यजुर्वेद अध्याय 7, हिन्दी भाष्य महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती
वा॒चस्पत॑ये
पवस्व॒ वृष्णो॑ऽअ॒ꣳशुभ्यां॒ गभ॑स्तिपूतः। दे॒वो दे॒वेभ्यः॑ पवस्व॒ येषां॑
भा॒गोऽसि॑ ॥१॥
पद
पाठ
वा॒चः।
पत॑ये। प॒व॒स्व॒। वृष्णः॑। अ॒ꣳशुभ्या॒मित्य॒ꣳशुऽभ्या॑म्। गभ॑स्तिपूत॒ इति॒
गभ॑स्तिऽपूतः॒। दे॒वः। दे॒वेभ्यः॑। प॒व॒स्व॒। येषा॑म्। भा॒गः। असि॑ ॥१॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
इस
सप्तम अध्याय के प्रथम मन्त्र में सृष्टि के निमित्त बाहर और भीतर के व्यवहार का
उपदेश है ॥
पदार्थान्वयभाषाः-
हे मनुष्य तू (वाचः) वाणी के (पतये) पालन हारे ईश्वर के लिये (पवस्व) पवित्र हो, (वृष्णः) बलवान् पुरुष के (अंशुभ्याम्) भुजाओं के समान बाहर-भीतर वा
व्यवहार होने के लिये जैसे (गभस्तिपूतः) सूर्य्य की किरणों से पदार्थ पवित्र जैसे
होते हैं, वैसे शास्त्रों से (देवः) दिव्य-गुण युक्त
विद्वान् होकर (येषाम्) जिन विद्वानों की (भागः) सेवन करने के योग्य है, उन (देवेभ्यः) देवों के लिये (पवस्व) पवित्र हो ॥१॥
भावार्थभाषाः-
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सब जीवों को योग्य है कि वेदों की रक्षा
करनेवाले नित्य पवित्र परमात्मा को जान और विद्वानों के सङ्ग से विद्यादि उत्तम
गुणों में निष्णात होकर सत्यवाणी को बोलनेवाले हों ॥१॥
मधु॑मतीर्न॒ऽइष॑स्कृधि॒
यत्ते॑ सो॒मादा॑भ्यं॒ नाम॒ जागृ॑वि॒ तस्मै॑ ते सोम॒ सोमा॑य॒ स्वाहा॒
स्वाहो॒र्व᳕न्तरि॑क्ष॒मन्वे॑मि ॥२॥
पद
पाठ
मधु॑मती॒रिति॒
मधु॑ऽमतीः। नः॒। इषः॑। कृ॒धि॒। यत्। ते॒। सो॒म॒। अदा॑भ्यम्। नाम॑। जागृ॑वि।
तस्मै॑। ते॒। सो॒म॒। सोमा॑य। स्वाहा॑। स्वाहा॑। उ॒रु। अ॒न्तरि॑क्षम्। अनु॑। ए॒मि॒
॥२॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
मनुष्य
लोग परस्पर व्यवहार में कैसे वर्त्तें, यह अगले
मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे (सोम) ऐश्वर्य्ययुक्त विद्वन् ! आप (नः) हम लोगों के लिये (मधुमतीः)
मधुरादिगुणसहित (इषः) अन्न आदि पदार्थों को (कृधि) कीजिये तथा हे (सोम) शुभकर्मों
में प्रेरणा करनेवाले विद्वन् ! मैं (यत्) जिससे (ते) आपका (अदाभ्यम्) अहिंसनीय
अर्थात् रक्षा करने के योग्य (जागृवि) प्रसिद्ध (नाम) नाम है, (तस्मै) उस (सोमाय) ऐश्वर्य्य की प्राप्ति और (ते) आपके लिये अर्थात् आपकी
आज्ञा वर्त्तने के लिये (स्वाहा) सत्यधर्म्म-युक्त क्रिया (स्वाहा) सत्य वाणी और
(उरु) (अन्तरिक्षम्) अवकाश को (अनु, एमि) प्राप्त होता हूँ
॥२॥
भावार्थभाषाः
-मनुष्य जैसे अपने सुख के लिये अन्न जलादि पदार्थों को सम्पादन करें, वैसे ही औरों के लिये भी दिया करें। जैसे कोई मनुष्य अपनी प्रशंसा करे,
वैसे ही औरों की आप भी किया करें। जैसे विद्वान् लोग अच्छे गुणवाले
होते हैं, वैसे आप भी हों ॥२॥
स्वाङ्कृ॑तोऽसि॒
विश्वे॑भ्यऽइन्द्रि॒येभ्यो॑ दि॒व्येभ्यः॒ पार्थि॑वेभ्यो॒ मन॑स्त्वाष्टु॒ स्वाहा॑
त्वा सुभव॒ सूर्या॑य दे॒वेभ्य॑स्त्वा मरीचि॒पेभ्यो॒ देवा॑ᳬशो॒ यस्मै॒ त्वेडे॒
तत्स॒त्यमु॑परि॒प्रुता॑ भ॒ङ्गेन॑ ह॒तो᳕ऽसौ फट् प्रा॒णाय॑ त्वा व्या॒नाय॑ त्वा ॥३॥
पद
पाठ
स्वाङ्कृ॑त॒
इति॒ स्वाम्ऽकृ॑तः। अ॒सि॒। विश्वे॑भ्यः। इ॒न्द्रि॒येभ्यः॑। दि॒व्येभ्यः॑।
पार्थि॑वेभ्यः। मनः॑। त्वा॒। अ॒ष्टु॒। स्वाहा॑। त्वा॒। सु॒भ॒वेति॑ सुऽभव।
सूर्य्या॑य। दे॒वेभ्यः॑। त्वा॒। म॒री॒चि॒पेभ्य॒ इति॑ मरीचि॒ऽपेभ्यः॑। देव॑। अ॒ᳬशो॒ऽइत्य॑ᳬऽशो॒।
यस्मै॑। त्वा॒। ईडे॑। तत्। स॒त्यम्। उ॒प॒रि॒प्रुतेत्यु॑परि॒ऽप्रुता। भ॒ङ्गेन॑।
ह॒तः। अ॒सौ। फट्। प्रा॒णाय॑। त्वा॒। व्या॒नायेति॑ विऽआ॒नाय॑। त्वा॒ ॥३॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
अगले मन्त्र में आत्मक्रिया का निरूपण किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे (अंशो) सूर्य्य के तुल्य प्रकाशमान ! जो तू (दिव्येभ्यः) दिव्य (विश्वेभ्यः)
समस्त (पार्थिवः) पृथिवी पर प्रसिद्ध (इन्द्रियेभ्यः) इन्द्रियों और (मरीचिपेभ्यः)
किरणों के समान पवित्र करनेवाले (देवेभ्यः) विद्वानों और वायु आदि पदार्थों के
लिये (स्वाङ्कृत) स्वयंसिद्ध (असि) है, उस (त्वा)
तुझ को (मनः) विज्ञान और (स्वाहा) वेद वाणी (अष्टु) प्राप्त हों। हे (सुभव) श्रेष्ठ
गुणवान् ! (यस्मै) जिस (सूर्य्याय) सर्वप्रेरक चराचरात्मा परमेश्वर के लिये (त्वा)
तेरी (ईडे) प्रशंसा करता हूँ, तू भी (तत्) उस प्रशंसा के
योग्य (सत्यम्) सत्य परमात्मा को प्रीति से ग्रहण कर (उपरिप्रुता) सबसे उत्तम
उत्कर्ष पाने हारे तूने (भङ्गेन) मर्दन से (असौ) यह अज्ञानरूप शत्रु (फट्) झट
(हतः) मारा उस (त्वा) तुझे (प्राणाय) जीवन के लिये प्रशंसित करता और (व्यानाय)
विविध प्रकार के सुख प्राप्त करने के लिये (त्वा) तुझे प्रशंसा देता हूँ ॥३॥
भावार्थभाषाः
-जीव आप ही स्वयंसिद्ध अनादिरूप है, इनसे इनको
चाहिये कि देह, प्राण, इन्द्रियों और
अन्तःकरण को निर्मल धर्म्मयुक्त व्यवहारों में प्रवृत्त होकर, परमेश्वर की उपासना में स्थिर हों तथा पुरुषार्थ से दुष्टों को झट-पट मार
और भलों की रक्षा करके आनन्दित रहें ॥३॥
उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽस्य॒न्तर्य॑च्छ
मघवन् पा॒हि सोम॑म्। उ॒रु॒ष्य राय॒ऽएषो॑ यजस्व ॥४॥
पद
पाठ
उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒
इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। अ॒न्तः। य॒च्छ॒। म॒घ॒व॒न्निति॑ मघऽवन्। पा॒हि॒।
सोम॑म्। उ॒रु॒ष्य। रायः॑। आ। इषः॑। य॒ज॒स्व॒ ॥४॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
मन से आत्मा के बीच में कैसे प्रयत्न करे, यह
उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे योग चाहनेवाले ! जिससे तू (उपयामगृहीतः) योग में प्रवेश करनेवाले नियमों से
ग्रहण किये हुए के समान (असि) है, इस कारण
(अन्तः) भीतरले जो प्राणादि, पवन, मन
और इन्द्रियाँ हैं, इनको (यच्छ) नियम में रख। हे (मघवन्)
परमपूजित धनी के समान ! तू (सोमम्) योगविद्यासिद्ध ऐश्वर्य्य को (पाहि) रक्षा कर
और जो अविद्यादि क्लेश हैं, उनको (उरुष्य) अत्यन्त योगविद्या
के बल से नष्ट कर, जिससे (रायः) ऋद्धि और (इषः)
इच्छासिद्धियों को (आयजस्व) अच्छे प्रकार प्राप्त हो ॥४॥
भावार्थभाषाः
-इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। योग जिज्ञासु पुरुष को चाहिये कि यम, नियम आदि योग के अङ्गों से चित्त आदि अन्तःकरण की वृत्तियों को रोक और
अविद्यादि दोषों का निवारण करके संयम से ऋद्धि सिद्धियों को सिद्ध करें ॥४॥
अ॒न्तस्ते॒
द्यावा॑पृथि॒वी द॑धाम्य॒न्तर्द॑धाम्यु॒र्व᳕न्तरि॑क्षम्। स॒जूर्दे॒वेभि॒रव॑रैः॒
परै॑श्चान्तर्या॒मे म॑घवन् मादयस्व ॥५॥
पद
पाठ
अ॒न्तरित्य॒न्तः।
ते॒। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। द॒धा॒मि॒। अ॒न्तः। द॒धा॒मि॒। उ॒रु।
अ॒न्तरि॑क्षम्। स॒जूरिति॑ स॒ऽजूः। दे॒वेभिः॑। अव॑रैः। परैः॑। च॒। अ॒न्त॒र्य्याम
इत्य॑न्तःऽया॒मे। म॒घ॒वन्निति॑ मघऽवन्। मा॒द॒य॒स्व॒ ॥५॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
ईश्वर, जो योग में प्रथम ही प्रवृत्त होता है,
उसके लिये विज्ञान का उपदेश अगले मन्त्र से करता है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे (मघवन्) योगी ! मैं परमेश्वर (ते) तेरे (अन्तः) हृदयाकाश में (द्यावापृथिवी)
सूर्य्य-भूमि के समान विज्ञानादि पदार्थों को (दधामि) स्थापित करता हूँ तथा (उरु)
विस्तृत (अन्तरिक्षम्) अवकाश को (अन्तः) शरीर के भीतर (दधामि) धरता हूँ (सजूः)
मित्र के समान तू (देवेभिः) विद्वानों से विद्या को प्राप्त हो के (अवरैः) (परैः)
(च) थोड़े वा बहुत योग व्यवहारों से (अन्तर्य्यामे) भीतरले नियमों में वर्त्तमान
होकर अन्य सब को (मादयस्व) प्रसन्न किया कर ॥५॥
भावार्थभाषाः
-इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। ईश्वर का यह उपदेश है कि ब्रह्माण्ड में
जिस प्रकार के जितने पदार्थं हैं, उसी प्रकार
के उतने ही मेरे ज्ञान में वर्त्तमान हैं। योगविद्या को नहीं जाननेवाला उनको नहीं
देख सकता और मेरी उपासना के विना कोई योगी नहीं हो सकता है ॥५॥
देवता:
योगी देवता ऋषि: गोतम ऋषिः छन्द: भुरिक् त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
स्वाङ्कृ॑तोऽसि॒
विश्वे॑भ्यऽइन्द्रि॒येभ्यो॑ दि॒व्येभ्यः॒ पार्थि॑वेभ्यो॒ मन॑स्त्वाष्टु॒ स्वाहा॑
त्वा सुभव॒ सूर्या॑य दे॒वेभ्य॑स्त्वा मरीचि॒पेभ्य॑ऽउदा॒नाय॑ त्वा ॥६॥
पद
पाठ
स्वाङ्कृ॑त॒
इति॒ स्वाम्ऽकृ॑तः। अ॒सि॒। विश्वे॑भ्यः। इ॒न्द्रि॒येभ्यः। दि॒व्येभ्यः॑।
पार्थि॑वेभ्यः। मनः॑। त्वा॒। अ॒ष्टु॒। स्वाहा॑। त्वा॒। सु॒भ॒वेति॑ सुऽभव। सूर्य्या॑य।
दे॒वेभ्यः॑। त्वा॒। म॒री॒चि॒पेभ्य॒ इति॑ मरीचि॒पेभ्यः॑। उ॒दा॒नायेत्यु॑त्ऽआ॒नाय॑।
त्वा॒ ॥६॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
ईश्वर योगविद्या चाहनेवाले के प्रति उपदेश करता है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे (सुभव) शोभन ऐश्वर्य्य युक्त योगी ! तू (स्वाङ्कृतः) अनादि काल से स्वयंसिद्ध
(असि) है मैं (दिव्येभ्यः) शुद्ध (विश्वेभ्यः) समस्त (देवेभ्यः) प्रशस्त गुण और
प्रशंसनीय पदार्थों से युक्त विद्वानों और (मरीचिपेभ्यः) योग के प्रकाश से युक्त
व्यवहारों से (त्वा) तुझको स्वीकार करता हूँ, (पार्थिवेभ्यः)
पृथिवी पर प्रसिद्ध पदार्थों के लिये भी (त्वा) तुझ को स्वीकार करता हूँ, (सूर्य्याय) सूर्य्य के समान योग प्रकाश करने के लिये वा (उदानाय) उत्कृष्ट
जीवन और बल के अर्थ (त्वा) तुझे ग्रहण करता हूँ, जिससे
(त्वा) तुझ योग चाहनेवाले को (मनः) योग समाधियुक्त मन और (स्वाहा) सत्यानुष्ठान
करने की क्रिया (अष्टु) प्राप्त हो ॥६॥
भावार्थभाषाः
-मनुष्य जब तक श्रेष्ठाचार करनेवाला नहीं होता, तब तक ईश्वर भी उसको स्वीकार नहीं करता, जब तक उसको
ईश्वर स्वीकार नहीं करता है, तब तक उसका पूरा-पूरा आत्मबल
नहीं हो सकता और जब तक आत्मबल नहीं बढ़ता, तब तक उसको
अत्यन्त सुख भी नहीं होता ॥६॥
देवता:
वायुर्देवता ऋषि: वसिष्ठ ऋषिः छन्द: निचृद् जगती स्वर: निषादः
आ
वा॑यो भूष शुचिपा॒ऽउप॑ नः स॒हस्रं॑ ते नि॒युतो॑ विश्ववार। उपो॑ ते॒ऽअन्धो॒
मद्य॑मयामि॒ यस्य॑ देव दधि॒षे पू॑र्व॒पेयं॑ वा॒यवे॑ त्वा ॥७॥
पद
पाठ
आ।
वा॒यो॒ऽइति॑ वायो। भू॒ष॒। शुचि॒पा॒ इति॑ शुचिऽपाः। उप॑ नः॒। स॒हस्र॑म्। ते॒।
नि॒युत॒ इति॑ नि॒ऽयुतः॑। वि॒श्व॒वा॒रेति॑ विश्वऽवार। उपो॒ऽइत्यु॑पो॑। ते॒। अन्धः॑।
मद्य॑म्। अ॒या॒मि॒। यस्य॑। दे॒व॒। द॒धि॒षे। पू॒र्वपेय॒मिति॑ पूर्वऽपेय॑म्।
वा॒यवे॑। त्वा॒ ॥७॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
योगी का कृत्य अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे (शुचिपाः) अत्यन्त शुद्धता को पालने और (वायो) पवन के तुल्य योगक्रियाओं में
प्रवृत्त होनेवाले योगी ! तू (सहस्रम्) हजारों (नियुतः) निश्चित शमादिक गुणों को
(आभूष) सब प्रकार सुभूषित कर। हे (विश्ववार) समस्त गुणों के स्वीकार करनेवाले ! जो
(ते) तेरा (मद्यम्) अच्छी तृप्ति देनेवाला (अन्धः) अन्न है, उसको (उपो) तेरे समीप (अयामि) पहुँचाता हूँ। हे (देव) योगबल से आत्मा को
प्रकाश करनेवाले ! (यस्य) जिस तेरा (पूर्वपेयम्) श्रेष्ठ योगियों की रक्षा करने के
योग्य योगबल है, जिसको तू (दधिषे) धारण कर रहा है, (वायवे) उस योग के जानने के लिये (त्वा) तुझे स्वीकार करता हूँ ॥७॥
भावार्थभाषाः
-इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो योगी प्राण के तुल्य सब को भूषित करता, ईश्वर के तुल्य अच्छे-अच्छे गुणों में व्याप्त होता है और अन्न वा जल के
सदृश सुख देता है, वही योग में समर्थ होता है ॥७॥
देवता:
इन्द्रवायू देवते ऋषि: मधुच्छन्दा ऋषिः छन्द: आर्षी गायत्री, आर्षी स्वराड् गायत्री स्वर: षड्जः
इन्द्र॑वायूऽइ॒मे
सु॒ताऽउप॒ प्रयो॑भि॒राग॑तम्। इन्द॑वो वामु॒शन्ति॒ हि। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि
वा॒यव॑ऽइन्द्रवा॒युभ्यां॑ त्वै॒ष ते॒ योनिः॑ स॒जोषो॑भ्यां त्वा ॥८॥
पद
पाठ
इन्द्र॑वायू॒
इ॒तीन्द्र॑ऽवायू। इ॒मे। सु॒ताः। उप॒ प्रयो॑भि॒रिति॒ प्रयः॑ऽभिः। आ॑गत॒म्। इन्द॑वः।
वा॒म्। उ॒शन्ति॑। हि। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। वा॒यवे॑।
इ॒न्द्रवा॒युभ्या॒मिती॑न्द्रवा॒युऽभ्या॑म्। त्वा॒। ए॒षः। ते। योनिः॑।
स॒जोषो॑भ्यामिति॑ स॒जोषः॑ऽभ्याम्। त्वा॒ ॥८॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
वह योगी कैसा होता है, यह अगले मन्त्र में कहा
है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे (इन्द्रवायू) प्राण और सूर्य्य के समान योगशास्त्र के पढ़ने-पढ़ाने वालो !
(हि) जिससे (इमे) ये (सुताः) उत्पन्न हुए (इन्दवः) सुखकारक जलादि पदार्थ (वाम्) तुम
दोनों को (उशन्ति) प्राप्त होते हैं, इससे तुम
(प्रयोभिः) इन मनोहर पदार्थों के साथ ही (आगतम्) आओ। हे योग चाहनेवाले ! तू इस योग
पढ़ानेवाले अध्यापक से (वायवे) पवन के तुल्य योगसिद्धि को पाने के लिये अथवा योगबल
से चराचर के ज्ञान की प्राप्ति के लिये (उपयामगृहीतः) योग के यम, नियमों के साथ स्वीकार किया गया (असि) है। हे भगवन् योगाध्यापक ! (एषः) यह
योग (ते) तुम्हारा (योनिः) सब दुःखों के निवारण करनेवाले घर के समान है और
(इन्द्रवायुभ्याम्) बिजुली और प्राणवायु के समान योगवृद्धि और समाधि चढ़ाने और
उतारने की शक्तियों से (जुष्टम्) प्रसन्न हुए (त्वा) आपको और हे योग चाहनेवाले !
