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यजुर्वेद अध्याय 8, हिन्दी भाष्य महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती

 



यजुर्वेद अध्याय 8, हिन्दी भाष्य महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

देवता: बृहस्पतिस्सोमो देवता ऋषि: आङ्गिरस ऋषिः छन्द: आर्ची पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः


उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽस्यादि॒त्येभ्य॑स्त्वा। 

विष्ण॑ऽउरुगायै॒ष ते॒ सोम॒स्तꣳ र॑क्षस्व॒ मा त्वा॑ दभन् ॥१॥

 

पद पाठ

उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। आ॒दि॒त्येभ्यः॑। त्वा॒। विष्णो॒ऽइति॒ विष्णो॒। उ॒रु॒गा॒येत्यु॑रुऽगाय। ए॒षः। ते॒। सोमः॑। तम्। र॒क्ष॒स्व॒। मा। त्वा॒। द॒भ॒न् ॥१॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

उसके प्रथम मन्त्र में गृहस्थ धर्म के लिये ब्रह्मचारिणी कन्या को कुमार ब्रह्मचारी का ग्रहण करना चाहिये, यह अगले मन्त्र में उपदेश किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे कुमार ब्रह्मचारिन् ! चौबीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य सेवनेवाली मैं (आदित्येभ्यः) जिन्होंने अड़तालीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य सेवन किया है, उन सज्जनों की सभा में (त्वा) अड़तालीस वर्ष ब्रह्मचर्य सेवन करनेवाले आप को स्वीकार करती हूँ, आप (उपयामगृहीतः) शास्त्र के नियम और उपनियमों को ग्रहण करनेवाले (असि) हो। हे (विष्णो) समस्त श्रेष्ठ विद्या, गुण, कर्म और स्वभाववाले श्रेष्ठजन ! (ते) आपका (एषः) यह गृहस्थाश्रम (सोमः) सोमलता आदि के तुल्य ऐश्वर्य का बढ़ानेवाला है, (तम्) उसकी (रक्षस्व) रक्षा करें। हे (उरुगाय) बहुत शास्त्रों को पढ़नेवाले ! (त्वा) आप को काम के बाण जैसे (मा दभन्) दुःख देनेवाले न होवें, वैसा साधन कीजिये ॥१॥


भावार्थभाषाः -सब ब्रह्मचर्याश्रम सेवन की हुई युवती कन्याओं को ऐसी आकाङ्क्षा अवश्य रखनी चाहिये कि अपने सदृश रूप, गुण, कर्म, स्वभाव और विद्यावाला, अपने से अधिक बलयुक्त, अपनी इच्छा के योग्य, अन्तःकरण से जिस पर विशेष प्रीति हो, ऐसे पति को स्वयंवर विधि से स्वीकार करके उसकी सेवा किया करें। ऐसे ही कुमार ब्रह्मचारी लोगों को भी चाहिये कि अपने-अपने समान युवती स्त्रियों का पाणिग्रहण करें। इस प्रकार दोनों स्त्री-पुरुषों को सनातन गृहस्थों के धर्म का पालन करना चाहिये और परस्पर अत्यन्त विषय की लोलुपता तथा वीर्य का विनाश कभी न करें, किन्तु सदा ऋतगामी हों। दश सन्तानों को उत्पन्न करें, उन्हें अच्छी शिक्षा देकर, अपने ऐश्वर्य की वृद्धि कर प्रीतिपूर्वक रमण करें, जैसे आपस में एक से दूसरे का वियोग, अप्रीति और व्यभिचार आदि दोष न हों, वैसा वर्त्ताव वर्त कर आपस में एक दूसरे की रक्षा सब प्रकार सब काल में किया करें ॥१॥

 

देवता: गृहपतिर्मघवा देवता ऋषि: आङ्गिरस ऋषिः छन्द: भुरिक् पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः


क॒दा च॒न स्त॒रीर॑सि॒ नेन्द्र॑ सश्चसि दा॒शुषे॑। उपो॒पेन्नु म॑घव॒न् भूय॒ऽइन्नु ते॒ दानं॑ दे॒वस्य॑ पृच्यतऽआदि॒त्येभ्य॑स्त्वा ॥२॥

 

पद पाठ

क॒दा। च॒न। स्त॒रीः। अ॒सि॒। न। इ॒न्द्र॒। स॒श्च॒सि॒। दा॒शुषे॑। उपो॒पेत्युप॑ऽउप। इत्। नु। म॒घ॒व॒न्निति॑ मघऽवन्। भूयः॑। इत्। नु। ते॒। दान॑म्। दे॒वस्य॑। पृ॒च्य॒ते॒। आ॒दि॒त्येभ्यः॑। त्वा॒ ॥२॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी गृहस्थों के धर्म का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (इन्द्र) परमैश्वर्य्य से युक्त पति ! जिस कारण आप (कदा) कभी (चन) भी (स्तरीः) अपने स्वभाव को छिपानेवाले (न) नहीं (असि) हैं, इस कारण (दाशुषे) दान देनेवाले पुरुष के लिये (उपोप) समीप (सश्चसि) प्राप्त होते हैं। हे (मघवन्) प्रशंसित धनयुक्त भर्ता ! (देवस्य) विद्वान् (ते) आप का जो (दानम्) दान अर्थात् अच्छी शिक्षा वा धन आदि पदार्थों का देना है, (इत्) वही (नु) शीघ्र (भूयः) अधिक करके मुझ को (पृच्यते) प्राप्त होवे, इसी से मैं स्त्रीभाव से (आदित्येभ्यः) प्रति महीने सुख देनेवाले आपका आश्रय करती हूँ ॥२॥


