखदायक (अग्निम्) अन्तरिक्षस्थ बिजुली को (भरिष्यामः) धारण करें, वैसे आप भी (अङ्गिरस्वत्) सूर्य्य के समान (पुरीष्यम्) उत्तम सुख देनेवाले (अग्निम्) पृथिवी पर वर्त्तमान अग्नि को (आभर) अच्छे प्रकार धारण कीजिये ॥१६ ॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को चाहिये कि विद्वानों के समान काम करें, मूर्खवत् नहीं और सब काल में उत्साह के साथ अग्नि आदि की पदार्थविद्या का ग्रहण करके सुख बढ़ाते रहें ॥१६ ॥


देवता: अग्निर्देवता ऋषि: पुरोधा ऋषिः छन्द: निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः


अन्व॒ग्निरु॒षसा॒मग्र॑मख्य॒दन्वहा॑नि प्रथ॒मो जा॒तवे॑दाः। 

अनु॒ सूर्य॑स्य पुरु॒त्रा च॑ र॒श्मीननु॒ द्यावा॑पृथि॒वीऽआत॑तन्थ ॥१७ ॥


पद पाठ

अनु॑। अ॒ग्निः। उ॒षसा॑म्। अग्र॑म्। अ॒ख्य॒त्। अनु॑। अहा॑नि। प्र॒थ॒मः। जा॒तवे॑दा॒ इति॑ जा॒तऽवे॑दाः। अनु॑। सूर्य॑स्य। पु॒रु॒त्रेति॑ पुरु॒ऽत्रा। च॒। र॒श्मीन्। अनु॑। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। आ। त॒त॒न्थ॒ ॥१७ ॥


हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

विद्वान् लोग किस के समान क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे विद्वन् ! आप जैसे (प्रथमः) (जातवेदाः) उत्पन्न हुए पदार्थों में पहिले ही विद्यमान सूर्य्यलोक और (अग्निः) अग्नि (उषसाम्) उषःकाल से (अग्रम्) पहिले ही (अहानि) दिनों को (अन्वख्यत्) प्रसिद्ध करता है (सूर्य्यस्य) सूर्य्य के (अग्रम्) पहिले (पुरुत्रा) बहुत (रश्मीन्) किरणों को (अन्वाततन्थ) फैलाता (द्यावापृथिवी च) तथा सूर्य्य और पृथिवी लोक को प्रसिद्ध करता है, वैसे विद्या के व्यवहारों की प्रवृत्ति कीजिये ॥१७ ॥

 

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे कारण रूप विद्युत् और कार्य्यरूप प्रसिद्ध अग्नि क्रम से सूर्य्य, उषःकाल और दिनों को उत्पन्न करके पृथिवी आदि पदार्थों को प्रकाशित करते हैं, वैसे ही विद्वानों को चाहिये कि सुन्दर शिक्षा दे ब्रह्मचर्य्य विद्या धर्म्म के अनुष्ठान और अच्छे स्वभाव आदि का सर्वत्र प्रचार करके सब मनुष्यों को ज्ञान और आनन्द से प्रकाशयुक्त करें ॥१७ ॥

 

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: मयोभूर्ऋषिः छन्द: निचृदनुष्टुप् स्वर: गान्धारः

 

आ॒गत्य॑ वा॒ज्यध्वा॑न॒ꣳ सर्वा॒ मृधो॒ विधू॑नुते। अ॒ग्निꣳ स॒धस्थे॑ मह॒ति चक्षु॑षा॒ निचि॑कीषते ॥१८ ॥

 

पद पाठ

 

आ॒गत्येत्या॒ऽऽगत्य॑। वा॒जी। अध्वा॑नम्। सर्वाः॑। मृधः॑। वि। धू॒नु॒ते॒। अ॒ग्निम्। स॒धस्थ॒ इति॑ स॒धस्थे॑। म॒ह॒ति। चक्षु॑षा। नि। चि॒की॒ष॒ते॒ ॥१८ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

अब सभापति राजा किसके समान क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे राजन् ! आप जैसे (वाजी) वेगवान् घोड़ा (अध्वानम्) अपने मार्ग को (आगत्य) प्राप्त हो के (सर्वाः) सब (मृधः) सङ्ग्रामों को (विधूनुते) कंपाता है और जैसे गृहस्थ पुरुष (चक्षुषा) नेत्रों से (महति) सुन्दर (सधस्थे) एक स्थान में (अग्निम्) अग्नि का (निचिकीषते) चयन किया चाहता है, वैसे सब सङ्ग्रामों को कंपाइये और घर-घर में विद्या का प्रचार कीजिये ॥१८ ॥

 

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। गृहस्थों को चाहिये कि घोड़ों के समान जाना-आना कर, शत्रुओं को जीत, आग्नेयादि अस्त्रविद्या को सिद्ध कर, अपने बलाऽबल को विचार और राग-द्वेष आदि दोषों की शान्ति करके अधर्मी शत्रुओं को जीतें ॥१८ ॥

 

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: मयोभूर्ऋषिः छन्द: निचृदनुष्टुप् स्वर: गान्धारः

 

आ॒क्रम्य॑ वाजिन् पृथि॒वीम॒ग्निमि॑च्छ रु॒चा त्वम्। भूम्या॑ वृ॒त्वाय॑ नो ब्रूहि॒ यतः॒ खने॑म॒ तं व॒यम् ॥१९ ॥

 

पद पाठ

 

आ॒क्रम्येत्या॒ऽक्रम्य॑। वा॒जि॒न्। पृ॒थि॒वीम्। अ॒ग्निम्। इ॒च्छ॒। रु॒चा। त्वम्। भूम्याः॑। वृ॒त्वाय॑। नः॒। ब्रूहि॑। यतः॑। खने॑म। तम्। व॒यम् ॥१९ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

मनुष्य जन्म पा और विद्या पढ़ के पश्चात् क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (वाजिन्) प्रशंसित ज्ञानवाले सभापति विद्वान् राजा ! (त्वम्) आप (रुचा) प्रीति से शत्रुओं को (आक्रम्य) पादाक्रान्त कर (पृथिवीम्) भूमि के राज्य और (अग्निम्) [अग्नि] विद्या की (इच्छ) इच्छा कीजिये और (भूम्याः) पृथिवी के बीच (नः) हम लोगों को (वृत्वाय) स्वीकार करके हमारे लिये (ब्रूहि) भूगर्भ और अग्निविद्या का उपदेश कीजिये (यतः) जिस से (वयम्) हम लोग (तम्) उस विद्या में (खनेम) प्रविष्ट होवें ॥१९ ॥

 

भावार्थभाषाः -मनुष्यों को चाहिये की भूगर्भ और अग्नि विद्या से पृथिवी के पदार्थों को अच्छे प्रकार परीक्षा करके सुवर्ण आदि रत्नों को उत्साह के साथ प्राप्त होवें और जो पृथिवी को खोदनेवाले नौकर-चाकर हैं, उन को इस विद्या का उपदेश करें ॥१९ ॥

 

देवता: क्षत्रपतिर्देवता ऋषि: मयोभूर्ऋषिः छन्द: निचृदार्षी बृहती स्वर: मध्यमः

 

द्यौस्ते॑ पृ॒ष्ठं पृ॑थि॒वी स॒धस्थ॑मा॒त्मान्तरि॑क्षꣳ समु॒द्रो योनिः॑। वि॒ख्याय॒ चक्षु॑षा॒ त्वम॒भि ति॑ष्ठ पृतन्य॒तः ॥२० ॥

 

पद पाठ

 

द्यौः। ते॒। पृ॒ष्ठम्। पृ॒थि॒वी। स॒धस्थ॒मिति॑ स॒धऽस्थ॑म्। आ॒त्मा। अ॒न्तरि॑क्षम्। स॒मु॒द्रः। योनिः॑। वि॒ख्यायेति॑ वि॒ऽख्याय॑। चक्षु॑षा। त्वम्। अ॒भि। ति॒ष्ठ॒। पृ॒त॒न्य॒तः ॥२० ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

मनुष्य क्या करके क्या सिद्ध करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे विद्वन् राजन् ! जिस (ते) आप का (द्यौः) प्रकाश के तुल्य विनय (पृष्ठम्) इधर का व्यवहार (पृथिवी) भूमि के समान (सधस्थम्) साथ स्थिति (अन्तरिक्षम्) आकाश के समान अविनाशी धैर्ययुक्त (आत्मा) अपना स्वरूप और (समुद्रः) समुद्र के तुल्य (योनिः) निमित्त है सो (त्वम्) आप (चक्षुषा) विचार के साथ (विख्याय) अपना ऐश्वर्य प्रसिद्ध करके (पृतन्यतः) अपनी सेना को लड़ाने की इच्छा करते हुए मनुष्य के (अभि) सन्मुख (तिष्ठ) स्थित हूजिये ॥२० ॥

 

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो पुरुष न्याय मार्ग के अनुसार उत्साह, स्थान और आत्मा जिसके दृढ़ हों; विचार से सिद्ध करने योग्य जिसके प्रयोजन हों, उसकी सेना वीर होती है, वह निश्चय विजय करने को समर्थ होवे ॥२० ॥

 

देवता: द्रविणोदा देवता ऋषि: मयोभूर्ऋषिः छन्द: आर्षी स्वर: पञ्चमः

 

उत्क्रा॑म मह॒ते सौभ॑गाया॒स्मादा॒स्थाना॑द् द्रविणो॒दा वा॑जिन्। व॒यꣳ स्या॑म सुम॒तौ पृ॑थि॒व्याऽअ॒ग्निं खन॑न्तऽउ॒पस्थे॑ऽअस्याः ॥२१ ॥

 

पद पाठ

 

उत्। क्रा॒म॒। म॒ह॒ते। सौभ॑गाय। अ॒स्मात्। आ॒स्थाना॒दित्या॒ऽस्थाना॑त्। द्र॒वि॒णो॒दा इति॑ द्रविणः॒ऽदाः। वा॒जि॒न्। व॒यम्। स्या॒म॒। सु॒म॒ताविति॑ सुऽम॒तौ। पृ॒थि॒व्याः। अ॒ग्निम्। खन॑न्तः। उ॒पस्थ॒ इत्यु॒पऽस्थे॑। अ॒स्याः॒ ॥२१ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

मनुष्यों को योग्य है कि इस संसार में परम पुरुषार्थ से ऐश्वर्य उत्पन्न करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (वाजिन्) ऐश्वर्य्य को प्राप्त हुए विद्वन् ! जैसे (द्रविणोदाः) धनदाता (अस्याः) इस (पृथिव्याः) भूमि के (अस्मात्) इस (आस्थानात्) निवास के स्थान से (उपस्थे) समीप में (अग्निम्) अग्नि विद्या का (खनन्तः) खोज करते हुए (वयम्) हम लोग (महते) बड़े (सौभगाय) सुन्दर ऐश्वर्य्य के लिये (सुमतौ) अच्छी बुद्धि में प्रवृत्त (स्याम) होवें, वैसे आप (उत्क्राम) उन्नति को प्राप्त हूजिये ॥२१ ॥

 

भावार्थभाषाः -मनुष्यों को उचित है कि संसार में ऐश्वर्य पाने के लिये निरन्तर उद्यत रहें और आपस में हिल-मिल के पृथिवी आदि पदार्थों से रत्नों को प्राप्त होवें ॥२१ ॥

 

देवता: द्रविणोदा देवता ऋषि: मयोभूर्ऋषिः छन्द: निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

 

उद॑क्रमीद् द्रविणो॒दा वा॒ज्यर्वाकः॒ सुलो॒कꣳ सुकृ॑तं पृथि॒व्याम्। ततः॑ खनेम सु॒प्रती॑कम॒ग्निꣳ स्वो॒ रुहा॑णा॒ऽअधि॒ नाक॑मुत्त॒मम् ॥२२ ॥

 

पद पाठ

 

उत्। अ॒क्र॒मी॒त्। द्र॒वि॒णो॒दा इति॑ द्रविणः॒ऽदाः। वा॒जी। अर्वा॑। अक॒रित्यकः॑। सु। लो॒कम्। सुकृ॑त॒मिति॒ सुऽकृ॑तम्। पृ॒थि॒व्याम्। ततः॑। ख॒ने॒म॒। सु॒प्रती॑क॒मिति॑ सु॒ऽप्रती॑कम्। अ॒ग्निम्। स्व᳖ इति॑ स्वः᳖। रुहा॑णाः। अधि॑। नाक॑म्। उ॒त्त॒ममित्यु॑त्ऽत॒मम् ॥२२ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

मनुष्य इस संसार में किस के समान हो के किस को प्राप्त हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे भूगर्भ विद्या के जानने हारे विद्वन् ! (द्रविणोदाः) धनदाता आप जैसे (वाजी) बलवाला (अर्वा) घोड़ा ऊपर को उछलता है, वैसे (पृथिव्याम्) पृथिवी के बीच (अधि) (उदक्रमीत्) सब से अधिक उन्नति को प्राप्त हूजिये (सुकृतम्) धर्माचरण से प्राप्त होने योग्य (सुलोकम्) अच्छा देखने योग्य (उत्तमम्) अति श्रेष्ठ (नाकम्) सब दुःखों से रहित सुख को (अकः) सिद्ध कीजिये (ततः) इसके पश्चात् (स्वः) सुखपूर्वक (रुहाणाः) प्रकट होते हुए हम लोग भी इस पृथिवी पर (सुप्रतीकम्) सुन्दर प्रतीति का विषय (अग्निम्) व्यापक बिजुली रूप अग्नि का (खनेम) खोज करें ॥२२ ॥

 

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे पृथिवी पर घोड़े अच्छी-अच्छी चाल चलते हैं, वैसे हम तुम सब मिल कर पुरुषार्थी हो पृथिवी आदि की पदार्थविद्या को प्राप्त हो और दुःखों को दूर करके सब से उत्तम सुख को प्राप्त हों ॥२२ ॥

 

देवता: प्रजापतिर्देवता ऋषि: गृत्समद ऋषिः छन्द: आर्षी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

 

आ त्वा॑ जिघर्मि॒ मन॑सा घृ॒तेन॑ प्रतिक्षि॒यन्तं॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑। पृ॒थुं ति॑र॒श्चा वय॑सा बृ॒हन्तं॒ व्यचि॑ष्ठ॒मन्नै॑ रभ॒सं दृशा॑नम् ॥२३ ॥

 

पद पाठ

 

आ। त्वा॒। जि॒घ॒र्मि॒। मन॑सा। घृ॒तेन॑। प्र॒ति॒क्षि॒यन्त॒मिति॑ प्रतिऽक्षि॒यन्त॑म्। भुव॑नानि। विश्वा॑। पृ॒थुम्। ति॒र॒श्चा। वय॑सा। बृ॒हन्त॑म्। व्यचि॑ष्ठम्। अन्नैः॑। र॒भ॒सम्। दृशा॑नम् ॥२३ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

मनुष्य व्यापक वायु को किस साधन से जानें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे ज्ञान चाहनेवाले पुरुष ! जैसे मैं (मनसा) मन तथा (घृतेन) घी के साथ (विश्वा) सब (भुवनानि) लोकस्थ वस्तुओं में (प्रतिक्षियन्तम्) प्रत्यक्ष निवास और निश्चयकारक (तिरश्चा) तिरछे चलनेरूप (वयसा) जीवन से (पृथुम्) विस्तारयुक्त (बृहन्तम्) बड़े (अन्नैः) जौ आदि अन्नों के साथ (रभसम्) बलवाले (व्यचिष्ठम्) अतिशय करके फेंकनेवाले (दृशानम्) देखने योग्य वायु के गुणों को (आजिघर्मि) अच्छे प्रकार प्रकाशित करता हूँ, वैसे (त्वा) आप को भी इस वायु के गुणों को धारण कराता हूँ ॥२३ ॥

 

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्य अग्नि के द्वारा सुगन्धि आदि द्रव्यों को वायु में पहुँचा उस सुगन्ध से रोगों को दूर कर अधिक अवस्था को प्राप्त होवें ॥२३ ॥

 

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: गृत्समद ऋषिः छन्द: आर्षी पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः

 

आ वि॒श्वतः॑ प्र॒त्यञ्चं॑ जिघर्म्यर॒क्षसा॒ मन॑सा॒ तज्जु॑षेत। मर्य्य॑श्रीः स्पृह॒यद्व॑र्णोऽअ॒ग्निर्नाभि॒मृशे॑ त॒न्वा᳕ जर्भु॑राणः ॥२४ ॥

 

पद पाठ

 

आ। वि॒श्वतः॑। प्र॒त्यञ्च॑म्। जि॒घ॒र्मि॒। अ॒र॒क्षसा॑। मन॑सा। तत्। जु॒षे॒त॒। मर्य्य॑श्रीरिति॒ मर्य्य॑ऽश्रीः। स्पृ॒ह॒यद्व॑र्ण॒ इति॑ स्पृह॒यत्ऽव॑र्णः। अ॒ग्निः। न। अ॒भि॒मृश॒ इत्य॑भि॒ऽमृशे॑। त॒न्वा᳕। जर्भु॑राणः ॥२४ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर वायु और अग्नि कैसे गुणवाले हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्य ! (न) जैसे (विश्वतः) सब ओर से (अग्निः) बिजुली और प्राण वायु शरीर में व्यापक होके (अभिमृशे) सहनेवाले के लिये हितकारी हैं, जैसे (तन्वा) शरीर से (जर्भुराणः) शीघ्र हाथ-पाँव आदि अङ्गों को चलाता हुआ (स्पृहयद्वर्णः) इच्छावालों ने स्वीकार किये हुए के समान (मर्य्यश्रीः) मनुष्यों की शोभा के तुल्य वायु के समान वेगवाला होके मैं जिस (प्रत्यञ्चम्) शरीर के वायु को निरन्तर चलानेवाली विद्युत् को (अरक्षसा) राक्षसों की दुष्टता से रहित (मनसा) चित्त से (आजिघर्मि) प्रकाशित करता हूँ, वैसे (तत्) उस तेज को (जुषेत) सेवन कर ॥२४ ॥

 

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो ! तुम लोग लक्ष्मी प्राप्त करानेहारे अग्नि आदि पदार्थों को जान और उनको कार्यों में संयुक्त करके धनवान् होओ ॥२४ ॥

 

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: सोमक ऋषिः छन्द: निचृद्गायत्री स्वर: षड्जः

 

परि॒ वाज॑पतिः क॒विर॒ग्निर्ह॒व्यान्य॑क्रमीत्। दध॒द् रत्ना॑नि दा॒शुषे॑ ॥२५ ॥

 

पद पाठ

 

परि॑। वाज॑पति॒रिति॒ वाज॑ऽपतिः। क॒विः। अ॒ग्निः। ह॒व्यानि॑। अ॒क्र॒मी॒त्। दध॑त्। रत्ना॑नि। दा॒शुषे॑ ॥२५ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर गृहस्थ कैसा होवे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे विद्वन् ! जो (वाजपतिः) अन्न आदि की रक्षा करने हारे गृहस्थों के समान (कविः) बहुदर्शी दाता गृहस्थ पुरुष (दाशुषे) दान देने योग्य विद्वान् के लिये (रत्नानि) सुवर्ण आदि उत्तम पदार्थ (दधत्) धारण करते हुए के समान (अग्निः) प्रकाशमान पुरुष (हव्यानि) देने योग्य वस्तुओं को (परि) सब ओर से (अक्रमीत्) प्राप्त होता है, उस को तू जान ॥२५ ॥

 

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वान् पुरुष को चाहिये कि अग्निविद्या के सहाय से पृथिवी के पदार्थों से धन को प्राप्त हो अच्छे मार्ग में खर्च कर और धर्मात्माओं को दान दे के विद्या के प्रचार से सब को सुख पहुँचावे ॥२५ ॥

 

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: पायुर्ऋषिः छन्द: अनुष्टुप् स्वर: गान्धारः

 

परि॑ त्वाग्ने॒ पुरं॑ व॒यं विप्र॑ꣳ सहस्य धीमहि। धृ॒षद्व॑र्णं दि॒वेदि॑वे ह॒न्तारं॑ भङ्गु॒राव॑ताम् ॥२६ ॥

 

पद पाठ

 

परि॑। त्वा॒। अ॒ग्ने॒। पुर॑म्। व॒यम्। विप्र॑म्। स॒ह॒स्य॒। धी॒म॒हि॒। धृ॒षद्व॑र्ण॒मिति॑ धृ॒षत्ऽव॑र्णम्। दि॒वेदि॑व॒ इति॑ दि॒वेऽदि॑वे। ह॒न्तार॑म्। भ॒ङ्गु॒राव॑ताम्। भ॒ङ्गु॒रव॑ता॒मिति॑ भङ्गु॒रऽव॑ताम् ॥२६ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

