यजुर्वेद आध्याय 5,
अ॒ग्नेस्त॒नूर॑सि॒ विष्ण॑वे त्वा॒ सोम॑स्य त॒नूर॑सि॒ विष्ण॑वे॒ त्वा॒ऽति॑थेराति॒थ्यम॑सि॒ विष्ण॑वे त्वा श्ये॒नाय॑ त्वा सोम॒भृते॒ विष्ण॑वे त्वा॒ऽग्नये॑ त्वा रायस्पोष॒दे विष्ण॑वे त्वा ॥१॥
पद पाठ
अ॒ग्नेः। त॒नूः। अ॒सि॒। विष्ण॑वे ॥ त्वा॒ सोम॑स्य। त॒नूः अ॒सि॒। विष्ण॑वे। त्वा॒। अति॑थेः। आ॒ति॒थ्यम्। अ॒सि॒। विष्ण॑वे। त्वा॒। श्येनाय॑। त्वा॒। सो॒म॒भृत॒ इति॑ सोम॒ऽभृते॑। विष्ण॑वे। त्वा॒। अ॒ग्नये॑। त्वा॒। रा॒य॒स्पो॒ष॒द इति॑ रायस्पोष॒ऽदे। विष्ण॑वे। त्वा॒ ॥१॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
किस-किस प्रयोजन के लिये यज्ञ का अनुष्ठान करना योग्य है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- हे मनुष्यों ! तुम लोग जैसे मैं जो हवि (अग्नेः) बिजुली प्रसिद्ध रूप अग्नि के (तनूः) शरीर के समान (असि) है (त्वा) उसको (विष्णवे) यज्ञ की सिद्धि के लिये स्वीकार करता हूँ, जो (सोमस्य) जगत् में उत्पन्न हुए पदार्थ-समूह की (तनूः) विस्तारपूर्वक सामग्री (असि) है (त्वा) उसको (विष्णवे) वायु की शुद्धि के लिये उपयोग करता हूँ, जो (अतिथेः) संन्यासी आदि का (आतिथ्यम्) अतिथिपन वा उनकी सेवारूप कर्म (असि) है (त्वा) उसको (विष्णवे) विज्ञान यज्ञ की प्राप्ति के लिये ग्रहण करता हूँ, जो (श्येनाय) श्येनपक्षी के समान शीघ्र जाने के लिये (असि) है (त्वा) उस द्रव्य को अग्नि आदि में छोड़ता हूँ, जो (विष्णवे) सब विद्या कर्मयुक्त (सोमभृते) सोमों को धारण करनेवाले यजमान के लिय सुख (असि) है (त्वा) उसको ग्रहण करता हूँ। जो (अग्नये) अग्नि बढ़ाने के लिये काष्ठ आदि हैं (त्वा) उसको स्वीकार करता हूँ। जो (रायस्पोषदे) धन की पुष्टि देने वा (विष्णवे) उत्तम गुण, कर्म, विद्या की व्याप्ति के लिये समर्थ पदार्थ है (त्वा) उसको ग्रहण करता हूँ, वैसे इन सब का सेवन तुम भी किया करो ॥१॥
भावार्थभाषाः- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को उचित है कि पूर्वोक्त फल की प्राप्ति के लिये तीन प्रकार के यज्ञ का अनुष्ठान नित्य करें ॥१॥
अ॒ग्नेर्ज॒नित्र॑मसि॒ वृष॑णौ स्थऽउ॒र्वश्य॑स्या॒युर॑सि पुरू॒रवा॑ऽअसि। गा॒य॒त्रेण॑ त्वा॒ छन्द॑सा मन्थामि॒ त्रैष्टु॑भेन त्वा॒ छन्द॑सा मन्थामि॒ जाग॑तेन त्वा॒ छन्द॑सा मन्थामि ॥२॥
पद पाठ
अ॒ग्नेः। ज॒नित्र॑म्। अ॒सि॒। वृष॑णौ। स्थः॒। उ॒र्वशी॑। अ॒सि॒। आ॒युः। अ॒सि॒। पु॒रू॒रवाः॑। अ॒सि॒। गा॒य॒त्रेण॑। त्वा॒। छन्द॑सा। म॒न्था॒मि॒। त्रैष्टु॑भेन। त्वा॒। छन्द॑सा। म॒न्था॒मि॒। जाग॑तेन। त्वा॒। छन्द॑सा। म॒न्था॒मि॒ ॥२॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वह यज्ञ कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- हे मनुष्य लोगों ! जैसे मैं जो (अग्नेः) आग्नेय अस्त्रादि की सिद्धि करने हारे अग्नि के (जनित्रम्) उत्पन्न करनेवाला हवि (असि) है, (वृषणौ) जो वर्षा करानेवाले सूर्य्य और वायु (स्थः) हैं, जो (उर्वशी) बहुत सुखों के प्राप्त करानेवाली क्रिया (असि) है, जो (आयुः) जीवन (असि) है, जो (पुरूरवाः) बहुत शास्त्रों के उपदेश करने का निमित्त (असि) है, (त्वा) उस अग्नि (गायत्रेण) गायत्री (छन्दसा) आनन्दकारक स्वच्छन्द क्रिया से (मन्थामि) विलोडन करता हूँ (त्वा) उस सोम आदि ओषधीसमूह (त्रैष्टुभेन) त्रिष्टुप् (छन्दसा) छन्द से (मन्थामि) विलोडन करता हूँ (त्वा) और उस शत्रु दुःखसमूह को (जागतेन) जगती (छन्दसा) छन्द से (मन्थामि) ताड़न करके निवारण करता हूँ, वैसे ही तुम भी किया करो ॥२॥
भावार्थभाषाः- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सब मनुष्यों को योग्य है कि इस प्रकार की रीति से प्रतिपादन वा सेवन किये हुए यज्ञ से दूसरे मनुष्यों के लिये परोपकार करें ॥२॥
भव॑तं नः॒ सम॑नसौ॒ सचे॑तसावरे॒पसौ॑।
मा य॒ज्ञꣳ हि॑ꣳसिष्टं॒ मा य॒ज्ञप॑तिं जातवेदसौ शि॒वौ भ॑वतम॒द्य नः॑ ॥३॥
पद पाठ
भव॑तम्। नः॒। सम॑नसा॒विति॒ सऽम॑नसौ। सचे॑तसा॒विति॒ सऽचे॑तसौ। अ॒रे॒पसौ॑। मा। य॒ज्ञम्। हि॒ᳬसि॒ष्ट॒म्। मा। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिम्। जा॒त॒वे॒द॒सा॒विति॑ जातऽवेदसौ। शि॒वौ। भ॒व॒त॒म्। अ॒द्य। नः॒ ॥३॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
यजमान और यज्ञ की सिद्धि करनेवाले विद्वान् कैसे होने चाहियें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- जो (अरेपसौ) प्राकृत मनुष्यों के भाषारूपी वचन से रहित (समनसौ) तुल्य विस्तारयुक्त (सचेतसौ) तुल्य ज्ञान-ज्ञापनयुक्त (जातवेदसौ) वेद और उपविद्याओं को सिद्ध किये हुए पढ़ने-पढ़ानेवाले विद्वान् (नः) हम लोगों के लिये उपदेश करनेवाले (भवतम्) होवें। जो (यज्ञम्) पढ़ने-पढ़ाने रूप यज्ञ वा (यज्ञपतिम्) विद्याप्रद यज्ञ के पालन करनेवाले यज्ञमान को (मा मा हिंसिष्टम्) न पीडि़त करें। वे (अद्य) आज (नः) हम लोगों के लिये (शिवौ) मङ्गल करनेवाले (भवतम्) होवें ॥३॥
भावार्थभाषाः- मनुष्यों को उचित है कि विद्याप्रचार के लिये पढ़ना पढ़ाना वा मङ्गलाचरण को न छोड़ें, क्योंकि यही सर्वोत्तम कर्म है ॥३॥
अ॒ग्नाव॒ग्निश्च॑रति॒ प्रवि॑ष्ट॒ऽऋषी॑णां पु॒त्रोऽअ॑भिशस्ति॒पावा॑।
स नः॑ स्यो॒नः सु॒यजा॑ यजे॒ह दे॒वेभ्यो॑ ह॒व्यꣳ सद॒मप्र॑युच्छ॒न्त्स्वाहा॑ ॥४॥
पद पाठ
अ॒ग्नौ। अ॒ग्निः। च॒र॒ति॒। प्रविष्ट॑ इति॒ प्रऽवि॒ष्टः। ऋषी॑णाम्। पु॒त्रः। अ॒भि॒श॒स्ति॒पावेत्य॑भिशस्ति॒ऽपावा॑। सः। नः॒। स्यो॒नः। सु॒यजेति॑ सु॒ऽयजा॑। य॒ज॒। इ॒ह। दे॒वेभ्यः॑। ह॒व्यम्। सद॑म्। अप्र॑युच्छ॒न्नित्यप्र॑ऽयुच्छन्। स्वाहा॑ ॥४॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
विद्युत् और विद्वान् अग्नि कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- जो (अभिशस्तिपावा) सब प्रकार हिंसा करनेवालों से रहित (अग्नौ) विद्युत् अग्नि की विद्या में (प्रविष्टः) प्रवेश करने-कराने (ऋषीणाम्) वेदादि शास्त्रों के शब्द अर्थ और सम्बन्धों को यथावत् जनानेवालों का (पुत्रः) पढ़ा हुआ (स्योनः) सर्वथा सुखकारी (सुयजा) विद्याओं को अच्छी प्रकार प्रत्यक्ष सङ्ग कराने हारा (अग्निः) प्रकाशात्मा (अप्रयुच्छन्) प्रमादरहित अध्यापक विद्वान् (चरति) जो (नः) हम लोगों के लिये (इह) इस संसार में (देवेभ्यः) विद्वान् वा दिव्य गुणों से (हव्यम्) लेने-देने योग्य पदार्थ वा (सदम्) ज्ञान और (स्वाहा) हवन करने योग्य उत्तम अन्नादि को प्राप्त करता है (सः) सो आप (यज) सब विद्याओं को प्राप्त कराइये ॥४॥
भावार्थभाषाः- मनुष्यों को योग्य है कि जो अग्नि कार्य्य-कारण के भेद से दो प्रकार का निश्चित अर्थात् जो कार्य्यरूप से सूर्यादि और कारण रूप से अग्नि सब मूर्त्तिमान् द्रव्यों में प्रवेश कर रहा है, उसका इस संसार में विद्या से संप्रयोग कर कार्यों में उपयोग करना चाहिये ॥४॥
आप॑तये त्वा॒ परि॑पतये गृह्णामि॒ तनू॒नप्त्रे॑ शाक्व॒राय॒ शक्व॑न॒ऽओजि॑ष्ठाय। अना॑धृष्टमस्यनाधृ॒ष्यंदे॒वाना॒मोजोऽन॑भिशस्त्यभिशस्ति॒पा॑ऽअ॑नभिशस्ते॒न्यमञ्ज॑सा स॒त्यमु॑पगेषꣳ स्वि॒ते मा॑ धाः ॥५॥
पद पाठ
आप॑तय॑ इत्याऽप॑तये। त्वा॒। परि॑पतय॒ इति॒ परि॑ऽपतये। गृ॒ह्णा॒मि॒। तनू॒नप्त्र॒ इति॒ तनू॒ऽनप्त्रे॑। शा॒क्व॒राय॑। शक्व॑ने। ओजि॑ष्ठाय। अना॑धृष्टम्। अ॒सि॒। अ॒ना॒धृ॒ष्यम्। दे॒वाना॑म्। ओजः॑। अन॑भिश॒स्तीत्यन॑भिऽशस्ति। अ॒भि॒श॒स्ति॒पा इत्य॑भिशस्ति॒ऽपाः। अ॒न॒भि॒श॒स्ते॒न्यमित्य॑नभिऽशस्ते॒न्यम्। अञ्ज॑सा। स॒त्यम्। उप॑। गे॒ष॒म्। स्वि॒त इति॑ सुऽइते। मा॒। धाः॒ ॥५॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
मनुष्यों को किस-किस प्रयोजन के लिये परमात्मा की प्रार्थना, बिजुली का स्वीकार करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- मैं हे परमात्मन् ! जिस से आप (अभिशस्तिपाः) हिंसारूप कर्मों से अलग रहने और रखनेवाले हैं, इससे (त्वा) आपको (आपतये) सब प्रकार से स्वामी होने (परिपतये) सब ओर से रक्षा (शाक्वराय) सब सामर्थ्य की प्राप्ति (शक्वने) शूरवीर-युक्त सेना (ओजिष्ठाय) जिसमें सर्वोत्कृष्ट पराक्रम होता है, उस विद्या के होने और (तनूनप्त्रे) जिस से उत्तम शरीर होता है, उसके लिये (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ। आप अपनी कृपा से उस (देवानाम्) विद्वानों का (अनाधृष्टम्) जिस का अपमान कोई नहीं कर सकता (अनाधृष्यम्) किसी के अपमान करने योग्य नहीं है, (अनभिशस्ति) किसी के हिंसा करने योग्य नहीं है (अनभिशस्तेन्यम्) अहिंसारूप धर्म की प्राप्ति कराने हारा (सत्यम्) अविनाशी (ओजः) तेज है, उसका ग्रहण कराके (स्विते) अच्छे प्रकार जिस व्यवहार में सब सुख प्राप्त होते हैं, उस में (मा) मुझको (धाः) धारण करें कि जिस से (सत्यम्) सत्य व्यवहार को (उपगेषम्) जानकर करूँ ॥५॥ मैं जो (अनाधृष्टम्) न हटाने (अनाधृष्यम्) न किसी से नष्ट करने (अनभिशस्ति) न हिंसा करने (अनभिशस्तेन्यम्) और हिंसारहित धर्म प्राप्त कराने योग्य (देवानाम्) विद्वान् वा पृथिवी आदिकों के मध्य में (सत्यम्) कारणरूप नित्य (ओजः) पराक्रम स्वरूपवाली (अभिशस्तिपाः) हिंसा से रक्षा का निमित्त रूप बिजुली (असि) है, जो (मा) मुझे (स्विते) उत्तम प्राप्त होने योग्य व्यवहार में (धाः) धारण करती है (अञ्जसा) सहजता से (ओजिष्ठाय) अत्यन्त तेजस्वी (आपतये) अच्छे प्रकार पालन करने योग्य व्यवहार (परिपतये) जिस में सब प्रकार पालन करनेवाले होते हैं (तनूनप्त्रे) जिस से उत्तम शरीरों को प्राप्त होते हैं (शाक्वराय) शक्ति उत्पन्न करने और (शक्वने) शक्तिवाली वीरसेना की प्राप्ति के लिये है (त्वा) उसको (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ कि जिससे उन सत्य कारणरूप पदार्थों को (उपगेषम्) जान सकूँ ॥५॥
भावार्थभाषाः- मनुष्यों को परमेश्वर के विज्ञान के विना सत्य सुख और बिजुली आदि विद्या और क्रियाकुशलता के विना संसार के सब सुख नहीं हो सकते, इसलिये यह कार्य्य पुरुषार्थ से सिद्ध करना चाहिये ॥५॥
अग्ने॑ व्रतपा॒स्त्वे व्र॑तपा॒ या तव॑ त॒नूरि॒यꣳ सा मयि॒ यो मम॑ त॒नूरे॒षा सा त्वयि॑। स॒ह नौ॑ व्रतपते व्र॒तान्यनु॑ मे दी॒क्षां दी॒क्षाप॑ति॒र्मन्य॑ता॒मनु॒ तप॒स्तप॑स्पतिः ॥६॥
पद पाठ