(सजोषोभ्याम्) सेवन किये हुए उक्त गुणों से प्रसन्न हुए (त्वा) तुझे मैं अपने सुख
के लिये चाहता हूँ ॥८॥
भावार्थभाषाः
-वे ही लोग पूर्ण योगी और सिद्ध हो सकते हैं जो कि योगविद्याभ्यास करके ईश्वर से
लेके पृथिवी पर्य्यन्त पदार्थों को साक्षात् करने का यत्न किया करते और यम, नियम आदि साधनों से युक्त योग में रम रहे हैं और जो इन सिद्धों का सेवन
करते हैं, वे भी इस योगसिद्धि को प्राप्त होते हैं, अन्य नहीं ॥८॥
देवता:
मित्रावरुणौ देवते ऋषि: गृत्समद ऋषिः छन्द: आर्षी गायत्री, आसुरी गायत्री स्वर: षड्जः
अ॒यं
वां॑ मित्रावरुणा सु॒तः सोम॑ऽऋतावृधा। ममेदि॒ह श्रु॑त॒ꣳ हव॑म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि
मि॒त्रावरु॑णाभ्यां त्वा ॥९॥
पद
पाठ
अ॒यम्।
वाम्। मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒। सु॒तः। सोमः॑। ऋ॒ता॒वृ॒धेत्यृ॑तऽवृधा। मम॑। इत्। इ॒ह।
श्रु॒त॒म्। हव॑म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒।
मि॒त्रावरु॑णाभ्याम्। त्वा॒ ॥९॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
अध्यापक और शिष्य का कर्म्म अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे (मित्रावरुणा) प्राण और उदान के समान वर्त्तमान (ऋतावृधा) सत्यविज्ञानवर्द्धक
योगविद्या के पढ़नेवालो ! (वाम्) तुम्हारा (अयम्) यह (सोमः) योग का ऐश्वर्य (सुतः)
सिद्ध किया हुआ है, उससे तुम (इह) यहाँ (मम)
योगविद्या से प्रसन्न होनेवाले मेरी (हवम्) स्तुति को (श्रुतम्) सुनो, हे यजमान ! जिससे तू (उपयामगृहीतः) अच्छे नियमों के साथ स्वीकार किया हुआ
(इत्) ही (असि) है, इससे मैं (मित्रावरुणाभ्याम्) प्राण और
उदान के साथ वर्त्तमान (त्वा) तुझको ग्रहण करता हूँ ॥९॥
भावार्थभाषाः
-इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को उचित है कि इस योगविद्या का
ग्रहण, श्रेष्ठ पुरुषों का उपदेश सुन और यमनियमों
को धारण करके योगाभ्यास के साथ अपना वर्त्ताव रक्खें ॥९॥
देवता:
मित्रावरुणौ देवते ऋषि: त्रिसदस्युर्ऋषिः छन्द: ब्राह्मी बृहती स्वर: मध्यमः
रा॒या
व॒यꣳ स॑स॒वाᳬसो॑ मदेम ह॒व्येन॑ दे॒वा यव॑सेन॒ गावः॑। तां धे॒नुं मि॑त्रावरुणा
यु॒वं नो॑ वि॒श्वाहा॑ धत्त॒मन॑पस्फुरन्तीमे॒ष ते॒ योनि॑र्ऋता॒युभ्यां॑ त्वा ॥१०॥
पद
पाठ
रा॒या।
व॒यम्। स॒स॒वाᳬस॒ इति॑ सस॒ऽवाᳬसः॑। म॒दे॒म॒। ह॒व्ये॑न। दे॒वाः। यव॑सेन। गावः॑।
ताम्। धे॒नुम्। मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒। यु॒वम्। नः॒। वि॒श्वाहा॑। ध॒त्त॒म्।
अन॑पस्फुरन्ती॒मित्यन॑पऽस्फुरन्तीम्। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। ऋ॒ता॒युभ्या॑म्।
ऋ॒त॒युभ्या॑मित्यृ॑तयुऽभ्या॑म्। त्वा॒ ॥१०॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
भी योग पढ़ने-पढ़ानेवालों के कृत्य का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-(हे ससवांसः) भले-बुरे के अलग-अलग करनेवाले (देवाः) विद्वानो ! आप और (वयम्) हम
लोग (यवसेन) तृण, घास, भूसा
से (गावः) गौ आदि पशुओं के समान (हव्येन) ग्रहण करने के योग्य (राया) धन से (मदेम)
हर्षित हों और हे (मित्रावरुणा) प्राण के समान उत्तम जनो ! (युवम्) तुम दोनों (नः)
हमारे लिये (विश्वाहा) सब दिनों में (अनपस्फुरन्तीम्) ठीक-ठीक ज्ञान देनेवाली
(धेनुम्) वाणी को (धत्तम्) धारण कीजिये। हे यजमान ! जिससे (ते) तेरा (एषः) यह विद्याबोध
(योनिः) घर है, इससे (ऋतायुभ्याम्) सत्य व्यवहार चाहनेवालों
के सहित (त्वा) तुझ को हम लोग स्वीकार करते हैं ॥१०॥
भावार्थभाषाः
-इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को चाहिये कि अपने
पुरुषार्थ और विद्वानों के सङ्ग से परोपकार की सिद्धि और कामना को पूर्ण करनेवाली
वेदवाणी को प्राप्त होकर आनन्द में रहें ॥१०॥
देवता:
अश्विनौ देवते ऋषि: मेधातिथिर्ऋषिः छन्द: ब्राह्मी उष्णिक् स्वर: ऋषभः
या
वां॒ कशा॒ मधु॑म॒त्यश्वि॑ना सू॒नृता॑वती। तया॑ य॒ज्ञं मि॑मिक्षितम्।
उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽस्य॒श्विभ्यां॑ त्वै॒ष ते॒ योनि॒र्माध्वी॑भ्यां त्वा ॥११॥
पद
पाठ
या।
वा॒म्। कशा॑। मधु॑मतीति॒ मधु॑ऽमती। अश्वि॑ना। सू॒नृताव॒तीति॑ सू॒नृता॑ऽवती। तया॑।
य॒ज्ञम्। मि॒मि॒क्ष॒त॒म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒।
अ॒श्विभ्या॒मि॒त्य॒श्विऽभ्या॑म्। त्वा॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। माध्वी॑भ्याम्। त्वा॒
॥११॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
भी इन योगविद्या पढ़ने-पढ़ानेवालों के करने योग्य काम का उपदेश अगले मन्त्र में
किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे (अश्विना) सूर्य्य और चन्द्र के तुल्य प्रकाशित योग के पढ़ने-पढ़ानेवालो !
(या) जो (वाम्) तुम्हारी (मधुमती) प्रशंसनीय मधुरगुणयुक्त (सूनृतावती) प्रभात समय
में क्रम-क्रम से प्रदीप्त होनेवाली उषा के समान (कशा) वाणी है, (तया) उससे (यज्ञम्) ईश्वर से सङ्ग कराने हारे योगरूपी यज्ञ को
(मिमिक्षतम्) सिद्ध करना चाहो। हे योग पढ़नेवाले ! तू (उपयामगृहीतः) यम-नियमादिकों
से स्वीकार किया गया (असि) है, (ते) तेरा (एषः) यह योग
(योनिः) घर के समान सुखदायक है, इससे (अश्विभ्याम्) प्राण और
अपान के योगोचित नियमों के साथ वर्त्तमान (त्वा) तुझ और हे योगाध्यापक !
(माध्वीभ्याम्) माधुर्य्य लिये जो श्रेष्ठ नीति और योगरीति हैं, उनके साथ वर्त्तमान (त्वा) आप का हम लोग आश्रय करते हैं अर्थात् समीपस्थ
होते हैं ॥११॥
भावार्थभाषाः
-इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। योगी लोग मधुर प्यारी वाणी से योग सीखनेवालों को
उपदेश करें और अपना सर्वस्व योग ही को जानें तथा अन्य मनुष्य वैसे योगी का सदा
आश्रय किया करें ॥११॥
देवता:
विश्वेदेवा देवताः ऋषि: काश्यप ऋषिः छन्द: निचृद् आर्षी जगती, निचृद् आर्षी पङ्क्तिः स्वर: निषादः, पञ्चमः
तं
प्र॒त्नथा॑ पू॒र्वथा॑ वि॒श्वथे॒मथा॑ ज्ये॒ष्ठता॑तिं बर्हि॒षद॑ꣳ स्व॒र्विद॑म्।
प्र॒ती॒ची॒नं वृ॒जनं॑ दोहसे॒ धुनि॑मा॒शुं जय॑न्त॒मनु॒ यासु॒ वर्ध॑से।
उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि॒ शण्डा॑य त्वै॒ष ते॒ योनि॑र्वी॒रतां॑ पा॒ह्यप॑मृष्टः॒। शण्डो॑
दे॒वास्त्वा॑ शुक्र॒पाः प्रण॑य॒न्त्वना॑धृष्टासि ॥१२॥
पद
पाठ
तम्।
प्र॒त्नथेति॑ प्र॒त्नऽथा॑। पू॒र्वथेति॑ पूर्वऽथा॑। वि॒श्वथेति॑ विश्वऽथा॑।
इ॒मथेती॒मऽथा॑। ज्ये॒ष्ठता॑ति॒मिति॑ ज्ये॒ष्ठऽताति॑म्। ब॒र्हि॒षद॑म्।
ब॒र्हि॒सद॒मिति॑ बर्हिः॒ऽसद॑म्। स्व॒र्विद॒मिति॑ स्वः॒ऽविद॑म्। प्र॒ती॒ची॒नम्।
वृ॒जन॑म्। दो॒ह॒से॒। धुनि॑म्। आ॒शुम्। जय॑न्तम्। अनु॑। यासु॑। वर्द्ध॑से॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒
इ॑त्युपया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। शण्डा॑य। त्वा॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। वी॒रता॑म्।
पा॒हि॒। अप॑मृष्ट॒ इत्यप॑ऽमृष्टः। शण्डः॑। दे॒वाः। त्वा॒। शु॒क्र॒पा इति॑
शुक्र॒ऽपाः। प्र। न॒य॒न्तु॒। अना॑धृष्टा अ॒सि॒ ॥१२॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
भी अगले मन्त्र में योगी के गुणों का उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे योगिन् ! आप (उपयामगृहीतः) योग के अङ्गों अर्थात् शौच आदि नियमों के ग्रहण
करनेवाले (असि) हैं, (ते) आपका (एषः) यह योगयुक्त
स्वभाव (योनिः) सुख का हेतु है। जिस योग से आप (अपमृष्टः) अविद्यादि दोषों से अलग
हुए (शण्डः) शमादि गुणयुक्त (असि) हैं, (यासु) जिन
योगक्रियाओं में आप (वर्द्धसे) वृद्धि को प्राप्त होते हैं और (विश्वथा) समस्त
(प्रत्नथा) प्राचीन महर्षि (पूर्वथा) पूर्वकाल के योगी और (इमथा) वर्त्तमान
योगियों के समान (ज्येष्ठतातिम्) अत्यन्त प्रशंसनीय (बर्हिषदम्) हृदयाकाश में
स्थिर (स्वर्विदम्) सुख लाभ करने (प्रतीचीनम्) अविद्यादि दोषों से प्रतिकूल होने
(आशुम्) शीघ्र सिद्धि देने (जयन्तम्) उत्कर्ष पहुँचाने और (धुनिम्) इन्द्रियों को
कँपानेवाले (वृजनम्) योगबल को (दोहसे) परिपूर्ण करते हैं, (तम्)
उस योगबल को (शुक्रपाः) जो कि योगबल से रक्षा करने हारे (देवाः) योगबल के प्रकाश
से प्रकाशित योगी लोग हैं, वे (त्वा) आप को (प्रणयन्तु)
अच्छे प्रकार पहुँचावें। उस योगबल को प्राप्त हुए (शण्डाय) शमदमादिगुणयुक्त आप के
लिये उसी योग की (अनाधृष्टा) दृढ़ वीरता (असि) हो, आप उस
(वीरताम्) वीरता की (पाहि) रक्षा कीजिये (अनु) वह रक्षा को प्राप्त हुई वीरता
(त्वा) आप को पाले ॥१२॥
भावार्थभाषाः
-इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे योगविद्या की इच्छा करनेवाले ! जैसे शमदमादि
गुणयुक्त पुरुष योगबल से विद्याबल की उन्नति कर सकता है, वही अविद्यारूपी अन्धकार का विध्वंस करनेवाली योगविद्या सज्जनों को
प्राप्त होकर जैसे यथोचित सुख देती है, वैसे आप को दे ॥१२॥
देवता:
विश्वेदेवा देवताः ऋषि: वत्सार काश्यप ऋषिः छन्द: निचृद् आर्षी त्रिष्टुप्, प्राजापत्या गायत्री स्वर: धैवतः, षड्जः
सु॒वीरो॑
वी॒रान् प्र॑ज॒नय॒न् परी॑ह्य॒भि रा॒यस्पोषे॑ण॒ यज॑मानम्। स॒ञ्ज॒ग्मा॒नो दि॒वा
पृ॑थि॒व्या शु॒क्रः शु॒क्रशो॑चिषा॒ निर॑स्तः॒ शण्डः॑ शु॒क्रस्या॑धि॒ष्ठान॑मसि ॥१३॥
पद
पाठ
सु॒वीर॒
इति॑ सु॒ऽवीरः॑। वी॒रान्। प्र॒ज॒नय॒न्निति॑ प्रऽज॒नय॑न्। परि॑। इ॒हि॒। अ॒भि।
रा॒यः। पोषे॑ण। यज॑मानम्। स॒ञ्ज॒ग्मा॒न इति॑ सम्ऽजग्मा॒नः। दि॒वा। पृ॒थि॒व्या।
शु॒क्रः। शु॒क्रशो॑चि॒षेति॑ शु॒क्रऽशो॑चिषा। निर॑स्त॒ इति॒ निःऽअ॑स्तः। शण्डः॑।
शु॒क्रस्य॑। अ॒धि॒ष्ठान॑म्। अ॒धि॒स्थान॒मित्य॑धि॒ऽस्थान॑म्। अ॒सि॒ ॥१३॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
उक्त
योग का अनुष्ठान करनेवाला योगी कैसा होता है, यह
उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे योगिन् ! (सुवीरः) श्रेष्ठ वीर के समान योगबल को प्राप्त हुए आप (वीरान्)
अच्छे-अच्छे गुणयुक्त पुरुषों को (प्रजनयन्) प्रसिद्ध करते हुए (परीहि) सब जगह
भ्रमण कीजिये। इसी प्रकार (यजमानम्) धन आदि पदार्थों को देनेवाले उत्तम पुरुषों के
(अभि) सन्मुख (रायः) धन की (पोषेण) पुष्टि से (सञ्जग्मानः) सङ्गत हूजिये और आप
(दिवा) सूर्य्य और (पृथिव्या) पृथिवी के गुणों के साथ (शुक्रः) अति बलवान्
(शुक्रशोचिषा) सब को शोधनेवाले सूर्य्य की दीप्ति से (निरस्तः) अन्धकार के समान
पृथक् हुए ही योगबल के प्रकाश से विषयवासना से छूटे हुए (शण्डः) शमदमादि गुणयुक्त
(शुक्रस्य) अत्यन्त योगबल के (अधिष्ठानम्) आधार (असि) हैं ॥१३॥
भावार्थभाषाः
-शमदमादि गुणों का आधार योगाभ्यास में तत्पर योगीजन अपनी योगविद्या के प्रचार से
योगविद्या चाहनेवालों का आत्मबल बढ़ाता हुआ सब जगह सूर्य्य के समान प्रकाशित होता
है ॥१३॥
देवता:
विश्वेदेवा देवताः ऋषि: वत्सार काश्यप ऋषिः छन्द: विराड् जगती स्वर: निषादः
अच्छि॑न्नस्य
ते देव सोम सु॒वीर्य॑स्य रा॒यस्पोष॑स्य ददि॒तारः॑ स्याम। सा प्र॑थ॒मा
सँस्कृ॑तिर्वि॒श्ववा॑रा॒ स प्र॑थ॒मो वरु॑णो मि॒त्रोऽअ॒ग्निः ॥१४॥
पद
पाठ
अच्छि॑न्नस्य।
ते॒। दे॒व॒। सो॒म॒। सु॒वीर्य्य॒स्येति॑ सु॒ऽवीर्य्य॑स्य। रा॒यः। पोष॑स्य।
द॒दि॒तारः॑। स्या॒म॒। सा। प्र॒थ॒मा। संस्कृ॑तिः। वि॒श्ववा॒रेति॑ वि॒श्वऽवा॑रा। सः।
प्र॒थ॒मः। वरु॑णः। मि॒त्रः। अ॒ग्निः ॥१४॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
शिष्य के लिये पढ़ाने की युक्ति अगले मन्त्र में कही है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे (देव) योगविद्या चाहनेवाले (सोम) प्रशंसनीय गुणयुक्त शिष्य ! हम अध्यापक लोग
(ते) तेरे लिये (सुवीर्य्यस्य) जिस पदार्थ से शुद्ध पराक्रम बढ़े उसके समान
(अच्छिन्नस्य) अखण्ड (रायः) योगविद्या से उत्पन्न हुए धन की (पोषस्य) दृढ़पुष्टि
के (ददितारः) देनेवाले (स्याम) हों। जो यह (प्रथमा) पहिली (विश्ववारा) सब ही सुखों
के स्वीकार कराने योग्य (संस्कृतिः) विद्यासुशिक्षाजनित नीति है, (सा) वह तेरे लिये इस जगत् में सुखदायक हो और हम लोगों में जो (वरुणः)
श्रेष्ठ (अग्निः) अग्नि के समान सब विद्याओं से प्रकाशित अध्यापक है (सः) वह
(प्रथमः) सब से प्रथम तेरा (मित्रः) मित्र हो ॥१४॥
भावार्थभाषाः
-इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। योगविद्या में सम्पन्न शुद्धचित युक्त योगियों को
योग्य है कि जिज्ञासुओं के लिये नित्य योगविद्या का दान देकर उन्हें शारीरिक और
आत्मबल से युक्त किया करें ॥१४॥
देवता:
विश्वेदेवा देवताः ऋषि: वत्सार काश्यप ऋषिः छन्द: निचृद् ब्राह्मी अनुष्टुप् स्वर:
गान्धारः
स
प्र॑थ॒मो बृह॒स्पति॑श्चिकि॒त्वाँस्तस्मा॒ऽइन्द्रा॑य सु॒तमाजु॑होत॒ स्वाहा॑।
तृ॒म्पन्तु॒ होत्रा॒ मध्वो॒ याः स्वि॑ष्टा॒ याः सुप्री॑ताः॒ सुहु॑ता॒
यत्स्वाहाया॑ड॒ग्नीत् ॥१५॥
पद
पाठ
सः।
प्र॒थ॒मः। बृह॒स्पतिः॑। चि॒कि॒त्वान्। तस्मै॑। इन्द्रा॑य। सु॒तम्। आ। जु॒हो॒त॒।
स्वाहा॑। तृ॒म्पन्तु॑। होत्राः॑। मध्वः॑। याः। स्वि॑ष्टा॒ इति॒ सुऽइ॑ष्टाः। याः।
सुप्री॑ता॒ इति॒ सुऽप्री॑ताः। सुहु॑ता॒ इति॑ सुऽहु॑ताः। यत्। स्वाहा॑। अया॑ट्।
अ॒ग्नीत् ॥१५॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
स्वामी और सेवक के कर्म्म को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे शिष्यो ! तुम लोग जैसे वह पूर्व मन्त्र से प्रतिपादित (प्रथमः) आदि मित्र
(चिकित्वान्) विज्ञानवान् (बृहस्पतिः) सब विद्यायुक्त वाणी का पालनेवाला जिस
ऐश्वर्य्य के लिये प्रयत्न करता है, वैसे
