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यजुर्वेद अध्याय 9, - हिन्दी भाष्य महर्षि स्वामी दयानन्द

 



यजुर्वेद अध्याय 9, - हिन्दी भाष्य महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

देवता: सविता देवता ऋषि: इन्द्राबृहस्पती ऋषी छन्द: स्वराड् आर्षी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः


देव॑ सवितः॒ प्रसु॑व य॒ज्ञं प्रसु॑व य॒ज्ञप॑तिं॑ भगा॑य। दि॒व्यो ग॑न्ध॒र्वः के॑त॒पूः केतं॑ नः पुनातु वा॒चस्पति॒र्वाजं॑ नः स्वदतु॒ स्वाहा॑ ॥१॥

 

पद पाठ

देव॑। स॒वि॒त॒रिति॑ सवितः। प्र। सु॒व॒। य॒ज्ञम्। प्र। सु॒व॒। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिम्। भगा॑य। दि॒व्यः। ग॒न्ध॒र्वः। के॒त॒पूरिति॑ केत॒ऽपूः। केत॑म्। नः॒। पु॒ना॒तु॒। वा॒चः। पतिः॑। वाज॑म्। नः॒। स्व॒द॒तु॒। स्वाहा॑ ॥१॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती


विद्वान् लोग चक्रवर्ती राजा को कैसा-कैसा उपदेश करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (देव) दिव्यगुणयुक्त (सवितः) सम्पूर्ण ऐश्वर्य्यवाले राजन् ! आप (भगाय) सब ऐश्वर्य्य की प्राप्ति के लिये (स्वाहा) वेदवाणी से (यज्ञम्) सब को सुख देनेवाले राजधर्म का (प्र) (सुव) प्रचार और (यज्ञपतिम्) राजधर्म के रक्षक पुरुष को (प्र) (सुव) प्रेरणा कीजिये, जिससे (दिव्यः) प्रकाशमान दिव्य गुणों में स्थित (गन्धर्वः) पृथिवी को धारण और (केतपूः) बुद्धि को शुद्ध करनेवाला (वाचस्पतिः) पढ़ने-पढ़ाने और उपदेश से विद्या का रक्षक सभापति राजपुरुष है, वह (नः) हमारी (केतम्) बुद्धि को (पुनातु) शुद्ध करे और हमारे (वाजम्) अन्न को सत्य वाणी से (स्वदतु) अच्छे प्रकार भोगे ॥१॥


भावार्थभाषाः -न्याय से प्रजा का पालन और विद्या का दान करना ही राजपुरुषों का यज्ञ करना है ॥१॥

 

देवता: इन्द्रो देवता ऋषि: बृहस्पतिर्ऋषिः छन्द: आर्षी पङ्क्तिः, विकृतिः स्वर: पञ्चमः, मध्यमः


ध्रु॒व॒सदं॑ त्वा नृ॒षदं॑ मनः॒सद॑मुपया॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा॒ जुष्टं॑ गृह्णाम्ये॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा॒ जुष्ट॑तमम्। अ॒प्सुषदं॑ त्वा घृत॒सदं॑ व्योम॒सद॑मुपया॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा॒ जुष्टं॑ गृह्णाम्ये॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा॒ जुष्ट॑तमम्। पृ॒थि॒वि॒सदं॑ त्वाऽन्तरिक्ष॒सदं॑ दिवि॒सदं॑ देव॒सदं॑ नाक॒सद॑मुपया॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा॒ जुष्टं॑ गृह्णाम्ये॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा॒ जुष्ट॑तमम् ॥२॥

 

पद पाठ

ध्रु॒व॒सद॒मिति॑ ध्रु॒व॒ऽसद॑म्। त्वा॒। नृ॒षद॑म्। नृ॒सद॒मिति॑ नृ॒ऽसद॑म्। म॒नः॒सदमिति॑ मनःऽसद॑म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत इत्यु॑पया॒मगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। जुष्ट॑म्। गृ॒ह्णा॒मि॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। जुष्ट॑तम॒मिति॒ जुष्ट॑ऽतमम्। अ॒प्सु॒षद॑म्। अ॒प्सु॒सद॒मित्य॑प्सु॒ऽसद॑म्। त्वा॒। घृ॒त॒सद॒मिति॑ घृत॒ऽसद॑म्। व्यो॒म॒सद॒मिति॑ व्योम॒ऽसद॑म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। जुष्ट॑म्। गृ॒ह्णा॒मि॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। जुष्ट॑तम॒मिति॒ जुष्ट॑ऽतमम्। पृ॒थि॒वि॒सद॒मिति॑ पृथिविऽसद॑म्। त्वा॒। अ॒न्त॒रि॒क्ष॒सद॒मित्यन्त॑रिक्ष॒ऽसद॑म्। दि॒वि॒सद॒मिति॑ दिवि॒ऽसद॑म्। दे॒वसद॒मिति॑ देव॒ऽसद॑म्। ना॒क॒सद॒मिति॑ नाक॒ऽसद॑म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मगृही॑तः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। जुष्ट॑म्। गृ॒ह्णा॒मि॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। जुष्ट॑तम॒मिति॒ जुष्ट॑ऽतमम् ॥२॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य लोग किस प्रकार के पुरुष को राज्याऽधिकार में स्वीकार करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे चक्रवर्ति राजन् ! मैं (इन्द्राय) परमैश्वर्ययुक्त परमात्मा के लिये जो आप (उपयामगृहीतः) योगविद्या के प्रसिद्ध अङ्ग यम के सेवनेवाले पुरुषों से स्वीकार किये (असि) हो। उस (ध्रुवसदम्) निश्चल विद्या विनय और योगधर्मों में स्थित (नृषदम्) नायक पुरुषों में अवस्थित (मनःसदम्) विज्ञान में स्थिर (जुष्टम्) प्रीतियुक्त (त्वा) आपको (गृह्णामि) स्वीकार करता हूँ। जिस (ते) आप का (एषः) यह (योनिः) सुखनिमित्त है, उस (जुष्टतमम्) अत्यन्त सेवनीय (त्वा) आपका (गृह्णामि) धारण करता हूँ। हे राजन् ! मैं (इन्द्राय) ऐश्वर्य्य धारण के लिये जो आप (उपयामगृहीतः) प्रजा और राजपुरुषों ने स्वीकार किये (असि) हो। उस (अप्सुसदम्) जलों के बीच चलते हुए (घृतसदम्) घी आदि पदार्थों को प्राप्त हुए और (व्योमसदम्) विमानादि यानों से आकाश में चलते हुए (जुष्टम्) सब के प्रिय (त्वा) आपका (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ। हे सब की रक्षा करनेहारे सभाध्यक्ष राजन् ! जिस (ते) आप का (एषः) यह (योनिः) सुखदायक घर है, उस (जुष्टतमम्) अति प्रसन्न (त्वा) आपको (इन्द्राय) दुष्ट शत्रुओं के मारने के लिये (गृह्णामि) स्वीकार करता हूँ। हे सब भूमि में प्रसिद्ध राजन् ! मैं (इन्द्राय) विद्या योग और मोक्षरूप ऐश्वर्य्य की प्राप्ति के लिये जो आप (उपयामगृहीतः) साधन-उपसाधनों से युक्त (असि) हो, उस (पृथिविसदम्) पृथिवी में भ्रमण करते हुए (अन्तरिक्षसदम्) आकाश में चलनेवाले (दिविसदम्) न्याय के प्रकाश में नियुक्त (देवसदम्) धर्मात्मा और विद्वानों के मध्य में अवस्थित (नाकसदम्) सब दुःखों से रहित परमेश्वर और धर्म्म में स्थिर (जुष्टम्) सेवनीय (त्वा) आपको (गृह्णामि) स्वीकार करता हूँ। हे सब सुख देने और प्रजापालन करनेहारे राजपुरुष ! जिस (ते) तेरा (एषः) यह (योनिः) रहने का स्थान है, उस (जुष्टतमम्) अत्यन्त प्रिय (त्वा) आपको (इन्द्राय) समग्र सुख देने के लिये (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ ॥२॥


भावार्थभाषाः -हे राजप्रजाजनो ! जैसे सर्वव्यापक परमेश्वर सम्पूर्ण ऐश्वर्य्य भोगने के लिये जगत् रच के सब के लिये सुख देता, वैसा ही आचरण तुम लोग भी करो कि जिस से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष फलों की प्राप्ति सुगम होवे ॥२॥

 

देवता: सम्राड् देवता ऋषि: तापस ऋषिः छन्द: निचृद् अति शक्वरी स्वर: पञ्चमः


अ॒पाꣳ रस॒मुद्व॑यस॒ꣳ सूर्ये॒ सन्त॑ꣳ स॒माहि॑तम्। अ॒पाꣳ रस॑स्य॒ यो रस॒स्तं वो॑ गृह्णाम्युत्त॒ममु॑पया॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा॒ जुष्टं॑ गृह्णाम्ये॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा॒ जुष्ट॑तमम् ॥३॥

 

पद पाठ

अ॒पाम्। रस॑म्। उद्व॑यस॒मित्युत्ऽवय॑सम्। सूर्ये॑। सन्त॑म्। स॒माहि॑त॒मिति॑ स॒म्ऽआहि॑तम्। अ॒पाम्। रस॑स्य। यः। रसः॑। तम्। वः॒। गृ॒ह्णा॒मि॒। उ॒त्त॒ममित्यु॑त्ऽत॒मम्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। जुष्ट॑म्। गृ॒ह्णा॒मि॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा। जुष्ट॑तम॒मिति॒ जुष्ट॑ऽतमम् ॥३॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर प्रजाजनों को कैसा पुरुष राजा मानना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे राजन् ! मैं (इन्द्राय) ऐश्वर्य्यप्राप्ति के लिये (वः) तुम्हारे लिये (सूर्य्ये) सूर्य के प्रकाश में (सन्तम्) वर्त्तमान (समाहितम्) सर्व प्रकार चारों ओर धारण किये (उद्वयसम्) उत्कृष्ट जीवन के हेतु (अपाम्) जलों के (रसम्) सार का ग्रहण करता हूँ, (यः) जो (अपाम्) जलों के (रसस्य) सार का (रसः) वीर्य धातु है, (तम्) उस (उत्तमम्) कल्याणकारक रस का तुम्हारे लिये (गृह्णामि) स्वीकार करता हूँ, जो आप (उपयामगृहीतः) साधन तथा उपसाधनों से स्वीकार किये गये (असि) हो, उस (इन्द्राय) परमेश्वर की प्राप्ति के लिये (जुष्टम्) प्रीतिपूर्वक वर्त्तनेवाले आप का (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ, जिस (ते) आप का (एषः) यह (योनिः) घर है, उस (जुष्टतमम्) अत्यन्त सेवनीय (त्वा) आप को (इन्द्राय) परम सुख होने के लिये (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ ॥३॥


भावार्थभाषाः -राजा को चाहिये कि अपने नौकर प्रजापुरुषों को शरीर और आत्मा के बल बढ़ाने के लिये ब्रह्मचर्य, ओषधि, विद्या और योगाभ्यास के सेवन में नियुक्त करे, जिससे सब मनुष्य रोगरहित होकर पुरुषार्थी होवें ॥३॥

 

देवता: राजधर्मराजादयो देवताः ऋषि: बृहस्पतिर्ऋषिः छन्द: भुरिक् कृतिः स्वर: निषादः


ग्रहा॑ऽऊर्जाहुतयो॒ व्यन्तो॒ विप्रा॑य म॒तिम्। तेषां॒ विशि॑प्रियाणां वो॒ऽहमिष॒मूर्ज॒ꣳ सम॑ग्रभमुपया॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा॒ जुष्टं॑ गृह्णाम्ये॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा॒ जुष्ट॑तमम्। स॒म्पृचौ॑ स्थः॒ सं मा॑ भ॒द्रेण॑ पृङ्क्तं वि॒पृचौ॑ स्थो॒ वि मा॑ पा॒प्मना॑ पृङ्क्तम् ॥४॥

 

पद पाठ

ग्रहाः॑। ऊ॒र्जा॒हु॒त॒य॒ इत्यू॑र्जाऽआहुतयः। व्यन्तः॑। विप्रा॑य। म॒तिम्। तेषा॑म्। विशि॑प्रियाणा॒मिति॒ विऽशि॑प्रियाणाम्। वः॒। अ॒हम्। इष॑म्। ऊर्ज॑म्। सम्। अ॒ग्र॒भ॒म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। जुष्ट॑म्। गृ॒ह्णा॒मि॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। जुष्ट॑तम॒मिति॒ जुष्ट॑ऽतमम्। स॒म्पृचा॒विति॑ स॒म्ऽपृचौ॑। स्थः॒। सम्। मा॒। भ॒द्रेण॑। पृ॒ङ्क्त॒म्। वि॒पृचा॒विति॑ वि॒ऽपृचौ॑। स्थः॒। वि। मा॒। पा॒प्मना॑। पृ॒ङ्क्त॒म् ॥४॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को चाहिये कि आप्त विद्वान् की अच्छे प्रकार परीक्षा कर के सङ्ग करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे राजपुरुष ! जैसे (अहम्) मैं गृहस्थजन (विप्राय) बुद्धिमान् पुरुष के सुख के लिये (मतिम्) बुद्धि को देता हूँ, वैसे तू भी किया कर (व्यन्तः) जो सब विद्याओं में व्याप्त (ऊर्जाहुतयः) बल और जीवन बढ़ने के लिये दान देने और (ग्रहाः) ग्रहण करनेहारे गृहस्थ लोग हैं, जैसे (तेषाम्) उन (विशिप्रियाणाम्) अनेक प्रकार के धर्मयुक्त कर्मों में मुख और नासिकावालों के (मतिम्) बुद्धि (इषम्) अन्न आदि और (ऊर्जम्) पराक्रम को (समग्रभम्) ग्रहण कर चुका हूँ, वैसे तुम भी ग्रहण करो। हे विद्वान् मनुष्य ! जैसे तू (उपयामगृहीतः) राज्य और गृहाश्रम की सामग्री के सहित वर्त्तमान (असि) है, वैसे मैं भी होऊँ। जैसे मैं (इन्द्राय) उत्तम ऐश्वर्य्य के लिये (जुष्टम्) प्रसन्न (त्वा) आप को (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ, वैसे तू भी मुझे ग्रहण कर, जिस (ते) तेरा (एषः) यह (योनिः) घर है, उस (इन्द्राय) पशुओं को नष्ट करने के लिये (जुष्टतमम्) अत्यन्त प्रसन्न (त्वा) तुझे मैं जैसे वह और तुम दोनों युक्त कर्म्म में (सम्पृचौ) संयुक्त (स्थः) हो, वैसे (भद्रेण) सेवने योग्य सुखदायक ऐश्वर्य्य से (मा) मुझ को (संपृङ्क्तम्) संयुक्त करो, जैसे तुम (पाप्मना) अधर्मी पुरुष से (विपृचौ) पृथक् (स्थः) हो, इससे (मा) मुझ को भी (विपृङ्क्तम्) पृथक् करो ॥४॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजा और और प्रजा में गृहस्थ लोग बुद्धिमान् सन्तान वा विद्यार्थी के लिये विद्या होने की बुद्धि देते, दुष्ट आचरणों से पृथक् रखते, कल्याणकारक कर्मों को सेवन कराते और दुष्टसङ्ग छुड़ाके सत्सङ्ग कराते हैं, वे ही इस लोक और परलोक के सुख को प्राप्त होते हैं, इनसे विपरीत नहीं ॥४॥

 

देवता: सविता देवता ऋषि: बृहस्पतिर्ऋषिः छन्द: भुरिग् अष्टिः स्वर: मध्यमः


इन्द्र॑स्य॒ वज्रो॑ऽसि वाज॒सास्त्वया॒यं वाज॑ꣳ सेत्। वाज॑स्य॒ नु प्र॑स॒वे मा॒तरं॑ म॒हीमदि॑तिं॒ नाम॒ वच॑सा करामहे। यस्या॑मि॒दं विश्वं॒ भुव॑नमावि॒वेश॒ तस्यां॑ नो दे॒वः स॑वि॒ता धर्म॑ साविषत् ॥५॥

 

