यजुर्वेद आध्याय 6, हिन्दी भाष्यः- महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती
दे॒वस्य॑
त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वे᳕ऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। आद॑दे॒
नार्य॑सी॒दम॒हꣳ रक्ष॑सां ग्रीवाऽअपि॑कृन्तामि। यवो॑ऽसि य॒वया॒स्मद् द्वेषो॑
य॒वयारा॑तीर्दि॒वे त्वा॒ऽन्तरि॑क्षाय त्वा पृथि॒व्यै त्वा॒ शुन्ध॑न्ताँल्लो॒काः
पि॑तृ॒षद॑नाः पितृ॒षद॑नमसि ॥१॥
पद
पाठ
दे॒वस्य॑।
त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑
बा॒हुऽभ्याम्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। आ। द॒दे॒। नारि॑। अ॒सि॒। इदम्। अ॒हम्। रक्ष॑साम्।
ग्री॒वाः। अपि॑। कृ॒न्ता॒मि॒। यवः॑। अ॒सि॒। य॒वय॑। अ॒स्मत्। द्वेषः॑। य॒वय॑।
अरा॑तीः। दि॒वे। त्वा॒। अ॒न्तरि॑क्षाय। त्वा॒। पृ॒थि॒व्यै। त्वा॒। शुन्ध॑न्ताम्।
लो॒काः। पि॒तृ॒षद॑नाः। पि॒तृ॒सद॑ना॒ इति॑ पितृ॒ऽसद॑नाः। पि॒तृ॒षद॑नम्।
पि॒तृ॒ष॑दन॒मिति॑ पि॒तृ॒ऽसद॑नम्। अ॒सि॒ ॥१॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
पाँचवें अध्याय के पश्चात् षष्ठाऽध्याय (६) का आरम्भ है, इस के प्रथम मन्त्र में राज्याभिषेक के लिये अच्छी शिक्षायुक्त सभाध्यक्ष
विद्वान् को आचार्य्यादि विद्वान् लोग क्या-क्या उपदेश करें, यह उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे सभाध्यक्ष ! जैसे (पितृषदनाः) पितरों में रहनेवाले विद्वान् लोग (देवस्य)
प्रकाशमय और (सवितुः) सब विश्व के उत्पन्न करनेवाले जगदीश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न
किये हुए संसार में (अश्विनोः) प्राण और अपान के (बाहुभ्याम्) बल और उत्तम वीर्य्य
से तथा (पूष्णः) पुष्टि का निमित्त जो प्राण है, उस के (हस्ताभ्याम्) धारण और आकर्षण से (त्वा) तुझे ग्रहण करते हैं,
वैसे ही मैं (आददे) ग्रहण करता हूँ। जैसे मैं (रक्षसाम्) दुष्ट काम
करनेवाले जीवों के (ग्रीवाः) गले (कृन्तामि) काटता हूँ, वैसे
तू (अपि) भी काट। हे सभाध्यक्ष ! जिस कारण तू (यवः) संयोग-विभाग करनेवाला (असि) है,
इस कारण (अस्मत्) मुझ से (द्वेषः) द्वेष अर्थात् अप्रीति करनेवाले
वैरियों को (यवय) अलग कर और (अरातीः) जो मेरे निरन्तर शत्रु हैं, उन को (यवय) पृथक् कर। जैसे मैं न्याय व्यवहार से रक्षा करने योग्य जन
(दिवे) विद्या आदि गुणों के प्रकाश करने के लिये (त्वा) न्याय प्रकाश करनेवाले
तुझको (अन्तरिक्षाय) आभ्यन्तर व्यवहार में रक्षा करने के लिये (त्वा) तुझ सत्य
अनुष्ठान करने का अवकाश देनेवाले को तथा (पृथिव्यै) भूमि के राज्य के लिये (त्वा)
तुझ राज्य विस्तार करनेवाले को पवित्र करता हूँ, वैसे ये लोग
भी (त्वा) आप को (शुन्धन्ताम्) पवित्र करें, जैसे तू
(पितृषदनम्) विद्वानों के घर के समान (असि) है, पिता के सदृश
सब प्रजा को पाला कर। हे सभापति की नारि स्त्री ! तू भी ऐसा ही किया कर ॥१॥
भावार्थभाषाः-
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्या में अतिविचक्षण पुरुष ईश्वर की
सृष्टि में अपनी और औरों की दुष्टता को छुड़ाकर राज्य सेवन करते हैं, वे सुखयुक्त होते हैं ॥१॥
अ॒ग्रे॒णीर॑सि
स्वावे॒शऽउ॑न्नेतॄ॒णामे॒तस्य॑ वित्ता॒दधि॑ त्वा स्थास्यति दे॒वस्त्वा॑ सवि॒ता
मध्वा॑नक्तु सुपिप्प॒लाभ्य॒स्त्वौष॑धीभ्यः। द्यामग्रे॑णास्पृक्ष॒ऽआन्तरि॑क्षं॒
मध्ये॑नाप्राः पृथि॒वीमुप॑रेणादृꣳहीः ॥२॥
पद
पाठ
अ॒ग्रे॒णीः।
अ॒ग्रे॒नीरित्य॑ग्रे॒ऽनीः। अ॒सि॒। स्वा॒वे॒श इति॑ सुऽआवे॒शः।
उ॒न्ने॒तॄ॒णामित्यु॑त्ऽनेतॄ॒णाम्। ए॒तन्य॑। वि॒त्ता॒त्। अधि॑। त्वा॒।
स्था॒स्य॒ति॒। दे॒वः। त्वा॒। स॒वि॒ता। मध्वा॑। अ॒न॒क्तु॒। सु॒पि॒प्प॒लाभ्य॒ इति॑
सुऽपिप्प॒लाभ्यः॑। त्वा॒। ओष॑धीभ्यः। द्याम्। अग्रे॑ण। अ॒स्पृ॒क्षः॒। आ।
अ॒न्तरि॑क्षम्। मध्ये॑न। अ॒प्राः॒। पृ॒थि॒वीम्। उ॑परेण। अ॒दृ॒ꣳहीः॒ ॥२॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
वह तिलक किया हुआ सभाध्यक्ष कैसे वर्त्ते, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे सभाध्यक्ष ! जैसे (अग्रेणीः) पढ़ानेवाला अपने शिष्यों को वा पिता अपने पुत्रों
को उन के पठनारम्भ से पहिले ही अच्छी शिक्षा से उन्हें सुशील जितेन्द्रिय
धार्मिकतायुक्त करता है, वैसे हम सभी के लिये तू
(असि) है, (उन्नेतृणाम्) जैसे उत्कर्षता पहुँचानेवालों का
राज्य हो, वैसे (स्वावेशः) अच्छे गुणों में प्रवेश करनेवाले
के समान होकर तू (एतस्य) इस राज्य के पालने को (वित्तात्) जान। हे राजन् ! जैसे
(त्वा) तुझे सभासद् जन (सुपिप्पलाभ्यः) अच्छे-अच्छे फलोंवाली (ओषधीभ्यः) औषधियों
से (मध्वा) निष्पन्न किये हुए मधुर गुणों से युक्त रसों से (अनक्तु) सीचें,
वैसे प्रजाजन भी तुझे सीचें। तू इस राज्य में अपने (अग्रेण) प्रथम
यश से (द्याम्) विद्या और राजनीति के प्रकाश को (अस्पृक्षः) स्पर्श कर (मध्येन)
मध्य अर्थात् तदनन्तर बढ़ाए हुए यश से (अन्तरिक्षम्) धर्म के विचार करने के मार्ग
को (आप्राः) पूरा कर और (उपरेण) अपने राज्य के नियम से (पृथिवीम्) इस भूमि के
राज्य को प्राप्त होकर (अदृꣳहीः) दृढ़ कर बढ़ता जा और (देवः) समस्त राजाओं का राजा
(सविता) सब जगत् को अन्तर्यामीपन से प्रेरणा देनेवाला जगदीश्वर (त्वा) तुझ को राजा
करके तेरे पर (स्थास्यति) अधिष्ठाता होकर रहेगा ॥२॥
भावार्थभाषाः-
प्रजा पुरुषों के स्वीकार किये विना राजा राज्य करने को योग्य नहीं होता, तथा राजा आदि सभा जिस को आदर से न चाहे, वह मन्त्री
होने को वा कोई पुरुष अपनी कीर्ति की उत्तरोत्तर दृढ़ता के विना सेना का ईश्वर,
यथायोग्य न्याय से दण्ड करने अर्थात् न्यायाधीश होने और राज्य के
मण्डल की ईश्वरता के योग्य नहीं हो सकता ॥२॥
या
ते॒ धामा॑न्यु॒श्मसि॒ गम॑ध्यै॒ यत्र॒ गावो॒ भूरि॑शृङ्गाऽअ॒यासः॑। अत्राह॒
तदु॑रुगा॒यस्य॒ विष्णोः॑ प॒र॒मं प॒दमव॑भारि॒ भूरि॑। ब्र॒ह्म॒वनि॑ त्वा क्षत्र॒वनि॑
रायस्पोष॒वनि॒ पर्यू॑हामि। ब्रह्म॑ दृꣳह क्ष॒त्रं दृ॒ꣳहायु॑र्दृꣳह प्र॒जां दृ॑ꣳह
॥३॥
-
पद
पाठ
या।
ते॒। धामा॑नि। उ॒श्मसि॑। गम॑ध्यै। यत्र॑। गावः॑। भूरि॑शृङ्गा॒ इति॒ भूरि॑शृङ्गाः।
अ॒यासः॑। अत्र॑। अह॑। तत्। उ॒रु॒गा॒यस्येत्यु॑रुऽगा॒यस्य॑। विष्णोः॑। प॒र॒मम्।
प॒दम्। अव॑। भा॒रि॒। भूरि॑। ब्र॒ह्म॒वनीति॑ ब्रह्म॒ऽवनि॑। त्वा॒। क्ष॒त्र॒वनीति॑
क्षत्र॒ऽवनि॑। रा॒य॒स्पो॒ष॒वनीति॑ रायस्पोष॒ऽवनि॑। परि॑। ऊ॒हा॒मि॒। ब्रह्म॑।
दृ॒ꣳह॒। क्ष॒त्रम्। दृ॒ꣳह॒। आयुः॑। दृ॒ꣳह॒। प्र॒जामिति॑ प्र॒जाम्। दृ॒ꣳह॒ ॥३॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
वह वाणिज्य कर्म करनेवाले मनुष्य उसको कैसा जानकर आश्रय करते हैं, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे सभाध्यक्ष ! (या) जिन में (ते) तेरे (धामानि) धाम अर्थात् जिनमें प्राणी सुख
पाते हों, उन स्थानों को हम (गमध्यै)
प्राप्त होने की (उश्मसि) इच्छा करते हैं, वे स्थान कैसे हैं
कि जैसे सूर्य्य का प्रकाश है, वैसे (यत्र) जिन में
(उरुगायस्य) स्तुति करने के योग्य (विष्णोः) सर्वव्यापक परमेश्वर की (भूरिशृङ्गाः)
अत्यन्त प्रकाशित (गावः) किरणें चैतन्यकला (अयासः) फैली हैं (अत्र) (अह) इन्हीं
में (तत्) उस परमेश्वर का (परमम्) सब प्रकार उत्तम (पदम्) और प्राप्त होने योग्य
परमपद विद्वानों ने (भूरि) (अव) (भारि) बहुधा अवधारण किया है, इस कारण (त्वा) तुझे (ब्रह्मवनि) परमेश्वर वा वेद का विज्ञान (क्षत्रवनि)
राज्य और वीरों की चाहना (रायस्पोषवनि) धन की पुष्टि के विभाग करनेवाले आप को मैं
(पर्यूहामि) विविध तर्कों से समझता हूँ कि तू (ब्रह्म) परमात्मा और वेद को (दृंह)
दृढ़ कर अर्थात् अपने चित्त में स्थिर कर बढ़ (क्षत्रम्) राज्य और धनुर्वेदवेत्ता
क्षत्रियों को (दृंह) उन्नति दे (आयुः) अपनी अवस्था को (दृंह) बढ़ा अर्थात्
ब्रह्मचर्य्य और राजधर्म से दृढ़ कर तथा (प्रजाम्) अपने सन्तान वा रक्षा करने
योग्य प्रजाजनों को (दृंह) उन्नति दे ॥३॥
भावार्थभाषाः-
सभाध्यक्ष के रक्षा किये हुए स्थानों की कामना के विना कोई भी पुरुष सुख नहीं पा
सकता, न कोई जन परमेश्वर का अनादर करके
चक्रवर्ती राज्य भोगने के योग्य होता है, न ही कोई भी जन
विज्ञान सेना और जीवन अर्थात् अवस्था सन्तान और प्रजा की रक्षा के विना अच्छी
उन्नति कर सकता है ॥३॥
विष्णोः॒
कर्म्मा॑णि पश्यत॒ यतो॑ व्र॒तानि॑ पस्प॒शे। इन्द्र॑स्य॒ युज्यः॒ सखा॑ ॥४॥
पद
पाठ
विष्णोः॑
कर्म्मा॑णि। प॒श्य॒त॒। यतः॒। व्र॒तानि॑। प॒स्प॒शे। इन्द्र॑स्य। युज्यः॑। सखा॑ ॥४॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
सभापति अपने सभासद् आदि को क्या-क्या उपदेश करे, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे सभासदो ! जैसे (इन्द्रस्य) परमेश्वर का (युज्यः) सदाचारयुक्त (सखा) मित्र
(विष्णोः) उस व्यापक ईश्वर के (कर्माणि) जो संसार का बनाना पालन और संहार करना