अग्ने॑। व्र॒त॒पा॒ इति॑ व्रतऽपाः। त्वेऽइति॑ त्वे। व्र॒त॒पा॒ इति॑ व्रतऽपाः। या। तव॑। त॒नूः। इ॒यम्। सा। मयि॑। योऽइति॒ यो। मम॑। त॒नूः। ए॒षा। त्वयि॑। स॒ह। नौ॒। व्र॒त॒प॒त॒ इति॑ व्रतऽपते। व्र॒तानि॑। अनु॑। मे॒। दी॒क्षाम्। दी॒क्षाप॑ति॒रिति॒ दी॒क्षाऽप॑तिः॒। मन्य॑ताम्। अनु॑। तपः॑। तप॑स्पति॒रिति॒ तपः॑ऽपतिः ॥६॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वह परमात्मा और बिजुली कैसी है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- जिसलिये हे (अग्ने) (व्रतपते) जगदीश्वर ! आप वा बिजुली सत्यधर्मादि नियमों के (व्रतपाः) पालन करनेवाले हैं, इसलिये (त्वे) उस आप वा बिजुली में मैं (व्रतपाः) पूर्वोक्त व्रतों के पालन करनेवाली क्रियावाला होता हूँ (या) जो (इयम्) यह (तव) आप और उसकी (तनूः) विस्तृत व्याप्ति है (सा) वह (मयि) मुझमें (यो) जो (एषा) यह (मम) मेरा (तनूः) शरीर है (सा) सो (त्वयि) आप वा उसमें है (व्रतानि) जो ब्रह्मचर्य्यादि व्रत हैं, वे मुझ में हों और जो (मे) मुझ में हैं, वे (त्वयि) तुम्हारे में हैं, जो आप वा वह (तपस्पतिः) जितेन्द्रियत्वादिपूर्वक धर्मानुष्ठान के पालन निमित्त हैं, सो (मे) मेरे लिये (तपः) पूर्वोक्त तप को (अनुमन्यताम्) विज्ञापित कीजिये वा करती है और जो आप वा वह (दीक्षापतिः) व्रतोपदेशों के रक्षा करनेवाले हैं, सो (मे) मेरे लिये (दीक्षाम्) व्रतोपदेश को (अनुमन्यताम्) आज्ञा कीजिये वा करती हैं, इसलिये भी (नौ) मैं और आप पढ़ने-पढ़ाने हारे दोनों प्रीति के साथ वर्त्त कर विद्वान् धार्मिक हों कि जिससे दोनों की विद्यावृद्धि सदा होवे ॥६॥
भावार्थभाषाः- इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को परस्पर प्रेम वा उपकार बुद्धि से परमात्मा वा बिजुली आदि का विज्ञान कर वा कराके धर्मानुष्ठान से पुरुषार्थ में निरन्तर प्रवृत्त होना चाहिये ॥६॥
अ॒ꣳशुर॑ꣳशुष्टे देव सो॒माप्या॑यता॒मिन्द्रा॑यैकधन॒विदे॑। आ तुभ्य॒मिन्द्रः॒ प्याय॑ता॒मा त्वमिन्द्रा॑य प्यायस्व। आप्या॑यया॒स्मान्त्सखी॑न्त्स॒न्न्या मे॒धया॑ स्व॒स्ति ते॑ देव सोम सु॒त्याम॑शीय। एष्टा॒ रायः॒ प्रेषे भगा॑यऽऋ॒तमृ॑तवा॒दिभ्यो॒ नमो॒ द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॑म् ॥७॥
पद पाठ
अ॒ꣳशुर॑ꣳशु॒रित्य॒ꣳशुःऽअ॑ꣳशुः। ते॒। दे॒व॒। सो॒म॒। आ। प्या॒य॒ता॒म्। इन्द्रा॑य। ए॒क॒ध॒न॒विद॒ऽइत्ये॑कधन॒ऽविदे॑। आ। तुभ्य॑म्। इन्द्रः॑। प्याय॑ताम्। आ। त्वम्। इन्द्रा॑य। प्या॒य॒स्व॒। आ। प्या॒य॒य॒। अ॒स्मान्। सखी॑न्। स॒न्न्या। मे॒धया॑। स्व॒स्ति। ते॒। दे॒व॒। सो॒म॒। सु॒त्याम्। अ॒शी॒य॒। एष्टा॒ इत्याऽइ॑ष्टाः। रायः॑। प्र। इ॒षे। भगा॑य। ऋ॒तम्। ऋ॒त॒वादिभ्य॒ इत्यृ॑तवा॒दिऽभ्यः॑। नमः॑। द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॑म् ॥७॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वह ईश्वर, बिजुली और विद्वान् कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- हे (सोम) पदार्थविद्या को जानने वा (देव) दिव्यगुणसम्पन्न जगदीश्वर ! विद्वन् ! विद्युत् वा जिससे (ते) आप वा इस विद्युत् का सामर्थ्य (अंशुरंशुः) अवयव-अवयव, अङ्ग-अङ्ग को (आप्यायताम्) रक्षा से बढ़ा अथवा बढ़ाती है (इन्द्रः) जो आप वा बिजुली (एकधनविदे) अर्थात् धर्मविज्ञान से धन को प्राप्त होनेवाले (इन्द्राय) परमैश्वर्य्ययुक्त मेरे लिये (आप्यायताम्) बढ़ावे वा बढ़ाती है (आप्यायस्व) वृद्धियुक्त कीजिये वा करती है। वह आप बिजुली आदि पदार्थ के ठीक-ठीक अर्थों की प्राप्ति को (सन्न्या) प्राप्ति करानेवाली (मेधया) प्रज्ञा से (अस्मान्) हम (सखीन्) सब के मित्रों को (आप्यायस्व) बढ़ाइये वा बढ़ावे, जिससे (स्वस्ति) सुख सदा बढ़ता रहे। (सोम) हे पदार्थविद्या को जाननेवाले ईश्वर वा विद्वन् ! आप की शिक्षा वा बिजुली की विद्या से युक्त होकर मैं (सुत्याम्) उत्तम-उत्तम उत्पन्न करनेवाली क्रिया में कुशल होके (इषे) सिद्धि की इच्छा वा अन्न आदि (भगाय) ऐश्वर्य्य के लिये (एष्टाः) अभीष्ट सुखों को प्राप्त करानेवाले (रायः) धनसमूहों को (अशीय) प्राप्त होऊँ और (ऋतवादिभ्यः) सत्यवादी विद्वानों को यह धन देके सत्य विद्या और (द्यावापृथिवीभ्याम्) प्रकाश वा भूमि से (नमः) अन्न को प्राप्त होऊँ ॥७॥
भावार्थभाषाः- इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि परमेश्वर की उपासना, विद्वान् की सेवा और विद्युत् विद्या का प्रचार करके शरीर और आत्मा को पुष्ट करनेवाली ओषधियों और अनेक प्रकार के धनों का ग्रहण करके चिकित्सा शास्त्र के अनुसार सब आनन्दों को भोगें ॥७॥
या ते॑ऽअग्नेऽयःश॒या त॒नूर्वर्षि॑ष्ठा गह्वरे॒ष्ठा। उ॒ग्रं वचो॒ऽअपा॑वधीत्त्वे॒षं वचो॒ऽअपा॑वधी॒त् स्वाहा॑। या ते॑ऽअग्ने रजःश॒या त॒नूर्वर्षि॑ष्ठा गह्वरे॒ष्ठा। उ॒ग्रं वचो॒ऽअपा॑वधीत्त्वे॒षं वचो॒ऽअपा॑वधी॒त् स्वाहा॑। या ते॑ऽअग्ने हरिश॒या त॒नूर्वर्षि॑ष्ठा गह्वरे॒ष्ठा। उ॒ग्रं वचो॒ऽअपा॑वधीत्त्वे॒षं वचो॒ऽअपा॑वधी॒त् स्वाहा॑ ॥८॥
पद पाठ
या। ते॒। अ॒ग्ने॒। अ॒यःशये॒त्य॑यःऽश॒या। त॒नूः। वर्षि॑ष्ठा। ग॒ह्व॒रे॒ष्ठा। ग॒ह्व॒रे॒स्थेति॑ गह्वरे॒ऽस्था। उ॒ग्रम्। वचः॑। अप॑। अ॒व॒धी॒त्। त्वे॒षम्। वचः॑। अप॑। अ॒व॒ऽधी॒त्। स्वाहा॑। या। ते॒। अ॒ग्ने॒। र॒जः॒श॒येति॑ रजःश॒या। त॒नूः। वर्षि॑ष्ठा। ग॒ह्व॒रे॒ष्ठा। ग॒ह्व॒रे॒स्थेति॑ गह्वरे॒ऽस्था। उ॒ग्रम्। वचः॑। अप॑। अ॒व॒धी॒त्। त्वे॒षम्। वचः॑। अप॑। अ॒व॒धी॒त्। स्वाहा॑ ॥८॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वह बिजुली कैसी है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- हे मनुष्य लोगों ! तुम को (या) जो (ते) इस (अग्ने) बिजुलीरूप अग्नि का (अयःशया) सुवर्णादि में सोने (वर्षिष्ठा) अत्यन्त बड़ा (गह्वरेष्ठा) आभ्यन्तर में रहनेवाला (तनूः) शरीर (उग्रम्) क्रूर भयङ्कर (वचः) वचन को (अपावधीत्) नष्ट करता और (त्वेषम्) प्रदीप्त (वचः) शब्द वा (स्वाहा) उत्तमता से हवन किये हुए अन्न को (अपावधीत्) दूर करता और जो (ते) इस (अग्ने) बिजुलीरूप अग्नि का (वर्षिष्ठा) अत्यन्त विस्तीर्ण (गह्वरेष्ठा) आभ्यन्तर में स्थित होने (रजःशया) लोकों में सोनेवाला (तनूः) शरीर (उग्रम्) क्रूर (वचः) कथन को (अपावधीत्) नष्ट करता है (त्वेषम्) प्रदीप्त (वचः) कथन वा (स्वाहा) उत्तम वाणी को (अपावधीत्) नष्ट करता है, उसको जान के उससे कार्य्य लेना चाहिये ॥८॥
भावार्थभाषाः- मनुष्यों को योग्य है कि सब स्थूल और सूक्ष्म पदार्थों में रहनेवाली जो बिजुली की व्याप्ति है, उस को अच्छे प्रकार जानकर उपयुक्त करके सब दुःखों का नाश करें ॥८॥
त॒प्ताय॑नी मेऽसि वि॒त्ताय॑नी मे॒ऽस्यव॑तान्मा नाथि॒तादव॑तान्मा व्यथि॒तात्। वि॒देद॒ग्निर्नभो॒ नामाग्ने॑ऽअङ्गिर॒आयु॑ना॒ नाम्नेहि॒ यो᳕ऽस्यां पृ॑थि॒व्यामसि॒ यत्तेऽना॑धृष्टं॒ नाम॑ य॒ज्ञियं॒ तेन॒ त्वा द॒धे वि॒देद॒ग्निर्नभो॒ नामाग्ने॑ऽअङ्गिर॒ऽआयु॑ना॒ नाम्नेहि॒ यो द्वि॒तीय॑स्यां पृथि॒व्यामसि॒ यत्तेऽना॑धृष्टं॒ नाम॑ य॒ज्ञियं॒ तेन॒ त्वा द॑धे वि॒देद॒ग्निर्नभो॒ नामाग्ने॑ऽअङ्गिर॒ऽआयु॑ना॒ नाम्नेहि॒ यस्तृ॒तीय॑स्यां पृथि॒व्यामसि॒ यत्तेऽना॑धृष्टं॒ नाम॑ य॒ज्ञियं॒ तेन॒ त्वा द॑धे। अनु॑ त्वा दे॒ववी॑तये ॥९॥
पद पाठ
त॒प्ताय॒नीति॑ तप्त॒ऽअय॑नी। मे॒। अ॒सि॒। वि॒त्ताय॒नीति॑ वित्त॒ऽअय॑नी। मे॒। अ॒सि॒। अव॑तात्। मा॒। ना॒थि॒तात्। अव॑तात्। मा॒। व्य॒थि॒तात्। वि॒देत्। अ॒ग्निः। नभः॑। नाम॑। अग्ने॑। अ॒ङ्गि॒रः॒। आयु॑ना। नाम्ना॑। आ। इ॒हि॒। यः। अ॒स्याम्। पृ॒थि॒व्याम्। असि॑। यत्। ते॒। अना॑धृष्टम्। नाम॑। य॒ज्ञिय॑म्। तेन॑। त्वा॒। आ। द॒धे॒। वि॒देत्। अ॒ग्निः। नमः॑। नामः॑। अग्ने॑। अ॒ङ्गि॒रः॒। आयु॑ना। नाम्ना॑। आ। इ॒हि॒। यः। द्वि॒तीय॑स्याम्। पृ॒थि॒व्याम्। असि॑। यत्। ते। अना॑धृष्टम्। नाम॑। य॒ज्ञिय॑म्। तेन॑। त्वा॒। आ। द॒धे॒। वि॒देत्। अ॒ग्निः। नभः॑। नाम॑। अग्ने॑। अ॒ङ्गि॒रः॒। आयु॑ना। नाम्ना॑। आ। इ॒हि॒। यः। तृ॒तीय॑स्याम्। पृ॒थि॒व्याम्। असि॑। यत्। ते॒। अना॑धृष्टम्। नाम॑। य॒ज्ञिय॑म्। तेन॑। त्वा॒। आ। द॒धे॒। अनु॑। त्वा॒। दे॒ववी॑तय॒ इति॑ दे॒वऽवी॑तये ॥९॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
और किसलिये अग्नि आदि से यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- हे विद्या के ग्रहण करनेवाले विद्वन् ! जैसे मैं (यत्) जो (तप्तायनी) स्थापनीय वस्तुओं के स्थानवाली विद्युत् ज्वाला (असि) है वा जो (वित्तायनी) भोग्य वा प्रतीत पदार्थों को प्राप्त करानेवाली बिजुली (असि) है (त्वा) उसकी विद्या को जानता हूँ, वैसे तू भी इस को (मे) मुझ से (एहि) प्राप्त हो, जैसे यह (यत्) जो (अग्निः) प्रसिद्ध अग्नि (नभः) जल वा प्रकाश को प्राप्त कराता हुआ (मा) मुझ को (व्यथितात्) भय से (अवतात्) रक्षा करता वा (नाथितात्) ऐश्वर्य से (अवतात्) रक्षा करता है, वैसे तुझ से सेवन किया हुआ यह तेरी भी रक्षा करेगा। जैसे मैं (तेन) उस साधन से जो (अग्ने) जाठर रूप (अङ्गिरः) अङ्गों में रहनेवाला अग्नि (आयुना) जीवन वा (नाम्ना) प्रसिद्धि से (अस्याम्) इस (पृथिव्याम्) पृथिवी में (नाम) प्रसिद्ध है (त्वा) उसको जानता हूँ, वैसे तू भी इसको (मे) मुझ से (एहि) अच्छे प्रकार जान। जैसे मैं (तेन) उस ज्ञान से (यत्) जो (अनाधृष्टम्) नहीं नष्ट होने योग्य (यज्ञियम्) यज्ञाङ्गसमूह (नाम) प्रसिद्ध तेज है (त्वा) उसको (देववीतये) दिव्यगुणों की प्राप्ति के लिये (त्वा) उस यज्ञ को (आदधे) धारण करता हूँ, वैसे तू उस से इस को उत्तम गुणों की प्राप्ति के लिये धारण कर और वैसे सब मनुष्य भी उस से इस को (विदेत) प्राप्त होवें। जैसे मैं (तेन) जो (द्वितीयस्याम्) दूसरी (पृथिव्याम्) भूमि में (अग्ने) (अङ्गिरः) अङ्गारों में रहनेवाला अग्नि (आयुना) जीवन वा (नाम्ना) प्रसिद्धि से (नाम) प्रसिद्धि है वा (यः) जो (नभः) सुख को देता है (तेन) (त्वा) उससे उसको प्राप्त हुआ हूँ, वैसे तू उससे इसको (एहि) जान और सब मनुष्य भी उससे इसको (विदेत्) प्राप्त हों। जैसे मैं (तेन) पुरुषार्थ से जो (अनाधृष्टम्) प्रगल्भगुणसहित (यज्ञियम्) यज्ञसम्बन्धी (नाम) प्रसिद्ध तेज है (त्वा) उसे भोगों की प्राप्ति के लिये (आदधे) धारण करता हूँ तथा तू उसके लिये धारण कर और सब मनुष्य भी (विदेत्) धारण करें। जैसे मैं (तेन) उस क्रिया कौशल से जो (अग्निः) अग्नि (आयुना) जीवन वा प्रसिद्धि से (अङ्गिरः) अङ्गों का सूर्यरूप से पोषण करता हुआ (नाम) प्रसिद्ध है वा जो (नभः) आकाश को प्रकाशित करता है (त्वा) उसको धारण करता हूँ, वैसे तू उसको धारण कर वा सब लोग भी (अनुविदेत्) उस को ठीक-ठीक जान के कार्य सिद्ध करें। जैसे मैं (तेन) इन्धनादि सामग्री से जो (अनाधृष्टम्) प्रगल्भसहित (यज्ञियम्) शिल्पविद्यासम्बन्धी (नाम) प्रसिद्ध तेज है (त्वा) उसको विद्वानों की प्राप्ति के लिये (आदधे) धारण करता हूँ, वैसे तू उससे उसकी प्राप्ति के लिये (अन्वेहि) खोज कर और सब मनुष्य भी विद्या से सम्प्रयोग करें ॥९॥
भावार्थभाषाः- इस मन्त्र में वाचलुप्तोपमालङ्कार है। जो प्रसिद्ध सूर्य बिजुली रूप से तीन प्रकार का अग्नि सब लोगों में बाहिर-भीतर रहनेवाला है, उसको जान और जनाकर सब मनुष्यों को कार्यसिद्धि का सम्पादन करना कराना चाहिये ॥९॥
सि॒ᳬह्य᳖सि सपत्नसा॒ही दे॒वेभ्यः॑ कल्पस्व सि॒ᳬह्य᳖सि सपत्नसा॒ही दे॒वेभ्यः॑ शुन्धस्व सि॒ᳬह्य᳖सि सपत्नसा॒ही दे॒वेभ्यः॑ शुम्भस्व ॥१०॥