पद पाठ

इन्द्र॑स्य। वज्रः॑। अ॒सि॒। वा॒ज॒सा इति॑ वाज॒ऽसाः। त्वया॑। अ॒यम्। वाज॑म्। से॒त्। वाज॑स्य। नु। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। मा॒तर॑म्। म॒हीम्। अदि॑तिम्। नाम॑। वचसा॑। क॒रा॒म॒हे॒। यस्या॑म्। इ॒दम्। विश्व॑म्। भुव॑नम्। आ॒वि॒वेशत्या॑ऽवि॒वेश॑। तस्या॑म्। नः॒। दे॒वः। स॒वि॒ता। धर्म॑। सा॒वि॒ष॒त् ॥५॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब किसलिये सेनापति की प्रार्थना यहाँ करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे वीर पुरुष (यस्याम्) जिसमें (त्वम्) आप (इन्द्रस्य) परम ऐश्वर्य्ययुक्त राजा के (वाजसाः) सङ्ग्रामों का विभाग करनेवाले (वज्रः) वज्र के समान शत्रुओं को काटनेवाले (असि) हो, उस (त्वया) रक्षक आप के साथ (अयम्) यह पुरुष (वाजम्) सङ्ग्राम का (सेत्) प्रबन्ध करे, जहाँ (इदम्) प्रत्यक्ष वर्त्तमान (विश्वम्) सब (भुवनम्) जगत् (आविवेश) प्रविष्ट है और जहाँ (देवः) सब का प्रकाशक (सविता) सब जगत् का उत्पादक परमात्मा (नः) हमारा (धर्म्म) धारण (साविषत्) करे, (तस्याम्) उसमें (नाम) प्रसिद्ध (वाजस्य) सङ्ग्राम के (प्रसवे) ऐश्वर्य्य में (मातरम्) मान्य देनेहारी (अदितिम्) अखण्डित (महीम्) पृथिवी को (वचसा) वेदोक्त न्याय के उपदेशरूप वचन से हम लोग (नु) शीघ्र (करामहे) ग्रहण करें ॥५॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो यह भूमि प्राणियों के लिये सौभाग्य के उत्पन्न, माता के समान रक्षा और सब को धारण करनेहारी प्रसिद्ध है, उसका विद्या, न्याय और धर्म्म के योग से राज्य के लिये तुम लोग सेवन करो ॥५॥

 

देवता: अश्वो देवता ऋषि: बृहस्पतिर्ऋषिः छन्द: भुरिग् जगती स्वर: निषादः


अ॒प्स्व᳕न्तर॒मृत॑म॒प्सु भे॑ष॒जम॒पामु॒त प्रश॑स्ति॒ष्वश्वा॒ भव॑त वा॒जिनः॑। देवी॑रापो॒ यो व॑ऽऊ॒र्मिः प्रतू॑र्तिः क॒कुन्मा॑न् वाज॒सास्तेना॒यं वाज॑ꣳ सेत् ॥६॥

 

पद पाठ

अ॒प्स्वित्य॒प्ऽसु। अ॒न्तः। अ॒मृत॑म्। अ॒प्स्वित्य॒प्ऽसु। भे॒ष॒जम्। अ॒पाम्। उ॒त। प्रश॑स्ति॒ष्विति॒ प्रऽश॑स्तिषु। अश्वाः॑। भव॑त। वा॒जिनः॑। देवीः॑। आ॒पः॒। यः। वः॒। ऊ॒र्मिः। प्रतू॑र्त्तिरिति॒ प्रऽतू॑र्त्तिः। क॒कुन्मा॒निति॑ क॒कुत्ऽमा॑न्। वा॒ज॒सा इति॑ वाज॒ऽसाः। तेन॑। अ॒यम्। वाज॑म्। से॒त् ॥६॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर स्त्री-पुरुषों को कैसा होना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (देवीः) दिव्यगुणवाली (आपः) अन्तरिक्ष में व्यापक स्त्री-पुरुष लोगो ! तुम (यः) जो (वः) तुम्हारा (समुद्रस्य) सागर के (ककुन्मान्) प्रशस्त चञ्चल गुणों से युक्त (वाजसाः) सङ्ग्रामों के सेवने के हेतु (प्रतूर्त्तिः) अतिशीघ्र चलनेवाला समुद्र के (ऊर्मिः) आच्छादन करनेहारे तरङ्गों के समान पराक्रम और जो (अप्सु) प्राण के (अन्तः) मध्य में (अमृतम्) मरणधर्मरहित कारण और जो (अप्सु) जलों के मध्य अल्पमृत्यु से छुड़ानेवाला (भेषजम्) रोगनिवारक ओषध के समान गुण है, जिससे (अयम्) यह सेनापति (वाजम्) सङ्ग्राम और अन्न का प्रबन्ध करे (तेन) उससे (अपाम्) उक्त प्राणों और जलों की (प्रशस्तिषु) गुण प्रशंसाओं में (वाजिनः) प्रशंसित बल और पराक्रमवाले (अश्वाः) कुलीन घोड़ों के समान वेगवाले (भवत) हूजिये ॥६॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। स्त्रियों को चाहिये कि समुद्र के समान गम्भीर, जल के समान शान्तस्वभाव, वीरपुत्रों को उत्पन्न करने, नित्य ओषधियों को सेवने और जलादि पदार्थों को ठीक-ठीक जाननेवाली होवें। इसी प्रकार जो पुरुष वायु और जल के गुणों के वेत्ता पुरुषों से संयुक्त होते हैं, वे रोगरहित होकर विजयकारी होते हैं ॥६॥

 

देवता: सेनापतिर्देवता ऋषि: बृहस्पतिर्ऋषिः छन्द: उष्णिक् स्वर: ऋषभः


वातो॑ वा॒ मनो॑ वा गन्ध॒र्वाः स॒प्तवि॑ꣳशतिः। तेऽअग्रेऽश्व॑मयुञ्जँ॒स्तेऽअ॑स्मिन् ज॒वमाद॑धुः ॥७॥

 

पद पाठ

वातः॑। वा॒। मनः॑। वा॒। ग॒न्ध॒र्वाः। स॒प्तवि॑ꣳशति॒रिति॑ स॒प्तऽवि॑ꣳशतिः। ते। अग्रे॑। अश्व॑म्। अ॒यु॒ञ्ज॒न्। ते। अ॒स्मि॒न्। ज॒वम्। आ। अ॒द॒धुः॒ ॥७॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्य लोग किस प्रकार क्या करके वेगवाले हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -जो विद्वान् लोग (वातः) वायु के (वा) समान (मनः) मन के (वा) समतुल्य और जैसे (सप्तविंशतिः) सत्ताईस (गन्धर्वाः) वायु, इन्द्रिय और भूतों के धारण करनेहारे (अस्मिन्) इस जगत् में (अग्रे) पहिले (अश्वम्) व्यापकता और वेगादि गुणों को (अयुञ्जन्) संयुक्त करते हैं, (ते) वे ही (जवम्) उत्तम वेग को (आदधुः) धारण करते हैं ॥७॥


भावार्थभाषाः -जो एक समष्टि वायु; प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनञ्जय दश; बारहवाँ मन तथा इस के साथ श्रोत्र आदि दश इन्द्रिय और पाँच सूक्ष्मभूत ये सब २७ सत्ताईस पदार्थ ईश्वर ने इस जगत् में पहिले रचे हैं, जो पुरुष इनके गुण, कर्म और स्वभाव को ठीक-ठीक जान और यथायोग्य कार्य्यों में संयुक्त करके अपनी-अपनी ही स्त्री के साथ क्रीड़ा करते हैं, वे सम्पूर्ण ऐश्वर्य्य को संचित कर राज्य के योग्य होते हैं ॥७॥

 

देवता: प्रजापतिर्देवता ऋषि: बृहस्पतिर्ऋषिः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः


वात॑रꣳहा भव वाजिन् यु॒ज्यमा॑न॒ऽइन्द्र॑स्येव॒ दक्षि॑णः श्रि॒यैधि॑। यु॒ञ्जन्तु॑ त्वा म॒रुतो॑ वि॒श्ववे॑दस॒ऽआ ते॒ त्वष्टा॑ प॒त्सु ज॒वं द॑धातु ॥८॥

 

पद पाठ

वात॑रꣳहा॒ इति वात॑ऽरꣳहाः। भ॒व॒। वाजि॑न्। युज्यमा॑नः। इन्द्र॑स्ये॒वेतीन्द्र॑स्यऽइव। दक्षि॑णः। श्रि॒या। ए॒धि॒। यु॒ञ्जन्तु॑। त्वा॒। म॒रुतः॑। वि॒श्ववे॑दस॒ इति॑ वि॒श्वऽवे॑दसः। आ। ते॒। त्वष्टा॑। प॒त्स्विति॑ प॒त्ऽसु। ज॒वम्। द॒धा॒तु॒ ॥८॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

उस राजा को विद्वान् लोग क्या-क्या उपदेश करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (वाजिन्) शास्त्रोक्त क्रियाकुशलता के प्रशस्त बोध से युक्त राजन् ! जिस (त्वा) आप को (विश्ववेदसः) समस्त विद्याओं के जाननेहारे (मरुतः) विद्वान् लोग राज्य और शिल्पविद्याओं के कार्य्यों में (युञ्जन्तु) युक्त और (त्वष्टा) वेगादि गुणविद्या का जाननेहारा मनुष्य (ते) आपके (पत्सु) पगों में (जवम्) वेग को (आदधातु) अच्छे प्रकार धारण करे। वह आप (वातरंहाः) वायु के समान वेगवाले (भव) हूजिये और (युज्यमानः) सावधान होके (दक्षिणः) प्रशंसित धर्म से चलने के बल से युक्त होके (इन्द्रस्येव) परम ऐश्वर्य्यवाले राजा के समान (श्रिया) शोभायुक्त राज्य सम्पत्ति वा राणी के सहित (एधि) वृद्धि को प्राप्त हूजिये ॥८॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। राजसम्बन्धी स्त्री-पुरुषो ! आप लोग अभिमानरहित और निर्मत्सर अर्थात् दूसरों की उन्नति देखकर प्रसन्न होनेवाले होकर विद्वानों के साथ मिल के राजधर्म की रक्षा किया करो तथा विमानादि यानों में बैठ के अपने अभीष्ट देशों में जा जितेन्द्रिय हो और प्रजा को निरन्तर प्रसन्न कर के श्रीमान् हुआ कीजिये ॥८॥

 

देवता: वीरो देवता ऋषि: बृहस्पतिर्ऋषिः छन्द: धृतिः स्वर: ऋषभः


ज॒वो यस्ते॑ वाजि॒न्निहि॑तो॒ गुहा॒ यः श्ये॒ने परी॑त्तो॒ऽअच॑रच्च॒ वाते॑। तेन॑ नो वाजि॒न् बल॑वा॒न् बले॑न वाज॒जिच्च॒ भव॒ सम॑ने च पारयि॒ष्णुः। वाजि॑नो वाजजितो॒ वाज॑ꣳ सरि॒ष्यन्तो॒ बृह॒स्पते॑र्भा॒गमव॑जिघ्रत ॥९॥

 

पद पाठ

ज॒वः। यः। ते॒। वा॒जि॒न्। निहि॑त॒ इति॑ निऽहि॑तः। गुहा॑। यः। श्ये॒ने। परी॑त्तः। अच॑रत्। च॒। वाते॑। ते॑न। नः॒। वा॒जि॒न्। बल॑वा॒निति॒ बल॑ऽवान्। बले॑न। वा॒ज॒जिदिति॑ वाज॒ऽजित्। च॒। भव॑। सम॑ने। च॒। पा॒र॒यि॒ष्णुः। वाजि॑नः। वा॒ज॒जि॒त इति॑ वाजऽजितः। वाज॑म्। स॒रि॒ष्यन्तः॑। बृह॒स्पतेः॑। भा॒गम्। अव॑। जि॒घ्र॒त॒ ॥९॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा कैसा होवे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (वाजिन्) श्रेष्ठ शास्त्रबोध और योगाभ्यास से युक्त सेना वा सभा के स्वामी राजन् ! (ते) आप का (यः) जो (जवः) वेग (गुहा) बुद्धि में (निहितः) स्थित है, (यः) जो (श्येने) पक्षी में जैसा (परीत्तः) सब और दिया हुआ (च) और जैसे (वाते) वायु में (अचरत्) विचरता है, (तेन) उससे (नः) हम लोगों के (बलेन) सेना वा पराक्रम से (बलवान्) बहुत बल से युक्त (भव) हूजिये। हे (वाजिन्) वेगयुक्त राजपुरुष ! उसी बल से (समने) सङ्ग्राम में (पारयिष्णुः) दुःख के पार करने और (वाजजित्) सङ्ग्राम के जीतनेवाले हूजिये। हे (वाजिनः) प्रशंसित वेग से युक्त योद्धा लोगो ! तुम (बृहस्पतेः) बड़ों की रक्षा करनेहारे सभाध्यक्ष की (भागम्) सेवा को प्राप्त हो के (वाजम्) बोध वा अन्नादि पदार्थों को (सरिष्यन्तः) प्राप्त होते हुए (वाजजितः) सङ्ग्राम के जीतनेहारे होओ और सुगन्धियुक्त पदार्थों का (अवजिघ्रत) सेवन करो ॥९॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। राजा को चाहिये कि शरीर और आत्मा के पूर्ण बल को पा और शत्रुओं के जीतने में श्येन पक्षी और वायु के तुल्य शीघ्रकारी हो के, अपने सब सभासद् सेना के पुरुष और सब नौकरों को अच्छे शिक्षित बल तथा सुख को युक्त कर, धर्मात्माओं की निरन्तर रक्षा करे और सब राजा प्रजा के पुरुषों को चाहिये कि इस प्रकार के हों और शत्रुओं को जीत के परस्पर प्रसन्न रहें ॥९॥

 

देवता: इन्द्राबृहस्पती देवते ऋषि: बृहस्पतिर्ऋषिः छन्द: विराड् उत्कृतिः स्वर: षड्जः


दे॒वस्या॒हꣳ स॑वि॒तुः स॒वे स॒त्यस॑वसो॒ बृहस्पते॑रुत्त॒मं नाक॑ꣳ रुहेयम्। दे॒वस्या॒हꣳ स॑वि॒तुः स॒वे स॒त्यस॑वस॒ऽइन्द्र॑स्योत्त॒मं ना॑कꣳरुहेयम्। दे॒वस्या॒हꣳ स॑वि॒तुः स॒वे स॒त्यप्र॑सवसो॒ बृह॒स्पते॑रुत्त॒मं नाक॑मरुहम्। दे॒वस्या॒हꣳ स॑वि॒तुः स॒वे स॒त्यप्र॑सवस॒ऽइन्द्र॑स्योत्त॒मं नाक॑मरुहम् ॥१०॥

 