सत्यगुण हैं, उनको देखता हुआ मैं (यतः) जिस
ज्ञान से (व्रतानि) अपने मन में सत्यभाषणादि नियमों को (पस्पशे) बाँध रहा अर्थात्
नियम कर रहा हूँ, वैसे उसी ज्ञान से तुम भी परमेश्वर के
उत्तम गुणों को (पश्यत) दृढ़ता से देखो कि जिस से राज्यादि कामों में सत्य व्यवहार
के करनेवाले होओ ॥४॥
भावार्थभाषाः-
परमेश्वर से प्रीति और सत्याचरण के विना कोई भी मनुष्य ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव को देखने के योग्य नहीं हो सकता, न
वैसे हुए विना राज्यकर्मों को यथार्थ न्याय से सेवन कर सकता है, न सत्य धर्माचार से रहित जन राज्य बढ़ाने को कभी समर्थ हो सकता है ॥४॥
तद्विष्णोः॑
पर॒मं प॒दꣳ सदा॑ पश्यन्ति सूरयः॑। दि॒वी᳖व॒ चक्षु॒रात॑तम् ॥५॥
पद
पाठ
तत्।
विष्णोः॑। प॒र॒मम्। प॒दम्। सदा॑। प॒श्य॒न्ति॒। सू॒रयः॑। दि॒वी᳕वेति॑ दिविऽइ॑व।
चक्षुः॑। आत॑त॒मित्यात॑तम् ॥५॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
उक्त
मन्त्र के विषय में जो अनुष्ठान कहा है, उससे क्या
सिद्ध होता है, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे सभ्यजनो ! जिस पूर्वोक्त कर्म से (सूरयः) स्तुति करनेवाले वेदवेत्ता जन
(विष्णोः) संसार की उत्पत्ति पालन और संहार करनेवाले परमेश्वर के जिस (परमम्)
अत्यन्त उत्तम (पदम्) प्राप्त होने योग्य पद को (दिवि) सूर्य के प्रकाश में
(आततम्) व्याप्त (चक्षुः) नेत्र के (इव) समान (सदा) सब समय में (पश्यन्ति) देखते हैं
(तत्) उस को तुम लोग भी निरन्तर देखो ॥५॥
भावार्थभाषाः-
इस मन्त्र में पूर्व मन्त्र में (पश्यत) इस पद का अनुवर्त्तन किया जाता है और
पूर्णोपमालङ्कार है। निर्धूत अर्थात् छूट गये हैं पाप जिन के वे विद्वान् लोग अपनी
विद्या के प्रकाश से जैसे ईश्वर के गुणों को देख के सत्य धर्माचरणयुक्त होते हैं, वैसे हम लोगों को भी होना चाहिये ॥५॥
प॒रि॒वीर॑सि॒
परि॑ त्वा॒ दैवी॒र्विशो॑ व्ययन्तां॒ परी॒मं यज॑मान॒ꣳ रायो॑ मनु॒ष्या᳖णाम्। दि॒वः
सू॒नुर॑स्ये॒ष ते॑ पृथि॒व्याँल्लो॒कऽआ॑र॒ण्यस्ते॑ प॒शुः ॥६॥
पद
पाठ
प॒रि॒वीरिति॑
परि॒ऽवीः। अ॒सि॒। परि॑। त्वा॒। दैवीः॑। विशेः॑। व्य॒य॒न्ता॒म्। परि॑। इ॒मम्।
यज॑मानम्। रायः॑। म॒नुष्या᳖णाम्। दि॒वः। सू॒नुः। अ॒सि॒। ए॒षः। ते। पृथि॒व्याम्।
लो॒कः। आ॒र॒ण्यः। ते॒। प॒शुः ॥६॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
यह उपासना करनेवाला सभाध्यक्ष किस प्रकार का होता है, यह अगले मन्त्र में उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे सभाध्यक्ष राजन् ! तू (परिवीः) सब विद्याओं में अच्छे आप्त होनेवाले के समान
(असि) है, (त्वाम्) तुझे (दैवीः)
विद्वानों के (विशः) सन्तान के समान प्रजा (परि) (व्ययन्ताम्) सर्वव्याप्त अर्थात्
सब ठिकाने व्याप्त हुए तेरे कार्यकारी हों (दिवः) प्रकाश के पुञ्ज सूर्य से
(सूनुः) उत्पन्न हुए किरण समुदाय के तुल्य तू (असि) है, (ते)
तेरा (पृथिव्याम्) पृथिवी में (लोकः) राजधानी का देश हो और (आरण्यः) बनैले सिंहादि
दुष्ट पशु तेरे वश्य भी हों ॥६॥
भावार्थभाषाः-
राज्य का आचरण करते हुए राजा को प्रजा लोग प्राप्त होकर अपने पदार्थों का कर
चुकावें और वह राजा उन प्रजाओं की रक्षा करने के लिये सिंह और शूकर वा अन्य और
दुष्ट जीव तथा डाकू, चोर उठाईगीरे और गाँठ कटे आदि
दुष्ट जनों को दण्ड से वश में कर अपनी प्रजा को यथायोग्य धर्म में प्रवृत्त करे
॥६॥
उ॒पा॒वीर॒स्युप॑
दे॒वान् दैवी॒र्विशः॒ प्रागु॑रु॒शिजो॒ वह्नि॑तमान्। देव॑ त्वष्ट॒र्वसु॑ रम ह॒व्या
ते॑ स्वदन्ताम् ॥७॥
पद
पाठ
उ॒पा॒वीरित्यु॑पऽअ॒वीः।
अ॒सि॒। उप॑। दे॒वान्। दैवीः॑। विशः॑। प्र। अ॒गुः॒। उ॒शिजः॑। वह्नि॑तमा॒निति॒
वह्नि॑ऽतमान्। देव॑। त्व॒ष्टः॒। वसु॑। र॒म॒। ह॒व्या। ते॒। स्व॒द॒न्ता॒म् ॥७॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
वह प्रजाजनों के प्रति क्या करे और वे प्रजाजन उस राजा के प्रति क्या करें, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे (देव) दिव्यगुणसम्पन्न ! (त्वष्टः) सब दुःख के छेदन करनेवाले सभाध्यक्ष ! जिससे
तू (उपावीः) शरणागत पालक सदृश (असि) है, इसी से
(दैवीः) विद्वानों से सम्बन्ध रखनेवाली दिव्यगुण सम्पन्न (विशः) प्रजा जैसे
(उशिजः) श्रेष्ठ गुण शोभित कामना के योग्य (वह्नितमान्) अतिशय धर्म मार्ग में चलने
और चलानेवाले (देवान्) विद्वानों को (उपप्रागुः) प्राप्त हुए वैसे तुझे भी प्राप्त
होते हैं, जैसे तेरे आश्रय से प्रजा धनाढ्य होके सुखी हो,
वैसे तू भी प्राप्त हुए प्रजाजनों से सत्कृत होकर (रम) हर्षित हो,
जैसे तू प्रजा के पदार्थों को भोगता है, वैसे
प्रजा भी तेरे (हव्या) भोगने योग्य अमूल्य (वसु) धनादि पदार्थों को (स्वदन्ताम्)
भोगें ॥७॥
भावार्थभाषाः-
जैसे गुण के ग्रहण करनेवाले उत्तम गुणवान् विद्वान् का सेवन करते हैं, वैसे न्याय करने में चतुर राजा का सेवन प्रजाजन करते हैं, इसी से परस्पर की प्रीति से सब की उन्नति होती है ॥७॥
रेव॑ती॒
रम॑ध्वं॒ बृह॑स्पते धा॒रया॒ वसू॑नि। ऋ॒तस्य॑ त्वा देवहविः॒ पाशे॑न प्रति॑मुञ्चामि॒
धर्षा॒ मानु॑षः ॥८॥
पद
पाठ
रेव॑तीः।
रम॑ध्वम्। बृह॑स्पते। धा॒रय॑। वसू॑नि। ऋ॒तस्य॑। त्वा॒। दे॒व॒ह॒वि॒रिति॑ देवऽहविः।
पाशे॑न। प्रति॑। मु॒ञ्चा॒मि॒। धर्ष॑। मानु॑षः ॥८॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
पिता आदि रक्षकजन अपने सन्तानों को पढ़ानेवालों को कैसे दें? और वह उन को कैसे स्वीकार करें? यह अगले मन्त्र में
उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे (रेवतीः) अच्छे धनवाले सन्तानो ! तुम विद्या और अच्छी शिक्षा में (रमध्वम्)
रमो। हे (बृहस्पते) वेदवाणी पालनेवाले विद्वन् ! आप (ऋतस्य) सत्य न्याय व्यवहार से
प्राप्त (वसूनि) धन अर्थात् हम लोगों के दिये द्रव्य आदि पदार्थों को (धारय)
स्वीकार कीजिये। (अब अध्यापक का उपदेश शिष्य के लिये है) हे राजन् प्रजापुरुष वा !
(मानुषः) सर्वशास्त्र का विचार करनेवाला मैं (पाशेन) अविद्या बन्धन से तुझे (प्रति
मुञ्चामि) छुटाता हूँ, तू विद्या और अच्छी
शिक्षाओं में धृष्ट हो ॥८॥
भावार्थभाषाः-
विद्वानों को अपनी शिक्षा से कुमार ब्रह्मचारी और कुमारी ब्रह्मचारिणियों को
परमेश्वर से ले के पृथिवी पर्य्यन्त पदार्थों का बोध कराना चाहिये कि जिससे वे
मूर्खपनरूपी बन्धन को छोड़ के सदा सुखी हों ॥८॥
दे॒वस्य॑
त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वे᳕ऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्।
अ॒ग्नीषोमा॑भ्यां॒ जुष्टं॒ नियु॑नज्मि। अ॒द्भ्यस्त्वौष॑धी॒भ्योऽनु॑ त्वा मा॒ता
म॑न्यता॒मनु॑ पि॒तानु॒ भ्राता॒ सग॒र्भ्योऽनु॒ सखा॒ सयू॑थ्यः। अ॒ग्नीषोमा॑भ्यां
त्वा॒ जुष्टं॒ प्रोक्षा॑मि ॥९॥
पद
पाठ
दे॒वस्य॑
त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑
बा॒हुऽभ्याम्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। अ॒ग्नीषोमा॑भ्याम्। जुष्ट॑म्। नि।
यु॒न॒ज्मि॒। अ॒द्भ्य इत्य॒द्ऽभ्यः। त्वा॒। ओष॑धीभ्यः। अनु॑। त्वा॒। मा॒ता।
म॒न्य॒ता॒म्। अनु॑। पि॒ता। अनु॑। भ्राता॑। सगर्भ्य॒ इति॑ सऽगर्भ्यः। अनु॑। सखा॑।
सयू॑थ्य इति॑ सऽयू॑थ्यः। अ॒ग्नीषोमा॑भ्याम्। त्वा॒। जुष्ट॑म्। प्र। उ॒क्षा॒मि॒ ॥९॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
वह गुरु शिष्य को क्या उपदेश करे, यह अगले
मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे शिष्य ! मैं (सवितुः) समस्त ऐश्वर्ययुक्त (देवस्य) वेदविद्या प्रकाश करनेवाले
परमेश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये हुए इस जगत् में (अश्विनोः) सूर्य्य और
चन्द्रमा के (बाहुभ्याम्) गुणों से वा (पूष्णः) पृथिवी के (हस्ताभ्याम्) हाथों के
समान धारण और आकर्षण गुणों से (त्वा) तुझे (आददे) स्वीकार करता हूँ तथा
(अग्नीषोमाभ्याम्) अग्नि और सोम के तेज और शान्ति गुणों से (जुष्टम्) प्रीति करते
हुए (त्वा) तुझ को जो ब्रह्मचर्य्य धर्म के अनुकूल जल और ओषधि हैं, उन (अद्भ्यः) जल और (ओषधीभ्यः) गोधूम आदि अन्नादि पदार्थों से (नियुनज्मि)
नियुक्त करता हूँ, तुझे मेरे समीप रहने के लिये तेरी (माता)
जननी (अनु) (मन्यताम्) अनुमोदित करे (पिता) पिता (अनु) अनुमोदित करे (सगर्भ्यः) सहोदर
(भ्राता) भाई (अनु) अनुमोदित करे (सखा) मित्र (अनु) अनुमोदित करे और (सयूथ्यः)
तेरे सहवासी (अनु) अनुमोदित करें (अग्नीषोमाभ्याम्) अग्नि और सोम के तेज और शान्ति
गुणों में (जुष्टम्) प्रीति करते हुए (त्वा) तुझ को (प्र उक्षामि) उन्हीं गुणों से
ब्रह्मचर्य्य के नियम पालने के लिये अभिषिक्त करता हूँ ॥९॥
भावार्थभाषाः-
इस संसार में माता-पिता, बन्धुवर्ग और मित्रवर्गों
को चाहिये कि अपने सन्तान आदि को अच्छी शिक्षा देकर ब्रह्मचर्य करावें, जिससे वे गुणवान् हों ॥९॥
अ॒पां