पद पाठ
सि॒ꣳही। अ॒सि॒। स॒प॒त्न॒सा॒ही। स॒प॒त्न॒सहीति॑ सपत्न॒ऽसही। दे॒वेभ्यः॑। क॒ल्प॒स्व॒। सि॒ꣳही। अ॒सि॒। स॒प॒त्न॒सा॒ही। स॒प॒त्न॒स॒हीति॑ सपत्नऽस॒ही। दे॒वेभ्यः॑। शु॒न्ध॒स्व॒। सि॒ꣳही। अ॒सि॒। स॒प॒त्न॒सा॒ही। स॒प॒त्न॒स॒हीति॑ सपत्नऽस॒ही। दे॒वेभ्यः॑। शु॒म्भ॒स्व॒ ॥१०॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब अगले मन्त्र में सब विद्याओं की मुख्य सिद्धि करनेवाली वाणी के गुणों का उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- हे विद्वान् मनुष्य ! तू जो (सपत्नसाही) जिस से शत्रुओं को सहन करते हैं, वह (देवेभ्यः) उत्तम गुण शूरवीरों के लिये (कल्पस्व) पढ़ा और उपदेश करके प्राप्त कर (सिंही) जो दोषों को नष्ट करने वा शब्दों का उच्चारण करनेवाली वाणी (असि) है, उसको (देवेभ्यः) विद्वान् दिव्यगुण वा विद्या की इच्छावाले मनुष्यों के लिये (शुन्धस्व) शुद्धता से प्रकाशित कर। जो (सपत्नसाही) दोषों को हनन वा (सिंही) अविद्या के नाश करनेवाली वाणी (असि) है, उसको (देवेभ्यः) धार्मिकों के लिये (शुन्धस्व) शुद्ध कर और जो (सपत्नसाही) दुष्ट स्वभाव और (सिंही) दुष्ट दोषों को नाश करनेवाली वाणी (असि) है, उसको (देवेभ्यः) सुशील विद्वानों के लिये (शुम्भस्व) शोभायुक्त कर ॥१०॥
भावार्थभाषाः- मनुष्यों को अति उचित है कि जो इस संसार में तीन प्रकार की वाणी होती है अर्थात् एक शिक्षा विद्या से संस्कार की हुई, दूसरी सत्यभाषणयुक्त और तीसरी मधुरगुणसहित−उनको स्वीकार करें ॥१०॥
इ॒न्द्र॒घो॒षस्त्वा॒ वसु॑भिः पु॒रस्ता॑त् पातु॒ प्रचे॑तास्त्वा रु॒द्रैः प॒श्चात् पा॑तु॒ मनो॑जवास्त्वा पि॒तृभि॑र्दक्षिण॒तः पातु॑ वि॒श्वक॑र्मा त्वादि॒त्यैरु॑त्तर॒तः पा॑त्वि॒दम॒हं त॒प्तं वार्ब॑हि॒र्धा य॒ज्ञान्निःसृ॑जामि ॥११॥
पद पाठ
इ॒न्द्र॒घो॒ष इती॑न्द्रघो॒षः। त्वा॒ वसु॑भि॒रिति॒ वसु॑ऽभिः। पु॒रस्ता॑त्। पा॒तु॒। प्रचे॑ता॒ इति॒ प्रऽचे॑ताः। त्वा॒। रु॒द्रैः। प॒श्चात्। पा॒तु॒। मनो॑जवा॒ इति॒ मनः॑ऽजवाः। त्वा॒। पि॒तृभि॒रिति॑ पि॒तृऽभिः॑। द॒क्षि॒ण॒तः। पा॒तु॒। वि॒श्वक॒र्मेति॑ वि॒श्वऽक॑र्मा। त्वा॒। आ॒दि॒त्यैः। उ॒त्त॒र॒तः। पा॒तु॒। इ॒दम्। अ॒हम्। त॒प्तम्। वाः। ब॒हि॒र्धेति॑ बहिः॒ऽधा। य॒ज्ञात्। निः। सृ॒जा॒मि॒ ॥११॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वह कैसा और कैसी है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- हे विद्वान् मनुष्यो ! जैसे (प्रचेताः) उत्तम ज्ञानयुक्त (इन्द्रघोषः) परमात्मा, वेदविद्या और बिजुली का घोष अर्थात् शब्द, अर्थ और सम्बन्धों के बोधवाला (विश्वकर्मा) सब कर्मवाला मैं (यज्ञात्) पढ़ना-पढ़ाना वा होमरूप यज्ञ से (इदम्) आभ्यन्तर में रहनेवाले (तप्तम्) तप्त जल (बहिर्धा) बाहर धारण होनेवाले शीतल (वाः) जल को (निःसृजामि) सम्पादन करता वा निःक्षेप करता हूँ, वैसे आप भी कीजिये। जो (वसुभिः) अग्नि आदि पदार्थ वा चौबीस वर्ष ब्रह्मचर्य्य किये हुए मनुष्यों के साथ वर्त्तमान (इन्द्रघोषः) परमेश्वर, जीव और बिजुली के अनेक शब्द सम्बन्धी वाणी है, उसको (पुरस्तात्) पूर्वदेश से जैसे मैं रक्षा करता हूँ, वैसे आप भी (पातु) रक्षा करो जो (रुद्रैः) प्राण वा चवालीस वर्ष ब्रह्मचर्य्य किये हुये विद्वानों के साथ वर्त्तमान (प्रचेताः) उत्तम ज्ञान करनेवाली वाणी है, उसको (पश्चात्) पश्चिम देश से रक्षा करता हूँ, वैसे आप भी (पातु) रक्षा करें। जो (पितृभिः) ज्ञानी वा ऋतुओं के साथ वर्त्तमान (मनोजवाः) मन के समान वेगवाली वाणी है, उसका (दक्षिणतः) दक्षिण देश से पालन करता हूँ, वैसे आप भी (पातु) रक्षा करें। जो (आदित्यैः) बारह महीनों वा अड़तालीस वर्ष ब्रह्मचर्य्य किये हुए विद्वानों के साथ वर्त्तमान (विश्वकर्मा) सब कर्मयुक्त वाणी है, उसकी (उत्तरतः) उत्तर देश से पालन करता हूँ, वैसे आप भी (पातु) रक्षा करें ॥११॥
भावार्थभाषाः- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि जो वसु, रुद्र, आदित्य और पितरों से सेवन की हुई वा यज्ञ को सिद्ध करनेवाली वाणी वा जल को विद्या वा उत्तम क्रिया से सेवन करके निरन्तर शुद्ध तथा निर्मल करें ॥११॥
सि॒ꣳह्य᳖सि॒ स्वाहा॑ सि॒ꣳह्य॒स्यादित्य॒वनिः॒ स्वाहा॑ सि॒ꣳह्य᳖सि ब्रह्म॒वनिः॑ क्षत्र॒वनिः॒ स्वाहा॑ सि॒ꣳह्य᳖सि सुप्रजा॒वनी॑ रायस्पोष॒वनिः॒ स्वाहा॑ सि॒ꣳह्य᳖स्याव॑ह देवान् यज॑मानाय॒ स्वाहा॑ भू॒तेभ्य॑स्त्वा ॥१२॥
पद पाठ
सि॒ꣳही। अ॒सि॒। स्वाहा॑। सि॒ꣳही। अ॒सि॒। आ॒दित्य॒वनि॒रित्या॑दित्य॒ऽवनिः॑। स्वाहा॑। सि॒ꣳही। अ॒सि॒। ब्र॒ह्म॒वनि॒रिति॑ ब्रह्म॒ऽवनिः॑। क्ष॒त्र॒वनि॒रिति॑ क्षत्र॒ऽवनिः॑। स्वाहा॑। सि॒ꣳही। अ॒सि॒। सु॒प्र॒जा॒वनि॒रिति॑ सुप्रजा॒ऽवनिः॑। रा॒य॒स्पो॒ष॒वनि॒रिति॑ रायस्पोष॒ऽवनिः॑। स्वाहा॑। सि॒ꣳही। अ॒सि॒। आ। वह॒। दे॒वान्। यज॑मानाय। स्वाहा॑। भू॒तेभ्यः॑। त्वा॒ ॥१२॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वह कैसी है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- मैं जो (आदित्यवनिः) मासों का सेवन और (सिंही) क्रूरत्व आदि दोषों को नाश करनेवाली (स्वाहा) ज्योतिःशास्त्र से संस्कारयुक्त वाणी (असि) है, जो (ब्रह्मवनिः) परमात्मा, वेद और वेद के जाननेवाले मनुष्यों के सेवन और (सिंही) बल के जाड्यपन को दूर करनेवाली (स्वाहा) पढ़ने-पढ़ाने व्यवहारयुक्त वाणी (असि) है, जो (क्षत्रवनिः) राज्य, धनुर्विद्या और शूरवीरों का सेवन और (सिंही) चोर, डाकू अन्याय को नाश करनेवाली (स्वाहा) राज्य-व्यवहार में कुशल वाणी (असि) है, जो (रायस्पोषवनिः) विद्या धन की पुष्टि का सेवन और (सिंही) अविद्या को दूर करनेवाली (स्वाहा) वाणी (असि) है, जो (सुप्रजावनिः) उत्तम प्रजा का सेवन और (सिंही) सब दुःखों का नाश और (स्वाहा) व्यवहार से धन को प्राप्त करानेवाली वाणी (असि) है और जो (यजमानाय) विद्वानों के पूजन करनेवाले यजमान के लिये (स्वाहा) दिव्य विद्या सम्पन्न वाणी (देवान्) विद्वान् दिव्यगुण वा भोगों को (आवह) प्राप्त करती है (त्वा) उसको (भूतेभ्यः) सब प्राणियों के लिये (यज्ञात्) यज्ञ से (निःसृजामि) सम्पादन करता हूँ ॥१२॥
भावार्थभाषाः- इस मन्त्र में पूर्व मन्त्र से (यज्ञात्) (निः) (सृजामि) इन तीनों पदों की अनुवृत्ति है। मनुष्यों को उचित है कि पढ़ना-पढ़ाना आदि से इस प्रकार लक्षणयुक्त वाणी प्राप्त कर, इसे सब मनुष्यों को पढ़ा कर सदा आनन्द में रहें ॥१२॥
धु॒वो᳖ऽसि पृथि॒वीं दृ॑ꣳह ध्रु॒व॒क्षिद॑स्य॒न्तरि॑क्षं दृꣳहाच्युत॒क्षिद॑सि॒ दिवं॑ दृꣳहा॒ग्नेः पुरी॑षमसि ॥१३॥
पद पाठ
ध्रु॒वः। अ॒सि॒। पृ॒थि॒वीम्। दृ॒ꣳह॒। ध्रु॒व॒क्षिदिति॑ ध्रु॒व॒ऽक्षित्। अ॒सि॒। अ॒न्तरिक्ष॑म्। दृ॒ꣳह॒। अ॒च्यु॒त॒क्षिदित्य॑च्यु॒॑त॒ऽक्षित्। अ॒सि॒। दिव॑म्। दृ॒ꣳह॒। अग्नेः॑। पु॒री॑षम्। अ॒सि॒ ॥१३॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर यह यज्ञ कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- हे विद्वान् मनुष्यो ! जो यज्ञ (ध्रुवः) निश्चल (पृथिवीम्) भूमि को बढ़ाता (असि) है, उसको तुम (दृंह) बढ़ाओ जो (ध्रुवक्षित्) निश्चल सुख और शास्त्रों का निवास करानेवाला (असि) है वा (अन्तरिक्षम्) आकाश में रहनेवाले पदार्थों को पुष्ट करता है, उसको तुम (दृंह) बढ़ाओ। जो (अच्युतक्षित्) नाशरहित पदार्थों को निवास करानेवाला (असि) है वा (दिवम्) विद्यादि प्रकाश को प्रकाशित करता है, उसको तुम (दृंह) बढ़ाओ जो (अग्नेः) बिजुली आदि अग्नि वा (पुरीषम्) पशुओं की पूर्ति करनेवाला यज्ञ (असि) है, उसका अनुष्ठान तुम किया करो ॥१३॥
भावार्थभाषाः- मनुष्यों को योग्य है कि विद्या क्रिया से सिद्ध वा त्रिलोकी के पदार्थों को पुष्ट करनेवाले, विद्याक्रियामय यज्ञ का अनुष्ठान करके सुखी रहें और सब को रक्खें ॥१३॥
यु॒ञ्जते॒ मन॑ऽउ॒त यु॑ञ्जते॒ धियो॒ विप्रा॒ विप्र॑स्य बृ॒ह॒तो वि॑प॒श्चितः॑। वि होत्रा॑ दधे वयुना॒विदेक॒ऽइन्म॒ही दे॒वस्य॑ सवि॒तुः परि॑ष्टुतिः॒ स्वाहा॑ ॥१४॥
पद पाठ
यु॒ञ्जते॑। मनः॑। उ॒त। यु॒ञ्ज॒ते॒। धियः॑। विप्राः॑। विप्र॑स्य। बृ॒ह॒तः। वि॒प॒श्चित॒ इति॑ विपः॒ऽचितः॑। वि। होत्राः॑। द॒धे॒। व॒यु॒ना॒वित्। व॒यु॒न॒विदिति॑ वयुन॒ऽवित्। एकः॑। इत्। म॒ही। दे॒वस्य॑। स॒वि॒तुः। परि॑ष्टुतिः। परि॑स्तुति॒रितिः॒। स्वाहा॑ ॥१४॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब अगले मन्त्र में योगी और ईश्वर के गुणों का उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- जैसे जो (विहोत्राः) देने-लेनेवाले (विप्राः) बुद्धिमान् मनुष्य हैं, वे जिस (बृहतः) सब से बड़े (विप्रस्य) अनन्त ज्ञानकर्मयुक्त (विपश्चितः) सब विद्या सहित (सवितुः) सकल जगत् के उत्पादक (देवस्य) सब के प्रकाश करनेवाले महेश्वर की (मही) बड़ी (परिष्टुतिः) सब प्रकार की स्तुतिरूप (स्वाहा) सत्यवाणी को जान उस में (मनः) मन को (युञ्जते) युक्त करते हैं (उत) और (धियः) बुद्धियों को भी (युञ्जते) स्थिर करते हैं, वैसे (वयुनावित्) उत्तम कर्मों को जाननेवाला (एकः) सहायरहित मैं उस को जान उसमें अपना मन और बुद्धि को (विदधे) सदा निश्चल विधान कर रखता हूँ ॥१४॥
भावार्थभाषाः- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को उचित है कि परमेश्वर में ही मन, बुद्धि को युक्त कर विद्वानों के सङ्ग से विद्या को पा सुखी हो, अन्य मनुष्यों को भी इसी प्रकार आनन्दित करें ॥१४॥
इ॒दं विष्णु॒र्विच॑क्रमे त्रे॒धा निद॑धे प॒दम्। समू॑ढमस्य पाᳬसु॒रे स्वाहा॑ ॥१५॥
पद पाठ
इ॒दम्। विष्णुः॑। वि। च॒क्र॒मे॒। त्रे॒धा। नि। द॒धे॒। प॒दम् ॥ समू॑ढ॒मिति॒ सम्ऽऊ॑ढम्। अ॒स्य॒। पा॒सु॒ᳬरे। स्वाहा॑ ॥१५॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वह जगदीश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- (विष्णुः) जो सब जगत् में व्यापक जगदीश्वर जो कुछ यह जगत् है, उसको (विचक्रमे) रचता हुआ (इदम्) इस प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष जगत् को (त्रेधा) तीन प्रकार का धारण करता है (अस्य) इस प्रकाशवान्, प्रकाशरहित और अदृश्य तीन प्रकार के परमाणु आदि रूप (स्वाहा) अच्छे प्रकार देखने और दिखलाने योग्य जगत् का ग्रहण करता हुआ (इदम्) इस (समूढम्) अच्छे प्रकार विचार करके कथन करने योग्य अदृश्य जगत् को (पांसुरे) अन्तरिक्ष में स्थापित करता है, वही सब मनुष्यों को उत्तम रीति से सेवने योग्य है ॥१५॥
भावार्थभाषाः- परमेश्वर ने जिस प्रथम प्रकाशवाले सूर्यादि, दूसरा प्रकाशरहित पृथिवी आदि और जो तीसरा परमाणु आदि अदृश्य जगत् है, उस सब को कारण से रचकर अन्तरिक्ष में स्थापन किया है, उनमें से ओषधी आदि पृथिवी में, प्रकाश आदि सूर्यलोक में और परमाणु आदि आकाश और इस सब जगत् को प्राणों के शिर में स्थापित किया है। इस लिखे हुए शतपथ के प्रमाण से ‘गय’ शब्द से प्राणों का ग्रहण किया है, इसमें महीधर जो कहता है कि त्रिविक्रम अर्थात् वामनावतार को धारण करके जगत् को रचा है, यह उसका कहना सर्वथा मिथ्या है ॥१५॥