कैसा सेनापति करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (सहस्य) अपने बल को चाहनेवाले (अग्ने) अग्निवत् विद्या से प्रकाशमान विद्वान् पुरुष ! जैसे (वयम्) हम लोग (दिवेदिवे) प्रतिदिन (भङ्गुरावताम्) खोटे स्वभाववालों के (पुरम्) नगर को अग्नि के समान (हन्तारम्) मारने (धृषद्वर्णम्) दृढ़ सुन्दर वर्ण से युक्त (विप्रम्) विद्वान् (त्वा) आपको (परि) सब प्रकार से (धीमहि) धारण करें, वैसे तू हम को धारण कर ॥२६ ॥

 

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। राजा और प्रजा के पुरुषों को चाहिये कि न्याय से प्रजा की रक्षा करने, अग्नि के समान शत्रुओं को मारने और सब काल में सुख देने हारे पुरुष को सेनापति करें ॥२६ ॥

 

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: गृत्समद ऋषिः छन्द: पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः

 

त्वम॑ग्ने॒ द्युभि॒स्त्वमा॑शुशु॒क्षणि॒स्त्वम॒द्भ्यस्त्वमश्म॑न॒स्परि॑। त्वं वने॑भ्य॒स्त्वमोष॑धीभ्य॒स्त्वं नृ॒णां नृ॑पते जायसे॒ शुचिः॑ ॥२७ ॥

 

 

 

पद पाठ

 

त्वम्। अ॒ग्ने॒। द्युभि॒रिति॒ द्युऽभिः॑। त्वम्। आ॒शु॒शु॒क्षणिः॑। त्वम्। अ॒द्भ्य इत्य॒त्ऽभ्यः। त्वम्। अश्म॑नः। परि॑। त्वम्। वने॑भ्यः। त्वम्। ओष॑धीभ्यः। त्वम्। नृ॒णाम्। नृ॒प॒त॒ इति॑ नृऽपते। जा॒य॒से॒। शुचिः॑ ॥२७ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर सभाध्यक्ष कैसा होना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (नृपते) मनुष्यों के पालने हारे (अग्ने) अग्नि के समान प्रकाशमान न्यायाधीश राजन् ! (त्वम्) आप (द्युभिः) दिनों के समान प्रकाशमान न्याय आदि गुणों से सूर्य्य के समान (त्वम्) आप (आशुशुक्षणिः) शीघ्र दुष्टों को मारने हारे (त्वम्) आप (अद्भ्यः) वायु वा जलों से (त्वम्) आप (अश्मनः) मेघ वा पाषाणादि से (त्वम्) आप (वनेभ्यः) जङ्गल वा किरणों से (त्वम्) आप (ओषधीभ्यः) सोमलता आदि ओषधियों से (त्वम्) आप (नृणाम्) मनुष्यों के बीच (शुचिः) पवित्र (परि) सब प्रकार (जायसे) प्रसिद्ध होते हो, इस कारण आप का आश्रय लेके हम लोग भी ऐसे ही होवें ॥२७ ॥

 

भावार्थभाषाः -जो राजा, सभासद् वा प्रजा का पुरुष सब पदार्थों से गुण ग्रहण और विद्या तथा क्रिया की कुशलता से उपकार ले सकता है और धर्म के आचरण से पवित्र तथा शीघ्रकारी होता है, वही सब सुखों को प्राप्त हो सकता है, अन्य आलसी पुरुष नहीं ॥२७ ॥

 

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: गृत्समद ऋषिः छन्द: प्रकृतिः स्वर: धैवतः

 

दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑सवे᳕ऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। पृ॒थि॒व्याः स॒धस्था॑द॒ग्निं पु॑री॒ष्य᳖मङ्गिर॒स्वत् ख॑नामि। ज्योति॑ष्मन्तं त्वाग्ने सु॒प्रती॑क॒मज॑स्रेण भा॒नुना॒ दीद्य॑तम्। शि॒वं प्र॒जाभ्योऽहि॑ꣳसन्तं पृथि॒व्याः स॒धस्था॑द॒ग्निं पु॑री॒ष्य᳖मङ्गिर॒स्वत् ख॑नामः ॥२८ ॥

 

पद पाठ

 

दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। पृ॒थि॒व्याः। स॒धस्था॒दिति॑ स॒धऽस्था॑त्। अ॒ग्निम्। पु॒री॒ष्य᳖म्। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ख॒ना॒मि॒। ज्योति॑ष्मन्तम्। त्वा। अ॒ग्ने॒। सु॒प्रती॑क॒मिति॑ सु॒ऽप्रती॑कम्। अज॑स्रेण। भा॒नुना॑। दीद्य॑तम्। शि॒वम्। प्र॒जाभ्य॒ इति॑ प्र॒ऽजाभ्यः॑। अहि॑ꣳसन्तम्। पृ॒थि॒व्याः। स॒धस्था॒दिति॑ स॒धऽस्था॑त्। अ॒ग्निम्। पु॒री॒ष्य᳖म्। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ख॒ना॒मः॒ ॥२८ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

मनुष्य क्या करके किस पदार्थ से बिजुली का ग्रहण करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) भूगर्भ तथा शिल्पविद्या के जानने हारे विद्वान् ! जैसे मैं (सवितुः) सब जगत् के उत्पन्न करने हारे (देवस्य) प्रकाशमान ईश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये संसार में (अश्विनोः) आकाश और पृथिवी के (बाहुभ्याम्) आकर्षण तथा धारणरूप बाहुओं के समान और (पूष्णः) प्राण के (हस्ताभ्याम्) बल और पराक्रम के तुल्य (त्वा) आप को आगे करके (पृथिव्याः) भूमि के (सधस्थात्) एक स्थान से (पुरीष्यम्) पूर्ण सुख देनेहारे (ज्योतिष्मन्तम्) बहुत ज्योतिवाले (अजस्रेण) निरन्तर (भानुना) दीप्ति से (दीद्यतम्) अत्यन्त प्रकाशमान (पुरीष्यम्) सुन्दर रक्षा करने (अग्निम्) वायु में रहनेवाली बिजुली को (अङ्गिरस्वत्) वायु के समान (खनामि) सिद्ध करता हूँ और जैसे (त्वा) आप का आश्रय लेके हम लोग (पृथिव्याः) अन्तरिक्ष के (सधस्थात्) एक प्रदेश से (अङ्गिरस्वत्) सूत्रात्मा वायु के समान वर्त्तमान (अहिंसन्तम्) जो कि ताड़ना न करे ऐसे (पुरीष्यम्) पालनेहारे पदार्थों में उत्तम (प्रजाभ्यः) प्रजा के लिये (शिवम्) मङ्गलकारक (अग्निम्) अग्नि को (खनामः) प्रकट करते हैं, वैसे सब लोग किया करें ॥२८ ॥

 

भावार्थभाषाः -जो राज्य और प्रजा के पुरुष सर्वत्र रहनेवाले बिजुली रूपी अग्नि को सब पदार्थों से साधन तथा उपसाधनों के द्वारा प्रसिद्ध करके कार्य्यों में प्रयुक्त करते हैं, वे कल्याणकारक ऐश्वर्य्य को प्राप्त होते हैं। कोई भी उत्पन्न हुआ पदार्थ बिजुली की व्याप्ति के बिना खाली नहीं रहता, ऐसा तुम सब लोग जानो ॥२८ ॥

 

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: गृत्समद ऋषिः छन्द: स्वराट् पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः

 

अ॒पां पृ॒ष्ठम॑सि॒ योनि॑र॒ग्नेः स॑मु॒द्रम॒भितः॒ पिन्व॑मानम्। वर्ध॑मानो म॒हाँ२ऽआ च॒ पुष्क॑रे दि॒वो मात्र॑या वरि॒म्णा प्र॑थस्व ॥२९ ॥

 

पद पाठ

 

अ॒पाम्। पृ॒ष्ठम्। अ॒सि॒। योनिः॑। अ॒ग्नेः। स॒मु॒द्रम्। अ॒भितः॑। पिन्व॑मानम्। वर्ध॑मानः। म॒हान्। आ। च॒। पुष्क॑रे। दि॒वः। मात्र॑या। व॒रि॒म्णा। प्र॒थ॒स्व॒ ॥२९ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर मनुष्य कैसी बिजुली का ग्रहण करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे विद्वन् ! जिस कारण (अग्नेः) सर्वत्र अभिव्याप्त बिजुली रूप अग्नि के (योनिः) संयोग-वियोगों के जानने (महान्) पूजनीय (वर्धमानः) विद्या तथा क्रिया की कुशलता से नित्य बढ़नेवाले आप (असि) हैं। इसलिये (अभितः) सब ओर से (पिन्वमानम्) जल वर्षाते हुए (अपाम्) जलों के (पृष्ठम्) आधारभूत (पुष्करे) अन्तरिक्ष में वर्त्तमान (दिवः) दीप्ति के (मात्रया) विभाग से बढ़े हुए (समुद्रम्) अच्छे प्रकार जिस में ऊपर को जल उठते हैं, उस समुद्र (च) और वहाँ के सब पदार्थों को जान के (वरिम्णा) बहुत्व के साथ (आप्रथस्व) अच्छे प्रकार सुखों को विस्तार करनेवाले हूजिये ॥२९ ॥

 

भावार्थभाषाः -हे मनुष्यो ! तुम लोग पृथिवी आदि स्थूल पदार्थों में बिजुली जिस प्रकार वर्त्तमान है, वैसे ही जलों में भी है, ऐसा समझ और उससे उपकार ले के बड़े-बड़े विस्तारयुक्त सुखों को सिद्ध करो ॥२९ ॥

 

देवता: दम्पती देवते ऋषि: गृत्समद ऋषिः छन्द: विराडार्ष्यनुष्टुप् स्वर: गान्धारः

 

शर्म॑ च॒ स्थो वर्म॑ च॒ स्थोऽछि॑द्रे बहु॒लेऽउ॒भे। व्यच॑स्वती॒ संव॑साथां भृ॒तम॒ग्निं पु॑री॒ष्य᳖म् ॥३० ॥

 

पद पाठ

 

शर्म्म॑। च॒। स्थः॒। वर्म्म॑। च॒। स्थः॒। अछि॑द्रे॒ऽइत्यछि॑द्रे। ब॒हु॒लेऽइति॑ बहु॒ले। उ॒भेऽइत्यु॒भे। व्यच॑स्वती॒ऽइति॑ व्यच॑स्वती। सम्। व॒सा॒था॒म्। भृ॒तम्। अ॒ग्निम्। पु॒री॒ष्य᳖म् ॥३० ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

अब स्त्री और पुरुष घर में रह के क्या-क्या सिद्ध करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे स्त्रीपुरुषो ! तुम दोनों (शर्म) गृहाश्रम (च) और उस की सामग्री को प्राप्त हुए (स्थः) हो (वर्म्म) सब ओर से रक्षा (च) और उस के सहायकारी पदार्थों को (उभे) दो (बहुले) बहुत अर्थों को ग्रहण करने हारे (व्यचस्वती) सुख की व्याप्ति से युक्त (अच्छिद्रे) निर्दोष बिजुली और अन्तरिक्ष के समान जिस घर में धर्म, अर्थ के कार्य्य (स्थः) हैं, उस घर में (भृतम्) पोषण करने हारे (पुरीष्यम्) रक्षा करने में उत्तम (अग्निम्) अग्नि को ग्रहण करके (संवसाथाम्) अच्छे प्रकार आच्छादन करके वसो ॥३० ॥

 

भावार्थभाषाः -गृहस्थ लोगों को चाहिये कि ब्रह्मचर्य्य के साथ सत्कार और उपकारपूर्वक क्रिया की कुशलता और विद्या का ग्रहण कर बहुत द्वारों से युक्त, सब ऋतुओं में सुखदायक, सब ओर की रक्षा और अग्नि आदि साधनों से युक्त घरों को बना के उन में सुखपूर्वक निवास करें ॥३० ॥

 

देवता: जायापती देवते ऋषि: गृत्समद ऋषिः छन्द: निचृदनुष्टुप् स्वर: गान्धारः

 

संव॑साथाᳬस्व॒र्विदा॑ स॒मीची॒ऽउर॑सा॒ त्मना॑। अ॒ग्निम॒न्तर्भ॑रि॒ष्यन्ती॒ ज्योति॑ष्मन्त॒मज॑स्र॒मित् ॥३१ ॥

 

पद पाठ

 

सम्। व॒सा॒था॒म्। स्व॒र्विदेति॑ स्वः॒ऽविदा॑। स॒मीची॒ऽइति॑ स॒मीची॑। उर॑सा। त्मना॑। अ॒ग्निम्। अ॒न्तः। भ॒रि॒ष्यन्ती॒ऽइति॑ भरि॒ष्यन्ती॑। ज्योति॑ष्मन्तम्। अज॑स्रम्। इत् ॥३१ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर भी वही उक्त विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे स्त्रीपुरुषो ! तुम दोनों जो (समीची) अच्छे प्रकार पदार्थों को जानने (भरिष्यन्ती) और सब का पालन करने हारे (स्वर्विदा) सुख को प्राप्त होते हुए (ज्योतिष्मन्तम्) अच्छे प्रकाश से युक्त (अन्तः) सब पदार्थों के बीच वर्त्तमान (अग्निम्) बिजुली को (इत्) ही (त्मना) (उरसा) अपने अन्तःकरण से (अजस्रम्) निरन्तर (संवसाथाम्) अच्छी तरह आच्छादन करो तो लक्ष्मी भोग सको ॥३१ ॥

 

भावार्थभाषाः -जो गृहस्थ मनुष्य बिजुली को उत्पन्न करके ग्रहण कर सकते हैं, वे व्यवहार में दरिद्र कभी नहीं होते ॥३१ ॥

 

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: भारद्वाज ऋषिः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

 

पु॒री॒ष्यो᳖ऽसि वि॒श्वभ॑रा॒ऽअथ॑र्वा त्वा प्रथ॒मो निर॑मन्थदग्ने। त्वाम॑ग्ने॒ पुष्क॑रा॒दध्यथ॑र्वा॒ निर॑मन्थत ॥ मू॒र्ध्नो विश्व॑स्य वा॒घतः॑ ॥३२ ॥

 

पद पाठ

 

पु॒री॒ष्यः᳖। अ॒सि॒। वि॒श्वभ॑रा॒ इति॑ वि॒श्वऽभ॑राः। अथ॑र्वा। त्वा॒। प्र॒थ॒मः। निः। अ॒म॒न्थ॒त्। अ॒ग्ने॒। त्वाम्। अ॒ग्ने॒। पुष्क॑रात्। अधि॑। अथ॑र्वा। निः। अ॒म॒न्थ॒त॒। मू॒र्ध्नः। विश्व॑स्य। वा॒घतः॑ ॥३२ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

विद्वान् पुरुष बिजुली को कैसे उत्पन्न करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) क्रिया की कुशलता को सिद्ध करने हारे विद्वन् ! जो (वाघतः) शास्त्रवित् आप (पुरीष्यः) पशुओं को सुख देने हारे (असि) हैं उस (त्वा) आपको (अथर्वा) रक्षक (प्रथमः) उत्तम (विश्वभराः) सब का पोषक विद्वान् (विश्वस्य) सब संसार के (मूर्ध्नः) ऊपर वर्त्तमान (पुष्करात्) अन्तरिक्ष से (अधि) समीप अग्नि को (निरमन्थत्) नित्य मन्थन करके ग्रहण करता है, वह ऐश्वर्य्य को प्राप्त होता है ॥३२ ॥

 

भावार्थभाषाः -जो इस जगत् में विद्वान् पुरुष होवें वे अपने अच्छे विचार और पुरुषार्थ से अग्नि आदि की पदार्थविद्या को प्रसिद्ध करके सब मनुष्यों को शिक्षा करें ॥३२ ॥

 

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: भारद्वाज ऋषिः छन्द: निचृद्गायत्री स्वर: षड्जः

 

तमु॑ त्वा द॒ध्यङ्ङृषिः॑ पु॒त्रऽई॑धे॒ऽअथ॑र्वणः। वृ॒त्र॒हणं॑ पुरन्द॒रम् ॥३३ ॥

 

पद पाठ

 

तम्। ऊ॒ इत्यूँ॑। त्वा॒। द॒ध्यङ्। ऋषिः॑। पु॒त्रः। ई॒धे॒। अथ॑र्वणः। वृ॒त्र॒हण॑म्। वृ॒त्र॒हन॒मिति॑ वृत्र॒ऽहन॑म्। पु॒र॒न्द॒रमिति॑ पुरम्ऽद॒रम् ॥३३ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर भी उक्त विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे राजन् ! जैसे (अथर्वणः) रक्षक विद्वान् का (पुत्रः) पवित्र शिष्य (दध्यङ्) सुखदायक अग्नि आदि पदार्थों को प्राप्त हुआ (ऋषिः) वेदार्थ जानने हारा (उ) तर्क-वितर्क के साथ सम्पूर्ण विद्याओं का वेत्ता जिस (वृत्रहणम्) सूर्य्य के समान शत्रुओं को मारने और (पुरन्दरम्) शत्रुओं के नगरों को नष्ट करनेवाले आप को (ईधे) तेजस्वी करता है, वैसे (तम्, त्वा) उन आपको सब विद्वान् लोग विद्या और विनय से उन्नतियुक्त करें ॥३३ ॥

 

भावार्थभाषाः -जो पुरुष वा स्त्री साङ्गोपाङ्ग सार्थक वेदों को पढ़ के विद्वान् वा विदुषी होवें, वे राजपुत्र और राजकन्याओं को विद्वान् और विदुषी करके उन से धर्मानुकूल राज्य तथा प्रजा का व्यवहार करवावें ॥३३ ॥

 

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: भारद्वाज ऋषिः छन्द: निचृद्गायत्री स्वर: षड्जः

 

तमु॑ त्वा पा॒थ्यो वृषा॒ समी॑धे दस्यु॒हन्त॑मम्। ध॒न॒ञ्ज॒यꣳ रणे॑रणे ॥३४ ॥

 

पद पाठ

 

तम्। ऊ॒ इत्यूँ॑। त्वा॒। पा॒थ्यः। वृषा॑। सम्। ई॒धे॒। द॒स्यु॒हन्त॑म॒मिति॑ दस्यु॒हन्ऽत॑मम्। ध॒न॒ञ्ज॒यमिति॑ धनम्ऽज॒यम्। रणे॑रण॒ इति॒ रणे॑ऽरणे ॥३४ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर भी उक्त विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे वीर पुरुष ! जो आप (पाथ्यः) अन्न जल आदि पदार्थों की सिद्धि में कुशल (वृषा) पराक्रमी (रणेरणे) प्रत्येक युद्ध में शूरता आदि युक्त विद्वान् हैं (तम्) पूर्वोक्त पदार्थविद्या जानने (धनञ्जयम्) शत्रुओं से धन जीतने (उ) और (दस्युहन्तमम्) अतिशय करके डाकुओं को मारनेवाले (त्वा) आप को वीरों की सेना राजधर्म्म की शिक्षा से (समीधे) प्रदीप्त करे ॥३४ ॥

 

भावार्थभाषाः -राजा आदि राजपुरुषों को चाहिये कि आप्त धर्मात्मा विद्वानों से विनय और युद्धविद्या को प्राप्त हो प्रजा की रक्षा के लिये चोरों को मार शत्रुओं को जीत कर परम ऐश्वर्य्य की उन्नति करें ॥३४ ॥

 

देवता: होता देवता ऋषि: देवश्रवदेववातावृषी छन्द: निचृत्त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

 

सीद॑ होतः॒ स्वऽउ॑ लो॒के चि॑कि॒त्वान्त्सा॒दया॑ य॒ज्ञꣳ सु॑कृ॒तस्य॒ योनौ॑। दे॒वा॒वीर्दे॒वान् ह॒विषा॑ यजा॒स्यग्ने॑ बृ॒हद्यज॑माने॒ वयो॑ धाः ॥३५ ॥

 

पद पाठ

 

सीद॑। हो॒त॒रिति॑ होतः। स्वे। ऊँ॒ इत्यूँ॑। लो॒के। चि॒कि॒त्वान्। सा॒दय॑। य॒ज्ञम्। सु॒कृ॒तस्येति॑ सुऽकृ॒तस्य॑। योनौ॑। दे॒वा॒वीरिति॑ देवऽअ॒वीः। दे॒वान्। ह॒विषा॑। य॒जा॒सि॒। अग्ने॑। बृ॒हत्। यज॑माने। वयः॑। धाः॒ ॥३५ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर विद्वान् का क्या काम है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) तेजस्वी विद्वन् ! (होतः) दान देनेवाले (चिकित्वान्) विज्ञान से युक्त आप (लोके) देखने योग्य (स्वे) सुख में (सीद) स्थित हूजिये (सुकृतस्य) अच्छे करने योग्य कर्म करने हारे धर्म्मात्मा के (योनौ) कारण में (यज्ञम्) धर्मयुक्त राज्य और प्रजा के व्यवहार को (सादय) प्राप्त कराइये (देवावीः) विद्वानों से रक्षित और शिक्षित होते हुए आप (हविषा) देने-लेने योग्य न्याय से (देवान्) विद्वानों या दिव्य गुणों को (यजासि) सत्कार सेवा संयोग कीजिये (यजमाने) राजा आदि मनुष्यों में बड़ी (वयः) उमर को (धाः) धारण कीजिये ॥३५ ॥