पे॒रुर॒स्यापो॑ दे॒वीः स्व॑दन्तु स्वा॒त्तं चि॒त्सद्दे॑वह॒विः। सं ते॑ प्रा॒णो
वाते॑न गच्छता॒ꣳ समङ्गा॑नि॒ यज॑त्रैः॒ सं य॒ज्ञप॑तिरा॒शिषा॑ ॥१०॥
पद
पाठ
अ॒पाम्।
पे॒रुः। अ॒सि॒। आपः॑। दे॒वीः। स्व॒द॒न्तु॒। स्वा॒त्तम्। चि॒त्। सत्।
दे॒व॒ह॒विरिति॑ देवऽह॒विः। सम्। ते॒। प्रा॒णः। वाते॑न। ग॒च्छ॒ता॒म्। अङ्गा॑नि।
यज॑त्रैः। यज्ञप॑तिरिति॑ य॒ज्ञऽपतिः। आ॒शिषेत्या॒ऽशिषा॑ ॥१०॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
यज्ञोपवीत होने के पश्चात् शिष्य को अत्यावश्यक है कि विद्या, उत्तम शिक्षा का ग्रहण और अग्निहोत्रादिक का अनुष्ठान करे ऐसा उपदेश गुरु
किया करे, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे शिष्य ! तू (अपाम्) जल आदि पदार्थों का (पेरुः) रक्षा करनेवाला (असि) है, संसारस्थ जीव तेरे यज्ञ से शुद्ध हुए (देवीः) दिव्य सुख देनेवाले (आपः)
जलों को (चित्) और (स्वात्तम्) धर्मयुक्त व्यवहार से प्राप्त हुए पदार्थों को
(देवहविः) विद्वानों के भोगने के समान (संस्वदन्तु) अच्छी तरह से भोगें, (आशिषा) मेरे आशीर्वाद से (ते) तेरे (अङ्गानि) शिर आदि अवयव (यजत्रैः) यज्ञ
करानेवालों के साथ (सम्) सम्यक् नियुक्त हों और (प्राणः) प्राण (वातेन) पवित्र
वायु के सङ्ग (सङ्गच्छताम्) उत्तमता से रमण करे और तू (यज्ञपतिः) विद्याप्रचाररूपी
यज्ञ का पालन करने हारा हो ॥१०॥
भावार्थभाषाः-
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो यज्ञ में दी हुई आहुति हैं, वे सूर्य के उपस्थित रहती हैं अर्थात् सूर्य की आकर्षण शक्ति से परमाणुरूप
होकर सब पदार्थ पृथिवी के ऊपर आकाश में हैं, उसी पृथिवी का
जल ऊपर खिंचकर वर्षा होती है, उस वर्षा से अन्न और अन्न से
सब जीवों को सुख होता है, इस परम्परा सम्बन्ध से यज्ञशोधित
जल और होम किये द्रव्य को सब जीव भोगते हैं ॥१०॥
घृ॒तेना॒क्तौ
प॒शूँस्त्रा॑येथा॒ᳬ रेव॑ति॒ यज॑माने प्रि॒यं धाऽआवि॑श। उ॒रोर॒न्तरि॑क्षात् स॒जूर्दे॒वेन॒
वाते॑ना॒स्य ह॒विष॒स्त्मना॑ यज॒ सम॑स्य त॒न्वा᳖ भव। वर्षो॒ वर्षी॑यसि य॒ज्ञे
य॒ज्ञप॑तिं धाः॒ स्वाहा॑ दे॒वेभ्यो॑ दे॒वेभ्यः॒ स्वाहा॑ ॥११॥
पद
पाठ
घृ॒तेन॑।
अ॒क्तौ। प॒शून्। त्रा॒ये॒था॒म्। रेव॑ति। यज॑माने। प्रि॒यम्। धाः॒। आ। वि॒श॒। उ॒रोः।
अ॒न्तरि॑क्षात्। स॒जूरिति॑ स॒ऽजूः। दे॒वेन॑। वाते॑न। अ॒स्य। ह॒विषः॑। त्मना॑।
य॒ज॒। सम्। अ॒स्य॒। त॒न्वा᳖। भ॒व॒। वर्षो॒ऽइति॒ वर्षो॒। वर्षीय॑सि। य॒ज्ञे।
य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिम्। धाः॒। स्वाहा॑। दे॒वेभ्यः॑। दे॒वेभ्यः॑। स्वाहा॑
॥११॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
यज्ञ करने और करानेवालों के कर्त्तव्य काम का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे (घृतेन, अक्तौ) घृतप्रसक्त अर्थात्
घृत चाहने और यज्ञ के कराने हारो ! तुम (पशून्) गौ आदि पशुओं को (त्रायेथाम्) पालो,
तुम एक एक जन (देवेन) सर्वगत (वातेन) पवन से (सजूः) समान प्रीति
करते हुए (उरोः) विस्तृत (अन्तरिक्षात्) अन्तरिक्ष से उत्पन्न हुए (प्रियम्) प्रिय
सुख को (रेवति) अच्छे ऐश्वर्ययुक्त (यजमाने) यज्ञ करनेवाले धनी पुरुष में (धाः)
स्थापन करो तथा (आविश) उस के अभिप्राय को प्राप्त होओ और (अस्य) इस के (हविषः) होम
के योग्य पदार्थ को (त्मना) आप ही निष्पादन किये हुए के समान (यज) अग्नि में होमो
अर्थात् यज्ञ की किसी क्रिया का विपरीत भाव न करो और (अस्य) इसके (तन्वा) शरीर के
साथ (सम्) (भव) एकीभाव रक्खो, किन्तु विरोध से द्विधा आचरण
मत करो। हे (वर्षो) यज्ञकर्म से सर्वसुख के पहुँचाने वालो ! (देवेभ्यः) (स्वाहा)
(देवेभ्यः) (स्वाहा) सत्कर्म के अनुष्ठान से प्रकाशित धर्मिष्ठ ज्ञानी पुरुष जो कि
यज्ञ देखने की इच्छा करते हुए बार-बार यज्ञ में आते हैं, उन
विद्वानों के लिये अच्छे सत्कार करानेवाली वाणियों को उच्चारण करते हुए यज्ञपति को
(वर्षीयसि) सर्व सुख वर्षानेवाले यज्ञ में (धाः) अभियुक्त करो ॥११॥
भावार्थभाषाः-
यज्ञ के लिये घृत आदि पदार्थ चाहनेवाले मनुष्य को गाय आदि पशु रखने चाहियें और
घृतादि अच्छे-अच्छे पदार्थों से अग्निहोत्र से लेकर उत्तम यज्ञों से जल और पवन की
शुद्धि कर सब प्राणियों को सुख उत्पन्न करना चाहिये ॥११॥
माहि॑र्भू॒र्मा
पृदा॑कु॒र्नम॑स्तऽआतानान॒र्वा प्रेहि॑। घृ॒तस्य॑ कु॒ल्याऽउप॑ऽऋ॒तस्य॒ पथ्या॒ऽअनु॑
॥१२॥
पद
पाठ
मा।
अहिः॑। भूः॒। मा। पृदा॑कुः। नमः॑। ते॒। आ॒ता॒नेतेत्या॑ऽतान। अ॒न॒र्वा। प्र। इ॒हि॒।
घृ॒तस्य॑। कु॒ल्याः। उप॑। ऋ॒तस्य॑। पथ्याः॑। अनु॑ ॥१२॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
वह
विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र
में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे (आतान) अच्छे प्रकार सुख से विस्तार करनेवाले विद्वान् ! तू (मा) मत (अहिः)
सर्प के समान कुटिलमार्गगामी और (मा) मत (पृदाकुः) मूर्खजन के समान अभिमानी वा
व्याघ्र के समान हिंसा करनेवाला (भूः) हो (ते) सब जगह तेरे सुख के लिये (नमः) अन्न
आदि पदार्थ पहले ही प्रवृत्त हो रहे हैं और (अनर्वा) अश्व आदि सवारी के विना
निराश्रय पुरुष जैसे (घृतस्य) जल की (कुल्याः) बड़ी धाराओं को प्राप्त हो, वैसे (ऋतस्य) सत्य के (पथ्याः) मार्गों को प्राप्त हो ॥१२॥
भावार्थभाषाः-
किसी मनुष्य को कुटिलगामी सर्प आदि दुष्ट जीवों के समान धर्ममार्ग में कुटिल न
होना चाहिये, किन्तु सर्वदा सरल भाव से ही
रहना चाहिये ॥१२॥
देवी॑रापः
शु॒द्धा वो॑ढ्व॒ꣳ सुप॑रिविष्टा दे॒वषु॒ सुप॑रिविष्टा व॒यं प॑रि॒वे॒ष्टारो॑ भूयास्म
॥१३॥
पद
पाठ
देवीः॑।
आ॒पः॒। शु॒द्धाः। वो॒ढ्व॒म्। सुप॑रिविष्टा॒ इति॑ सुऽप॑रिविष्टाः॒। दे॒वेषु॑।
सुप॑रिविष्टा॒ इति॒ सुऽप॑रिविष्टाः॒। व॒यम्। प॒रि॒वे॒ष्टार॒ इति॑ परिऽवे॒ष्टारः॑।
भू॒या॒स्म॒ ॥१३॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
ब्रह्मचारी बालक और ब्रह्मचारिणी कन्याओं को गुरुपत्नियों का कैसे मान करना चाहिये, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे कुमारियो ! तुम जैसे (आपः) श्रेष्ठगुणों में रमण करनेवाली (शुद्धाः)
सत्कर्माऽनुष्ठान से पवित्र (देवीः) विद्या प्रकाशवती विदुषी स्त्रीजन (देवेषु)
श्रेष्ठ विद्वान् पतियों के निमित्त (सुपरिविष्टाः) और उन की सेवा करने को सम्मुख
प्रवृत्त होकर अपने समान पतियों को (वोढ्वम्) प्राप्त होती हैं और वे विद्वान्
पतिजन उन स्त्रियों को प्राप्त होते हैं, वैसे
तुम हो और हम भी (परिवेष्टारः) उस कर्म की योग्यता को (भूयास्म) पहुँचें। ॥१३॥
भावार्थभाषाः-
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विदुषी अर्थात् विद्वानों की स्त्री
पातिव्रत धर्म में तत्पर रहती हैं, वैसे
ब्रह्मचारिणी कन्या भी उनके गुण और स्वभाववाली हों और ब्रह्मचारी भी गुरुजनों की
शिक्षा से स्त्री और पुरुष आदि की रक्षा करने में तत्पर हों ॥१३॥
वाचं॑
ते शुन्धामि प्रा॒णं ते॑ शुन्धामि॒ चक्षुस्ते॑ शुन्धामि॒ श्रोत्रं॑ ते शुन्धामि॒
नाभिं॑ ते शुन्धामि॒ मेढ्रं॑ ते शुन्धामि पा॒युं ते॑ शुन्धामि च॒रित्राँ॑स्ते
शुन्धामि ॥१४ ॥
पद
पाठ
वाच॑म्।
ते॒। शु॒न्धा॒मि॒। प्रा॒णम्। ते॒। शु॒न्धा॒मि॒। चक्षुः॑। ते॒। शु॒न्धा॒मि॒।
श्रोत्र॑म्। ते॒। शु॒न्धा॒मि॒। नाभि॑म्। ते॒। शु॒न्धा॒मि॒। मेढ्र॑म्। ते॒।
शु॒न्धा॒मि॒। पा॒युम्। ते॒। शु॒न्धा॒मि॒। च॒रित्रा॑न्। ते॒। शु॒न्धा॒मि॒ ॥१४॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
वे गुरुपत्नी और गुरुजन यथायोग्य शिक्षा से अपने-अपने विद्यार्थियों को
अच्छे-अच्छे गुणों में कैसे प्रकाशित करते हैं, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे शिष्य ! मैं विविध शिक्षाओं से (ते) तेरी (वाचम्) जिस से बोलता है, उस वाणी को (शुन्धामि) शुद्ध अर्थात् सद्धर्मानुकूल करता हूँ। (ते) तेरे
(चक्षुः) जिस से देखता है, उस नेत्र को (शुन्धामि) शुद्ध
करता हूँ। (ते) तेरी (नाभिम्) जिस से नाड़ी आदि बाँधे जाते हैं, उस नाभि को (शुन्धामि) पवित्र करता हूँ। (ते) तेरे (मेढ्रम्) जिससे
मूत्रोत्सर्गादि किये जाते हैं, उस लिङ्ग को (शुन्धामि)
पवित्र करता हूँ। (ते) तेरे (पायुम्) जिस से रक्षा की जाती है, उस गुदेन्द्रिय को (शुन्धामि) पवित्र करता हूँ। (चरित्रान्) समस्त
व्यवहारों को (शुन्धामि) पवित्र शुद्ध अर्थात् धर्म के अनुकूल करता हूँ, तथा गुरुपत्नी पक्ष में सर्वत्र ‘करती हूँ’ यह योजना करनी चाहिये ॥१४॥
भावार्थभाषाः-
गुरु और गुरुपत्नियों को चाहिये कि वेद और तथा वेद के अङ्ग और उपाङ्गों की शिक्षा
से देह, इन्द्रिय, अन्तःकरण
और मन की शुद्धि, शरीर की पुष्टि तथा प्राण की सन्तुष्टि
देकर समस्त कुमार और कुमारियों को अच्छे-अच्छे गुणों में प्रवृत्त करावें ॥१४॥
मन॑स्त॒ऽआप्या॑यतां॒
वाक् त॒ऽआप्या॑यतां प्रा॒णस्त॒ऽआप्या॑यतां॒ चक्षु॑स्त॒ऽआप्या॑यता॒ᳬ श्रोत्रं॑