भावार्थभाषाः -विवाह की कामना करनेवाली युवती स्त्री को चाहिये कि जो छल-कपटादि आचरणों से रहित प्रकाश करने और एक ही स्त्री को चाहनेवाला, जितेन्द्रिय, सब प्रकार का उद्योगी, धार्मिक और विद्वान् पुरुष हो, उसके साथ विवाह करके आनन्द में रहे ॥२॥

 

देवता: आदित्यो गृहपतिर्देवताः ऋषि: आङ्गिरस ऋषिः छन्द: निचृद् आर्षी पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः


क॒दा च॒न प्रयु॑च्छस्यु॒भे निपा॑सि॒ जन्म॑नी। तुरी॑यादित्य॒ सव॑नं तऽइन्द्रि॒यमात॑स्थाव॒मृतं॑ दि॒व्या᳖दि॒त्येभ्य॑स्त्वा ॥३॥

 

पद पाठ

क॒दा। च॒न। प्र। यु॒च्छ॒सि॒। उ॒भेऽइत्यु॒भे। नि। पा॒सि॒। जन्म॑नि॒ऽइति॒ जन्म॑नी॒। तु॒री॑य। आ॒दि॒त्य॒। सव॑नम्। ते॒। इ॒न्द्रि॒यम्। आ। त॒स्थौ॒। अ॒मृत॑म्। दि॒वि। आ॒दि॒त्येभ्यः॑। त्वा॒ ॥३॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी गृहस्थ का धर्म अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -इस मन्त्र में नकार का अध्याहार आकाङ्क्षा के होने से होता है। हे पते ! आप जो (कदा) कभी (चन) भी (प्र) (युच्छसि) प्रमाद नहीं करते हो तो अपने (उभे) दोनों (जन्मनी) वर्त्तमान और परजन्म को निरन्तर (पासि) पालते हो। हे (आदित्य) विद्या गुणों में सूर्य के तुल्य प्रकाशमान ! जो (ते) आपके (सवनम्) उत्पत्ति धर्मयुक्त कार्य्य सिद्ध करने हारे (इन्द्रियम्) मन आदि इन्द्रिय के (आ) (तस्थौ) वश में रहें तो आप (दिवि) प्रकाशित व्यवहारों में (अमृतम्) अविनाशी सुख को प्राप्त हो जावें। हे (तुरीय) चतुर्थाश्रम के पूर्ण करनेवाले ! (आदित्येभ्यः) प्रति मास के सुख के लिये (त्वा) दृढ़ेन्द्रिय आप को मैं स्त्री स्वीकार करती हूँ ॥३॥


भावार्थभाषाः -जो प्रमादी पुरुष विवाहित स्त्री को छोड़ कर परस्त्री का सेवन करता है, वह इस लोक और परलोक में दुर्भागी होता है और जो संयमी अपनी ही स्त्री का चाहनेवाला दूसरे की स्त्री को नहीं चाहता, वह दोनों लोक में परम सुख को क्यों न भोगे? इस से सब स्त्रियों को योग्य है कि जितेन्द्रिय पति का सेवन करें, अन्य का नहीं ॥३॥

 

देवता: आदित्यो गृहपतिर्देवताः ऋषि: कुत्स ऋषिः छन्द: निचृद् जगती स्वर: निषादः


य॒ज्ञो दे॒वानां॒ प्रत्ये॑ति सु॒म्नमादि॑त्यासो॒ भव॑ता मृड॒यन्तः॑। आ वो॒ऽर्वाची॑ सुम॒तिर्व॑वृत्याद॒ꣳहोश्चि॒द्या व॑रिवो॒वित्त॒रास॑दादि॒त्येभ्य॑स्त्वा ॥४॥

 

पद पाठ

य॒ज्ञः। दे॒वाना॑म्। प्रति॑। ए॒ति॒। सु॒म्नम्। आदि॑त्यासः। भव॑त। मृ॒ड॒यन्तः॑। आ। वः॒। अ॒र्वाची॑। सु॒म॒तिरिति॑ सुऽम॒तिः। व॒वृ॒त्या॒त्। अ॒ᳬहोः। चि॒त्। या। व॒रि॒वो॒वित्त॒रेति॑ वरिवो॒वित्ऽत॑रा। अस॑त्। आ॒दि॒त्येभ्यः। त्वा॒ ॥४॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी गृहाश्रम का विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (आदित्यासः) सूर्य्यलोकों के समान विद्या आदि शुभ गुणों से प्रकाशमान ! आप जो (देवानाम्) विद्वान् (वः) आप लोगों का यह (यज्ञः) स्त्रीपुरुषों के वर्त्तने योग्य गृहाश्रम व्यवहार (सुम्नम्) सुख को (प्रति) (एति) निश्चय करके प्राप्त करता है और (या) जो (अंहोः) गृहाश्रम के सुख को सिद्ध करनेवाली (अर्वाची) अच्छी शिक्षा और विद्याभ्यास के पीछे विज्ञानप्राप्ति का हेतु (वरिवोवित्तरा) सत्यव्यवहार का निरन्तर विज्ञान देनेवाली आप लोगों की (सुमतिः) श्रेष्ठ बुद्धि, श्रेष्ठ मार्ग में (आ) निरन्तर (ववृत्यात्) प्रवृत्त होवे, जो (आदित्येभ्यः) आप्त विद्वानों से उत्तम विद्या और शिक्षा जो (त्वा) तुझ को (असत्) प्राप्त हो, (चित्) उस बुद्धि से ही युक्त हम दोनों स्त्री-पुरुष को (मृडयन्तः) सदा सुख देते (भवत) रहिये ॥४॥