पद पाठ

दे॒वस्य॑। अ॒हम्। स॒वि॒तुः। स॒वे। स॒त्यस॑वस॒ इति॑ स॒त्यऽस॑वसः। बृह॒स्पतेः॑। उ॒त्त॒ममित्यु॑त्ऽत॒मम्। नाक॑म्। रु॒हे॒य॒म्। दे॒वस्य॑। अ॒हम्। स॒वि॒तुः। स॒वे। स॒त्यस॑वस॒ इति॑ स॒त्यऽसव॑सः। इन्द्र॑स्य। उ॒त्त॒ममित्यु॑त्ऽत॒मम्। नाक॑म्। रु॒हे॒य॒म्। दे॒वस्य॑। अ॒हम्। स॒वि॒तुः। स॒वे। स॒त्यप्र॑सवस॒ इति॑ स॒त्यऽप्र॑सवसः। बृह॒स्पतेः॑। उ॒त्त॒ममित्यु॑त्ऽत॒मम्। नाक॑म्। अ॒रु॒ह॒म्। दे॒वस्य॑। अ॒हम्। स॒वि॒तुः। स॒वे। स॒त्यप्र॑सवस॒ इति॑ स॒त्यऽप्र॑सवसः। इन्द्र॑स्य। उ॒त्त॒ममित्यु॑त्ऽत॒मम्। नाक॑म्। अ॒रु॒ह॒म् ॥१०॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्य लोगों को उचित है कि विद्वानों का अनुकरण करें, मूढ़ों का नहीं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे राजा और प्रजा के पुरुषो ! जैसे (अहम्) मैं सभाध्यक्ष राजा (सत्यसवसः) जिसका ऐश्वर्य्य और जगत् का कारण सत्य है, उस (देवस्य) सब ओर से प्रकाशमान (बृहस्पतेः) बड़े प्रकृत्यादि पदार्थों के रक्षक (सवितुः) सब जगत् को उत्पन्न करनेहारे जगदीश्वर के (सवे) उत्पन्न किये जगत् में (उत्तमम्) सब से उत्तम (नाकम्) सब दुःखों से रहित सच्चिदानन्द स्वरूप को (रुहेयम्) आरूढ़ होऊँ। हे राजा के सभासद् लोगो ! जैसे (अहम्) मैं परोपकारी पुरुष (सत्यसवसः) सत्य न्याय से युक्त (देवस्य) सब सुख देने (सवितुः) सम्पूर्ण ऐश्वर्य्य के उत्पन्न करनेहारे (इन्द्रस्य) परम ऐश्वर्य्य के सहित चक्रवर्ती राजा के (सवे) ऐश्वर्य्य में (उत्तमम्) प्रशंसा के योग्य (नाकम्) दुःखरहित भोग को प्राप्त हो के (रुहेयम्) आरूढ़ होऊँ। हे पढ़ने-पढ़ानेहारे विद्याप्रिय लोगो ! जैसे (अहम्) मैं विद्या चाहनेहारा जन (सत्यप्रसवसः) जिससे अविनाशी प्रकट बोध हो, उस (देवस्य) सम्पूर्ण विद्या और शुभ गुण, कर्म और स्वभाव के प्रकाश से युक्त (सवितुः) समग्र विद्याबोध के उत्पन्नकर्त्ता (बृहस्पतेः) उत्तम वेदवाणी की रक्षा करनेहारे वेद, वेदाङ्गोपाङ्गों के पारदर्शी के (सवे) उत्पन्न किये विज्ञान में (उत्तमम्) सब से उत्तम (नाकम्) सब दुःखों से रहित आनन्द को (अरुहम्) आरूढ़ हुआ हूँ। हे विजयप्रिय लोगो ! जैसे (अहम्) मैं योद्धा मनुष्य (सत्यप्रसवसः) जिससे सत्य, न्याय, विनय और विजयादि उत्पन्न हों, उस (देवस्य) धनुर्वेद युद्धविद्या के प्रकाशक (सवितुः) शत्रुओं के विजय में प्रेरक (इन्द्रस्य) दुष्ट शत्रुओं को विदीर्ण करनेहारे पुरुष की (सवे) प्रेरणा में (उत्तमम्) विजयनामक उत्तम (नाकम्) सब सुख देनेहारे सङ्ग्राम को (अरुहम्) आरूढ़ हुआ हूँ, वैसे आप भी सब लोग आरूढ़ हूजिये ॥१०॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सब राजा और प्रजा के पुरुषों को चाहिये कि परस्पर विरोध को छोड़, ईश्वर चक्रवर्ती राज्य और समग्र विद्याओं का सेवन करके, सब उत्तम सुखों को प्राप्त हों और दूसरों को प्राप्त करावें ॥१०॥

 

देवता: इन्द्राबृहस्पती देवते ऋषि: बृहस्पतिर्ऋषिः छन्द: जगती स्वर: निषादः


बृह॑स्पते॒ वाजं॑ जय॒ बृह॒स्पत॑ये॒ वाचं॑ वदत॒ बृह॒स्पतिं॒ वाजं॑ जापयत। इन्द्र॒ वाजं॑ ज॒येन्द्रा॑य॒ वाचं॑ वद॒तेन्द्रं॒ वाजं॑ जापयत ॥११॥

 

पद पाठ

बृह॑स्पते। वाज॑म्। ज॒य॒। बृह॒स्पत॑ये। वाच॑म्। व॒द॒त॒। बृह॒स्पति॑म्। वाज॑म्। जा॒प॒य॒त॒। इन्द्र॑। वाज॑म्। ज॒य॒। इन्द्रा॑य। वाच॑म्। व॒द॒त॒। इन्द्र॑म्। वाज॑म्। जा॒प॒य॒त॒ ॥११॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब उपदेश करने और सुननेवालों का विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (बृहस्पते) सम्पूर्ण विद्याओं का प्रचार और उपदेश करनेहारे राजपुरुष ! आप (वाजम्) विज्ञान वा सङ्ग्राम को (जय) जीतो। हे विद्वानो ! तुम लोग इस (बृहस्पतये) राजपुरुष के लिये (वाचम्) वेदोक्त सुशिक्षा से प्रसिद्ध वाणी को (वदत) पढ़ाओ और उपदेश करो इस (बृहस्पतिम्) राजा वा सर्वोत्तम अध्यापक को (वाजम्) विद्याबोध व युद्ध को (जापयत) बढ़ाओ और जिताओ। हे (इन्द्र) विद्या के ऐश्वर्य्य का प्रकाश वा शत्रुओं को विदीर्ण करनेहारे राजपुरुष ! आप (वाजम्) परम ऐश्वर्य्य वा शत्रुओं के विजयरूपी युद्ध को (जय) जीतो। हे युद्धविद्या में कुशल विद्वानो ! तुम लोग इस (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य्य को प्राप्त करनेवाले राजपुरुष के लिये (वाजम्) राजधर्म का प्रचार करनेहारी वाणी को (वदत) कहो, इस (इन्द्रम्) राजपुरुष को (वाजम्) सङ्ग्राम को (जापयत) जिताओ ॥११॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। राजा को ऐसा प्रयत्न करना चाहिये कि जिस से वेदविद्या का प्रचार और शत्रुओं का विजय सुगम हो और उपदेशक तथा योद्धा लोग ऐसा प्रयत्न करें कि जिस राज्य में वेदादिशास्त्र पढ़ने-पढ़ाने की प्रवृत्ति और अपना राजा विजयरूपी आभूषणों से सुशोभित होवे कि जिससे अधर्म का नाश और धर्म की वृद्धि अच्छे प्रकार से स्थिर होवे ॥११॥

 

देवता: इन्द्राबृहस्पती देवते ऋषि: बृहस्पतिर्ऋषिः छन्द: स्वराड् अति धृतिः स्वर: षड्जः


ए॒षा वः॒ सा स॒त्या सं॒वाग॑भू॒द् यया॒ बृह॒स्पतिं॒ वाज॒मजी॑जप॒ताजी॑जपत॒ बृह॒स्पतिं॒ वाजं॒ वन॑स्पतयो॒ विमु॑च्यध्यम्। ए॒षाः वः॒ सा स॒त्या सं॒वाग॑भू॒द् ययेन्द्रं॒ वाज॒मजी॑जप॒ताजी॑जप॒तेन्द्रं॒ वाजं॒ वन॑स्पतयो॒ विमु॑च्यध्वम् ॥१२॥

 

पद पाठ

ए॒षा। वः॒। सा। स॒त्या। सं॒वागिति॑ स॒म्ऽवाक्। अ॒भू॒त्। यया॑। बृह॒स्प॑तिम्। वाज॑म्। अजी॑जपत। अजी॑जपत। बृह॒स्पति॑म्। वाज॑म्। वन॑स्पतयः। वि। मु॒च्य॒ध्व॒म्। ए॒षा। वः॒। सा। स॒त्या। संवागिति॑ स॒म्ऽवाक्। अ॒भू॒त्। यया॑। इन्द्र॑म्। वाज॑म्। अजी॑जपत। अजी॑जपत। इन्द्र॑म्। वाज॑म्। वन॑स्पतयः। वि। मु॒च्य॒ध्व॒म् ॥१२॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को अति उचित है कि सब समय में सब प्रकार से सत्य ही बोलें, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (वनस्पतयः) किरणों के समान न्याय के पालनेहारे राजपुरुषो ! तुम लोग (यया) जिस से (बृहस्पतिम्) वेदशास्त्र के पालनेहारे विद्वान् को (वाजम्) वेदशास्त्र के बोध को (अजीजपत) बढ़ाओ (बृहस्पतिम्) बड़े राज्य के रक्षक राजपुरुष के (वाजम्) सङ्ग्राम को (अजीजपत) जिताओ (सा) वह (एषा) पूर्व कही वा आगे जिस को कहेंगे (वः) तुम लोगों की (संवाक्) राजनीति में स्थित अच्छी वाणी (सत्या) सत्यस्वरूप (अभूत्) होवे। हे (वनस्पतयः) सूर्य की किरणों के समान न्याय के प्रकाश से प्रजा की रक्षा करनेहारे राजपुरुषो ! तुम लोग (यया) जिससे (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्य प्राप्त करानेहारे सेनापति को (वाजम्) युद्ध को (अजीजपत) जिताओ (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्ययुक्त पुरुष को (वाजम्) अत्युत्तम लक्ष्मी को प्राप्त करनेहारे उद्योग को (अजजीपत) अच्छे प्रकार प्राप्त करावें, (सा) वह (एषा) आगे-पीछे जिसका प्रतिपादन किया है (वः) तुम लोगों की (संवाक्) विनय और पुरुषार्थ का अच्छे प्रकार प्रकाश करनेवाली वाणी (सत्या) सदा सत्यभाषणादि लक्षणों से युक्त (अभूत्) होवे ॥१२॥


भावार्थभाषाः -राजा, उस के नौकर और प्रजापुरुषों को उचित है कि अपनी प्रतिज्ञा और वाणी को असत्य होने कभी न दें, जितना कहें उतना ठीक-ठीक करें। जिसकी वाणी सब काल में सत्य होती है, वही पुरुष राज्याधिकार के योग्य होता है, जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक उन राजा और प्रजा के पुरुषों का विश्वास और वे सुखों को नहीं बढ़ा सकते ॥१२॥

 

देवता: सविता देवता ऋषि: बृहस्पतिर्ऋषिः छन्द: निचृद् अति जगती स्वर: निषादः


दे॒वस्या॒हꣳ स॑वि॒तुः स॒वे स॒त्यप्र॑सवसो॒ बृह॒स्पते॑र्वाज॒जितो॒ वाजं॑ जेषम्। वाजि॑नो वाज॒जि॒तोऽध्व॑न स्कभ्नु॒वन्तो॒ योज॑ना॒ मिमा॑नाः॒ काष्ठां॑ गच्छत ॥१३॥

 

पद पाठ

दे॒वस्य॑। अ॒हम्। स॒वि॒तुः। स॒वे। स॒त्यप्र॑सव॒ इति॑ स॒त्यऽप्र॑सवः। बृह॒स्पतेः॑। वा॒ज॒जित॒ इति॑ वाज॒ऽजितः॑। वाज॑म्। जे॒ष॒म्। वाजि॑नः। वा॒ज॒जित॒ इति॑ वाज॒ऽजितः॑। अध्व॑नः। स्क॒भ्नु॒वन्तः॑। योज॑नाः। मिमा॑नाः। काष्ठा॑म्। ग॒च्छ॒त॒ ॥१३॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

राजपुरुषों को चाहिये कि धर्म्मात्मा राजपुरुषों का अनुकरण करें, अन्य तुच्छ बुद्धियों का नहीं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे वीर पुरुषो ! जैसे (अहम्) मैं शरीर और आत्मा के बल से पूर्ण सेनापति (सत्यप्रसवसः) जिस के बनाये जगत् में कारणरूप से पदार्थ नित्य हैं, उस (सवितुः) सब ऐश्वर्य्य के देने (देवस्य) सब के प्रकाशक (वाजजितः) विज्ञान आदि से उत्कृष्ट (बृहस्पतेः) उत्तम वेदवाणी के पालनेहारे जगदीश्वर के (सवे) उत्पन्न किये इस ऐश्वर्य्य में (वाजम्) सङ्ग्राम को (जेषम्) जीतूँ, वैसे तुम लोग भी जीतो। हे (वाजिनः) विज्ञानरूपी वेग से युक्त (वाजजितः) सङ्ग्राम को जीतनेहारे ! (योजना) बहुत कोशों से शत्रुओं को (मिमानाः) खदेड़ और (अध्वनः) शत्रुओं के मार्गों को रोकते हुए तुम लोग जैसे (काष्ठाम्) दिशाओं में (गच्छत) चलते हो, वैसे हम लोग भी चलें ॥१३॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। योद्धा लोग सेनाध्यक्ष के सहाय और रक्षा से ही शत्रुओं को जीत और उनके मार्गों को रोक सकते हैं और इन अध्यक्षादि राजपुरुषों को चाहिये कि जिस दिशा में शत्रु लोग उपाधि करते हों, वहीं जाके उन को वश में करें ॥१३॥


देवता: बृहस्पतिर्देवता ऋषि: दधिक्रावा ऋषिः छन्द: जगती स्वर: निषादः


ए॒ष स्य वा॒जी क्षि॑प॒णिं तु॑रण्यति ग्री॒वायां॑ ब॒द्धोऽअ॑पिक॒क्षऽआ॒सनि॑। क्रतुं॑ दधि॒क्राऽअनु॑ स॒ꣳसनि॑ष्यदत् प॒थामङ्का॒ꣳस्यन्वा॒पनी॑फण॒त् स्वाहा॑ ॥१४॥

 

पद पाठ

ए॒षः। स्यः। वा॒जी। क्षि॒प॒णिम्। तु॒र॒ण्य॒ति॒। ग्री॒वाया॑म्। ब॒द्धः। अ॒पि॒क॒क्ष इत्य॑पिऽक॒क्षे। आ॒सनि॑। क्रतु॑म्। द॒धि॒क्रा इति॑ दधि॒ऽक्राः। अनु॑। स॒ꣳसनि॑ष्यदत्। स॒ꣳसनि॑स्यद॒दिति॑ स॒म्ऽसनि॑स्यदत्। प॒थाम्। अङ्का॑ꣳसि। अनु॑। आ॒पनी॑फण॒दित्या॒ऽपनी॑फणत्। स्वाहा॑ ॥१४॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

जब सेना और सेनापति अच्छे शिक्षित होकर परस्पर प्रीति करनेवाले होवें, तभी विजय प्राप्त होवे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -जैसे (स्यः) वह (एषः) और यह (वाजी) वेगयुक्त (आसनि) मुख और (ग्रीवायाम्) कण्ठ में (बद्धः) बँधा (क्रतुम्) कर्म अर्थात् गति को (संसनिष्यदत्) अतीव फैलाता हुआ (पथाम्) मार्गों के (अङ्कांसि) चिह्नों को (अनु) समीप (आपनीफणत्) अच्छे प्रकार चलता हुआ (दधिक्राः) धारण करनेहारों का चलानेहारा घोड़ा (क्षिपणिम्) सेना को जाता है, वैसे ही (अपिकक्षे) इधर-उधर के ठीक-ठीक अवयवों में सेनापति अपनी सेना को (स्वाहा) सत्य वाणी से (तुरण्यति) वेगयुक्त करता है ॥१४॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सेनापति से रक्षा को प्राप्त हुए वीरपुरुष घोड़ों के समान दौड़ते हुए शीघ्र शत्रुओं को मार सकते हैं। जो सेनापति उत्तम कर्म्म करनेहारे अच्छे शिक्षित वीर पुरुषों के साथ ही युद्ध करता हुआ, प्रशंसित होता हुआ विजय को प्राप्त होता है, अन्यथा पराजय ही होता है ॥१४॥

 

देवता: बृहस्पतिर्देवता ऋषि: दधिक्रावा ऋषिः छन्द: जगती स्वर: निषादः


उ॒त स्मा॑स्य॒ द्रव॑तस्तुरण्य॒तः प॒र्णं॑ न वेरेनु॑वाति प्रग॒र्धिनः॑। श्ये॒नस्ये॑व॒ ध्रज॑तोऽअङ्क॒सं परि॑ दधि॒क्राव्णः॑ स॒होर्जा तरि॑त्रतः॒ स्वाहा॑ ॥१५॥

 

पद पाठ

उ॒त। स्म॒। अ॒स्य॒। द्रव॑तः। तु॒र॒ण्य॒तः। प॒र्णम्। न। वेः। अनु॑। वा॒ति॒। प्र॒ग॒र्धिन॒ इति॑ प्रऽग॒र्धिनः॑। श्ये॒नस्ये॒वेति॑ श्ये॒नस्य॑ऽइव। ध्रज॑तः। अ॒ङ्क॒सम्। परि॑। द॒धि॒क्राव्ण॒ इति॑ दधि॒ऽक्राव्णः॑। स॒ह। ऊ॒र्जा। तरित्र॑तः स्वाहा॑ ॥१५॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

सेनापति आदि राजपुरष कैसा पराक्रम करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे राजपुरुषो ! जो (ऊर्जा) पराक्रम और (स्वाहा) सत्यक्रिया के (सह) साथ (अस्य) इस (द्रवतः) रसप्रद वृक्ष का पत्ता और (तुरण्यतः) शीघ्र उड़नेवाले (वेः) पक्षी के (पर्णम्) पंखों के (न) समान (उत) और (प्रगर्धिनः) अत्यन्त इच्छा करने (ध्रजतः) चाहते हुए (श्येनस्येव) बाज पक्षी के समान तथा (तरित्रतः) अति शीघ्र चलते हुए (दधिक्राव्णः) घोड़े के सदृश (अङ्कसम्) अच्छे लक्षणयुक्त मार्ग में (परि) (अनु) (वाति) सब प्रकार अनुकूल चलता है, (स्म) वही पुरुष शत्रुओं को जीत सकता है ॥१५॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो वीर पुरुष नीलकण्ठ श्येनपक्षी और घोड़े के समान पराक्रमी होते हैं, उनके शत्रु लोग सब ओर से विलीन हो जाते हैं ॥१५॥