(तस्मै) उस (इन्द्राय) ऐश्वर्य के लिये (स्वाहा) सत्य वाणी और (सुतम्) निष्पादित
श्रेष्ठ व्यवहार का (आजुहोत) अच्छे प्रकार ग्रहण करो और जैसे (यत्) जो (होत्राः)
योग स्वीकार करने के योग्य वा (याः) जो (मध्वः) माधुर्य्यादिगुणयुक्त (स्विष्टाः)
जिनसे कि अच्छे-अच्छे इष्ट काम बनते हैं (याः) वा जो ऐसी हैं कि (सुहुताः) जिनसे
अच्छे प्रकार हवन आदि कर्म्म सिद्ध होते हैं (सुप्रीताः) और अच्छे प्रकार प्रसन्न
रहती हैं, वे विद्वान् स्त्रीजन वा (अग्नीत्) कोई अच्छी
प्रेरणा को प्राप्त हुआ विद्वान् योगी (स्वाहा) सत्यवाणी से (अयाट्) सभों को
सत्कृत करता और तृप्त रहता है। आप लोग उन स्त्रियों और उस योगी के समान
(तृम्पन्तु) तृप्त हूजिये ॥१५॥
भावार्थभाषाः
-इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे योगी विद्वान् और योगिनी विद्वानों
की स्त्रीजन परमैश्वर्य्य के लिये यत्न करें और जैसे सेवक अपने स्वामी का सेवन
करता है, वैसे अन्य पुरुषों को भी उचित है कि उन-उन
कामों में प्रवृत होकर अपनी अभीष्ट सिद्धि को पहुँचे ॥१५॥
देवता:
विश्वेदेवा देवताः ऋषि: वत्सार काश्यप ऋषिः छन्द: निचृद् आर्षी त्रिष्टुप्, साम्नी गायत्री स्वर: षड्जः
अ॒यं
वे॒नश्चो॑दय॒त् पृश्नि॑गर्भा॒ ज्योति॑र्जरायू॒ रज॑सो वि॒माने॑। इ॒मम॒पाᳬ स॑ङ्ग॒मे
सूर्य॑स्य॒ शिशुं॒ न विप्रा॑ म॒तिभी॑ रिहन्ति। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि॒ मर्का॑य त्वा
॥१६॥
पद
पाठ
अ॒यम्।
वे॒नः। चो॒द॒य॒त्। पृश्नि॑गर्भा॒ इति॒ पृश्नि॑ऽगर्भाः। ज्योति॑र्जरायु॒रिति॒
ज्योतिः॑ऽजरायुः। रज॑सः। वि॒मान॒ इति॑ वि॒ऽमाने॑। इ॒मम। अ॒पाम्। स॒ङ्ग॒म इति॑
सम्ऽग॒मे। सूर्य्य॑स्य। शिशु॑म्। न। विप्राः॑। म॒तिभि॒रिति॑ म॒तिऽभिः॑।
रि॒ह॒न्ति॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। मर्का॑य। त्वा॒ ॥१६॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
सभाध्यक्ष राजा को क्या करना चाहिये, इस विषय का
उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे शिल्पविधि के जाननेवाले सभाध्यक्ष विद्वन् ! आप (उपयामगृहीतः) सेना आदि राज्य
के अङ्गों से युक्त (असि) हैं, इससे मैं
(रजसः) लोकों के मध्य (पृश्निगर्भाः) जिनमें अवकाश अधिक है, उन
लोगों के (ज्योतिर्जरायुः) तारागणों को ढाँपनेवाले के समान (अयम्) यह (वेनः) अति
मनोहर चन्द्रमा (चोदयत्) यथायोग्य अपने-अपने मार्ग में अभियुक्त करता है, (इमम्) इस चन्द्रमा को (अपाम्) जलों और (सूर्य्यस्य) सूर्य्य के (सङ्गमे)
सम्बन्धी आकर्षणादि विषयों में (शिशुम्) शिक्षा के योग्य बालक को (मतिभिः)
विद्वान् लोग अपनी बुद्धियों से (रिहन्ति) सत्कार कर के (न) समान आदर के साथ ग्रहण
कर रहे हैं और मैं (मर्काय) दुष्टों को शान्त करने और श्रेष्ठ व्यवहारों के स्थापन
करने के लिये (विमाने) अनन्त अन्तरिक्ष में (त्वा) तुझे विविध प्रकार के यान बनाने
के लिये स्वीकार करता हूँ ॥१६॥
भावार्थभाषाः
-सभाध्यक्ष को चाहिये कि सूर्य्य और चन्द्रमा के समान श्रेष्ठ गुणों को प्रकाशित
और दुष्ट व्यवहारों को शान्त करके श्रेष्ठ व्यवहार से सज्जन पुरुषों को आह्लाद
देवें ॥१६॥
देवता:
विश्वेदेवा देवताः ऋषि: वत्सार काश्यप ऋषिः छन्द: स्वराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप्
स्वर: धैवतः
मनो॒
न येषु॒ हव॑नेषु ति॒ग्मं विपः॒ शच्या॑ वनु॒थो द्र॑वन्ता। आ यः
शर्या॑भिस्तुविनृ॒म्णोऽअ॒स्याश्री॑णीता॒दिशं॒ गभ॑स्तावे॒ष ते॒ योनिः॑ प्र॒जाः
पा॒ह्यप॑मृष्टो॒ मर्को॑ दे॒वास्त्वा॑ मन्थि॒पाः प्रण॑य॒न्त्वना॑धृष्टासि ॥१७॥
पद
पाठ
मनः॑।
न। येषु॑। हव॑नेषु। ति॒ग्मम्। विपः॑। शच्या॑। व॒नु॒थः। द्र॑वन्ता। आ। यः।
शर्य्या॑भिः। तुवि॒नृम्ण इति॑ तुविऽनृ॒म्णः। अ॒स्य॒। अश्री॑णीत।
आ॒दिश॒मित्या॒ऽदिश॑म्। गभ॑स्तौ। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। प्र॒जा इति॑ प्र॒ऽजाः। पा॒हि॒।
अप॑मृष्ट॒ इत्यप॑ऽमृष्टः। मर्कः॑। दे॒वाः। त्वा॒। म॒न्थि॒पा इति॑ मन्थि॒ऽपाः। प्र।
न॒य॒न्तु॒। अना॑धृष्टा। अ॒सि॒ ॥१७॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे शिल्पविद्या में चतुर सभापते ! (एषः) यह राजधर्म (ते) तेरा (योनिः) सुखपूर्वक
स्थिरता का स्थान है। जैसे तू (यः) जो (तुविनृम्णः) अत्यन्त धनयुक्त प्रजा का
पालनेवाला वा (विपः) बुद्धिमान् प्रजाजन ये तुम दोनों (येषु) जिन हवनादि कर्म्मों
में (शर्य्याभिः) वेगों से (तिग्मम्) वज्र के तुल्य अतिदृढ़ (मनः) मन के (न) समान
वेग से (द्रवन्ता) चलते हुए (शच्या) बुद्धि के साथ (आवनुथः) परस्पर कामना करते हो, वैसे प्रत्येक प्रजापुरुष (अस्य) इस प्रजापति के (गभस्तौ) अंगुली-निर्देश
से (आदिशम्) सब दिशाओं में तेज जैसे हो, वैसे शुत्रओं को (आ,
अश्रीणीत) अच्छे प्रकार दुःख दिया करे (मर्कः) मरण के तुल्य दुःख
देने और कुढंग चालचलन रखनेवाला शत्रु (अपमृष्टः) दूर हो और तू (प्रजाः) प्रजा का
(पाहि) पालन कर (मन्थिपाः) शत्रुओं केा मँथनेवाले वीरों के रक्षक (देवाः) विद्वान्
लोग (त्वा) तुझे (प्र, नयन्तु) प्रसन्न करें। हे प्रजाजनो !
तुम जिससे (अनाधृष्टा) प्रगल्भ निर्भय और स्वाधीन (असि) हो, उस
राजा की रक्षा किया करो ॥१७॥
भावार्थभाषाः
-प्रजापुरुष राज्यकर्म में जिस राजा का आश्रय करें, वह उन की रक्षा करे और प्रजाजन उस न्यायाधीश के प्रति अपने अभिप्राय को
शङ्का-समाधान के साथ कहें, राजा के नौकर-चाकर भी न्यायकर्म्म
ही से प्रजाजनों की रक्षा करें ॥१७॥
देवता:
प्रजापतिर्देवता ऋषि: वत्सार काश्यप ऋषिः छन्द: निचृत् त्रिष्टुप्, प्राजापत्या गायत्री स्वर: धैवतः
सु॒प्र॒जाः
प्र॒जाः प्र॑ज॒नय॒न् परी॑ह्य॒भि रा॒यस्पोषे॑ण॒ यज॑मानम्। स॒ञ्ज॒ग्मा॒नो दि॒वा
पृ॑थि॒व्या म॒न्थी म॒न्थिशो॑चिषा॒ निर॑स्तो॒ मर्को॑ म॒न्थिनो॑ऽधि॒ष्ठान॑मसि ॥१८॥
पद
पाठ
सु॒प्र॒जा
इति॑ सुऽप्र॒जाः। प्र॒जा इति॑ प्र॒ऽजाः। प्र॒ज॒नयन्निति॑ प्रऽज॒नय॑न्। परि॑।
इ॒हि॒। अ॒भि। रा॒यः। पोषे॑ण। यज॑मानम्। स॒ञ्ज॒ग्मा॒न इति॑ सम्ऽजग्मा॒नः। दि॒वा।
पृ॒थि॒व्या। म॒न्थी। म॒न्थिशो॑चि॒षेति॑ म॒न्थिशो॑चिषा। निर॑स्त॒ इति॑ निःऽअ॑स्तः।
मर्कः॑। म॒न्थिनः॑। अ॒धि॒ष्ठान॑म्। अ॒धि॒स्थान॒मित्य॑धि॒ऽस्थान॑म्। अ॒सि॒ ॥१८॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
न्यायाधीश
को प्रजाजनों के प्रति कैसे वर्त्तना चाहिये, यह
अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-भो न्यायाधीश ! (सुप्रजाः) उत्तम प्रजायुक्त आप (प्रजाः) प्रजाजनों को (प्रजनयन्)
प्रकट करते हुए (रायः) धन की (पोषेण) दृढ़ता के साथ (यजमानम्) यज्ञादि अच्छे
कर्मों के करनेवाले पुरुष को (अभि) (परि) (इहि) सर्वथा धन की वृद्धि से युक्त
कीजिये (मन्थी) वाद-विवाद के मन्थन करने और (दिवा) सूर्य्य वा (पृथिव्या) पृथिवी
के तुल्य (सञ्जग्मानः) धीरतादि गुणों में वर्तनेवाले आप (मन्थिनः) सदसद्विवेचन
करने योग्य गुणों के (अधिष्ठानम्) आधार के समान (असि) हो, इस कारण तुम्हारी (मन्थिशोचिषा) सूर्य्य की दीप्ति के समान न्यायदीप्ति से
(मर्कः) मृत्यु देनेवाला अन्यायी (निरस्तः) निवृत्त होवे ॥१८॥
भावार्थभाषाः
-इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। न्यायाधीश राजा को चाहिये कि धर्म्म से यज्ञ
करनेवाले सत्पुरुष पुरोहित के समान प्रजा का निरन्तर पालन करे ॥१८॥
देवता:
विश्वेदेवा देवताः ऋषि: वत्सार काश्यप ऋषिः छन्द: भुरिग् आर्षी पङ्क्तिः स्वर:
धैवतः
ये
दे॑वासो दि॒व्येका॑दश॒ स्थ पृ॑थि॒व्यामध्येका॑दश॒ स्थ। अ॒प्सु॒क्षितो॑
महि॒नैका॑दश॒ स्थ ते दे॑वासो य॒ज्ञमि॒मं जु॑षध्वम् ॥१९॥
पद
पाठ
ये।
दे॑वा॒सः॒। दि॒वि। एका॑दश। स्थ। पृ॒थि॒व्याम्। अधि॑। एका॑दश। स्थ। अप्सु॒क्षित॒
इत्य॑प्सु॒ऽक्षितः॑। म॒हि॒ना। एका॑दश। स्थ। ते। दे॒वा॒सः॒। य॒ज्ञम्। इ॒मम्।
जु॒ष॒ध्व॒म् ॥१९॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
राजा और सभासदों के काम अगले मन्त्र में कहे हैं ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-(ये) जो (महिना) अपनी महिमा से (दिवि) विद्युत् के स्वरूप में (एकादश) ग्यारह
अर्थात् प्राण, अपान, उदान,
व्यान, समान, नाग,
कूर्म्म, कृकल, देवदत,
धनञ्जय और जीवात्मा (देवासः) दिव्यगुणयुक्त देव (स्थ) हैं, (पृथिव्याम्) भूमि के (अधि) ऊपर (एकादश) ग्यारह अर्थात् पृथिवी, जल, अग्नि, पवन, आकाश, आदित्य, चन्द्रमा,
नक्षत्र, अहंकार महत्तत्त्व और प्रकृति (स्थ)
हैं तथा (अप्सुक्षितः) प्राणों में ठहरनेवाले (एकादश) ग्यारह श्रोत्र, त्वक् चक्षु, जिह्वा, नासिका,
वाणी, हाथ, पाँव,
गुदा, लिङ्ग और मन (स्थ) हैं, (ते) वे जैसे अपने-अपने कामों में वर्त्तमान हैं, वैसे
हे (देवासः) राजसभा के सभासदो ! आप लोग यथायोग्य अपने-अपने कामों में वर्त्तमान
होकर (इमम्) इस (यज्ञम्) राज और प्रजा सम्बन्धी व्यवहार का (जुषध्वम्) सेवन किया
करें ॥१९॥
भावार्थभाषाः
-इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अपने-अपने कामों में प्रवृत्त हुए
अन्तरिक्षादिकों में सब पदार्थ हैं, वैसे
राजसभासदों को चाहिये कि अपने-अपने न्यायमार्ग में प्रवृत्त रहें ॥१९॥
देवता:
यज्ञो देवता ऋषि: वत्सार काश्यप ऋषिः छन्द: निचृद् आर्षी जगती स्वर: निषादः
उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽस्याग्रय॒णो᳖ऽसि॒
स्वा᳖ग्रयणः। पा॒हि य॒ज्ञं पा॒हि य॒ज्ञप॑तिं॒ विष्णु॒स्त्वामि॑न्द्रि॒येण॑ पातु॒
विष्णुं त्वं पा॑ह्य॒भि सव॑नानि पाहि ॥२०॥
पद
पाठ
उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒
इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। आ॒ग्र॒य॒णः। अ॒सि॒। स्वा॑ग्रयण॒ इति॒ सुऽआग्रयणः।
पा॒हि। य॒ज्ञम्। पा॒हि। य॒ज्ञम्। पा॒हि। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ य॒ज्ञऽपतिम्। विष्णुः॑।
त्वाम्। इ॒न्द्रि॒येण॑। पा॒तु॒। विष्णु॑म्। त्वम्। पा॒हि॒। अ॒भि। सव॑नानि। पा॒हि॒
॥२०॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
राजा और विद्वानों के उपदेश की रीति अगले मन्त्र में कही है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे सभापते राजन् वा उपदेश करनेवाले ! जिस कारण आप (उपयामगृहीतः) विनय आदि
राजगुणों वा वेदादि शास्त्रबोध से युक्त (असि) हैं, इससे (यज्ञम्) राजा और प्रजा की पालना कराने हारे यज्ञ को (पाहि) पालो और
(स्वाग्रयणः) जैसे उत्तम विज्ञानयुक्त कर्म्मों को पहुँचानेवाले होते हैं, वैसे (आग्रयणः) उत्तम विचारयुक्त कर्म्मों को प्राप्त होनेवाले हूजिये,
इससे (यज्ञपतिम्) यथावत् न्याय की रक्षा करनेवाले को (पाहि) पालो।
यह (विष्णुः) जो समस्त अच्छे गुण और कर्म्मों को ठीक-ठीक जाननेवाला विद्वान् है,
वह (इन्द्रियेण) मन और धन से (त्वाम्) तुझे (पातु) पाले और तुम उस
(विष्णुम्) विद्वान् की (पाहि) रक्षा करो (सवनानि) ऐश्वर्य्य देनेवाले कामों की
(अभि) सब प्रकार से (पाहि) रक्षा करो ॥२०॥
भावार्थभाषाः
-इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। राजा और विद्वानों को योग्य है कि वे
निरन्तर राज्य की उन्नति किया करें, क्योंकि
राज्य की उन्नति के विना विद्वान् लोग सावधानी से विद्या का प्रचार और उपदेश भी
नहीं कर सकते और न विद्वानों के सङ्ग और उपदेश के विना कोई राज्य की रक्षा करने के
योग्य होता है तथा राजा, प्रजा और उत्तम विद्वानों की परस्पर
प्रीति के विना ऐश्वर्य्य की उन्नति और ऐश्वर्य के विना आनन्द भी निरन्तर नहीं हो
सकता ॥२०॥
देवता:
सोमो देवता ऋषि: वत्सार काश्यप ऋषिः छन्द: स्वराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप्, याजुषी जगती स्वर: धैवतः, निषादः
सोमः॑
पवते॒ सोमः॑ पवते॒ऽस्मै ब्रह्म॑णे॒ऽस्मै क्ष॒त्राया॒स्मै सु॑न्व॒ते यज॑मानाय
पवतऽइ॒षऽऊ॒र्जे प॑वते॒ऽद्भ्यऽओष॑धीभ्यः पवते॒ द्यावा॑पृथि॒वाभ्यां॑ पवते सुभू॒ताय॑
पवते॒ विश्वे॑भ्यस्त्वा दे॒वेभ्य॑ऽए॒ष ते॒ योनि॒र्विश्वे॑भ्यस्त्वा दे॒वेभ्यः॑
॥२१॥
पद
पाठ
सोमः॑।
प॒व॒ते॒। सोमः॑। प॒व॒ते॒। अ॒स्मै। ब्रह्म॑णे। अ॒स्मै। क्ष॒त्राय॑। अ॒स्मै।
सु॒न्व॒ते। यज॑मानाय। प॒व॒ते॒। इ॒षे। ऊ॒र्ज्जे। प॒व॒ते॒। अ॒द्भ्यऽइत्य॒त्ऽभ्यः।
ओष॑धीभ्यः। प॒व॒ते॒। द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॑म्। प॒व॒ते॒। सु॒भूतायेति॑ सुऽभू॒ताय॑।
प॒व॒ते॒। विश्वे॑भ्यः। त्वा॒। दे॒वेभ्यः॑। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। विश्वे॑भ्यः। त्वा॒।
दे॒वेभ्यः॑ ॥२१॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
राजा का कर्म्म अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे विद्वान् लोगो ! जैसे यह (सोमः) सोम्यगुण सम्पन्न राजा (अस्मै) इस (ब्रह्मणे)
परमेश्वर वा वेद को जानने के लिये (पवते) पवित्र होता है, (अस्मै) इस (क्षत्राय) क्षत्रिय धर्म के लिये (पवते) ज्ञानवान् होता है,
(अस्मै) इस (सुन्वते) समस्त विद्या के सिद्धान्त को निष्पादन
(यजमानाय) और उत्तम सङ्ग करने हारे विद्वान् के लिये (पवते) निर्मल होता है,
(इषे) अन्न के गुण और (ऊर्ज्जे) पराक्रम के लिये (पवते) शुद्ध होता
है, (अद्भ्यः) जल और प्राण वा (ओषधीभ्यः) सोम आदि ओषधियों को
(पवते) जानता है, (द्यावापृथिवाभ्यीम्) सूर्य्य और पृथिवी के
लिये (पवते) शुद्ध होता है, (सुभूताय) अच्छे व्यवहार के लिये
(पवते) बुरे कामों से बचता है, वैसे (सोमः) सभाजन वा प्रजाजन
सबको यथोक्त जाने-माने और आप भी वैसा पवित्र रहे। हे राजन् सभ्यजन वा प्रजाजन !