भावार्थभाषाः -विवाह करके स्त्रीपुरुषों को चाहिये कि जिस-जिस काम से विद्या, अच्छी शिक्षा, बुद्धि, धन, सुहृद्भाव और परोपकार बढ़े, उस कर्म का सेवन अवश्य किया करें ॥४॥

 

देवता: गृहपतयो देवताः ऋषि: कुत्स ऋषिः छन्द: प्राजापत्या अनुष्टुप्, निचृद् आर्षी जगती स्वर: निषादः, गान्धारः


विव॑स्वन्नादित्यै॒ष ते॑ सोमपी॒थस्तस्मि॑न् मत्स्व। श्रद॑स्मै नरो॒ वच॑से दधातन॒ यदा॑शी॒र्दा दम्प॑ती वा॒मम॑श्नु॒तः। पुमा॑न् पु॒त्रो जा॑यते वि॒न्दते॒ वस्वधा॑ वि॒श्वाहा॑र॒पऽए॑धते गृ॒हे ॥५॥

 

पद पाठ

विव॑स्वन्। आ॒दि॒त्य॒। ए॒षः। ते॒। सो॒म॒पी॒थ इति॑ सोमऽपी॒थः। तस्मि॑न्। म॒त्स्व॒। श्रत्। अ॒स्मै॒। न॒रः। वच॑से। द॒धा॒त॒न॒। यत्। आ॒शी॒र्देत्या॑शीः॒ऽदा। दम्प॑ती॒ इति॒ दम्ऽप॑ती। वा॒मम्। अश्नु॒तः। पुमा॑न्। पु॒त्रः। जा॒य॒ते॒। वि॒न्दते॑। वसु॑। अध॑। वि॒श्वाहा॑। अ॒र॒पः। ए॒ध॒ते॒। गृ॒हे ॥५॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी गृहस्थ का धर्म अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (विवस्वन्) विविध प्रकार के स्थानों में बसनेवाले (आदित्य) अविनाशीस्वरूप विद्वन् गृहस्थ ! (एषः) यह जो (ते) आपका (सोमपीथः) जिसमें सोम लता आदि ओषधियों के रस पीने में आवें, ऐसा गृहाश्रम है (तस्मिन्) उस में आप (विश्वाहा) सब दिन (मत्स्व) आनन्दित रहो। हे (नरः) गृहाश्रम करनेवाले गृहस्थो ! आप लोग (अस्मै) इस (वचसे) गृहाश्रम के वाग् व्यवहार के लिये (श्रत्) सत्य ही का (दधातन) धारण करो। (यत्) जिस (गृहे) गृहाश्रम में (दम्पती) स्त्रीपुरुष (वामम्) प्रशंसनीय गृहाश्रम के धर्म को (अश्नुतः) प्राप्त होते हैं, उस में (आशीर्दा) कामना देनेवाला (अरपः) निष्पाप धर्मात्मा (पुमान्) पुरुषार्थी (पुत्रः) वृद्धावस्था के दुःखों से रक्षा करनेवाला पुत्र (जायते) उत्पन्न होता है, वह उत्तम (वसु) धन को (विन्दते) प्राप्त होता है, (अध) इस के अनन्तर वह कुटुम्ब और विद्या धन के ऐश्वर्य से (एधते) बढ़ता है ॥५॥


भावार्थभाषाः -स्त्रीपुरुषों को चाहिये कि अच्छी प्रीति से परस्पर परीक्षापूर्वक स्वयंवर विवाह और सत्य आचरणों से सन्तानों को उत्पन्न कर बहुत ऐश्वर्य को प्राप्त होके नित्य उन्नति पावें ॥५॥

 

देवता: गृहपतयो देवताः ऋषि: भरद्वाज ऋषिः छन्द: निचृद् आर्षी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः


वा॒मम॒द्य स॑वितर्वा॒ममु श्वो दि॒वेदि॑वे वा॒मम॒स्मभ्य॑ꣳ सावीः। वा॒मस्य॒ हि क्षय॑स्य देव॒ भूरे॑र॒या धि॒या वा॑म॒भाजः॑ स्याम ॥६॥

 

पद पाठ

वा॒मम्। अ॒द्य। स॒वि॒तः॒। वा॒मम्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। श्वः। दि॒वेदि॑व॒ इति॑ दि॒वेऽदि॑वे। वा॒मम्। अ॒स्मभ्य॑म्। सा॒वीः। वा॒मस्य॑। हि। क्षय॑स्य। दे॒व॒। भूरेः॑। अ॒या। धि॒या। वाम॑भाज॒ इति॑ वाम॒ऽभाजः॑। स्या॒म॒ ॥६॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी गृहस्थों को किस प्रकार प्रयत्न करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (देव) सुख देने (सवितः) और समस्त ऐश्वर्य के उत्पन्न करनेवाले मुख्यजन ! आप (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये (अद्य) आज (वामम्) अति प्रशंसनीय सुख (उ) और आज ही क्या किन्तु (श्वः) अगले दिन (वामम्) उक्त सुख तथा (दिवेदिवे) दिन-दिन (वामम्) उस सुख को (सावीः) उत्पन्न कीजिये, जिससे हम लोग आप की कृपा से उत्पन्न हुई (अया) इस (धिया) श्रेष्ठ बुद्धि से (भूरेः) अनेक पदार्थों से युक्त (वामस्य) अत्यन्त सुन्दर (क्षयस्य) गृहाश्रम के बीच में (वामभाजः) प्रशंसनीय कर्म करनेवाले (हि) ही (स्याम) होवें ॥६॥