 

देवता: बृहस्पतिर्देवता ऋषि: वसिष्ठ ऋषिः छन्द: भुरिक् पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः


शन्नो॑ भवन्तु वा॒जिनो॒ हवे॑षु दे॒वता॑ता मि॒तद्र॑वः स्व॒र्काः। ज॒म्भय॒न्तोऽहिं॒ वृक॒ꣳ रक्षा॑ꣳसि॒ सने॑म्य॒स्मद्यु॑यव॒न्नमी॑वाः ॥१६॥

 

पद पाठ

शम्। नः॒। भ॒व॒न्तु॒। वा॒जिनः॑। हवे॑षु। दे॒वता॒तेति॑ दे॒वऽताता॑। मि॒तद्र॑व॒ इति॑ मि॒तऽद्र॑वः। स्व॒र्का इति॑ सुऽअ॒र्काः। ज॒म्भय॑न्तः। अहि॑म्। वृक॑म्। रक्षा॑ꣳसि। सने॑मि। अ॒स्मत्। यु॒य॒व॒न्। अमी॑वाः ॥१६॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

कौन पुरुष प्रजा के पालने और शत्रुओं के विनाश करने में समर्थ होते हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -जो (मितद्रवः) नियम से चलने (स्वर्काः) जिन का अन्न वा सत्कार सुन्दर हो, वे योद्धा लोग (अहिम्) मेघ के समान चेष्टा करते और बढ़े हुए (वृकम्) चोर और (रक्षांसि) दूसरों को क्लेश देनेहारे डाकुओं के (जम्भयन्तः) हाथ-पाँव तोड़ते हुए (वाजिनः) श्रेष्ठ युद्धविद्या के जाननेवाले वीर पुरुष (नः) हम (देवताता) विद्वान् लोगों के कर्मों तथा (हवेषु) सङ्ग्रामों में (सनेमि) सनातन (शम्) सुख को (भवन्तु) प्राप्त होवें (अस्मत्) हमारे लिये (अमीवाः) रोगों के समान वर्त्तमान शत्रुओं को (युयवन्) पृथक् करें ॥१६॥


भावार्थभाषाः -श्रेष्ठ प्रजापुरुषों के पालने में तत्पर और रोगों के समान शत्रुओं के नाश करनेहारे राजपुरुष ही सब को सुख दे सकते हैं, अन्य नहीं ॥१६॥

 

देवता: बृहस्पतिर्देवता ऋषि: नाभानेदिष्ठ ऋषिः छन्द: जगती स्वर: निषादः


ते नो॒ऽअर्व॑न्तो हवन॒श्रुतो॒ हवं॒ विश्वे॑ शृण्वन्तु वा॒जिनो॑ मि॒तद्र॑वः। स॒ह॒स्र॒सा मे॒धसा॑ता सनि॒ष्यवो॑ म॒हो ये धन॑ꣳ समि॒थेषु॑ जभ्रि॒रे ॥१७॥

 

पद पाठ

ते। नः॒। अर्व॑न्तः। ह॒व॒न॒श्रुत॒ इति॑ हवन॒ऽश्रुतः॑। हव॑म्। विश्वे॑ शृ॒ण्व॒न्तु॒। वा॒जि॑नः। मितद्र॑व॒ इति॑ मि॒तऽद्र॑वः। स॒ह॒स्र॒सा इति॑ स॒हस्र॒ऽसाः। मे॒धसा॒तेति॑ मे॒धऽसा॑ता। स॒नि॒ष्यवः॑। स॒हः। ये। धन॑म्। स॒मि॒थेष्विति॑ सम्ऽइ॒थेषु॒। ज॒भ्रि॒रे ॥१७॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

प्रजाजन अपनी रक्षा के लिये कर देवें और इसलिये राजपुरुष ग्रहण करें, अन्यथा नहीं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -(ये) जो (अर्वन्तः) ज्ञानवान् (हवनश्रुतः) ग्रहण करने योग्य शास्त्रों को सुनने (वाजिनः) प्रशंसित बुद्धिमान् (मितद्रवः) शास्त्रयुक्त विषय को प्राप्त होने (सहस्रसाः) असंख्य विद्या के विषयों को सेवने और (सनिष्यवः) अपने आत्मा की सुन्दर भक्ति करनेहारे राजपुरुष (मेधसाता) समागमों के दान से युक्त (समिथेषु) सङ्ग्रामों में (नः) हमारे बड़े (धनम्) ऐश्वर्य्य को (जभ्रिरे) धारण करें, वे (विश्वे) सब विद्वान् लोग हमारा (हवम्) पढ़ने-पढ़ाने से होनेवाले योग्य बोध शब्दों और वादी-प्रतिवादियों के विवाद को (शृण्वन्तु) सुनें ॥१७॥


भावार्थभाषाः -जो वे राजपुरुष हम लोगों से कर लेते हैं, वे हमारी निरन्तर रक्षा करें, नहीं तो न लें, हम भी उन को कर न देवें। इस कारण प्रजा की रक्षा और दुष्टों के साथ युद्ध करने के लिये ही कर देना चाहिये, अन्य किसी प्रयोजन के लिये नहीं, यह निश्चित है ॥१७॥

 

देवता: बृहस्पतिर्देवता ऋषि: वसिष्ठ ऋषिः छन्द: निचृत् त्रिष्टुप् स्वर: निषादः


वाजे॑वाजेऽवत वाजिनो नो॒ धने॑षु विप्राऽअमृताऽऋतज्ञाः। अ॒स्य मध्वः॑ पिबत मा॒दय॑ध्वं तृ॒प्ता या॑त प॒थिभि॑र्देव॒यानैः॑ ॥१८॥

 

पद पाठ

वाजे॑वाज॒ इति॒ वाजे॑ऽवाजे। अ॒व॒त॒। वा॒जि॒नः। नः॒। धने॑षु। वि॒प्राः॒। अ॒मृ॒ताः॒। ऋ॒त॒ज्ञा॒ इत्यृ॑तऽज्ञाः। अ॒स्य। मध्वः॑। पि॒ब॒त॒। मा॒दय॑ध्वम्। तृ॒प्ताः। या॒त॒। प॒थिभि॒रिति॑ प॒थिऽभिः॑। दे॒व॒यानै॒रिति॑ देव॒यानैः॑ ॥१८॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ये राजा और प्रजा के पुरुष आपस में कैसे वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (ऋतज्ञाः) सत्यविद्या के जाननेहारे (अमृताः) अपने-अपने स्वरूप से नाशरहित जीते ही मुक्तिसुख को प्राप्त (वाजिनः) वेगयुक्त (विप्राः) विद्या और अच्छी शिक्षा से बुद्धि को प्राप्त हुए विद्वान् राजपुरुषो ! तुम लोग (वाजेवाजे) सङ्ग्राम-सङ्ग्राम के बीच (नः) हमारी (अवत) रक्षा करो (अस्य) इस (मध्वः) मधुर रस को (पिबत) पीओ। हमारे धनों से (तृप्ताः) तृप्त होके (मादयध्वम्) आनन्दित होओ और (देवयानैः) जिनमें विद्वान् लोग चलते हैं, उन (पथिभिः) मार्गों से सदा (यात) चलो ॥१८॥


भावार्थभाषाः -राजपुरुषों को चाहिये कि वेदादि शास्त्रों को पढ़ और सुन्दर शिक्षा से ठीक-ठीक बोध को प्राप्त होकर, धर्मात्मा विद्वानों के मार्ग से सदा चलें, अन्य मार्ग से नहीं। तथा शरीर और आत्मा का बल बढ़ाने के लिये वैद्यक शास्त्र से परीक्षा किये और अच्छे प्रकार पकाये हुए अन्न आदि से युक्त रसों का सेवन कर प्रजा की रक्षा से ही आनन्द को प्राप्त होवें और प्रजापुरुषों को निरन्तर प्रसन्न रक्खें ॥१८॥

 

देवता: प्रजापतिर्देवता ऋषि: वसिष्ठ ऋषिः छन्द: निचृद् धृतिः स्वर: ऋषभः


आ मा॒ वाज॑स्य प्रस॒वो ज॑गम्या॒देमे द्यावा॑पृथि॒वी वि॒श्वरू॑पे। आ मा॑ गन्तां पि॒तरा॑ मा॒तरा॒ चा मा॒ सोमो॑ऽअमृत॒त्त्वेन॑ गम्यात्। वाजि॑नो वाजजितो॒ वाज॑ꣳ ससृ॒वाꣳसो॒ बृह॒स्पते॑र्भा॒गमव॑जिघ्रत निमृजा॒नाः ॥१९॥

 

पद पाठ

आ। मा॒। वाज॑स्य। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वः। ज॒ग॒म्या॒त्। आ। इ॒मेऽइती॒मे। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। वि॒श्वरू॑पे॒ऽइति॑ वि॒श्वऽरू॑पे। आ। मा॒। ग॒न्ता॒म्। पि॒तरा॑मा॒तरा॑। च॒। आ। मा॒। सोमः॑। अ॒मृ॒त॒त्वेनेत्य॑मृ॒तऽत्वेन॑। ग॒म्या॒त्। वाजि॑नः। वा॒ज॒जित॒ इति॑ वाजऽजितः। वाज॑म्। स॒सृ॒वाꣳस॒ इति॑ ससृ॒वाꣳसः॑। बृह॒स्पतेः॑। भा॒गम्। अव॑। जि॒घ्र॒त॒। नि॒मृ॒जा॒ना इति॑ निऽमृजा॒नाः ॥१९॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को धर्माचरण से किस-किस पदार्थ की इच्छा करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे पूर्वोक्त विद्वान् लोगो ! जिन आप लोगों के सहाय से (वाजस्य) वेदादि शास्त्रों के अर्थों के बोधों का (प्रसवः) सुन्दर ऐश्वर्य्य (मा) मुझ को (जगम्यात्) शीघ्र प्राप्त होवे (इमे) ये (विश्वरूपे) सब रूप विषयों के सम्बन्धी (द्यावापृथिवी) प्रकाश और भूमि का राज्य (च) और (अमृतत्वेन) सब रोगों की निवृत्तिकारक गुण के साथ (सोमः) सोमवल्ली आदि ओषधि विज्ञान मुझको प्राप्त हो और (पितरामातरा) विद्यायुक्त पिता-माता मुझको (आगन्ताम्) प्राप्त होवें, वे आप (वाजिनः) प्रशंसित बलवान् (वाजजितः) सङ्ग्राम के जीतनेवाले (वाजम्) सङ्ग्राम को प्राप्त होते हुए (निमृजानाः) निरन्तर शुद्ध हुए तुम लोग (बृहस्पतेः) बड़ी सेना के स्वामी के (भागम्) सेवने योग्य भाग को (अवजिघ्रत) निरन्तर प्राप्त होओ ॥१९॥


भावार्थभाषाः -जो मनुष्य विद्वान् के साथ विद्या और उत्तम शिक्षा को प्राप्त हो के धर्म का आचरण करते हैं, उन को इस लोक और परलोक में परमैश्वर्य का साधक राज्य, विद्वान् माता-पिता और नीरोगता प्राप्त होती है। जो पुरुष विद्वानों का सेवन करते हैं, वे शरीर और आत्मा की शुद्धि को प्राप्त हुए सब सुखों को भोगते हैं। इससे विरुद्ध चलनेहारे नहीं ॥१९॥

 

देवता: प्रजापतिर्देवता ऋषि: वसिष्ठ ऋषिः छन्द: भुरिक् कृतिः स्वर: निषादः


आ॒पये॒ स्वाहा॑ स्वा॒पये॒ स्वा॒हा॑ऽपि॒जाय॒ स्वाहा॒ क्रत॑वे॒ स्वाहा॒ वस॑वे॒ स्वा॒हा॑ह॒र्पत॑ये॒ स्वाहाह्ने॑ मु॒ग्धाय॒ स्वाहा॑ मु॒ग्धाय॑ वैनꣳशि॒नाय॒ स्वाहा॑ विन॒ꣳशिन॑ऽआन्त्याय॒नाय॒ स्वाहाऽनन्त्या॑य भौव॒नाय॒ स्वाहा॒ भुव॑नस्य॒ पत॑ये॒ स्वाहाऽधि॑पतये॒ स्वाहा॑ ॥२०॥

 

पद पाठ

आ॒पये॑। स्वाहा॑। स्वा॒पय॒ इति॑ सुऽआ॒पये॑। स्वाहा॑। अ॒पि॒जायेत्य॑पि॒ऽजाय॑। स्वाहा॑। क्रत॑वे। स्वाहा॑। वस॑वे। स्वाहा॑। अ॒ह॒र्पत॑ये। अ॒हः॒ऽप॑तय॒ इत्य॑हः॒ऽपत॑ये। स्वाहा॑। अह्ने॑। मु॒ग्धाय॑। स्वाहा॑। मु॒ग्धाय॑। वै॒न॒ꣳशि॒नाय॑। स्वाहा॑। वि॒न॒ꣳशिन॒ इति॑ विन॒ꣳशिने॑। आ॒न्त्या॒य॒नायेत्या॑न्त्यऽआय॒नाय। स्वाहा॑। आन्त्या॑य। भौ॒व॒नाय॑। स्वाहा॑। भुव॑नस्य। पत॑ये। स्वाहा॑। अधि॑पतय॒ इत्यधि॑ऽपतये। स्वाहा॑ ॥२०॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

विद्या और अच्छी शिक्षा से युक्त वाणी से मनुष्यों को क्या-क्या प्राप्त होता है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे विद्वानो ! तुम लोग जैसे मुझको (आपये) सम्पूर्ण विद्या की प्राप्ति के लिये (स्वाहा) सत्य क्रिया (स्वापये) सुखों की अच्छी प्राप्ति के वास्ते (स्वाहा) धर्मयुक्त क्रिया (क्रतवे) बुद्धि बढ़ाने के लिये (स्वाहा) पढ़ाने की प्रवृत्ति करानेहारी क्रिया (अपिजाय) निश्चय करके प्रकट होने के लिये (स्वाहा) पुरुषार्थ क्रिया (वसवे) विद्यानिवास के लिये (स्वाहा) सत्य वाणी (अहर्पतये) पुरुषार्थपूर्वक गणितविद्या से दिन पालने के लिये (स्वाहा) कालगति को जाननेहारी वाणी (मुग्धाय) मोहप्राप्ति के निमित्त (अह्ने) दिन होने के लिये (स्वाहा) विज्ञानयुक्त वाणी (वैनंशिनाय) नष्टस्वभावयुक्त कर्मों में रहनेहारे (मुग्धाय) मूर्ख के लिये (स्वाहा) चितानेवाली वाणी (आन्त्यायनाय) नीच प्राप्तिवाले (विनंशिने) नष्टस्वभावयुक्त पुरुष के लिये (स्वाहा) नष्ट-भ्रष्ट कर्मों का निवारण करनेहारी वाणी (आन्त्याय) अधोगति में होनेवाले (भौवनाय) लोगों के बीच समर्थ पुरुष के लिये (स्वाहा) पदार्थों की जाननेहारी वाणी (भुवनस्य पतये) संसार के स्वामी ईश्वर के लिये (स्वाहा) योगविद्या को प्रकट करनेहारी बुद्धि और (अधिपतये) सब अधिष्ठाताओं के ऊपर रहनेवाले पुरुष के लिये (स्वाहा) सब व्यवहारों को जनानेहारी वाणी (गम्यात्) प्राप्त होवे, वैसा प्रयत्न आलस्य छोड़ के किया करो ॥२०॥


भावार्थभाषाः -मनुष्यों को चाहिये कि सब विद्याओं की प्राप्ति आदि प्रयोजनों के लिये विद्या और अच्छी शिक्षा से युक्त वाणी को प्राप्त होवें कि जिससे सब सुख सदा मिलते रहें ॥२०॥


देवता: यज्ञो देवता ऋषि: वसिष्ठ ऋषिः छन्द: अत्यष्टिः स्वर: गान्धारः


आयु॑र्य॒ज्ञेन॑ कल्पतां प्रा॒णो य॒ज्ञेन॑ कल्पतां॒ चक्षु॑र्य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ꣳ श्रोत्रं॑ य॒ज्ञेन॑ कल्पतां पृ॒ष्ठं य॒ज्ञेन॑ कल्पतां य॒ज्ञो य॒ज्ञेन॑ कल्पताम्। प्र॒जाप॑तेः प्र॒जाऽअ॑भूम॒ स्व᳖र्देवाऽअगन्मा॒मृता॑ऽअभूम ॥२१॥