जिस (ते) आप का (एषः) यह राजधर्म्म (योनिः) घर है, उस (त्वा)
आप को (विश्वेभ्यः) समस्त (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये तथा (त्वा) आप को
(विश्वेभ्यः) सम्पूर्ण दिव्यगुणों के लिये हम लोग स्वीकार करते हैं ॥२१॥
भावार्थभाषाः
-इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे इन्द्रलोक सब जगत् के लिये हितकारी
होता है और जैसे राजा सभा के जन और प्रजाजनों के साथ उनके उपकार के लिये धर्म्म के
अनुकूल व्यवहार का आचरण करता है, वैसे ही
सभ्य पुरुष और प्रजाजन राजा के साथ वर्त्तें। जो उत्तम व्यवहार, गुण और कर्म का अनुष्ठान करनेवाला होता है, वही राजा
और सभा-पुरुष न्यायकारी हो सकता है तथा जो धर्मात्मा जन है, वही
प्रजा में अग्रगण्य समझा जाता है। इस प्रकार ये तीनों परस्पर प्रीति के साथ
पुरुषार्थ से विद्या आदि गुण और पृथिवी आदि पदार्थों से अखिल सुख को प्राप्त हो
सकते हैं ॥२१॥
देवता:
विश्वेदेवा देवताः ऋषि: वत्सार काश्यप ऋषिः छन्द: विराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप्
स्वर: धैवतः
उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य
त्वा बृ॒हद्व॑ते॒ वय॑स्वतऽउक्था॒व्यं᳖ गृह्णामि। यत्त॑ऽइन्द्र बृ॒हद्वय॒स्तस्मै॑
त्वा॒ विष्ण॑वे त्वै॒ष ते॒ योनि॑रु॒क्थेभ्य॑स्त्वा दे॒वेभ्य॑स्त्वा देवा॒व्यं᳖
य॒ज्ञस्यायु॑षे गृह्णामि ॥२२॥
पद
पाठ
उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒
इत्यु॑पया॒मऽगृहीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। बृहद्व॑त॒ इति॑ बृहत्ऽव॑ते।
वय॑स्वते। उ॒क्थाव्य᳖मित्यु॑क्थऽअ॒व्य᳖म्। गृ॒ह्णा॒मि॒। यत्। ते॒। इ॒न्द्र॒। बृ॒हत्।
वयः॑। तस्मै॑। त्वा॒। विष्ण॑वे। त्वा॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। उ॒क्थेभ्यः॑। त्वा॒।
दे॒वेभ्यः॑। त्वा॒। दे॒वा॒व्य᳖मिति॑ देवऽअ॒व्य᳖म्। य॒ज्ञस्य॑। आयु॑षे। गृ॒ह्णा॒मि॒
॥२२॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
कैसे मनुष्य को सेनापति करे, यह अगले
मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे (इन्द्र) सेनापते ! तू (उपयामगृहीतः) अच्छे नियमों से विद्या को पढ़नेवाला
(असि) है, इस हेतु से (बृहद्वते) जिसके
अच्छे बड़े-बड़े कर्म्म हैं (वयस्वते) और जिसकी दीर्घ आयु है, उस (इन्द्राय) परमैश्वर्य्यवाले सभापति के लिये (उक्थाव्यम्) प्रशंसनीय
स्तोत्र वा विशेष शस्त्रविद्यावाले (त्वा) तेरा (गृह्णामि) ग्रहण जैसे मैं करता
हूँ, वैसे (यत्) जो (ते) तेरा (बृहत्) अत्यन्त (वयः) जीवन है,
(तस्मै) उसके पालन करने के अर्थ और (विष्णवे) ईश्वरज्ञान वा
वेदज्ञान के लिये (त्वा) तुझे (गृह्णामि) स्वीकार करता हूँ और (एषः) यह सेना का
अधिकार (ते) तेरा (योनिः) स्थित होने के लिये स्थान है। हे सेनापते ! (उक्थेभ्यः)
प्रशंसा योग्य वेदोक्त कर्मों के लिये (त्वा) तुझे (देवेभ्यः) और विद्वानों वा
दिव्य गुणों के लिये (देवाव्यम्) उनके पालन करनेवाले (त्वा) तुझ को (यज्ञस्य) राज्यपालनादि
व्यवहार के (आयुषे) बढ़ाने के लिये (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ ॥२२॥
भावार्थभाषाः
-सब विद्याओं के जाननेवाले विद्वान् को योग्य है कि राज्यव्यवहार में सेना के वीर
पुरुषों की रक्षा करने के लिये अच्छी शिक्षायुक्त, शस्त्र और अस्त्र विद्या में परम प्रवीण, यज्ञ के
अनुष्ठान करनेवाले वीर पुरुष को सेनापति के काम में युक्त करें और सभापति तथा
सेनापति को चाहिये कि परस्पर सम्मति कर के राज्य और यज्ञ को बढ़ावें ॥२२॥
देवता:
विश्वेदेवा देवताः ऋषि: वत्सार काश्यप ऋषिः छन्द: अनुष्टुप्, प्राजापत्या अनुष्टुप्, स्वराट् साम्नी अनुष्टुप्,
भुरिग् आर्ची गायत्री, भुरिक् साम्नी
अनुष्टुप् स्वर: षड्जः, गान्धारः
मि॒त्रावरु॑णाभ्यां
त्वा देवा॒व्यं᳖ य॒ज्ञस्यायु॑षे गृह्णा॒मीन्द्रा॑य त्वा देवा॒व्यं᳖ य॒ज्ञस्यायु॑षे
गृह्णा॒मीन्द्रा॒ग्निभ्यां॑ त्वा देवा॒व्यं᳖ य॒ज्ञस्यायु॑षे
गृह्णा॒मीन्द्रा॒वरु॑णाभ्यां त्वा देवा॒व्यं᳖ य॒ज्ञस्यायु॑षे
गृह्णा॒मीन्द्रा॒बृह॒स्पति॑भ्यां त्वा देवा॒व्यं᳖ य॒ज्ञस्यायु॑षे
गृह्णा॒मीन्द्रा॒विष्णु॑भ्यां त्वा देवा॒व्यं᳖ य॒ज्ञस्यायु॑षे गृह्णामि ॥२३॥
पद
पाठ
मि॒त्रावरु॑णाभ्याम्।
त्वा॒। दे॒वा॒व्य᳖मिति॑ देवऽअ॒व्य᳖म्। य॒ज्ञस्य॑। आयु॑षे। गृ॒ह्णा॒मि॒। इन्द्रा॑य।
त्वा॒। दे॒वा॒व्य᳖मिति॑ देवऽअ॒व्य᳖म्। य॒ज्ञस्य॑। आयु॑षे। गृ॒ह्णा॒मि॒।
इ॒न्द्रा॒ग्निभ्या॒मिती॑न्द्रा॒ग्निऽभ्या॑म्। त्वा॒। दे॒वा॒व्य᳖मिति॑
देवऽअ॒व्य᳖म्। य॒ज्ञस्य॑। आयु॑षे। गृ॒ह्णा॒मि॒। इन्द्रा॒वरु॑णाभ्याम्। त्वा॒।
दे॒वा॒व्य᳖मिति॑ देवऽअ॒व्य᳖म्। य॒ज्ञस्य॑। आयु॑षे। गृ॒ह्णा॒मि॒। इन्द्रा॒बृह॒स्पति॑भ्या॒मितीन्द्राबृह॒स्पति॑ऽभ्याम्।
त्वा॒। दे॒वा॒व्य᳖मिति॑ देवऽअ॒व्य᳖म्। य॒ज्ञस्य॑। आयु॑षे। गृ॒ह्णा॒मि॒।
इन्द्रा॒विष्णु॑भ्या॒मितीन्द्रा॒विष्णुभ्या॒मितीन्द्रा॒विष्णु॑ऽभ्याम्। त्वा॒।
दे॒वा॒व्य᳖मिति॑ देवऽअ॒व्य᳖म्। य॒ज्ञस्य॑। आयु॑षे। गृ॒ह्णा॒मि॒ ॥२३॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
सब
विद्याओं में प्रवीण पुरुष को सभा का अधिकारी करे, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे सभापते ! धर्म, अर्थ, काम
और मोक्ष की इच्छा करनेवाला मैं (यज्ञस्य) अग्निहोत्र से लेकर राज्य पालन
पर्य्यन्त यज्ञ की (आयुषे) उन्नति होने के लिये (मित्रावरुणाभ्याम्) मित्र और
उत्तम विद्यायुक्त पुरुषों के अर्थ (देवाव्यम्) विद्वानों की रक्षा करनेवाले
(त्वा) तुझको (गृह्णामि) स्वीकार करता हूँ। हे सेनापते विद्वन् ! (यज्ञस्य)
सत्संगति करने की (आयुषे) उन्नति के लिये (इन्द्राय) परमैश्वर्य्यवान् पुरुष के
अर्थ (देवाव्यम्) विद्वानों की रक्षा करनेवाला (त्वा) तुझ को (गृह्णामि) ग्रहण
करता हूँ। हे शस्त्रास्त्रविद्या के जाननेवाले प्रवीण ! (यज्ञस्य) शिल्पविद्या के
कामों की सिद्धि की (आयुषे) प्राप्ति के लिये (इन्द्राग्निभ्याम्) बिजुली और
प्रसिद्ध आग के गुण प्रकाश होने के अर्थ (देवाव्यम्) दिव्य विद्या बोध की रक्षा
करनेवाले (त्वा) तुझको (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ। हे शिल्पिन् ! (यज्ञस्य)
क्रिया-चतुराई का (आयुषे) ज्ञान होने के (इन्द्रावरुणाभ्याम्) बिजुली और जल के गुण
प्रकाश होने के अर्थ (देवाव्यम्) उन की विद्या जाननेवाले (त्वा) तुझ को (गृह्णामि)
ग्रहण करता हूँ। हे अध्यापक ! (यज्ञस्य) पढ़ने-पढ़ाने की (आयुषे) उन्नति के लिये
(इन्द्राबृहस्पतिभ्याम्) राजा और शस्त्रवेत्ताओं के अर्थ (देवाव्यम्) प्रशंसित
योगविद्या के जानने और प्राप्त करानेवाले (त्वा) तुझको (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ।
हे विद्वन् ! (यज्ञस्य) विज्ञान की (आयुषे) बढ़ती के लिये (इन्द्राविष्णुभ्याम्)
ईश्वर और वेदशास्त्र के जानने के अर्थ (देवाव्यम्) ब्रह्मज्ञानी को तृप्त करनेवाले
(त्वा) तुझको (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ ॥२३॥
भावार्थभाषाः
-प्रजाजनों को उचित है कि सकल शास्त्र का प्रचार होने के लिये सब विद्याओं में
कुशल और अत्यन्त ब्रह्मचर्य्य के अनुष्ठान करनेवाले पुरुष को सभापति करें और यह वह
सभापति भी परम प्रीति के साथ सकल शास्त्र का प्रचार करता-कराता रहे ॥२३॥
मू॒र्द्धानं॑
दि॒वोऽअ॑र॒तिं पृ॑थि॒व्या वै॑श्वान॒रमृ॒तऽआ जा॒तम॒ग्निम्। क॒विꣳ स॒म्राज॒मति॑थिं॒
जना॑नामा॒सन्ना पात्रं॑ जनयन्त दे॒वाः ॥२४॥
पद
पाठ
मू॒र्द्धान॑म्।
दि॒वः। अ॒र॒तिम्। पृ॒थि॒व्याः। वै॒श्वा॒न॒रम्। ऋ॒ते। आ। जा॒तम्। अ॒ग्निम्। क॒विम्।
स॒म्राज॒मिति॑ स॒म्ऽराज॑म्। अति॑थिम्। जना॑नाम्। आ॒सन्। आ। पात्र॑म्। ज॒न॒य॒न्त॒।
दे॒वाः ॥२४॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
इसके
अनन्तर विद्वानों का कर्म्म अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-जैसे (देवाः) धनुर्वेद के जाननेवाले विद्वन् लोग उस धनुर्वेद की शिक्षा से (दिवः)
प्रकाशमान सूर्य के (मूर्द्धानम्) शिर के समान (पृथिव्याः) पृथिवी के गुणों को
(अरतिम्) प्राप्त होनेवाले (ऋते) सत्य मार्ग में (आजातम्) सत्य व्यवहार में अच्छे
प्रकार प्रसिद्ध (वैश्वानरम्) समस्त मनुष्यों को आनन्द पहुँचाने और (जनानाम्)
सत्पुरुषों के (अतिथिम्) अतिथि के समान सत्कार करने योग्य और (आसन्) अपने शुद्ध
यज्ञरूप मुख में (पात्रम्) समस्त शिल्प-व्यवहार की रक्षा करने (कविम्) और अनेक
प्रकार से प्रदीप्त होनेवाले (अग्निम्) शुभगुण प्रकाशित अग्नि को (सम्राजम्)
एकचक्र राज्य करनेवाले के समान (आ) अच्छे प्रकार से (जनयन्त) प्रकाशित करते हैं, वैसे सब मनुष्यों को करना योग्य है ॥२४॥
भावार्थभाषाः
-इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सत्पुरुष धनुर्वेद के जाननेवाले परोपकारी
विद्वान् लोग धनुर्वेद में कही हुई क्रियाओं से यानों और शस्त्रास्त्र विद्या में
अनेक प्रकार से अग्नि को प्रदीप्त कर शत्रुओं को जीता करते हैं, वैसे ही अन्य सब मनुष्यों को भी अपना आचरण करना योग्य है ॥२४॥
देवता:
वैश्वनरो देवता ऋषि: भरद्वाज ऋषिः छन्द: याजुषी अनुष्टुप्, विराड् आर्षी बृहती स्वर: गान्धारः
उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि
ध्रु॒वो᳖ऽसि ध्रु॒वक्षि॑तिर्ध्रु॒वाणां॑ ध्रु॒वत॒मोऽच्यु॑तानामच्युत॒क्षित्त॑मऽए॒ष
ते॒ योनि॑र्वैश्वान॒राय॑ त्वा। ध्रु॒वं ध्रु॒वेण॒ मन॑सा वा॒चा सोम॒मव॑नयामि। अथा॑
न॒ऽइन्द्र॒ऽइद्विशो॑ऽसप॒त्नाः सम॑नस॒स्कर॑त् ॥२५॥
पद
पाठ
उ॒प॒या॒मगृ॑हीत
इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। ध्रु॒वः। अ॒सि॒। ध्रु॒वक्षि॑ति॒रिति॑
ध्रु॒वऽक्षि॑तिः। ध्रु॒वाणा॑म्। ध्रु॒वत॑म॒ इति॑ ध्रु॒वऽतमः॑। अच्यु॑तानाम्।
अ॒च्युत॒क्षित्त॑म॒ इत्य॑च्युत॒क्षित्ऽत॑मः। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। वै॒श्वा॒न॒राय॑।
त्वा॒। ध्रु॒वम्। ध्रु॒वेण॑। मन॑सा। वा॒चा। सोम॑म्। अव॑। न॒या॒मि॒। अथ॑। नः॒।
इन्द्रः॑। इत्। विशः॑। अ॒स॒प॒त्नाः। सम॑नस॒ इति॑ सऽम॑नसः। कर॑त् ॥२५॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
अगले मन्त्र में ईश्वर के गुणों का उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे परमेश्वर ! आप (उपयामगृहीतः) शास्त्रप्राप्त नियमों से स्वीकार किये जाते
(असि) हैं, ऐसे ही (ध्रुवः) स्थिर (असि)
हैं कि (ध्रुवक्षितिः) जिन आप में भूमि स्थिर हो रही है और (ध्रुवाणाम्) स्थिर
आकाश आदि पदार्थों में (ध्रुवतमाः) अत्यन्त स्थिर (असि) हैं तथा (अच्युतानाम्)
जगत् का अविनाशी कारण और अनादि सिद्ध जीवों में (अच्युतक्षित्तमः) अतिशय करके
अविनाशीपन बसानेवाले हैं। (एषः) यह सत्य के मार्ग का प्रकाश (ते) आप के (योनिः)
निवास-स्थान के समान है। (वैश्वानराय) समस्त मनुष्यों को सत्य मार्ग में प्राप्त
करानेवाले वा इस राज्यप्रकाश के लिये (ध्रुवेण) दृढ़ (मनसा) मन और (वाचा) वाणी से
(सोमम्) समस्त जगत् के उत्पन्न करानेवाले (त्वा) आप को (ध्रुवम्) निश्चयपूर्वक
जैसे हो वैसे (अवनयामि) स्वीकार करता हूँ। (अथ) इसके अनन्तर (इन्द्रः) सब दुःख के
विनाश करनेवाले आप (नः) हमारे (विशः) प्रजाजनों को (असपत्नाः) शत्रुओं से रहित और
(समनसः) एक मन अर्थात् एक दूसरे के चाहनेवाले (इत्) ही (करत्) कीजिये ॥२५॥
भावार्थभाषाः
-जो नित्य पदार्थों में नित्य और स्थिरों में भी स्थिर परमेश्वर है, उस समस्त जगत् के उत्पन्न करनेवाले परमेश्वर की प्राप्ति और योगाभ्यास के
अनुष्ठान से ही ठीक-ठीक ज्ञान हो सकता है, अन्यथा नहीं ॥२५॥
देवता:
यज्ञो देवता ऋषि: देवश्रवा ऋषिः छन्द: स्वराड् ब्राह्मी बृहती स्वर: मध्यमः
यस्ते॑
द्र॒प्स स्कन्द॑ति॒ यस्ते॑ऽअ॒ꣳशुर्ग्राव॑च्युतो धि॒षण॑योरु॒पस्था॑त्।
अ॒ध्व॒र्योर्वा॒ परि॑ वा॒ यः प॒वित्रा॒त्तं ते॑ जुहोमि॒ मन॑सा॒ वष॑ट्कृत॒ꣳ स्वाहा॑
दे॒वाना॑मुत्क्रम॑णमसि ॥२६॥
पद
पाठ
यः।
ते॒। द्र॒प्सः। स्कन्द॑ति। यः। ते॒। अ॒ꣳशुः। ग्राव॑च्युत॒ इति॒ ग्राव॑ऽच्युतः।
धि॒षण॑योः। उ॒पस्था॒दित्यु॒पऽस्था॑त्। अ॒ध्व॒र्य्योः। वा॒। परि॑। वा॒। यः।
प॒वित्रा॑त्। तम्। ते॒। जु॒हो॒मि॒। मन॑सा। वष॑ट्कृत॒मिति॒ वष॑ट्ऽकृतम्। स्वाहा॑।
दे॒वाना॑म्। उ॒त्क्रम॑ण᳖मित्यु॒त्ऽक्रम॑णम्। अ॒सि॒ ॥२६॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
ईश्वर यज्ञ के अनुष्ठान करनेवाले को उपदेश करता है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे यज्ञपते ! (यः) जो (ते) तेरा (द्रप्सः) यज्ञ के पदार्थों का समूह (स्कन्दति)
पवन के साथ सब जगह में प्राप्त होता है और (यः) जो (ते) तेरे यज्ञ से युक्त
(ग्रावच्युतः) मेघमण्डल से छूटा हुआ (अंशुः) यज्ञ के पदार्थों का विभाग (धिषणयोः)
प्रकाश और भूमि के (पवित्रात्) पवित्र (उपस्थात्) गोद के समान स्थान से (वा) अथवा
(यः) जो (अध्वर्य्योः) यज्ञ करनेवालों से (वा) अथवा (परि) सब से प्रकाशित होता है, इससे (तम्) उस यज्ञ को मैं (ते) तेरे लिये (स्वाहा) सत्यवाणी और (मनसा) मन
से (वषट्कृतम्) किये हुए संकल्प के समान (जुहोमि) देता हूँ अर्थात् उसके फलदायक
होने से तेरे लिये उस पदार्थ को पहुँचाता हूँ, जिसलिये यज्ञ
का अनुष्ठान करने हारा तू (देवानाम्) विद्वानों के लिये (उत्क्रमणम्) ऊँची श्रेणी
को प्राप्त करनेवाले ऐश्वर्य्य के समान (असि) है, इससे तुझ
को सुख प्राप्त होता है ॥२६॥
भावार्थभाषाः
-इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। होता आदि विद्वान् लोग अत्यन्त दृढ़ सामग्री से
यज्ञ करते हुए जिन सुगन्धि आदि पदार्थों को अग्नि में छोड़ते हैं, वे पवन और जलादि पदार्थों को पवित्र कर उसके साथ पृथिवी पर आ सब प्रकार के
रोगों को निवृत्त करके सब प्राणियों को आनन्द देते हैं। इस कारण सब मनुष्यों को इस
यज्ञ का सदा सेवन करना चाहिये ॥२६॥
देवता:
यज्ञपतिर्देवता देवता ऋषि: देवश्रवा ऋषिः छन्द: आसुरी अनुष्टुप्, आसुरी उष्णिक्, साम्नी गायत्री, आसुरी गायत्री स्वर: ऋषभः, षड्जः
प्रा॒णाय॑