भावार्थभाषाः -गृहस्थजनों को चाहिये कि ईश्वर के अनुग्रह से प्रशंसनीय बुद्धियुक्त मङ्गलकारी गृहाश्रमी होकर इस प्रकार का प्रयत्न करें कि जिससे तीनों अर्थात् भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल में अत्यन्त सुखी हों ॥६॥

 

देवता: सविता गृहपतिर्देवता ऋषि: भरद्वाज ऋषिः छन्द: विराड् ब्राह्मी अनुष्टुप् स्वर: गान्धारः


उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि सावि॒त्रो᳖ऽसि चनो॒धाश्च॑नो॒धाऽअ॑सि॒ चनो॒ मयि॑ धेहि। जिन्व॑ य॒ज्ञं जिन्व॑ य॒ज्ञप॑तिं॒ भगा॑य दे॒वाय॑ त्वा सवि॒त्रे ॥७॥

 

पद पाठ

उ॒प॒या॒मगृही॑त॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। सा॒वि॒त्रः। अ॒सि॒। च॒नो॒धा इति॑ चनः॒ऽधाः। च॒नो॒धा इति॑ चनः॒ऽधाः। अ॒सि॒। चनः॑। मयि॑। धे॒हि॒। जिन्व॑। य॒ज्ञम्। जिन्व॑। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिम्। भगा॑य। दे॒वाय॑। त्वा॒। स॒वि॒त्रे ॥७॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी गृहाश्रम का धर्म अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे पुरुष ! तुझ से जैसे मैं नियम और उपनियमों से ग्रहण करी गई हूँ, वैसे मैंने आप को (उपयामगृहीतः) विवाह नियम से ग्रहण किया (असि) है, जैसे आप (चनोधाः चनोधाः) अन्न-अन्न के धारण करनेवाले (असि) हैं और (सावित्रः) सविता समस्त सन्तानादि सुख उत्पन्न करनेवाले परमेश्वर को अपना इष्टदेव माननेवाले (असि) हैं, वैसे मैं भी हूँ। जैसे आप (मयि) मेरे निमित्त (चनः) अन्न को (धेहि) धरिये, वैसे मैं भी आपके निमित्त धारण करूँ। जैसे आप (यज्ञम्) दृढ़ पुरुषों के सेवन योग्य धर्म व्यवहार को (जिन्व) प्राप्त हों, वैसे मैं भी प्राप्त होऊँ और जैसे (सवित्रे) सन्तानों की उत्पत्ति के हेतु (भगाय) धनादि सेवनीय (देवाय) दिव्य ऐश्वर्य के लिये (यज्ञपतिम्) गृहाश्रम को पालनेहारे आप को मैं प्रसन्न रक्खूँ, वैसे आप भी (जिन्व) तृप्त कीजिये ॥७॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विवाहित स्त्री-पुरुषों को योग्य है कि लाभ के अनुकूल व्यवहार से परस्पर ऐश्वर्य पावें और प्रीति के साथ सन्तानोत्पत्ति का आचरण करें ॥७॥

 

देवता: विश्वेदेवा गृहपतयो देवताः ऋषि: भरद्वाज ऋषिः छन्द: प्राजापत्या गायत्री, निचृद् आर्षी बृहती स्वर: मध्यमः


उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि सु॒शर्मा॑सि सुप्रतिष्ठा॒नो बृ॒हदु॑क्षाय॒ नमः॑। विश्वे॑भ्यस्त्वा दे॒वेभ्य॑ऽए॒ष ते॒ योनि॒र्विश्वे॑भ्यस्त्वा दे॒वेभ्यः॑ ॥८॥

 

पद पाठ

उ॒प॒या॒मगृ॑ही॒त इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। सु॒शर्म्मेति॑ सु॒ऽशर्म्मा॑। अ॒सि॒। सु॒प्र॒ति॒ष्ठा॒नः। सु॒प्र॒ति॒स्था॒न इति॑ सुऽप्रतिस्था॒नः। बृ॒हदु॑क्षा॒येति॑ बृ॒हत्ऽउ॑क्षाय। नमः॑। विश्वे॑भ्यः। त्वा॒। दे॒वेभ्यः॑। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। विश्वे॑भ्यः। त्वा॒। दे॒वेभ्यः॑ ॥८॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी गृहस्थ को सेवने योग्य धर्म्म का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे पते ! जैसे मैंने आप को (उपयामगृहीतः) नियम-उपनियमों से ग्रहण किया (असि) है और (सुप्रतिष्ठानः) अच्छी प्रतिष्ठा और (सुशर्मा) अच्छे घरवाले (असि) हो, उन (बृहदुक्षाय) अत्यन्त वीर्य देनेवाले आप को (नमः) अच्छे प्रकार संस्कार किया हुआ, चित्त को प्रसन्न करनेवाला अन्न उचित समय पर देती हूँ, जिस आप का (एषः) यह (योनिः) सुखदायक महल है, (त्वा) उस आप को (विश्वेभ्यः) सब (देवेभ्यः) दिव्य सुखों के लिये सेवन करती हूँ और (त्वा) आप को (विश्वेभ्यः) समस्त (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये नियुक्त करती हूँ, वैसे आप मुझ को कीजिये ॥८॥