त॒ऽआप्या॑यताम्। यत्ते॑ क्रू॒रं यदास्थि॑तं॒ तत्त॒ऽआप्या॑यतां॒ निष्ट्या॑यतां॒
तत्ते॑ शुध्यतु॒ शमहो॑भ्यः। ओष॑धे॒ त्राय॑स्व॒ स्वधि॑ते॒ मैन॑ꣳ हिꣳसीः ॥१५॥
पद
पाठ
मनः॑।
ते॒। आ। प्या॒य॒ता॒म्। वाक्। ते॒। आ। प्या॒य॒ता॒म्। प्रा॒णः। ते॒। आ। प्या॒य॒ता॒म्।
चक्षुः॑। ते॒। आ। प्या॒य॒ता॒म्। श्रोत्र॑म्। ते॒। आ। प्या॒य॒ता॒म्। यत्। ते॒।
क्रू॒रम्। यत्। आस्थि॑त॒मित्याऽस्थि॑तम्। तत्। ते॒। आ। प्या॒य॒ता॒म्। निः।
स्त्या॒य॒ता॒म्। तत्। ते॒। शु॒ध्य॒तु। शम्। अहो॑भ्य॒ इत्यहः॑ऽभ्यः। ओष॑धे।
त्राय॑स्व। स्वधि॑त॒ इति॒ स्वऽधि॑ते। मा। ए॒न॒म्। हि॒ꣳसीः॒ ॥१५॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
भी प्रकारान्तर से अगले मन्त्र में उक्त अर्थ का प्रकाश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे शिष्य ! मेरी शिक्षा से (ते) तेरा (मनः) मन (आप्यायताम्) पर्य्याप्त गुणयुक्त
हो, (ते) तेरा (प्राणः) प्राण (आप्यायताम्)
बलादि गुणयुक्त हो, (ते) तेरी (चक्षुः) दृष्टि (आप्यायताम्)
निर्मल हो, (ते) तेरे (श्रोत्रम्) कर्ण (आप्यायताम्) सद्गुण
व्याप्त हों, (ते) तेरा (यत्) जो (क्रूरम्) दुष्ट व्यवहार है,
वह (निः) (स्त्यायताम्) दूर हो और (यत्) जो (ते) तेरा (आस्थितम्)
निश्चय है, वह (आप्यायताम्) पूरा हो। इस प्रकार से (ते) तेरा
समस्त व्यवहार (शुध्यतु) शुद्ध हो और (अहोभ्यः) प्रतिदिन तेरे लिये (शम्) सुख हो।
हे (ओषधे) प्रवर अध्यापक ! आप (एनम्) इस शिष्य की (त्रायस्व) रक्षा कीजिये और (मा
हिंसीः) व्यर्थ ताड़ना मत कीजिये। हे (स्वधिते) प्रशस्ताध्यापिके ! तू इस कुमारिका
शिष्या की (त्रायस्व) रक्षा कर और इस को अयोग्य ताड़ना मत दे ॥१५॥
भावार्थभाषाः-
सत्कर्म करने से सब की उन्नति होती है, इस से सब
मनुष्यों को चाहिये कि सुशिक्षा पाकर समस्त सत्कर्मों का अनुष्ठान करें। इसी से
अध्यापक जन गुणग्रहण कराने ही के लिये शिष्यों को ताड़ना देते हैं, वह उनकी ताड़ना अत्यन्त सुख की करनेवाली होती है। स्त्री और पुरुष इस
प्रकार उपदेश करें कि हे सर्वोत्तम अध्यापक ! यह आपका विद्यार्थी जैसे शीघ्र
विद्वान् हो जाय, वैसा प्रयत्न कीजिये। हे प्रिये ! यह कन्या
जिस प्रकार अतिशीघ्र विद्यायुक्त हो, वैसा काम कर ॥१५॥
रक्ष॑सां
भा᳖गो᳖ऽसि॒ निर॑स्त॒ꣳ रक्ष॑ऽइ॒दम॒हꣳ रक्षो॒ऽभिति॑ष्ठामी॒दम॒हꣳ रक्षोऽव॑बाधऽइ॒दम॒हꣳ
रक्षो॑ऽध॒मं तमो॑ नयामि। घृ॒तेन॑ द्यावापृथिवी॒ प्रोर्णु॑वाथां॒ वायो॒ वे
स्तो॒काना॑म॒ग्निराज्य॑स्य वेतु॒ स्वाहा॒ स्वाहा॑कृतेऽऊ॒र्ध्वन॑भसं मारु॒तं
ग॑च्छतम् ॥१६॥
पद
पाठ
रक्षसा॒म्।
भा॑गः॒। अ॒सि॒। निर॑स्त॒मिति॒ निःऽअ॑स्तम्। रक्षः॑ इ॒दम्। अ॒हम्। रक्षः॑। अ॒भि।
ति॒ष्ठा॒मि॒। इ॒दम्। अ॒हम्। रक्षः॑। अव॑बा॒धे॒। इ॒दम्। अ॒हम्। रक्षः॑। अ॒ध॒मम्।
तमः॑। न॒या॒मि॒। घृ॒तेन॑। द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ इति॑ द्यावापृथिवी। प्र।
ऊ॒र्णु॒वा॒था॒म्। वायो॒ऽइति॒ वायो॑। वेः। स्तो॒काना॑म्। अ॒ग्निः। आज्य॑स्य।
वे॒तु॒। स्वाहा॑। स्वाहा॑कृत॒ऽइति॒ स्वाहा॑ऽकृते। ऊ॒र्ध्वन॑भस॒मित्यू॒र्ध्वन॑भसम्।
मा॒रु॒तम्। ग॒च्छ॒त॒म् ॥१६॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
शिष्यवर्गों में से प्रति शिष्य को यथायोग्य उपदेश करना अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे दुष्टकर्म करनेवाले जन ! तू (रक्षसाम्) दुष्टों अर्थात् परार्थ नाश कर अपना
अभीष्ट करनेवालों का (भागः) भाग (असि) है, इस
कारण (रक्षः) राक्षस स्वभावी तू (निरस्तम्) निकल जा (अहम्) मैं (इदम्) ऐसे (रक्षः)
स्वार्थसाधक को (अभितिष्ठामि) तिरस्कार करने के लिये सम्मुख होता हूँ और केवल
सम्मुख ही नहीं, किन्तु (अहम्) मैं (इदम्) ऐसे (रक्षः) दुष्ट
जन को (अवबाधे) अत्यन्त तिरस्कार के साथ पीटता हूँ, जिससे वह
फिर सामने न हो और (अहम्) मैं (इदम्) ऐसे (रक्षः) दुष्ट जन को (अधमम्) दुःसह दुःख
को (नयामि) पहुँचाता हूँ। अब श्रेष्ठ गुणग्राही शिष्य के लिये उपदेश है। हे (वायो)
गुणग्राहक ! सत्-असत् व्यवहार की विवेचना करनेवाला तू (स्तोकानाम्) सूक्ष्म से
सूक्ष्म व्यवहारों को (वेः) जान और तेरे यज्ञशोधित जल से (द्यावापृथिवी) सूर्य और
भूमि (प्रोर्णुवाथाम्) अच्छे प्रकार आच्छादित हों (अग्निः) समस्त विद्यायुक्त
विद्वान तेरे घृत आदि पदार्थ के (स्वाहा) अच्छे होम किये हुए को (वेतु) जाने तथा
(स्वाहाकृते) हवन किये हुए स्नेहद्रव्य को प्राप्त पूर्वोक्त जो सूर्य और भूमि हैं,
वे (ऊर्ध्वनभसम्) तेरे यज्ञ से शुद्ध हुए जल को ऊपर पहुँचानेवाले
(मारुतम्) पवन को (गच्छतम्) प्राप्त हों ॥१६॥
भावार्थभाषाः-
बुद्धिमान् श्रेष्ठ और अनिष्ट के विवेक करनेवाले विद्वान् लोग अपने शिष्यों में
यथायोग्य शिक्षा विधान करते हैं। यज्ञकर्म से जल और पवन की शुद्धि, उसकी शुद्धि से वर्षा और उससे सब प्राणियों को सुख उत्पन्न होता है ॥१६॥
इ॒दमा॑पः॒
प्रव॑हताव॒द्यं च॒ मलं॑ च॒ यत्। यच्चा॑भिदु॒द्रोहानृ॑तं॒ यच्च॑ शे॒पेऽअ॑भी॒रुण॑म्।
आपो॑ मा॒ तस्मा॒देन॑सः॒ पव॑मानश्च मुञ्चतु ॥१७॥
पद
पाठ
इ॒दम्।
आ॒पः॒। प्र। व॒ह॒त॒। अ॒व॒द्यम्। च॒ मल॑म्। च॒। यत्। यत्। च॒।
अ॒भि॒दु॒द्रोहेत्य॑भिऽदु॒द्रोह॑। अनृ॑तम्। यत्। च॒। शे॒पे। अभी॒रुण॑म्। आपः॑। मा॒।
तस्मा॑त्। एन॑सः। पव॑मानः। च॒। मु॒ञ्च॒तु॒ ॥१७॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
निर्दोष जल से क्या संभावना करनी चाहिये, यह
अगले मन्त्र में उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
भो (आपः) सर्वविद्याव्यापक विद्वान् लोगो ! आप जैसे (आपः) जल शुद्धि करते हैं, वैसे मेरा (यत्) जो (अवद्यम्) अकथनीय निन्द्यकर्म (च) और विकार तथा (यत्)
जो (मलम्) अविद्यारूपी मल है, (इदम्) इस को (प्रवहत) बहाइये
अर्थात् दूर कीजिये। (च) और (यत्) जो मैं (अनृतम्) झूँठ-मूँठ किसी से (दुद्रोह)
द्रोह करता होऊँ (च) और (यत्) जो (अभीरुणम्) निर्भय निरपराधी पुरुष को (शेपे)
उलाहने देता हूँ (तस्मात्) उस उक्त (एनसः) पाप से (मा) मुझे अलग रक्खो (च) और जैसे
(पवमानः) पवित्र व्यवहार (मा) मुझसे पाप से अलग रखता है, वैसे
(च) अन्य मनुष्यों को भी रक्खे ॥१७॥
भावार्थभाषाः-
जैसे जल सांसारिक पदार्थों का शुद्धि का निदान है, वैसे विद्वान् लोग सुधार का निदान हैं, इस से वे
अच्छे कामों को करें। मनुष्यों को चाहिये कि ईश्वर की उपासना और विद्वानों के सङ्ग
से दुष्टाचरणों को छोड़ सदा धर्म में प्रवृत्त रहें ॥१७॥
सं
ते॒ मनो॒ मन॑सा॒ सं प्रा॒णः प्रा॒णेन॑ गच्छताम्। रेड॑स्य॒ग्निष्ट्वा॑
श्रीणा॒त्वाप॑स्त्वा॒ सम॑रिण॒न् वात॑स्य त्वा ध्राज्यै॑ पू॒ष्णो रꣳह्या॑ऽऊ॒ष्मणो॑
व्यथिष॒त् प्रयु॑तं॒ द्वेषः॑ ॥१८॥
पद
पाठ
सम्।
ते। मनः॑। मन॑सा। सम्। प्रा॒णः। प्रा॒णेन॑। ग॒च्छ॒ता॒म्। रे॒ट्। अ॒सि॒। अ॒ग्निः।
त्वा॒। श्री॒णा॒तु॒। आपः॑। त्वा॒। सम्। अ॒रि॒ण॒न्। वातस्य। त्वा॒। ध्राज्यै॑।
पू॒ष्णः। रह्यै॑। ऊ॒ष्मणः॑। व्य॒थि॒ष॒त्। प्रयु॑त॒मिति॒ प्रऽयु॑त॒म्। द्वेषः॑
॥१८॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
रण में युद्ध करनेवाला शिष्य कैसा हो, यह अगले
मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे युद्धशील शूरवीर ! संग्राम में (ते) तेरा (मनः) मन (मनसा) विद्याबल और (प्राणः)
प्राण (प्राणेन) प्राण के साथ (सम्) (गच्छताम्) सङ्गत हो। हे वीर ! तू (रेट्)
शत्रुओं को मारनेवाला (असि) है, (त्वा) तुझे
(अग्निः) युद्ध से उत्पन्न हुए क्रोध का अग्नि (श्रीणातु) अच्छे पचावे तू
(प्रयुतम्) करोड़ों प्रकार के शत्रुओं की सेना को प्राप्त होता है, तुझ को तज्जन्य (ऊष्मणः) गरमी का (द्वेषः) द्वेष मत (व्यथिषत्) अत्यन्त
पीड़ायुक्त करे, जिससे (वातस्य) पवन की (ध्राज्यै) गति के
तुल्य गति के लिये वा (पूष्णः) पुष्टिकारक सूर्य के (रंह्यै) वेग के तुल्य वेग के
लिये अर्थात् यथार्थता से युद्ध करने में प्रवृत्ति होने के लिये (आपः)
अच्छे-अच्छे जल (सम्) (अरिणन्) अच्छे प्रकार प्राप्त हों ॥१८॥
भावार्थभाषाः-
मनुष्यों को चाहिये कि अपने बल के बढ़ानेवाले अन्न, जल और शस्त्र-अस्त्र आदि पदार्थों को इकट्ठा करके शत्रुओं को मार कर
संग्राम जीतें ॥१८॥
घृ॒तं
घृ॒॑तपावानः पिबत॒ वसां॑ वसापावानः पिबता॒न्तरि॑क्षस्य ह॒विर॑सि॒ स्वाहा॑। दिशः॑
प्र॒दिश॑ऽआ॒दिशो॑ वि॒दिश॑ऽउ॒द्दिशो॑ दि॒ग्भ्यः स्वाहा॑ ॥१९॥
पद
पाठ
घृ॒तम्।
घृ॒त॒पा॒वा॒न॒ इति॑ घृतऽपावानः। पि॒ब॒त॒। वसा॑म्। व॒सा॒पा॒वा॒न॒ इति॑ वसाऽपावानः।
पि॒ब॒त॒। अ॒न्तरि॑क्षस्य। ह॒विः। अ॒सि॒। स्वाहा॑। दिशः॑। प्र॒दिश॒ इति॑
प्र॒ऽदिशः॑। आ॒दिश॒ इत्या॒ऽदिशः॑। वि॒दिश॒ इति॑ वि॒ऽदिशः॑। उ॒द्दिश॒इत्यु॒त्ऽ
दिशः॑। दि॒ग्भ्य इति॑ दिक्ऽभ्यः। स्वाहा॑ ॥१९॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
युद्धकर्म में क्या होना चाहिये, यह अगले
मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे (घृतपावानः) जल के पीनेवाले वीरपुरुषो ! तुम (घृतम्) अमृतात्मक जल को (पिबत)
पिओ। हे (वसापावानः) नीति के पालनेवाले वीरो ! तुम (वसाम्) जो वीर रस की वाणी
अर्थात् शत्रुओं को स्तम्भन करनेवाली है, उसको
(पिबत) पिओ। हे सेनाध्यक्ष चक्रव्यूहादि सेनारचक ! प्रत्येक वीर को तू जिससे
(अन्तरिक्षस्य) आकाश की (हविः) रुकावट अर्थात् युद्ध में बहुतों के बीच शत्रुओं को
घेरना (असि) है, उस (स्वाहा) शोभन वाणी से जो (दिशः) पूर्व,
पश्चिम, उत्तर, दक्षिण
(प्रदिशः) आग्नेयी, नैर्ऋति, वायवी और
ऐशानी उपदिशा (आदिशः) आमने, सामने, मुहाने
की दिशा (विदिशः) पीछे की दिशा और (उद्दिशः) जिस ओर शत्रु लक्षित हो वे दिशा हैं,
उन सब (दिग्भ्यः) दिशाओं से यथायोग्य वीरों को बाँट के शत्रुओं को
जीतो ॥१९॥
भावार्थभाषाः-
सेनाध्यक्षों को उचित है कि अपनी-अपनी सेना के वीरों को अत्यन्त पुष्ट कर युद्ध के
समय चक्रव्यूह, श्येनव्यूह तथा शकटव्यूह आदि
रचनादि युद्ध कर्मों से सब दिशाओं में अपनी सेनाओं के भागों को स्थापन कर, सब प्रकार से शत्रुओं को घेर-घार जीतकर न्याय से प्रजापालन करें ॥१९॥
ऐ॒न्द्रः
प्रा॒णोऽअङ्गे॑ऽअङ्गे॒ निदी॑ध्यदै॒न्द्रऽउ॑दा॒नोऽअङ्गे॑ऽअङ्गे॒ निधी॑तः। देव॑
त्वष्ट॒र्भूरि॑ ते॒ सꣳस॑मेतु॒ सल॑क्ष्मा॒ यद्विषु॑रूपं॒ भवा॑ति। दे॒व॒त्रा
यन्त॒म॑वसे॒ सखा॒योऽनु॑ त्वा मा॒ता पि॒तरो॑ मदन्तु ॥२०॥
पद
पाठ
ऐ॒न्द्रः।
प्रा॒णः। अङ्गे॑ऽअङ्ग॒ इत्यङ्गे॑ऽअङ्गे। नि। दी॒ध्य॒त्। ऐ॒न्द्रः। उ॒दा॒न इत्यु॑त्ऽआ॒नः।
अङ्गे॑ऽअङ्ग॒ इत्यङ्गे॑ऽअङ्गे। निधी॑त॒ इति॒ निऽधीतः। देव॑। त्व॒ष्ट॒। भूरि॑। ते॒।
सꣳस॒मिति॒ सम्ऽस॑म्। ए॒तु॒। सल॒क्ष्मेति॒ सऽल॑क्ष्म। यत्। विषु॑रूप॒मिति॒
वि॒षु॑ऽरूपम्। भवा॑ति। दे॒व॒त्रेति॑ देव॒ऽत्रा। यन्त॑म्। अव॑से। सखा॑यः। अनु॑।
त्वा॒। मा॒ता॒। पि॒तरः॑। म॒द॒न्तु॒ ॥२०॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
संग्राम में वीर पुरुष आपस में कैसे वर्तें, यह
उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे (त्वष्टः) शत्रुबलविदारक (देव) दिव्यविद्यासम्पन्न सेनापति ! आप (अवसे) रक्षा
आदि के लिये (अङ्गे अङ्गे) जैसे अङ्ग-अङ्ग में (ऐन्द्रः) इन्द्र अर्थात् जीव जिस
का देवता है, वह सब शरीर में ठहरनेवाला
प्राणवायु सब वायुओं को तिरस्कार करता हुआ आप ही प्रकाशित होता है, वैसे आप संग्राम में सब शत्रुओं का तिरस्कार करते हुए (निदीध्यत्)
प्रकाशित हूजिये अथवा (अङ्गे अङ्गे) जैसे अङ्ग-अङ्ग में (उदानः) अन्न आदि पदार्थों
को ऊर्ध्व पहुँचानेवाला उदानवायु प्रवृत्त है, वैसे अपने
विभव से सब वीरों को उन्नति देते हुए संग्राम में (निधीतः) निरन्तर स्थापित किये
हुए के समान प्रकाशित हूजिये (यत्) जो (ते) आप का (विषुरूपम्) विविध रूप (सलक्ष्म)
परस्पर युद्ध का लक्षण (भवाति) हो, वह (संग्रामे) संग्राम
में (भूरि) विस्तार से (संसम्) (एतु) प्रवृत्त हो। हे सेनाध्यक्ष ! तेरी रक्षा के
लिये सब शूरवीर पुरुष (सखायः) मित्र हो के वर्तें, (माता)
माता (पितरः) पिता, चाचा, ताऊ, भृत्य और शुभचिन्तक (देवत्रा) देवों अर्थात् विद्वानों, धर्मयुक्त युद्ध और व्यवहार को (यन्तम्) प्राप्त होते हुए (त्वा) तेरा
(अनुमदन्तु) अनुमोदन करें ॥२०॥
भावार्थभाषाः-
सब प्राणियों का मित्रभाव वर्त्तनेवाला सेनापति जैसे प्रत्येक अङ्ग में प्राण और
उदान प्रवर्त्तमान हैं, वैसे संग्राम में विचरता
हुआ सेना और राजपुरुषों को हर्षित करके शत्रुओं को जीते ॥२०॥
स॒मु॒द्रं
ग॑च्छ॒ स्वाहा॒न्तरि॑क्षं गच्छ॒ स्वाहा॑ दे॒वꣳ स॑वि॒तारं॑ गच्छ॒ स्वाहा॑
मि॒त्रावरु॑णौ गच्छ॒ स्वाहा॑होरा॒त्रे ग॑च्छ॒ स्वाहा॒ छन्दा॑सि गच्छ॒ स्वाहा॒
द्या॑वापृथि॒वी ग॑च्छ॒ स्वाहा॒ य॒ज्ञं ग॑च्छ॒ स्वाहा॒ सोमं॑ गच्छ॒ स्वाहा॑ दि॒व्यं
नभो॑ गच्छ॒ स्वाहा॒ग्निं वै॑श्वान॒रं ग॑च्छ॒ स्वाहा॒ मनो॑ मे॒ हार्दि॑ यच्छ॒ दिवं॑
ते धू॒मो ग॑च्छतु॒ स्व᳕र्ज्योतिः॑ पृथि॒वीं भस्म॒नापृ॑ण॒ स्वाहा॑ ॥२१॥
पद
पाठ
स॒मु॒द्रम्।
ग॒च्छ॒। स्वाहा॑। अ॒न्तरिक्ष॑म्। ग॒च्छ॒। स्वाहा॑। दे॒वम्। स॒वि॒तार॑म्। ग॒च्छ॒।
स्वाहा॑। मि॒त्रावरु॑णौ। ग॒च्छ॒। स्वाहा॑। अ॒हो॒रा॒त्रेऽइत्य॑होरा॒त्रे। ग॒च्छ॒।
स्वाहा॑। छन्दा॑ꣳसि। ग॒च्छ॒। स्वाहा॑। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावापृथि॒वी। ग॒च्छ॒।
स्वाहा॑। य॒ज्ञम्। ग॒च्छ॒। स्वाहा॑। सोम॑म्। ग॒च्छ॒। स्वाहा॑। दि॒व्यम्। नभः॑।
ग॒च्छ॒। स्वाहा॑। अ॒ग्निम्। वै॒श्वा॒न॒रम्। ग॒च्छ॒। स्वाहा॑। मनः॑। मे॒। हार्दि॑।
य॒च्छ॒। दिव॑म्। ते॒। धू॒मः। ग॒च्छ॒तु॒। स्वः॑। ज्योतिः॑। पृ॒थि॒वीम्। भस्म॑ना। आ।
पृ॒ण॒। स्वाहा॑ ॥२१॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
राज्यकर्म करने योग्य शिष्य को गुरु क्या-क्या उपदेश करे, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे धर्मादि राज्यकर्म करने योग्य शिष्य ! तू (स्वाहा) बड़े-बड़े अश्वतरी नाव
अर्थात् धूआँकष आदि बनाने की विद्या से नौकादि यान पर बैठ (समुद्रम्) समुद्र को
(गच्छ) जा। (स्वाहा) खगोलप्रकाश करनेवाली विद्या से सिद्ध किये हुए विमानादि यानों
से (अन्तरिक्षम्) आकाश को (गच्छ) जा। (स्वाहा) वेदवाणी से (देवम्) प्रकाशमान
(सवितारम्) सब को उत्पन्न करनेवाले परमेश्वर को (गच्छ) जान। (स्वाहा) वेद और
सज्जनों के सङ्ग से शुद्ध संस्कार को प्राप्त हुई वाणी से (मित्रावरुणौ) प्राण और
उदान को (गच्छ) जान। (स्वाहा) ज्योतिषविद्या से (अहोरात्रे) दिन और रात्रि वा उन
के गुणों को (गच्छ) जान। (स्वाहा) वेदाङ्ग विज्ञानसहित वाणी से (छन्दांसि) ऋग्यजुः
साम और अथर्व इन चारों वेदो को (गच्छ) अच्छे प्रकार से जान। (स्वाहा) भूमियान, आकाश मार्ग विमान और भूगोल वा भूगर्भ आदि यान बनाने की विद्या से
(द्यावापृथिवी) भूमि और सूर्यप्रकाशस्थ अभीष्ट देश-देशान्तरों को (गच्छ) जान और
प्राप्त हो। (स्वाहा) संस्कृत वाणी से (यज्ञम्) अग्निहोत्र, कारीगरी
और राजनीति आदि यज्ञ को (गच्छ) प्राप्त हो। (स्वाहा) वैद्यक विद्या से (सोमम्)
ओषधिसमूह अर्थात् सोमलतादि को (गच्छ) जान। (स्वाहा) जल के गुण और अवगुणों को बोध
करानेवाली विद्या से (दिव्यम्) व्यवहार में लाने योग्य पवित्र (नभः) जल को (गच्छ)
जान और (स्वाहा) बिजुली आग्नेयास्त्रादि तारबरकी तथा प्रसिद्ध सब कलायन्त्रों को
प्रकाशित करनेवाली विद्या से (अग्निम्) विद्युत् रूप अग्नि को (गच्छ) अच्छी प्रकार
जान और (मे) मेरे (मनः) मन को (हार्दि) प्रीतियुक्त (यच्छ) सत्यधर्म में स्थित कर
अर्थात् मेरे उपदेश के अनुकूल वर्ताव वर्त्त और (ते) तेरे (धूमः) कलाओं और यज्ञ के
अग्नि का धूआँ (दिवम्) सूर्य्यप्रकाश को तथा (ज्योतिः) उस की लपट (स्वः) अन्तरिक्ष
को (गच्छतु) प्राप्त हो और तू यन्त्रकला अग्नि में (स्वाहा) काष्ठ आदि पदार्थों को
भस्म कर उस (भस्मना) भस्म से (पृथिवीम्) पृथिवी को (आपृण) ढाँप दे ॥२१॥
भावार्थभाषाः-
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, राज्य और व्यापार चाहनेवाले पुरुष भूमियान,
अन्तरिक्षयान और आकाशमार्ग में जाने-आने के विमान आदि रथ वा नाना
प्रकार के कलायन्त्रों को बनाकर तथा सब सामग्री को जोड़ कर धन और राज्य का उपार्जन
करें ॥२१॥
मापो
मौष॑धीर्हिꣳसी॒र्धाम्नो॑ धाम्नो राजँ॒स्ततो॑ वरुण नो मुञ्च। यदा॒हुर॒घ्न्याऽइति॒
वरु॒णेति॒ शपा॑महे॒ ततो॑ वरुण नो मुञ्च। सु॒मि॒त्रि॒या न॒ऽआप॒ऽओष॑धयः सन्तु
दुर्मित्रि॒यास्तस्मै॑ सन्तु॒ यो᳕ऽस्मान् द्वेष्टि॒ यं च॑ व॒यं द्वि॒ष्मः ॥२२॥
पद
पाठ
मा।
अ॒पः। मा। ओष॑धीः। हि॒ꣳसीः॒। धाम्नो॑धाम्न॒ इति॑ धाम्नः॑ऽधाम्नः। रा॒ज॒न्। ततः॑।
व॒रु॒ण। नः॒। मु॒ञ्च॒। यत्। आ॒हुः॒। अ॒घ्न्याः। इति॑। वरु॑ण। इति॑। शपा॑महे। ततः॑।
व॒रु॒ण॒। नः॒। मु॒ञ्च॒। सु॒मि॒त्रि॒या इति॑ सु॑ऽमि॒त्रि॒याः। नः॒। आपः॑। ओष॑धयः।
स॒न्तु॒। दु॒र्मि॒त्रि॒या इति॑ दुःऽमित्रि॒याः। तस्मै॑। स॒न्तु॒। यः। अस्मान्।
द्वेष्टि॑। यम्। च॒। व॒यम्। द्वि॒ष्मः ॥२२॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
व्यापार करने के लिये राज्यप्रबन्ध अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे (राजन्) सभापति ! आप प्रत्येक स्थानों में (अपः) जल और (ओषधीः) अन्न-पान पदार्थ
तथा किराने आदि वणिज पदार्थों को (मा) मत (हिंसीः) नष्ट करो अर्थात् प्रत्येक जगह
हम लोगों को सब इष्ट पदार्थ मिलते रहें, न केवल यही
करो, किन्तु (ततः) उस (धाम्नः धाम्नः) स्थान-स्थान से (नः)
हम लोगों को (मा) मत (मुञ्च) त्यागो। हे (वरुण) न्याय करनेवाले सभापति ! किये हुए
न्याय में (अघ्न्याः) न मारने योग्य गौ आदि पशुओं की शपथ है (इति) इस प्रकार जो आप
कहते हैं और हम लोग भी (शपामहे) शपथ करते हैं और आप भी उस प्रतिज्ञा को मत छोडि़ये
और हम लोग भी न छोड़ेंगे। हे वरुण ! आपके राज्य में (नः) हम लोगों को (आपः) जल और