 

भावार्थभाषाः -विद्वान् लोगों को चाहिये कि इस जगत् में दो कर्म निरन्तर करें। प्रथम ब्रह्मचर्य्य और जितेन्द्रियता आदि की शिक्षा से शरीर को रोगरहित, बल से युक्त और पूर्ण अवस्थावाला करें। दूसरे विद्या और क्रिया की कुशलता के ग्रहण से आत्मा का बल अच्छे प्रकार साधें कि जिस से सब मनुष्य शरीर और आत्मा के बल से युक्त हुए सब काल में आनन्द भोगें ॥३५ ॥

 

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: गृत्समद ऋषिः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

 

नि होता॑ होतृ॒षद॑ने॒ विदा॑नस्त्वे॒षो दी॑दि॒वाँ२ऽअ॑सदत् सु॒दक्षः॑। अद॑ब्धव्रतप्रमति॒र्वसि॑ष्ठः सहस्रम्भ॒रः शुचि॑जिह्वोऽअ॒ग्निः ॥३६ ॥

 

पद पाठ

 

नि। होता॑। हो॒तृ॒षद॑ने। हो॒तृ॒सद॑न॒ इति॑ होतृ॒सद॑ने। विदा॑नः। त्वे॒षः। दी॒दि॒वानिति॑ दीदि॒ऽवान्। अ॒स॒द॒त्। सु॒दक्ष॒ इति॑ सु॒ऽदक्षः॑। अद॑ब्धव्रतप्रमति॒रित्यद॑ब्धव्रतऽप्रमतिः। वसि॑ष्ठः। स॒ह॒स्र॒म्भ॒र इति॑ सहस्रम्ऽभ॒रः। शुचि॑जिह्व॒ इति॒ शुचि॑ऽजिह्वः। अ॒ग्निः ॥३६ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर मनुष्यों का कर्त्तव्य अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -जो जन मनुष्यजन्म को पाके (होतृषदने) दानशील विद्वानों के स्थान में (दीदिवान्) धर्मयुक्त व्यवहार का चाहने (त्वेषः) शुभगुणों से प्रकाशमान (विदानः) ज्ञान बढ़ाने की इच्छा रखने (शुचिजिह्वः) सत्यभाषण से पवित्र वाणीयुक्त (सुदक्षः) अच्छे बलवाला (अदब्धव्रतप्रमतिः) रक्षा करने योग्य धर्माचरणरूपी व्रतों से उत्तम बुद्धियुक्त (वसिष्ठः) अत्यन्त वसने (सहस्रम्भरः) असंख्य शुभगुणों को धारण करनेवाला (होता) शुभगुणों का ग्राहक पुरुष निरन्तर (न्यसदत्) स्थित होवे तो वह सम्पूर्ण सुख को प्राप्त हो जावे ॥३६ ॥

 

भावार्थभाषाः -जब माता-पिता अपने पुत्र तथा कन्याओं को अच्छी शिक्षा देके पीछे विद्वान् और विदुषी के समीप बहुत काल तक स्थितिपूर्वक पढ़वावें, तब वे कन्या और पुत्र सूर्य्य के समान अपने कुल और देश के प्रकाशक हों ॥३६ ॥

 

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: प्रस्कण्व ऋषिः छन्द: निचृदार्षी बृहती स्वर: मध्यमः

 

सꣳसी॑दस्व म॒हाँ२ऽअ॑सि॒ शोच॑स्व देव॒वीत॑मः। वि धू॒मम॑ग्नेऽअरु॒षं मि॑येध्य सृ॒ज प्र॑शस्त दर्श॒तम् ॥३७ ॥

 

पद पाठ

 

सम्। सी॒द॒स्व॒। म॒हान्। अ॒सि॒। शोच॑स्व। दे॒व॒वीत॑म॒ इति॑ देव॒ऽवीत॑मः। वि। धू॒मम्। अ॒ग्ने॒। अ॒रु॒षम्। मि॒ये॒ध्य॒। सृ॒ज। प्र॒श॒स्तेति॑ प्रऽशस्त। द॒र्श॒तम् ॥३७ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

इस पठन-पाठन विषय में अध्यापक कैसा होवे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (प्रशस्त) प्रशंसा के योग्य (मियेध्य) दुष्टों को पृथक् करनेवाले (अग्ने) तेजस्वी विद्वन् ! (देववीतमः) विद्वानों को अत्यन्त इष्ट आप (विधूमम्) निर्मल (दर्शतम्) देखने योग्य (अरुषम्) सुन्दर रूप को (सृज) सिद्ध कीजिये तथा (शोचस्व) पवित्र हूजिये। जिस कारण आप (महान्) बड़े-बड़े गुणों से युक्त विद्वान् (असि) हैं, इसलिए पढ़ाने की गद्दी पर (संसीदस्व) अच्छे प्रकार स्थित हूजिये ॥३७ ॥

 

भावार्थभाषाः -जो मनुष्य विद्वानों का अत्यन्त प्रिय, अच्छे रूप, गुण और लावण्य से युक्त, पवित्र, बड़ा धर्मात्मा, आप्त विद्वान् होवे, वही शास्त्रों के पढ़ाने को समर्थ होता है ॥३७ ॥

 

देवता: आपो देवताः ऋषि: सिन्धुद्वीप ऋषिः छन्द: न्यङ्कुसारिणी बृहती स्वर: मध्यमः

 

अ॒पो दे॒वीरुप॑सृज॒ मधु॑मतीरय॒क्ष्माय॑ प्र॒जाभ्यः॑। तासा॑मा॒स्थाना॒दुज्जि॑हता॒मोष॑धयः सुपिप्प॒लाः ॥३८ ॥

 

पद पाठ

 

अ॒पः। दे॒वीः। उप॑। सृ॒ज॒। मधु॑मती॒रिति॒ मधु॑ऽमतीः। अ॒य॒क्ष्माय॑। प्र॒जाभ्य॒ इति॑ प्र॒ऽजाभ्यः॑। तासा॑म्। आ॒स्थाना॒दित्या॒ऽस्थाना॑त्। उत्। जि॒ह॒ता॒म्। ओष॑धयः। सु॒पि॒प्प॒ला इति॑ सुऽपिप्प॒लाः ॥३८ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

आगे जल आदि पदार्थों के शोधने से प्रजा में क्या होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे श्रेष्ठ वैद्य पुरुष ! आप (मधुमतीः) प्रशंसित मधुर आदि गुणयुक्त (देवीः) पवित्र (अपः) जलों को (उपसृज) उत्पन्न कीजिये जिस से (तासाम्) उन जलों के (आस्थानात्) आश्रय से (सुपिप्पलाः) सुन्दर फलोंवाली (ओषधयः) सोमलता आदि ओषधियों को (प्रजाभ्यः) रक्षा करने योग्य प्राणियों के (अयक्ष्माय) यक्ष्मा आदि रोगों की निवृत्ति के लिये (उज्जिहताम्) प्राप्त हूजिये ॥३८ ॥

 

भावार्थभाषाः -राजा को चाहिये कि दो प्रकार के वैद्य रक्खे। एक तो सुगन्ध आदि पदार्थों के होम से वायु वर्षा जल और ओषधियों को शुद्ध करें। दूसरे श्रेष्ठ विद्वान् वैद्य होकर निदान आदि के द्वारा सब प्राणियों को रोगरहित रक्खें। इस कर्म के विना संसार में सार्वजनिक सुख नहीं हो सकता ॥३८ ॥

 

देवता: वायुर्देवता ऋषि: सिन्धुद्वीप ऋषिः छन्द: विराट् स्वर: धैवतः

 

सं ते॑ वा॒युर्मा॑त॒रिश्वा॑ दधातूत्ता॒नाया॒ हृद॑यं॒ यद्विक॑स्तम्। यो दे॒वानां॒ चर॑सि प्रा॒णथे॑न॒ कस्मै॑ देव॒ वष॑डस्तु॒ तुभ्य॑म् ॥३९ ॥

 

पद पाठ

 

सम्। ते॒। वा॒युः। मा॒त॒रिश्वा॑। द॒धा॒तु॒। उ॒त्ता॒नायाः॑। हृद॑यम्। यत्। विक॑स्त॒मिति॒ विऽक॑स्तम्। यः। दे॒वाना॑म्। चर॑सि। प्रा॒णथे॑न। कस्मै॑। दे॒व॒। वष॑ट्। अ॒स्तु॒। तुभ्य॑म् ॥३९ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

अब स्त्री-पुरुष का कर्त्तव्यकर्म अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे पत्नि राणी ! (उत्तानायाः) बड़े शुभलक्षणों के विस्तार से युक्त (ते) आप का (यत्) जो (विकस्तम्) अनेक प्रकार से शिक्षा को प्राप्त हुआ (हृदयम्) अन्तःकरण हो उस को यज्ञ से शुद्ध हुआ (मातरिश्वा) आकाश में चलनेवाला (वायुः) पवन (संदधातु) अच्छे प्रकार पुष्ट करे। हे (देव) अच्छे सुख देने हारे पति स्वामी ! (यः) जो विद्वान् आप (प्राणथेन) सुख के हेतु प्राणवायु से (देवानाम्) धर्मात्मा विद्वानों का जिस अनेक प्रकार से शिक्षित हृदय को (चरसि) प्राप्त होते हो, उस (कस्मै) सुखस्वरूप (तुभ्यम्) आपके लिये मुझ से (वषट्) क्रिया की कुशलता (अस्तु) प्राप्त होवे ॥३९ ॥

 

भावार्थभाषाः -पूर्ण जवान पुरुष जिस ब्रह्मचारिणी कुमारी कन्या के साथ विवाह करे, उस के साथ विरुद्ध आचरण कभी न करे। जो कन्या पूर्ण युवती स्त्री जिस कुमार ब्रह्मचारी के साथ विवाह करे, उस का अनिष्ट कभी मन से भी न विचारे। इस प्रकार दोनों परस्पर प्रसन्न हुए प्रीति के साथ घर के कार्य्य संभालें ॥३९ ॥

 

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: सिन्धुद्वीप ऋषिः छन्द: भुरिगनुष्टुप् स्वर: गान्धारः

 

सुजा॑तो॒ ज्योति॑षा स॒ह शर्म॒ वरू॑थ॒मास॑द॒त् स्वः᳖। वासो॑ऽअग्ने वि॒श्वरू॑प॒ꣳ संव्य॑यस्व विभावसो ॥४० ॥

 

पद पाठ

 

सुजा॑त॒ इति॒ सुऽजा॑तः। ज्योति॑षा। स॒ह। शर्म्म॑। वरू॑थम्। आ। अ॒स॒द॒त्। स्व᳖रिति॒ स्वः᳖। वासः॑। अ॒ग्ने॒। वि॒श्वरू॑प॒मिति॑ वि॒श्वऽरू॑पम्। सम्। व्य॒य॒स्व॒। वि॒भा॒व॒सो॒ इति॑ विभाऽवसो ॥४० ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर भी उक्त विषय का उपदेश अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

 

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (विभावसो) प्रकाशसहित धन से युक्त (अग्ने) अग्नि के तुल्य तेजस्वी ! (ज्योतिषा) विद्या-प्रकाश के (सह) साथ (सुजातः) अच्छे प्रसिद्ध आप (स्वः) सुखदायक (वरूथम्) श्रेष्ठ (शर्म्म) घर को (आसदत्) अच्छे प्रकार प्राप्त हूजिये (विश्वरूपम्) अनेक चित्र-विचित्ररूपी (वासः) वस्त्र को (संव्ययस्व) धारण कीजिये ॥४० ॥

 

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विवाहित स्त्री पुरुषों को चाहिये कि जैसे सूर्य्य अपने प्रकाश से सब जगत् को प्रकाशित करता है, वैसे ही अपने सुन्दर वस्त्र और आभूष्णों से शोभायमान होके घर आदि वस्तुओं को सदा पवित्र रक्खें ॥४० ॥

 

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: विश्वमना ऋषिः छन्द: भुरिगनुष्टुप् स्वर: गान्धारः

 

उदु॑ तिष्ठ स्वध्व॒रावा॑ नो दे॒व्या धि॒या। दृ॒शे च॑ भा॒सा बृ॑ह॒ता सु॑शु॒क्वनि॒राग्ने॑ याहि सुश॒स्तिभिः॑ ॥४१ ॥

 

पद पाठ

 

उत्। ऊँ॒ इत्यूँ॑। ति॒ष्ठ॒। स्व॒ध्व॒रेति॑ सुऽअध्वर। अव॑। नः॒। दे॒व्या। धि॒या। दृ॒शे। च॒। भा॒सा। बृ॒ह॒ता। सु॒शु॒क्वनि॒रिति॑ सुऽशु॒क्वनिः॑। आ। अ॒ग्ने॒। या॒हि॒। सु॒श॒स्तिभि॒रिति॑ सुश॒स्तिऽभिः॑ ॥४१ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर भी विद्वानों का कृत्य अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (स्वध्वर) अच्छे माननीय व्यवहार करनेवाले सज्जन विद्वन् गृहस्थ ! आप निरन्तर (उत्तिष्ठ) पुरुषार्थ से उन्नति को प्राप्त हो के अन्य मनुष्यों को प्राप्त सदा किया कीजिये (देव्या) शुद्ध विद्या और शिक्षा से युक्त (धिया) बुद्धि वा क्रिया से (नः) हम लोगों की (अव) रक्षा कीजिये। हे (अग्ने) अग्नि के समान प्रकाशमान ! (सुशुक्वनिः) अच्छे पवित्र पदार्थों के विभाग करने हारे आप (उ) तर्क के साथ (दृशे) देखने को (बृहता) बड़े (भासा) प्रकाशरूप सूर्य्य के तुल्य (सुशस्तिभिः) सुन्दर प्रशंसित गुणों के साथ सब विद्याओं को (आ, याहि) प्राप्त हूजिये (च) और हमारे लिये भी सब विद्याओं को प्राप्त कीजिये ॥४१ ॥

 

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वान् लोगों को चाहिये कि शुद्ध विद्या और बुद्धि के दान से सब मनुष्यों की निरन्तर रक्षा करें, क्योंकि अच्छी शिक्षा के विना मनुष्यों के सुख के लिये और कोई भी आश्रय नहीं है। इसलिये सब को उचित है कि आलस्य और कपट आदि कुकर्मों को छोड़ के विद्या के प्रचार के लिये सदा प्रयत्न किया करें ॥४१ ॥

 

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: कण्व ऋषिः छन्द: उपरिष्टाद् बृहती स्वर: मध्यमः

 

ऊ॒र्ध्वऽऊ॒ षु ण॑ऽऊ॒तये॒ तिष्ठा॑ दे॒वो न स॑वि॒ता। ऊ॒र्ध्वो वाज॑स्य॒ सनि॑ता॒ यद॒ञ्जिभि॑र्वा॒घद्भि॑र्वि॒ह्वया॑महे ॥४२ ॥

 

पद पाठ

 

ऊ॒र्ध्वः। ऊ॒ इत्यूँ॑। सु। नः॒। ऊ॒तये॑। तिष्ठ॑। दे॒वः। न। स॒वि॒ता। ऊ॒र्ध्वः। वाज॑स्य। सनि॑ता। यत्। अ॒ञ्जिभि॒रित्य॒ञ्जिऽभिः॑। वा॒घद्भि॒रिति॑ वा॒घत्ऽभिः॑। वि॒ह्वया॑महे॒ इति॑ वि॒ह्वया॑महे ॥४२ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर भी उक्त विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे अध्यापक विद्वान् ! आप (ऊर्ध्वः) ऊपर आकाश में रहनेवाले (देवः) प्रकाशक (सविता) सूर्य्य के (न) समान (नः) हमारी (ऊतये) रक्षा आदि के लिये (सुतिष्ठ) अच्छे प्रकार स्थित हूजिये (यत्) जो आप (अञ्जिभिः) प्रकट करने हारे किरणों के सदृश (वाघद्भिः) युद्धविद्या में कुशल बुद्धिमानों के साथ (वाजस्य) विज्ञान के (सनिता) सेवनेहारे हूजिये (उ) उसी को हम लोग (विह्वयामहे) विशेष करके बुलाते हैं ॥४२ ॥

 

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। अध्यापक और उपदेशक विद्वान् को चाहिये कि जैसे सूर्य्य, भूमि और चन्द्रमा आदि लोकों से ऊपर स्थित होके, अपनी किरणों से सब जगत् की रक्षा के लिये प्रकाश करता है, वैसे उत्तम गुणों से विद्या और न्याय का प्रकाश करके सब प्रजाओं को सदा सुशोभित करें ॥४२ ॥

 

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: त्रित ऋषिः छन्द: विराट् त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

 

स जा॒तो गर्भो॑ऽअसि॒ रोद॑स्यो॒रग्ने॒ चारु॒र्विभृ॑त॒ऽओष॑धीषु। चि॒त्रः शिशुः॒ परि॒ तमा॑स्य॒क्तून् प्र मा॒तृभ्यो॒ऽअधि॒ कनि॑क्रदद् गाः ॥४३ ॥

 

पद पाठ

 

सः। जा॒तः। गर्भः॑। अ॒सि॒। रोद॑स्योः। अग्ने॑। चारुः॑। विभृ॑त॒ इति॒ विऽभृ॑तः। ओष॑धीषु। चि॒त्रः। शिशुः॑। परि॑। तमा॑सि। अ॒क्तून्। प्र। मा॒तृभ्य॑ इति॑ मा॒तृऽभ्यः॑। अधि॑। कनि॑क्रदत्। गाः॒ ॥४३ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

अब पिता-पुत्र का व्यवहार अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

 

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) विद्वान् ! जो आप जैसे (रोदस्योः) आकाश और पृथिवी में (जातः) प्रसिद्ध (चारुः) सुन्दर (ओषधीषु) सोमलतादि ओषधियों में (विभृतः) विशेष करके धारण वा पोषण किया (चित्रः) आश्चर्य्यरूप (गर्भः) स्वीकार करने योग्य सूर्य्य (मातृभ्यः) मान्य करने हारी माता अर्थात् किरणों से (तमांसि) रात्रियों तथा (अक्तून्) अन्धेरों को (पर्य्यधिकनिक्रदत्) सब ओर से अधिक करके चलता हुआ (गाः) चलाता है, वैसे ही (शिशुः) बालक (गाः) विद्या को प्राप्त होवे ॥४३ ॥

 

भावार्थभाषाः -जैसे ब्रह्मचर्य्य आदि अच्छे नियमों से उत्पन्न किया पुत्र विद्या पढ़ के माता-पिता को सुख देता है, वैसे ही माता-पिता को चाहिये कि प्रजा को सुख देवें ॥४३ ॥

 

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: त्रित ऋषिः छन्द: विराडनुष्टुप् स्वर: गान्धारः

 

स्थि॒रो भ॑व वी॒ड्व᳖ङ्गऽआ॒शुर्भ॑व वा॒ज्य᳖र्वन्। पृ॒थुर्भ॑व सु॒षद॒स्त्वम॒ग्नेः पु॑रीष॒वाह॑णः ॥४४ ॥

 

पद पाठ

 

स्थि॒रः। भ॒व॒। वी॒ड्व᳖ङ्ग॒ इति॑ वी॒डुऽअ॑ङ्गः। आ॒शुः। भ॒व॒। वा॒जी। अ॒र्व॒न्। पृ॒थुः। भ॒व॒। सु॒षदः॑। सु॒सद॒ इति॑ सु॒ऽसदः॑। त्वम्। अ॒ग्नेः। पु॒री॒ष॒वाह॑णः। पु॒री॒ष॒वाह॑न॒ इति॑ पुरीष॒ऽवाह॑नः ॥४४ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

अब माता-पिता अपने सन्तानों को किस प्रकार शिक्षा करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अर्वन्) विज्ञानयुक्त पुत्र ! तू विद्याग्रहण के लिये (स्थिरः) दृढ़ (भव) हो (वाजी) नीति को प्राप्त होके (वीड्वङ्गः) दृढ़ अति बलवान् अवयवों से युक्त (आशुः) शीघ्र कर्म करनेवाला (भव) हो (त्वम्) तू (अग्नेः) अग्निसंबन्धी (सुषदः) सुन्दर व्यवहारों में स्थित और (पुरीषवाहणः) पालन आदि शुभ कर्मों को प्राप्त करानेवाला (पृथुः) सुख का विस्तार करने हारा (भव) हो ॥४४ ॥

 