भावार्थभाषाः -जिस गृहाश्रम भोगने की इच्छा रखनेवाले पुरुष का सब ऋतुओं में सुख देनेवाला घर हो और आप वीर्यवान् हो, उसी को स्त्री पतिभाव से स्वीकार करे और उस के लिये यथोचित समय पर सुख देवे तथा आप उस पति से उचित समय में दिव्य सुख भोगे और वे स्त्री-पुरुष दोनों विद्वानों का सत्सङ्ग किया करें ॥८॥

 

देवता: गृहपतयो विश्वेदेवा देवताः ऋषि: भरद्वाज ऋषिः छन्द: प्राजापत्या गायत्री, आर्षी उष्णिक्, स्वराड् आर्षी पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः


उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि॒ बृह॒स्पति॑सुतस्य देव सोम त॒ऽइन्दो॑रिन्द्रि॒याव॑तः॒ पत्नी॑वतो॒ ग्रहाँ॑२ऽऋध्यासम्। अ॒हं प॒रस्ता॑द॒हम॒वस्ताद् यद॒न्तरि॑क्षं॒ तदु॑ मे पि॒ताभू॑त्। अ॒हꣳ सूर्य॑मुभ॒यतो॑ ददर्शा॒हं दे॒वानां॑ पर॒मं गुहा॒ यत् ॥९॥

 

पद पाठ

उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मगृ॑हीतः। अ॒सि॒। बृह॒स्पति॑सुत॒स्येति॒ बृह॒स्पति॑ऽसुतस्य। दे॒व॒। सो॒म॒। ते॒। इन्दोः॑। इ॒न्द्रि॒याव॑तः। इ॒न्द्रि॒यव॑त॒ इती॑न्द्रि॒यऽव॑तः। पत्नी॑वत॒ इति॒ पत्नी॑ऽवतः। ग्रहा॑न्। ऋ॒ध्या॒स॒म्। अ॒हम्। प॒रस्ता॑त्। अ॒हम्। अ॒वस्ता॑त्। यत्। अ॒न्तरिक्ष॑म्। तत्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। मे॒। पि॒ता। अ॒भू॒त्। अ॒हम्। सू॑र्य्यम्। उ॒भ॒यतः॑। द॒द॒र्श॒। अ॒हम्। दे॒वाना॑म्। प॒र॒मम्। गुहा॑। यत् ॥९॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर गृहस्थ का धर्म्म अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (सोम) ऐश्वर्य्यसम्पन्न (देव) अति मनोहर पते ! जिस आप को मैं कुमारी ने (उपयामगृहीतः) विवाह नियमों से स्वीकार किया (असि) है, उन (इन्दोः) सोमगुणसम्पन्न (इन्द्रियावतः) बहुत धनवाले और (पत्नीवतः) यज्ञ समय में प्रशंसनीय स्त्री ग्रहण करनेवाले (बृहस्पतिसुतस्य) और बड़ी वेदवाणी के पालनेवाले के पुत्र (ते) आपके गृह और सम्बन्धियों को प्राप्त होके मैं (परस्तात्) आगे और (अवस्तात्) पीछे के समय में (ऋध्यासम्) सुखों से बढ़ती जाऊँ (यत्) जिस (देवानाम्) विद्वानों की (गुहा) बुद्धि में स्थित (अन्तरिक्षम्) सत्य विज्ञान को मैं (एमि) प्राप्त होती हूँ, उसी को तू भी प्राप्त हो और जो (मे) मेरा (पिता) पालन करने हारा (अभूत्) है, (अहम्) मैं जिस (सूर्य्यम्) चर-अचर के आत्मा रूप परमेश्वर को (उभयतः) उसके अगले-पिछले उन शिक्षा-विषयों से जिस (ददर्श) देखूँ, उसी को तू भी देख ॥९॥


भावार्थभाषाः -स्त्री और पुरुष विवाह से पहिले परस्पर एक-दूसरे की परीक्षा करके अपने समान गुण, कर्म्म, स्वभाव, रूप, बल, आरोग्य, पुरुषार्थ और विद्यायुक्त होकर स्वयंवर विधि से विवाह करके ऐसा यत्न करें कि जिससे धर्म्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि को प्राप्त हों। जिसके माता और पिता विद्वान् न हों, सन्तान भी उत्तम नहीं हो सकते, इससे अच्छी और पूर्ण विद्या को ग्रहण कर के ही गृहाश्रम के आचरण करें, इस के पूर्व नहीं ॥९॥

 

देवता: गृहपतयो देवताः ऋषि: भरद्वाज ऋषिः छन्द: विराड् ब्राह्मी बृहती स्वर: मध्यमः


अग्ना३इ पत्नी॑वन्त्स॒जूर्दे॒वेन॒ त्वष्ट्रा॒ सोमं॑ पिब॒ स्वाहा॑। प्र॒जाप॑ति॒र्वृषा॑सि रेतो॒धा रेतो॒ मयि॑ धेहि प्र॒जाप॑तेस्ते॒ वृष्णो॑ रेतो॒धसो॑ रेतो॒धाम॑शीय ॥१०॥