ओषधियाँ (सुमित्रियाः) श्रेष्ठमित्र के तुल्य (सन्तु) हों तथा (यः) जो (अस्मान्) हम
लोगों से (द्वेष्टि) वैर रखता है (च) और (वयम्) हम लोग (यम्) जिससे (द्विष्मः) वैर
करते हैं, (तस्मै) उस के लिये वे ओषधियाँ (दुर्मित्रियाः)
दुःख देने देनेवाले शत्रु के तुल्य (सन्तु) हों ॥२२॥
भावार्थभाषाः-
राजा और राजाओं के कामदार लोग अनीति से प्रजाजनों का धन न लेवें, किन्तु राज्य-पालन के लिये राजपुरुष प्रतिज्ञा करें कि हम लोग अन्याय न
करेंगे अर्थात् हम सर्वदा तुम्हारी रक्षा और डाकू, चोर,
लम्पट-लवाड़, कपटी, कुमार्गी,
अन्यायी और कुकर्मियों को निरन्तर दण्ड देवेंगे ॥२२॥
ह॒विष्म॑तीरि॒माऽआपो॑
ह॒विष्माँ॒२ऽआवि॑वासति। ह॒विष्मा॑न् दे॒वोऽअ॑ध्व॒रो ह॒विष्माँ॑२ऽअस्तु॒ सूर्यः॑
॥२३॥
पद
पाठ
ह॒विष्म॑तीः।
इ॒माः। आपः॑। ह॒विष्मा॑न्। आ। वि॒वा॒स॒ति॒। ह॒विष्मा॑न्। दे॒वः। अ॒ध्व॒रः।
ह॒विष्मा॑न्। अ॒स्तु॒। सूर्यः॑ ॥२३॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
परस्पर मिल कर राजा और प्रजा किससे क्या-क्या करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे विद्वान् लोगो ! तुम उन कामों को किया करो कि जिनसे (इमाः) ये (आपः) जल
(हविष्मतीः) अच्छे-अच्छे दान और आदान क्रिया शुद्धि और सुख देनेवाले हों अर्थात्
जिन से नाना प्रकार का उपकार दिया लिया जाय (हविष्मान्) पवन उपकार अनुपकार को (आ)
अच्छे प्रकार (विवासति) प्राप्त होता है (देवः) सुख का देनेवाला (अध्वरः) यज्ञ भी
(हविष्मान्) परमानन्दप्रद (सूर्य्यः) तथा सूर्यलोक भी (हविष्मान्) सुगन्धादियुक्त
होके (अस्तु) हो ॥२३॥
भावार्थभाषाः-
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जिस वायु जल के संयोग से अनेक सुख सिद्ध
किये जाते हैं, जिनसे देश-देशान्तरों में
जाने से उत्तम वस्तुओं का पहुँचाना होता है, उन अग्नि जल आदि
पदार्थों से उक्त काम को क्रियाओं में चतुर पुरुष ही कर सकता है और जो नाना प्रकार
की कारीगरी आदि अनेक क्रियाओं का प्रकाश करनेवाला है, वही
यज्ञ वर्षा आदि उत्तम-उत्तम सुख का करनेवाला होता है ॥२३॥
अ॒ग्नेर्वोऽप॑न्नगृहस्य॒
सद॑सि सादयामीन्द्रा॒ग्न्योर्भा॑ग॒धेयी॑ स्थ मि॒त्रावरु॑णयोर्भाग॒धेयी॑ स्थ॒
विश्वे॑षां दे॒वानां॑ भाग॒धेयी॑ स्थ। अ॒मूर्याऽउप॒ सूर्ये॒ याभि॒॑र्वा॒ सूर्यः॑
स॒ह। ता नो॑ हिन्वन्त्वध्व॒रम् ॥२४॥
पद
पाठ
अ॒ग्नेः।
वः। अप॑न्नगृह॒स्येत्यप॑न्नऽगृहस्य। सद॑सि। सा॒द॒या॒मि॒। इ॒न्द्रा॒ग्न्योः।
भा॒ग॒धेयी॒रिति॑ भाग॒ऽधेयीः॑। स्थ॒। मि॒त्रावरु॑णयोः। भा॒ग॒धेयी॒रिति॑
भाग॒ऽधेयीः॑। विश्वे॑षाम्। दे॒वाना॑म्। भा॒ग॒धेयी॒रिति॑ भाग॒ऽधेयीः॑। स्थ॒। अ॒मूः।
याः। उप॑। सूर्य्ये॑। याभिः॑। वा॒। सूर्य्यः॑। स॒ह। ताः। नः। हि॒न्व॒न्तु॒।
अ॒ध्व॒रम् ॥२४॥
अब
गुरुपत्नी ब्रह्मचर्य्य के अनुकूल जो कन्याजन हैं, उन को क्या-क्या उपदेश करें, यह अगले मन्त्र में कहा
है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे ब्रह्मचारिणी कन्याओ ! (अमूः) वे (याः) जो स्वयंवर विवाह से पतियों को स्वीकार
किये हुए हैं, उन के समान जो
(इन्द्राग्न्योः) सूर्य और बिजुली के गुणों को (भागधेयीः) अलग-अलग जाननेवाली (स्थ)
हैं, (मित्रावरुणयोः) प्राण और उदान के गुणों को (भागधेयीः)
अलग-अलग जाननेवाली (स्थ) हैं, (विश्वेषाम्) विद्वान् और
पृथिवी आदि पदार्थों के (भागधेयीः) सेवनेवाली (स्थ) हैं, उन
(वः) तुम सभों को (अपन्नगृहस्य) जिसको गृहकृत्य नहीं प्राप्त हुआ है, उस ब्रह्मचर्य धर्मानुष्ठान करनेवाले और (अग्नेः) सब विद्यादि गुणों से
प्रकाशित उत्तम ब्रह्मचारी की (सदसि) सभा में मैं (सादयामि) स्थापित करती हूँ और
जो (याः) (उप) (सूर्ये) सूर्यलोक गुणों में (उप) उपस्थित होती हैं (वा) अथवा
(याभिः) जिनके (सह) साथ (सूर्यः) सूर्यलोक वर्त्तमान अर्थात् जो सूर्य के गुणों
में अति चतुर हैं (ताः) वे सब (नः) हमारे (अध्वरम्) घर के काम-काज को विवाह करके
(हिन्वन्तु) बढावें ॥२४॥
भावार्थभाषाः-
ब्रह्मचर्य धर्म को पालन करनेवाली कन्याओं को अविवाहित ब्रह्मचारी और अपने तुल्य
गुण, कर्म, स्वभावयुक्त
पुरुषों के साथ विवाह करने की योग्यता है, इस हेतु से
गुरुजनों की स्त्रियाँ ब्रह्मचारिणी कन्याओं को वैसा ही उपदेश करें कि जिससे वे
अपने प्रसन्नता के तुल्य पुरुषों के साथ विवाह करके सदा सुखी रहें और जिसका पति वा
जिसकी स्त्री मर जाय और सन्तान की इच्छा हो, वे दोनों नियोग
करें, अन्य व्यभिचारदि कर्म कभी न करें ॥२४॥
हृ॒दे
त्वा॒ मन॑से त्वा॒ दि॒वे त्वा॒ सूर्या॑य त्वा। ऊ॒र्ध्वमि॒मम॑ध्व॒रं दि॒वि दे॒वेषु॒
होत्रा॑ यच्छ ॥२५॥
पद
पाठ
हृ॒दे।
त्वा॒। मन॑से। त्वा॒। दि॒वे। त्वा॒। सूर्य्या॑य। त्वा॒। ऊ॒र्ध्वम्। इ॒मम्।
अ॒ध्व॒रम्। दि॒वि। दे॒वेषु॑। होत्राः॑। य॒च्छ॒ ॥२५॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
से क्या-क्या उपदेश करें, यह अगले मन्त्र में कहा
है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे ब्रह्मचारिणी कन्या ! तू जैसे हम सब (देवेषु) अपने सुख देनेवाले पतियों के निकट
रहने और (होत्राः) अग्निहोत्र आदि कर्म का अनुष्ठान करनेवाली हैं, वैसी हो और जैसे हम (हृदे) सौहार्द्द सुख के लिये (त्वा) तुझे वा (मनसे)
भला-बुरा विचारने के लिये (त्वा) तुझे वा (दिवे) सब सुखों के प्रकाश करने के लिये
(त्वा) तुझे वा (सूर्य्याय) सूर्य्य के सदृश गुणों के लिये (त्वा) तुझे शिक्षा
करती हैं, वैसे तू भी (दिवि) समस्त सुखों के प्रकाश करने के
निमित्त (इमम्) इस (अध्वरम्) निरन्तर सुख देनेवाले गृहाश्रमरूपी यज्ञ को
(ऊर्ध्वम्) उन्नति (यच्छ) दिया कर ॥२५॥
भावार्थभाषाः-
जैसे अपने पतियों की सेवा करती हुई उनके समीप रहनेवाली पतिव्रता गुरुपत्नियाँ
अग्निहोत्रादि कर्मों में स्थिर बुद्धि रखती हैं, वैसे विवाह के अनन्तर ब्रह्मचारिणी कन्याओं और ब्रह्मचारियों को परस्पर
वर्तना चाहिये ॥२५॥
सोम॑
राज॒न् विश्वा॒स्त्वं प्र॒जाऽउ॒पाव॑रोह॒ विश्वा॒स्त्वां प्र॒जाऽउ॒पाव॑रोहन्तु।
शृ॒णोत्व॒ग्निः स॒मिधा॒ हवं॑ मे शृ॒ण्वन्त्वापो॑ धि॒षणा॑श्च दे॒वीः। श्रोता॑
ग्रावाणो वि॒दुषो॒ न य॒ज्ञꣳ शृ॒णोतु॑ दे॒वः स॑वि॒ता हवं॑ मे॒ स्वाहा॑ ॥२६॥
पद
पाठ
सोम॑।
रा॒ज॒न्। विश्वाः॑। त्वम्। प्रजा॒ इति॑ प्र॒ऽजाः। उ॒पाव॑रो॒हेत्यु॑प॒ऽअव॑रोह।
विश्वाः॑। त्वाम्। प्र॒जा इति॑ प्र॒ऽजाः। उपाव॑रोह॒न्त्वित्यु॑प॒ऽअव॑रोहन्तु।
शृ॒णोतु॑। अ॒ग्निः। स॒मिधेति॑ स॒म्ऽइधा॑। हव॑म्। मे॒। शृ॒ण्वन्तु॑। आपः॑।
धि॒षणाः॑। च॒। दे॒वीः। श्रोत॑। ग्रा॒वा॒णः॒। वि॒दुषः॑। न। य॒ज्ञम्। शृ॒णोतु॑।
दे॒वः। स॒वि॒ता। हव॑म्। मे॒। स्वाहा॑ ॥२६॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
गुरुजन क्षत्रिय, शिष्य और प्रजाजन को उपदेश
करता है, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे (सोम) श्रेष्ठ ऐश्वर्ययुक्त (राजन्) समस्त उत्कृष्ट गुणों से प्रकाशमान सभाध्यक्ष
! (त्वम्) तू पिता के तुल्य (विश्वाः) समस्त (प्रजाः) प्रजाजनों का (उपावरोह) समीपवर्ती
होकर रक्षा कर और (त्वाम्) तुझे (विश्वाः) समस्त (प्रजाः) प्रजाजन पुत्र के समान
(उपावरोहन्तु) आश्रित हों। हे सभाध्यक्ष ! आप जैसे (समिधा) प्रदीप्त करनेवाले
पदार्थ से (अग्निः) सर्व गुणवाला अग्नि प्रकाशित होता है, वैसे (मे) मेरी (हवम्) प्रगल्भवाणी को (शृणोतु) सुन के न्याय से प्रकाशित
हूजिये (च) और (आपः) सब गुणों में व्याप्त (धिषणाः) विद्या बुद्धियुक्त (देवीः)
उत्तमोत्तम गुणों से प्रकाशमान तेरी पत्नी भी माताओं के समान स्त्रीजनों के न्याय
को (शृण्वन्तु) सुनें। हे (ग्रावाणः) सत्-असत् के करनेवाले विद्वान् सभासदो ! तुम
हम लोगों के अभिप्राय को हमारे कहने से (श्रोत) सुनो तथा (देवः) विद्या से
प्रकाशित (सविता) ऐश्वर्य्यवान् सभापति (विदुषः) विद्वानों के (यज्ञम्) यज्ञ के
(न) समान (मे) हमारे प्रजा लोगों के (हवम्) निवेदन को (स्वाहा) स्तुतिरूप वाणी
जैसे हो वैसे (शृणोतु) सुने ॥२६॥
भावार्थभाषाः-
राजा और प्रजाजन परस्पर सम्मति से समस्त राज्यव्यवहारों की पालना करें ॥२६॥
देवी॑रापोऽअपां
नपा॒द्यो व॑ऽऊ॒र्मिर्ह॑वि॒ष्य᳖ऽइन्द्रि॒यावा॑न् म॒दिन्त॑मः। तं दे॒वेभ्यो॑
देव॒त्रा द॑त्त शुक्र॒पेभ्यो॒ येषां॑ भा॒ग स्थ॒ स्वाहा॑ ॥२७॥
पद
पाठ
देवीः॑।
आ॒पः। अ॒पा॒म्। नपा॒त्। यः। वः॒। ऊ॒र्म्मिः। ह॒वि॒ष्यः॒। इ॒न्द्रि॒यावा॑न्।
इ॒न्द्रि॒यवा॒निती॑न्द्रिय॒ऽवा॑न्। म॒दिन्त॑म॒ इति॑ म॒दिन्ऽत॑मः। तम्। दे॒वेभ्यः॑।
दे॒व॒त्रेति॑ देव॒ऽत्रा। द॒त्त॒। शु॒क्र॒पेभ्य इति॑ शुक्र॒ऽपेभ्यः॑। येषा॑म्।
भा॒गः। स्थ। स्वाहा॑ ॥२७॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
राजा और प्रजा कैसे वर्त्ताव को वर्तें, यह अगले मन्त्र
में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे (आपः) श्रेष्ठ गुणों में व्याप्त (देवीः) शुभकर्मों से प्रकाशमान प्रजालोगो !