भावार्थभाषाः -हे अच्छे सन्तानो ! तुम को चाहिये कि ब्रह्मचर्य्य सेवन से शरीर का बल और विद्या तथा अच्छी शिक्षा से आत्मा का बल पूर्ण दृढ़ कर स्थिरता से रक्षा करो और आग्नेय आदि अस्त्रविद्या से शत्रुओं का विनाश करो। इस प्रकार माता-पिता अपने सन्तानों को शिक्षा करें ॥४४ ॥

 

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: त्रित ऋषिः छन्द: विराट् पथ्या बृहती छन्दः स्वर: मध्यमः

 

शि॒वो भ॑व प्र॒जाभ्यो॒ मानु॑षीभ्य॒स्त्वम॑ङ्गिरः। मा द्यावा॑पृथि॒वीऽअ॒भि शो॑ची॒र्मान्तरि॑क्षं॒ मा वन॒स्पती॑न् ॥४५ ॥

 

पद पाठ

 

शि॒वः। भ॒व॒। प्र॒जाभ्य॒ इति॑ प्र॒जाऽभ्यः॑। मानु॑षीभ्यः। त्वम्। अ॒ङ्गि॒रः॒। मा। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। अ॒भि। शो॒चीः॒। मा। अ॒न्तरि॑क्षम्। मा। वन॒स्पती॑न् ॥४५ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर उन को प्रजा में कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अङ्गिरः) प्राणों के समान प्रिय सुसन्तान ! (त्वम्) तू (मानुषीभ्यः) मनुष्य आदि (प्रजाभ्यः) प्रसिद्ध प्रजाओं के लिये (शिवः) कल्याणकारी मङ्गलमय (भव) हो (द्यावापृथिवी) बिजुली और भूमि के विषय में (मा) मत (अभिशोचीः) अति शोच कर (अन्तरिक्षम्) अवकाश के विषय में (मा) मत शोच कर और (वनस्पतीन्) वट आदि वनस्पतियों का (मा) शोच मत कर ॥४५ ॥

 

भावार्थभाषाः -सुसन्तानों को चाहिये कि प्रजा के प्रति मङ्गलाचारी हो के पृथिवी आदि पदार्थों के विषय में शोकरहित होवें, किन्तु इन सब पदार्थों की रक्षा विधान कर उपकार के लिये उत्साह के साथ प्रयत्न करें ॥४५ ॥

 

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: त्रित ऋषिः छन्द: ब्राह्मी बृहती छन्दः स्वर: मध्यमः

 

प्रैतु॑ वा॒जी कनि॑क्रद॒न्नान॑द॒द्रास॑भः॒ पत्वा॑। भर॑न्न॒ग्निं पु॑री॒ष्यं᳕ मा पा॒द्यायु॑षः पु॒रा। वृषा॒ग्निं वृष॑णं॒ भर॑न्न॒पां गर्भ॑ꣳ समु॒द्रिय॑म्। अग्न॒ऽआया॑हि वी॒तये॑ ॥४६

 

पद पाठ

 

प्र। ए॒तु॒। वा॒जी। कनि॑क्रदत्। नान॑दत्। रास॑भः। पत्वा॑। भर॑न्। अ॒ग्निम्। पु॒री॒ष्य᳕म्। मा। पा॒दि॒। आयु॑षः। पु॒रा। वृ॒षा॑। अ॒ग्निम्। वृष॑णम्। भर॑न्। अ॒पाम्। गर्भ॑म्। स॒मु॒द्रिय॑म्। अग्ने॑। आ। या॒हि॒। वी॒तये॑ ॥४६ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर भी उक्त विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) विद्वन् उत्तम सन्तान ! तू (कनिक्रदत्) चलते और (नानदत्) शीघ्र शब्द करते हुए (रासभः) देने योग्य (पत्वा) चलने वा (वाजी) घोड़ा के समान (आयुषः) नियत वर्षों की अवस्था से (पुरा) पहिले (मा) न (प्रैतु) मरे (पुरीष्यम्) रक्षा के हेतु पदार्थों में उत्तम (अग्निम्) बिजुली (भरन्) धारण करता हुआ (मा पादि) इधर-उधर मत भाग जैसे (वृषा) अति बलवान् (अपाम्) जलों के (समुद्रियम्) समुद्र में हुए (गर्भम्) स्वीकार करने योग्य (वृषणम्) वर्षा करने हारे (अग्निम्) सूर्य्य को (भरन्) धारण करता हुआ (वीतये) सुखों की व्याप्ति के लिये (आयाहि) अच्छे प्रकार प्राप्त हो ॥४६ ॥

 

भावार्थभाषाः -राजा आदि मनुष्यों को योग्य है कि अपने सन्तानों को विषयों की लोलुपता से छुड़ा के ब्रह्मचर्य्य के साथ पूर्ण अवस्था को धारण कर अग्नि आदि पदार्थों के विज्ञान से धर्म्मयुक्त व्यवहार की उन्नति करावें ॥४६ ॥

 

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: त्रित ऋषिः छन्द: विराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

 

ऋ॒तꣳ स॒त्यमृ॒तꣳ स॒त्यम॒ग्निं पु॑री॒ष्य᳖मङ्गिर॒स्वद्भ॑रामः। ओष॑धयः॒ प्रति॑मोदध्वम॒ग्निमे॒तꣳ शि॒वमा॒यन्त॑म॒भ्यत्र॑ यु॒ष्माः। व्यस्य॒न् विश्वा॒ऽअनि॑रा॒ऽअमी॑वा नि॒षीद॑न्नो॒ऽअप॑ दुर्म॒तिं ज॑हि ॥४७ ॥

 

पद पाठ

 

ऋ॒तम्। स॒त्यम्। ऋ॒तम्। स॒त्यम्। अ॒ग्निम्। पु॒री॒ष्य᳖म्। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। भ॒रा॒मः॒। ओष॑धयः। प्रति॑। मो॒द॒ध्व॒म्। अ॒ग्निम्। ए॒तम्। शि॒वम्। आ॒यन्त॒मित्या॒ऽयन्त॑म्। अ॒भि। अत्र॑। यु॒ष्माः। व्यस्य॒न्निति॑ वि॒ऽअस्य॑न्। विश्वाः॑। अनि॑राः। अमी॑वाः। नि॒षीद॑न्। नि॒सीद॒न्निति॑ नि॒ऽसीद॑न्। नः॒। अप॑। दु॒र्म॒तिमिति॑ दुःऽम॒तिम्। ज॒हि॒ ॥४७ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

मनुष्यों को क्या-क्या आचरण करना और क्या-क्या छोड़ना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है।

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे सुसन्तानो ! जैसे हम लोग (ऋतम्) यथार्थ (सत्यम्) नाशरहित (ऋतम्) अव्यभिचारी (सत्यम्) सत्पुरुषों में श्रेष्ठ तथा सत्य मानना बोलना और करना (पुरीष्यम्) रक्षा के साधनों में उत्तम (अग्निम्) बिजुली को (अङ्गिरस्वत्) वायु के तुल्य (भरामः) धारण करते हैं (एतम्) इस पूर्वोक्त (आयन्तम्) प्राप्त हुए (शिवम्) मङ्गलकारी (अग्निम्) बिजुली को प्राप्त हो के तुम लोग भी (अभिमोदध्वम्) आनन्दित रहो जो (ओषधयः) जौ आदि ओषधि (युष्माः) तुम्हारे (प्रति) लिये प्राप्त होवें उन को हम लोग धारण करते हैं, वैसे तुम भी करो। हे वैद्य ! आप (विश्वाः) सब (अनिराः) जो निरन्तर देने योग्य नहीं (अमीवाः) ऐसी रोगों की पीड़ा (व्यस्यन्) अनेक प्रकार से अलग करते और (अत्र) इस आयुर्वेदविद्या में (निषीदन्) स्थित हो के (नः) हम लोगों की (दुर्मतिम्) दुष्ट बुद्धि को (अपजहि) सब प्रकार दूर कीजिये, सब इस प्रकार इस वैद्य की प्रार्थना करो ॥४७ ॥

 

भावार्थभाषाः -हे मनुष्यो ! तुम लोगों को उचित है कि यथार्थ अविनाशी परकारण ब्रह्म, दूसरा कारण यथार्थ अविनाशी अव्यक्त जीव, सत्यभाषणादि तथा प्रकृति से उत्पन्न हुए अग्नि और ओषधि आदि पदार्थों के धारण से शरीर के ज्वर आदि रोगों और आत्मा के अविद्या आदि दोषों को छुड़ा के मद्य आदि द्रव्यों के त्याग से अच्छी बुद्धि कर और सुख को प्राप्त हो के नित्य आनन्द में रहो और कभी इससे विपरीत आचरण कर सुख को छोड़ के दुःखसागर में मत गिरो ॥४७ ॥

 

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: त्रित ऋषिः छन्द: भुरिगनुष्टुप् स्वर: गान्धारः

 

ओष॑धयः॒ प्रति॑गृभ्णीत॒ पुष्प॑वतीः सुपिप्प॒लाः। अ॒यं वो॒ गर्भ॑ऽऋ॒त्वियः॑ प्र॒त्नꣳ स॒धस्थ॒मास॑दत् ॥४८ ॥

 

पद पाठ

 

ओष॑धयः। प्रति॑। गृ॒भ्णी॒त॒। पुष्प॑वती॒रिति॒ पुष्प॑ऽवतीः। सु॒पि॒प्प॒ला इति॑ सुऽपिप्प॒लाः। अ॒यम्। वः॒। गर्भः॑। ऋ॒त्वियः॑। प्र॒त्नम्। स॒धस्थ॒मिति॑ स॒धऽस्थ॑म्। आ। अ॒स॒द॒त् ॥४८ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

स्त्रियों को क्या-क्या आचरण करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे स्त्रियो ! तुम लोग जो (ओषधयः) सोमलता आदि ओषधि हैं जिन से (अयम्) यह (ऋत्वियः) ठीक ऋतु काल को प्राप्त हुआ (गर्भः) गर्भ (वः) तुम्हारे (प्रत्नम्) प्राचीन (सधस्थम्) नियत स्थान गर्भाशय को (आ असदत्) प्राप्त होवे उन (पुष्पवतीः) श्रेष्ठ पुष्पोंवाली (सुपिप्पलाः) सुन्दर फलों से युक्त ओषधियों को (प्रतिगृभ्णीत) निश्चय करके ग्रहण करो ॥४८ ॥

 

भावार्थभाषाः -माता-पिता को चाहिये कि अपनी कन्याओं को व्याकरण आदि शास्त्र पढ़ा के वैद्यक शास्त्र पढ़ावें, जिससे ये कन्या लोग रोगों का नाश और गर्भ का स्थापन करनेवाली ओषधियों को जान और अच्छे सन्तानों को उत्पन्न करके निरन्तर आनन्द भोगें ॥४८ ॥

 

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: उत्कील ऋषिः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

 

वि पाज॑सा पृ॒थुना॒ शोशु॑चानो॒ बाध॑स्व द्वि॒षो र॒क्षसो॒ऽअमी॑वाः। सु॒शर्म॑णो बृह॒तः शर्म॑णि स्याम॒ग्नेर॒हꣳ सु॒हव॑स्य॒ प्रणी॑तौ ॥४९ ॥

 

पद पाठ

 

वि। पाज॑सा। पृ॒थुना॑। शोशु॑चानः। बाध॑स्व। द्वि॒षः। र॒क्षसः॑। अमी॑वाः। सु॒शर्म्म॑ण॒ इति॑ सु॒ऽशर्म॑णः। बृ॒ह॒तः। शर्म॑णि। स्या॒म्। अ॒ग्नेः। अ॒हम्। सु॒हव॒स्येति॑ सु॒ऽहव॑स्य। प्रणी॑तौ। प्रनी॑ता॒विति॒ प्रऽनी॑तौ ॥४९ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

विवाह के समय स्त्री और पुरुष क्या-क्या प्रतिज्ञा करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे पते ! जो आप (पृथुना) विस्तृत (वि) विविध प्रकार के (पाजसा) बल के साथ (शोशुचानः) शीघ्र शुद्धता से सदा वर्त्तें और (अमीवाः) रोगों के समान प्राणियों की पीड़ा देने हारी (रक्षसः) दुष्ट (द्विषः) शत्रुरूप व्यभिचारिणी स्त्रियों को (बाधस्व) ताड़ना देवें तो मैं (बृहतः) बड़े (सुशर्मणः) अच्छे शोभायमान (सुहवस्य) सुन्दर लेना-देना व्यवहार जिसमें हो, ऐसे (अग्नेः) अग्नि के तुल्य प्रकाशमान आपके (शर्मणि) सुखकारक घर में और (प्रणीतौ) उत्तम धर्मयुक्त नीति में आपकी स्त्री (स्याम्) होऊँ ॥४९ ॥

 

भावार्थभाषाः -विवाह समय में स्त्री-पुरुष को चाहिये कि व्यभिचार छोड़ने की प्रतिज्ञा कर व्यभिचारिणी स्त्री और लम्पट पुरुषों का सङ्ग सर्वथा छोड़ आपस में भी अति विषयासक्ति को छोड़ और ऋतुगामी होके परस्पर प्रीति के साथ पराक्रमवाले सन्तानों को उत्पन्न करें, क्योंकि स्त्री वा पुरुष के लिये अप्रिय, आयु का नाशक, निन्दा के योग्य कर्म व्यभिचार के समान दूसरा कोई भी नहीं है, इसलिये इस व्यभिचार कर्म को सब प्रकार छोड़ और धर्माचरण करनेवाले हो के पूर्ण अवस्था के सुख को भोगें ॥४९ ॥

 

देवता: आपो देवताः ऋषि: सिन्धुद्वीप ऋषिः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

 

आपो॒ हि ष्ठा म॑यो॒भुव॒स्ता न॑ऽऊ॒र्जे द॑धातन। म॒हे रणा॑य॒ चक्ष॑से ॥५० ॥

 

पद पाठ

 

आपः॑। हि। स्थ। म॒यो॒भुव॒ इति॑ मयः॒ऽभुवः॑। ताः। नः॒। ऊ॒र्जे। द॒धा॒त॒न॒। म॒हे। रणा॑य। चक्ष॑से ॥५० ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

अब विवाह किये स्त्री और पुरुष आपस में कैसे वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (आपः) जलों के समान शुभ गुणों में व्याप्त होनेवाली श्रेष्ठ स्त्रियो ! जो तुम लोग (मयोभुवः) सुख भोगनेवाली (स्थ) हो (ताः) वे तुम (ऊर्जे) बलयुक्त पराक्रम और (महे) बड़े-बड़े (चक्षसे) कहने योग्य (रणाय) सङ्ग्राम के लिये (नः) हम लोगों को (हि) निश्चय करके (दधातन) धारण करो ॥५० ॥

 

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे स्त्रियाँ अपने पतियों को तृप्त रक्खें, वैसे पति भी अपनी-अपनी स्त्रियों को सदा सुख देवें। ये दोनों युद्धकर्म में भी पृथक्-पृथक् न बसें अर्थात् इकट्ठे ही सदा वर्त्ताव रक्खें ॥५० ॥

 

देवता: आपो देवताः ऋषि: सिन्धुद्वीप ऋषिः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

 

यो वः॑ शि॒वत॑मो॒ रस॒स्तस्य॑ भाजयते॒ह नः॑। उ॒श॒तीरि॑व मा॒तरः॑ ॥५१ ॥

 

पद पाठ

 

यः। वः॒। शि॒वत॑म॒ इति॑ शि॒वऽत॑मः। रसः॑। तस्य॑। भा॒ज॒य॒त॒। इ॒ह। नः॒। उ॒श॒तीरि॒वेत्यु॑श॒तीःऽइ॑व। मा॒तरः॑ ॥५१ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर भी वही उक्त विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे स्त्रियो ! (वः) तुम्हारा और (नः) हमारा (इह) इस गृहाश्रम में (यः) जो (शिवतमः) अत्यन्त सुखकारी (रसः) कर्त्तव्य आनन्द है (तस्य) उस का (मातरः) (उशतीरिव) जैसे कामयमान माता अपने पुत्रों को सेवन करती है, वैसे (भाजयत) सेवन करो ॥५१ ॥

 

भावार्थभाषाः -स्त्रियों को चाहिये कि जैसे माता-पिता अपने पुत्रों का सेवन करते हैं, वैसे अपने-अपने पतियों की प्रीतिपूर्वक सेवा करें, ऐसे ही अपनी-अपनी स्त्रियों की पति भी सेवा करें। जैसे प्यासे प्राणियों को जल तृप्त करता है, वैसे अच्छे स्वभाव के आनन्द से स्त्री-पुरुष भी परस्पर प्रसन्न रहें ॥५१ ॥

 

देवता: आपो देवताः ऋषि: सिन्धुद्वीप ऋषिः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

 

तस्मा॒ऽअं॑र गमाम वो॒ यस्य॒ क्षया॑य॒ जिन्व॑थ। आपो॑ ज॒नय॑था च नः ॥५२ ॥

 

पद पाठ

 

तस्मै॑। अर॑म्। ग॒मा॒म॒। वः॒। यस्य॑। क्षया॑य। जिन्व॑थ। आपः॑। ज॒नय॑थ। च॒। नः॒ ॥५२ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर उक्त विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (आपः) जलों के समान शान्त स्वभाव से वर्त्तमान स्त्रियो ! तुम लोग (नः) हम लोगों के (क्षयाय) निवासस्थान के लिये (जिन्वथ) तृप्त (च) और (जनयथ) अच्छे सन्तान उत्पन्न करो उन (वः) तुम लोगों को हम लोग (अरम्) सामर्थ्य के साथ (गमाम) प्राप्त होवें। (यस्य) जिस धर्मयुक्त व्यवहार की प्रतिज्ञा करो, उसका पालन करनेवाली होओ और उसी का पालन करनेवाले हम लोग भी होवें ॥५२ ॥

 

भावार्थभाषाः -जिस पुरुष की जो स्त्री वा जिस स्त्री का जो पुरुष हो, वे आपस में किसी का अनिष्ट-चिन्तन कदापि न करें। ऐसे ही सुख और सन्तानों से शोभायमान हो के धर्म्म से घर के कार्य्य करें ॥५२ ॥

 

देवता: मित्रो देवता ऋषि: सिन्धुद्वीप ऋषिः छन्द: उपरिष्टाद् बृहती स्वर: मध्यमः

 

मि॒त्रः स॒ꣳसृज्य॑ पृथि॒वीं भूमिं॑ च॒ ज्योति॑षा स॒ह। सुजा॑तं जा॒तवे॑दसमय॒क्ष्माय॑ त्वा॒ सꣳसृ॑जामि प्र॒जाभ्यः॑ ॥५३ ॥

 

 

 

पद पाठ

 

मि॒त्रः। स॒ꣳसृज्येति॑ स॒म्ऽसृज्य॑। पृ॒थि॒वीम्। भूमि॑म्। च॒। ज्योति॑षा। स॒ह। सुजा॑त॒मिति॒ सुऽजा॑तम्। जा॒तवे॑दस॒मिति॑ जा॒तऽवे॑दसम्। अ॒य॒क्ष्माय॑। त्वा॒। सम्। सृ॒जा॒मि॒। प्र॒जाभ्य॒ इति॑ प्र॒ऽजाभ्यः॑ ॥५३ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे पते ! जो आप (मित्रः) सब के मित्र होके (प्रजाभ्यः) पालने योग्य प्रजाओं को (अयक्ष्माय) आरोग्य के लिये (ज्योतिषा) विद्या और न्याय की अच्छी शिक्षा के प्रकाश के (सह) साथ (पृथिवीम्) अन्तरिक्ष (च) और (भूमिम्) पृथिवी के साथ (संसृज्य) सम्बन्ध करके मुझ को सुख देते हो। उस (सुजातम्) अच्छे प्रकार प्रसिद्ध (जातवेदसम्) वेदों के जानने हारे (त्वा) आपको मैं (संसृजामि) प्रसिद्ध करती हूँ ॥५३ ॥

 

भावार्थभाषाः -स्त्री-पुरुषों को चाहिये कि श्रेष्ठ, गुणवान्, विद्वानों के सङ्ग से शुद्ध आचार का ग्रहण कर शरीर और आत्मा के आरोग्य को प्राप्त हो के अच्छे-अच्छे सन्तानों को उत्पन्न करें ॥५३ ॥

 

देवता: रुद्रा देवताः ऋषि: सिन्धुद्वीप ऋषिः छन्द: अनुष्टुप् स्वर: गान्धारः

 

रु॒द्राः स॒ꣳसृज्य॑ पृथि॒वीं बृ॒हज्ज्योतिः॒ समी॑धिरे। तेषां॑ भा॒नुरज॑स्र॒ऽइच्छु॒क्रो दे॒वेषु॑ रोचते ॥५४ ॥

 

पद पाठ

 