 

पद पाठ

आयुः॑। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। प्रा॒णः। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। चक्षुः॑। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। श्रोत्र॑म्। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। पृ॒ष्ठम्। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। य॒ज्ञः। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। प्र॒जाप॑ते॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तेः। प्र॒जा इति॑ प्र॒ऽजाः। अ॒भू॒म॒। स्वः॑। दे॒वाः॒। अ॒ग॒न्म॒। अ॒मृताः॑। अ॒भू॒म॒ ॥२१॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती


पुनः मनुष्यों के प्रति ईश्वर उपदेश करता है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! तुम्हारी (आयुः) अवस्था (यज्ञेन) ईश्वर की आज्ञा पालन से निरन्तर (कल्पताम्) समर्थ होवे (प्राणः) जीवन का हेतु बलकारी प्राण (यज्ञेन) धर्मयुक्त विद्याभ्यास से (कल्पताम्) समर्थ होवे (चक्षुः) नेत्र (यज्ञेन) प्रत्यक्ष के विषय शिष्टाचार से (कल्पताम्) समर्थ हो (श्रोत्रम्) कान (यज्ञेन) वेदाभ्यास से (कल्पताम्) समर्थ हो और (पृष्ठम्) पूछना (यज्ञेन) संवाद से (कल्पताम्) समर्थ हो, (यज्ञः) यज धातु का अर्थ (यज्ञेन) ब्रह्मचर्यादि के आचरण से (कल्पताम्) समर्थित हो, जैसे हम लोग (प्रजापतेः) सब के पालनेहारे ईश्वर के समान धर्मात्मा राजा के (प्रजाः) पालने योग्य सन्तानों के सदृश (अभूम) होवें तथा (देवाः) विद्वान् हुए (अमृताः) जीवन-मरण से छूटे (अभूम) हों (स्वः) मोक्षसुख को (अगन्म) अच्छे प्रकार प्राप्त होवें ॥२१॥


भावार्थभाषाः -मैं ईश्वर सब मनुष्यों को आज्ञा देता हूँ कि तुम लोग मेरे तुल्य धर्मयुक्त गुण, कर्म और स्वभाववाले पुरुष ही की प्रजा होओ, अन्य किसी मूर्ख, क्षुद्राशय पुरुष की प्रजा होना स्वीकार कभी मत करो। जैसे मुझ को न्यायधीश मान मेरी आज्ञा में वर्त और अपना सब कुछ धर्म के साथ संयुक्त करके इस लोक और परलोक के सुख को नित्य प्राप्त होते रहो, वैसे जो पुरुष धर्मयुक्त न्याय से तुम्हारा निरन्तर पालन करे, उसी को सभापति राजा मानो ॥२१॥

 

देवता: दिशो देवताः ऋषि: वसिष्ठ ऋषिः छन्द: निचृद् अत्यष्टिः स्वर: गान्धारः


अ॒स्मे वो॑ऽअस्त्विन्द्रि॒यम॒स्मे नृ॒म्णमु॒त क्रतु॑र॒स्मे वर्चा॑ꣳसि सन्तु वः। नमो॑ मा॒त्रे पृ॑थि॒व्यै नमो॑ मा॒त्रे पृ॑थि॒व्याऽइ॒यं ते॒ राड्य॒न्तासि॒ यम॑नो ध्रु॒वो᳖ऽसि ध॒रुणः॑। कृ॒ष्यै त्वा॒ क्षेमाय॑ त्वा र॒य्यै त्वा॒ पोषा॑य त्वा ॥२२॥

 

पद पाठ

अ॒स्मेऽइत्य॒स्मे। वः। अ॒स्तु॒। इ॒न्द्रि॒यम्। अ॒स्मेऽइत्य॒स्मे। नृ॒म्णम्। उ॒त। क्रतुः॑। अ॒स्मेऽइत्य॒स्मे। वर्चा॑ꣳसि। स॒न्तु॒। वः॒। नमः॑। मा॒त्रे। पृ॒थि॒व्यै। नमः॑। मा॒त्रे। पृ॒थि॒व्यै। इ॒यम्। ते॒। राट्। य॒न्ता। अ॒सि॒। यम॑नः। ध्रु॒वः। अ॒सि॒। ध॒रुणः॑। कृ॒ष्यै। त्वा॒। क्षेमा॑य। त्वा॒। र॒य्यै। त्वा॒। पोषा॑य। त्वा॒ ॥२२॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

ईश्वर की आज्ञा के अनुकूल मनुष्यों को संसार में कैसे वर्तना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्य ! मैं ईश्वर (कृष्यै) खेती के लिये (त्वा) तुझे (क्षेमाय) रक्षा के लिये (त्वा) तुझे (रय्यै) सम्पत्ति के लिये (त्वा) तुझे और (पोषाय) पुष्टि के लिये (त्वा) तुझ को नियुक्त करता हूँ। जो तू (ध्रुवः) दृढ़ (यन्ता) नियमों से चलनेहारा (असि) है, (धरुणः) धारण करनेवाला (यमनः) उद्योगी (असि) है, जिस (ते) तेरी (इयम्) यह (राट्) शोभायुक्त है, इस (मात्रे) मान्य की हेतु (पृथिव्यै) पृथिवीयुक्त भूमि से (नमः) अन्नादि पदार्थ प्राप्त हों, इस (मात्रे) मान्य देने हारी (पृथिव्यै) पृथिवी को अर्थात् भूगर्भविद्या को जानके इससे (नमः) अन्न जलादि पदार्थ प्राप्त कर तुम सब लोग परस्पर ऐसे कहो और वर्तो कि जो (अस्मे) हमारे (इन्द्रियम्) मन आदि इन्द्रिय हैं, वे (वः) तुम्हारे लिये हों, जो (अस्मे) हमारा (नृम्णम्) धन है, वह (वः) तुम्हारे लिये हो (उत) और जो (अस्मे) हमारे (क्रतुः) बुद्धि वा कर्म हैं, वे (वः) तुम्हारे हित के लिये हों, जो हमारे (वर्चांसि) पढ़ा-पढ़ाया और अन्न हैं, वे (वः) तुम्हारे लिये (सन्तु) हों, जो यह सब तुम्हारा है, वह हमारा भी हो, ऐसा आचरण आपस में करो ॥२२॥


भावार्थभाषाः -मनुष्यों के प्रति ईश्वर की यह आज्ञा है कि तुम लोग सदैव पुरुषार्थ में प्रवृत्त रहो और आलस्य मत करो और जो पृथिवी से अन्न आदि उत्पन्न हों, उनकी रक्षा करके यह सब जिस प्रकार परस्पर उपकार के लिये हो, वैसा यत्न करो। कभी विरोध मत करो, कोई अपना कार्य्य सिद्ध करे, उसका तुम भी किया करो ॥२२॥

 

देवता: प्रजापतिर्देवता ऋषि: वसिष्ठ ऋषिः छन्द: स्वराट् त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः


वाज॑स्ये॒मं प्र॑स॒वः सु॑षु॒वेऽग्रे॒ सोम॒ꣳ राजा॑न॒मोष॑धीष्व॒प्सु। ताऽअ॒स्मभ्यं॒ मधु॑मतीर्भवन्तु व॒यꣳ रा॒ष्ट्रे जा॑गृयाम पु॒रोहि॑ताः॒ स्वाहा॑ ॥२३॥

 

पद पाठ

वाज॑स्यः। इ॒मम्। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वः। सु॒षु॒वे। सु॒सु॒व॒ इति सुसुवे। अग्रे॑। सोम॑म्। राजा॑नम्। ओष॑धीषु। अ॒प्स्वित्य॒प्ऽसु। ताः। अ॒स्मभ्य॑म्। मधु॑मती॒रिति॒ मधु॑ऽमतीः। भ॒व॒न्तु॒। व॒यम्। रा॒ष्ट्रे। जा॒गृ॒या॒म॒। पु॒रोहि॑ता॒ इति॑ पु॒रःऽहि॑ताः। स्वाहा॑ ॥२३॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उन को इस विषय में कैसा होना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्य लोगो ! जैसे मैं (अग्रे) प्रथम (प्रसवः) ऐश्वर्य्ययुक्त होकर (वाजस्य) वैद्यकशास्त्र बोधसम्बन्धी (इमम्) इस (सोमम्) चन्द्रमा के समान सब दुःखों के नाश करनेहारे (राजानम्) विद्या न्याय और विनयों से प्रकाशमान राजा को (सुषुवे) ऐश्वर्य्ययुक्त करता हूँ, जैसे उसकी रक्षा में (ओषधीषु) पृथिवी पर उत्पन्न होनेवाली यव आदि ओषधियों और (अप्सु) जलों के बीच में वर्त्तमान ओषधी हैं, (ताः) वे (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (मधुमतीः) प्रशस्त मधुर वाणीवाली (भवन्तु) हों, जैसे (स्वाहा) सत्य क्रिया के साथ (पुरोहिताः) सब के हितकारी हम लोग (राष्ट्रे) राज्य में निरन्तर (जागृयाम) आलस्य छोड़ के जागते रहें, वैसे तुम भी वर्ता करो ॥२३॥


भावार्थभाषाः -शिष्ट मनुष्यों को योग्य है कि सब विद्याओं को चतुराई, रोगरहित और सुन्दर गुणों में शोभायमान पुरुष को राज्याधिकार देकर, उसकी रक्षा करनेवाला वैद्य ऐसा प्रयत्न करे कि जिससे इसके शरीर बुद्धि और आत्मा में रोग का आवेश न हो। इसी प्रकार राजा और वैद्य दोनों सब मन्त्री आदि भृत्यों और प्रजाजनों को रोगरहित करें, जिससे ये राज्य के सज्जनों के पालने और दुष्टों के ताड़ने में प्रयत्न करते रहें, राजा और प्रजा के पुरुष परस्पर पिता पुत्र के समान सदा वर्त्तें ॥२३॥

 

देवता: प्रजापतिर्देवता ऋषि: वसिष्ठ ऋषिः छन्द: जगती स्वर: निषादः


वाज॑स्ये॒मां प्र॑स॒वः शि॑श्रिये॒ दिव॑मि॒मा च॒ विश्वा॒ भुव॑नानि स॒म्राट्। अदि॑त्सन्तं दापयति प्रजा॒नन्त्स नो॑ र॒यिꣳ सर्व॑वीरं॒ निय॑च्छतु॒ स्वाहा॑ ॥२४॥

 

पद पाठ

वाज॑स्य। इ॒माम्। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वः। शि॒श्रि॒ये॒। दिव॑म्। इ॒मा। च॒। विश्वा॑। भुव॑नानि। स॒म्राडिति॑ स॒म्ऽराट्। अदि॑त्सन्तम्। दा॒प॒य॒ति॒। प्र॒जा॒नन्निति॑ प्रऽजा॒नन्। सः। नः॒। र॒यिम्। सर्ववीर॒मिति॒ सर्व॑ऽवीर॒म्। नि। य॒च्छ॒तु॒। स्वाहा॑ ॥२४॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

राजा किसका आश्रय लेकर किसके साथ क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्य लोगो ! जैसे (वाजस्य) राज्य के मध्य में (प्रसवः) उत्पन्न हुए (सम्राट्) अच्छे प्रकार राजधर्म में प्रवर्त्तमान मैं (इमाम्) इस भूमि को (दिवम्) प्रकाशित और (इमा) इन (विश्वा) सब और (भुवनानि) घरों को (शिश्रिये) अच्छे प्रकार आश्रय करता हूँ, वैसे तुम भी इस को अच्छे प्रकार शोभित करो और जो (स्वाहा) धर्म्मयुक्त सत्यवाणी से (प्रजानन्) जानता हुआ (अदित्सन्तम्) राज्यकर देने की इच्छा न करनेवाले से (दापयति) दिलाता है, (सः) सो (नः) हमारे (सर्ववीरम्) सब वीरों को प्राप्त करानेहारे (रयिम्) धन को (नियच्छतु) ग्रहण करे ॥२४॥


भावार्थभाषाः -हे मनुष्य लोगो ! मूल राज्य के बीच सनातन राजनीति को जान कर, जो राज्य की रक्षा करने को समर्थ हो, उसी को चक्रवर्त्ती राजा करो और जो कर देनेवालों से कर दिलावे, वह मन्त्री होने को योग्य होवे। जो शत्रुओं को बाँधने में समर्थ हो, उसे सेनापति नियुक्त करो और जो विद्वान् धार्मिक हो, उसे न्यायाधीश वा कोषाध्यक्ष करो ॥२४॥

 

देवता: प्रजापतिर्देवता ऋषि: वसिष्ठ ऋषिः छन्द: स्वराट् त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः


वाज॑स्य॒ नु प्र॑स॒व आब॑भूवे॒मा च॒ विश्वा॒ भुव॑नानि स॒र्वतः॑। सने॑मि॒ राजा॒ परि॑याति वि॒द्वान् प्र॒जां पुष्टिं॑ व॒र्धय॑मानोऽअ॒स्मे स्वाहा॑ ॥२५॥

 

पद पाठ

वाज॑स्य। नु। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वः। आ। ब॒भू॒व॒। इ॒मा। च॒। विश्वा॑। भुव॑नानि। स॒र्वतः॑। सने॑मि। राजा॑। परि॑। या॒ति॒। वि॒द्वान्। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। पुष्टि॑म्। व॒र्धय॑मानः। अ॒स्मेऽइत्य॒स्मे। स्वाहा॑ ॥२५॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -जो (वाजस्य) वेदादि शास्त्रों से उत्पन्न बोध को (स्वाहा) सत्यनीति से (प्रसवः) प्राप्त होकर (विद्वान्) सम्पूर्ण विद्या को जाननेवाला पुरुष (आ) अच्छे प्रकार (बभूव) होवे (च) और (इमा) इन (विश्वा) सब (भुवनानि) माण्डलिक राजनिवास स्थानों और (सनेमि) सनातन नियम धर्मसहित वर्त्तमान (प्रजाम्) पालने योग्य प्रजाओं को (पुष्टिम्) पोषण (नु) शीघ्र (वर्धयमानः) बढ़ाता हुआ (परि) सब ओर से (याति) प्राप्त होता है, वह (अस्मे) हम लोगों का राजा होवे ॥२५॥


भावार्थभाषाः -ईश्वर सब को उपदेश करता है कि हे मनुष्य लोगो ! तुम जो प्रशंसित गुण, कर्म, स्वभाववाला, राज्य की रक्षा में समर्थ हो, उसको सभाध्यक्ष करके आप्तनीति से चक्रवर्त्ती राज्य करो ॥२५॥

 

देवता: सोमाग्न्यादित्यविष्णुसूर्य्यबृहस्पतयो देवताः ऋषि: तापस ऋषिः छन्द: अनुष्टुप् स्वर: गान्धारः


सोम॒ꣳ राजा॑न॒मव॑से॒ऽग्निम॒न्वार॑भामहे। आ॒दि॒त्यान् विष्णु॒ꣳ सूर्य्यं॑ ब्र॒ह्माणं॑ च॒ बृह॒स्पति॒ꣳ स्वाहा॑ ॥२६॥

 

पद पाठ

सोम॑म्। राजा॑नम्। अव॑से। अ॒ग्निम्। अ॒न्वार॑भामह॒ इत्य॑नु॒ऽआर॑भामहे। आ॒दि॒त्यान्। विष्णु॑म्। सूर्य॑म्। ब्र॒ह्मा॑णम्। च॒। बृह॒स्पति॑म्। स्वाहा॑ ॥२६॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर कैसे राजा को स्वीकार करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्य लोगो ! जैसे हम लोग (स्वाहा) सत्यवाणी से (अवसे) रक्षा आदि के अर्थ (विष्णुम्) व्यापक परमेश्वर (सूर्य्यम्) विद्वानों में सूर्य्यवत् विद्वान् (ब्रह्माणम्) साङ्गोपाङ्ग चार वेदों को पढ़नेवाले (बृहस्पतिम्) बड़ों के रक्षक (अग्निम्) अग्नि के समान शत्रुओं को जलानेवाले (सोमम्) शान्त गुणसम्पन्न (राजानम्) धर्माचरण से प्रकाशमान राजा और (आदित्यान्) विद्या के लिये जिसने अड़तालीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य्य रहकर पूर्ण विद्या पढ़, सूर्यवत् प्रकाशमान विद्वानों के सङ्ग से विद्या पढ़ के गृहाश्रम का (अन्वारभामहे) आरम्भ करें, वैसे तुम भी किया करो ॥२६॥