तुम राजसेवी (स्थ) हो, (शुक्रपेभ्यः) शरीर और
आत्मा के पराक्रम के रक्षक (देवेभ्यः) दिव्यगुणयुक्त विद्वानों के लिये (येषाम्)
जिन (वः) तुम्हारा बली रूप विद्वानों का (यः) जो (अपां नपात्) जलों के नाशरहित
स्वाभाविक (ऊर्मिः) जलतरंग के सदृश प्रजारक्षक (इन्द्रियावान्) जिस में प्रशंसनीय
इन्द्रियाँ होती हैं और (मदिन्तमः) आनन्द देनेवाला (हविष्यः) भोग के योग्य
पदार्थों से निष्पन्न (भागः) भाग हैं, वे तुम सब (तम्) उसको
(स्वाहा) आदर के साथ ग्रहण करो, जैसे राजादि सभ्यजन
(देवत्रा) दिव्य भोग देते हैं, वैसे तुम भी इसको आनन्द
(दत्त) देओ ॥२७॥
भावार्थभाषाः-
प्रजाजनों को यह उचित है कि आपस में सम्मति कर किसी उत्कृष्ट गुणयुक्त सभापति को
राजा मान कर राज्य-पालन के लिये कर देकर न्याय को प्राप्त हों ॥२७॥
कार्षि॑रसि
समु॒द्रस्य॒ त्वा क्षि॑त्या॒ऽउन्न॑यामि। समापो॑ऽअ॒द्भिर॑ग्मत॒ समोष॑धीभि॒रोष॑धीः
॥२८॥
पद
पाठ
कार्षिः॑।
अ॒सि॒। स॒मु॒द्रस्य॑। त्वा। अक्षि॑त्यै। उत्। न॒या॒मि॒। सम्। आपः॑।
अ॒द्भिरित्य॒त्ऽभिः। अ॒ग्म॒त॒। सम्। ओष॑धीभिः। ओष॑धीः ॥२८॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
अध्यापक जन प्रत्येक जन को क्या-क्या उपदेश करे, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे वैश्यजन ! तू (कार्षिः) हल जोतने योग्य (असि) है (त्वा) तुझे (समुद्रस्य)
अन्तरिक्ष के (अक्षित्यै) परिपूर्ण होने के लिये (सम् उत् नयामि) अच्छे प्रकार
उत्कर्ष देता हूँ, तुम सब लोग (अद्भिः)
यज्ञशोधित जलों से (आपः) जल और (ओषधीभिः) ओषधियों से (ओषधीः) ओषधियों को (सम्
अग्मत) प्राप्त होओ ॥२८॥
भावार्थभाषाः-
क्षेत्र आदि स्थानों में अनेक ओषधियाँ उत्पन्न होती हैं, ओषधियों से अग्निहोत्र आदि यज्ञ, यज्ञों से शुद्ध
हुए जो जल के परमाणु ऊँचे होते हैं, उन से आकाश भरा रहता है।
इस कारण विद्वान् लोग निर्बुद्धि जनों को खेती बारी ही के कामों में रखते हैं,
क्योंकि वे विद्या का अभ्यास करने को समर्थ ही नहीं होते हैं ॥२७॥
यम॑ग्ने
पृ॒त्सु मर्त्य॒मवा॒ वाजे॑षु॒ यं जु॒नाः। स यन्ता॒ शश्व॑ती॒रिषः॒ स्वाहा॑ ॥२९॥
पद
पाठ
यम्।
अ॒ग्ने॒। पृत्स्विति॑ पृ॒त्ऽसु। मर्त्य॑म्। अवाः॑। वाजे॑षु। यम्। जु॒नाः। सः।
यन्ता॑। शश्व॑तीः। इषः॑। स्वाहा॑ ॥२९॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
वह अध्यापक को क्या कहता है, यह अगले
मन्त्र में उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे (अग्ने) सब कभी विवेक के करनेवाले आप ! (पृत्सु) संग्रामों में (यम्) जिस
मनुष्य की (अवाः) रक्षा करते और (वाजेषु) अन्न आदि पदार्थों की सिद्धि करने के
निमित्त (यम्) जिसको (जुनाः) नियुक्त करते हो (सः) वह (शश्वतीः) निरन्तर अनादिरूप
(इषः) अपनी प्रजाओं का (यन्ता) निर्वाह करने हारा होता है अर्थात् उन के नियमों को
पहुँचाता है ॥२९॥
भावार्थभाषाः-
गुरुजनों की शिक्षा से सब का सुख बढ़ता ही है ॥२९॥
दे॒वस्य॑
त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वे᳕ऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ताभ्याम्। आद॑दे॒ रावा॑सि
गभी॒रमि॒मम॑ध्व॒रं कृ॑धीन्द्रा॑य सु॒षूत॑मम्। उ॒त्त॒मेन॑ प॒विनोर्ज॑स्वन्तं॒
मधु॑मन्तं॒ पय॑स्वन्तं निग्रा॒भ्या᳖ स्थ देव॒श्रुत॑स्त॒र्पय॑त मा॒ ॥३०॥
पद
पाठ
दे॒वस्य॑।
त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑
बा॒हुऽभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। आ। द॒दे॒। रावा॑। अ॒सि॒। ग॒भी॒रम्। इ॒मम्।
अ॒ध्व॒रम्। कृ॒धि॒। इन्द्रा॑य। सु॒षूत॑मम्। सु॒सूत॑मा॒मिति॑ सु॒ऽसूत॑मम्।
उ॒त्त॒मेनेत्यु॑त्ऽत॒मेन॑। प॒विना॑। ऊर्ज्ज॑स्वन्तम्। मधु॑मन्त॒मिति॒ मधु॑ऽमन्तम्।
पय॑स्वन्तम्। निग्रा॒भ्या᳖ इति॑ निऽग्रा॒भ्याः᳖ स्थ॒। दे॒व॒ऽश्रुत॒ इति
देव॒श्रु॒तः॑। त॒र्पय॑त। मा॒ ॥३०॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
सभापति कर-धन देनेवाले प्रजाजनों को कैसे स्वीकार करे, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
सब सुख देने (सवितुः) और समस्त ऐश्वर्य्य के उत्पन्न करनेवाले जगदीश्वर के
(प्रसवे) उत्पन्न किये हुए संसार में (अश्विनोः) सूर्य और चन्द्रमा के
(बाहुभ्याम्) बल और पराक्रम गुणों से (पूष्णः) पुष्टि करनेवाले सोम आदि ओषधिगण के
(हस्ताभ्याम्) रोगनाश करने और धातुओं की समता रखनेवाले गुणों से (त्वा) तुझ कर-धन
देनेवाले को (आददे) स्वीकार करता हूँ। तू (इन्द्राय) परमैश्वर्य्यवाले मेरे लिये
(उत्तमेन) उत्तम अर्थात् सभ्यता की (पविना) वाणी से (इमम्) इस (गभीरम्) अत्यन्त
समझने योग्य (सुषूतमम्) सब पदार्थों से उत्पन्न हुए (ऊर्जस्वन्तम्) राज्य को
बलिष्ठ करनेवाले (मधुमन्तम्) समस्त मधु आदि श्रेष्ठ पदार्थयुक्त (पयस्वन्तम्)
दुग्ध आदि सहित कर-धन को (अध्वरम्) निष्कपट (कृधि) कर दे, (देवश्रुतः) श्रेष्ठ राज्य-गुणों को सुननेवाले तुम मेरे (निग्राभ्यः)
निरन्तर स्वीकार करने के योग्य (स्थ) हो (मा) मुझे इस कर के देने से (तर्प्पयत)
तृप्त करो ॥३०॥
भावार्थभाषाः-
प्रजाजनों की योग्यता है कि सभाध्यक्ष को प्राप्त होकर उस के लिये अपने समस्त
पदार्थों से यथायोग्य भाग दें, जिस कारण
राजा, प्रजापालन के लिये संसार में उत्पन्न हुआ है, इसी से राज्य करनेवाला यह राजा संसार के पदार्थों का अंश लेनेवाला होता है
॥३०॥
मनो॑
मे तर्पयत॒ वाचं॑ मे तर्पयत प्रा॒णं मे॑ तर्पयत॒ चक्षु॑र्मे तर्पयत॒ श्रोत्रं॑ मे
तर्पयता॒त्मानं॑ मे तर्पयत प्र॒जां मे॑ तर्पयत प॒शून् मे॑ तर्पयत ग॒णान्मे॑ तर्पयत
ग॒णा मे॒ मा वितृ॑षन् ॥३१॥
पद
पाठ
मनः॑।
मे॒। त॒र्प॒य॒त॒। वाच॑म्। मे॒। त॒र्प॒य॒त॒। प्रा॒णम्। मे॒। त॒र्प॒य॒त॒। चक्षुः॑।
मे॒। त॒र्प॒य॒त॒। श्रोत्र॑म्। मे॒। त॒र्प॒य॒त॒। आ॒त्मान॑म्। मे॒। त॒र्प॒य॒त॒। प्र॒जामिति॑
प्र॒ऽजाम्। मे॒। त॒र्प॒य॒त॒। प॒शून्। मे॒। त॒र्प॒य॒त॒। ग॒णान्। मे॒। त॒र्प॒य॒त॒।
ग॒णाः। मे॒। मा। वि। तृ॒ष॒न् ॥३१॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
राजा अपने सभासदों और सभा राजा को क्या उपदेश करे, यह अगले मन्त्र में उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे सभ्यजनो और प्रजाजनो ! तुम अपने गुणों से (मे) मेरे (मनः) मन को (तर्प्पयत)
तृप्त करो, (मे) मेरी (वाचम्) वाणी की
(तर्प्पयत) तृप्त करो, (मे) मेरे (प्राणम्) प्राण को
(तर्प्पयत) तृप्त करो, (मे) मेरे (चक्षुः) नेत्रों को
(तर्प्पयत) तृप्त करो, (मे) मेरे (श्रोत्रम्) कानों को
(तर्प्पयत) तृप्त करो, (मे) मेरे (आत्मानम्) आत्मा को
(तर्प्पयत) तृप्त करो, (मे) मेरी (प्रजाम्) सन्तानादि प्रजा
को (तर्प्पयत) तृप्त करो, (मे) मेरे (पशून्) गौ, हाथी, घाड़े आदि पशुओं को (तर्प्पयत) तृप्त करो,
(मे) मेरे (गणान्) सेवकों को (तर्प्पयत) तृप्त करो, जिससे (मे) मेरे (गणाः) राज्य वा प्रजा कर्माधिकारी वा सेवकजन कामों में
(मा) मत (वितृषन्) उदास हों ॥३१॥
भावार्थभाषाः-
राज्य का प्रबन्ध सभाधीन ही होने के योग्य है, जिससे प्रजाजन राजसेवक और राजपुरुष प्रजा की सेवा करने हारे अपने-अपने
कामों में प्रवृत्त होके सब प्रकार एक-दूसरे को आनन्दित करते रहें ॥३१॥
इन्द्रा॑य
त्वा॒ वसु॑मते रु॒द्रव॑त॒ऽइन्द्रा॑य त्वादि॒त्यव॑त॒ऽइन्द्रा॑य त्वाभिमाति॒घ्ने।
श्ये॒नाय॑ त्वा सोम॒भृते॒ऽग्नये॑ त्वा रायस्पोष॒दे ॥३२॥
पद
पाठ
इन्द्रा॑य।
त्वा॒। वसु॑मत॒ इति॒ वसु॑ऽमते। रु॒द्रव॑त॒ इति॑ रु॒द्रऽव॑ते। इन्द्रा॑य। त्वा॒।
आ॒दि॒त्यव॑त॒ इत्या॑दित्यऽव॑ते। इन्द्रा॑य। त्वा॒। अ॒भि॒मा॒ति॒घ्न
इत्य॑भिमाति॒ऽघ्ने। श्ये॒नाय॑। त्वा॒। सो॒म॒भृत॒ इति॑ सोम॒ऽभृते॑। अ॒ग्नये॑। त्वा॒।
रा॒य॒स्पो॒ष॒द इति॑ रायस्पोष॒दे ॥३२॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
जो
राज्य व्यवहार सभा के ही आधीन हो तो किसलिये प्रजाजनों को सभापति का स्वीकार करना
चाहिये, यह अगले मन्त्र में उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे सभापते ! (वसुमते) जिस कर्म में चौबीस वर्ष ब्रह्मचर्य्य सेवन कर अच्छे-अच्छे
विद्वान् होते हैं, (रुद्रवते) जिस में चवालीस
वर्ष तक ब्रह्मचर्य्य सेवन करते हैं, उस (इन्द्राय) परमैश्वर्य्ययुक्त
पुरुष के लिये (त्वा) आप को ग्रहण करते हैं। (आदित्यवते) जिसमें अड़तालीस वर्ष तक
ब्रह्मचर्य्य सेवन कर सूर्य्यसदृश परम विद्वान् होते हैं, उस
(इन्द्राय) उत्तम गुण पाने के लिये (त्वा) आप के (अभिमातिघ्ने) जिस कर्म में
बड़े-बड़े अभिमानी शत्रुजन मारे जायें, उस (इन्द्राय)
परमोत्कृष्ट शत्रुविदारक काम के लिये (त्वा) आप (सोमभृते) उत्तम ऐश्वर्य धारण करने