मे वर्चो॒दा वर्च॑से पवस्व व्या॒नाय॑ मे वर्चो॒दा वर्च॑से पवस्वोदा॒नाय॑ मे
वर्चो॒दा वर्च॑से पवस्व वा॒चे मे॑ वर्चो॒दा वर्च॑से पवस्व॒ क्रतू॒दक्षा॑भ्यां मे
वर्चो॒दा वर्च॑से पवस्व॒ श्रोत्रा॑य मे वर्चो॒दा वर्च॑से पवस्व॒ चक्षु॑र्भ्यां मे
वर्चो॒दसौ॒ वर्च॑से पवेथाम् ॥२७॥
पद
पाठ
प्रा॒णाय॑।
मे॒। व॒र्चो॒दा इति॑ वर्चः॒ऽदाः। वर्च॑से। प॒व॒स्व॒। व्या॒नायेति॑ विऽआ॒नाय॑। मे॒।
व॒र्चो॒दा इति॑ वर्चः॒ऽदाः। वर्च॑से। प॒व॒स्व॒। उ॒दा॒नायेत्यु॑त्ऽआ॒नाय॑। मे॒।
व॒र्चो॒दा इति॑ वर्च॒ऽदाः। वर्च॑से। प॒व॒स्व॒। वा॒चे। मे॒। व॒र्चो॒दा इति
वर्चः॒ऽदाः। वर्च॑से। प॒व॒स्व॒। क्रतू॒दक्षा॑भ्याम्। मे॒। व॒र्चो॒दा इति॑
वर्चः॒ऽदाः। वर्च॑से। प॒व॒स्व॒। श्रोत्रा॑य। मे॒। व॒र्चो॒दा इति॑ वर्चः॒ऽदाः।
वर्च॑से। प॒व॒स्व॒। चक्षु॑र्भ्या॒मिति॒ चक्षुः॑ऽभ्याम्। मे॒। व॒र्चो॒दसा॒विति॑
वर्चः॒ऽदसौ॑। वर्च॑से। प॒वे॒था॒म् ॥२७॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
पठन-पाठन यज्ञ के करनेवाले का विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे (वर्चोदाः) यथायोग्य विद्या पढ़ने-पढ़ाने रूप यज्ञकर्म करनेवाले ! आप (मे)
मेरे (प्राणाय) हृदयस्थ जीवन के हेतु प्राणवायु और (वर्चसे) वेदविद्या के प्रकाश
के लिये (पवस्व) पवित्रता से वर्तें। हे (वर्चोदाः) ज्ञानदीप्ति के देनेवाले
जाठराग्नि के समान आप (मे) मेरे (व्यानाय) सब शरीर में रहनेवाले पवन और (वर्चसे) अन्न
आदि पदार्थों के लिये (पवस्व) पवित्रता से प्राप्त होवें। हे (वर्चोदाः) विद्याबल
देनेवाले ! आप (मे) (उदानाय) श्वास से ऊपर को आनेवाले उदान-संज्ञक पवन और (वर्चसे)
पराक्रम के लिये (पवस्व) ज्ञान दीजिये। हे (वर्चोदाः) सत्य बोलने का उपदेश
करनेवाले आप (मे) मेरी (वाचे) वाणी और (वर्चसे) प्रगल्भता के लिये (पवस्व)
प्रवृत्त हूजिये। (वर्चोदाः) विज्ञान देनेवाले आप (मे) मेरे (क्रतूदक्षाभ्याम्)
बुद्धि और आत्मबल की उन्नति और (वर्चसे) अच्छे बोध के लिये (पवस्व) शिक्षा कीजिये।
हे (वर्चोदाः) शब्दज्ञान के देनेवाले यज्ञपति ! आप (मे) मेरे (श्रोत्राय) शब्द
ग्रहण करनेवाले कर्णेन्द्रिय के लिये (वर्चसे) शब्दों के अर्थ और सम्बन्ध का
(पवस्व) उपदेश करें। हे (वर्चोदसौ) सूर्य्य और चन्द्रमा के समान अतिथि और
पढ़ानेवाले आप दोनों (मे) मेरे (चक्षुर्भ्याम्) नेत्रों के लिये (वर्चसे) शुद्ध
सिद्वान्त के प्रकाश को (पवेथाम्) प्राप्त हूजिये ॥२७॥
भावार्थभाषाः
-जो विद्या की वृद्धि के लिये पठन-पाठन रूप यज्ञकर्म्म करनेवाला मनुष्य है, वह अपने यज्ञ के अनुष्ठान से सब की पुष्टि तथा सन्तोष करनेवाला होता है,
इससे ऐसा प्रयत्न सब मनुष्यों को करना उचित है ॥२७॥
देवता:
यज्ञपतिर्देवता देवता ऋषि: देवश्रवा ऋषिः छन्द: ब्राह्मी बृहती स्वर: मध्यमः
आ॒त्मने॑
मे वर्चो॒दा वर्च॑से पव॒स्वौज॑से मे वर्चो॒दा वर्च॑से पव॒स्वायु॑षे मे वर्चो॒दा
वर्च॑से पवस्व॒ विश्वा॑भ्यो मे प्र॒जाभ्यो॑ वर्चो॒दसौ॒ वर्च॑से पवेथाम् ॥२८॥
पद
पाठ
आ॒त्मने॑।
मे॒। व॒र्चो॒दा इति॑ वर्चः॒ऽदाः। वर्च॑से। प॒व॒स्व॒। ओज॑से। मे॒। व॒र्चो॒दा इति॑
वर्चः॒ऽदाः। वर्च॑से। प॒व॒स्व॒। आयु॑षे। मे॒। व॒र्चो॒दा इति॑ वर्चः॒ऽदाः। वर्च॑से।
प॒व॒स्व॒। विश्वा॑भ्यः। मे॒। प्र॒जाभ्य॒ इति॑ प्र॒ऽजाभ्यः॑। व॒र्चो॒दसा॒विति॑
वर्चः॒ऽदसौ॑। वर्च॑से। प॒वे॒था॒म् ॥२८॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
भी उक्त विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे (वर्चोदाः) योग और ब्रह्मविद्या देनेवाले विद्वन् ! आप (मे) मेरे (आत्मने)
इच्छादि गुणयुक्त चेतन के लिये (वर्चसे) अपने आत्मा के प्रकाश को (पवस्व) प्राप्त
कीजिये। हे (वर्चोदाः) उक्त विद्या देनेवाले विद्वन् ! आप (मे) मेरे (ओजसे) आत्मबल
होने के लिये (वर्चसे) योगबल को (पवस्व) जनाइये। हे (वर्चोदाः) बल देनेवाले ! (मे)
मेरे (आयुषे) जीवन के लिये (वर्चसे) रोग छुड़ानेवाले औषध को (पवस्व) प्राप्त
कीजिये। हे (वर्चोदसौ) योगविद्या के पढ़ने-पढ़ानेवालो ! तुम दोनों (मे) मेरी
(विश्वाभ्यः) समस्त (प्रजाभ्यः) प्रजाओं के लिये (वर्चसे) सद्गुण प्रकाश करने को
(पवेथाम्) प्राप्त कराया करो ॥२८॥
भावार्थभाषाः
-योगविद्या के विना कोई भी मनुष्य पूर्ण विद्यावान् नहीं हो सकता और न पूर्णविद्या
के विना अपने स्वरूप और परमात्मा का ज्ञान कभी होता है और न इसके विना कोई
न्यायाधीश सत्पुरुषों के समान प्रजा की रक्षा कर सकता है, इसलिये सब मनुष्यों को उचित है कि इस योगविद्या का सेवन निरन्तर किया करें
॥२८॥
देवता:
प्रजापतिर्देवता ऋषि: देवश्रवा ऋषिः छन्द: आर्ची पङ्क्तिः, भुरिक् साम्नी पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः
को॑ऽसि
कत॒मो᳖ऽसि॒ कस्या॑सि॒ को नामा॑सि। यस्य॑ ते॒ नामाम॑न्महि॒ यं त्वा॒
सोमे॒नाती॑तृपाम। भूर्भुवः॒ स्वः᳖ सुप्र॒जाः प्र॒जाभिः॑ स्याᳬ सु॒वीरो॑ वी॒रैः
सु॒पोषः॒ पोषैः॑ ॥२९॥
पद
पाठ
कः।
अ॒सि॒। क॒त॒मः। अ॒सि॒। कस्य॑। अ॒सि॒। कः। नाम॑। अ॒सि॒। यस्य॑। ते॒। नाम॑।
अम॑न्महि। यम्। त्वा॒। सोमे॑न। अती॑तृपाम। भूरिति॒ भूः। भुव॒रिति॑ भु॒वः।
स्व॒रिति॒ स्वः॑। सु॒प्र॒जा इति॑ सुऽप्र॒जाः। प्र॒जाभि॒रिति॑ प्र॒ऽजाभिः॑।
स्या॒म्। सु॒वीर॒ इति॑ सु॒ऽवीरः॑। वी॒रैः। सु॒पोष॒ इति॑ सु॒ऽपोषः॑। पोषैः॑ ॥२९॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
सभापति
राजा प्रजा, सेना और सभ्यजनों को
क्या-क्या कहे, यही अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-सभा, सेना और प्रजा में रहनेवाले हम लोग पूछते हैं
कि तू (कः) कौन (असि) है, (कतमः) बहुतों के बीच कौन-सा (असि)
है, (कस्य) किसका (असि) है, (कः) क्या
(नाम) तेरा नाम (असि) है, (यस्य) जिस (ते) तेरी (नाम) संज्ञा
को (अमन्महि) जानें और (यम्) जिस (त्वा) तुझ को (सोमेन) धन आदि पदार्थों से
(अतीतृपाम) तृप्त करें। यह कह उनसे सभापति कहता है कि (भूः) भूमि (भुवः) अन्तरिक्ष
और (स्वः) आदित्यलोक के सुख के सदृश आत्मसुख की कामना करनेवाला मैं तुम (प्रजाभिः)
प्रजालोगों के साथ (सुप्रजाः) श्रेष्ठ प्रजावाला (वीरैः) तुम वीरों से (सुवीरः)
श्रेष्ठ वीरयुक्त (पोषैः) पुष्टिकारक पदार्थों से (सुपोषः) अच्छा पुष्ट (स्याम्)
होऊँ अर्थात् तुम सब लोगों से पृथक् न तो स्वतन्त्र मेरा कोई नाम और न कोई विशेष
सम्बन्धी है ॥२९॥
भावार्थभाषाः
-सभापति राजा को योग्य है कि सत्य न्याययुक्त प्रिय व्यवहार से सभा सेना और प्रजा
के जनों की रक्षा करके उन सभों को उन्नति देवे और अति प्रबल वीरों को सेना में
रक्खे, जिससे कि बहुत सुख बढ़ानेवाले राज्य से
भूमि आदि लोकों के सुख को प्राप्त होवे ॥२९॥
देवता:
प्रजापतिर्देवता ऋषि: देवश्रवा ऋषिः छन्द: साम्नी गायत्री, आसुरी अनुष्टुप्, याजुषी पङ्क्तिः, आसुरी उष्णिक् स्वर: ऋषभः, षड्जः
उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि॒
मध॑वे त्वोपया॒मगृ॑हीतोऽसि॒ माध॑वाय त्वोपया॒मगृ॑हीतोऽसि शु॒क्राय॑
त्वोपया॒मगृ॑हीतोऽसि॒ शुच॑ये त्वोपया॒मगृ॑हीतोऽसि॒ नभ॑से त्वोपया॒मगृ॑हीतोऽसि
नभ॒स्या᳖य त्वोपया॒मगृ॑हीतोऽसी॒षे त्वो॑पया॒मगृ॑हीतोऽस्यू॒र्जे
त्वो॑पया॒मगृ॑हीतोऽसि॒ सह॑से त्वोपया॒मगृ॑हीतोऽसि सह॒स्या᳖य त्वोपया॒मगृ॑हीतोऽसि॒
तप॑से त्वोपया॒मगृ॑हीतोऽसि तप॒स्या᳖य त्वोपया॒मगृ॑हीतोऽस्यꣳहसस्प॒तये॑ त्वा ॥३०॥
पद
पाठ
उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒
इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। मध॑वे। त्वा॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः।
अ॒सि॒। माध॑वाय। त्वा॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। शु॒क्राय॑।
त्वा॒। उ॒प॒या॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। शुच॑ये। त्वा॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒
इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। नभ॑से। त्वा॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः।
अ॒सि॒। न॒भ॒स्या᳖य। त्वा॒। उ॒पा॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इ॒षे।
त्वा॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मगृ॑हीतः। अ॒सि॒। ऊ॒र्ज्जे। त्वा॒।
उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। सह॑से। त्वा॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत
इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। स॒ह॒स्या᳖य। त्वा॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒
इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। तप॑से। त्वा॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः।
अ॒सि॒। त॒प॒स्या᳖य। त्वा॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒।
अ॒ꣳह॒स॒स्प॒तये॑। अ॒ꣳह॒सः॒प॒तय॒ इत्य॑ꣳहसःऽप॒तये॑। त्वा॒ ॥३०॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
भी विषयान्तर से वही उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे राजन् ! जिस से आप (उपयामगृहीतः) अच्छे-अच्छे राज्य प्रबन्ध के नियमों से
स्वीकार किये हुए (असि) हैं, इससे (त्वा)
आपको (मधवे) चैत्र मास की सभा के लिये अर्थात् चैत्र मास प्रसिद्ध सुख करानेवाले
व्यवहार की रक्षा के लिये हम लोग स्वीकार करते हैं। सभापति कहता है कि हे सभासदो
तथा प्रजा वा सेनाजनो ! तुममें से एक-एक (उपयामगृहीतः) अच्छे-अच्छे नियमों से
स्वीकार किया हुआ (असि) है, इसलिये तुम को चैत्र मास के सुख
के लिये स्वीकार करता हूँ। इसी प्रकार बारहों महीनों के यथोक्त सुख के लिये राजा,
राजसभासद्, प्रजाजन और सेनाजन परस्पर एक-दूसरे
को स्वीकार करते रहें ॥३०॥
भावार्थभाषाः
-सभाध्यक्ष राजा को चाहिये कि यथोचित समय को प्राप्त होकर श्रेष्ठ राज्य व्यवहार
से प्रजाजनों के लिये सब सुख देता रहे और प्रजाजन भी राजा की आज्ञा के अनुकूल
व्यवहारों में वर्त्ता करें ॥३०॥
देवता:
इन्द्राग्नी देवते ऋषि: विश्वामित्र ऋषिः छन्द: आर्षी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
इन्द्रा॑ग्नी॒ऽआग॑तꣳ
सु॒तं गी॒र्भिर्नभो॒ वरे॑ण्यम्। अ॒स्य पा॑तं धि॒येषि॒ता।
उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसीन्द्रा॒ग्निभ्यां॑ त्वै॒ष ते॒ योनि॑रिन्द्रा॒ग्निभ्यां॑ त्वा
॥३१॥
पद
पाठ
इन्द्रा॑ग्नी॒ऽइतीन्द्रा॑ग्नी।
आ। ग॒त॒म्। सु॒तम्। गी॒र्भिरिति॑ गीः॒ऽभिः। नभः॑। वरे॑ण्यम्। अ॒स्य। पा॒त॒म्।
धि॒या। इ॒षि॒ता। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मगृ॑हीतः। अ॒सि॒।
इ॒न्द्रा॒ग्निभ्या॒मिती॑न्द्रा॒ग्निऽभ्याम्। त्वा॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑।
इ॒न्द्रा॒ग्निभ्या॒मिती॑न्द्रा॒ग्निऽभ्याम्। त्वा॒ ॥३१॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
राज्य व्यवहार से नियत राजकर्म्म में प्रवृत्त हुए राजा और प्रजा के पुरुषों के
प्रति कोई सत्कार से कहता है, यह अगले
मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे (इन्द्राग्नी) सूर्य्य और अग्नि के तुल्य प्रकाशमान सभापति और सभासद् ! तुम
दोनों (आगतम्) आओ मिलकर (गीर्भिः) अच्छी शिक्षायुक्त वाणियों से हमारे लिये
(वरेण्यम्) श्रेष्ठ (नभः) सुख को (सुतम्) उत्पन्न करो तथा (इषिता) पढ़ाये हुए वा हमारी
प्रार्थना को प्राप्त हुए तुम (धिया) अपनी बुद्धि वा राजशासन कर्म से (अस्य) इस
सुख की (पातम्) रक्षा करो। वे राजा और सभासद् कहते हैं कि हे प्रजाजन ! तू
(उपयामगृहीतः) प्रजा के धर्म्म और नियमों से स्वीकार किया हुआ (असि) है, (त्वा) तुझ को (इन्द्राग्निभ्याम्) उक्त महाशयों के लिये हम लोग वैसा ही
मानते हैं, (एषः) यह राजनीति (ते) तेरा (योनिः) घर है
(इन्द्राग्निभ्याम्) उक्त महाशयों के लिये (त्वा) तुझ को हम चिताते हैं अर्थात्
राजशासन को प्रकाशित करते हैं ॥३१॥
भावार्थभाषाः
-अकेला पुरुष यथोक्त राजशासन कर्म नहीं कर सकता, इस कारण और श्रेष्ठ पुरुषों का सत्कार करके राज कार्य्यों में युक्त करे,
वे भी यथायोग्य व्यवहार में इस राजा का सत्कार करें ॥३१॥
देवता:
विश्वेदेवा देवताः ऋषि: त्रिशोक ऋषिः छन्द: आर्षी गायत्री, आर्ची उष्णिक् स्वर: ऋषभः, षड्जः
आ
घा॒ऽअ॒ग्निमि॑न्ध॒ते स्तृ॒णन्ति॑ ब॒र्हिरा॑नु॒षक्। येषा॒मिन्द्रो॒ युवा॒ सखा॑।
उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽस्यग्नी॒न्द्राभ्यां॑ त्वै॒ष ते॒ योनि॑रग्नी॒न्द्राभ्यां॑ त्वा
॥३२॥
पद
पाठ
आ।
घ॒। ये। अ॒ग्निम्। इ॒न्ध॒ते। स्तृ॒णन्ति॑। ब॒र्हिः। आ॒नु॒षक्। येषा॑म्। इन्द्रः॑।
युवा॑। सखा॑। उ॒पा॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। अ॒ग्नी॒न्द्राभ्या॑म्।
त्वा॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। अ॒ग्नी॒न्द्राभ्या॑म्। त्वा॒ ॥३२॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
उक्त विषय को प्रकारान्तर से अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-(ये) वेदविद्यासम्पन्न विद्वान् सभासद् (अग्निम्) विद्युद् आदि (घ) ही को
(इन्धते) प्रकाशित करते और (आनुषक्) अनुक्रम अर्थात् यज्ञ के यथोक्त क्रम से
(बर्हिः) अन्तरिक्ष का (आ) (स्तृणन्ति) आच्छादन करते हैं तथा (येषाम्) जिनका
(युवा) सर्वाङ्ग पुष्ट, सर्वाङ्ग सुन्दर,
सर्वविद्या विचक्षण तरुण अवस्था और (इन्द्रः) सकलैश्वर्य्ययुक्त
सभापति (सखा) मित्र है, (अग्नीन्द्राभ्याम्) उन अग्नि और
सूर्य्य के समान प्रकाशमान सभासदों से (उपयामगृहीतः) प्रजाधर्म्म से युक्त तू
ग्रहण किया गया (असि) है। जिस (ते) तेरा (एषः) न्याययुक्त सिद्धान्त (योनिः) घर के
सदृश है, उस (त्वा) तुझ को प्राप्त हुए हम लोग
(अग्नीन्द्राभ्याम्) उक्त महापदार्थों के लिये (त्वा) तुझ को उपदेश करते हैं ॥३२॥
भावार्थभाषाः
-राजधर्म्म में सब काम सभा के आधीन होने से विचार-सभाओं में प्रवृत्त राजमार्गी
जनों में से दो, तीन वा बहुत सभासद् मिलकर
अपने विचार से जिस अर्थ को सिद्ध करें, उसी के अनुकूल