 

पद पाठ

अग्नाऽ२इ। पत्नी॑व॒न्निति॒ पत्नी॑ऽवन्। स॒जूरिति॑ स॒ऽजूः। दे॒वेन॑। त्वष्ट्रा॑। सोम॑म्। पि॒ब॒। स्वाहा॑। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। वृषा॑। अ॒सि॒। रे॒तो॒धा इति॑ रेतःऽधः। रेतः॑। मयि॑। धे॒हि॒। प्र॒जाप॑ते॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तेः। ते॒। वृष्णः॑। रे॒तो॒धस॒ इति॑ रेतः॒ऽधसः॑। रे॒तो॒धामिति॑ रे॒तःऽधाम्। अ॒शी॒य॒ ॥१०॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

स्त्री अपने पुरुष की किस प्रकार से प्रशंसा और प्रार्थना करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) समस्त सुख पहुँचानेवाले स्वामिन् ! (सजूः) समान प्रीति करनेवाले आप मेरे (देवेन) दिव्य सुख देनेवाले (त्वष्ट्रा) समस्त दुःख विनाश करनेवाले गुण के साथ (स्वाहा) सत्यवाणीयुक्त क्रिया से (सोमम्) सोमवल्ली आदि औषधियों के विशेष आसव को (पिब) पीओ। हे (पत्नीवन्) प्रशंसनीय यज्ञसम्बधिनी स्त्री को ग्रहण करने (वृषा) वीर्य्य सींचने (रेतोधाः) वीर्य्य धारण करने (प्रजापतिः) और सन्तानादि के पालनेवाले ! जो आप (असि) हैं, वह (मयि) मुझ विवाहित स्त्री में (रेतः) वीर्य्य को (धेहि) धारण कीजिये। हे स्वामिन् ! मैं (वृष्णः) वीर्य्य सीचने (रेतोधसः) पराक्रम धारण करने (प्रजापतेः) सन्तान आदि की रक्षा करनेवाले (ते) आपके सङ्ग से (रेतोधाम्) वीर्य्यवान् अति पराक्रमयुक्त पुत्र को (अशीय) प्राप्त होऊँ ॥१०॥


भावार्थभाषाः -इस संसार में मनुष्यजन्म को पाकर स्त्री और पुरुष ब्रह्मचर्य्य, उत्तम विद्या, अच्छे गुण और पराक्रमयुक्त होकर विवाह करें। विवाह की मर्यादा ही से सन्तानों की उत्पत्ति और रतिक्रीड़ा से उत्पन्न हुए सुख को प्राप्त होकर नित्य आनन्द में रहें। विना विवाह के स्त्री-पुरुष वा पुरुष-स्त्री के समागम की इच्छा मन से भी न करें। जिससे मनुष्यशक्ति की बढ़ती होवे, इससे गृहाश्रम का आरम्भ स्त्री-पुरुष करें ॥१०॥

 

देवता: गृहपतयो देवताः ऋषि: भरद्वाज ऋषिः छन्द: निचृद् आर्षी अनुष्टुप् स्वर: गान्धारः


उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि॒ हरि॑रसि हारियोज॒नो हरि॑भ्यां त्वा। हर्यो॑र्धा॒ना स्थ॑ स॒हसो॑मा॒ऽइन्द्रा॑य ॥११॥

 

पद पाठ

उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। हरिः॑। अ॒सि॒। हा॒रि॒यो॒ज॒न इति॑ हारिऽयोज॒नः। हरि॑ऽभ्या॒मिति॒ हरि॑ऽभ्याम्। त्वा॒। हर्य्योः॑। धा॒नाः। स्थ॒। स॒हसो॑मा इति॑ स॒हऽसो॑माः। इन्द्रा॑य ॥११॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर गृहस्थों का धर्म अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे पते ! आप (उपयामगृहीतः) गृहाश्रम के लिये ग्रहण किये हुए (असि) हैं, (हारियोजनः) घोड़ों को जोड़नेवाले सारथि के समान (हरिः) यथायोग्य गृहाश्रम के व्यवहार को चलानेवाले (असि) हैं, इस कारण (हरिभ्याम्) अच्छी शिक्षा को पाए हुए घोड़े से युक्त रथ में विराजमान (त्वा) आप की मैं सेवा करूँ। तुम लोग गृहाश्रम करनेवाले (इन्द्राय) परमैश्वर्य्य की प्राप्ति के लिये (सहसोमाः) उत्तम गुणयुक्त होकर (हर्य्योः) वेगादि गुणवाले घोड़ों को (धानाः) स्थानादिकों में स्थापन करनेवाले (स्थ) होओ ॥११॥


भावार्थभाषाः -ब्रह्मचर्य्य से शुद्ध शरीर सद्गुण सद्विद्या युक्त होकर विवाह की इच्छा करनेवाले कन्या और पुरुष युवावस्था को पहुँच और परस्पर एक-दूसरे के धन की उन्नति को अच्छे प्रकार देख कर विवाह करें, नहीं तो धन के अभाव में दुःख की उन्नति होती है। इसलिये उक्त गुणों से विवाह कर आनन्दित हुए प्रतिदिन ऐश्वर्य्य की उन्नति करें ॥११॥