हारे (श्येनाय) युद्धादि कामों में श्येनपक्षी के तुल्य लपट-भपट मारनेवाले (त्वा)
आप (रायस्पोषदे) धन की दृढ़ता देने के लिये और (अग्नये) विद्युद् आदि पदार्थों के
गुण प्रकाश कराने के लिये (त्वा) आपको हम स्वीकार करते हैं ॥३२॥
भावार्थभाषाः-
जो इन्द्र, अग्नि, यम,
सूर्य, वरुण और धनाढ्य के गुणों से युक्त,
विद्वानों का प्रिय, विद्या का प्रचार
करनेवाला सबको सुख देवे, उसी को राजा मानना चाहिये ॥३२॥
यत्ते॑
सोम दि॒वि ज्योति॒र्यत्पृ॑थि॒व्यां यदु॒राव॒न्तरि॑क्षे। तेना॒स्मै यज॑मानायो॒रु
रा॒ये कृ॒ध्यधि॑ दा॒त्रे वो॑चः ॥३३॥
पद
पाठ
यत्।
ते॒। सो॒म॒। दि॒वि। ज्योतिः॑। यत्। पृ॒थि॒व्याम्। यत्। उ॒रौ। अ॒न्तरि॑क्षे। तेन॑।
अ॒स्मै। यज॑मानाय। उ॒रु। रा॒ये। कृ॒धि॒। अधि॑। दात्रे॒। वो॒चः॒ ॥३३॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
ऐसा
सभापति प्रजा को क्या लाभ पहुँचा सकता है, यह
अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे (सोम) समस्त ऐश्वर्य के निमित्त प्रेरणा करने हारे सभापति ! (ते) तेरा (यत्) जो
(दिवि) सूर्यलोक में (पृथिव्याम्) पृथिवी में और (यत्) जो (उरौ) विस्तृत
(अन्तरिक्षे) आकाश में (ज्योतिः) जैसे ज्योति हो, वैसा राजकर्म है (तेन) उससे तू (अस्मै) इस परोपकार के अर्थ (यजमानाय) यज्ञ
करते हुए यजमान के लिये (उरु) (कृधि) अत्यन्त उपकार कर तथा (राये) धन बढ़ने के
लिये (अधि, वोचः) अधिक-अधिक राज्य-प्रबन्ध कर ॥३३॥
भावार्थभाषाः-
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सभापति राजा अपने राज्य के उत्कर्ष से सब
जनों को निरालस्य करता रहे, जिससे वे
पुरुषार्थी होकर धनादि पदार्थों को निरन्तर बढ़ावें ॥३३॥
श्वा॒त्रा
स्थ॑ वृत्र॒तुरो॒ राधो॑गूर्त्ताऽअ॒मृत॑स्य॒ पत्नीः॑। ता दे॑वीर्देव॒त्रेमं य॒ज्ञं
न॑य॒तोप॑हूताः॒ सोम॑स्य पिबत ॥३४॥
पद
पाठ
श्वा॒त्राः।
स्थ॒। वृ॒त्र॒तुर॒ इति॑ वृत्र॒ऽतुरः॑। राधो॑गूर्त्ता॑ इति॑ राधः॑ऽगूर्त्ताः। अ॒मृत॑स्य।
पत्नीः॑। ताः। दे॒वीः॒। दे॒व॒त्रेति॑ देव॒ऽत्रा। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। न॒य॒त॒। उप॑हूता॒
इत्यु॑पऽहूताः। सोम॑स्य। पि॒ब॒त॒ ॥३४॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
उक्त सभाध्यक्षादिकों की स्त्री कैसे कर्म्म करनेवाली हों, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे (देवीः) विद्यायुक्त स्त्रियो ! तुम (वृत्रतुरः) बिजुली के सदृश, मेघ की वर्षा के तुल्य, सुखदायक की गति तुल्य चलने
(राधोगूर्त्ताः) धन का उद्योग करने (पत्न्यः) और यज्ञ में सहाय देनेवाली (स्थ) हो
(देवत्रा) तथा अच्छे-अच्छे गुणों से प्रकाशित विद्वान् पतियों में प्रीति से स्थित
हो, (इमम्) इस यज्ञ को (नयत) सिद्धि को प्राप्त किया कीजिये
और (उपहूताः) बुलाई हुई पतियों के साथ (अमृतस्य) अति स्वाद-युक्त सोम आदि ओषधियों
के रस को (पिबत) पीओ ॥३४॥
भावार्थभाषाः-
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वानों की पत्नी स्त्रीजन स्वधर्म
व्यवहार से अपने पतियों को प्रसन्न करती हैं, उसी
प्रकार पुरुष उन अपनी स्त्रियों को निरन्तर प्रसन्न करें, ऐसे
परस्पर अनुमोद से गृहाश्रमधर्म को पूर्ण करें ॥३४॥
मा
भे॒र्मा संवि॑क्था॒ऽऊर्जं॑ धत्स्व॒ धिष॑णे वी॒ड्वी स॒ती वी॑डयेथा॒मूर्जं॑ दधाथाम्।
पा॒प्मा ह॒तो न सोमः॑ ॥३५॥
पद
पाठ
मा।
भेः॒। मा। सम्। वि॒क्थाः॒। ऊर्ज॑म्। ध॒त्स्व॒। धिष॑णे॒ऽइति॑ धिष॑णे। वीड्वीऽइति॑
वी॒ड्वी। स॒ती॑ऽइति॑ स॒ती। वी॒ड॒ये॒था॒म्। ऊ॑र्जम्। द॒धा॒था॒म्। पा॒प्मा। ह॒तः। न।
सोमः॑ ॥३५॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
स्त्री पुरुष परस्पर कैसा वर्त्ताव वर्त्तें, यह
उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे स्त्री ! तू (विड्वी) शरीरात्मबलयुक्त होती हुई पति से (मा, भेः) मत डर (मा संविक्थाः) मत कँप और (ऊर्ज्जम्) देह और आत्मा के बल और
पराक्रम को (धत्स्व) धारण कर। हे पुरुष ! तू भी वैसे ही अपनी स्त्री से वर्त। तुम
दोनों स्त्री-पुरुष (धिषणे) सूर्य्य और भूमि के समान परोपकार और पराक्रम को धारण
करो, जिससे (वीडयेथाम्) दृढ़ बलवाले हो, ऐसा वर्ताव वर्त्तते हुए तुम दोनों का (पाप्मा) अपराध (हतः) नष्ट हो और
(सोमः) चन्द्र के तुल्य आनन्द शान्त्यादि गुण बढ़ा कर एक-दूसरे का आनन्द बढ़ाते
रहो ॥३५॥
भावार्थभाषाः-
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। स्त्री-पुरुष ऐसे व्यवहार में वर्त्तें कि
जिससे उनका परस्पर भय, उद्वेग नष्ट होकर आत्मा
की दृढ़ता, उत्साह और गृहाश्रम व्यवहार की सिद्धि से
ऐश्वर्य्य बढ़े और दोष तथा दुःख को छोड़ चन्द्रमा के तुल्य आह्लादित हों ॥३५॥
प्रागपा॒गुद॑गध॒राक्स॒र्वत॑स्त्वा॒
दिश॒ऽआधा॑वन्तु। अम्ब॒ निष्प॑र॒ सम॒रीर्वि॑दाम् ॥३६॥
पद
पाठ
प्राक्।
अपा॑क्। उद॑क्। अ॒ध॒राक्। स॒र्वतः॑। त्वा॒। दिशः॑। आ। धा॒व॒न्तु॒। अम्ब॑। निः।
प॒र॒। सम्। अ॒रीः। वि॒दा॒म् ॥३६॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
उनके पुत्र क्या-क्या करें और वे पुत्रों को कैसे पालें, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे (अम्ब) प्रेम से प्राप्त होनेवाली माता ! जो तेरी (अरीः) सन्तानादि प्रजा
(प्राक्) पूर्व (अपाक्) पश्चिम (उदक्) उत्तर (अधराक्) दक्षिण और भी (सर्वतः) सब
(दिशः) दिशाओं से (त्वा) तुझे (आ) (धावन्तु) धाय-धाय प्राप्त हों, उन्हें (निः) निरन्तर (पर) प्यार कर और वे भी तुझे (सम्) अच्छे भाव से
जानें ॥३६॥
भावार्थभाषाः-
माता और पिता को योग्य है कि अपने सन्तानों को विद्यादि अच्छे-अच्छे गुणों मे
प्रवृत्त कराकर अच्छे प्रकार उन के शरीर की रक्षा करें अर्थात् जिससे वे नीरोग
शरीर और उत्साह के साथ गुण सीखें और उन पुत्रों को योग्य है कि माता-पिता की सब
प्रकार से सेवा करें ॥३६॥
त्वम॒ङ्ग
प्रश॑ꣳसिषो दे॒वः श॑विष्ठ॒ मर्त्य॑म्। न त्वद॒न्यो म॑घवन्नस्ति मर्डि॒तेन्द्र॒
ब्रवी॑मि ते॒ वचः॑ ॥३७॥
पद
पाठ
त्वम्।
अ॒ङ्ग। प्र॒। श॒ꣳसि॒षः॒। दे॒वः। श॒वि॒ष्ठ॒। मर्त्य॑म्। न। त्वत्। अ॒न्यः। म॒घ॒व॒न्निति॑
मघऽवन्। अ॒स्ति॒। म॒र्डि॒ता। इन्द्र॑। ब्र॒वीमि॒। ते॒। वचः॑ ॥३७॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
प्रजाजन किये हुए सभापति की प्रशंसा कैसे करें, यह अगले मन्त्र में उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे (अङ्ग) (शविष्ठ) अत्यन्त बलयुक्त (मघवन्) महाराज के समान (इन्द्र) ऋद्धि-सिद्धि
देनेहारे सभापते ! (त्वम्) आप (मर्त्यम्) प्रजास्थ मनुष्य को (प्रशंसिषः) प्रशंसायुक्त
कीजिये। आप (देवः) देव अर्थात् शत्रुओं को अच्छे प्रकार जीतनेवाले हैं (न) नहीं
(त्वदन्यः) तुमसे अन्य (मर्डिता) सुख देनेवाला है, ऐसा मैं (ते) आप को (वचः) पूर्वोक्त राज्यप्रबन्ध के अनुकूल वचन (ब्रवीमि)
कहता हूँ ॥३७॥
भावार्थभाषाः-
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे ईश्वर सर्वसुहृत्, पक्षपातरहित है, वैसे सभापति राज्यधर्म्मानुवर्त्ती
राजा होकर प्रशंसनीय की प्रशंसा, निन्दनीय की निन्दा,
दुष्ट को दण्ड, श्रेष्ठ की रक्षा करके सब का
अभीष्ट सिद्ध करे ॥३७॥
इस
अध्याय में राज्य के अभिषेकपूर्वक शिक्षा, राज्य
का कृत्य, प्रजा को राजा का आश्रय, सभाध्यक्षादिकों
का काम, विष्णु का परमपद वर्णन, सभाध्यक्ष
को ईश्वरोपासना करनी, राजा प्रजा का आपस में कृत्य, गुरु को शिष्य का स्वीकार और उस शिष्य को शिक्षा करना, यज्ञ का अनुष्ठान, होम किये द्रव्य के फल का वर्णन,
विद्वानों के लक्षण, मनुष्यकृत्य, मनुष्यों का परस्पर वर्तमान, दुष्ट दोष निवृत्ति फल,
ईश्वर से क्या-क्या प्रार्थना करनी चाहिये, रण
में योद्धा का वर्णन, युद्धकृत्य का निरूपण, युद्ध में परस्पर वर्ताव का प्रकार, वीरों को उत्साह
देना, राज्यप्रबन्ध का करना और साध्य साधन, राजा के प्रति ईश्वरोपदेश, राज्यकर्म का अनुष्ठान,
राजा और प्रजा का कृत्य, राजा और प्रजा की
सभाओं का परस्पर वर्ताव, प्रजा से सभापति का उत्कर्ष करना,
प्रजाजन के प्रति सभापति की प्रेरणा, प्रजा को
स्वीकार करने के योग्यल सभापति का लक्षण, प्रजा और राजसभा की
परस्पर प्रतिज्ञा करनी, सभापति के स्वीकार करने का प्रयोजन,
प्रजासुख के लिये सभापति के कामों का अनुष्ठान, सभापत्यादिकों की पत्नियों को क्या करना चाहिये, स्त्री
पुरुषों का परस्पर वर्ताव, माता पिता के प्रति सन्तानों का
काम और सभापति के प्रति प्रजाजनों का उपदेश वर्णन है, इस से
पञ्चम अध्याय में कहे हुए अर्थों के साथ इस छठे अध्याय के अर्थों की सङ्गति है,
ऐसा जानना चाहिये ॥
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