रु॒द्राः। स॒ꣳसृज्येति॑ स॒म्ऽसृज्य॑। पृ॒थि॒वीम्। बृ॒हत्। ज्योतिः॑। सम्। ई॒धि॒रे॒। तेषा॑म्। भा॒नुः। अज॑स्रः। इत्। शु॒क्रः। दे॒वेषु॑। रो॒च॒ते॒ ॥५४ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे स्त्रीपुरुषो ! जैसे (रुद्राः) प्राणवायु के अवयवरूप समानादि वायु (संसृज्य) सूर्य्य को उत्पन्न करके (पृथिवीम्) भूमि को (बृहत्) बड़े (ज्योतिः) प्रकाश के साथ (समीधिरे) प्रकाशित करते हैं (तेषाम्) उन से उत्पन्न हुआ (शुक्रः) कान्तिमान् (भानुः) सूर्य्य (देवेषु) दिव्य पृथिवी आदि में (अजस्रः) निरन्तर (रोचते) प्रकाश करता है, (इत्) वैसे ही विद्यारूपी न्याय सूर्य्य को उत्पन्न कर के प्रजापुरुषों को प्रकाशित और उन से प्रजाओं में दिव्य सुख का प्रचार करो ॥५४ ॥

 

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे वायु सूर्य्य का, सूर्य्य प्रकाश का, प्रकाश नेत्रों से देखने के व्यवहार का कारण है, वैसे ही स्त्री-पुरुष आपस के सुख के साधन-उपसाधन करनेवाले होके सुखों को सिद्ध करें ॥५४ ॥

 

देवता: सिनीवाली देवता ऋषि: सिन्धुद्वीप ऋषिः छन्द: विराडनुष्टुप् स्वर: गान्धारः

 

सꣳसृ॑ष्टां॒ वसु॑भी रु॒द्रैर्धीरैः॑ कर्म॒ण्यां᳕ मृद॑म्। हस्ता॑भ्यां मृ॒द्वीं कृ॒त्वा सि॑नीवा॒ली कृ॑णोतु॒ ताम् ॥५५ ॥

 

पद पाठ

 

सꣳसृ॑ष्टा॒मिति॒ सम्ऽसृ॑ष्टाम्। वसु॑भि॒रिति॒ वसु॑ऽभिः। रु॒द्रैः। धीरैः॑। क॒र्म॒ण्या᳕म्। मृद॑म्। हस्ता॑भ्याम्। मृ॒द्वीम्। कृ॒त्वा। सि॒नी॒वा॒ली। कृ॒णो॒तु॒। ताम् ॥५५ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

स्त्रियों को कैसी दासी रखनी चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे पते ! आप जैसे कारीगर मनुष्य (हस्ताभ्याम्) हाथों से (कर्मण्याम्) क्रिया से सिद्ध की हुई (मृदम्) मट्टी को योग्य करता है, वैसे (धीरैः) अच्छा संयम रखने (वसुभिः) जो चौबीस वर्ष ब्रह्मचर्य्य के सेवन से विद्या को प्राप्त हुए (रुद्रैः) और जिन्होंने चवालीस वर्ष ब्रह्मचर्य्य के सेवन से विद्या बल को पूर्ण किया हो, उन्हीं से (संसृष्टाम्) अच्छी शिक्षा को प्राप्त हुई हो, उस ब्रह्मचारिणी युवती को (मृद्वीम्) कोमल गुणवाली (कृणोतु) कीजिये और जो स्त्री (सिनीवाली) प्रेमबद्ध कन्याओं को बलवान् करनेवाली है (ताम्) उसको अपनी स्त्री (कृत्वा) करके सुखी कीजिये ॥५५ ॥

 

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे कुम्हार आदि कारीगर लोग जल से मट्टी को कोमल कर उससे घड़े आदि पदार्थ बना के सुख के काम सिद्ध करते हैं, वैसे ही विद्वान् माता-पिता से शिक्षा को प्राप्त हुई हृदय को प्रिय ब्रह्मचारिणी कन्याओं को पुरुष लोग विवाह के लिये ग्रहण कर के सब काम सिद्ध करें ॥५५ ॥

 

देवता: अदितिर्देवता ऋषि: सिन्धुद्वीप ऋषिः छन्द: विराडनुष्टुप् स्वर: गान्धारः

 

सि॒नी॒वा॒ली सु॑कप॒र्दा सु॑कुरी॒रा स्वौ॑प॒शा। सा तुभ्य॑मदिते म॒ह्योखां द॑धातु॒ हस्त॑योः ॥५६ ॥

 

पद पाठ

 

सि॒नी॒वा॒ली। सु॒क॒प॒र्देति॑ सुऽकप॒र्दा। सु॒कु॒री॒रेति॑ सुऽकुरी॒रा। स्वौ॒प॒शेति॑ सुऽऔप॒शा। सा। तुभ्य॑म्। अ॒दि॒ते॒। म॒हि॒। आ। उ॒खाम्। द॒धा॒तु॒। हस्त॑योः ॥५६ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर भी पूर्वोक्त विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (महि) सत्कार के योग्य (अदिते) अखण्डित आनन्द भोगनेवाली स्त्री ! जो (सिनीवाली) प्रेम से युक्त (सुकपर्दा) अच्छे केशोंवाली (सुकुरीरा) सुन्दर श्रेष्ठ कर्मों को सेवने हारी और (स्वौपशा) अच्छे स्वादिष्ट भोजन के पदार्थ बनानेवाली जिस (तुभ्यम्) तेरे (हस्तयोः) हाथों में (उखाम्) दाल आदि राँधने की बटलोई को (दधातु) धारण करे (सा) उस का तू सेवन कर ॥५६ ॥

 

भावार्थभाषाः -श्रेष्ठ स्त्रियों को उचित है कि अच्छी शिक्षित चतुर दासियों को रक्खें कि जिससे सब पाक आदि की सेवा ठीक-ठीक समय पर होती रहे ॥५६ ॥

 

देवता: अदितिर्देवता ऋषि: सिन्धुद्वीप ऋषिः छन्द: भुरिग्बृहती स्वर: मध्यमः

 

उ॒खां कृ॑णोतु॒ शक्त्या॑ बा॒हुभ्या॒मदि॑तिर्धि॒या। मा॒ता पु॒त्रं यथो॒पस्थे॒ साग्निं बि॑भर्त्तु॒ गर्भ॒ऽआ। म॒खस्य॒ शिरो॑ऽसि ॥५७ ॥

 

पद पाठ

 

उ॒खाम्। कृ॒णो॒तु॒। शक्त्या॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुभ्या॑म्। अदि॑तिः। धि॒या। मा॒ता। पु॒त्रम्। यथा॑। उ॒पस्थ॒ इत्यु॒पऽस्थे॑। सा। अ॒ग्निम्। बि॒भ॒र्त्तु॒। गर्भे॑। आ। म॒खस्य॑। शिरः॑। अ॒सि॒ ॥५७ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे गृहस्थ पुरुष ! जिस कारण तू (मखस्य) यज्ञ के (शिरः) उत्तमाङ्ग के समान (असि) है इस कारण आप (धिया) बुद्धि वा कर्म से तथा (शक्त्या) पाकविद्या के सामर्थ्य और (बाहुभ्याम्) दोनों बाहुओं से (उखाम्) पकाने की बटलोई को (कृणोतु) सिद्ध कर जो (अदितिः) जननी आपकी स्त्री है (सा) वह (गर्भे) अपनी कोख में (यथा) जैसे (माता) माता (उपस्थे) अपनी गोद में (पुत्रम्) पुत्र को सुखपूर्वक बैठावे, वैसे (अग्निम्) अग्नि के समान तेजस्वी वीर्य्य को (आबिभर्त्तु) धारण करे ॥५७ ॥

 

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। कुमार स्त्रीपुरुषों को योग्य है कि ब्रह्मचर्य्य के साथ विद्या और अच्छी शिक्षा को पूर्ण कर, बल-बुद्धि और पराक्रमयुक्त सन्तान उत्पन्न होने के लिये वैद्यकशास्त्र की रीति से बड़ी-बड़ी ओषधियों से पाक बना के और विधिपूर्वक गर्भाधान करके पीछे पथ्य से रहें और आपस में मित्रता के साथ वर्त्त के पुत्रों के गर्भाधानादि कर्म्म किया करें ॥५७ ॥

 

देवता: वसुरुद्रादित्यविश्वेदेवा देवताः ऋषि: सिन्धुद्वीप ऋषिः छन्द: पूर्वार्द्धस्य स्वराट्संकृतिः, उत्तरार्धस्याभिकृतिः स्वर: गान्धारः, ऋषभः

 

वस॑वस्त्वा कृण्वन्तु गाय॒त्रेण॒ छन्द॑साऽङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वासि॑ पृथि॒व्य᳖सि धा॒रया॒ मयि॑ प्र॒जाᳬ रा॒यस्पोषं॑ गौप॒त्यꣳ सु॒वीर्य॑ꣳ सजा॒तान् यज॑मानाय रु॒द्रास्त्वा॑ कृण्वन्तु॒ त्रैष्टु॑भेन॒ छन्द॑साऽङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वास्य॒न्तरि॑क्षमसि धा॒रया॒ मयि॑ प्र॒जाᳬ रा॒यस्पोषं॑ गौप॒त्यꣳ सु॒वीर्य॑ꣳ सजा॒तान् यज॑मानायाऽऽदि॒त्यास्त्वा॑ कृण्वन्तु॒ जाग॑तेन॒ छन्द॑साऽङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वासि॒ द्यौर॑सि धा॒रया॒ मयि॑ प्र॒जाᳬ रा॒यस्पोषं॑ गौप॒त्यꣳ सु॒वीर्य॑ꣳ सजा॒तान् यज॑मानाय विश्वे॑ त्वा दे॒वाः वैश्वा॑न॒राः कृ॑ण्व॒न्त्वानु॑ष्टुभेन॒ छन्द॑साऽङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वासि॒ दिशो॑ऽसि धा॒रया॒ मयि॑ प्र॒जाᳬ रा॒यस्पोषं॑ गौप॒त्यꣳ सु॒वीर्य॑ꣳ सजा॒तान् यज॑मानाय ॥५८ ॥

 

पद पाठ

 

वस॑वः। त्वा॒। कृ॒ण्व॒न्तु॒। गा॒य॒त्रेण॑। छन्द॑सा। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ध्रु॒वा। अ॒सि॒। पृ॒थि॒वी। अ॒सि॒। धा॒रय॑। मयि॑। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। रा॒यः। पोष॑म्। गौ॒प॒त्यम्। सु॒वीर्य्य॒मिति॑ सु॒ऽवीर्य्य॑म्। स॒जा॒तानिति॑ सऽजा॒तान्। यज॑मानाय। रु॒द्राः। त्वा॒। कृ॒ण्व॒न्तु। त्रैष्टु॑भेन। त्रैस्तु॑भे॒नेति॒ त्रैऽस्तु॑भेन। छन्द॑सा। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ध्रु॒वा। अ॒सि॒। अ॒न्तरि॑क्षम्। अ॒सि॒। धा॒रय॑। मयि॑। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। रा॒यः। पोष॑म्। गौ॒प॒त्यम्। सु॒वीर्य्य॒मिति॑ सु॒ऽवीर्य्य॑म्। स॒जा॒तानिति॑ सऽजा॒तान्। यज॑मानाय। आ॒दि॒त्याः। त्वा॒। कृ॒ण्व॒न्तु॒। जाग॑तेन। छन्द॑सा। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ध्रु॒वा। अ॒सि॒। द्यौः। अ॒सि॒। धा॒रय॑। मयि॑। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। रा॒यः। पोष॑म्। गौ॒प॒त्यम्। सु॒वीर्य॒मिति॑ सु॒वीर्य॑म्। स॒जा॒तानिति॑ सऽजा॒तान्। यज॑मानाय। विश्वे॑। त्वा॒। दे॒वाः। वै॒श्वा॒न॒राः। कृ॒ण्व॒न्तु॒। आनु॑ष्टुभेन। आनु॑स्तुभे॒नेत्यानु॑ऽस्तुभेन। छन्द॑सा। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ध्रु॒वा। अ॒सि॒। दिशः॑। अ॒सि॒। धा॒रय॑। मयि॑। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। रा॒यः। पोष॑म्। गौ॒प॒त्यम्। सु॒वीर्य॒मिति॑ सु॒ऽवीर्य॑म्। स॒जा॒तानिति॑ सऽजा॒तान्। यज॑मानाय ॥५८ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर स्त्री-पुरुष क्या करके क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे ब्रह्मचारिणी कुमारी स्त्री ! जो तू (अङ्गिरस्वत्) धनञ्जय प्राणवायु के समतुल्य (ध्रुवा) निश्चल (असि) है और (पृथिव्यसि) विस्तृत सुख करने हारी है उस (त्वा) तुझ को (गायत्रेण) वेद में विधान किये (छन्दसा) गायत्री आदि छन्दों से (वसवः) चौबीस वर्ष ब्रह्मचर्य्य रखनेवाले विद्वान् लोग मेरी स्त्री (कृण्वन्तु) करें। हे कुमार ब्रह्मचारी पुरुष ! जो तू (अङ्गिरस्वत्) प्राणवायु के समान निश्चल है और (पृथिवी) पृथिवी के समान क्षमायुक्त (असि) है जिस (त्वा) तुझ को (वसवः) उक्त वसुसंज्ञक विद्वान् लोग (गायत्रेण) वेद में प्रतिपादन किये (छन्दसा) गायत्री आदि छन्दों से मेरा पति (कृण्वन्तु) करें। सो तू (मयि) अपनी प्रिय पत्नी मुझ में (प्रजाम्) सुन्दर सन्तानों (रायः) धन की (पोषम्) पुष्टि (गौपत्यम्) गौ, पृथिवी वा वाणी के स्वामीपन और (सुवीर्य्यम्) सुन्दर पराक्रम को (धारय) स्थापन कर। मैं तू दोनों (सजातान्) एक गर्भाशय से उत्पन्न हुए सब सन्तानों को (यजमानाय) विद्या देने हारे आचार्य्य को विद्या ग्रहण के लिये समर्पण करें। हे स्त्रि ! जो तू (अङ्गिरस्वत्) आकाश के समान (ध्रुवा) निश्चल (असि) है और (अन्तरिक्षम्) अविनाशी प्रेमयुक्त (असि) है उस (त्वा) तुझको (रुद्राः) रुद्रसंज्ञक चवालीस वर्ष ब्रह्मचर्य्य सेवने हारे विद्वान् लोग (त्रैष्टुभेन) वेद में कहे हुए (छन्दसा) त्रिष्टुप् छन्द से मेरी स्त्री (कृण्वन्तु) करें। हे वीर पुरुष ! जो तू आकाश के समान निश्चल है और दृढ़ प्रेम से युक्त है, जिस तुझ को चवालीस वर्ष ब्रह्मचर्य करने हारे विद्वान् लोग वेद में प्रतिपादन किये त्रिष्टुप् छन्द से मेरा स्वामी करें। वह तू (मयि) अपनी प्रिय पत्नी मुझ में (प्रजाम्) बल तथा सत्य धर्म से युक्त सन्तानों (रायः) राज्यलक्ष्मी की (पोषम्) पुष्टि (गौपत्यम्) पढ़ाने के अधिष्ठातृत्व और (सुवीर्य्यम्) अच्छे पराक्रम को (धारय) धारण कर मैं तू दोनों (सजातान्) एक उदर से उत्पन्न हुए सब सन्तानों को अच्छी शिक्षा देकर वेदविद्या की शिक्षा होने के लिये (यजमानाय) अङ्ग-उपाङ्गों के सहित वेद पढ़ाने हारे अध्यापक को देवें। हे विदुषी स्त्री ! जो तू (अङ्गिरस्वत्) आकाश के समान (ध्रुवा) अचल (असि) है (द्यौः) सूर्य के सदृश प्रकाशमान (असि) है उस (त्वा) तुझ को (आदित्याः) अड़तालीस वर्ष ब्रह्मचर्य्य करके पूर्ण विद्या और बल की प्राप्ति से आप्त सत्यवादी धर्मात्मा विद्वान् लोग (जागतेन) वेद में कहे (छन्दसा) जगती छन्द से मेरी पत्नी (कृण्वन्तु) करें। हे विद्वान् पुरुष ! जो तू आकाश के तुल्य दृढ़ और सूर्य्य के तुल्य तेजस्वी है, उस तुझ को अड़तालीस वर्ष ब्रह्मचर्य्य सेवनेवाले पूर्ण विद्या से युक्त धर्मात्मा विद्वान् लोग वेदोक्त जगती छन्द से मेरा पति करें। वह तू (मयि) अपनी प्रिय भार्य्या मुझ में (प्रजाम्) शुभ गुणों से युक्त सन्तानों (रायः) चक्रवर्त्ति-राज्यलक्ष्मी को (पोषम्) पुष्टि (गौपत्यम्) संपूर्ण विद्या के स्वामीपन और (सुवीर्यम्) सुन्दर पराक्रम को (धारय) धारण कर। मैं तू दोनों (सजातान्) अपने सन्तानों को जन्म से उपदेश करके सब विद्या ग्रहण करने के लिये (यजमानाय) क्रिया-कौशल के सहित सब विद्याओं के पढ़ाने हारे आचार्य को समर्पण करें। हे सुन्दर ऐश्वर्य्ययुक्त पत्नि ! जो तू (अङ्गिरस्वत्) सूत्रात्मा प्राणवायु के समान (ध्रुवा) निश्चल (असि) है और (दिशः) सब दिशाओं में कीर्तिवाली (असि) है, उस तुझ को (वैश्वानराः) सब मनुष्यों में शोभायमान (विश्वे) सब (देवाः) उपदेशक विद्वान् लोग (आनुष्टुभेन) वेद में कहे (छन्दसा) अनुष्टुप् छन्द से मेरे आधीन (कृण्वन्तु) करें। हे पुरुष ! जो तू सूत्रात्मा वायु के सदृश स्थित है (दिशः) सब दिशाओं में कीर्तिवाला (असि) है, जिस (त्वा) तुझ को सब प्रजा में शोभायमान सब विद्वान् लोग मेरे आधीन करें। सो आप (मयि) मुझ में (प्रजाम्) शुभलक्षणयुक्त सन्तानों (रायः) सब ऐश्वर्य्य की (पोषम्) पुष्टि (गौपत्यम्) वाणी की चतुराई और (सुवीर्य्यम्) सुन्दर पराक्रम को (धारय) धारण कर। मैं तू दोनों जने अच्छा उपदेश होने के लिये (सजातान्) अपने सन्तानों को (यजमानाय) सत्य के उपदेशक अध्यापक के समीप समर्पण करें ॥५८ ॥

 

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जब स्त्री-पुरुष एक-दूसरे की परीक्षा करके आपस में दृढ़ प्रीतिवाले होवें, तब वेदोक्त रीति से यज्ञ का विस्तार और वेदोक्त नियमाऽनुसार विवाह करके धर्म से सन्तानों को उत्पन्न करें। जब तक कन्या और पुत्र आठ वर्ष के हों, तब तक माता-पिता उनको अच्छी शिक्षा देवें। इस के पीछे ब्रह्मचर्य्य धारण करा के विद्या पढ़ने के लिये अपने घर से बहुत दूर आप्त विद्वान् पुरुषों और आप्त विदुषी स्त्रियों की पाठशालाओं में भेज देवें। वहाँ पाठशाला में जितने धन का खर्च करना उचित हो उतना करें, क्योंकि सन्तानों को विद्यादान के विना कोई उपकार वा धर्म नहीं बन सकता। इसलिये इस का निरन्तर अनुष्ठान किया करें ॥५८ ॥

 

देवता: अदितिर्देवता ऋषि: सिन्धुद्वीप ऋषिः छन्द: आर्षी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

 

अदि॑त्यै॒ रास्ना॒स्यदि॑तिष्टे॒ बिलं॑ गृभ्णातु। कृ॒त्वाय॒ सा म॒हीमु॒खां मृ॒न्मयीं॒ योनि॑म॒ग्नये॑। पु॒त्रेभ्यः॒ प्राय॑च्छ॒ददि॑तिः श्र॒पया॒निति॑ ॥५९ ॥

 

पद पाठ

 

अदि॑त्यै। रास्ना॑। अ॒सि॒। अदि॑तिः। ते॒। बिल॑म्। गृ॒भ्णा॒तु॒। कृ॒त्वाय॑। सा। म॒हीम्। उ॒खाम्। मृ॒न्मयी॒मिति॑ मृ॒त्ऽमयी॑म्। योनि॑म्। अ॒ग्नये॑। पु॒त्रेभ्यः॑। प्र। अ॒य॒च्छ॒त्। अदि॑तिः। श्र॒पया॑न्। इति॑ ॥५९ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे पढ़ाने हारी विदुषी स्त्री ! जिस कारण तू (अदित्यै) विद्याप्रकाश के लिये (रास्ना) दानशील (असि) है इसलिये (ते) तुझ से (बिलम्) ब्रह्मचर्य्य को धारण (कृत्वाय) करके (अदितिः) पुत्र और कन्या विद्या को (गृभ्णातु) ग्रहण करें सो (सा) तू (अदितिः) माता (मृन्मयीम्) मट्टी की (योनिम्) मिली और पृथक् (महीम्) बड़ी (उखाम्) पकाने की बटलोई को (अग्नये) अग्नि के निकट (पुत्रेभ्यः) पुत्रों को (प्रायच्छत्) देवे। विद्या और अच्छी शिक्षा से युक्त होकर बटलोई में (इति) इस प्रकार (श्रपयान्) अन्नादि पदार्थों को पकाओ ॥५९ ॥