राजपुरुष और प्रजाजन अपना वर्ताव रक्खें ॥३२॥
देवता:
विश्वेदेवा देवताः ऋषि: मधुच्छन्दा ऋषिः छन्द: आर्षी गायत्री, निचृद् आर्षी उष्णिक् स्वर: मध्यमः, षड्जः
ओमा॑सश्चर्षणीधृतो॒
विश्वे॑ देवास॒ऽआग॑त। दा॒श्वाᳬसो॑ दा॒शुषः॑ सु॒तम्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि॒
विश्वे॑भ्यस्त्वा दे॒वेभ्य॑ऽए॒ष ते॒ योनि॒र्विश्वे॑भ्यस्त्वा दे॒वेभ्यः॑ ॥३३॥
पद
पाठ
ओमा॑सः।
च॒र्ष॒णी॒धृ॒तः॒। च॒र्ष॒णि॒धृ॒त॒ इति॑ चर्षणिऽधृतः। विश्वे॑। दे॒वा॒सः॒। आ। ग॒त॒।
दा॒श्वाᳬसः॑। दा॒शुषः॑। सु॒तम्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒।
विश्वे॑भ्यः। त्वा॒। दे॒वेभ्यः॑। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। विश्वे॑भ्यः। त्वा॒।
दे॒वेभ्यः॑ ॥३३॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
पढ़ने
और पढ़ानेवालों का परस्पर व्यवहार अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे (चर्षणीधृतः) मनुष्यों की पुष्टि-संतुष्टि करने और (ओमासः) उत्तम-उत्तम गुणों
से रक्षा करने हारे (विश्वे) समस्त (देवासः) विद्वानो ! तुम (दाश्वांसः) उत्कृष्ट
ज्ञान को देते हुए (दाशुषः) दान करनेवाले उत्तम जन का (सुतम्) जो अच्छे कामों के
करने से ऐश्वर्य्य को प्राप्त होनेवाला है, उसके
(आ, गत) सन्मुख आओ। हे उक्त दानशील पुरुष के पढ़नेवाले बालक
! तू (उपयामगृहीतः) पढ़ाने के नियमों से ग्रहण किया हुआ (असि) है, इसलिये (त्वा) तुझे (विश्वेभ्यः) समस्त (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये
अर्थात् उनकी सेवा करने को आज्ञा देता हूँ, जिसलिये (ते)
तेरा (एषः) यह विद्या और अच्छी-अच्छी शिक्षा का संग्रह होना (योनिः) कारण है,
इसलिये (त्वा) तुझे (विश्वेभ्यः) समस्त (देवेभ्यः) विद्वानों से
विद्या और अच्छी-अच्छी शिक्षा दिलाता हूँ ॥३३॥
भावार्थभाषाः
-सब विद्वान् और विदुषी स्त्रियों की योग्यता है कि समस्त बालक और कन्याओं के लिये
निरन्तर विद्यादान करें, राजा और धनी आदि लोगों
के धन आदि पदार्थों से अपनी जीविका करें और वे राजा आदि धनी जन भी विद्या और अच्छी
शिक्षा से प्रवीण होकर अपने पढ़ानेवाले विद्वान् वा विदुषी स्त्रियों को धन आदि
अच्छे-अच्छे पदार्थों को देकर उनकी सेवा करें। माता और पिता आठ-आठ वर्ष के पुत्र
वा आठ-आठ वर्ष की कन्याओं को विद्याभ्यास, ब्रह्मचर्य्य सेवन
और अच्छी शिक्षा किये जाने के लिये विद्वान् और विदुषी स्त्रियों को सौंप दें। वे भी
विद्या ग्रहण करने में नित्य मन लगावें और पढ़ानेवाले भी विद्या और अच्छी शिक्षा
देने में नित्य प्रयत्न करें ॥३३॥
देवता:
विश्वेदेवा देवताः ऋषि: गृत्समद ऋषिः छन्द: आर्षी गायत्री, निचृद् आर्षी उष्णिक् स्वर: ऋषभः, षड्जः
विश्वे॑
देवास॒ऽआग॑त शृणु॒ता म॑ऽइ॒मꣳ हव॑म्। एदं ब॒र्हिर्निषी॑दत। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि॒
विश्वे॑भ्यस्त्वा दे॒वेभ्य॑ऽए॒ष ते॒ योनि॒र्विश्वे॑भ्यस्त्वा दे॒वेभ्यः॑ ॥३४॥
पद
पाठ
विश्वे॑।
दे॒वा॒सः॒। आ। ग॒त॒। शृ॒णु॒त। मे॒। इ॒मम्। हव॑म्। आ। इ॒दम्। ब॒र्हिः। नि। सी॒द॒त॒।
उ॒प॒या॒मगृ॑हीत इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। विश्वे॑भ्यः। त्वा॒। दे॒वेभ्यः॑।
ए॒षः। ते॒। योनिः॑। विश्वे॑भ्यः। त्वा। दे॒वेभ्यः॑ ॥३४॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
प्रतिदिन पढ़ाने की योग्यता का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे पूर्वमन्त्रप्रतिपादित गुणकर्म्मस्वभाववाले (विश्वे देवासः) समस्त विद्वान्
लोगो ! आप हमारे समीप (आगत) आइये और हम लोगों के दिये हुए (इदम्) इस (बर्हिः) आसन
पर (आ निषीदत) यथावकाश सुखपूर्वक बैठिये (मे) मेरी (हवम्) इस स्तुतियुक्त वाणी को
(शृणुत) सुनिये। गृहस्थ अपने पुत्रादिकों के प्रति कहे कि हे पुत्र ! जिस कारण तू
(उपयामगृहीतः) विद्वानों का ग्रहण किया हुआ (असि) है, इससे हम (त्वा) तुझे (विश्वेभ्यः) समस्त (देवेभ्यः) अच्छे-अच्छे विद्या
पढ़ानेवाले विद्वानों को सौंपें, जिसलिये (एषः) यह समस्त
विद्या का संग्रह (ते) तेरा (योनिः) घर के तुल्य है, इसलिये
(त्वा) तुझे (विश्वेभ्यः) (देवेभ्यः) समस्त उक्त महाशयों से विद्या दिलाना चाहते
हैं ॥३४॥
भावार्थभाषाः
-विद्वान् लोगों को उचित है कि प्रतिदिन विद्यार्थियों को पढ़ावें और परम विद्वान्
पण्डित लोग उन की परीक्षा भी प्रत्येक महीने में किया करें। उस परीक्षा से जो
तीक्ष्णबुद्धियुक्त परिश्रम करनेवाले प्रतीत हों, उनको अत्यन्त परिश्रम से पढ़ाया करें ॥३४॥
देवता:
प्रजापतिर्देवता ऋषि: विश्वामित्र ऋषिः छन्द: आर्षी त्रिष्टुप्, विराड् आर्ची पङ्क्तिः स्वर: धैवतः, ऋषभः
इन्द्र॑
मरुत्वऽइ॒ह पा॑हि॒ सोमं॒ यथा॑ शार्या॒तेऽअपि॑बः सु॒तस्य॑। तव॒ प्रणी॑ती॒ तव॑ शूर॒
शर्म॒न्नावि॑वासन्ति क॒वयः॑ सुय॒ज्ञाः। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा
म॒रुत्व॑तऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा म॒रुत्व॑ते ॥३५॥
पद
पाठ
इन्द्रः॑।
म॒रु॒त्वः॒। इ॒ह। पा॒हि॒। सोम॑म्। यथा॑। शा॒र्य्या॒ते। अपि॑बः। सु॒तस्य॑। तव॑।
प्रणी॑ती। प्रनी॑तीति॒ प्रऽनी॑ती। तव॑। शू॒र॒। शर्म्म॑न्। आ। वि॒वा॒स॒न्ति॒।
क॒वयः॑। सु॒य॒ज्ञा इति॑ सुऽय॒ज्ञाः। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒।
इन्द्रा॑य। त्वा॒। म॒रुत्व॑ते। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। म॒रुत्व॑ते
॥३५॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
राजा पढ़ने आदि व्यवहार की रक्षा को किस प्रकार से करे, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे (इन्द्र) सब विघ्नों के दूर करनेवाले सब सम्पत्ति से युक्त तेजस्वी (मरुत्वः)
प्रशंसनीय धर्म्मयुक्त प्रजा पालनेहारे सभापति राजन् ! आप (इह) इस संसार में (यथा)
जैसे (शार्य्याते) अपने हाथ पैरों के परिश्रम से निष्पन्न किये हुए व्यवहार में
(सुतस्य) अभ्यास किये हुए विद्या रस को (अपिबः) पी चुके हो, वैसे (सोमम्) समस्त अच्छे गुण, ऐश्वर्य और सुख
करनेवाले पठनपाठन-रूपी यज्ञ को (पाहि) पालो। हे (शूर) धर्म्मविरोधियों को दण्ड
देनेवाले ! (तव) तुम्हारे) (शर्म्मन्) राज्य घर में (सुयज्ञाः) अच्छे
पढ़ने-पढ़ानेवाले विद्वानों के समान (कवयः) बुद्धिमान् लोग (तव) तुम्हारी
(प्रणीती) उत्तम नीति का (आविवासन्ति) सेवन करते हैं। हे शूर ! जिस कारण तुम
(उपयामगृहीतः) प्रजापालनादि नियमों से स्वीकार किये हुए (असि) हो, इससे (त्वा) (इन्द्राय) परमैश्वर्य और (मरुत्वते) प्रजा-सम्बन्ध के लिये
हम लोग चाहते हैं कि जो (ते) (एषः) यह विद्या का प्रचार (योनिः) घर के समान है।
इससे (त्वा) तुम को (इन्द्राय) परमैश्वर्य्य और (मरुत्वते) प्रजापालन सम्बन्ध के
लिये मानते हैं ॥३५॥
भावार्थभाषाः
-सब विद्वानों को उचित है कि जैसे न्यायाधीशों की न्याययुक्त सभा से जो आज्ञा हो, उस को कभी उल्लङ्घन न करें, वैसे वे राजसभा के
सभासद् भी वेदज्ञ विद्वानों की आज्ञा का उल्लङ्घन न करें, जो
सब गुणों से उत्तम हो, उसी को सभापति करें और वह सभापति भी
उत्तम नीति से समस्त राज्य के प्रबन्धों को चलावे ॥३५॥
देवता:
प्रजापतिर्देवता ऋषि: विश्वामित्र ऋषिः छन्द: विराड् आर्षी त्रिष्टुप्, विराड् आर्ची पङ्क्तिः, साम्नी उष्णिक् स्वर: धैवतः,
ऋषभः
म॒रुत्व॑न्तं
वृष॒भं वा॑वृधा॒नमक॑वारिं॑ दि॒व्यꣳ शा॒समिन्द्र॑म्। वि॒श्वा॒साह॒मव॑से॒
नूत॑नायो॒ग्रꣳ स॑हो॒दामि॒ह तꣳ हु॑वेम। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा
म॒रुत्व॑तऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा म॒रुत्व॑ते। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि म॒रुतां॒
त्वौज॑से ॥३६॥
पद
पाठ
म॒रुत्व॑न्तम्।
वृ॒ष॒भम्। वा॒वृ॒धा॒नम्। वा॒वृ॒धा॒नमिति॑ ववृधा॒नम्। अक॑वारि॒मित्यक॑वऽअरिम्।
दि॒व्यम्। शा॒सम्। इन्द्र॑म्। वि॒श्वा॒साह॑म्। वि॒श्व॒सह॒मिति॑ विश्व॒ऽसह॑म्।
अव॑से। नूत॑नाय। उ॒ग्रम्। स॒हो॒दामिति॑ सहः॒ऽदाम्। इ॒ह। तम्। हु॒वे॒म॒।
उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। म॒रुत्व॑ते। ए॒षः।
ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। म॒रुत्व॑ते। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः।
अ॒सि॒। म॒रुता॑म् त्वा॒। ओज॑से ॥३६॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
भी राजा और प्रजा को क्या करना चाहिये, यह उपदेश
अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-(कवयः) पूर्वोक्त हम विद्वान् लोग (नूतनाय) नवीन-नवीन (अवसे) रक्षा आदि गुणों के
लिये (मरुत्वन्तम्) प्रशंसनीय प्रजायुक्त (वृषभम्) सब से उत्तम (वावृधानम्)
अत्यन्त शुभगुण और कर्मों में उन्नति को प्राप्त (अकवारिम्) समस्त धर्मविरोधी
दुष्टों का निवारण करनेवाले (दिव्यम्) शुद्ध (विश्वासाहम्) सर्व सहनशील (उग्रम्)
प्रचण्ड पराक्रमयुक्त (सहोदाम्) सहायता (शासम्) और सब को शिक्षा देनेवाले (तम्) उस
पूर्वोक्त (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्ययुक्त सभापति को निम्नलिखित प्रकार से (हुवेम)
स्वीकार करें। हे मुख्य सभासद् राजन् ! तू जिस कारण (उपयामगृहीतः) समस्त बड़े-बड़े
और छोटे-छोटे नियमों की सामग्री से सहित (असि) है, इससे (त्वा) तुझ को (मरुत्वते) प्रशंसनीय प्रजायुक्त (इन्द्राय)
परमैश्वर्यवान् सभापति होने के लिये स्वीकार करते हैं, (एषः)
यह सभा में न्याय करने का काम (ते) तेरा (योनिः) घर के तुल्य है, इससे (त्वा) तुझे (मरुत्वते) उत्तम प्रजा से युक्त (इन्द्राय) अत्यन्त
ऐश्वर्य्य के पालन और वृद्धि होने के लिये स्वीकार करते हैं और जिस कारण तू
(उपयामगृहीतः) उक्त सब नियम और उपनियमों से संयुक्त (असि) है, इससे (मरुताम्) प्रजाजनों का (ओजसे) बल बढ़ाने के लिये (त्वा) तुझे ग्रहण
करते हैं ॥३६॥
भावार्थभाषाः
-इस मन्त्र में पिछले मन्त्र से (कवयः) इस पद की अनुवृत्ति आती है। प्रजाजनों को
योग्य है कि जो सर्वोत्तम, समस्त विद्याओं में
निपुण, सकल शुभगुणयुक्त विद्वान् शूरवीर हो, उसको सभा के मुख्य काम में स्थापन करें और वह सभा के सब कामों में स्थापित
किया हुआ सभापति सत्य, न्याययुक्त धर्म्म कार्य्य से प्रजा
के उत्साह की उन्नति करे ॥३६॥
देवता:
प्रजापतिर्देवता ऋषि: विश्वामित्र ऋषिः छन्द: निचृद् आर्षी त्रिष्टुप्, विराड् आर्ची पङ्क्तिः स्वर: धैवतः
स॒जोषा॑ऽइन्द्र॒
सग॑णो म॒रुद्भिः॒ सोमं॑ पिब वृत्र॒हा शू॑र वि॒द्वान्। ज॒हि शत्रूँ॒२रप॒ मृधो॑
नुद॒स्वाथाभ॑यं कृणुहि वि॒श्वतो॑ नः। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा
म॒रुत्व॑तऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा म॒रुत्व॑ते ॥३७॥
पद
पाठ
स॒जोषा॒
इ॒ति॑ स॒ऽजोषाः॑। इ॒न्द्र॒। सग॑ण इति॒ सऽग॑णः। म॒रुद्भि॒रिति॑ म॒रुत्ऽभिः॑।
सोम॑म्। पि॒ब॒। वृ॒त्र॒हेति॑ वृत्र॒ऽहा। शू॒र॒। वि॒द्वान्। ज॒हि। शत्रू॑न्। अप॑।
मृधः॑। नु॒द॒स्व॒। अथ॑। अ॒भय॑म्। कृ॒णु॒हि॒। वि॒श्वतः॑। नः॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒
इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। म॒रुत्व॑ते। ए॒षः। ते॒। योनिः॑।
इन्द्रा॑य। त्वा॒। म॒रुत्व॑ते ॥३७॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
सेनापति का काम अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-ईश्वर कहता है कि (इन्द्र) सब सुखों के धारण करने हारे (शूर) शत्रुओं के नाश करने
में निर्भय ! जिससे तू (उपयामगृहीतः) सेना के अच्छे-अच्छे नियमों से स्वीकार किया
हुआ (असि) है, इससे (मरुत्वते) जिसमें
प्रशंसनीय वायु की अस्त्रविद्या है, उस (इन्द्राय)
परमैश्वर्य्य पहुँचानेवाले युद्ध के लिये (त्वा) तुझ को उपदेश करता हूँ कि (ते)
तेरा (एषः) यह सेनाधिकार (योनिः) इष्ट सुखदायक है, इससे
(मरुत्वते) (इन्द्राय) उक्त युद्ध के लिये यत्न करते हुए तुझ को मैं अङ्गीकर करता
हूँ और (सजोषाः) सबसे समान प्रीति करनेवाला (सगणः) अपने मित्रजनों के सहित तू
(मरुद्भिः) जैसे पवन के साथ (वृत्रहा) मेघ के जल को छिन्न-भिन्न करनेवाला सूर्य्य
(सोमम्) समस्त पदार्थों के रस को खींचता है, वैसे सब
पदार्थों के रस को (पिब) सेवन कर और इससे (विद्वान्) ज्ञानयुक्त हुआ तू (शत्रून्)
सत्यन्याय के विरोध में प्रवृत्त हुए दुष्टजनों का (जहि) विनाश कर। (अथ) इसके
अनन्तर (मृधः) जहाँ दुष्टजन दूसरे के दुःख से अपने मन को प्रसन्न करते हैं,
उन सङ्ग्रामों को (अपनुदस्व) दूर कर और (नः) हम लोगों को (विश्वतः)
सब जगह से (अभयम्) भयरहित (कृणुहि) कर ॥३७॥
भावार्थभाषाः
-इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे जीव प्रेम के साथ अपने मित्र वा शरीर की रक्षा
करता है, वैसे ही राजा प्रजा की पालना करे और जैसे
सूर्य्य वायु और बिजुली के साथ मेघ का भेदन कर जल से सब को सुख देता है, वैसे राजा को चाहिये कि युद्ध की सामग्री जोड़ और शत्रुओं को मार कर प्रजा
को सुख धर्म्मात्माओं की निर्भयता और दुष्टों को भय देवे ॥३७॥
देवता:
प्रजापतिर्देवता ऋषि: विश्वामित्र ऋषिः छन्द: निचृद् आर्षी त्रिष्टुप्, विराड् आर्ची पङ्क्तिः स्वर: धैवतः
म॒रुत्वाँ॑२इन्द्र
वृष॒भो रणा॑य॒ पिबा॒ सोम॑मनुष्व॒धं मदा॑य। आसि॑ञ्चस्व ज॒ठरे॒ मध्व॑ऽऊ॒र्म्मिं त्वꣳ
राजा॑सि॒ प्रति॑पत् सु॒ताना॑म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा म॒रुत्व॑तऽए॒ष
ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा मरु॒त्व॑ते ॥३८॥
पद
पाठ
म॒रुत्वा॑न्।
इ॒न्द्र॒। वृ॒ष॒भः। रणा॑य। पिब॑। सोम॑म्। अ॒नु॒ष्व॒धम्। अ॒नु॒स्व॒धमित्य॑नुऽस्व॒धम्।
मदा॑य। आ। सि॒ञ्चस्व॒। ज॒ठरे॑। मध्वः॑। ऊ॒र्म्मिम्। त्वम्। राजा॑। अ॒सि॒।
प्रति॑प॒दिति॒ प्रति॑ऽपत्। सु॒ताना॑म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः।
अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। म॒रुत्व॑ते। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒।