इ॒रा॑वती धेनु॒मती॒ हि भू॒तꣳ सूय॑व॒सिनी॒ मन॑वे दश॒स्या। व्य॑स्कभ्ना॒ रोद॑सी विष्णवे॒ते दा॒धर्त्थ॑ पृथि॒वीम॒भितो॑ म॒यूखैः॒ स्वाहा॑ ॥१६॥
पद पाठ
इरा॑वती॒ इतीरा॑ऽवती। धे॒नु॒मती॒ इति॑ धे॒नु॒ऽमती॑। हि। भू॒तम्। सू॒य॒व॒सिनी॑। सु॒य॒व॒सिनी॒ इति॑ सु॒ऽयव॒सिनी॑। मन॑वे। द॒श॒स्या। वि। अ॒स्क॒भ्नाः॒। रोद॑सी॒ इति॒ रोद॑सी। वि॒ष्णो॒ऽइति॑ विष्णो। ए॒तेऽइत्ये॒ते॑। दा॒धर्त्थ॑। पृ॒थि॒वीम्। अ॒भितः॑। म॒यूखैः॑। स्वाहा॑ ॥१६॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अगले मन्त्र में ईश्वर और सूर्य के गुणों का उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- हे (विष्णो) सर्वव्यापी जगदीश्वर ! जो आप जिस (इरावती) उत्तम अन्नयुक्त (धेनुमती) प्रशंसनीय बहुत वाणीयुक्त प्रजा वा पशुयुक्त (सूयवसिनी) बहुत मिश्रित, अमिश्रित वस्तुओं से सहित भूमि वा वाणी (पृथिवीम्) भूमि (हि) निश्चय करके (स्वाहा) वेदवाणी वा (भूतम्) उत्पन्न हुए सब जगत् को (मयूखैः) ज्ञानप्रकाशकादि गुणों से (अभितः) सब ओर से (दाधर्थ) धारण और (रोदसी) प्रकाश वा पृथिवीलोक का (व्यस्कभ्नाः) सम्यक् स्तम्भन करते हो उन (मनवे) विज्ञानयुक्त (दशस्या) दंशन अर्थात् दाँतों के बीच में स्थित जिह्वा के समान आचरण करनेवाले आपके लिये (एते) ये हम लोग सब जगत् को निवेदन करते हैं ॥१॥१६॥ जो (विष्णो) व्यापनशील प्राण जो (इरावती) उत्तम अन्नयुक्त (धेनुमती) पशुसहित (सूयवसिनी) बहुत मिश्रित, अमिश्रित पदार्थवाली भूमि वा वाणी है, उस (पृथिवीम्) भूमि (स्वाहा) वा इन्द्रिय को (मयूखैः) किरणों, अपने बल आदि (अभितः) सब प्रकार (दाधर्थ) धारण करता वा (रोदसी) प्रकाश-भूमि को (व्यस्कभ्नाः) स्तम्भन करता है, उस (दशस्या) दशन और दाँत के समान आचरण करने वा (मनवे) विज्ञापनयुक्त सूर्य के लिये (हि) निश्चय करके (भूतम्) सब जगत् को करने के लिये ईश्वर ने दिया है, ऐसा (एते) ये सब हम लोग जानते हैं ॥२॥१६॥
भावार्थभाषाः- इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जैसे सूर्य अपनी किरणों से सब भूमि आदि जगत् को प्रकाश आकर्षण और विभाग करके धारण करता है, वैसे ही परमेश्वर और प्राण ने अपने सामर्थ्य से सब सूर्य आदि जगत् को धारण करके अच्छे प्रकार स्थापन किया है ॥१६॥
दे॒व॒श्रुतौ॑ दे॒वेष्वाघो॑षतं॒ प्राची॒ प्रेत॑मध्व॒रं क॒ल्पय॑न्तीऽऊ॒र्ध्वं य॒ज्ञं न॑यतं॒ मा जि॑ह्वरतम्। स्वं गो॒ष्ठमाव॑दतं देवी दुर्ये॒ऽआयु॒र्मा निर्वा॒दिष्टं प्र॒जां मा निर्वा॑दिष्ट॒मत्र॑ रमेथां॒ वर्ष्म॑न् पृथि॒व्याः ॥१७॥
पद पाठ
दे॒व॒श्रुता॒विति॑ देव॒ऽश्रुतौ॑। दे॒वेषु॑। आ। घो॒ष॒त॒म्। प्राची॒ऽइति॒ प्राची॑। प्र। इ॒त॒म्। अ॒ध्व॒रम्। क॒ल्पय॑न्तीऽइति॑ क॒ल्पय॑न्ती। ऊ॒र्ध्वम्। य॒ज्ञम्। न॒य॒त॒म्। मा। जि॒ह्व॒र॒त॒म्। स्वम्। गो॒ष्ठम्। गो॒स्थमिति॑ गो॒ऽस्थम्। आ। व॒द॒त॒म्। दे॒वी॒ऽइति॑ देवी। दु॒र्ये॒ऽइति॑ दुर्ये। आयुः॑। मा। निः। वा॒दि॒ष्ट॒म्। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। मा। निः। वा॒दि॒ष्ट॒म्। अत्र॑। र॒मे॒था॒म्। वर्ष्म॑न्। पृ॒थि॒व्याः ॥१७॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वे प्राण और अपान कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- हे मनुष्यो ! तुम जैसे जो (देवेषु) विद्वान् वा दिव्यगुणों में (देवश्रुतौ) विद्वानों से श्रवण किये हुए प्राण, अपान वायु (घोषतम्) व्यक्त शब्द करें और जो (प्राची) प्राप्त करने वा (कल्पयन्ती) सामर्थ्यवाली प्रकाश भूमि (ऊर्ध्वम्) उत्तम गुणयुक्त (यज्ञम्) विज्ञान वा शिल्पमय यज्ञ को (प्रेतम्) जनाते रहें (नयतम्) प्राप्त करें (मा जिह्वरतम्) कुटिल गतिवाले न हों, जो (देवी) दिव्यगुण सम्पन्न (दुर्ये) गृहरूप (स्वम्) अपने (गोष्ठम्) किरण और अवयवों के स्थान के (आवदतम्) उपदेश निमित्तक हों (आयुः) आयु को (मा निर्वादिष्टम्) नष्ट न करें (प्रजाम्) उत्पन्न हुई सृष्टि को (मा निर्वादिष्टम्) न नष्ट करें और वे (पृथिव्याः) आकाश के मध्य (अत्र) इस (वर्ष्मन्) सुख से सेवनयुक्त जगत् में (रमेथाम्) रमण करें तथा किया करो ॥१७॥
भावार्थभाषाः- मनुष्यों को जितना जगत् अन्तरिक्ष में वर्त्तता है, उतने से बहुत-बहुत उत्तम सुखों का सम्पादन करना चाहिये ॥१७॥
विष्णो॒र्नु कं॑ वी॒र्या᳖णि॒ प्रवो॑चं॒ यः पार्थि॑वानि विम॒मे रजा॑ᳬसि। योऽअस्क॑भाय॒दुत्त॑रꣳ स॒धस्थं॑ विचक्रमा॒णस्त्रे॒धोरु॑गा॒यो विष्ण॑वे त्वा ॥१८॥
पद पाठ
विष्णोः॑। नु। क॒म्। वी॒र्या᳖णि। प्र। वो॒च॒म्। यः। पार्थि॑वानि। वि॒म॒मऽइति॑ विऽम॒मे। रजा॑ᳬसि। यः। अस्क॑भायत्। उत्त॑रमित्युत्ऽत॑रम्। स॒धस्थ॒मिति॑ स॒धऽस्थ॑म्। वि॒च॒क्र॒मा॒ण इति॑ विऽचक्रमा॒णः। त्रे॒धा। उ॒रु॒गा॒यऽइत्यु॑रुऽगा॒यः। विष्ण॑वे। त्वा ॥१८॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब अगले मन्त्र में व्यापक ईश्वर के गुणों का उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- हे मनुष्यो ! तुम (यः) जो (विचक्रमाणः) जगत् रचने के लिये कारण के अंशों को युक्त करता हुआ (उरुगायः) बहुत अर्थों को वेद द्वारा उपदेश करनेवाला जगदीश्वर (पार्थिवानि) पृथिवी के विकार अर्थात् पृथिवी के गुणों से उत्पन्न होनेवाले या अन्तरिक्ष में विदित (त्रेधा) तीन प्रकार के (रजांसि) लोकों को (विममे) अनेक प्रकार से रचता है, जो (उत्तरम्) पिछले अवयवों के (सधस्थम्) साथ रहनेवाले कारण को (अस्कभायत्) रोक रखता है (यः) जो (विष्णवे) उपासनादि यज्ञ के लिये आश्रय किया जाता है, उस (विष्णोः) व्यापक परमेश्वर के (वीर्याणि) पराक्रमयुक्त कर्मों का (प्रवोचम्) कथन करूँ और हे परमेश्वर ! (नु) शीघ्र ही (कम्) सुखस्वरूप (त्वा) आपका आश्रय करता हूँ ॥१८॥
भावार्थभाषाः- सब मनुष्यों को जिस परमेश्वर ने पृथिवी, सूर्य और त्रसरेणु आदि भेद से तीन प्रकार के जगत् को रचकर धारण किया है, उसी की उपासना करनी चाहिये ॥१८॥
दि॒वो वा॑ विष्णऽउ॒त वा॑ पृथि॒व्या म॒हो वा॑ विष्णऽउ॒रोर॒न्तरि॑क्षात्। उ॒भा हि हस्ता॒ वसु॑ना पृ॒णस्वा प्रय॑च्छ॒ दक्षि॑णा॒दोत स॒व्याद्विष्ण॑वे त्वा ॥१९॥
पद पाठ
दि॒वः। वा॒। वि॒ष्णो॒ऽइति॑ विष्णो। उ॒त। वा॒। पृ॒थि॒व्याः। म॒हः। वा॒। वि॒ष्णो॒ऽइति॑ विष्णो। उ॒रोः। अ॒न्तरि॑क्षात्। उ॒भा। हि। हस्ता॑। वसु॑ना। पृ॒णस्व॑। आ। प्र। य॒च्छ॒। दक्षि॑णात्। आ। उ॒त। स॒व्यात्। विष्ण॑वे। त्वा॒ ॥१९॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वह जगदीश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- हे (विष्णो) सर्वव्यापी परमेश्वर ! आप कृपा करके हम लोगों को (दिवः) प्रसिद्ध वा बिजुली अग्नि से (वसुना) द्रव्य के साथ (आपृणस्व) सुखों से पूर्ण कीजिये और (पृथिव्याः) भूमि से उत्पन्न हुए पदार्थ (उत) भी (वा) अथवा (महः) महत्तत्त्व अव्यक्त और (उत) भी (उरोः) बहुत (अन्तरिक्षात्) अन्तरिक्ष से द्रव्य के साथ सुखों को (हि) निश्चय करके पूर्ण कीजिये (विष्णो) सब में प्रविष्ट ईश्वर ! आप (दक्षिणात्) दक्षिण (उत) और (सव्यात्) वाम पार्श्व से सुखों को दीजिये (त्वा) उस आप को (विष्णवे) योग विज्ञान यज्ञ के लिये पूजन करते हैं ॥१९॥
भावार्थभाषाः- सब मनुष्यों को योग्य है कि जिस व्यापक परमेश्वर ने महत्तत्त्व, सूर्य, भूमि, अन्तरिक्ष, वायु, जल आदि पदार्थ वा उन में रहनेवाले ओषधी आदि वा मनुष्यादिकों को रच धारण कर सब प्राणियों के लिये सुखों को धारण करता है, उसी की उपासना करें ॥१९॥
प्र तद्विष्णु॑ स्तवते वी॒र्य्येण मृ॒गो न भी॒मः कु॑च॒रो गि॑रि॒ष्ठाः। यस्यो॒रुषु॑ त्रि॒षु वि॒क्रम॑णेष्वधिक्षि॒यन्ति॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑॥२०॥
पद पाठ
प्र। तत्। विष्णुः॑। स्त॒व॒ते॒। वी॒र्ये᳖ण। मृ॒गः। न। भी॒मः। कु॒च॒रः। गि॒रि॒ष्ठाः। गि॒रि॒स्था इति॑ गिरि॒ऽस्थाः। यस्य॑। उ॒रुषु॑। त्रि॒षु। वि॒क्रम॑णे॒ष्विति॑ वि॒ऽक्रम॑णेषु। अ॒धि॒क्षि॒यन्तीत्य॑धिऽक्षि॒यन्ति॑। भुव॑नानि। विश्वा॑ ॥२०॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- (यस्य) जिसके (उरुषु) अत्यन्त (त्रिषु) (विक्रमणेषु) विविध प्रकार के क्रमों में (विश्वा) सब (भुवनानि) लोक (अधिक्षियन्ति) निवास करते हैं और वह (विष्णुः) व्यापक ईश्वर (वीर्येण) अपने पराक्रम से (भीमः) भय करनेवाले (कुचरः) निन्दित प्राणिवध को करने और (गिरिष्ठाः) पर्वत में रहनेवाले (मृगः) सिंह के (न) समान पापियों को घोर दुःख देता हुआ (प्रस्तवते) उपदेश करता है, (तत्) इससे उसको कभी न भूलना चाहिये ॥२०॥
भावार्थभाषाः- इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सिंह अपने पराक्रम से अपनी इच्छा के समान अन्य पशुओं का नियम करता फिरता है, वैसे जगदीश्वर अपने पराक्रम से सब लोकों का नियम करता है ॥२०॥
विष्णो॑ र॒राट॑मसि॒ विष्णोः॒ श्नप्त्रे॑ स्थो॒ विष्णोः॒ स्यूर॑सि॒ विष्णोर्ध्रु॒वो᳖ऽसि॒। वै॒ष्ण॒वम॑सि॒ विष्ण॑वे त्वा ॥२१॥
पद पाठ
विष्णोः॑। र॒राट॑म्। अ॒सि॒। विष्णेः॑। श्नप्त्रे॒ऽइति॒ श्नप्त्रे॑। स्थः॒। विष्णोः॑। स्यूः। अ॒सि॒। विष्णोः॑। ध्रु॒वः। अ॒सि॒। वै॒ष्ण॒वम्। अ॒सि॒। विष्ण॑वे। त्वा॒ ॥२१॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वह जगदीश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- जो यह अनेक प्रकार का जगत् है, वह (विष्णोः) व्यापक परमेश्वर के सकाश से (रराटम्) उत्पन्न होकर प्रकाशित है, (विष्णोः) सर्व सुख प्राप्त करनेवाले ईश्वर से (स्यूः) विस्तृत (असि) है। [(विष्णोः) सब जगत् के पालक ईश्वर से उत्पन्न होने के कारण अपनी-अपनी सत्ता में (ध्रुवः) निश्चल है,] सब जगत् (वैष्णवम्) यज्ञ का साधन (असि) है और (विष्णोः) सब में प्रवेश करनेवाले जिस ईश्वर के (श्नप्त्रे) जड़-चेतन के समान दो प्रकार का शुद्ध जगत् है, उस सब जगत् के उत्पन्न करनेवाले जगदीश्वर ! हम लोग (त्वा) आप को (विष्णवे) यज्ञ का अनुष्ठान करने के लिये आश्रय करते हैं ॥२१॥
भावार्थभाषाः- मनुष्यों को उचित है कि इस सब जगत् का परमेश्वर ही रचने और धारण करनेवाला व्यापक इष्टदेव है, ऐसा जानकर सब कामनाओं की सिद्धि करें ॥२१॥
दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वे᳕ऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। आद॑दे॒ नार्य॑सी॒दम॒हꣳ रक्ष॑सां ग्री॒वाऽअपि॑ कृन्तामि। बृ॒हन्न॑सि बृ॒हद्र॑वा बृह॒तीमिन्द्रा॑य॒ वाचं॑ वद ॥२२॥
पद पाठ
दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्यामिति॒ हस्ता॑ऽभ्याम्। आद॑दे। नारी॑। अ॒सि॒। इ॒दम्। अ॒हम्। रक्ष॑साम्। ग्री॒वाः। अपि॑। कृ॒न्ता॒मि॒। बृ॒हन्। अ॒सि॒। बृ॒हद्र॑वा॒ इति॑ बृ॒हत्ऽर॑वाः। बृ॒ह॒तीम्। इन्द्रा॑य। वाच॑म्। व॒द॒ ॥२२॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर यह यज्ञ किसलिये करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- हे विद्वान् मनुष्य ! जैसे मैं (देवस्य) सब को प्रकाश करने आनन्द देने वा (सवितुः) सकल जगत् को उत्पन्न करनेवाले ईश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये हुए संसार में जिस यज्ञ को (आददे) ग्रहण करता हूँ, वैसे तू भी (त्वा) उसको ग्रहण कर। जैसे मैं (नारी) यज्ञक्रिया वा (इदम्) यज्ञ के अनुष्ठान का ग्रहण करता हूँ, वैसे तू भी ग्रहण कर। जैसे (अहम्) मैं (रक्षसाम्) दुष्ट स्वभाववाले शुत्रओं के (ग्रीवाः) शिरों को भी (अपिकृन्तामि) छेदन करता हूँ, वैसे तुम भी छेदन करो। जैसे मैं इस अनुष्ठान से (बृहद्रवाः) बड़ाई पाया बड़ा होता हूँ, वैसे तू भी हो और जैसे मैं (इन्द्राय) परमैश्वर्य की प्राप्ति के लिये (बृहतीम्) बड़ी (वाचम्) वाणी का उपदेश करता हूँ, वैसे तू भी (वद) कर ॥२२॥
भावार्थभाषाः- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् लोग ईश्वर की सृष्टि में विद्या से पदार्थों की परीक्षा करके कार्य्यों में उपयोग कर सुखों को प्राप्त करते हैं, वैसे ही सब मनुष्यों को इस यज्ञ का अनुष्ठान कर सब सुखों को पहुँचना चाहिये ॥२२॥
र॒क्षो॒हणं॑ बलग॒हनं॑ वैष्ण॒वीमि॒दम॒हं तं ब॑ल॒गमुत्कि॑रामि॒ यं मे॒ निष्ट्यो॒ यम॒मात्यो॑ निच॒खाने॒दम॒हं तं ब॑ल॒गमुत्कि॑रामि॒ यं मे॑ समा॒नो यमस॑मानो निच॒खाने॒दम॒हं तं ब॑ल॒गमुत्कि॑रामि॒ यं मे॒ सब॑न्धु॒र्यमस॑बन्धुर्निच॒खाने॒दम॒हं तं ब॑ल॒गमुत्कि॑रामि॒ यं मे॑ सजा॒तो यमस॑जातो निच॒खानोत्कृ॒त्याङ्कि॑रामि ॥२३॥
पद पाठ
र॒क्षो॒हण॑म्। र॒क्षो॒हन॒मिति॑ रक्षःऽहन॑म्। ब॒ल॒ग॒हन॒मिति॑ बलऽग॒हन॑म्। वै॒ष्ण॒वीम्। इ॒दम्। अ॒हम्। तम्। ब॒ल॒गम्। उत्। कि॒रा॒मि॒। यम्। मे॒। निष्ट्यः॑। यम्। अ॒मात्यः॑। नि॒च॒खानेति॑ निऽच॒खान॑। इ॒दम्। अ॒हम्। तम्। ब॒ल॒गम्। उत्। कि॒रा॒मि॒। यम्। मे॒। स॒मा॒नः। यम्। अस॑मानः। नि॒च॒खानेति॑ निऽच॒खान॑। इ॒दम्। अ॒हम्। तम्। ब॒ल॒गम्। उत्। कि॒रा॒मि॒। यम्। मे॒। सब॑न्धु॒रिति॒ सऽब॑न्धुः। यम्। अस॑बन्धु॒रित्यस॑ऽबन्धुः। नि॒च॒खानेति॑ निऽच॒खान॑। इ॒दम्। अ॒हम्। तम्। ब॒ल॒गम्। उत्। कि॒रा॒मि॒। यम्। मे॒। स॒जा॒त इति॑ सऽजा॒तः। यम्। अस॑जातः। नि॒च॒खानेति॑ निऽच॒खान॑। उत्। कृ॒त्याम्। कि॒रा॒मि॒ ॥२३॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
सृष्टि से मनुष्यों को किस प्रकार का उपकार ग्रहण करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- हे विद्वन् मनुष्य ! जैसे (अहम्) मैं (बलगहनम्) बलों को बिडोलने और (रक्षोहणम्) राक्षसों के हनन करनेवाले कर्म और (वैष्णवीम्) व्यापक ईश्वर की वेदवाणी का अनुष्ठान करके (यम्) जिस (बलगम्) बल प्राप्त करानेवाले यज्ञ को (उत्किरामि) उत्कृष्टपन से प्रेरित अर्थात् इस संसार में प्रकाशित करता हूँ (तम्) उस यज्ञ को वैसे ही तू भी (इदम्) इसको प्रकाशित कर और जैसे (मे) मेरा (निष्ट्यः) यज्ञ में कुशल (अमात्यः) मेधावी विद्वान् मनुष्य (यम्) जिस यज्ञ वा (इदम्) भूगर्भ विद्या की परीक्षा के लिये स्थान को (निचखान) निःसन्देह करता है, वैसे (तम्) उसको तेरा भी भृत्य खोदे। जैसे (अहम्) भूगर्भविद्या का जाननेवाला मैं (यम्) जिस (बलगम्) बल प्राप्त करनेवाले खेती आदि यज्ञ वा (इदम्) खननरूपी कर्म को (उत्किरामि) अच्छे प्रकार सम्पादन करता हूँ, वैसे (तम्) उस को तू भी कर। जैसे (मे) मेरा (समानः) सदृश वा असदृश मनुष्य (यम्) जिस कर्म को (निचखान) खनन करता है, वैसे तेरा भी खोदे। जैसे (अहम्) पढ़ने-पढ़ानेवाला मैं (यम्) जिस (बलगम्) आत्मबल प्राप्त करनेवाले यज्ञ वा (इदम्) इस पढ़ने-पढ़ाने रूपी कार्य को (उत्किरामि) सम्पन्न करता हूँ, वैसे (तम्) उसको तू भी कर। जैसा (मे) मेरा (सबन्धुः) तुल्य बन्धु मित्र वा (असबन्धुः) तुल्य बन्धु रहित अमित्र (यम्) जिस पालनरूपी यज्ञ वा इस कर्म को (निचखान) निःसन्देह करता है, वैसे उसको तेरा भी करे। जैसे (अहम्) सब का मित्र मैं (यम्) जिस (बलगम्) राज्यबल प्राप्त करनेवाले यज्ञ वा (इदम्) इस कार्य को (उत्किरामि) सम्पन्न करता हूँ, वैसे (तम्) उसको तू भी कर। जैसे (सजातः) साथ उत्पन्न हुआ (असजातः) साथ से अलग उत्पन्न हुआ मनुष्य (यम्) जिस यज्ञ वा (कृत्याम्) उत्तम क्रिया को (निचखान) निःसन्देह करता है, वैसा तेरा भी इस यज्ञ वा इस क्रिया को निःसन्देह करे। जैसे मैं इस सब कर्म को (उत्किरामि) सम्पादन करता हूँ, वैसे तुम भी करो ॥२३॥
भावार्थभाषाः- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को ईश्वर की इस सृष्टि में विद्वानों का अनुकरण सदा करना और मूर्खों का अनुकरण कभी न करना चाहिये ॥२३॥
स्व॒राड॑सि सपत्न॒हा स॑त्र॒राड॑स्यभिमाति॒हा ज॑न॒राड॑सि रक्षो॒हा स॑र्व॒राड॑स्यमित्र॒हा ॥२४॥
पद पाठ
स्व॒राडिति॑ स्व॒ऽराट्। अ॒सि॒। स॒प॒त्न॒हेति॑ सपत्न॒ऽहा। स॒त्र॒राडिति॑ सत्र॒ऽराट्। अ॒सि॒। अ॒भि॒मा॒ति॒हेत्य॑भिमाति॒ऽहा। ज॒न॒राडिति॑ जन॒ऽराट्। अ॒सि॒। र॒क्षो॒हेति॑ रक्षः॒ऽहा। स॒र्व॒राडिति॑ सर्व॒ऽराट्। अ॒सि॒। अ॒मि॒त्र॒हेत्य॑मित्र॒ऽहा ॥२४॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब अगले मन्त्र में सूर्य और सभाध्यक्ष के गुणों का उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- हे विद्वान् मनुष्य ! जिस कारण आप (स्वराट्) अपने आप प्रकाशमान (असि) हैं, इससे (सपत्नहा) शत्रुओं के मारनेवाले होते हो। जिस कारण तुम (सत्रराट्) यज्ञों में प्रकाशमान हो, इससे (अभिमातिहा) अभिमानयुक्त मनुष्यों को मारनेवाले होते हो, जिस से (जनराट्) धार्मिक विद्वानों में प्रकाशित हैं, इससे (रक्षोहा) राक्षस दुष्टों को मारनेवाले होते हैं, जिससे आप (सर्वराट्) सब में प्रकाशित हैं, इस से (अमित्रहा) अमित्र अर्थात् शत्रुओं के मारनेवाले होते हैं ॥१॥२४॥ जिस कारण यह सूर्यलोक (स्वराट्) अपने आप (असि) प्रकाशित है, इससे (सपत्नहा) मेघ के अवयवों को काटनेवाला होता है। जिस कारण यह (सत्रराट्) यज्ञों में प्रकाशित (असि) है, इससे (अभिमातिहा) अभिमानकारक चोर आदि का हनन करनेवाला होता है। जिस कारण यह (जनराट्) धार्मिक विद्वानों के मन में प्रकाशित (असि) है, इससे (रक्षोहा) राक्षस वा दुष्टों का हनन करनेवाला होता है। जिस से यह (सर्वराट्) सब में प्रकाशमान (असि) है, इससे (अमित्रहा) दुष्टों को दण्ड देने का निमित्त होता है ॥२॥२४॥
भावार्थभाषाः- इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। विद्वान् मनुष्य ! जैसे सूर्य अपने प्रकाश से चोर, व्याघ्र आदि प्राणियों को भय दिखा कर अन्य प्राणियों को सुखी करता है, वैसे ही तू भी सब शत्रुओं को निवारण कर प्रजा को सुखी कर ॥२४॥
र॒क्षो॒हणो॑ वो बलग॒हनः॒ प्रोक्षा॑मि वैष्ण॒वान् र॑क्षो॒हणो॑ वो बलग॒हनोऽव॑नयामि वैष्ण॒वान् र॑क्षो॒हणो॑ वो बलग॒हनोऽव॑स्तृणामि वैष्ण॒वान् र॑क्षो॒हणौ॑ वां बलग॒हना॒ऽउप॑दधामि वैष्ण॒वी र॑क्षो॒हणौ॑ वां बलग॒हनौ॒ पर्यू॑हामि वैष्ण॒वी वै॑ष्ण॒वम॑सि वैष्ण॒वा स्थ॑ ॥२५॥
पद पाठ
र॒क्षो॒हणः॑। र॒क्षो॒हन॒ इति॑ रक्षः॒ऽहनः॑। वः॒। ब॒ल॒ग॒हन॒ इति॑ बलग॒ऽहनः॑। प्र। उ॒क्षा॒मि॒। वै॒ष्ण॒वान्। र॒क्षो॒हणः॑। र॒क्षो॒हन॒ इति॑ रक्षः॒ऽहनः॑। वः॒। ब॒ल॒ग॒हन॒ इति॑ बलग॒ऽहनः॑। अव॑। न॒या॒मि॒। वै॒ष्ण॒वान्। र॒क्षो॒हणः॑। र॒क्षो॒हन॒ इति॑ रक्षः॒ऽहनः॑। वः॒। ब॒ल॒ग॒हन॒ इति॑ बलग॒ऽहनः॑। अव॑। स्तृ॒णा॒मि॒। वै॒ष्ण॒वान्। र॒क्षो॒हणौ॑। र॒क्षो॒हना॒विति॑ रक्षः॒ऽहनौ॑। वा॒म्। ब॒ल॒ग॒हना॒विति॑ बलग॒ऽहनौ॑। उप॑। द॒धा॒मि॒। वै॒ष्ण॒वीऽइति॑ वैष्ण॒वी। र॒क्षो॒हणौ॑। र॒क्षो॒हना॒विति॑ रक्षः॒ऽहनौ॑। वा॒म्। ब॒ल॒ग॒हना॒विति॑ बलग॒ऽहनौ॑। परि॑। ऊ॒हा॒मि॒। वैष्ण॒वीऽइति॑ वैष्ण॒वी। वै॒ष्ण॒वम्। अ॒सि॒। वै॒ष्ण॒वाः। स्थः॒। ॥२५॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
यजमान सभा आदि के अध्यक्ष यज्ञानुष्ठान करनेवाले मनुष्यों को यज्ञ सामग्री का ग्रहण करावें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- हे सभाध्यक्ष आदि मनुष्यो ! जैसे तुम (रक्षोहणः) दुःखों का नाश करनेवाले हो, वैसे शत्रुओं के बल को अस्तव्यस्त करने हारा मैं (वैष्णवान्) यज्ञ देवतावाले (वः) आप लोगों का सत्कार कर युद्ध में शस्त्रों से (प्रोक्षामि) इन घमण्डी मनुष्यों को शुद्ध करूँ। जैसे आप (रक्षोहणः) अधर्मात्मा दुष्ट दस्युओं को मारनेवाले हैं, वैसे (बलगहनः) शत्रुसेना की थाह लेनेवाला मैं (वैष्णवान्) यज्ञसम्बन्धी (वः) तुम को सुखों से मान्य कर दुष्टों को (अवनयामि) दूर करता हूँ। जैसे (बलगहनः) अपनी सेना को व्यूहों की शिक्षा से विलोडन करनेवाला मैं (रक्षोहणः) शत्रुओं को मारने वा (वैष्णवान्) यज्ञ के अनुष्ठान करनेवाले (वः) तुम को (अवस्तृणामि) सुख से आच्छादित करता हूँ, वैसे तुम भी किया करो। जैसे (रक्षोहणौ) राक्षसों के मारने वा (बलगहनौ) बलों को विलोडन करनेवाले (वाम्) यज्ञपति वा यज्ञ करानेवाले विद्वान् का धारण करते हो, वैसे मैं भी (उपदधामि) धारण करता हूँ। जैसे (रक्षोहणौ) राक्षसों के मारने (बलगहनौ) बलों को विलोडनेवाले (वाम्) प्रजा सभाध्यक्ष आप (वैष्णवी) सब विद्याओं में व्यापक विद्वानों की क्रिया वा (वैष्णवम्) जो विष्णुसम्बन्धी ज्ञान है, इन सब को तर्क से जानते हैं, वैसे मैं भी (पर्यूहामि) तर्क से अच्छे प्रकार जानूँ और जैसे आप सब लोग (वैष्णवाः) व्यापक परमेश्वर की उपासना करनेवाले (स्थ) हैं, वैसा मैं भी होऊँ ॥२५॥
भावार्थभाषाः- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा और उपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को परमेश्वर की उपासनायुक्त व्यवहार से शरीर और आत्मा के बल को पूर्ण कर के यज्ञ से प्रजा की पालना और शत्रुओं को जीतकर सब भूमि के राज्य की पालना करनी चाहिये ॥२५॥
दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वे᳕ऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। आद॑दे॒ नार्य॑सी॒दम॒हꣳ रक्ष॑सां ग्री॒वाऽअपि॑कृन्तामि॒। यवो॑ऽसि य॒वया॒स्मद् द्वेषो॑ य॒वयारा॑तीर्दि॒वे त्वा॒ऽन्तरि॑क्षाय त्वा पृथि॒व्यै त्वा॒ शुन्ध॑न्ताँल्लो॒काः पि॑तृ॒षद॑नाः पितृ॒षद॑नमसि ॥२६॥
पद पाठ
दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्याम्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्या॒मिति॒ हस्ता॑ऽभ्याम्। आ। द॒दे॒। नारि॑। अ॒सि॒। इ॒दम्। अ॒हम्। रक्ष॑साम्। ग्री॒वाः। अपि॑। कृ॒न्ता॒मि॒। यवः॑। अ॒सि॒। य॒वय॑। अ॒स्मत्। द्वेषः॑। य॒वय॑। अरा॑तीः। दि॒वे। त्वा॒। अ॒न्तरिक्षा॑य। त्वा॒। पृ॒थि॒व्यै। त्वा॒। शुन्ध॑न्ताम्। लो॒काः। पि॒तृ॒षद॑नाः। पि॒तृ॒सद॑ना॒ इति॑ पितृ॒ऽसद॑नाः। पि॒तृ॒षद॑नम्। पि॒तृ॒सद॑न॒मिति॑ पितृ॒ऽसद॑नम्। अ॒सि॒ ॥२६॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