 

भावार्थभाषाः -लड़के पुरुषों की और लड़कियाँ स्त्रियों की पाठशाला में जा ब्रह्मचर्य्य की विधिपूर्वक सुशीलता से विद्या और भोजन बनाने की क्रिया सीखें और आहार-विहार भी अच्छे नियम से सेवें। कभी विषय की कथा न सुनें। मद्य, मांस, आलस्य और अत्यन्त निद्रा को त्याग के पढ़ानेवाले की सेवा और उस के अनुकूल वर्त्त के अच्छे नियमों को धारण करें ॥५९ ॥

 

देवता: वस्वादयो मन्त्रोक्ता देवताः ऋषि: सिन्धुद्वीप ऋषिः छन्द: स्वराट्संकृतिः स्वर: गान्धारः

 

वस॑वस्त्वा धूपयन्तु गाय॒त्रेण॒ छन्द॑साङ्गिर॒स्वद् रु॒द्रास्त्वा॑ धूपयन्तु॒ त्रैष्टु॑भेन॒ छन्द॑साङ्गिर॒स्वदा॑दि॒त्यास्त्वा॑ धूपयन्तु॒ जाग॑तेन॒ छन्द॑साङ्गिर॒स्वद् विश्वे॑ त्वा दे॒वा वैश्वान॒रा धू॑पय॒न्त्वानु॑ष्टुभेन॒ छन्द॑साङ्गिर॒स्वदिन्द्र॑स्त्वा धूपयतु॒ वरु॑णस्त्वा धूपयतु॒ विष्णु॑स्त्वा धूपयतु ॥६० ॥

 

पद पाठ

 

वस॑वः। त्वा॒। धू॒प॒य॒न्तु॒। गा॒य॒त्रेण॑। छन्द॑सा। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। रु॒द्राः। त्वा॒। धू॒प॒य॒न्तु॒। त्रैष्टु॑भेन। त्रैस्तु॑भेनेति॒ त्रैऽस्तु॑भेन। छन्द॑सा। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। आ॒दि॒त्याः। त्वा॒। धू॒प॒य॒न्तु॒। जाग॑तेन। छन्द॑सा। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। विश्वे॑। त्वा॒। दे॒वाः। वै॒श्वा॒न॒राः। धू॒प॒य॒न्तु॒। आनु॑ष्टुभेन। आनु॑स्तुभे॒नेत्यानु॑ऽस्तुभेन। छन्द॑सा। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। इन्द्रः॑। त्वा॒। धू॒प॒य॒तु॒। वरु॑णः। त्वा॒। धू॒प॒य॒तु॒। विष्णुः॑। त्वा॒। धू॒प॒य॒तु॒ ॥६० ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर विद्वान् लोग पढ़ने हारे और उपदेश के योग्य मनुष्यों को कैसे शुद्ध करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे ब्रह्मचारिन् वा ब्रह्मचारिणि ! जो (वसवः) प्रथम विद्वान् लोग (गायत्रेण) वेद के (छन्दसा) गायत्री छन्द से (त्वा) तुझ को (अङ्गिरस्वत्) प्राणों के तुल्य सुगन्धित पदार्थों के समान (धूपयन्तु) संस्कारयुक्त करें (रुद्राः) मध्यम विद्वान् लोग (त्रैष्टुभेन) वेदोक्त (छन्दसा) त्रिष्टुप् छन्द से (अङ्गिरस्वत्) विज्ञान के समान (त्वा) तेरा (धूपयन्तु) विद्या और अच्छी शिक्षा से संस्कार करें (आदित्याः) सर्वोत्तम अध्यापक विद्वान् लोग (जागतेन) (छन्दसा) वेदोक्त जगती छन्द से (अङ्गिरस्वत्) ब्रह्माण्ड के शुद्ध वायु के सदृश (त्वा) तेरा (धूपयन्तु) धर्मयुक्त व्यवहार के ग्रहण से संस्कार करें (वैश्वानराः) सब मनुष्यों में सत्य, धर्म और विद्या के प्रकाश करनेवाले (विश्वे) सब (देवाः) सत्योपदेष्टा विद्वान् लोग (आनुष्टुभेन) वेदोक्त अनुष्टुप् (छन्दसा) छन्द से (अङ्गिरस्वत्) बिजुली के समान (त्वा) तेरा (धूपयन्तु) सत्योपदेश से संस्कार करें (इन्द्रः) परम ऐश्वर्य्ययुक्त राजा (त्वा) तेरा (धूपयतु) राजनीति विद्या से संस्कार करे (वरुणः) श्रेष्ठ न्यायाधीश (त्वा) तुझ को (धूपयतु) न्यायक्रिया से संयुक्त करे और (विष्णुः) सब विद्या और योगाङ्गों का वेत्ता योगीजन (त्वा) तुझ को (धूपयतु) योगविद्या से संस्कारयुक्त करे, तू इन सब की सेवा किया कर ॥६० ॥

 

भावार्थभाषाः -सब अध्यापक स्त्री और पुरुषों को चाहिये कि सब श्रेष्ठ क्रियाओं से कन्याओं और पुत्रों को विद्या और शिक्षा से युक्त शीघ्र करें। जिससे ये पूर्ण ब्रह्मचर्य्य ही कर के गृहाश्रम आदि का यथोक्त काल में आचरण करें ॥६० ॥

 

देवता: आदित्यादयो लिङ्गोक्ता देवताः ऋषि: सिन्धुद्वीप ऋषिः छन्द: भुरिक्कृतिः, निचृत् प्रकृतिः स्वर: निषादः, धैवतः

 

अदि॑तिष्ट्वा दे॒वी वि॒श्वदे॑व्यावती पृथि॒व्याः स॒धस्थे॑ऽअङ्गिर॒स्वत् ख॑नत्ववट दे॒वानां॑ त्वा॒ पत्नी॑र्दे॒वीर्वि॒श्वदे॑व्यावतीः पृथि॒व्याः स॒धस्थे॑ऽअङ्गिर॒स्वद् द॑धतूखे धि॒षणा॑स्त्वा दे॒वीर्वि॒श्वदे॑व्यावतीः पृथि॒व्याः स॒धस्थे॑ऽअङ्गिर॒स्वद॒भी᳖न्धतामुखे॒ वरू॑त्रीष्ट्वा दे॒वीर्वि॒श्वदे॑व्यावतीः पृथि॒व्याः स॒धस्थे॑ऽअङ्गिर॒स्वच्छ्र॑पयन्तूखे॒ ग्नास्त्वा॑ दे॒वीर्वि॒श्वदे॑व्यावतीः पृथि॒व्याः स॒धस्थे॑ऽअङ्गिर॒स्वत् प॑चन्तूखे॒ जन॑य॒स्त्वाऽछि॑न्नपत्रा दे॒वीर्वि॒श्वदे॑व्यावतीः पृथि॒व्याः स॒धस्थे॑ऽअङ्गिर॒स्वत् प॑चन्तूखे ॥६१ ॥

 

पद पाठ

 

अदि॑तिः। त्वा॒। दे॒वी। वि॒श्वदे॑व्यावती। वि॒श्वदे॑व्यव॒तीति॑ वि॒श्वदे॑व्यऽवती। पृ॒थि॒व्याः। स॒धस्थ॒ इति॑ स॒धऽस्थे॑। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ख॒न॒तु॒। अ॒व॒ट॒। दे॒वाना॑म्। त्वा॒। पत्नीः॑। दे॒वीः। वि॒श्वदे॑व्यावतीः। वि॒श्वदे॑व्यवती॒रिति॑ वि॒श्वदे॑व्यऽवतीः। पृ॒थि॒व्याः। स॒धस्थ॒ इति॑ स॒धऽस्थे॑। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। द॒ध॒तु॒। उ॒खे॒। धि॒षणाः॑। त्वा॒। दे॒वीः। वि॒श्वदे॑व्यावतीः। वि॒श्वदे॑व्यवती॒रिति॑ वि॒श्वदे॑व्यऽवतीः। पृ॒थि॒व्याः। स॒धस्थ॒ इति॑ स॒धऽस्थे॑। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। अ॒भि। इ॒न्ध॒ता॒म्। उ॒खे॒। वरू॑त्रीः। त्वा॒। दे॒वीः। वि॒श्वदे॑व्यावतीः। वि॒श्वदे॑व्यवती॒रिति॑ वि॒श्वदे॑व्यऽवतीः। पृ॒थि॒व्याः। स॒धस्थ॒ इति॑ स॒धऽस्थे॑। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। श्र॒प॒य॒न्तु॒। उ॒खे॒। ग्नाः। त्वा॒। दे॒वीः। वि॒श्वदे॑व्यावतीः। वि॒श्वदे॑व्यवती॒रिति॑ वि॒श्वदे॑व्यऽवतीः। पृ॒थि॒व्याः। स॒धस्थ॒ इति॑ स॒धऽस्थे। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। प॒च॒न्तु॒। उ॒खे॒। जन॑यः। त्वा॒। अच्छि॑न्नपत्रा॒ इत्यच्छि॑न्नऽपत्राः। दे॒वीः। वि॒श्वदे॑व्यावतीः। वि॒श्वदे॑व्यवती॒रिति॑ वि॒श्वदे॑व्यऽवतीः। पृ॒थि॒व्याः। स॒धस्थ॒ इति॑ स॒धऽस्थे॑। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। प॒च॒न्तु॒। उ॒खे॒ ॥६१ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

विद्वान् स्त्रियाँ कन्याओं को उत्तम शिक्षा से धर्मात्मा विद्यायुक्त करके इस लोक और परलोक के सुखों को प्राप्त करावें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अवट) बुराई और निन्दारहित बालक (विश्वदेव्यावती) सम्पूर्ण विद्वानों में प्रशस्त ज्ञानवाली (अदितिः) अखण्ड विद्या पढ़ाने हारी (देवी) विदुषी स्त्री (पृथिव्याः) भूमि के (सधस्थे) एक शुभस्थान में (त्वा) तुझ को (अङ्गिरस्वत्) अग्नि के समान (खनतु) जैसे भूमि को खोद के कूप जल निष्पन्न करते हैं, वैसे विद्यायुक्त करे। हे (उखे) ज्ञानयुक्त कुमारी ! (देवानाम्) विद्वानों की (पत्नीः) स्त्री जो (विश्वदेव्यावतीः) सम्पूर्ण विद्वानों में अधिक विद्यायुक्त (देवीः) विदुषी (पृथिव्याः) पृथिवी के (सधस्थे) एक स्थान में (अङ्गिरस्वत्) प्राण के सदृश (त्वा) तुझ को (दधतु) धारण करें। हे (उखे) विज्ञान की इच्छा करनेवाली ! (विश्वदेव्यावतीः) सब विद्वानों में उत्तम (धिषणाः) प्रशंसित वाणीयुक्त बुद्धिमती (देवीः) विद्यायुक्त स्त्री लोग (पृथिव्याः) पृथिवी के (सधस्थे) एक स्थान में (त्वा) तुझ को (अङ्गिरस्वत्) प्राण के तुल्य (अभीन्धताम्) प्रदीप्त करें। हे (उखे) अन्न आदि पकाने की बटलोई के समान विद्या को धारण करने हारी कन्ये ! (विश्वदेव्यावतीः) उत्तम विदुषी (वरूत्रीः) विद्या-ग्रहण के लिये स्वीकार करने योग्य (देवीः) रूपवती स्त्री लोग (पृथिव्याः) भूमि के (सधस्थे) एक शुद्ध स्थान में (त्वा) तुझ को (अङ्गिरस्वत्) सूर्य के तुल्य (श्रपयन्तु) शुद्ध तेजस्विनी करें। हे (उखे) ज्ञान चाहने हारी कुमारी ! (विश्वदेव्यावतीः) बहुत विद्यावानों में उत्तम (देवीः) शुद्ध विद्या से युक्त (ग्नाः) वेदवाणी को जाननेवाली स्त्री लोग (पृथिव्याः) भूमि के एक (सधस्थे) उत्तम स्थान में (त्वा) तुझ को (अङ्गिरस्वत्) बिजुली के तुल्य (पचन्तु) दृढ़ बलधारिणी करें। हे (उखे) ज्ञान की इच्छा रखनेवाली कुमारी ! (विश्वदेव्यावतीः) उत्तम विद्या पढ़ी (अच्छिन्नपत्राः) अखण्डित नवीन शुद्ध वस्त्रों को धारने वा यानों में चलनेवाली (जनयः) शुभगुणों से प्रसिद्ध (देवीः) दिव्य गुणों की देने हारी स्त्री लोग (पृथिव्याः) पृथिवी के (सधस्थे) उत्तम प्रदेश में (त्वा) तुझ को (अङ्गिरस्वत्) ओषधियों के रस के समान (पचन्तु) संस्कारयुक्त करें। हे कुमारी कन्ये ! तू इन पूर्वोक्त सब स्त्रियों से ब्रह्मचर्य्य के साथ विद्या ग्रहण कर ॥६१ ॥

 

भावार्थभाषाः -माता-पिता आचार्य्य और अतिथि अर्थात् भ्रमणशील विरक्त पुरुषों को चाहिये कि जैसे रसोइये बटलोई आदि पात्रों में अन्न का संस्कार कर के अन्न को उत्तम सिद्ध करते हैं, वैसे ही बाल्यावस्था से लेके विवाह से पहिले पहिले लड़कों और लड़कियों को उत्तम विद्या और शिक्षा से सम्पन्न करें ॥६१ ॥

 

देवता: मित्रो देवता ऋषि: विश्वामित्र ऋषिः छन्द: निचृद्गायत्री स्वर: षड्जः

 

मि॒त्रस्य॑ चर्षणी॒धृतोऽवो॑ दे॒वस्य॑ सान॒सि। द्यु॒म्नं चि॒त्रश्र॑वस्तमम् ॥६२ ॥

 

पद पाठ

 

मि॒त्रस्य॑। च॒र्ष॒णी॒धृत॒ इति॑ चर्षणि॒ऽधृतः॑। अवः॑। दे॒वस्य॑। सा॒न॒सि। द्यु॒म्नम्। चि॒त्रश्र॑वस्तम॒मिति॑ चि॒त्रश्र॑वःऽतमम् ॥६२ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

जो जिस पुरुष की स्त्री होवे वह उसके ऐश्वर्य की निरन्तर रक्षा करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे स्त्री ! तू (चर्षणीधृतः) अच्छी शिक्षा से मनुष्यों का धारण करने हारे (मित्रस्य) मित्र (देवस्य) कमनीय अपने पति के (चित्रश्रवस्तमम्) आश्चर्य्यरूप अन्नादि पदार्थ जिससे हों, ऐसे (सानसि) सेवन योग्य प्राचीन (द्युम्नम्) धन की (अवः) रक्षा कर ॥६२ ॥

 

भावार्थभाषाः -घर के काम करने में कुशल स्त्री को चाहिये कि घर के भीतर के सब काम अपने आधीन रख के ठीक बढ़ाया करे ॥६२ ॥

 

देवता: सविता देवता ऋषि: विश्वामित्र ऋषिः छन्द: भुरिग्बृहती बृहती स्वर: मध्यमः

 

दे॒वस्त्वा॑ सवि॒तोद्व॑पतु सुपा॒णिः स्व॑ङ्गु॒रिः सु॑बा॒हुरु॒त शक्त्या॑। अव्य॑थमाना पृथि॒व्यामाशा॒ दिश॒ऽआपृ॑ण ॥६३ ॥

 

पद पाठ

 

दे॒वः। त्वा॒। स॒वि॒ता। उत्। व॒प॒तु॒। सु॒पा॒णिरिति॑ सुऽपा॒णिः। स्व॑ङ्गु॒रिरिति॑ सुऽअङ्गु॒रिः। सु॒बा॒हुरिति॑ सुऽबा॒हुः। उ॒त। शक्त्या॑। अव्य॑थमाना। पृ॒थि॒व्याम्। आशाः॑। दिशः॑। आ। पृ॒ण॒ ॥६३ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे स्त्रि ! (सुबाहुः) अच्छे जिसके भुजा (सुपाणिः) सुन्दर हाथ और (स्वङ्गुरिः) शोभायुक्त जिसकी अंगुली हो ऐसा (सविता) सूर्य के समान ऐश्वर्य्यदाता (देवः) अच्छे गुण, कर्म और स्वभावों से युक्त पति (शक्त्या) अपने सामर्थ्य से (पृथिव्याम्) पृथिवी पर स्थित (त्वा) तुझ को (उद्वपतु) वृद्धि के साथ गर्भवती करे। (उत) और तू भी अपने सामर्थ्य से (अव्यथमाना) निर्भय हुई पति के सेवन से अपनी (आशाः) इच्छा और कीर्ति से सब (दिशः) दिशाओं को (आपृण) पूरण कर ॥६३ ॥

 

भावार्थभाषाः -स्त्रीपुरुषों को चाहिये कि आपस में प्रसन्न एक-दूसरे को हृदय से चाहनेवाले परस्पर परीक्षा कर अपनी-अपनी इच्छा से स्वयंवर विवाह कर अत्यन्त विषयासक्ति को त्याग, ऋतुकाल में गमन करनेवाले होकर, अपने सामर्थ्य की हानि कभी न करें। क्योंकि इसी से जितेन्द्रिय स्त्री-पुरुषों के शरीर में कोई रोग प्रगट और बल की हानि भी नहीं होती। इसलिये इस का अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये ॥६३ ॥

 

देवता: मित्रो देवता ऋषि: विश्वामित्र ऋषिः छन्द: अनुष्टुप् स्वर: गान्धारः

 

उ॒त्थाय॑ बृह॒ती भ॒वोदु॑ तिष्ठ ध्रु॒वा त्वम्। मित्रै॒तां त॑ऽउ॒खां परि॑ ददा॒म्यभि॑त्याऽए॒षा मा भे॑दि ॥६४ ॥

 

पद पाठ

 

उ॒त्थाय॑। बृ॒ह॒ती। भ॒व॒। उत्। ऊँ॒ इत्यूँ॑। ति॒ष्ठ॒। ध्रु॒वा। त्वम्। मित्र॑। ए॒ताम्। ते॒। उ॒खाम्। परि॑। द॒दा॒मि॒। अभि॑त्यै। ए॒षा। मा। भे॒दि॒ ॥६४ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर वह कैसी होवे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे विदुषि कन्ये ! (त्वम्) तू (ध्रुवा) मङ्गल कार्य्यों में निश्चित बुद्धिवाली और (बृहती) बड़े पुरुषार्थ से युक्त (भव) हो। विवाह करने के लिये (उत्तिष्ठ) उद्यत हो (उत्थाय) आलस्य छोड़ के उठकर इस पति का स्वीकार कर। हे (मित्र) मित्र ! (ते) तेरे लिये (एताम्) इस (उखाम्) प्राप्त होने योग्य कन्या को (अभित्यै) भयरहित होने के लिये (परिददामि) सब प्रकार देता हूँ (उ) इसलिये तू (एषा) इस प्रत्यक्ष प्राप्त हुई स्त्री को (मा भेदि) भिन्न मत कर ॥६४ ॥

 

भावार्थभाषाः -कन्या और वर को चाहिये कि अपनी-अपनी प्रसन्नता से कन्या पुरुष की और पुरुष कन्या की आप ही परीक्षा कर के ग्रहण करने की इच्छा करें। जब दोनों का विवाह करने में निश्चय होवे, तभी माता-पिता और आचार्य आदि इन दोनों का विवाह करें और ये दोनों आपस में भेद वा व्यभिचार कभी न करें, किन्तु अपनी स्त्री के नियम में पुरुष और पतिव्रता स्त्री होकर मिल के चलें ॥६४ ॥

 

देवता: वस्वादयो लिङ्गोक्ता देवताः ऋषि: विश्वामित्र ऋषिः छन्द: भुरिग्धृतिः स्वर: षड्जः

 

वस॑व॒स्त्वाऽऽछृ॑न्दन्तु गाय॒त्रेण॒ छन्द॑साऽङ्गिर॒स्वद् रु॒द्रास्त्वाऽऽछृ॑न्दन्तु॒ त्रैष्टु॑भेन॒ छन्द॑साऽङ्गिर॒स्वदा॑दि॒त्यास्त्वाऽऽछृ॑न्दन्तु॒ जाग॑तेन॒ छन्द॑साऽङ्गिर॒स्वद् विश्वे॑ त्वा दे॒वा वै॑श्वान॒राऽऽआछृ॑न्द॒न्त्वानु॑ष्टुभेन॒ छन्द॑साऽङ्गिर॒स्वत् ॥६५ ॥