भावार्थभाषाः -ईश्वर की आज्ञा है कि सब मनुष्य रक्षा आदि के लिये ब्रह्मचर्य्य व्रतादि से विद्या के पारगन्ता विद्वानों के बीच, जिसने अड़तालीस वर्ष ब्रह्मचर्य्य व्रत किया हो, ऐसे राजा को स्वीकार करके सच्ची नीति को बढ़ावें ॥२६॥

 

देवता: अर्य्यमादिमन्त्रोक्ता देवताः ऋषि: तापस ऋषिः छन्द: स्वराड् अनुष्टुप् स्वर: गान्धारः


अ॒र्य॒मणं॒ बृह॒स्पति॒मिन्द्रं॒ दाना॑य चोदय। वाचं॒ विष्णु॒ꣳ सर॑स्वतीᳬ सवि॒तारं॑ च वा॒जिन॒ꣳ स्वाहा॑ ॥२७॥

 

पद पाठ

अ॒र्य्य॒मण॑म्। बृह॒स्पति॑म्। इन्द्र॑म्। दाना॑य। चो॒द॒य॒। वाच॑म्। विष्णु॑म्। सर॑स्वतीम्। स॒वि॒तार॑म्। च॒। वा॒जिन॑म्। स्वाहा॑ ॥२७॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा किनको किसमें प्रेरणा करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे राजन् ! आप (स्वाहा) सत्यनीति से (दानाय) विद्यादि दान के लिये (अर्यमणम्) पक्षपातरहित न्याय करने (बृहस्पतिम्) सब विद्याओं को पढ़ाने (इन्द्रम्) बड़े ऐश्वर्य्ययुक्त (वाचम्) वेदवाणी (विष्णुम्) सब के अधिष्ठाता (सवितारम्) वेदविद्या तथा सब ऐश्वर्य उत्पन्न करने (वाजिनम्) अच्छे बल वेग से युक्त शूरवीर और (सरस्वतीम्) बहुत प्रकार वेदादि शास्त्र विज्ञानयुक्त पढ़ानेवाली विदुषी स्त्री को अच्छे कर्मों में (चोदय) सदा प्रेरणा किया कीजिये ॥२७॥


भावार्थभाषाः -ईश्वर सब से कहता है कि राजा आप धर्मात्मा विद्वान् होकर सब न्याय के करनेवाले मनुष्यों को विद्या धर्म्म बढ़ाने के लिये निरन्तर प्रेरणा करे, जिससे विद्या धर्म की बढ़ती से अविद्या और अधर्म दूर हों ॥२७॥

 

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: तापस ऋषिः छन्द: भुरिग् अनुष्टुप् स्वर: गान्धारः


अग्ने॒ऽअच्छा॑ वदे॒ह नः॒ प्रति॑ नः सु॒मना॑ भव। प्र नो॑ यच्छ सहस्रजि॒त् त्वꣳ हि ध॑न॒दाऽअसि॒ स्वाहा॑ ॥२८॥

 

पद पाठ

अग्ने॑। अच्छ॑। व॒द॒। इ॒ह। नः॒। प्रति॑। नः॒। सु॒मना॒ इति॑ सु॒ऽमनाः॑। भ॒व॒। प्र। नः॒। य॒च्छ॒। स॒ह॒स्र॒जि॒दिति॑ सहस्रऽजित्। त्वम्। हि। ध॒न॒दा॒ इति॑ धन॒ऽदाः। असि॒। स्वाहा॑ ॥२८॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) विद्वन् ! आप (इह) इस समय में (स्वाहा) सत्य वाणी से (नः) हम को (अच्छ) अच्छे प्रकार (वद) सत्य उपदेश कीजिये (नः) हमारे ऊपर (सुमनाः) मित्रभावयुक्त (भव) हूजिये (हि) जिससे आप (सहस्रजित्) विना सहाय हजार को जीतने (धनदाः) ऐश्वर्य्य देनेवाले (असि) हैं, इससे (नः) हमारे लिये (प्रयच्छ) दीजिये ॥२८॥


भावार्थभाषाः -ईश्वर उपदेश करता है कि राजा, प्रजा और सेनाजन मनुष्यों से सदा सत्य प्रिय वचन कहे, उनको धन दे, उनसे धन ले। शरीर आत्मा का बल बढ़ा और नित्य शत्रुओं को जीतकर धर्म से प्रजा को पाले ॥२८॥

 

देवता: अर्य्यमादिमन्त्रोक्ता देवताः ऋषि: तापस ऋषिः छन्द: भुरिग् आर्षी गायत्री स्वर: षड्जः


प्र नो॑ यच्छत्वर्य॒मा प्र पू॒षा बृह॒स्पतिः॑। प्र वाग्दे॒वी द॑दातु नः॒ स्वाहा॑ ॥२९॥

 

पद पाठ

प्र। नः॒। य॒च्छ॒तु॒। अ॒र्य्य॒मा। प्र। पू॒षा। प्र। बृह॒स्पतिः॑। प्र। वाक्। दे॒वी। द॒दा॒तु॒। नः॒। स्वाहा॑ ॥२९॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

प्रजा और सन्तानों से राजा और माता आदि कैसे वर्तें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -जैसे (अर्य्यमा) न्यायाधीश (नः) हमारे लिये उत्तम शिक्षा (प्रयच्छतु) देवे, जैसे (पूषा) पोषण करनेवाला शरीर और आत्मा की पुष्टि की शिक्षा (प्र) अच्छे प्रकार देवे, जैसे (बृहस्पतिः) विद्वान् (प्र) (स्वाहा) अत्युत्तम विद्या देवे, जैसे (वाक्) उत्तम विद्या सुशिक्षा सहित वाणीयुक्त (देवी) प्रकाशमान पढ़ानेवाली माता हमारे लिये सत्यविद्यायुक्त वाणी का (प्रददातु) उपदेश सदा किया करे ॥२९॥


भावार्थभाषाः -यहाँ जगदीश्वर उपदेश करता है कि राजा आदि सब पुरुष और माता आदि स्त्री सदा प्रजा और पुत्रादिकों को सत्य-सत्य उपदेश कर विद्या और अच्छी शिक्षा को निरन्तर ग्रहण करावें, जिससे प्रजा और पुत्र-पुत्री आदि सदा आनन्द में रहें ॥२९॥

 

देवता: इन्द्रो देवता ऋषि: बृहस्पतिर्ऋषिः छन्द: जगती स्वर: निषादः


दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वे᳕ऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। सर॑स्वत्यै वा॒चो य॒न्तुर्य॒न्त्रिये॑ दधामि॒ बृह॒स्पते॑ष्ट्वा॒ साम्रा॑ज्येना॒भिषि॑ञ्चाम्यसौ ॥३०॥

 

पद पाठ

दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्याम्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। सर॑स्वत्यै। वा॒चः। य॒न्तुः। य॒न्त्रिये॑। द॒धा॒मि॒। बृह॒स्पतेः॑। त्वा॒। साम्रा॑ज्ये॒नेति॒ साम्ऽरा॑ज्येन। अ॒भि। सि॒ञ्चा॒मि॒। अ॒सौ॒ ॥३०॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर कहाँ कैसे को राजा करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे सब अच्छे गुण कर्म्म स्वभावयुक्त विद्वन् ! (असौ) यह मैं (सवितुः) सब जगत् के उत्पन्न करनेवाले ईश्वर (देवस्य) प्रकाशमान जगदीश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये संसार में (सरस्वत्यै) अच्छे प्रकार शिल्पविद्यायुक्त (वाचः) वेदवाणी के मध्य (अश्विनोः) सूर्य्य-चन्द्रमा के बल और आकर्षण के समान (बाहुभ्याम्) भुजाओं से (पूष्णः) वायु के समान धारण-पोषण गुणयुक्त (हस्ताभ्याम्) हाथों से (त्वा) तुम को (दधामि) धारण करता हूँ और (बृहस्पतेः) बड़े विद्वान् के (यन्त्रिये) कारीगरी विद्या से सिद्ध किये राज्य में (साम्राज्येन) चक्रवर्ती राजा के गुण से सहित (त्वा) तुझ को (अभि) सब ओर से (सिञ्चामि) सुगन्धित रसों से मार्जन करता हूँ ॥३०॥


भावार्थभाषाः -मनुष्यों को योग्य है कि ईश्वर में प्रेमी, बल, पराक्रम, पुष्टियुक्त, चतुर, सत्यवादी, जितेन्द्रिय, धर्मात्मा, प्रजापालन में समर्थ विद्वान् को अच्छे प्रकार परीक्षा कर सभा का स्वामी करने के लिये अभिषेक करके राजधर्म की उन्नति अच्छे प्रकार नित्य किया करें ॥३०॥

 

देवता: अग्न्यादयो मन्त्रोक्ता देवताः ऋषि: तापस ऋषिः छन्द: स्वराड् अति धृतिः स्वर: षड्जः


अ॒ग्निरेका॑क्षरणे प्रा॒णमुद॑जय॒त् तमुज्जे॑षम॒श्विनौ॒ द्व्य᳖क्षरेण द्वि॒पदो॑ मनु॒ष्या᳕नुद॑जयतां॒ तानुज्जे॑षं॒ विष्णु॒स्त्र्य᳖क्षरेण॒ त्रील्ँलो॒कानुद॑जय॒त् तानुज्जे॑षं॒ꣳ सोम॒श्चतु॑रक्षरेण॒ चतु॑ष्पदः प॒शूनुद॑जय॒त् तानुज्जे॑षम् ॥३१॥

 

पद पाठ

अ॒ग्निः। एका॑क्षरे॒णेत्येक॑ऽअक्षरेण। प्रा॒णम्। उत्। अ॒ज॒य॒त्। तम्। उत्। जे॒ष॒म्। अ॒श्विनौ॑। द्व्य॑क्षरे॒णेति॒ द्विऽअ॑क्षरेण। द्वि॒पद॑ इति॒ द्वि॒ऽपदः॑। म॒नु॒ष्या᳖न्। उत्। अ॒ज॒य॒ता॒म्। तान्। उत्। जे॒ष॒म्। विष्णुः॑। त्र्य॑क्षरे॒णेति॒ त्रिऽअ॑क्षरेण। त्रीन्। लो॒कान्। उत्। अ॒ज॒य॒त्। तान्। उत्। जे॒ष॒म्। सोमः॑। चतु॑रक्षरे॒णेति॒ चतुः॑ऽअक्षरेण। चतु॑ष्पदः। चतुः॑पद इति॒ चतुः॑ऽपदः। प॒शून्। उत्। अ॒ज॒य॒त्। तान्। उत्। जे॒ष॒म् ॥३१॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

राजा प्रजाओं को और प्रजा राजा को निरन्तर बढ़ाया करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे राजन् ! (अग्निः) अग्नि के समान वर्त्तमान आप जैसे (एकाक्षरेण) चितानेहारी एक अक्षर की दैवी गायत्री छन्द से (प्राणम्) शरीर में स्थित वायु के समान प्रजाजनों को (उत्) (अजयत्) उत्तम करे वैसे (उत्) उत्तम नीति से (तम्) उसको मैं भी (उत्) (जेषम्) उत्तम करूँ। हे राजप्रजाजनो ! (अश्विनौ) सूर्य्य और चन्द्रमा के समान आप जैसे (द्व्यक्षरेण) दो अक्षर की दैवी उष्णिक् छन्द से जिन (द्विपदः) दो पैरवाले (मनुष्यान्) मननशील मनुष्यों को (उज्जयताम्) उत्तम करो, वैसे (तान्) उन को मैं भी (उज्जेषम्) उत्तम करूँ। हे सर्वप्रधान पुरुष ! (विष्णुः) परमेश्वर के समान न्यायकारी आप जैसे (त्र्यक्षरेण) तीन अक्षर की दैवी अनुष्टुप् छन्द से जिन (त्रीन्) जन्म, स्थान और नामवाची (लोकान्) देखने योग्य लोकों को (उदजयत्) उत्तम करते हो, वैसे (तान्) उनको मैं भी (उज्जेषम्) उत्तम करूँ। हे (सोमः) ऐश्वर्य की इच्छा करनेवाले न्यायाधीश ! आप जैसे (चतुरक्षरेण) चार अक्षर के दैवी बृहती छन्द से (चतुष्पदः) चौपाये (पशून्) हिरणादि पशुओं को (उदजयत्) उत्तम करते हो, वैसे (तान्) उनको मैं भी (उज्जेषम्) उत्तम करूँ ॥३१॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजा सब प्रजाओं को अच्छे प्रकार बढ़ावे तो उसको भी प्रजाजन क्यो न बढ़ावें और जो ऐसा न करे तो उसको प्रजा भी कभी न बढ़ावे ॥३१॥

 

देवता: पूषादयो मन्त्रोक्ता देवताः ऋषि: तापस ऋषिः छन्द: कृतिः स्वर: निषादः


पू॒षा पञ्चा॑क्षरेण॒ पञ्च॒ दिश॒ऽउद॑जय॒त् ताऽउज्जे॑षꣳ सवि॒ता षड॑क्षरेण॒ षड् ऋ॒तूनुद॑जय॒त् तानुज्जे॑षं म॒रुतः स॒प्ताक्ष॑रेण स॒प्त ग्रा॒म्यान् प॒शूनुद॑जयँ॒स्तानुज्जे॑षं॒ बृह॒स्पति॑र॒ष्टाक्ष॑रेण गाय॒त्रीमुद॑जय॒त् तामुज्जे॑षम् ॥३२॥

 

पद पाठ

पू॒षा। पञ्चा॑क्षरे॒णेति॒ पञ्च॑ऽअक्षरेण। पञ्च॑। दिशः॑। उत्। अ॒ज॒य॒त्। ताः। उत्। जे॒ष॒म्। स॒वि॒ता। षड॑क्षरे॒णेति॒ षट्ऽअ॑क्षरेण। षट्। ऋ॒तून्। उत्। अ॒ज॒य॒त्। तान्। उत्। जे॒ष॒म्। म॒रुतः॑। स॒प्ताक्ष॑रे॒णेति॑ स॒प्तऽअ॑क्षरेण। स॒प्त। ग्रा॒म्यान्। प॒शून्। उत्। अ॒ज॒य॒न्। तान्। उत्। जे॒ष॒म्। बृह॒स्पतिः॑। अ॒ष्टाक्ष॑रे॒णेत्य॒ष्टऽअक्ष॑रेण। गा॒य॒त्रीम्। उत्। अ॒ज॒य॒त्। ताम्। उत्। जे॒ष॒म् ॥३२॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा और प्रजाजन किनके दृष्टान्तों से क्या-क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे राजन् ! (पूषा) चन्द्रमा के समान सबको पुष्ट करनेवाले आप जैसे (पञ्चाक्षरेण) पाँच प्रकार की दैवी पङ्क्ति से (पञ्च) पूर्वादि चार और एक ऊपर नीचे की (दिशः) दिशाओं को (उदजयत्) उत्तम कीर्ति से भरते हो, वैसे (ताः) उनको मैं भी (उज्जेषम्) श्रेष्ठ कीर्ति से भर देऊँ। हे राजन् ! (सविता) सूर्य्य के समान आप जैसे (षडक्षरेण) छः अक्षरों की दैवी त्रिष्टुप् से जिन (षट्) छः (ऋतून्) वसन्तादि ऋतुओं को (उदयजत्) शुद्ध करते हो, वैसे (तान्) उनको मैं भी (उज्जेषम्) शुद्ध करूँ। हे सभाजनो ! (मरुतः) वायु के समान आप जैसे (सप्ताक्षरेण) सात अक्षरों की दैवी जगती से (सप्त) गाय, घोड़ा भैंस, ऊँट, बकरी, भेड़ और गधा इन सात (ग्राम्यान्) गाँव के (पशून्) पशुओं को (उदजयन्) बढ़ाते हो, वैसे (तान्) उनको मैं भी बढ़ाऊँ। हे सभेश ! (बृहस्पतिः) समस्त विद्याओं के जाननेवाले विद्वान् के समान आप जैसे (अष्टाक्षरेण) आठ अक्षरों की याजुषी अनुष्टुप् से जिस (गायत्रीम्) गान करनेवाले की रक्षा करनेवाली विद्वान् स्त्री की (उदजयत्) प्रतिष्ठा करते हो, वैसे (ताम्) उसकी मैं भी (उज्जेषम्) प्रतिष्ठा करूँ ॥३२॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजा सब का पोषक, जिसकी सब दिशाओं में कीर्ति, ऐश्वर्य्ययुक्त, सभा के कामों में चतुर, पशुओं का रक्षक और वेदों का ज्ञाता हो, उसी को राजा और सेना के सब मनुष्य अपना अधिष्ठाता बनाकर उन्नति देवें ॥३२॥