म॒रुत्व॑ते ॥३८॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
सभाध्यक्ष के लिये अगले मन्त्र में उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे (इन्द्र) शत्रुओं के जीतनेवाले सभापते ! जिस कारण आप (उपयामगृहीतः) राजनियमों
से स्वीकार किये हुए (असि) हो, इसलिये हम
लोग तुम को (मरुत्वते) जिसमें अच्छे-अच्छे अस्त्रों और शस्त्रों का काम है,
उस (इन्द्राय) परमैश्वर्य्य को प्राप्त करनेवाले युद्ध के लिये
युक्त करते हैं, जिससे (ते) आपका (एषः) यह युद्ध
परमैश्वर्य्य का (योनिः) कारण है, इसलिये (त्वा) तुम को (मरुत्वते)
(इन्द्राय) उस युद्ध के लिये कहते हैं कि आप (प्रतिपत्) प्रत्येक बड़े-बड़े विचार
के कामों में (राजा) प्रकाशमान (मरुत्वान्) प्रशंसनीय प्रजायुक्त और (वृषभः)
अत्यन्त श्रेष्ठ हो, इससे (रणाय) युद्ध और (मदाय) आनन्द के
लिये (अनुष्वधम्) प्रत्येक भोजन में (सोमम्) सोमलतादि पुष्ट करनेवाली ओषधियों के
रस को (पिब) पीओ (सुतानाम्) उत्तम संस्कारों से बनाये हुए अन्नों के (मध्वः) मधुर
रस की (ऊर्म्मिम्) लहरी को अपने (जठरे) उदर में (आसिञ्चस्व) अच्छे प्रकार स्थापन
करो ॥३८॥
भावार्थभाषाः
-इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। सभा और सेनापति आदि मनुष्यों को चाहिये कि उत्तम से
उत्तम पदार्थों के भोजन से शरीर और आत्मा को पुष्ट और शत्रुओं को जीत कर न्याय की
व्यवस्था से सब प्रजा का पालन किया करें ॥३८॥
देवता:
प्रजापतिर्देवता ऋषि: भरद्वाज ऋषिः छन्द: भुरिक् पङ्क्तिः, साम्नी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
म॒हाँ२ऽइन्द्रो॑
नृ॒वदा च॑र्षणि॒प्राऽउ॒त द्वि॒बर्हा॑ऽअमि॒नः सहो॑भिः। अ॒स्म॒द्र्य᳖ग्वावृधे
वी॒र्या᳖यो॒रुः पृ॒थुः सुकृ॑तः क॒र्तृभि॑र्भूत्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि महे॒न्द्राय॑
त्वै॒ष ते॒ योनि॑र्महे॒न्द्राय॑ त्वा ॥३९॥
पद
पाठ
म॒हान्।
इन्द्रः॑। नृ॒वदिति॑ नृ॒ऽवत्। आ। च॒र्ष॒णि॒प्रा इति॑ चर्षणि॒ऽप्राः। उ॒त।
द्वि॒बर्हा॒ इति॑ द्वि॒बर्हाः॑। अ॒मि॒नः। सहो॑भि॒रिति॒ सहः॑ऽभिः। अ॒स्म॒द्र्य᳖क्।
वा॒वृ॒धे॒। व॒वृ॒ध॒ इति॑ ववृधे। वी॒र्य्या᳖य। उ॒रुः। पृ॒थुः। सुकृ॑त॒ इति॒
सुऽकृ॑तः। क॒र्तृभि॒रिति॑ क॒र्तृ॒ऽभिः॑। भू॒त्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒
इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। म॒हे॒न्द्रायेति॑ महाऽइ॒न्द्रा॑य। त्वा॒। ए॒षः। ते॒।
योनिः॑। म॒हे॒न्द्रायेति॑ महाऽइ॒न्द्राय॑। त्वा॒ ॥३९॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
ईश्वर अपने गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में करता है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे भगवन् जगदीश्वर ! जिस कारण आप (उपयामगृहीतः) योगाभ्यास से ग्रहण करने के योग्य
(असि) हैं, इससे (महेन्द्राय) अत्यन्त
उत्तम ऐश्वर्य के लिये हम लोग (त्वा) आपकी उपासना करते हैं (उत) और जिससे (ते)
आपकी (एषः) यह उपासना हमारे लिये (योनिः) कल्याण का कारण है, इससे (त्वा) तुम को (महेन्द्राय) परमैश्वर्य्य पाने के लिये हम सेवन करते
हैं, जो (महान्) सर्वोत्तम अत्यन्त पूज्य (नृवत्) मनुष्यों
के तुल्य (आ) अच्छे प्रकार (चर्षणिप्राः) सब मनुष्यों को सुखों से परिपूर्ण करने
(द्विबर्हाः) व्यवहार और परमार्थ के ज्ञान को बढ़ानेवाले दो प्रकार के ज्ञान से
संयुक्त (अस्मद्र्यक्) हम सब प्राणियों को अपनी सर्वज्ञता से जाननेवाले (अमिनः)
अतुल पराक्रमयुक्त (उरुः) बहुत (पृथुः) विस्तारयुक्त (कर्त्तृभिः) अच्छे कर्म्म
करनेवाले जीवों ने (सुकृतः) अच्छे कर्म्म करनेवाले के समान ग्रहण किये हुए और
(इन्द्रः) अत्यन्त उत्कृष्ट ऐश्वर्य्यवाले आप हैं, उन्हीं का
आश्रय किये हुए समस्त हम लोग (सहोभिः) अच्छे-अच्छे बलों के साथ (वीर्य्याय) परम
उत्तम बल की प्राप्ति के लिये (वावृधे) दृढ़ उत्साहयुक्त होते हैं ॥३९॥
भावार्थभाषाः
-इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। ईश्वर का आश्रय न करके कोई भी मनुष्य प्रजा की
रक्षा नहीं कर सकता। जैसे ईश्वर सनातन न्याय का आश्रय करके सब जीवों को सुख देता
है, वैसे ही राजा को भी चाहिये कि प्रजा को
अपनी न्याय व्यवस्था से सुख देवे ॥३९॥
देवता:
प्रजापतिर्देवता ऋषि: वत्स ऋषिः छन्द: आर्षी गायत्री, विराड् आर्षी त्रिष्टुप् स्वर: षड्जः
म॒हाँ२ऽइन्द्रो॒
यऽओज॑सा प॒र्जन्यो॑ वृष्टि॒माँ२ऽइ॑व। स्तोमै॑र्व॒त्सस्य॑ वावृधे।
उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि महे॒न्द्राय॑ त्वै॒ष ते॒ योनि॑र्महे॒न्द्राय॑ त्वा ॥४०॥
पद
पाठ
म॒हान्।
इन्द्रः॑। यः। ओज॑सा। प॒र्जन्यः॑। वृ॒ष्टि॒माँ२इ॑व। वृ॒ष्टि॒मानि॒वेति॑
वृष्टि॒मान्ऽइ॑व। स्तोमैः॑। व॒त्सस्य॑। वा॒वृ॒धे॒। व॒वृ॒ध इति॑ ववृधे।
उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मगृ॑हीतः। अ॒सि॒। म॒हे॒न्द्रायेति॑ महाऽइ॒न्द्रा॑य।
त्वा॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। म॒हे॒न्द्रायेति॑ महाऽइ॒न्द्राय॑। त्वा॒ ॥४०॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
भी ईश्वर के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे अनादिसिद्ध योगिन् सर्वव्यापी ईश्वर ! जो आप योगियों के (उपयामगृहीतः)
यमनियमादि योग के अङ्गों से स्वीकार किये हुए (असि) हैं, इस कारण हम लोग (त्वा) आप के (महेन्द्राय) योग से प्रकट होनेवाले अच्छे
ऐश्वर्य्य के लिये आश्रय करते हैं, (ते) आपका (एषः) यह योग
हमारे कल्याण का (योनिः) निमित्त है, इसलिये (त्वा) आपका
(महेन्द्राय) मोक्ष करानेवाले ऐश्वर्य के लिये ध्यान करते हैं, (यः) जो (महान्) बड़े-बड़े गुण, कर्म्म और स्वभाववाला
(वृष्टिमान्) वर्षनेवाले (पर्जन्य इव) मेघ के तुल्य (वत्सस्य) स्तुतिकर्त्ता की
(स्तोमैः) स्तुतियों से (ओजसा) अनन्त बल के साथ प्रकाशित होता है, उस ईश्वर को जानकर योगी (वावृधे) अत्यन्त उन्नति को प्राप्त होता है ॥४०॥
भावार्थभाषाः
-जैसे मेघ वर्षा समय में अपने जल के समूह से सब पदार्थों को तृप्त करता हुआ उन्नति
देता है, वैसे ईश्वर भी योगाभ्यास करनेवाले योगी
पुरुष के योग को अत्यन्त बढ़ाता है ॥४०॥
देवता:
सूर्य्यो देवता ऋषि: प्रस्कण्व ऋषिः छन्द: भुरिग् आर्षी गायत्री स्वर: षड्जः
उदु॒
त्यं जा॒तवे॑दसं दे॒वं व॑हन्ति के॒तवः॑। दृ॒शे विश्वा॑य॒ सूर्य॒ꣳ स्वाहा॑ ॥४१॥
पद
पाठ
उत्।
ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। त्यम्। जा॒तवे॑दस॒मिति॑ जा॒तऽवे॑दसम्। दे॒वम्। व॒ह॒न्ति॒। के॒तवः॑।
दृ॒शे। विश्वा॑य। सूर्य्य॑म्। स्वाहा॑ ॥४१॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
इसके
पीछे सूर्य्य की उपमा से ईश्वर के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-जैसे किरण (विश्वाय) समस्त जगत् के प्रयोजन के (दृशे) देखने जानने के लिये
(जातवेदसम्) जो उत्पन्न हुए सब पदार्थों को जानता वा मूर्तिमान् पदार्थों को
प्राप्त होता है, (त्यम्) उस (सूर्य्यम्)
(देवम्) दिव्यगुणसम्पन्न सूर्य्य को (उ) तर्क के साथ (उत्) (वहन्ति) प्राप्त कराते
हैं, वैसे विद्वान् के (केतवः) प्रकृष्ट ज्ञान और (स्वाहा)
सत्य वाणी या उपदेश मनुष्य को परब्रह्म की प्राप्ति करा देता है ॥४१॥
भावार्थभाषाः
-जैसे प्राणियों के लिये सूर्य्य की किरण उसको प्रकाशित करती है, वैसे मनुष्य की अनेक विद्यायुक्त बुद्धियाँ ईश्वर का प्रकाश करा देती हैं
॥४१॥
देवता:
सूर्य्यो देवता ऋषि: कुत्स ऋषिः छन्द: भुरिग् आर्षी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
चि॒त्रं
दे॒वाना॒मुद॑गा॒दनी॑कं॒ चक्षु॑र्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्या॒ग्नेः। आप्रा॒
द्यावा॑पृथि॒वीऽअ॒न्तरि॑क्ष॒ꣳ सूर्य॑ऽआ॒त्मा जग॑तस्त॒स्थुष॑श्च॒ स्वाहा॑ ॥४२॥
पद
पाठ
चित्र॒म्।
दे॒वाना॑म्। उत्। अ॒गा॒त्। अनी॑कम्। चक्षुः॑। मि॒त्रस्य॑। वरु॑णस्य। अ॒ग्नेः। आ।
अ॒प्राः॒। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। अ॒न्तरि॑क्षम्। सूर्य्यः॑। आ॒त्मा।
जग॑तः। त॒स्थुषः॑। च॒। स्वाहा॑ ॥४२॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
भी वैसे ही ईश्वर के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे मनुष्यो ! तुम को अति उचित है कि जो (सूर्य्यः) सविता (स्वाहा) सत्य क्रिया से
(देवानाम्) नेत्र आदि के समान विद्वानों (मित्रस्य) मित्र वा प्राण (वरुणस्य)
श्रेष्ठ पुरुष वा उदान और (अग्नेः) अग्नि के (चित्रम्) अद्भुत (अनीकम्) बलवत्तर
सेना के तुल्य प्रसिद्ध (चक्षुः) प्रभाव के दिखलानेवाले गुणों को (उत्) (अगात्)
अच्छे प्रकार प्राप्त होता और (जगतः) जङ्गम प्राणी और (तस्थुषः) स्थावर संसारी
पदार्थों का (आत्मा) आत्मा के तुल्य होकर (द्यावापृथिवी) आकाश तथा भूमि और
(अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष को (आ) सब प्रकार से (अप्राः) व्याप्त होने के समान
परमात्मा है, उसी की उपासना निरन्तर किया
करो ॥४२॥
भावार्थभाषाः
-जिस कारण परमेश्वर आकाश के समान सब जगह व्याप्त, सूर्य्य के तुल्य स्वयं प्रकाशमान और सूत्रात्मा वायु के सदृश सब का
अन्तर्यामी है, इससे सब जीवों के लिये सत्य और असत्य को बोध
करानेवाला है। जिस किसी पुरुष को परमेश्वर को जानने की इच्छा हो, वह योगाभ्यास करके अपने आत्मा में उसे देख सकता है, अन्यत्र
नहीं ॥४२॥
देवता:
अन्तर्यामी जगदीश्वरो देवता ऋषि: आङ्गिरस ऋषिः छन्द: भुरिग् आर्षी त्रिष्टुप्
स्वर: धैवतः
अग्ने॒
नय॑ सु॒पथा॑ रा॒येऽअ॒स्मान् विश्वा॑नि देव व॒युना॑नि वि॒द्वान्।
यु॒यो॒ध्य᳕स्मज्जु॑हुरा॒णमेनो॒ भूयि॑ष्ठां ते॒ नम॑ऽउक्तिं विधेम॒ स्वाहा॑ ॥४३॥
पद
पाठ
अग्ने॑।
नय॑। सु॒पथेति॑ सु॒ऽपथा॑। रा॒ये। अ॒स्मान्। विश्वा॑नि। दे॒व॒। व॒युना॑नि।
वि॒द्वान्। यु॒यो॒धि। अ॒स्मत्। जु॒हु॒रा॒णम्। एनः॑। भूयि॑ष्ठाम्। ते॒।
नम॑उक्ति॒मिति॒ नमः॑ऽउक्तिम्। वि॒धे॒म्। स्वाहा॑ ॥४३॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
ईश्वर की प्रार्थना अगले मन्त्र में कही है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे (अग्ने) सब के अन्तःकरण में प्रकाश करनेवाले परमेश्वर ! आप (सुपथा) सत्यविद्या
धर्म्मयोगयुक्त मार्ग से (राये) योग की सिद्धि के लिये (अस्मान्) हम लोगों को
(विश्वानि) समस्त (वयुनानि) योग के विद्वानों को (नय) पहुँचाइये जिससे हम लोग
(स्वाहा) अपनी सत्यवाणी वा वेदवाणी से (ते) आप की (भूयिष्ठाम्) बहुत (नमउक्तिम्)
नमस्कारपूर्वक स्तुति को (विधेम) करें। हे (देव) योगविद्या को देनेवाले ईश्वर !
(विद्वान्) समस्त योग के गुण और क्रियाओं को जाननेवाले आप कृपा करके (जुहुराणम्)
हम लोगों के अन्तःकरण के कुटिलतारूप (एनः) दुष्ट कर्म्मों को (अस्मत्) योगानुष्ठान
करनेवाले हम लोगों से (युयोधि) दूर कर दीजिये ॥४३॥
भावार्थभाषाः
-कोई भी पुरुष परमात्मा की प्रेमभक्ति के विना योगसिद्धि को प्राप्त नहीं होता और
जो प्रेम-भक्तियुक्त होकर योगबल से परमेश्वर का स्मरण करता है, उसको वह दयालु परमात्मा शीघ्र योगसिद्धि देता है ॥४३॥
देवता:
प्रजापतिर्देवता ऋषि: आङ्गिरस ऋषिः छन्द: भुरिग् आर्षी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
अ॒यं
नो॑ऽअ॒ग्निर्वरि॑वस्कृणोत्व॒यं मृधः॑ पु॒रऽए॑तु प्रभि॒न्दन्। अ॒यं वाजा॑ञ्जयतु॒
वाज॑साताव॒यꣳ शत्रू॑ञ्जयतु॒ जर्हृ॑षाणः॒ स्वाहा॑ ॥४४॥
पद
पाठ
अ॒यम्।
नः॒। अग्निः॒। वरि॒॑वः। कृ॒णो॒तु॒। अ॒यम्। मृधः॑। पु॒रः। ए॒तु॒। प्र॒भि॒न्दन्निति॑
प्रऽभि॒न्दन्। अ॒यम्। वाजा॑न्। ज॒य॒तु॒। वाज॑साता॒विति॒ वाज॑ऽसातौ। अ॒यम्।
शत्रू॑न्। ज॒य॒तु॒। जर्हृ॑षाणः। स्वाहा॑ ॥४४॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
सङ्ग्राम में परमेश्वर के उपासक शूरवीरों को किस प्रकार युद्ध करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-(अयम्) यह प्रथम (अग्निः) वैद्यक विद्या का प्रकाश करनेवाला वैद्य (स्वाहा)
वैद्यक और युद्ध की शिक्षायुक्त वाणी से (वाजसातौ) युद्ध में (नः) हम लोगों को
(वरिवः) सुखकारक सेवन (कृणोतु) करे, (अयम्) यह
दूसरा युद्ध करनेवाला मुख्य वीर (प्रभिन्दन्) शत्रुओं को विदीर्ण करता हुआ (मृधः)
सङ्ग्राम के (पुरः) आगे (एतु) चले, (अयम्) यह तीसरा वीर
रसकारक उपदेश करनेवाला योद्धा (वाजान्) अत्यन्त वेगादिगुणयुक्त वीरों को (जयतु)
उत्साहयुक्त करता रहे, (अयम्) यह चौथा वीर (जर्हृषाणः)
निरन्तर आनन्दयुक्त होकर (शत्रून्) धर्म्मविरोधी शत्रुजनों को (जयतु) जीते ॥४४॥
भावार्थभाषाः
-जब युद्धकर्म में चार वीर अवश्य हों उनमें से एक तो वैद्यकशास्त्र की क्रियाओं
में चतुर सब की रक्षा करनेहारा वैद्य, दूसरा सब
वीरों को हर्ष देनेवाला उपदेशक, तीसरा शत्रुओं का अपमान
करनेहारा और चौथा शत्रुओं का विनाश करनेवाला हो, तब समस्त
युद्ध की क्रिया प्रशंसनीय होती है ॥४४॥
देवता:
प्रजापतिर्देवता ऋषि: आङ्गिरस ऋषिः छन्द: विराड् जगती स्वर: निषादः
रू॒पेण॑
वो रू॒पम॒भ्यागां॑ तु॒थो वो वि॒श्ववे॑दा॒ विभ॑जतु। ऋ॒तस्य॑ प॒था प्रेत॑
च॒न्द्रद॑क्षिणा॒ वि स्वः॒ पश्य॒ व्य᳕न्तरि॑क्षं॒ यत॑स्व सद॒स्यैः᳖ ॥४५॥
पद
पाठ
रूपेण॑।
वः॒। रू॒पम्। अ॒भि। आ। अ॒गा॒म्। तु॒थः। वः॒। वि॒श्ववे॑दा॒ इति॑ वि॒श्वऽवेदाः। वि।
भ॒ज॒तु॒। ऋ॒तस्य॑। प॒था। प्र। इ॒त॒। च॒न्द्रद॑क्षिणा॒ इति॑ च॒न्द्रऽद॑क्षिणाः। वि।
स्व॒रिति॒ स्वः᳖। पश्य॑। वि। अ॒न्तरि॑क्षम्। यत॑स्व। स॒द॒स्यैः᳖ ॥४५॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
तीन सभाओं से राज्य की शिक्षा करनी चाहिये, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे सेना और प्रजाजनो ! जैसे मैं (रूपेण) अपने दृष्टिगोचर आकार से (वः) तुम्हारे
(रूपम्) स्वरूप को (अभि) (आ) (अगाम्) प्राप्त होता हूँ, वैसे (विश्ववेदाः) सब को जाननेवाले परमात्मा के समान सभापति (वः) तुम
लोगों को (वि) (भजतु) पृथक्-पृथक् अपने-अपने अधिकार में नियत करे। हे सभापते !