 

पद पाठ

 

वस॑वः। त्वा॒। आ। छृ॒न्द॒न्तु॒। गा॒य॒त्रेण॑। छन्द॑सा। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। रु॒द्राः। त्वा॒। आ। छृ॒न्द॒न्तु॒। त्रैष्टु॑भेन। त्रैस्तु॑भे॒नेति॒ त्रैऽस्तु॑भेन। छन्द॑सा। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। आ॒दि॒त्याः। त्वा। आ। छृ॒न्द॒न्तु॒। जाग॑तेन। छन्द॑सा। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। विश्वे॑। त्वा॒। दे॒वाः। वै॒श्वा॒न॒राः। आ। छृ॒न्द॒न्तु॒। आनु॑ष्टुभेन। आनु॑स्तुभे॒नेत्यानु॑ऽस्तुभेन। छन्द॑सा। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत् ॥६५ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर उन स्त्री-पुरुषों के प्रति विद्वान् लोग क्या करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे स्त्रि वा पुरुष ! (वसवः) प्रथम विद्वान् लोग (गायत्रेण) श्रेष्ठ विद्याओं का जिससे गान किया जावे, उस वेद के विभागरूप स्तोत्र (छन्दसा) गायत्री छन्द से जिस (त्वा) तुझ को (अङ्गिरस्वत्) अग्नि के तुल्य (आछृन्दन्तु) प्रकाशमान करें। (रुद्राः) मध्यम विद्वान् लोग (त्रैष्टुभेन) कर्म, उपासना और ज्ञान जिस से स्थिर हों, उस (छन्दसा) वेद के स्तोत्र भाग से (अङ्गिरस्वत्) प्राण के समान (त्वा) तुझ को (आछृन्दन्तु) प्रज्वलित करें। (आदित्याः) उत्तम विद्वान् लोग (जागतेन) जगत् की विद्या प्रकाश करने हारे (छन्दसा) वेद के स्तोत्रभाग से (त्वा) तुझ को (अङ्गिरस्वत्) सूर्य्य के सदृश तेजधारी (आछृन्दन्तु) शुद्ध करें। (वैश्वानराः) सम्पूर्ण मनुष्यों में शोभायमान (देवाः) सत्य उपदेश देने हारे (विश्वे) सब विद्वान् लोग (आनुष्टुभेन) विद्या ग्रहण के पश्चात् जिस से दुःखों को छुड़ावें उस (छन्दसा) वेदभाग से (त्वा) तुझ को (अङ्गिरस्वत्) समस्त ओषधियों के रस के समान (आछृन्दन्तु) शुद्ध सम्पादित करें ॥६५ ॥

 

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमालङ्गार है। हे स्त्रीपुरुषो ! तुम दोनों को चाहिये कि जो विद्वान् पुरुष और विदुषी स्त्री लोग तुम को शरीर और आत्मा का बल कराने हारे उपदेश से सुशोभित करें, उनकी सेवा और सत्सङ्ग निरन्तर करो और अन्य तुच्छ बुद्धिवाले पुरुषों वा स्त्रियों का सङ्ग कभी मत करो ॥६५ ॥

 

देवता: अग्न्यादयो मन्त्रोक्ता देवताः ऋषि: विश्वामित्र ऋषिः छन्द: विराड्ब्राह्मी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

 

आकू॑तिम॒ग्निं प्र॒युज॒ꣳ स्वाहा॒ मनो॑ मे॒धाम॒ग्निं प्र॒युज॒ꣳ स्वाहा॑ चि॒त्तं विज्ञा॑तम॒ग्निं प्र॒युज॒ꣳ स्वाहा॑ वा॒चो विधृ॑तिम॒ग्निं प्र॒युज॒ꣳ स्वाहा॑ प्र॒जाप॑तये॒ मन॑वे॒ स्वाहा॒ऽग्नये॑ वैश्वान॒राय॒ स्वाहा॑ ॥६६ ॥

 

पद पाठ

 

आकू॑तिमित्याऽकू॑तिम्। अ॒ग्निम्। प्र॒युज॒मिति॑ प्र॒ऽयुज॑म्। स्वाहा॑। मनः॑। मे॒धाम्। अ॒ग्निम्। प्र॒युज॒मिति॑ प्र॒ऽयुज॑म्। स्वाहा॑। चि॒त्तम्। विज्ञा॑त॒मिति॒ विऽज्ञा॑तम्। अ॒ग्निम्। प्र॒युज॒मिति॑ प्र॒ऽयुज॑म्। स्वाहा॑। वा॒चः। विधृ॑ति॒मिति॒ विऽधृ॑तिम्। अ॒ग्निम्। प्र॒युज॒मिति॑ प्र॒ऽयुज॑म्। स्वाहा॑। प्र॒जाप॑तय॒ इति॑ प्र॒जाऽप॑तये। मन॑वे। स्वाहा॑। अ॒ग्नये। वै॒श्वा॒न॒राय॑। स्वाहा॑ ॥६६ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर वे स्त्री-पुरुष क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे स्त्री-पुरुषो ! तुम लोग वेद के गायत्री आदि मन्त्रों से (स्वाहा) सत्यक्रिया से (आकूतिम्) उत्साह देनेवाली क्रिया के (प्रयुजम्) प्रेरणा करने हारे (अग्निम्) प्रसिद्ध अग्नि को (स्वाहा) सत्यवाणी से (मनः) इच्छा के साधन को (मेधाम्) बुद्धि और (प्रयुजम्) सम्बन्ध करने हारी (अग्निम्) बिजुली को (स्वाहा) सत्य व्यवहारों से (विज्ञातम्) जाने हुए विषय के (प्रयुजम्) व्यवहारों में प्रयोग किये (अग्निम्) अग्नि के समान प्रकाशित (चित्तम्) चित्त को (स्वाहा) योगक्रिया की रीति से (वाचः) वाणियों की (विधृतिम्) विविध प्रकार की धारणा को (प्रयुजम्) संप्रयोग किये हुए (अग्निम्) योगाभ्यास से उत्पन्न की हुई बिजुली को (प्रजापतये) प्रजा के स्वामी (मनवे) मननशील पुरुष के लिये (स्वाहा) सत्यवाणी को और (अग्नये) विज्ञानस्वरूप (वैश्वानराय) सब मनुष्यों के बीच प्रकाशमान जगदीश्वर के लिये (स्वाहा) धर्मयुक्त क्रिया को युक्त करा के निरन्तर (आछृन्दन्तु) अच्छे प्रकार शुद्ध करो ॥६६ ॥

 

भावार्थभाषाः -यहाँ पूर्व मन्त्र से (आछृन्दन्तु) इस पद की अनुवृत्ति आती है। मनुष्यों को चाहिये कि पुरुषार्थ से वेदादि शास्त्रों को पढ़ और उत्साह आदि को बढ़ा कर व्यवहार परमार्थ की क्रियाओं के सम्बन्ध से इस लोक और परलोक के सुखों को प्राप्त हों ॥६६ ॥

 

देवता: सविता देवता ऋषि: आत्रेय ऋषिः छन्द: अनुष्टुप् स्वर: गान्धारः

 

विश्वो॑ दे॒वस्य॑ ने॒तुर्मर्तो॑ वुरीत स॒ख्यम्। विश्वो॑ रा॒यऽइ॑षुध्यति द्यु॒म्नं वृ॑णीत पु॒ष्यसे॒ स्वाहा॑ ॥६७ ॥

 

पद पाठ

 

विश्वः॑। दे॒वस्य॑। ने॒तुः। मर्त्तः॑। वु॒री॒त॒। स॒ख्यम्। विश्वः॑। रा॒ये। इ॒षु॒ध्य॒ति॒। द्यु॒म्नम्। वृ॒णी॒त॒। पु॒ष्यसे॑। स्वाहा॑ ॥६७ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर गृहस्थों को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -जैसे विद्वान् लोग ग्रहण करते हैं (विश्वः) सब (मर्त्तः) मनुष्य (नेतुः) सब के नायक (देवस्य) सब जगत् के प्रकाशक परमेश्वर के (सख्यम्) मित्रता को (वुरीत) स्वीकार करें (विश्वः) सब मनुष्य (राये) शोभा वा लक्ष्मी के किये (इषुध्यति) बाणादि आयुधों को धारण करें (स्वाहा) सत्यवाणी और (द्युम्नम्) प्रकाशयुक्त यश वा अन्न को (वृणीत) ग्रहण करें और जैसे इससे तू (पुष्यसे) पुष्ट होता है, वैसे हम लोग भी होवें ॥६७ ॥

 

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। गृहस्थ मनुष्यों को चाहिये कि परमेश्वर के साथ मित्रता कर सत्य व्यवहार से धन को प्राप्त हो के कीर्ति कराने हारे कर्मों को नित्य किया करें ॥६७ ॥

 

देवता: अम्बा देवता ऋषि: आत्रेय ऋषिः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

 

मा सु भि॑त्था॒ मा सु रि॒षोऽम्ब॑ धृ॒ष्णु वी॒रय॑स्व॒ सु। अ॒ग्निश्चे॒दं क॑रिष्यथः ॥६८ ॥

 

पद पाठ

 

मा। सु। भि॒त्थाः॒। मा। सु। रि॒षः॒। अम्ब॑। धृ॒ष्णु। वी॒रय॑स्व। सु। अ॒ग्निः। च॒। इ॒दम्। क॒रि॒ष्य॒थः॒ ॥६८ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर माता-पिता के प्रति पुत्रादि क्या-क्या कहें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अम्ब) माता ! तू हम को विद्या से (मा) मत (सुभित्थाः) छुड़ावे और (मा) मत (सुरिषः) दुःख दे (धृष्णु) दृढ़ता से (सुवीरयस्व) सुन्दर आरम्भ किये कर्म्म की समाप्ति कर। ऐसे करते हुए तुम माता और पुत्र दोनों (अग्निः) अग्नि के समान (च) (इदम्) करने योग्य इस सब कर्म्म को (करिष्यथः) आचरण करो ॥६८ ॥

 

भावार्थभाषाः -माता को चाहिये कि अपने सन्तानों को अच्छी शिक्षा देवे, जिससे ये परस्पर प्रीतियुक्त और वीर होवें और जो करने योग्य है वही करें, न करने योग्य कभी न करें ॥६८ ॥

 

देवता: अम्बा देवता ऋषि: आत्रेय ऋषिः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

 

दृꣳह॑स्व देवि पृथिवि स्व॒स्तय॑ऽआसु॒री मा॒या स्व॒धया॑ कृ॒तासि॑। जुष्टं॑ दे॒वेभ्य॑ऽइ॒दम॑स्तु ह॒व्यमरि॑ष्टा॒ त्वमुदि॑हि य॒ज्ञेऽअ॒स्मिन् ॥६९ ॥

 

पद पाठ

 

दृꣳह॑स्व। दे॒वि॒। पृ॒थि॒वि॒। स्व॒स्तये॑। आ॒सु॒री। मा॒या। स्व॒धया॑। कृ॒ता। अ॒सि॒। जुष्ट॑म्। दे॒वेभ्यः॑। इ॒दम्। अ॒स्तु॒। ह॒व्यम्। अरि॑ष्टा। त्वम्। उत्। इ॒हि॒। य॒ज्ञे। अ॒स्मिन् ॥६९ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर पति अपनी स्त्री से क्या-क्या कहे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (पृथिवि) भूमि के समान विद्या के विस्तार को प्राप्त हुई (देवि) विद्या से युक्त पत्नि ! तू ने (स्वस्तये) सुख के लिये (स्वधया) अन्न वा जल से जो (आसुरी) प्राणपोषक पुरुषों की (माया) बुद्धि है, उस को (कृता) सिद्ध की (असि) है। उस से (त्वम्) तू मुझ पति को (दृंहस्व) उन्नति दे (अरिष्टा) हिंसारहित हुई (अस्मिन्) इस (यज्ञे) सङ्ग करने योग्य गृहाश्रम में (उदिहि) प्रकाश को प्राप्त हो। जो तू ने (जुष्टम्) सेवन किया (इदम्) यह (हव्यम्) देने-लेने योग्य पदार्थ है, वह (देवेभ्यः) विद्वानों वा उत्तम गुण होने के लिये (अस्तु) होवे ॥६९ ॥

 

भावार्थभाषाः -जो स्त्री पति को प्राप्त हो के घर में वर्त्तती है, वह अच्छी बुद्धि से सुख के लिये प्रयत्न करे। सब अन्न आदि खाने-पीने के पदार्थ रुचिकारक बनवावे वा बनावे और किसी को दुःख वा किसी के साथ वैरबुद्धि कभी न करे ॥६९ ॥

 

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: सोमाहुतिर्ऋषिः छन्द: विराड्गायत्री स्वर: षड्जः

 

द्र्व॑न्नः स॒र्पिरा॑सुतिः प्र॒त्नो होता॒ वरे॑ण्यः। सह॑सस्पु॒त्रोऽअद्भु॑तः ॥७० ॥

 

पद पाठ

 

द्र्व॑न्नः इति॒ द्रुऽअ॑न्नः। स॒र्पिरा॑सुति॒रिति॑ स॒र्पिःऽआ॑सुतिः। प्र॒त्नः। होता॑। वरे॑ण्यः। सह॑सः। पु॒त्रः। अद्भु॑तः ॥७० ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर वह स्त्री अपने पति से कैसे-कैसे कहे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे पते ! (द्र्वन्नः) वृक्षादि ओषधि ही जिन के अन्न हैं ऐसे (सर्पिरासुतिः) घृत आदि पदार्थों को शोधनेवाले (प्रत्नः) सनातन (होता) देने-लेने हारे (वरेण्यः) स्वीकार करने योग्य (सहसः) बलवान् के (पुत्रः) पुत्र (अद्भुतः) आश्चर्य्य गुण, कर्म और स्वभाव से युक्त आप सुख होने के लिये इस गृहाश्रम के बीच शोभायमान हूजिये ॥७० ॥

 

भावार्थभाषाः -यहाँ पूर्व मन्त्र से (स्वस्तये) (अस्मिन्) (यज्ञे) (उदिहि) इन चार पदों की अनुवृत्ति आती है। कन्या को उचित है कि जिस का पिता ब्रह्मचर्य्य से बलवान् हो और जो पुरुषार्थ से बहुत अन्नादि पदार्थों को इकट्ठा कर सके, उस शुद्ध स्वभाव से युक्त पुरुष के साथ विवाह करके निरन्तर सुख भोगे ॥७० ॥

 

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: विरूप ऋषिः छन्द: विराड्गायत्री स्वर: षड्जः

 

पर॑स्या॒ऽअधि॑ सं॒वतोऽव॑राँ२ऽअ॒भ्यात॑र। यत्रा॒हमस्मि॒ ताँ२ऽअ॑व ॥७१ ॥

 

पद पाठ

 

पर॑स्याः। अधि॑। सं॒वत॒ इति॑ स॒म्ऽवतः॑। अव॑रान्। अ॒भि। आ। त॒र॒। यत्र॑। अ॒हम्। अस्मि॑। तान्। अ॒व॒ ॥७१ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर पति अपनी स्त्री को क्या-क्या उपदेश करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे कन्ये ! जिस (परस्याः) उत्तम कन्या तेरा मैं (अधि) स्वामी हुआ चाहता हूँ सो तू (संवतः) संविभाग को प्राप्त हुए (अवरान्) नीच स्वभावों को (अभ्यातर) उल्लङ्घन और (यत्र) जिस कुल में (अहम्) मैं (अस्मि) हूँ (तान्) उन उत्तम मनुष्यों की (अव) रक्षा कर ॥७१ ॥

 

भावार्थभाषाः -कन्या को चाहिये कि अपने से अधिक बल और विद्यावाले वा बराबर के पति को स्वीकार करे, किन्तु छोटे वा न्यून विद्यावाले को नहीं। जिस के साथ विवाह करे उसके सम्बन्धी और मित्रों को सब काल में प्रसन्न रक्खे ॥७१ ॥

 

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: वारुणिर्ऋषिः छन्द: भुरिगुष्णिक् स्वर: ऋषभः

 

प॒र॒मस्याः॑ परा॒वतो॑ रो॒हिद॑श्वऽइ॒हाग॑हि। पु॒री॒ष्यः᳖ पुरुप्रि॒योऽग्ने॒ त्वं त॑रा॒ मृधः॑ ॥७२ ॥

 

पद पाठ

 

प॒र॒मस्याः॑। प॒रा॒वत॒ इति॑ परा॒ऽवतः॑। रो॒हिद॑श्व॒ इति॑ रो॒हित्ऽअ॑श्वः। इ॒ह। आ। ग॒हि॒। पु॒री॒ष्यः᳖। पु॒रु॒प्रि॒य इति॑ पुरुऽप्रि॒यः। अग्ने॑। त्वम्। त॒र॒। मृधः॑ ॥७२ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर वह स्त्री अपने स्वामी से क्या-क्या कहे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) पावक के समान तेजस्विन् विज्ञानयुक्त पते ! (रोहिदश्वः) अग्नि आदि पदार्थों से युक्त वाहनों से युक्त (पुरीष्यः) पालने में श्रेष्ठ (पुरुप्रियः) बहुत मनुष्यों की प्रीति रखनेवाले (त्वम्) आप (इह) इस गृहाश्रम में (परावतः) दूर देश से (परमस्याः) अति उत्तम गुण, रूप और स्वभाववाली कन्या की कीर्ति सुन के (आगहि) आइये और उस के साथ (मृधः) दूसरों के पदार्थों की आकाङ्क्षा करने हारे शत्रुओं का (तर) तिरस्कार कीजिये ॥७२ ॥

 

भावार्थभाषाः -मनुष्यों को चाहिये कि अपनी कन्या वा पुत्र का समीप देश में विवाह कभी न करें। जितना ही दूर विवाह किया जावे, उतना ही अधिक सुख होवे, निकट करने में कलह ही होता है ॥७२ ॥

 

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: जमदग्निर्ऋषिः छन्द: निचृदनुष्टुप् स्वर: गान्धारः

 

यद॑ग्ने॒ कानि॒ कानि॑ चि॒दा ते॒ दारु॑णि द॒ध्मसि॑। सर्वं॒ तद॑स्तु ते घृ॒तं तज्जु॑षस्व यविष्ठ्य ॥७३ ॥

 

पद पाठ

 

यत्। अ॒ग्ने॒। कानि॑। कानि॑। चि॒त्। आ। ते॒। दारु॑णि। द॒ध्मसि॑। सर्व॑म्। तत्। अ॒स्तु॒। ते॒। घृ॒तम्। तत्। जु॒ष॒स्व॒। य॒वि॒ष्ठ्य॒ ॥७३ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर स्त्रीपुरुषों के प्रति सम्बन्धी लोग क्या-क्या प्रतिज्ञा करें और करावें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (यविष्ठ्य) अत्यन्त युवावस्था को प्राप्त हुए (अग्ने) अग्नि के समान तेजस्वी विद्वान् पुरुष वा स्त्री ! आप जैसे (कानि कानिचित्) कोई-कोई भी वस्तु (ते) तेरी हैं, वे हम लोग (दारुणि) काष्ठ के पात्र में (आ दध्मसि) धारण करें (यत्) जो कुछ हमारी चीज है (तत्) सो (सर्वम्) सब (ते) तेरी (अस्तु) होवे, जो हमारा (घृतम्) घृतादि उत्तम पदार्थ है, (तत्) उस को तू (जुषस्व) सेवन कर। जो कुछ तेरा पदार्थ है, सो सब हमारा हो, जो तेरा घृतादि पदार्थ है, उसको हम ग्रहण करें ॥७३ ॥

 

भावार्थभाषाः -ब्रह्मचारी आदि मनुष्य अपने सब पदार्थ सब के उपकार के लिये रक्खें, किन्तु ईर्ष्या से आपस में कभी भेद न करें, जिस से सब के लिये सब सुखों की वृद्धि होवे और विघ्न न उठें। इसी प्रकार स्त्री-पुरुष भी परस्पर वर्त्तें ॥७३ ॥

 

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: जमदग्निर्ऋषिः छन्द: विराडनुष्टुप् स्वर: गान्धारः

 

यदत्त्यु॑प॒जिह्वि॑का॒ यद्व॒म्रोऽअ॑ति॒सर्प॑ति। सर्वं॒ तद॑स्तु ते घृ॒तं तज्जु॑षस्व यविष्ठ्य ॥७४ ॥

 

पद पाठ

 