किसलिये इस यज्ञ को करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- हे विद्वान् मनुष्य ! जैसे मैं (सवितुः) सब जगत् के उत्पन्न करने और (देवस्य) सब आनन्द के देनेवाले परमेश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये हुए संसार में (अश्विनोः) प्राण और अपान के (बाहुभ्याम्) बल और वीर्य तथा (पूष्णः) अतिपुष्ट वीर के (हस्ताभ्याम्) प्रबल प्रतापयुक्त भुज और दण्ड से अनेक उपकारों को (आददे) लेता वा (इदम्) इस जगत् की रक्षा कर (रक्षसाम्) दुष्टकर्म करनेवाले प्राणियों के (ग्रीवाः) शिरों का (अपि) (कृन्तामि) छेदन ही करता हूँ, तथा जैसे पदार्थों का उत्तम गुणों से मेल करता हूँ, वैसे तू भी उपकार ले और (यवय) उत्तम गुणों से पदार्थों का मेल कर। जैसे मैं (द्वेषः) ईर्ष्या आदि दोष वा (अरातीः) शत्रुओं को (अस्मत्) अपने से दूर कराता हूँ, वैसे तू भी (यवय) दूर करा। हे विद्वन् ! जैसे हम लोग (दिवे) ऐश्वर्य्यादि गुण के प्रकाश होने के लिये (त्वा) तुझ को (अन्तरिक्षाय) आकाश में रहनेवाले पदार्थ को शोधने के लिये (त्वा) तुझ को (पृथिव्यै) पृथिवी के पदार्थों की पुष्टि होने के लिये (त्वा) तुझ को सेवन करते हैं, वैसे तुम लोग भी करो। जैसे (पितृषदनम्) विद्या पढ़े हुए ज्ञानी लोगों का यह स्थान (असि) है और जिस से (पितृषदनाः) जैसे ज्ञानियों में ठहर पवित्र होते हैं, वैसे मैं शुद्ध होऊँ तथा सब मनुष्य (शुन्धन्ताम्) अपनी शुद्धि करें और हे स्त्री ! तू भी यह सब इसी प्रकार कर ॥२६॥
भावार्थभाषाः- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि ठीक-ठीक क्रियाक्रमपूर्वक विद्वानों का आश्रय और यज्ञ का अनुष्ठान करके सब प्रकार से अपनी शुद्धि करें ॥२६॥
उद्दिव॑ꣳ स्तभा॒नान्तरि॑क्षं पृण॒ दृꣳह॑स्व पृथि॒व्यां द्यु॑ता॒नस्त्वा॑ मारु॒तो मि॑नोतु मि॒त्रावरु॑णौ ध्रु॒वेण॒ धर्म॑णा। ब्र॒ह्म॒वनि॑ क्षत्र॒वनि॑ रायस्पोष॒वनि॒ पर्यू॑हामि। ब्रह्म॑ दृꣳह क्ष॒त्रं दृ॒ꣳहायु॑र्दृꣳह प्र॒जां दृ॑ꣳह ॥२७॥
पद पाठ
उत्। दिव॑म्। स्त॒भा॒न॒। आ। अ॒न्तरि॑क्षम्। पृ॒ण॒। दृꣳह॑स्व। पृ॒थि॒व्याम्। द्यु॒ता॒नः। त्वा॒। मा॒रु॒तः। मि॒नो॒तु॒। मि॒त्राव॑रुणौ। ध्रु॒वेण॑। धर्म॑णा। ब्र॒ह्म॒वनीति॑ ब्रह्म॒ऽवनि॑। त्वा॒। क्ष॒त्र॒वनीति॑ क्षत्र॒ऽवनि॑। रा॒य॒स्पो॒ष॒वनीति॑ रायस्पोष॒ऽवनि॑। परि॑। ऊ॒हा॒मि॒। ब्रह्म॑। दृ॒ꣳह॒। क्ष॒त्रम्। दृ॒ꣳह॒। आयुः॑। दृ॒ꣳह॒। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। दृ॒ꣳह॒॑ ॥२७॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अच्छे प्रकार सेवन किया हुआ सभापति और अनुष्ठान किया हुआ यज्ञ क्या करता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- हे परम विद्वन् ! जैसे (त्वा) आपको (मारुतः) वायु (ध्रुवेण) निश्चल (धर्मणा) धर्म से (मिनोतु) प्रयुक्त करे (मित्रावरुणौ) प्राण और अपान भी धर्म से प्रयुक्त करते हैं, वैसे आप कृपा करके हम लोगों के लिये (दिवम्) विद्या गुणों के प्रकाश को (उत्तभान) अज्ञान से उघाड़ देओ तथा (अन्तरिक्षम्) सब पदार्थों के अवकाश को (पृण) परिपूर्ण कीजिये (पृथिव्याम्) भूमि पर (द्युतानः) सद्विद्या के गुणों का विस्तार करते हुए आप सुखों को (दृंहस्व) बढ़ाइये (ब्रह्म) वेदविद्या को (दृंह) बढ़ाइये (क्षत्रम्) राज्य को बढ़ाइये (आयुः) अवस्था को (दृंह) बढ़ाइये और (प्रजाम्) उत्पन्न हुई प्रजा को (दृंह) वृद्धियुक्त कीजिये। इसलिये मैं (ब्रह्मवनि) ब्रह्मविद्या को सेवन करने वा कराने (क्षत्रवनि) राज्य को सेवन करने-कराने (रायस्पोषवनि) और धनसमूह की पुष्टि को सेवने वा सेवन करानेवाले आप को (पर्यूहामि) सब प्रकार के तर्कों से निश्चय करता हूँ, वैसे आप मुझ को सर्वथा सुखदायक हूजिये और आप को सब मनुष्य तर्कों से जानें ॥२७॥
भावार्थभाषाः- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! आप लोग जैसे जगदीश्वर सत्य भाव से प्रार्थित और सेवन किया हुआ अत्युत्तम विद्वान् सब को सुख देता है, वैसे यह यज्ञ भी विद्या गुण को बढ़ाकर सब जीवों को सुख देता है, यह जानो ॥२७॥
ध्रु॒वासि॑ ध्रु॒वो᳕ऽयं यज॑मानो॒ऽस्मिन्ना॒यत॑ने प्र॒जया॑ प॒शुभि॑र्भूयात्। घृ॒तेन॑ द्यावापृथिवी पूर्येथा॒मिन्द्र॑स्य छ॒दिर॑सि विश्वज॒नस्य॑ छा॒या ॥२८॥
पद पाठ
ध्रु॒वा। अ॒सि॒। ध्रु॒वः। अ॒यम्। यज॑मानः। अ॒स्मिन्। आ॒यत॑न॒ इत्या॒ऽयत॑ने। प्र॒जयेति॑ प्र॒ऽजया॑। प॒शुभि॒रिति॑ प॒शुऽभिः॑। भू॒या॒त्। घृ॒तेन॑। द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ऽइति॑ द्यावापृथिवी। पू॒र्ये॒था॒म्। इन्द्र॑स्य। छ॒दिः। अ॒सि॒। वि॒श्व॒ज॒नस्येति॑ विश्वऽज॒नस्य॑। छा॒या ॥२८॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उस यज्ञ से क्या होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- हे यज्ञ करनेवाले यजमान की स्त्री ! जैसे तू (प्रजया) राज्य वा अपने संतानों और (पशुभिः) हाथी, घोड़े, गाय आदि पशुओं के सहित (अस्मिन्) इस (आयतने) जगत् वा अपने स्थान वा सब के सत्कार कराने के योग्य यज्ञ में (ध्रुवा) दृढ़ संकल्प (असि) है, वैसे (अयम्) यह (यजमानः) यज्ञ करनेवाला तेरा पति यजमान भी (ध्रुवः) दृढ़ संकल्प है। तुम दोनों (घृतेन) घृत आदि सुगन्धित पदार्थों से (द्यावापृथिवी) आकाश और भूमि को (पूर्येथाम्) परिपूर्ण करो। हे यज्ञ करनेवाली स्त्री ! तू (इन्द्रस्य) अत्यन्त ऐश्वर्य को भी अपने यज्ञ से (छदिः) प्राप्त करनेवाली (असि) है। अब तू और तेरा पति यह यजमान (विश्वजनस्य) संसार का (छाया) सुख करनेवाला (भूयात्) हो ॥२८॥
भावार्थभाषाः- मनुष्यों को चाहिये कि जिन यज्ञ करनेवाले यजमान की पत्नी और यजमान से तथा जिस यज्ञ से दृढ़ विद्या और सुखों को पाकर दुःखों को छोड़ें उनका सत्कार तथा उस यज्ञ का अनुष्ठान सदा ही करते रहें ॥२८॥
परि॑ त्वा गिर्वणो॒ गिर॑ऽइ॒मा भ॑वन्तु वि॒श्वतः॑। वृ॒द्धायु॒मनु॒ वृद्ध॑यो॒ जुष्टा॑ भवन्तु॒ जुष्ट॑यः ॥२९॥
पद पाठ
परि॑। त्वा। गि॒र्व॒णः॒। गिरः॑। इ॒माः। भ॒व॒न्तु॒। वि॒श्वतः॑। वृ॒द्धायु॒मिति॑ वृ॒द्धऽआ॑युम्। अनु॑। वृद्ध॑यः। जुष्टाः॑। भ॒व॒न्तु॒। जुष्ट॑यः ॥२९॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
ईश्वर और सभाध्यक्ष से क्या-क्या होने को योग्य है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- हे (गिर्वणः) स्तुतियों से स्तुति करने योग्य ईश्वर वा सभाध्यक्ष ! (इमाः) ये मेरी की हुई (विश्वतः) समस्त (गिरः) स्तुतियाँ (परि) सब प्रकार से (भवन्तु) हों और उसी समय की ही न हों, किन्तु (वृद्धायुम्) वृद्धों के समान आचरण करनेवाले आपके (अनु) पश्चात् (वृद्धयः) अत्यन्त बढ़ती हुई और (जुष्टयः) प्रीति करने योग्य (जुष्टाः) प्यारी हों ॥२९॥
भावार्थभाषाः- इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जैसे सम्पूर्ण उत्तम गुण, कर्म्मों के साथ वर्त्तमान जगदीश्वर और सभापति स्तुति करने योग्य हैं, वैसे ही तुम लोगों को भी होना चाहिये ॥२९॥
इन्द्र॑स्य॒ स्यूर॒सीन्द्र॑स्य ध्रु॒वो᳖ऽसि ऐ॒न्द्रम॑सि वैश्वदे॒वम॑सि ॥३०॥
पद पाठ
इन्द्र॑स्य। स्यूः। अ॒सि॒। इन्द्र॑स्य। ध्रु॒वः। अ॒सि॒। ऐ॒न्द्रम्। अ॒सि॒। वै॒श्व॒दे॒वमिति॑ वैश्वऽदे॒वम्। अ॒सि॒ ॥३०॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- हे जगदीश्वर वा सभाध्यक्ष ! जैसे (वैश्वदेवम्) समस्त पदार्थों का निवास स्थान अन्तरिक्ष है, वैसे आप (ऐन्द्रम) सब के आधार हैं, इसी से हम लोगों को (इन्द्रस्य) परमैश्वर्य का (स्यूः) संयोग करनेवाले (असि) हैं और (इन्द्रस्य) सूर्य आदि लोक वा राज्य को (ध्रुवः) निश्चल करनेवाले (असि) हैं ॥३०॥
भावार्थभाषाः- इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। सकल ऐश्वर्य्य का देनेवाला जगदीश्वर है, वैसे सभाध्यक्षादि मनुष्यों को होना चाहिये ॥३०॥
वि॒भूर॑सि प्र॒वाह॑णो॒ वह्नि॑रसि हव्य॒वाह॑नः। श्वा॒त्रो᳖ऽसि प्रचे॑तास्तु॒थो᳖ऽसि वि॒श्ववे॑दाः ॥३१॥
पद पाठ
वि॒भूरिति॒ वि॒ऽभूः। अ॒सि॒। प्रवा॒ह॑णः। प्रवा॒ह॑न॒ इति॑ प्र॒ऽवाह॑नः। वह्निः॑। अ॒सि॒। ह॒व्य॒वाह॑न॒ इति॑ हव्य॒ऽवाह॑नः। श्वा॒त्रः। अ॒सि॒। प्रचे॑ता॒ इति॒ प्रऽचे॑ताः। तु॒थः। अ॒सि॒। वि॒श्ववे॑दा॒ इति॑ वि॒श्वऽवे॑दाः ॥३१॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- हे जगदीश्वर वा विद्वन् ! जिससे आप जैसे व्यापक आकाश और ऐश्वर्य्ययुक्त राजा होता है, वैसे (विभूः) व्यापक और ऐश्वर्य्ययुक्त (असि) हैं। (वह्निः) जैसे होम किये पदार्थों को योग्य स्थान में पहुँचानेवाला अग्नि है, वैसे (हव्यवाहनः) हवन करने के योग्य पदार्थों को सम्पादन करनेवाले (असि) हैं, जैसे जीवों में प्राण हैं, वैसे (प्रचेताः) चेत करनेवाले (श्वात्रः) विद्वान् (असि) हैं, जैसे सूत्रात्मा पवन सब में व्याप्त है, वैसे (विश्ववेदाः) विश्व को जानने (तुथः) ज्ञान को बढ़ानेवाले (असि) हैं। इस से आप सत्कार करने योग्य हैं, ऐसा हम लोग जानते हैं ॥३१॥
भावार्थभाषाः- इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। सब मनुष्यों को उचित है कि ईश्वर और विद्वान् का सत्कार करना कभी न छोड़ें, क्योंकि अन्य किसी से विद्या और सुख का लाभ नहीं हो सकता है। इसलिये इन को जानें ॥३१॥
उ॒शिग॑सि क॒विरङ्घा॑रिरसि॒ बम्भा॑रिरव॒स्यूर॑सि दुव॑स्वाञ्छु॒न्ध्यूर॑सि मार्जा॒लीयः॑। स॒म्राड॑सि कृ॒शानुः॑ परि॒षद्यो॑ऽसि॒ पव॑मानो॒ नभो॑ऽसि प्र॒तक्वा॑ मृ॒ष्टो᳖ऽसि हव्य॒सूद॑नऽऋ॒तधा॑मासि॒ स्व᳖र्ज्योतिः ॥३२॥
पद पाठ
उ॒शिक्। अ॒सि॒। क॒विः। अङ्घा॑रिः। अ॒सि॒। बम्भा॑रिः। अ॒व॒स्यूः। अ॒सि॒। दुव॑स्वान्। शु॒न्ध्यूः। अ॒सि॒। मा॒र्जा॒लीयः॑। स॒म्राडिति॑ स॒म्ऽराट्। अ॒सि॒। कृ॒शानुः॑। प॒रि॒षद्यः॑। प॒रि॒षद्य॒ इति॑ परि॒ऽसद्यः॑। अ॒सि॒। पव॑मानः। नभः॑। अ॒सि॒। प्र॒तक्वेति॑ प्र॒ऽतक्वा॑। मृ॒ष्टः। अ॒सि॒। ह॒व्य॒सूद॑न॒ इति॑ हव्य॒ऽसूद॑नः। ऋ॒तधा॒मेत्यृ॒तऽधा॑मा। अ॒सि॒। स्व॑र्ज्योति॒रिति॒ स्वः॑ऽज्योतिः॑ ॥३२॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- हे जगदीश्वर ! जिस कारण आप (उशिक्) कान्तिमान् (असि) हैं, (अङ्घारिः) खोटे चलनवाले जीवों के शत्रु वा (कविः) क्रान्तप्रज्ञ (असि) हैं, (बम्भारिः) बन्धन के शत्रु वा (अवस्यूः) तारादि तन्तुओं के विस्तार करनेवाले (असि) हैं, (दुवस्वान्) प्रशंसनीय सेवायुक्त स्वयं (शुन्ध्यूः) शुद्ध (असि) हैं, (मार्जालीयः) सब को शोधनेवाले (सम्राट्) और अच्छे प्रकार प्रकाशमान (असि) हैं, (कृशानुः) पदार्थों को अति सूक्ष्म (पवमानः) पवित्र और (परिषद्यः) सभा में कल्याण करनेवाले (असि) हैं, जैसे (प्रतक्वा) हर्षित और (नभः) दूसरे के पदार्थ हर लेनेवालों को मारनेवाले (असि) हैं, (हव्यसूदनः) जैसे होम के द्रव्य को यथायोग्य व्यवहार में लानेवाले और (मृष्टः) सुख-दुःख को सहन करने और करानेवाले (असि) हैं, जैसे (स्वर्ज्योतिः) अन्तरिक्ष को प्रकाश करनेवाले और (ऋतधामा) सत्यधाम युक्त (असि) हैं, वैसे ही उक्त गुणों से प्रसिद्ध आप सब मनुष्यों को उपासना करने योग्य हैं, ऐसा हम लोग जानते हैं ॥३२॥