 

देवता: मित्रादयो मन्त्रोक्ता देवताः ऋषि: तापस ऋषिः छन्द: कृतिः स्वर: निषादः


मि॒त्रो नवा॑क्षरेण त्रि॒वृत॒ꣳ स्तोम॒मुद॑जय॒त् तमुज्जे॑षं॒ वरु॑णो॒ दशा॑क्षरेण वि॒राज॒मुद॑जय॒त् तामुज्जे॑ष॒मिन्द्र॒ऽएका॑दशाक्षरेण त्रि॒ष्टुभ॒मुद॑जय॒त् तामुज्जे॑षं॒ विश्वे॑ दे॒वा द्वाद॑शाक्षरेण॒ जग॑ती॒मुद॑जयँ॒स्तामुज्जे॑षम् ॥३३॥

 

पद पाठ

मि॒त्रः। नवा॑क्षरे॒णेति॒ नव॑ऽअक्षरेण। त्रि॒वृत॒मिति॒ त्रि॒ऽवृत॑म्। स्तोम॑म्। उत्। अ॒ज॒य॒त्। तम्। उत्। जे॒ष॒म्। वरु॑णः। दशा॑क्षरे॒णेति॒ दश॑ऽअक्षरेण। वि॒राज॒मिति॒ वि॒ऽराज॑म्। उत्। अ॒ज॒य॒त्। ताम्। उत्। जे॒ष॒म्। इन्द्रः॑। एका॑दशाक्षरे॒णेत्येका॑दशऽअक्षरेण। त्रि॒ष्टुभ॑म्। त्रि॒स्तुभ॒मिति॑ त्रि॒ऽस्तुभ॑म्। उत्। अ॒ज॒य॒त्। ताम्। उत्। जे॒ष॒म्। विश्वे॑। दे॒वाः। द्वाद॑शाक्षरे॒णेति॒ द्वाद॑शऽअक्षरेण। जग॑तीम्। उत्। अ॒ज॒य॒न्। ताम्। उत्। जे॒ष॒म् ॥३३॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

राजा के सत्याचार के अनुसार प्रजा और प्रजा के अनुसार राजा करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे राजन् ! (मित्रः) सब के हितकारी आप जैसे (नवाक्षरेण) नव अक्षर की याजुषी बृहती से जिस (त्रिवृतम्) कर्म्म, उपासना और ज्ञान के (स्तोमम्) स्तुति के योग्य को (उदजयत्) उत्तमता से जानते हो, वैसे (तम्) उसको मैं भी (उज्जेषम्) अच्छे प्रकार जानूँ। हे प्रशंसा के योग्य सभेश ! (वरुणः) सब प्रकार से श्रेष्ठ आप (दशाक्षरेण) दश अक्षरों की याजुषी पङ्क्ति से जिस (विराजम्) विराट् छन्द से प्रतिपादित अर्थ को (उदजयत्) प्राप्त हुए हो, वैसे (ताम्) उसको मैं भी (उज्जेषम्) प्राप्त होऊँ (इन्द्रः) परम ऐश्वर्य्य देनेवाले आप जैसे (एकादशाक्षरेण) ग्यारह अक्षरों की आसुरी पङ्क्ति से जिस (त्रिष्टुभम्) त्रिष्टुप् छन्दवाची को (उदजयत्) अच्छे प्रकार जानते हो, वैसे (ताम्) उसको मैं भी (उज्जेषम्) अच्छे प्रकार जानूँ। हे सभ्य जनो (विश्वे) सब (देवाः) विद्वानो ! आप जैसे (द्वादशाक्षरेण) बारह अक्षरों की साम्नी गायत्री से जिस (जगतीम्) जगती से कही हुई नीति का (उदजयन्) प्रचार करते हो, वैसे (ताम्) उसको मैं भी (उज्जेषम्) प्रचार करूँ ॥३३॥


भावार्थभाषाः -राजपुरुषों को चाहिये कि सब प्राणियों में मित्रता से अच्छे प्रकार शिक्षा कर इन प्रजाजनों को उत्तम गुणयुक्त विद्वान् करें, जिससे ये ऐश्वर्य्य के भागी होकर राजभक्त हों ॥३३॥

 

देवता: वस्वादयो मन्त्रोक्ता देवताः ऋषि: तापस ऋषिः छन्द: निचृद् जगती, निचृद् धृतिः स्वर: ऋषभः


वस॑व॒स्त्रयो॑दशाक्षरेण त्रयोद॒शꣳ स्तोम॒मुद॑जयँ॒स्तमुज्जे॑षꣳ रु॒द्राश्चतु॑र्दशाक्षरेण चतुर्द॒शꣳ स्तोम॒मुद॑जयँ॒स्तमुज्जे॑षमादि॒त्याः पञ्च॑दशाक्षरेण पञ्चद॒शꣳ स्तोम॒मुद॑जयँ॒स्तामुज्जे॑ष॒मदि॑तिः॒ षोड॑शाक्षरेण षोड॒शꣳस्तोम॒मुद॑जय॒त् तमुज्जे॑षं प्र॒जाप॑तिः स॒प्तद॑शाक्षरेण सप्तद॒शꣳ स्तोम॒मुद॑जय॒त् तमुज्जे॑षम् ॥३४॥

 

पद पाठ

वस॑वः। त्रयो॑दशाक्षरे॒णेति॒ त्रयो॑दशऽअक्षरेण। त्र॒यो॒द॒शमिति॑ त्रयःऽद॒शम्। स्तोम॑म्। उत्। अ॒ज॒य॒न्। तम्। उत्। जे॒ष॒म्। रु॒द्राः। चतु॑र्दशाक्षरे॒णेति॒ चतु॑र्दशऽअक्षरेण। च॒तु॒र्द॒शमिति॑ चतुःऽद॒शम्। स्तोम॑म्। उत्। अ॒ज॒य॒न्। तम्। उत्। जे॒ष॒म्। आ॒दि॒त्याः। पञ्च॑दशाक्षरे॒णेति॒ पञ्च॑दशऽअक्षरेण। प॒ञ्च॒द॒शमिति॒ पञ्चऽद॒शम्। स्तोम॑म्। उत्। अ॒ज॒य॒न्। तम्। उत्। जे॒ष॒म्। अदि॑तिः। षोड॑शाक्षरे॒णेति॒ षोड॑शऽअक्षरेण। षो॒ड॒शम्। स्तोम॑म्। उत्। अ॒ज॒यत्। तम्। उत्। जे॒ष॒म्। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। स॒प्त॑दशाक्षरे॒णेति स॒प्तद॑शऽअक्षरेण। स॒प्त॒द॒श॒मिति॑ सप्तऽद॒शम्। स्तोम॑म्। उत्। अ॒ज॒य॒त्। तम्। उत्। जे॒ष॒म् ॥३४॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी राजा और प्रजा के धर्म्म कार्य्य का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे राजादि सभ्यजनो ! (वसवः) चौबीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य्य से विद्या पढ़नेवाले विद्वानो ! आप लोग जैसे (त्रयोदशाक्षरेण) तेरह अक्षरों की आसुरी अनुष्टुप् वेदस्थ छन्द से जिस (त्रयोदशम्) दश प्राण, जीव, महत्तत्त्व और अव्यक्त कारणरूप (स्तोमम्) प्रशंसा के योग्य पदार्थ समूह को (उदजयन्) श्रेष्ठता से जानें, वैसे (तम्) उसको मैं भी (उज्जेषम्) उत्तमता से जानूँ। हे बल, पराक्रम और पुरुषार्थयुक्त (रुद्राः) चवालीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य्य से विद्या पढ़नेहारे विद्वानो ! जैसे आप (चतुर्दशाक्षरेण) चौदह अक्षरों की साम्नी उष्णिक् छन्द से (चतुर्दशम्) दश इन्द्रिय, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकाररूप (स्तोमम्) प्रशंसा के योग्य पदार्थविद्या को (उदजयन्) प्रशंसित करें, वैसे मैं भी (तम्) उसको (उज्जेषम्) प्रशंसित करूँ। हे (आदित्याः) अड़तालीस वर्ष ब्रह्मचर्य्य से समस्त विद्याओं को ग्रहण करनेहारे पूर्ण विद्या से शरीर और आत्मा के समस्त बल से युक्त सूर्य्य के समान प्रकाशमान विद्वानो ! आप लोग जैसे (पञ्चदशाक्षरेण) पन्द्रह अक्षरों की आसुरी गायत्री से (पञ्चदशम्) चार वेद, चार उपवेद अर्थात् आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद (गानविद्या) तथा अर्थवेद (शिल्पशास्त्र) छः अङ्ग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष) मिल के चौदह, उनका संख्यापूरक पन्द्रहवाँ क्रियाकुशलतारूप (स्तोमम्) स्तुति के योग्य को (उदजयन्) अच्छे प्रकार से जानें, वैसे मैं भी (तम्) उसको (उज्जेषम्) अच्छे प्रकार से जानूँ। हे (अदितिः) आत्मारूप से नाशरहित सभाध्यक्ष राजा की विदुषी स्त्री अखण्डित ऐश्वर्ययुक्त ! आप जैसे (षोडशाक्षरेण) सोलह अक्षर की साम्नी अनुष्टुप् से (षोडशम्) प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान इन सोलह पदार्थों की व्याख्यायुक्त (स्तोमम्) प्रशंसा के योग्य को (उदजयत्) उत्तमता से जानें, वैसे मैं भी (तम्) उसको (उज्जेषम्) उत्तमता से जानूँ। हे नरेश ! (प्रजापतिः) प्रजा के रक्षक आप जैसे (सप्तदशाक्षरेण) सत्रह अक्षरों की निचृदार्षी छन्द से (सप्तदशम्) चार वर्ण, चार आश्रम, सुनना, विचारना, ध्यान करना, अप्राप्त की इच्छा, प्राप्त का रक्षण, रक्षित का बढ़ाना, बढ़े हुए को अच्छे मार्ग सबके उपकार में खर्च करना, यह चार प्रकार का पुरुषार्थ और मोक्ष के अनुष्ठानरूप (स्तोमम्) अच्छे प्रकार प्रशंसनीय को उत्तमता से जानें, वैसे मैं भी उसको (उज्जेषम्) उत्तमता से जानूँ ॥३४॥


भावार्थभाषाः -हे मनुष्य लोगो ! इन चार मन्त्रों से जितना राजा और प्रजा का धर्म कहा, उसका अनुष्ठान कर तुम सुखी होओ ॥३४॥

 

देवता: विश्वेदेवा देवताः ऋषि: वरुण ऋषिः छन्द: विराड् उत्कृतिः स्वर: षड्जः


ए॒ष ते॑ निर्ऋते भा॒गस्तं जु॑षस्व॒ स्वाहा॒ऽग्निने॑त्रेभ्यो दे॒वेभ्यः॑ पुरः॒सद्भ्यः॒ स्वाहा॑ य॒मने॑त्रेभ्यो दे॒वेभ्यो॑ दक्षिणा॒सद्भ्यः॒ स्वाहा॑ वि॒श्वदे॑वनेत्रेभ्यो दे॒वेभ्यः॑ पश्चा॒त्सद्भ्यः॒ स्वाहा॑ मि॒त्रावरु॑णनेत्रेभ्यो वा म॒रुन्ने॑त्रेभ्यो वा दे॒वेभ्य॑ऽउत्तरा॒सद्भ्यः॒ स्वाहा॒ सोम॑नेत्रेभ्यो दे॒वेभ्य॑ऽउपरि॒सद्भ्यो॒ दुव॑स्वद्भ्यः॒ स्वाहा॑ ॥३५॥

 

पद पाठ

ए॒षः। ते॑ नि॒र्ऋ॒त इति॑ निःऽऋते। भा॒गः। तम्। जु॒ष॒स्व॒। स्वाहा॑। अ॒ग्निने॑त्रेभ्य॒ इत्य॒ग्निऽने॑त्रेभ्यः। दे॒वेभ्यः॑। पु॒रः॒सद्भ्य॒ इति॑ पुरःसत्ऽभ्यः॑। स्वाहा॑। य॒मने॑त्रेभ्य॒ इति॑ य॒मऽने॑त्रेभ्यः। दे॒वेभ्यः॑। द॒क्षि॒णा॒सद्भ्य॒ इति॑ दक्षिणा॒सत्ऽभ्यः॑। स्वाहा॑। वि॒श्वदे॑वनेत्रेभ्य॒ इति॑ वि॒श्वदे॑वऽनेत्रेभ्यः। दे॒वेभ्यः॑। प॒श्चात्सद्भ्य॒ इति॑ पश्चा॒त्सत्ऽभ्यः॑। स्वाहा॑। मि॒त्रावरु॑णनेत्रेभ्य॒ इति॑ मि॒त्रावरु॑णऽनेत्रेभ्यः। वा॒। म॒रुन्ने॑त्रेभ्य॒ इति॑ म॒रुत्ऽने॑त्रेभ्यः। वा॒। दे॒वेभ्यः॑। उ॒त्त॒रा॒सद्भ्य॒ इत्यु॑त्तरा॒सत्ऽभ्यः॑। स्वाहा॑। सोम॑नेत्रेभ्य॒ इति॑ सोम॑ऽनेत्रेभ्यः। दे॒वेभ्यः॑। उ॒प॒रि॒सद्भ्य॒ इत्यु॑परि॒सत्ऽभ्यः॑। दुव॑स्वद्भ्य॒ इति॑ दुव॑स्वत्ऽभ्यः। स्वाहा॑ ॥३५॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

कैसा मनुष्य चक्रवर्त्ती राज्य सेवने को योग्य होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (निर्ऋते) सदैव सत्याचरणयुक्त राजन् ! (ते) आप का जो (एषः) यह (भागः) सेवने योग्य है, उसको (अग्निनेत्रेभ्यः) अग्नि के प्रकाश के समान नीतियुक्त (देवेभ्यः) विद्वानों से (स्वाहा) सत्य वाणी (पुरःसद्भ्यः) जो प्रथम सभा वा राज्य में स्थित हो, उन (देवेभ्यः) न्यायाधीश विद्वानों से (स्वाहा) धर्मयुक्त क्रिया (यमनेत्रेभ्यः) जिनकी वायु के समान सर्वत्र गति (दक्षिणासद्भ्यः) जो दक्षिण दिशा में राजप्रबन्ध के लिये स्थित हों, उन (देवेभ्यः) विद्वानों से (स्वाहा) दानक्रिया (विश्वेदेवनेत्रेभ्यः) सब विद्वानों के तुल्य नीति के ज्ञानी (पश्चात्सद्भ्यः) जो पश्चिम दिशा में राजकर्मचारी हों, उन (देवेभ्यः) दिव्य सुख देनेहारे विद्वानों से (स्वाहा) उत्साहकारक वाणी (मित्रावरुणनेत्रेभ्यः) प्राण और अपान के समान वा (मरुन्नेत्रेभ्यः) ऋत्विक् यज्ञ के कर्त्ता (वा) सत्पुरुष के समान न्यायकारक (वा) वा (उत्तरासद्भ्यः) जो उत्तर दिशा में न्यायधीश हों, उन (देवेभ्यः) विद्वानों से (स्वाहा) दूतकर्म की कुशल क्रिया (सोमनेत्रेभ्यः) चन्द्रमा के समान ऐश्वर्य्ययुक्त होकर सब को आनन्ददायक (उपरिसद्भ्यः) विद्या, विनय, धर्म और ईश्वर की सेवा करनेहारे (देवेभ्यः) विद्वानों से (स्वाहा) आप्त पुरुषों की वाणी को प्राप्त हो के तू सदा धर्म का (जुषस्व) सेवन किया कर ॥३५॥


भावार्थभाषाः -हे राजन् सभाध्यक्ष ! जब आप सब ओर से उत्तम विद्वानों से युक्त होकर सब प्रकार की शिक्षा को प्राप्त सभा का करनेहारा सेना का रक्षक उत्तम सहाय से सहित होकर सनातन वेदोक्त राजधर्मनीति से प्रजा का पालन कर इस लोक और परलोक में सुख ही को प्राप्त होवे, जो कर्म से विरुद्ध रहेगा तो तुझ को सुख भी न होगा। कोई भी मनुष्य मूर्खों के सहाय से सुख की वृद्धि नहीं कर सकता और न कभी विद्वानों के अनुसार चलनेवाला मनुष्य सुख को छोड़ देता है। इससे राजा सर्वदा विद्या, धर्म और आप्त विद्वानों के सहाय से राज्य की रक्षा किया करे। जिसकी सभा वा राज्य में पूर्ण विद्यायुक्त धार्मिक मनुष्य सभासद् वा कर्मचारी होते हैं और जिसके सभा वा राज्य में मिथ्यावादी, व्यभिचारी, अजितेन्द्रिय, कठोर वचनों के बोलनेवाले, अन्याकारी, चोर और डाकू आदि नहीं होते और आप भी इसी प्रकार का धार्मिक हो तो वही पुरुष चक्रवर्त्ती राज्य करने के योग्य होता है, इससे विरुद्ध नहीं ॥३५॥