 

देवता: गृहपतयो देवताः ऋषि: भरद्वाज ऋषिः छन्द: आर्षी पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः


यस्ते॑ऽअश्व॒सनि॑र्भ॒क्षो यो गो॒सनि॒स्तस्य॑ तऽइ॒ष्टय॑जुष स्तु॒तस्तो॑मस्य श॒स्तोक्थ॒स्योप॑हूत॒स्योप॑हूतो भक्षयामि ॥१२॥

 

पद पाठ

यः। ते॒। अ॒श्व॒सनि॒रित्य॑श्व॒ऽसनिः॑। भ॒क्षः। यः। गो॒सनि॒रिति॑ गो॒ऽसनिः॑। तस्य॑। ते॒। इ॒ष्टय॑जुष॒ इती॒ष्टऽय॑जुषः। स्तु॒तस्तो॑म॒स्येति॑ स्तु॒तऽस्तो॑मस्य। श॒स्तोक्थ॒स्येति॑ श॒स्तऽउ॑क्थ॒स्य। उप॑हूत॒स्येत्युप॑ऽहूतस्य। उप॑हूत॒ इत्युप॑ऽहूतः। भ॒क्ष॒या॒मि॒ ॥१२॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब गृहस्थों की मित्रता अगले मन्त्र में कही है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे प्रियवीर पुरुष मित्र ! जो आप (उपहूतः) मुझ से सत्कार को प्राप्त होकर (अश्वसनिः) अग्नि आदि पदार्थ वा घोड़ों और (गोसनिः) संस्कृत वाणी, भूमि और विद्या प्रकाश आदि अच्छे पदार्थों के देनेवाले (असि) हैं, उन (शस्तोक्थस्य) प्रशंसित ऋग्वेद के सूक्तयुक्त (इष्टयजुषः) इष्ट सुखकर यजुर्वेद के भागयुक्त वा (स्तुतस्तोमस्य) सामवेद के गान के प्रशंसा करनेहारे (ते) आप का (यः) जो (भक्षः) चाहना से भोजन करने योग्य पदार्थ है, उस को आप से सत्कृत हुई मैं (भक्षयामि) भोजन करूँ तथा हे प्रिय सखि ! जो तू अग्नि आदि पदार्थ वा घोड़ों के देने और संस्कृत वाणी, भूमि, विद्या, प्रकाश आदि अच्छे-अच्छे पदार्थ देनेवाली है, उस प्रशंसनीय ऋक्सूक्त यजुर्वेद भाग से स्तुति किये हुए सामगान करनेवाली तेरा जो यह भोजन करने योग्य पदार्थ है, उस को अच्छे मान से बुलाया हुआ मैं भोजन करता हूँ ॥१२॥


भावार्थभाषाः -अच्छे उत्साह बढ़ानेवाले कामों में गृहाश्रम का आचरण करनेवाली स्त्री अपनी सहेलियों वा पुरुष गृहाश्रमी पुरुष अपने इष्टमित्र और बन्धुजन आदि को बुला कर भोजन आदि पदार्थों से यथायोग्य सत्कार करके प्रसन्न करें और परस्पर भी सदा प्रसन्न रहें और उपदेश, शास्त्रार्थ, विद्या, वाग्विलास को करें ॥१२॥

 

देवता: गृहपतयो विश्वेदेवा देवताः ऋषि: भरद्वाज ऋषिः छन्द: साम्नी उष्णिक्, निचृत् साम्नी उष्णिक्, निचृत् साम्नी अनुष्टुप्, भुरिक् प्राजापत्या गायत्री, निचृद् आर्षी उष्णिक् स्वर: ऋषभः


दे॒वकृ॑त॒स्यैन॑सोऽव॒यज॑नमसि मनु॒ष्य᳖कृत॒स्यैन॑सोऽव॒यज॑नमसि पि॒तृकृ॑त॒स्यैन॑सोऽव॒यज॑नम-स्या॒त्मकृ॑त॒स्यैन॑सोऽव॒यज॑नम॒स्येन॑सऽएनसोऽव॒यज॑नमसि। यच्चा॒हमेनो॑ वि॒द्वाँश्च॒कार॒ यच्चावि॑द्वाँ॒स्तस्य॒ सर्व॒स्यैन॑सोऽव॒यज॑नमसि ॥१३॥

 