यत्। अत्ति॑। उ॒प॒जिह्वि॑केत्यु॑प॒ऽजिह्वि॑का। यत्। व॒म्रः। अ॒ति॒सर्प॒तीत्य॑ति॒ऽसर्प॑ति। सर्व॑म्। तत्। अ॒स्तु॒। ते॒। घृ॒तम्। तत्। जु॒ष॒स्व॒। य॒वि॒ष्ठ्य॒ ॥७४ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (यविष्ठ्य) अत्यन्त युवावस्था को प्राप्त हुए पते ! आप और (उपजिह्विका) जिसकी जिह्वा इन्द्रिय अनुकूल अर्थात् वश में हो ऐसी स्त्री (यत्) जो (अति) भोजन करे (यत्) जो (वम्रः) मुख से बाहर निकाला प्राणवायु (अतिसर्पति) अत्यन्त चलता है (तत्) वह (सर्वम्) सब (ते) तेरा (अस्तु) होवे। जो तेरा (घृतम्) घी आदि उत्तम पदार्थ है (तत्) उस को (जुषस्व) सेवन किया कर ॥७४ ॥

 

भावार्थभाषाः -जिस पुरुष से पुरुष वा स्त्री का व्यवहार सिद्ध होता हो, उस के अनुकूल स्त्री-पुरुष दोनों वर्त्तें। जो स्त्री का पदार्थ है, वह पुरुष का और जो पुरुष का है, वह स्त्री का भी होवे। इस विषय में कभी द्वेष नहीं करना चाहिये, किन्तु आपस में मिलकर आनन्द भोगें ॥७४ ॥

 

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: नाभानेदिष्ठ ऋषिः छन्द: विराट् त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

 

अह॑रह॒रप्र॑यावं॒ भर॒न्तोऽश्वा॑येव॒ तिष्ठ॑ते घा॒सम॑स्मै। रा॒यस्पोषे॑ण॒ समि॒षा मद॒न्तोऽग्ने॒ मा ते॒ प्रति॑वेशा रिषाम ॥७५ ॥

 

पद पाठ

 

अह॑रह॒रित्यहः॑ऽअहः। अप्र॑याव॒मित्यप्र॑ऽयावम्। भर॑न्तः। अश्वा॑ये॒वेत्यश्वा॑यऽइव। तिष्ठ॑ते। घा॒सम्। अ॒स्मै॒। रा॒यः। पोषे॑ण। सम्। इ॒षा। मद॑न्तः। अग्ने॑। मा। ते॒। प्रति॑वेशा॒ इति॒ प्रति॑ऽवेशाः। रि॒षा॒म॒ ॥७५ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर गृहस्थ लोग आपस में कैसे वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥


पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) विद्वन् पुरुष ! (अहरहः) नित्यप्रति (तिष्ठते) वर्त्तमान (अश्वायेव) जैसे घोड़े के लिये घास आदि खाने का पदार्थ आगे धरते हैं, वैसे (अस्मै) इस गृहस्थ पुरुष के लिये (अप्रयावम्) अन्याय से पृथक् गृहाश्रम के योग्य (घासम्) भोगने योग्य पदार्थों को (भरन्तः) धारण करते हुए (रायः) धन की (पोषेण) पुष्टि तथा (इषा) अन्नादि से (संमदन्तः) सम्यक् आनन्द को प्राप्त हुए (प्रतिवेशाः) धर्म्मविषयक प्रवेश के निश्चित हम लोग (ते) तेरे ऐश्वर्य्य को (मा रिषाम) कभी नष्ट न करें ॥७५ ॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। गृहस्थ मनुष्यों को चाहिये कि जैसे घोड़े आदि पशुओं के खाने के लिये जौ, दूध आदि पदार्थों को पशुओं के पालक नित्य इकट्ठे करते हैं, वैसे अपने ऐश्वर्य्य को बढ़ाके सुख देवें और धन के अहङ्कार से किसी के साथ ईर्ष्या कभी न करें, किन्तु दूसरों की वृद्धि सुन वा देख के सदा आनन्द मानें ॥७५ ॥


देवता: अग्निर्देवता ऋषि: नाभानेदिष्ठ ऋषिः छन्द: स्वराडार्षी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः


नाभा॑ पृथि॒व्याः स॑मिधा॒नेऽअ॒ग्नौ रा॒यस्पोषा॑य बृह॒ते ह॑वामहे। 

इ॒र॒म्म॒दं बृ॒हदु॑क्थं॒ यज॑त्रं॒ जेता॑रम॒ग्निं पृत॑नासु सास॒हिम् ॥७६ ॥


पद पाठ

नाभा॑। पृ॒थि॒व्याः। स॒मि॒धा॒न इति॑ सम्ऽइधा॒ने। अ॒ग्नौ। रा॒यः। पोषा॑य। बृ॒ह॒ते। ह॒वा॒म॒हे॒। इ॒र॒म्म॒दमिती॑रम्ऽम॒दम्। बृ॒हदु॑क्थ॒मिति॑ बृ॒हत्ऽउ॑क्थम्। यज॑त्रम्। जेता॑रम्। अ॒ग्निम्। पृत॑नासु। सा॒स॒हिम्। सा॒स॒हिमिति॑ सस॒हिम् ॥७६ ॥


हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर ये मनुष्य लोग आपस में कैसे संवाद करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥


पदार्थान्वयभाषाः -हे गृही लोगो ! जैसे हम लोग (बृहते) बड़े (रायः) लक्ष्मी के (पोषाय) पुष्ट करने हारे पुरुष के लिये (पृथिव्याः) पृथिवी के (नाभा) बीच (समिधाने) अच्छे प्रकार प्रज्वलित हुए (अग्नौ) अग्नि में और (पृतनासु) सेनाओं में (सासहिम्) अत्यन्त सहनशील (इरम्मदम्) अन्न से आनन्दित होनेवाले (बृहदुक्थम्) बड़ी प्रशंसा से युक्त (यजत्रम्) सङ्ग्राम करने योग्य (अग्निम्) बिजुली के समान शीघ्रता करने हारे (जेतारम्) विजयशील सेनापति पुरुष को (हवामहे) बुलाते हैं, वैसे तुम लोग भी इसको बुलाओ ॥७६ ॥


भावार्थभाषाः -पृथिवी का राज्य करते हुए मनुष्यों को चाहिये कि आग्नेय आदि अस्त्रों और तलवार आदि शस्त्रों का सञ्चय कर और पूर्ण बुद्धि तथा शरीरबल से युक्त पुरुष को सेनापति कर के निर्भयता के साथ वर्तें ॥७६ ॥


देवता: अग्निर्देवता ऋषि: नाभानेदिष्ठ ऋषिः छन्द: भुरिगनुष्टुप् स्वर: गान्धारः


याः सेना॑ऽअ॒भीत्व॑रीराव्या॒धिनी॒रुग॑णाऽउ॒त। 

ये स्ते॒ना ये च॒ तस्क॑रा॒स्ताँस्ते॑ऽअ॒ग्नेऽपि॑दधाम्या॒स्ये᳖ ॥७७ ॥


पद पाठ

याः। सेनाः॑। अ॒भीत्व॑री॒रित्य॑भि॒ऽइत्व॑रीः। आ॒व्या॒धिनी॒रित्या॑ऽव्या॒धिनीः॑। उग॑णाः। उ॒त। ये। स्ते॒नाः। ये। च॒। तस्क॑राः। तान्। ते॒। अ॒ग्ने॒। अपि॑। द॒धा॒मि॒। आ॒स्ये᳖ ॥७७ ॥


हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

राजपुरुषों को योग्य है कि अपने प्रयत्न से चोर आदि दुष्टों का वार-वार निवारण करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥


पदार्थान्वयभाषाः -हे सेना और सभा के स्वामी ! जैसे मैं (याः) जो (अभीत्वरीः) सम्मुख होके युद्ध करने हारी (आव्याधिनीः) बहुत रोगों से युक्त वा ताड़ना देने हारी (उगणः) शस्त्रों को लेके विरोध में उद्यत हुई (सेनाः) सेना हैं उन (उत) और (ये) जो (स्तेनाः) सुरङ्ग लगा के दूसरों के पदार्थों को हरनेवाले (च) और (ये) जो (तस्कराः) द्यूत आदि कपट से दूसरों के पदार्थ लेने हारे हैं (तान्) उनको (ते) इस (अग्ने) अग्नि के (आस्ये) जलती हुई लपट में (अपिदधामि) गेरता हूँ, वैसे तू भी इन को इस में धरा कर ॥७७ ॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। धर्मात्मा राजपुरुषों को चाहिये कि जो अपने अनुकूल सेना और प्रजा हों उनका निरन्तर सत्कार करें और जो सेना तथा प्रजा विरोधी हों तथा डाकू, चोर, खोटे वचन बोलने हारे, मिथ्यावादी, व्यभिचारी मनुष्य होवें, उन को अग्नि से जलाने आदि भयंकर दण्डों से शीघ्र ताड़ना देकर वश में करें ॥७७ ॥


देवता: अग्निर्देवता ऋषि: नाभानेदिष्ठ ऋषिः छन्द: भुरिगुष्णिक् स्वर: ऋषभः


दꣳष्ट्रा॑भ्यां म॒लिम्लू॒ञ्जम्भ्यै॒स्तस्क॑राँ२ऽउ॒त। 

हनु॑भ्या॒ स्ते॒नान् भ॑गव॒स्ताँस्त्वं खा॑द॒ सुखा॑दितान् ॥७८ ॥


पद पाठ

दꣳष्ट्रा॑भ्याम्। म॒लिम्लू॑न्। जम्भ्यैः॑। तस्क॑रान्। उ॒त। हनु॑भ्या॒मिति॒ हनु॑ऽभ्याम्। स्ते॒नान्। भ॒ग॒व॒ इति॑ भगऽवः। तान्। त्वम्। खा॒द॒। सुखा॑दिता॒निति॒ सुऽखा॑दितान् ॥७८ ॥


हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उन दुष्टों को किस किस प्रकार ताड़ना करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥


पदार्थान्वयभाषाः -हे (भगवः) ऐश्वर्य्यवाले सभा सेना के स्वामी ! जैसे (त्वम्) आप (जम्भ्यैः) मुख के जीभ आदि अवयवों और (दंष्ट्राभ्याम्) तीक्ष्ण दाँतों से जिन (मलिम्लून्) मलिन आचरणवाले सिंह आदि को और (हनुभ्याम्) मसूड़ों से (तस्करान्) चोरों के समान वर्त्तमान (सुखादितान्) अन्याय से दूसरों के पदार्थों को भोगने और (स्तेनान्) रात में भीति आदि फोड़-तोड़ के पराया माल मारने हारे मनुष्यों को (खाद) जड़ से नष्ट करें, वैसे (तान्) उन को हम लोग (उत) भी नष्ट करें ॥७८ ॥


भावार्थभाषाः -राजपुरुषों को चाहिये कि जो गौ आदि बड़े उपकार के पशुओं को मारनेवाले सिंह आदि वा मनुष्य हों, उन तथा जो चोर आदि मनुष्य हैं, उन को अनेक प्रकार के बन्धनों से बाँध ताड़ना दे नष्ट कर वश में लावें ॥७८ ॥


देवता: सेनापतिर्देवता ऋषि: नाभानेदिष्ठ ऋषिः छन्द: निचृदनुष्टुप् स्वर: गान्धारः


ये जने॑षु म॒लिम्ल॑व स्ते॒नास॒स्तस्क॑रा॒ वने॑। 

ये कक्षे॑ष्वघा॒यव॒स्ताँस्ते॑ दधामि॒ जम्भ॑योः ॥७९ ॥


पद पाठ

ये। जने॑षु। म॒लिम्ल॑वः। स्ते॒नासः॑। तस्क॑राः। वने॑। ये। कक्षे॑षु। अ॒घा॒यवः॑। अ॒घ॒यव॒ इत्य॑घ॒ऽयवः॑। तान्। ते॒। द॒धा॒मि॒। जम्भ॑योः ॥७९ ॥


हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर ये राजपुरुष किस-किस का निवारण करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥


पदार्थान्वयभाषाः -हे सभापते ! मैं सेनाध्यक्ष (ये) जो (जनेषु) मनुष्यों में (मलिम्लवः) मलिन स्वभाव से आते-जाते (स्तेनासः) गुप्त चोर जो (वने) वन में (तस्कराः) प्रसिद्ध चोर लुटेरे और (ये) जो (कक्षेषु) कटरी आदि में (अघायवः) पाप करते हुए जीवन की इच्छा करनेवाले हैं (तान्) उन को (ते) आप के (जम्भयोः) फैलाये मुख में ग्रास के समान (दधामि) धरता हूँ ॥७९ ॥


भावार्थभाषाः -सेनापति आदि राजपुरुषों का यही मुख्य कर्त्तव्य है कि जो ग्राम और वनों में प्रसिद्ध चोर तथा लुटेरे आदि पापी पुरुष हैं, उन को राजा के आधीन करें ॥७९ ॥


देवता: अध्यापकोपदेशकौ देवते ऋषि: नाभानेदिष्ठ ऋषिः छन्द: अनुष्टुप् स्वर: गान्धारः


योऽअ॒स्मभ्य॑मराती॒याद्यश्च॑ नो॒ द्वे॑षते॒ जनः॑। 

निन्दा॒द्योऽअ॒स्मान् धिप्सा॑च्च॒ सर्वं॒ तं भ॑स्म॒सा कु॑रु ॥८० ॥


पद पाठ

यः। अ॒स्मभ्य॑म्। अ॒रा॒ती॒यात्। अ॒रा॒ति॒यादित्य॑राति॒ऽयात्। यः। च॒। नः॒। द्वेष॑ते। जनः॑। निन्दा॑त्। यः। अ॒स्मान्। धिप्सा॑त्। च॒। सर्व॑म्। तम्। भ॒स्म॒सा। कु॒रु॒ ॥८० ॥


हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥


पदार्थान्वयभाषाः -हे सभा और सेना के स्वामिन् ! आप (यः) जो (जनः) मनुष्य (अस्मभ्यम्) हम धर्मात्माओं के लिये (अरातीयात्) शत्रुता करे (यः) जो (नः) हमारे साथ (द्वेषते) दुष्टता करे (च) और हमारी (निन्दात्) निन्दा करे (यः) जो (अस्मान्) हम को (धिप्सात्) दम्भ दिखावे (च) और हमारे साथ छल करे (तम्) उस (सर्वम्) सब को (भस्मसा) जला के सम्पूर्ण भस्म (कुरु) कीजिये ॥८० ॥


भावार्थभाषाः -अध्यापक, उपदेशक और राजपुरुषों को चाहिये कि पढ़ाने, शिक्षा, उपदेश और दण्ड से निरन्तर विरोध का विनाश करें ॥८० ॥


देवता: पुरोहितयजमानौ देवते ऋषि: नाभानेदिष्ठ ऋषिः छन्द: निचृदार्षी पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः


सꣳशि॑तं मे॒ ब्रह्म॒ सꣳशि॑तं वी॒र्यं᳕ बल॑म्। 

सꣳशि॑तं क्ष॒त्रं जि॒ष्णु यस्या॒हमस्मि॑ पु॒रोहि॑तः ॥८१ ॥

 

पद पाठ

सꣳशि॑त॒मिति॒ सम्ऽशि॑तम्। मे॒। ब्रह्म॑। सꣳशि॑त॒मिति॒ सम्ऽशि॑तम्। वी॒र्य᳕म्। बल॑म्। सꣳशि॑त॒मिति॒ सम्ऽशि॑तम्। क्ष॒त्रम्। जि॒ष्णु। यस्य॑। अ॒हम्। अस्मि॑। पु॒रोहि॑त॒ इति॑ पु॒रःऽहि॑तः ॥८१ ॥


हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब पुरोहित यजमान आदि से किस-किस पदार्थ की इच्छा करे और क्या-क्या करे ॥


पदार्थान्वयभाषाः -(अहम्) मैं (यस्य) जिस यजमान पुरुष का (पुरोहितः) प्रथम धारण करने हारा (अस्मि) हूँ, उसका और (मे) मेरा (संशितम्) प्रशंसा के योग्य (ब्रह्म) वेद का विज्ञान और उस यजमान का (संशितम्) प्रशंसा के योग्य (वीर्य्यम्) पराक्रम प्रशंसित (बलम्) बल (संशितम्) और प्रशंसा के योग्य (जिष्णु) जय का स्वभाववाला (क्षत्रम्) क्षत्रियकुल होवे ॥८१ ॥


भावार्थभाषाः -जो जिसका पुरोहित और जो जिस का यजमान होवे, दोनों आपस में जिस विद्या, योगबल और धर्माचरण से आत्मा की उन्नति और ब्रह्मचर्य्य, जितेन्द्रियता तथा आरोग्यता से शरीर का बल बढ़े, वही कर्म निरन्तर किया करें ॥८१ ॥


देवता: सभापतिर्यजमानो देवता ऋषि: नाभानेदिष्ठ ऋषिः छन्द: विराडनुष्टुप् स्वर: गान्धारः


उदे॑षां बा॒हूऽअ॑तिर॒मुद्वर्चो॒ऽअथो॒ बल॑म्। क्षि॒णोमि॒ ब्रह्म॑णा॒मित्रा॒नुन्न॑यामि॒ स्वाँ२अ॒हम् ॥८२ ॥


पद पाठ

उत्। ए॒षा॒म्। बा॒हूऽइति॑ बा॒हू। अ॒ति॒र॒म्। उत्। वर्चः॑। अथो॒ऽइत्यथो॑। बल॑म्। क्षि॒णोमि॑। ब्रह्म॑णा। अ॒मित्रा॑न्। उत्। न॒या॒मि॒। स्वान्। अ॒हम् ॥८२ ॥


हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर यजमान पुरोहित के साथ कैसे वर्त्ते, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥


पदार्थान्वयभाषाः -(अहम्) मैं यजमान वा पुरोहित (ब्रह्मणा) वेद और ईश्वर के ज्ञान देने से (एषाम्) इन पूर्वोक्त चोर आदि दुष्टों के (बाहू) बल और पराक्रम को (उदतिरम्) अच्छे प्रकार उल्लङ्घन करूँ (वर्चः) तेज तथा (बलम्) सामर्थ्य को और (अमित्रान्) शत्रुओं को (उत्क्षिणोमि) मारता हूँ (अथो) इस के पश्चात् (स्वान्) अपने मित्रों के तेज और सामर्थ्य को (उन्नयामि) वृद्धि के साथ प्राप्त करूँ ॥८२ ॥


भावार्थभाषाः -राजा आदि यजमान तथा पुरोहितों को चाहिये कि पापियों के सब पदार्थों का नाश और धर्मात्माओं के सब पदार्थों की वृद्धि सदैव सब प्रकार से किया करें ॥८२ ॥


देवता: यजमानपुरोहितौ देवते ऋषि: नाभानेदिष्ठ ऋषिः छन्द: उपरिष्टाद् बृहती स्वर: मध्यमः


अन्न॑प॒तेऽन्न॑स्य नो देह्यनमी॒वस्य॑ शु॒ष्मिणः॑। प्रप्र॑ दा॒तारं॑ तारिष॒ऽऊर्जं॑ नो धेहि द्वि॒पदे॒ चतु॑ष्पदे ॥८३ ॥

 

पद पाठ


अन्न॑पत॒ इत्यन्न॑ऽपते। अन्न॑स्य। नः॒। दे॒हि॒। अ॒न॒मी॒वस्य॑। शु॒ष्मिणः॑। प्र॒प्रेति॒ प्रऽप्र॑। दा॒तार॑म्। ता॒रि॒षः॒। ऊर्ज॑म्। नः॒। धे॒हि॒। द्वि॒पद॒ इति॑ द्वि॒ऽपदे॑। चतु॑ष्पदे। चतुः॑ऽपद॒ इति॒ चतुः॑ऽपदे ॥८३ ॥


हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब मनुष्यों को इस संसार में कैसे-कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥


पदार्थान्वयभाषाः -हे (अन्नपते) ओषधि अन्नों के पालन करने हारे यजमान वा पुरोहित ! आप (नः) हमारे लिये (अनमीवस्य) रोगों के नाश से सुख को बढ़ाने (शुष्मिणः) बहुत बलकारी (अन्नस्य) अन्न को (प्रप्रदेहि) अतिप्रकर्ष के साथ दीजिये और इस अन्न के (दातारम्) देने हारे को (तारिषः) तृप्त कर तथा (नः) हमारे (द्विपदे) दो पगवाले मनुष्यादि तथा (चतुष्पदे) चार पगवाले गौ आदि पशुओं के लिये (ऊर्जम्) पराक्रम को (धेहि) धारण कर ॥८३ ॥


भावार्थभाषाः -मनुष्यों को चाहिये कि सदैव बलकारी आरोग्य अन्न आप सेवें, और दूसरों को देवें। मनुष्य तथा पशुओं के सुख और बल बढ़ावें, जिससे ईश्वर की सृष्टि के क्रमाऽनुकूल आचरण से सब के सुखों की सदा उन्नति होवे ॥८३ ॥ इस अध्याय में गृहस्थ राजा के पुरोहित सभा और सेना के अध्यक्ष और प्रजा के मनुष्यों को करने योग्य कर्म आदि के वर्णन से इस अध्याय में कहे अर्थ की पूर्व अध्याय के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥

 

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