भावार्थभाषाः- इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जिस परमेश्वर ने समस्त गुणवाले जगत् को रचा है, उन्हीं गुणों से प्रसिद्ध उसकी उपासना सब मनुष्यों को करनी चाहिये ॥३२॥
स॒मु॒द्रो᳖ऽसि वि॒श्वव्य॑चाऽअ॒जो᳕ऽस्येक॑पा॒दहि॑रसि बु॒ध्न्यो᳕ वाग॑स्यै॒न्द्रम॑सि॒ सदो॒स्यृत॑स्य द्वारौ॒ मा मा॒ सन्ता॑प्त॒मध्व॑नामध्वपते॒ प्र मा॑ तिर स्व॒स्ति मे॒ऽस्मिन् प॒थि दे॑व॒याने॑ भूयात् ॥३३॥
पद पाठ
स॒मु॒द्रः। अ॒सि॒। वि॒श्वव्य॑चा॒ इति॑ वि॒श्वऽव्य॑चाः। अ॒जः। अ॒सि॒। एक॑पा॒दित्येक॑ऽपात्। अहिः॑। अ॒सि॒। बु॒ध्न्यः᳖। वाक्। अ॒सि॒। ऐ॒न्द्रम्। अ॒सि॒। स॒दः॑। अ॒सि॒। ऋत॑स्य। द्वा॒रौ॒। मा। मा॒। सम्। ता॒प्त॒म्। अध्व॑नाम्। अ॒ध्व॒प॒त॒ इत्य॑ध्वऽपते। प्र। मा॒। ति॒र। स्व॒स्ति। मे॒। अ॒स्मिन्। प॒थि। दे॒व॒यान॒ इति॑ देव॒ऽयाने॑। भू॒या॒त् ॥३३॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर जैसा ईश्वर है वैसा विद्वानों को भी होना अवश्य है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- जैसे परमेश्वर (समुद्रः) सब प्राणियों का गमनागमन कराने हारे (विश्वव्यचाः) जगत् में व्यापक और (अजः) अजन्मा (असि) है, (एकपात्) जिसके एक पाद में विश्व है (अहिः) वा व्यापनशील (बुध्न्यः) तथा अन्तरिक्ष में होनेवाला (असि) है और (वाक्) वाणीरूप (असि) है, (ऐन्द्रम्) परमैश्वर्य्य का (सदः) स्थान रूप है और (ऋतस्य) सत्य के (द्वारौ) मुखों को (मा संताप्तम्) संताप करानेवाला नहीं है (अध्वपते) हे धर्म-व्यवहार के मार्गों को पालन करने हारे विद्वानो ! वैसे तुम भी संताप न करो। हे ईश्वर ! (मा) मुझ को (अध्वनाम्) धर्मशिल्प के मार्ग से (प्रतिर) पार कीजिये और (मे) मेरे (अस्मिन्) इस (देवयाने) विद्वानों के जाने-आने योग्य (पथि) मार्ग में जैसे (स्वस्ति) सुख (भूयात्) हो, वैसा अनुग्रह कीजिये ॥३३॥
भावार्थभाषाः- इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। ईश्वर, जगत् का कारण तथा जीव इनका अनादि होने के कारण जन्म न होने से अविनाशीपन है। परमेश्वर की कृपा, उपासना, सृष्टि की विद्या वा अपने पुरुषार्थ के साथ वर्त्तमान हुए मनुष्यों को विद्वानों के मार्ग की प्राप्ति और उस में सुख होता है और आलसी मनुष्यों को नहीं होता ॥३३॥
मि॒त्रस्य॑ मा॒ चक्षु॑षेक्षध्व॒मग्न॑यः। सगराः॒ सग॑रा स्थ॒ सग॑रेण॒ नाम्ना॒ रौद्रे॒णानी॑केन पा॒त मा॑ग्नयः पिपृ॒त मा॑ग्नयो गोपा॒यत॑ मा॒ नमो॑ वोऽस्तु॒ मा मा॑ हिꣳसिष्ट ॥३४॥
पद पाठ
मित्र॒स्य॑। मा॒। चक्षु॑षा। ईक्ष॒ध्व॒म्। अग्न॑यः। स॒ग॒राः। स्थ॒। सग॑रेण। नाम्ना॑ रौद्रे॑ण। अनी॑केन। पा॒त। मा॒। अ॒ग्न॒यः॒। पि॒पृ॒त। मा॒। अग्न॑यः। गो॒पा॒यत॑ मा॒। नमः॑। वः॒। अ॒स्तु॒। मा। मा॒। हिं॒ᳬसि॒ष्ट॒ ॥३४॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर विद्वान् कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- हे (सगराः) अन्तरिक्ष अवकाश युक्त (अग्नयः) अच्छे-अच्छे पदार्थों को प्राप्त करनेवाले विद्वान् लोगो ! तुम (मा) मुझ को (मित्रस्य) मित्र की (चक्षुषा) दृष्टि से (ईक्षध्वम्) देखिये। आप (सगराः) विद्योपदेश अवकाशयुक्त (स्थ) हूजिये और जैसे आप (अग्नयः) संसाधित विद्युत् आदि अग्नियों की रक्षा करते हैं, वैसे (सगरेण) अन्तरिक्ष के साथ वर्त्तमान (रौद्रेण) शुत्रओं को रोदन करनेवाली (नाम्ना) प्रसिद्ध (अनीकेन) सेना से (मा) मुझे (पात) पालिये (अग्नयः) जैसे ज्ञानी लोग सब को सुख देते हैं, वैसे (पिपृत) सुखों से पूरण कीजिये (गोपायत) और सब ओर से पालन कीजिये और कभी (मा) मुझ को (मा हिंसिष्ट) नष्ट मत कीजिये (वः) इस से आप के लिये (मा) मेरा (नमः) नमस्कार (अस्तु) हो ॥३४॥
भावार्थभाषाः- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्या देने से विद्वान् लोग सब मनुष्यों को सुखी करते हैं, वैसे इन विद्वानों को कार्यों के करने में चतुर और विद्यायुक्त होकर विद्यार्थी लोग सेवा से सुखी करें ॥३४॥
ज्योति॑रसि वि॒श्वरू॑पं॒ विश्वे॑षां दे॒वाना॑ स॒मित्। त्वꣳ सो॑म तनू॒कृद्भ्यो॒ द्वेषो॑भ्यो॒ऽन्यकृतेभ्यऽउ॒रुᳬ य॒न्तासि॒ वरू॑थ॒ꣳ स्वाहा॑। जुषा॒णोऽ अ॒प्तुराज्य॑स्य वेतु॒ स्वाहा॑ ॥३५॥
पद पाठ
ज्योतिः॑। अ॒सि॒। वि॒श्वरू॑प॒मिति॑ वि॒श्वऽरू॑पम्। विश्वे॑षाम्। दे॒वाना॑म्। स॒मिदिति॑ स॒म्ऽइत्। त्वम्। सो॒म॒। त॒नू॒कृद्भ्य॒ इति॑ तनू॒कृत्ऽभ्यः॑। द्वेषो॑भ्य॒ इति॒ द्वेषः॑ऽभ्यः। अ॒न्यकृ॑तेभ्य इत्य॒न्यऽकृ॑तेभ्यः। उ॒रु। य॒न्ता। अ॒सि॒। वरू॑थम्। स्वाहा॑। जु॒षा॒णः। अ॒प्तुः। आज्य॑स्य। वे॒तु॒। स्वाहा॑ ॥३५॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
ईश्वर कैसा है, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- हे (सोम) ऐश्वर्य देनेवाले जगदीश्वर ! आप (विश्वेषाम्) सब (देवानाम्) विद्वानों के (विश्वरूपम्) सब रूपयुक्त (ज्योतिः) सब के प्रकाश करनेवाले (समित्) अच्छे प्रकाशित (असि) हैं (तनूकृद्भ्यः) शरीरों को सम्पादन करने (द्वेषोभ्यः) और द्वेष करनेवाले जीवों तथा (अन्यकृतेभ्यः) अन्य मनुष्यों के किये हुए दुष्ट कर्म्मों से (यन्ता) नियम करानेवाले (असि) हैं, उनसे (उरु) बहुत (वरूथम्) उत्तम गृह (स्वाहा) वाणी (अप्तुः) व्यापक (आज्यस्य) विज्ञान को (जुषाणः) सेवन करता हुआ मनुष्य (स्वाहा) वेदवाणी को (वेतु) जाने ॥३५॥
भावार्थभाषाः- जिससे परमेश्वर सब लोकों का नियम करनेवाला है, इससे ये नियम में चलते हैं ॥३५॥
अग्ने॒ नय॑ सु॒पथा॑ रा॒येऽअ॒स्मान् विश्वा॑नि देव व॒युना॑नि वि॒द्वान्। यु॒यो॒ध्य᳕स्मज्जु॑हुरा॒णमेनो॒ भूयि॑ष्ठां ते॒ नम॑ऽउक्तिं विधेम ॥३६॥
पद पाठ
अग्ने॑। नय॑। सु॒पथेति॑ सु॒ऽपथा॑। रा॒ये। अ॒स्मान्। विश्वा॑नि। दे॒व॒। व॒युना॑नि। वि॒द्वान्। यु॒यो॒धि। अ॒स्मत्। जु॒हु॒रा॒णम्। एनः॑। भूयि॑ष्ठाम्। ते॒। नम॑उक्ति॒मिति॒ नमः॑ऽउक्तिम्। वि॒धे॒म॒ ॥३६॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर ईश्वरप्रार्थना किसलिये करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- हे (अग्ने) सब को अच्छे मार्ग में पहुँचाने (देव) और सब आनन्दों को देनेवाले (विद्वान्) समस्त विद्यान्वित जगदीश्वर ! आप कृपा से (राये) मोक्षरूप उत्तम धन के लिये (सुपथा) जैसे धार्मिक जन उत्तम मार्ग से (विश्वानि) समस्त (वयुनानि) उत्तम कर्म, विज्ञान वा प्रजा को प्राप्त होते हैं, वैसे (अस्मान्) हम लोगों को (नय) प्राप्त कीजिये और (जुहुराणम्) कुटिल (एनः) दुःखफलरूपी पाप को (अस्मत्) हम लोगों से (युयोधि) दूर कीजिये। हम लोग (ते) आप की (भूयिष्ठाम्) अत्यन्त (नम उक्तिम्) नमस्काररूप वाणी को (विधेम) कहते हैं ॥३६॥
भावार्थभाषाः- इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सत्य प्रेम से उपासना किया हुआ परमेश्वर जीवों को दुष्ट मार्गों से अलग और धर्म मार्ग में स्थापन करके इस लोक के सुखों को उन के कर्मानुसार देता है, वैसे ही न्याय करने हारे भी किया करें ॥३६॥
अ॒यं नो॑ऽअ॒ग्निर्वरि॑वस्कृणोत्व॒यं मृधः॑ पु॒रऽए॑तु प्रभि॒न्दन्। अ॒यं वाजा॑ञ्जयतु॒ वाज॑साताव॒यꣳ शत्रू॑ञ्जयतु॒ जर्हृ॑षाणः॒ स्वाहा॑ ॥३७॥
पद पाठ
अ॒यम्। नः॒। अ॒ग्निः। वरि॑वः। कृ॒णो॒तु॒। अ॒यम्। मृधः॑। पु॒रः। ए॒तु॒। प्र॒भि॒न्दन्निति॑ प्रऽभि॒न्दन्। अ॒यम्। वाजा॑न्। ज॒य॒तु॒। वाज॑साता॒विति॒ वाज॑ऽसातौ। अ॒यम्। शत्रू॑न्। ज॒य॒तु॒। जर्हृ॑षाणः। स्वाहा॑ ॥३७॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर ईश्वर की उपासना करने हारे शूरवीर के गुणों का उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- (अयम्) यह परमेश्वर का उपासक जन (नः) हम प्रजास्थ जीवों की (वरिवः) निरन्तर रक्षा (कृणोतु) करे। जैसे कोई वीर पुरुष अपनी सेना को लेकर संग्राम में (मृधः) निन्दित दुष्ट वैरियों को पहिले ही जा घेरता है, वैसे (अयम्) यह युद्ध करने में कुशल सेनापति (वाजसातौ) संग्राम में दुष्ट शत्रुओं को (पुरः) पहिले ही (एतु) जा घेरे और जैसे (अयम्) यह वीरों को हर्ष देनेवाला सेनापति दुष्ट शत्रुओं को (प्रभिन्दन्) छिन्न-भिन्न करता हुआ (वाजान्) संग्रामों को (जयतु) जीते (अयम्) यह विजय करानेवाला सेनापति (जर्हृषाणः) निरन्तर प्रसन्न होकर (स्वाहा) युद्ध के प्रबन्ध की श्रेष्ठ बोलियों को बोलता हुआ (जयतु) अच्छी तरह जीते ॥३७॥
भावार्थभाषाः- जो लोग परमेश्वर की उपासना नहीं करते हैं, उनका विजय सर्वत्र नहीं होता। जो अच्छी शिक्षा देकर शूरवीर पुरुषों का सत्कार करके सेना नहीं रखते हैं, उनका सब जगह सहज में पराजय हो जाता है। इससे मनुष्यों को चाहिये कि दो प्रबन्ध अर्थात् एक तो परमेश्वर की उपासना और दूसरा वीरों की रक्षा सदा करते रहें ॥३७॥
उ॒रु वि॑ष्णो॒ विक्र॑मस्वो॒रु क्षया॑य नस्कृधि। घृतं घृ॑तयोने पिब॒ प्रप्र॑ य॒ज्ञप॑तिं तिर॒ स्वाहा॑ ॥३८॥
पद पाठ
उ॒रु। वि॒ष्णो॒ऽइति॑ विष्णो। वि। क्र॒म॒स्व॒। उ॒रु। क्षया॑य। नः॒। कृ॒धि॒। घृ॒तम्। घृ॒त॒यो॒न॒ इति॑ घृतऽयोने। पि॒ब॒। प्रप्रेति॒ प्रऽप्र॑। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिम्। ति॒र॒। स्वाहा॑ ॥३८॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वे कैसे हैं, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- जैसे सर्वव्यापक परमेश्वर सब जगत् की रचना करता हुआ जगत् के कारण को प्राप्त हो सब को रचता है, वैसे हे विद्यादि गुणों में व्याप्त होनेवाले वीर पुरुष ! अपने विद्या के फल को (उरु) बहुत (वि) अच्छी तरह (क्रमस्व) पहुँच (क्षयाय) निवास करने योग्य गृह और विज्ञान की प्राप्ति के योग्य (नः) हम लोगों को (कृधि) कीजिये। हे (घृतयोने) विद्यादि सुशिक्षायुक्त पुरुष ! जैसे अग्नि घृत पी के प्रदीप्त होता है, वैसे तू भी अपने गुणों में (घृतम्) घृत को (प्रप्र पिब) वारंवार पी के शरीर बलादि से प्रकाशित हो और ऋत्विज् आदि विद्वान् लोग (यज्ञपतिम्) यजमान की रक्षा करते हुए उसे यज्ञ से पार करते हैं, वैसे तू भी (स्वाहा) यज्ञ की क्रिया से यज्ञ के (तिर) पार हो ॥३८॥