(तुथः) सब से अधिक ज्ञानवाले प्रतिष्ठित आप (स्वः) प्रताप को प्राप्त हुए सूर्य्य
के समान (ऋतस्य) सत्य के (पथा) मार्ग से (अन्तरिक्षम्) अविनाशी राजनीति वा
ब्रह्मविज्ञान को (वि) अनेक प्रकार से (पश्य) देखो और सभा के बीच में (सदस्यैः)
सभासदों के साथ सत्य मार्ग से (प्र) (यतस्व) विशेष-विशेष यत्न करो तथा हे
(चन्द्रदक्षिणाः) सुवर्ण के दान करनेवाले राजपुरुषो ! तुम लोग धर्म्म को (वीत)
विशेषता से प्राप्त होओ ॥४५॥
भावार्थभाषाः
-सभापति राजा को चाहिये कि प्रजा, सेना के
पुरुषों को अपने पुत्रों के तुल्य प्रसन्न रक्खे और परमेश्वर के तुल्य पक्षपात
छोड़ कर न्याय करे। धार्म्मिक सभ्यजनों की तीन सभा होनी चाहियें उनमें से एक
राजसभा जिस के आधीन राज्य के सब कार्य्य चलें और सब उपद्रव निवृत्त रहें। दूसरी
विद्यासभा जिससे विद्या का प्रचार अनेकविधि किया जावे और अविद्या का नाश होता रहे
और तीसरी धर्म्मसभा जिससे धर्म्म की उन्नति और अधर्म्म की हानि निरन्तर की जाय। सब
लोगों को उचित है कि अपने आत्मा और परमात्मा को देखकर अन्याय मार्ग से अलग हों,
धर्म्म का सेवन और सभासदों के साथ समयानुकूल अनेक प्रकार से विचार
करके सत्य और असत्य के निर्णय करने में प्रयत्न किया करें ॥४५॥
देवता:
विद्वांसो देवता ऋषि: आङ्गिरस ऋषिः छन्द: भुरिग् आर्षी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
ब्रा॒ह्म॒णमद्य॒
वि॑देयं पितृ॒मन्तं॑ पैतृम॒त्यमृषि॑मार्षे॒यꣳ सु॒धातु॑दक्षिणम्। अ॒स्मद्रा॑ता
देव॒त्रा ग॑च्छत प्रदा॒तार॒मावि॑शत ॥४६॥
पद
पाठ
ब्रा॒ह्म॒णम्।
अ॒द्य। वि॒दे॒य॒म्। पि॒तृ॒मन्त॒मिति॑ पितृ॒ऽमन्त॑म्। पै॒तृ॒म॒त्यमिति॑
पैतृऽम॒त्यम्। ऋषि॑म्। आ॒र्षे॒यम्। सु॒धातु॑दक्षिण॒मिति॑ सु॒धातु॑ऽदक्षिणम्।
अ॒स्मद्रा॑ता॒ इत्य॒स्मत्ऽरा॑ताः। दे॒व॒त्रेति॑ देव॒ऽत्रा। ग॒च्छ॒त॒।
प्र॒दा॒तार॒मिति॑ प्रऽदा॒तार॑म्। आ। वि॒श॒त॒ ॥४६॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
दक्षिणा किस को और किस प्रकार देनी चाहिये, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे प्रजा सभा और सेना के मनुष्यो ! जैसे मैं (अद्य) आज (ब्राह्मणम्) वेद और ईश्वर
को जाननेवाला (पितृमन्तम्) प्रशंसनीय पितृ अर्थात् सत्यासत्य के विवेक से जिसके
सर्वथा रक्षक हैं, उस (पैतृमत्यम्) पितृभाव को
प्राप्त (ऋषिम्) वेदार्थ विज्ञान करानेवाला ऋषि (आर्षेयम्) जो ऋषिजनों के इस योग
से उत्पन्न हुए विज्ञान को प्राप्त (सुधातुदक्षिणम्) जिसके अच्छी-अच्छी पुष्टिकारक
दक्षिणारूप धातु हैं, उस (प्रदातारम्) अच्छे दानशील पुरुष को
(विदेयम्) प्राप्त होऊँ, वैसे तुम लोग (अस्मद्राताः) हमारे
लिये अच्छे गुणों के देनेवाले होकर (देवत्रा) शुद्ध गुण, कर्म,
स्वभावयुक्त विद्वानों के (आगच्छत) समीप आओ और शुभ गुणों में
(आविशत) प्रवेश करो ॥४६॥
भावार्थभाषाः
-इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। उत्साही पुरुष को क्या नहीं प्राप्त हो
सकता, कौन ऐसा पुरुष है कि जो प्रयत्न के साथ
विद्वानों का सेवन कर ऋषि लोगों के प्रकाशित किये हुए योगविज्ञान को न सिद्ध कर
सके। कोई भी विद्वान् अच्छे गुण, कर्म्म और स्वभाव से विपरीत
नहीं हो सकता और दाताजनों को कृपणता कभी नहीं आती है। इससे जो देनेवाले दक्षिणा
में प्रशंसनीय पदार्थ सुपात्र, धार्मिक, सर्वोपकारक विद्वानों को देते हैं, उनकी अचल कीर्ति
क्यों कर न हो ॥४६॥
देवता:
वरुणो देवता ऋषि: आङ्गिरस ऋषिः छन्द: भुरिक् प्राजापत्या जगती, स्वराट् प्राजापत्या जगती, निचृद् आर्ची जगती,
विराड् आर्ची जगती स्वर: निषादः
अ॒ग्नये॑
त्वा॒ मह्यं॒ वरु॑णो ददातु॒ सो᳖ऽमृत॒त्त्वम॑शी॒यायु॑र्दा॒त्रऽए॑धि॒ मयो॒ मह्यं॑
प्रतिग्रही॒त्रे रु॒द्राय॑ त्वा॒ मह्यं॒ वरु॑णो ददातु॒ सो᳖ऽमृत॒त्त्वम॑शीय प्रा॒णो
दा॒त्रऽए॑धि॒ वयो॒ मह्यं॑ प्रतिग्रही॒त्रे बृह॒स्पत॑ये त्वा॒ मह्यं॒ वरु॑णो ददातु॒
सो᳖ऽमृत॒त्त्वम॑शीय॒ त्वग्दा॒त्रऽए॑धि॒ मयो॒ मह्यं॑ प्रतिग्रही॒त्रे य॒माय॑ त्वा॒
मह्यं॒ वरु॑णो ददातु॒ सो᳖ऽमृत॒त्त्वम॑शीय॒ हयो॑ दा॒त्रऽए॑धि॒ वयो॒ मह्यं॑
प्रतिग्रही॒त्रे ॥४७॥
पद
पाठ
अ॒ग्नये॑।
त्वा॒। मह्य॑म्। वरु॑णः। द॒दा॒तु॒। सः। अ॒मृ॒त॒त्वमित्य॑मृत॒ऽत्वम्। अ॒शी॒य॒।
आयुः॑। दा॒त्रे। ए॒धि॒। मयः॑। मह्य॑म्। प्र॒ति॒ग्र॒ही॒त्र इति॑ प्रतिऽग्रही॒त्रे।
रु॒द्रा॑य। त्वा॒। मह्य॑म्। वरु॑णः। द॒दा॒तु॒। सः। अ॒मृ॒त॒त्वमित्य॑मृत॒ऽत्वम्।
अ॒शी॒य॒। प्रा॒णः। दा॒त्रे। ए॒धि॒। वयः॑। मह्य॑म्। प्र॒ति॒ग्र॒ही॒त्र इति॑
प्रतिऽग्रही॒त्रे। बृह॒स्पत॑ये। त्वा॒। मह्य॑म्। वरु॑णः। द॒दा॒तु॒। सः।
अ॒मृ॒त॒त्वमित्य॑मृत॒ऽत्वम्। अ॒शी॒य॒। त्वक्। दा॒त्रे। ए॒धि॒। मयः॑। मह्य॑म्।
प्र॒ति॒ग्र॒ही॒त्र इति॑ प्रतिऽग्रही॒त्रे। य॒माय॑। त्वा॒। मह्य॑म्। वरु॑णः।
द॒दा॒तु॒। सः। अ॒मृ॒त॒त्वमित्य॑मृत॒ऽत्वम्। अ॒शी॒य॒। हयः॑। दा॒त्रे। ए॒धि॒। वयः॑।
मह्य॑म्। प्र॒ति॒ग्र॒ही॒त्र इति॑ प्रतिऽग्रही॒त्रे ॥४७॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
किस प्रयोजन के लिये दान और प्रतिग्रह का सेवन करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे वसुसंज्ञक पढ़ानेवाले ! जिस (अग्नये) चौबीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य्य का सेवन करके
अग्नि के समान तेजस्वी होनेवाले (मह्यम्) मेरे लिये (त्वा) तुझ अध्यापक को (वरुणः)
सर्वोत्तम विद्वान् (ददातु) देवे, (सः) वह मैं
(अमृतत्वम्) अपने शुद्ध कर्म्मों से सिद्ध किये गये सत्य आनन्द को (अशीय) प्राप्त
होऊँ, उस (दात्रे) दानशील विद्वान् का (आयुः) बहुत
कालपर्य्यन्त जीवन (एधि) बढ़ाइये और (प्रतिग्रहीत्रे) विद्याग्रहण करनेवाले
(मह्यम्) मुझ विद्यार्थी के लिये (मयः) सुख बढ़ाइये। हे दुष्टों को रुलानेवाले
अध्यापक ! जिस (रुद्राय) चवालीस वर्ष पर्य्यन्त ब्रह्मचर्य्याश्रम का सेवन करके
रुद्र के गुण धारण करने की इच्छावाले (मह्यम्) मेरे लिये (त्वा) रुद्र नामक
पढ़ानेवाले आपको (वरुणः) अत्युत्तम गुणयुक्त (ददातु) देवे, (सः)
वह मैं (अमृतत्वम्) मुक्ति के साधनों को (अशीय) प्राप्त होऊँ, उस (दात्रे) विद्या देनेवाले विद्वान् के लिये (प्राणः) योगविद्या का बल
(एधि) प्राप्त कराइये और (प्रतिग्रहीत्रे) विद्याग्रहण करनेवाले (मह्यम्) मेरे
लिये (वयः) तीनों अवस्था का सुख प्राप्त कीजिये। हे सूर्य्य के समान तेजस्वी
अध्यापक ! जिस (बृहस्पतये) अड़तालीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य्य सेवन की इच्छा
करनेवाले (मह्यम्) मेरे लिये (त्वा) पूर्णविद्या पढ़ानेवाले आप को (वरुणः)
पूर्णविद्या से शरीर और आत्मा के बलयुक्त विद्वान् (ददातु) देवे, (सः) वह मैं (अमृतत्वम्) विद्या के आनन्द का (अशीय) भोग करूं, उस (दात्रे) पूर्ण विद्या देनेवाले महाविद्वान् के अर्थ (त्वक्) सरदी-गरमी
के स्पर्श का सुख (एधि) बढ़ाइये और (प्रतिग्रहीत्रे) पूर्ण विद्या के ग्रहण
करनेवाले (मह्यम्) मुझ शिष्य के लिये (मयः) पूर्ण विद्या का सुख उन्नत कीजिये। हे
गृहाश्रम से होनेवाले विषय सुख से विमुख विरक्त सत्योपदेश करनेहारे आप्त विद्वन् !
जिस (यमाय) गृहाश्रम के सुख के अनुराग से होनेवाले (मह्यम्) मेरे लिये (त्वा)
सर्वदोषरहित उपदेश करनेवाले आप को (वरुणः) सकल शुभगुणयुक्त विद्वान् (ददातु) देवे,
(सः) वह मैं (अमृतत्वम्) मुक्ति के सुख को (अशीय) प्राप्त होऊँ। उस
(दात्रे) ब्रह्मविद्या देनेवाले महाविद्वान् के लिये (हयः) ब्रह्मज्ञान की वृद्धि
(एधि) कीजिये और (प्रतिग्रहीत्रे) मोक्षविद्या के ग्रहण करनेवाले (मह्यम्) मेरे
लिये (वयः) तीनों अवस्था के सुख को प्राप्त कीजिये ॥४७॥
भावार्थभाषाः
-सब मनुष्यों को योग्य है कि जो सब से उत्तम गुणवाला, सब विद्याओं में सब से बढ़कर विद्वान् हो, उसके
आश्रय से अन्य अध्यापक विद्वानों की परीक्षा करके अपनी-अपनी कन्या और पुत्रों को
उन-उन के पढ़ाने योग्य विद्वानों से पढ़वावें और पढ़नेवालों को भी चाहिये कि
अपनी-अपनी अधिकन्यून बुद्धि को जान के अपने-अपने अनुकूल अध्यापकों की प्रीतिपूर्वक
सेवा करते हुए उनसे निरन्तर विद्या का ग्रहण करें ॥४७॥
देवता:
आत्मा देवता ऋषि: आङ्गिरस ऋषिः छन्द: आर्षी उष्णिक् स्वर: ऋषभः
को॑ऽदा॒त्
कस्मा॑ऽअदा॒त् कामो॑ऽदा॒त् कामा॑यादात्। कामो॑ दा॒ता कामः॑ प्रतिग्रही॒ता
कामै॒तत्ते॑ ॥४८॥
पद
पाठ
कः।
अ॒दा॒त्। कस्मै॑। अ॒दा॒त्। कामः॑। अ॒दा॒त्। कामा॑य। अ॒दा॒त्। कामः॑। दा॒ता। कामः॑।
प्र॒ति॒ग्र॒ही॒तेति॑ प्रतिऽग्रही॒ता। काम॑। ए॑तत्। ते॒ ॥४८॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
अगले मन्त्र में ईश्वर जीवों को उपदेश करता है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-(कः) कौन कर्म्म-फल को (अदात्) देता और (कस्मै) किसके लिये (अदात्) देता है। इन
दो प्रश्नों के उत्तर (कामः) जिसकी कामना सब करते हैं, वह परमेश्वर (अदात्) देता और (कामाय) कामना करनेवाले जीव को (अदात्) देता
है। अब विवेक करते हैं कि (कामः) जिसकी योगीजन कामना करते हैं, वह परमेश्वर (दाता) देनेवाला है, (कामः) कामना
करनेवाला जीव (प्रतिग्रहीता) लेनेवाला है। हे (काम) कामना करनेवाले जीव ! (ते)
तेरे लिये मैंने वेदों के द्वारा (एतत्) यह समस्त आज्ञा की है, ऐसा तू निश्चय करके जान ॥४८॥
भावार्थभाषाः
-इस संसार में कर्म्म करनेवाले जीव और फल देनेवाला ईश्वर है। यहाँ यह जानना चाहिये
कि कामना के विना कोई आँख का पलक भी नहीं हिला सकता। इस कारण जीव कामना करे, परन्तु धर्म्म सम्बन्धी कामना करे, अधर्म्म की नहीं।
यह निश्चय कर जानना चाहिये कि जो इस विषय में मनुजी ने कहा है, वह वेदानुकूल है, जैसे−‘इस संसार में अति कामना
प्रशंसनीय नहीं और कामना के विना कोई कार्य्य सिद्ध नहीं हो सकता, इसलिये धर्म्म की कामना करनी और अधर्म्म की नहीं, क्योंकि
वेदों का पढ़ना-पढ़ाना और वेदोक्त धर्म का आचरण करना आदि कामना इच्छा के विना कभी
सिद्ध नहीं हो सकती ॥१॥ इस संसार में तीनों काल में इच्छा के विना कोई क्रिया नहीं
देख पड़ती जो-जो कुछ किया जाता है, सो-सो सब इच्छा ही का
व्यापार है, इसलिये श्रेष्ठ वेदोक्त कामों की इच्छी करनी,
इतर दुष्ट कामों की नहीं ॥४८॥
इस
अध्याय में बाहर भीतर का व्यवहार, मनुष्यों का
परस्पर वर्ताव, आत्मा का कर्म, आत्मा
में मन की प्रवृत्ति, प्रथम सिद्ध योगी के लिये ईश्वर का
उपदेश, ज्ञान चाहनेवाले को योगाभ्यास करना, योग का लक्षण, पढ़ने-पढ़ानेवालों की रीति, योगविद्या के अभ्यास करनेवालों का वर्त्ताव, योगविद्या
से अन्तःकरण की शुद्धि, योगाभ्यासी का लक्षण, गुरु शिष्य का परस्पर व्यवहार, स्वामि सेवक का
वर्ताव, न्यायाधीश को प्रजा के रक्षण करने की रीति, राजपुरुष और सभासदों का कर्म्म, राजा का उपदेश,
राजाओं का कर्त्तव्य, परीक्षा करके सेनापति का
करना, पूर्ण विद्वान् को सभापति का अधिकार देना, विद्वानों का कर्त्तव्य कर्म्म, ईश्वर के उपासक को
उपदेश, यज्ञ के अनुष्ठान करनेवाले का विषय, प्रजाजन आदि के साथ सभापति का वर्त्ताव, राजा और
प्रजा के जनों का सत्कार, गुरु शिष्य की परस्पर प्रवृत्ति,
नित्य पढ़ने का विषय, विद्या की वृद्धि करना,
राजा का कर्त्तव्य, सेनापति का कर्म्म,
सभाध्यक्ष की क्रिया, ईश्वर के गुणों का वर्णन,
उसकी प्रार्थना, शूरवीरों को युद्ध का
अनुष्ठान, सेना में रहनेवाले पुरुषों का कर्त्तव्य, ब्रह्मचर्य्य सेवन की रीति और ईश्वर का जीवों के प्रति उपदेश, इस वर्णन के होने से सप्तम अध्याय के अर्थ की षष्ठाध्याय के अर्थ के साथ
सङ्गति जाननी चाहिये ॥
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