 

देवता: विश्वेदेवा देवताः ऋषि: वरुण ऋषिः छन्द: विकृतिः स्वर: मध्यमः


ये दे॒वाऽअ॒ग्निने॑त्राः पुरः॒सद॒स्तेभ्यः॒ स्वाहा॒ ये दे॒वा य॒मने॑त्रा दक्षिणा॒सद॒स्तेभ्यः॒ स्वाहा॒ ये दे॒वा वि॒श्वदे॑वनेत्राः पश्चा॒त्सद॒स्तेभ्यः॒ स्वाहा॒ ये दे॒वा मि॒त्रावरु॑णनेत्रा वा म॒रुन्ने॑त्रा वोत्तरा॒सद॒स्तेभ्यः॒ स्वाहा॒ ये दे॒वाः सोम॑नेत्राऽउपरि॒सदो॒ दुव॑स्वन्त॒स्तेभ्यः॒ स्वाहा॑ ॥३६॥

 

पद पाठ

ये। दे॒वाः। अग्निने॑त्रा॒ इत्य॑ग्निऽने॑त्राः। पु॒रः॒सद॒ इति॑ पु॒रः॒ऽसदः॑। तेभ्यः॑। स्वाहा॑। ये। दे॒वाः। य॒मने॑त्रा॒ इति॑ य॒मऽने॑त्राः। द॒क्षि॒णा॒सद॒ इति॑ दक्षिणा॒ऽसदः॑। तेभ्यः॑। स्वाहा॑। ये। दे॒वाः। वि॒श्वदे॑वनेत्रा॒ इति॑ वि॒श्वदे॑वऽनेत्राः। प॒श्चात्सद॒ इति॑ पश्चा॒त्ऽसदः॑। तेभ्यः॑। स्वाहा॑। ये। दे॒वाः। मि॒त्रावरु॑णनेत्रा॒ इति॑ मि॒त्रावरु॑णऽनेत्राः। वा॒। म॒रुन्ने॑त्रा॒ इति॑ म॒रुत्ऽने॑त्राः। वा॒। उ॒त्त॒रा॒सद॒ इत्यु॑त्तरा॒ऽसदः॑। तेभ्यः॑। स्वाहा॑। ये। दे॒वाः। सोम॑नेत्रा॒ इति सोम॑ऽनेत्राः। उ॒प॒रि॒सद॒ इत्यु॑परि॒ऽसदः॑। दुव॑स्वन्तः। तेभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥३६॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्य लोग सर्वत्र घूम-घाम कर विद्या ग्रहण करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे सभाध्यक्ष राजन् ! आप (ये) जो (अग्निनेत्राः) बिजुली आदि पदार्थों के समान जाननेवाले (पुरःसदः) जो सभा वा देश वा पूर्व की दिशा में स्थित (देवाः) विद्वान् हैं, (तेभ्यः) उनसे (स्वाहा) सत्यवाणी (ये) जो (यमनेत्राः) अहिंसादि योगाङ्ग रीतियों में निपुण (दक्षिणासदः) दक्षिण दिशा में स्थित (देवाः) योगी और न्यायाधीश हैं, (तेभ्यः) उनसे (स्वाहा) सत्यक्रिया (ये) जो (पश्चात्सदः) पश्चिम दिशा में (विश्वदेवनेत्राः) सब पृथिवी आदि पदार्थों के ज्ञाता (देवाः) सब विद्या जाननेवाले विद्वान् हैं, (तेभ्यः) उनसे (स्वाहा) दण्डनीति (ये) जो (उत्तरासदः) प्रश्नोत्तरों का समाधान करनेवाले उत्तर दिशा में (वा) नीचे-ऊपर स्थित (मित्रावरुणनेत्राः) प्राण-उदान के समान सब धर्मों के बतानेवाले (वा) अथवा (मरुन्नेत्राः) ब्रह्माण्ड के वायु में नेत्रविज्ञान और (देवाः) सब को सुख देनेवाले विद्वान् हैं, (तेभ्यः) उनसे (स्वाहा) सबकी उपकारक विद्या को सेवन करो। और (ये) जो (उपरिसदः) ऊँचे आसन वा व्यवहार में स्थित (दुवस्वन्तः) बहुत प्रकार से धर्म के सेवन से युक्त (सोमनेत्राः) सोम आदि औषधियों के जानने तथा (देवाः) आयुर्वेद को जाननेहारे हैं, (तेभ्यः) उनसे (स्वाहा) अमृतरूपी औषधीविद्या का सेवन कीजिये ॥३६॥


भावार्थभाषाः -हे राजा आदि मनुष्यो ! तुम लोग जब धार्मिक सुशील विद्वान् होकर सब दिशाओं में स्थित सब विद्याओं के जाननेवाले आप्त विद्वानों की परीक्षा और सत्कार के लिये सब विद्याओं को प्राप्त होंगे, तब यह तुम्हारे समीप आके तुम्हारे साथ सङ्ग करके धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को सिद्धि करावें। जो देश-देशान्तर तथा द्वीप-द्वीपान्तर में विद्या, नम्रता, अच्छी शिक्षा, काम की चतुराई को ग्रहण करते हैं, वे ही सब को अच्छे सुख करानेवाले होते हैं ॥३६॥

 

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: देवावत ऋषिः छन्द: निचृद् अनुष्टुप् स्वर: गान्धारः


अग्ने॒ सह॑स्व॒ पृ॑तनाऽअ॒भिमा॑ती॒रपा॑स्य। दु॒ष्टर॒स्तर॒न्नरा॑ती॒र्वर्चो॑ धा य॒ज्ञवा॑हसि ॥३७॥

 

पद पाठ

अग्ने॑। सह॑स्व। पृत॑नाः। अ॒भिमा॑ती॒रित्य॒भिऽमा॑तीः। अप॑। अ॒स्य॒। दु॒ष्टरः॑। दु॒ष्तर॒ इति॑ दुः॒ऽतरः॑। तर॒न्। अरा॑तीः। वर्चः॑। धाः॒। य॒ज्ञवा॑ह॒सीति॑ य॒ज्ञऽवा॑हसि ॥३७॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी राजा आदि किस प्रकार वर्त्तें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) सब विद्या जाननेवाले विद्वान् राजन् ! (दुष्टरः) दुःख से तरने योग्य (तरन्) शत्रु सेना को अच्छे प्रकार तरते हुए आप (यज्ञवाहसि) जिसमें राजधर्मयुक्त राज्य में (अभिमातीः) अभिमान आनन्दयुक्त (पृतनाः) बल और अच्छी शिक्षायुक्त वीरसेना को (सहस्व) सहो (अरातीः) दुःख देनेवाले शत्रुओं को (अपास्य) दूर निकालिये और (वर्चः) विद्या बल और न्याय को (धाः) धारण कीजिये ॥३७॥


भावार्थभाषाः -राजादि सभा सेना के स्वामी लोग अपनी दृढ़ विद्या और अच्छी शिक्षा से युक्त सेना के सहित आप अजय और शत्रुओं को जीतते हुए भूमि पर उत्तम यज्ञ का विस्तार करें ॥३७॥

 

देवता: रक्षोघ्नो देवता ऋषि: देवावत ऋषिः छन्द: भुरिग् ब्राह्मी बृहती स्वर: मध्यमः


दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वे᳕ऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। उ॒पा॒ᳬशोर्वी॒र्ये᳖ण जुहोमि ह॒तꣳ रक्षः॒ स्वाहा॒ रक्ष॑सां त्वा व॒धायाव॑धिष्म॒ रक्षोऽव॑धिष्मा॒मुम॒सौ ह॒तः ॥३८॥

 

पद पाठ

दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। उ॒पा॒ᳬशोरित्यु॑पऽअ॒ꣳशोः। वी॒र्येण। जु॒हो॒मि॒। ह॒तम्। रक्षः॑। स्वाहा॑। रक्ष॑साम्। त्वा॒। व॒धाय॑। अव॑धिष्म। रक्षः॑। अव॑धिष्म। अ॒मुम्। अ॒सौ। ह॒तः ॥३८॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

प्रजाजन राज्य में कैसे सभाधीश को स्वीकार करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे राजन् ! मैं (स्वाहा) सत्य क्रिया से (सवितुः) ऐश्वर्य्य के उत्पन्न करनेवाले (देवस्य) प्रकाशित न्याययुक्त (प्रसवे) ऐश्वर्य्य में (उपांशोः) समीपस्थ सेना के (वीर्य्येण) सामर्थ्य से (अश्विनोः) सूर्य्य-चन्द्रमा के समान सेनापति के (बाहुभ्याम्) भुजाओं से (पूष्णः) पुष्टिकारक वैद्य के (हस्ताभ्याम्) हाथों से (रक्षसाम्) राक्षसों के (वधाय) नाश के अर्थ (त्वा) आपको (जुहोमि) ग्रहण करता हूँ, जैसे तूने (रक्षसाम्) दुष्ट को (हतम्) नष्ट किया, वैसे हम लोग भी दुष्टों को (अवधिष्म) मारें, जैसे (असौ) वह दुष्ट (हतः) नष्ट हो जाय, वैसे हम लोग इन सब को (अवधिष्म) नष्ट करें ॥३८॥


भावार्थभाषाः -प्रजाजनों को चाहिये कि अपने बचाव और दुष्टों के निवारणार्थ विद्या और धर्म की प्रवृत्ति के लिये अच्छे स्वभाव, विद्या और धर्म के प्रचार करनेहारे, वीर, जितेन्द्रिय, सत्यवादी, सभा के स्वामी राजा को स्वीकार करें ॥३८॥

 

देवता: रक्षोघ्नो देवता ऋषि: देवावत ऋषिः छन्द: अतिजगती स्वर: निषादः


स॒वि॒ता त्वा॑ स॒वाना॑ᳬ सुवताम॒ग्निर्गृ॒हप॑तीना॒ᳬ सोमो॒ वन॒स्पती॑नाम्। बृह॒स्पति॑र्वा॒चऽइन्द्रो॒ ज्यैष्ठ्या॑य रुद्रः प॒शुभ्यो॑ मित्रः॒ स॒त्यो वरु॑णो॒ धर्म॑पतीनाम् ॥३९॥

 

पद पाठ

स॒वि॒ता। त्वा॒। स॒वाना॑म्। सु॒व॒ता॒म्। अ॒ग्निः। गृ॒ह॑पतीना॒मिति॑ गृ॒हऽप॑तीनाम्। सोमः॑। वन॒स्पती॑नाम्। बृह॒स्पतिः॑। वा॒चे। इन्द्रः॑। ज्यैष्ठ्या॑य। रुद्रः। प॒शुभ्य॒ इति॑ पशुऽभ्यः॑। मि॒त्रः॒। स॒त्यः। वरु॑णः। धर्म॑पतीना॒मिति॒ धर्म॑ऽपतीनाम् ॥३९॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

सभ्य मनुष्य राजा को किस-किस विषय में प्रेरणा करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे सभापते राजन् ! जो तू (सवानाम्) ऐश्वर्य्य के (सविता) सूर्य्य के समान प्रेरक (गृहपतीनाम्) गृहस्थों के उपकारक (अग्निः) पावक के सदृश (वनस्पतीनाम्) पीपल आदि वृक्षों में (सोमः) सोमवल्ली के सदृश (धर्म्मपतीनाम्) धर्म के पालनेहारों के मध्य में (सत्यः) सज्जनों में सज्जन (वरुणः) शुभगुण कर्मों में श्रेष्ठ (मित्रः) सखा के तुल्य (वाचे) वेदवाणी के लिये (बृहस्पतिः) महाविद्वान् के सदृश (ज्यैष्ठ्याय) श्रेष्ठता के लिये (इन्द्र) परमैश्वर्य्य से युक्त के तुल्य (पशुभ्यः) गौ आदि पशुओं के लिये (रुद्रः) शुद्ध वायु के सदृश है, उस (त्वा) तुझको धर्मात्मा, सत्यवादी विद्वान् धर्म से प्रजा की रक्षा में (सुवताम्) प्रेरणा करें ॥३९॥


भावार्थभाषाः -हे राजन् ! जो आपको अधर्म से लौटाकर धर्म के अनुष्ठान में प्रेरणा करें, उन्हीं का सङ्ग सदा करो, औरों का नहीं ॥३९॥

 

देवता: यजमानो देवता ऋषि: देवावत ऋषिः छन्द: स्वराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः


इ॒मं दे॑वाऽअस॒पत्नꣳ सु॑वध्वं मह॒ते क्ष॒त्राय॑ मह॒ते ज्यैष्ठ्या॑य मह॒ते जान॑राज्या॒येन्द्र॑स्येन्द्रि॒याय॑। इ॒मम॒मुष्य॑ पु॒त्रम॒मुष्यै॑ पु॒त्रम॒स्यै वि॒शऽए॒ष वो॑ऽमी॒ राजा॒ सोमो॒ऽस्माकं॑ ब्राह्म॒णाना॒ राजा॑ ॥४०॥

 

पद पाठ

इ॒मम्। दे॒वाः॒। अ॒स॒प॒त्नम्। सु॒व॒ध्व॒म्। म॒ह॒ते। क्ष॒त्राय॑। म॒ह॒ते। ज्यैष्ठ्या॑य। म॒ह॒ते। जान॑राज्या॒येति॒ जान॑ऽराज्याय। इन्द्र॑स्य। इ॒न्द्रि॒याय॑। इ॒मम्। अ॒मुष्य॑। पु॒त्रम्। अ॒मुष्यै॑। पु॒त्रम्। अ॒स्यै। वि॒शे। ए॒षः। वः॒। अ॒मी॒ऽइत्य॑मी। राजा॑। सोमः॑। अ॒स्माक॑म्। ब्रा॒ह्म॒णाना॑म्। राजा॑ ॥४०॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

किस-किस प्रयोजन के लिये कैसे राजा का स्वीकार करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे प्रजास्थ (देवाः) विद्वान् लोगो ! तुम जो (एषः) यह (सोमः) चन्द्रमा के समान प्रजा में प्रियरूप (वः) तुम क्षत्रियादि और हम ब्राह्मणादि और जो (अमी) परोक्ष में वर्त्तमान हैं, उन सब का राजा है, उस (इमम्) इस (अमुष्य) उस उत्तम पुरुष का (पुत्रम्) पुत्र (अमुष्यै) उस विद्यादि गुणों से श्रेष्ठ धर्मात्मा विद्वान् स्त्री के पुत्र को (अस्यै) इस (विशे) प्रजा के लिये इसी पुरुष को (महते) बड़े (ज्यैष्ठ्याय) प्रशंसा के योग्य (महते) बड़े (जानराज्याय) धार्मिक जनों के राज्य करने (इन्द्रस्य) परमैश्वर्य्ययुक्त (इन्द्रियाय) धन के वास्ते (असपत्नम्) शत्रु रहित (सुवध्वम्) कीजिये ॥४०॥


भावार्थभाषाः -हे राजा और प्रजा के मनुष्यो ! तुम जो विद्वान् माता और पिता से अच्छे प्रकार सुशिक्षित, कुलीन, बड़े उत्तम-उत्तम गुण, कर्म और स्वभावयुक्त जितेन्द्रियादि गुणयुक्त, ४८ अड़तालीस वर्षपर्यन्त ब्रह्मचर्य्य से पूर्ण विद्या से सुशील, शरीर और आत्मा के पूर्ण बलयुक्त, धर्म से प्रजा का पालक, प्रेमी, विद्वान् हो, उसको सभापति राजा मान कर चक्रवर्त्तिराज्य का सेवन करो ॥४०॥ इस अध्याय में राजधर्म के वर्णन से इस अर्थ की पूर्व अध्याय के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ इति श्रीमत्परिव्राजकाचार्य्येण श्रीयुतमहाविदुषां विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण दयानदसरस्वतीस्वामिना विरचिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां विभूषिते सुप्रमाणयुक्ते यजुर्वेदभाष्ये नवमोऽध्यायः पूर्तिमगात् ॥९॥

 



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