भावार्थभाषाः- जैसे परमेश्वर अपनी व्यापकता से कारण को प्राप्त हो सब जगत् के रचने और पालने से सब जीवों को सुख देता है, वैसे आनन्द में हम सभों को रहना उचित है। जैसे अग्नि काष्ठ आदि इन्धन वा घृत आदि पदार्थों को प्राप्त हो प्रकाशमान होता है, वैसे हम लोगों को भी शत्रुओं को जीत प्रकाशित होना चाहिये, और जैसे होता आदि विद्वान् लोग धार्मिक यज्ञ करनेवाले यजमान को पाकर अपने कामों को सिद्ध करते हैं, वैसे प्रजास्थ लोग धर्मात्मा सभापति को पाकर अपने-अपने सुखों को सिद्ध किया करें ॥३८॥
देव॑ सवितरे॒ष ते॒ सोम॒स्तꣳ र॑क्षस्व॒ मा त्वा॑ दभन्। ए॒तत्त्वं दे॑व सोम दे॒वो दे॒वाँ२ऽउपागा॑ऽइ॒दम॒हं म॑नु॒ष्या᳖न्त्स॒ह रा॒यस्पोषे॑ण॒ स्वाहा॒ निर्वरु॑णस्य॒ पाशा॑न्मुच्ये ॥३९॥
पद पाठ
देव॑। स॒वि॒तः॒। ए॒षः। ते॒। सोमः॑। तम्। र॒क्ष॒स्व॒। मा। त्वा॒। द॒भ॒न्। ए॒तत्। त्वम्। दे॒व॒। सो॒म॒। दे॒वः। दे॒वान्। उप॑। अ॒गाः॒। इ॒दम्। अ॒हम्। म॒नु॒ष्या॒न्। स॒ह। रा॒यः। पोषे॑ण। स्वाहा॑। निः। वरु॑णस्य। पाशा॑त्। मु॒च्ये॒ ॥३९॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वे कैसे हैं, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- हे (देव) सब विद्याओं के प्रकाश करनेवाले ऐश्वर्य्यवान् विद्वान् सभाध्यक्ष ! जैसे मैं आप के सहाय से अपने ऐश्वर्य्य को रखता हूँ, वैसे तू जो (एषः) यह (ते) तेरा (सोमः) ऐश्वर्य्यसमूह है (तम्) उसको (रक्षस्व) रख। जैसे मुझ को शत्रुजन दुःख नहीं दे सकते हैं, वैसे (त्वाम्) तुझे भी (मा दभन्) न दे सकें। हे (देव) सुख के देने और (सोम) सज्जनों के मार्ग में चलाने हारे राजा ! (त्वम्) तू (एतत्) इस कारण सभाध्यक्ष और (देवः) परिपूर्ण विद्या प्रकाश में स्थित हुआ (देवान्) श्रेष्ठ विद्वानों के (उप) समीप (अगाः) जा और मैं भी जाऊँ। जैसे मैं (इदम्) इस आचरण को करके (रायः) अत्यन्त धन की (पोषेण) पुष्टताई के साथ (मनुष्यान्) विचारवान् पुरुष और (देवान्) विद्वानों को प्राप्त होकर (वरुणस्य) दुःख से तिरस्कार करनेवाले दुष्टजन के (पाशात्) बन्धन से (मुच्ये) छूटूँ, वैसे तू भी (निः) निरन्तर छूट ॥३९॥
भावार्थभाषाः- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सब मनुष्यों को योग्य है कि जिस अप्राप्त ऐश्वर्य्य की पुरुषार्थ से प्राप्ति हो, उस की रक्षा और उन्नति, धार्मिक मनुष्यों का सङ्ग और इससे सज्जनों का सत्कार तथा धर्म का अनुष्ठान कर, विज्ञान को बढ़ा के दुःखबन्धन से छूटें ॥३९॥
अग्ने॑ व्रतपा॒स्त्वे व्र॑तपा॒ या तव॑ त॒नूर्मय्यभू॑दे॒षा सा त्वयि॒ यो मम॑ त॒नूस्त्वय्यभू॑दि॒यꣳ सा मयि॑। य॒था॒य॒थं नौ॑ व्रतपते व्र॒तान्यनु॑ मे दी॒क्षां दी॒क्षाप॑ति॒रम॒ꣳस्तानु॒ तप॒स्तप॑स्पतिः ॥४०॥
पद पाठ
अग्ने॑। व्र॒त॒पा॒ इति॑ व्रतऽपाः। ते॒। व्र॒त॒पा॒ इति॑ व्रतऽपाः। या। तव॑। त॒नूः। मयि॑। अभू॑त्। ए॒षा। सा। त्वयि॑। योऽइति॒ यो। मम॑। तनूः। त्वयि॑। अभू॑त्। इ॒यम्। सा। मयि॑। य॒था॒य॒थमिति॑ यथाऽय॒थम्। नौ। व्र॒त॒प॒त॒ इति॑ व्रतऽपते। व्र॒तानि॑। अनु। मे॒। दी॒क्षाम्। दी॒क्षाप॑ति॒रिति॑ दीक्षाऽप॑तिः। अमं॑स्त। अनु॑। तपः॑। तप॑स्पति॒रिति॒ तपः॑ऽपतिः ॥४०॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वे कैसे वर्त्तें, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- (व्रतपाः) जैसे सत्य का पालने हारा विद्वान् हो वैसे (अग्ने) हे विशेष ज्ञानवान् पुरुष ! जो मेरा (व्रतपाः) सत्यविद्या गुणों का पालने हारा आचार्य्य (अभूत्) हुआ था, वैसे मैं (ते) तेरा होऊँ (या) जो (तव) तेरी (तनूः) विद्या आदि गुणों में व्याप्त होनेवाला देह है (सा) वह (मयि) तेरे मित्र मुझ में भी हो (एषा) यह (त्वयि) मेरे मित्र मुझ में भी हो (यो) जो (मम) मेरी (तनूः) विद्या की फैलावट है (सा) वह (त्वयि) मेरे पढ़ानेवाले तुझ में हो (इयम्) यह (मयि) तेरे शिष्य मुझ में बुद्धि हो। (व्रतपते) हे सत्य आचरणों के पालने हारे ! जैसे सत्य गुण, सत्य उपदेश का रक्षक विद्वान् होता है, वैसे मैं और तू (यथायथम्) यथायुक्त मित्र होकर (व्रतानि) सत्य आचरणों का वर्त्ताव वर्त्तें। हे मित्र ! जैसे (तव) तेरा (दीक्षापतिः) यथोक्त उपदेश का पालने हारा तेरे लिये (दीक्षाम्) सत्य का उपदेश (अमंस्त) करना जान रहा है, वैसे मेरा मेरे लिये (अनु) जाने। जैसे तेरा (तपस्पतिः) अखण्ड ब्रह्मचर्य्य को पालनेहारा आचार्य तेरे लिये (तपः) पहिले क्लेश और पीछे सुख देने हारे ब्रह्मचर्य्य को करना जान रहा है, वैसे मेरा अखण्ड ब्रह्मचर्य्य का पालने हारा मेरे लिये जाने ॥४०॥
भावार्थभाषाः- जैसे पहिले विद्या पढ़ानेवाले अध्यापक लोग हुए वैसे हम लोगों को भी होना चाहिये। जब तक मनुष्य सुख-दुःख, हानि और लाभ की व्यवस्था में परस्पर अपने आत्मा के तुल्य दूसरे को नहीं जानते, तब तक पूर्ण सुख को प्राप्त नहीं होते, इस से मनुष्य लोग श्रेष्ठ व्यवहार ही किया करें ॥४०॥
उ॒रु वि॑ष्णो॒ विक्र॑मस्वो॒रु क्षया॑य नस्कृधि। घृ॒तं घृ॑तयोने पिब॒ प्रप्र॑ य॒ज्ञप॑तिं तिर॒ स्वाहा॑ ॥४१॥
पद पाठ
उ॒रु। वि॒ष्णो॒ऽइति॑ विष्णो। वि। क्र॒म॒स्व॒। उ॒रु। क्षया॑य। नः॒। कृ॒धि॒। घृ॒तम्। घृ॒त॒यो॒न॒ इति॑ घृतऽयोने। पि॒ब॒। प्रप्रेति॒ प्रऽप्र॑। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिम्। ति॒र॒। स्वाहा॑ ॥४१॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वे कैसे वर्त्तें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- जैसे सब पदार्थों में व्याप्त होनेवाला पवन चलता है, वैसे हे विद्या गुणों में व्याप्त होनेवाले विद्वन् ! (उरु) अत्यन्त विस्तारयुक्त (क्षयाय) विद्योन्नति के लिये (विक्रमस्व) अपनी विद्या के अङ्गों से परिपूर्ण हो और (नः) हम लोगों को सुखी (कृधि) कर। जैसे जल का निमित्त बिजुली है, वैसे हे पदार्थ ग्रहण करनेवाले विद्वन् ! बिजुली के समान (घृतम्) जल (पिब) पी और जैसे मैं यज्ञपति को दुःख से पार करता हूँ, वैसे तू भी (स्वाहा) अच्छे प्रकार हवन आदि कर्म्मों को सेवन करके (प्रप्रतिर) दुःखों से अच्छे प्रकार पार हो ॥४१॥
भावार्थभाषा - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे पवन सब को सुख देता हुआ सब के रहने का स्थान हो रहा है, वैसे ही विद्वान् को होना चाहिये॥४१।।
अत्य॒न्याँ२ऽअगां॒ नान्याँ२ऽउपा॑गाम॒र्वाक् त्वा॒ परे॒भ्योऽवि॑दं प॒रोऽव॑रेभ्यः। तं त्वा॑ जुषामहे देव वनस्पते देवय॒ज्यायै॑ दे॒वास्त्वा॑ देवय॒ज्यायै॑ जुषन्तां॒ विष्ण॑वे त्वा। ओष॑धे॒ त्राय॑स्व॒ स्वधि॑ते॒ मैन॑ꣳ हिꣳसीः ॥४२॥
पद पाठ
अति॑। अ॒न्यान्। अगा॑म्। उप॑। अ॒गा॒म्। अ॒र्वाक्। त्वा॒। परे॑भ्यः। अवि॑दम्। प॒रः॒। अव॑रेभ्यः। तम्। त्वा॒। जु॒षा॒म॒हे॒। दे॒व॒। व॒न॒स्प॒ते॒। दे॒व॒य॒ज्याया॒ इति॑ देवऽय॒ज्यायै॑। दे॒वाः। त्वा॒। दे॒व॒य॒ज्याया इति देवऽय॒ज्यायै॑। जु॒ष॒न्ता॒म्। विष्ण॑वे। त्वा॒। ओष॑धे। त्रा॑यस्व। स्वधि॑ते। मा। ए॒न॒म्। हि॒ꣳसीः॒ ॥४२॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
मनुष्यों को उक्त व्यवहारों से विरुद्ध मनुष्य न सेवने चाहिये, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- हे (वनस्पते) सब बूटियों के रखनेवाले (देव) विद्वान् जन ! जैसे तू (अन्यान्) विद्वानों के विरोधी मूर्ख जनों को छोड़ के (अन्यान्) मूर्खों के विरोधी विद्वानों के समीप जाता है, वैसे मैं भी विद्वानों के विरोधियों को छोड़ (उप) समीप (अगाम्) जाऊँ। जो तू (परेभ्यः) उत्तमों से (परः) उत्तम और (अवरेभ्यः) छोटों से (अर्वाक्) छोटे हों (तम्) उन्हें मैं (अविदम्) पाऊँ। जैसे (देवाः) विद्वान् लोग (देवयज्यायै) उत्तम गुण देने के लिये (त्वा) तुझ को चाहते हैं, वैसे हम लोग भी (त्वा) तुझे (जुषामहे) चाहें और हम लोग (देवयज्यायै) अच्छे-अच्छे गुणों का संग होने के लिये (त्वा) तुझे चाहते हैं, वैसे और भी ये लोग चाहें। जैसे ओषधियों का समूह (विष्णवे) यज्ञ के लिये सिद्ध होकर सब की रक्षा करता है, वैसे हे रोगों को दूर करने और (स्वधिते) दुःखों का विनाश करनेवाले विद्वान् जन ! हम लोग (त्वा) तुझे यज्ञ के लिये चाहते हैं। श्रेष्ठ विद्वान् जन ! जैसे मैं इस यज्ञ का विनाश करना नहीं चाहता, वैसे तू भी (एनम्) इस यज्ञ को (मा) मत (हिंसीः) बिगाड़ ॥४२॥
भावार्थभाषाः- यहाँ वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि नीच व्यवहार और नीच पुरुषों को छोड़ के अच्छे-अच्छे व्यवहार तथा उत्तम विद्वानों को नित्य चाहें और उत्तमों से उत्तम तथा न्यूनों से न्यून शिक्षा का ग्रहण करें। यज्ञ और यज्ञ के पदार्थों का तिरस्कार कभी न करें तथा सब को चाहिये कि एक-दूसरे के मेल से सुखी हों ॥४२॥
द्यां मा ले॑खीर॒न्तरि॑क्षं॒ मा हि॑ꣳसीः पृथि॒व्या सम्भव॑। अ॒यꣳहि त्वा॒ स्वधि॑ति॒स्तेति॑जानः प्रणि॒नाय॑ मह॒ते सौभ॑गाय। अत॒स्त्वं दे॑व वनस्पते श॒तव॑ल्शो॒ वि॒रो॑ह स॒हस्र॑वल्शा॒ वि व॒यꣳ रु॑हेम ॥४३॥
पद पाठ
द्याम्। मा। ले॒खीः॒। अ॒न्तरि॑क्षम्। मा। हि॒ꣳसीः॒। पृ॒थि॒व्या। सम्। भ॒व॒। अयम्। हि। त्वा॒। स्वधि॑ति॒रिति॒ स्वऽधि॑तिः। तेति॑जानः। प्र॒णि॒नाय॑ प्र॒ति॒नायेति॑ प्रऽनि॒नाय॑। म॒ह॒ते। सौभ॑गाय। अतः॑। त्वम्। दे॒व॒। व॒न॒स्प॒ते॒। श॒तवल्श॒ इति॑ श॒तऽव॑ल्शः। वि। रो॒ह॒। स॒हस्र॑वल्शा॒ इति॑ स॒हस्र॑ऽवल्शाः। वि। व॒यम्। रु॒हे॒म॒ ॥४३॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
मनुष्यों को योग्य है कि यज्ञ को सिद्ध करानेवाली जो विद्या है, उस का नित्य सेवन करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- हे विद्वन् ! जैसे मैं सूर्य्य के सामने होकर (द्याम्) उस के प्रकाश को दृष्टिगोचर नहीं करता हूँ, वैसे तू भी उसको (मा) (लेखीः) दृष्टिगोचर मत कर। जैसे मैं (अन्तरिक्षम्) यथार्थ पदार्थों के अवकाश को नहीं बिगाड़ता हूँ, वैसे तू भी उसको (मा) (हिंसी) मत बिगाड़। जैसे मैं (पृथिव्या) पृथिवी के साथ होता हूँ, वैसे तू भी उसके साथ (सम्) (भव) हो (हि) जिस कारण जैसे (तेतिजानः) अत्यन्त पैना (स्वधितिः) वज्र शत्रुओं का विनाश कर के ऐश्वर्य्य को देता है (अतः) इस कारण (अयम्) यह (त्वा) तुझे (महते) अत्यन्त श्रेष्ठ (सौभगाय) सौभाग्यपन के लिये सम्पन्न करे और भी पदार्थ जैसे ऐश्वर्य्य को (प्रणिनाय) प्राप्त करते हैं, वैसे तुझे ऐश्वर्य्य पहुँचावे। हे (देव) आनन्दयुक्त (वनस्पते) वनों की रक्षा करनेवाले विद्वन् ! जैसे (शतवल्शः) सैकड़ों अङ्कुरोंवाला पेड़ फलता है, वैसे तू भी इस उक्त प्रशंसनीय सौभाग्यपन से (वि) (रोह) अच्छी तरह फल और जैसे (सहस्रवल्शाः) हजारों अङ्कुरोंवाला पेड़ फले, वैसे हम लोग भी उक्त सौभाग्यपन से फलें-फूलें ॥४३॥
भावार्थभाषाः- यहाँ वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। इस संसार में किसी मनुष्य को विद्या के प्रकाश का अभ्यास, अपनी स्वतन्त्रता और सब प्रकार से अपने कामों की उन्नति को न छोड़ना चाहिये ॥४३॥
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