पद पाठ

दे॒वकृ॑त॒स्येति॑ दे॒वऽकृ॑तस्य। एन॑सः। अ॒व॒यज॑न॒मित्य॑व॒ऽयज॑नम्। अ॒सि॒। म॒नु॒ष्य॒कृत॒स्येति॑ म॒नु॒ष्य᳖ऽकृत॑स्य। एन॑सः। अ॒व॒यज॑न॒मित्य॑व॒ऽयज॑नम्। अ॒सि॒। पि॒तृकृ॑त॒स्येति॑ पि॒तृऽकृ॑तस्य। एन॑सः। अ॒व॒यज॑न॒मित्य॑व॒ऽयज॑नम्। अ॒सि॒। आ॒त्मकृ॑त॒स्येत्या॒त्मऽकृ॑तस्य। एन॑सः। अ॒व॒यज॑न॒मित्य॑व॒ऽयज॑नम्। अ॒सि॒। एन॑स एनस॒ इत्येन॑सःऽएनसः। अ॒व॒यज॑न॒मित्य॑व॒ऽयज॑नम्। अ॒सि॒। यत्। च॒। अ॒हम्। एनः॑। वि॒द्वान्। च॒कार॑। यत्। च॒। अवि॑द्वान्। तस्य॑। सर्व॑स्य। एन॑सः। अ॒व॒यज॑न॒मित्य॑व॒ऽयज॑नम्। अ॒सि॒ ॥१३॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अगले मन्त्र में पूर्वोक्त विषय प्रकारान्तर से कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे सब के उपकार करनेवाले मित्र ! आप (देवकृतस्य) दान देनेवाले के (एनसः) अपराध के (अवयजनम्) विनाश करनेवाले (असि) हो, (मनुष्यकृतस्य) साधारण मनुष्यों के किये हुए (एनसः) अपराध के (अवयजनम्) विनाश करनेवाले (असि) हो, (पितृकृतस्य) पिता के किये हुए (एनसः) विरोध आचरण के (अवयजनम्) अच्छे प्रकार हरनेवाले (असि) हो, (आत्मकृतस्य) अपने किये हुए (एनसः) पाप के (अवयजनम्) दूर करनेवाले (असि) हो, (एनसः) (एनसः) अधर्म्म-अधर्म्म के (अवयजनम्) नाश करनेहारे (असि) हो, (विद्वान्) जानता हुआ मैं (यत्) जो (च) कुछ भी (एनः) अधर्म्माचरण (चकार) किया, करता हूँ वा करूँ (अविद्वान्) अनजान मैं (यत्) जो (च) कुछ भी किया, करता हूँ वा करूँ (तस्य) उस (सर्वस्य) सब (एनसः) दुष्ट आचरण के (अवयजनम्) दूर करनेवाले आप (असि) हैं ॥१३॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् गृहस्थ पुरुष दान आदि अच्छे काम के करनेवाले जनों के अपराध दूर करने में अच्छा प्रयत्न करें। जाने वा विना जाने अपने कर्त्तव्य अर्थात् जिस को चाहता हो, उस अपराध को आप छोड़ें तथा औरों के किये हुए अपराध को औरों से छुड़ावें, वैसे कर्म करके सब लोग यथोक्त समस्त सुखों को प्राप्त हों ॥१३॥

 

देवता: गृहपतयो देवताः ऋषि: भरद्वाज ऋषिः छन्द: विराड् आर्षी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः


सं वर्च॑सा॒ पय॑सा॒ सं त॒नूभि॒रग॑न्महि॒ मन॑सा॒ सꣳशि॒वेन॑। त्वष्टा॑ सु॒दत्रो॒ वि द॑धातु॒ रायोऽनु॑मार्ष्टु त॒न्वो᳕ यद्विलि॑ष्टम् ॥१४॥

 

पद पाठ

सम्। वर्च॑सा पय॑सा। सम्। त॒नूभिः॑। अग॑न्महि। मन॑सा। सम्। शि॒वेन॑। त्वष्टा॑। सु॒दत्र॒ इति॑ सु॒ऽदत्रः॑। वि। द॒धा॒तु॒। रायः॑। अनु॑। मा॒र्ष्टु॒। त॒न्वः᳖। यत्। विलि॑ष्ट॒मिति॒ विऽलि॑ष्टम् ॥१४॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी मित्रकृत्य का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे सब विद्याओं के पढ़ाने (त्वष्टा) सब व्यवहारों के विस्तारकारक (सुदत्रः) अत्युत्तम दान के देनेवाले विद्वन् ! आप (संशिवेन) ठीक-ठीक कल्याणकारक (मनसा) विज्ञानयुक्त अन्तःकरण (संवर्चसा) अच्छे अध्ययन-अध्यापन के प्रकाश (पयसा) जल और अन्न से (यत्) जिस (तन्वः) शरीर की (विलिष्टम्) विशेष न्यूनता को (अनुमार्ष्टु) अनुकूल शुद्धि से पूर्ण और (रायः) उत्तम धनों को (विदधातु) विधान करो। उस देह और शरीरों को हम लोग (तनूभिः) ब्रह्मचर्य व्रतादि सुनियमों से बलयुक्त शरीरों से (समगन्महि) सम्यक् प्राप्त हों ॥१४॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि पुरुषार्थ से विद्या का सम्पादन, विधिपूर्वक अन्न और जल का सेवन, शरीरों को नीरोग और मन को धर्म में निवेश करके सदा सुख की उन्नति करें और जो कुछ न्यूनता हो, उस को परिपूर्ण करें, तथा जैसे कोई मित्र तुम्हारे सुख के लिये वर्त्ताव वर्त्ते, वैसे उसके सुख के लिये आप भी वर्त्तो ॥१४॥

 

देवता: गृहपतिर्देवता ऋषि: अत्रिर्ऋषिः छन्द: भुरिग् आर्षी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः


समि॑न्द्र णो॒ मन॑सा नेषि॒ गोभिः॒ सꣳ सू॒रिभि॑र्मघव॒न्त्सꣳ स्व॒स्त्या। सं ब्रह्म॑णा दे॒वकृ॑तं॒ यदस्ति॒ सं दे॒वाना॑ᳬ सुम॒तौ य॒ज्ञिया॑ना॒ᳬ स्वाहा॑ ॥१५॥

 

पद पाठ

सम्। इ॒न्द्र॒। नः॒। मन॑सा। ने॒षि॒। गोभिः॑। सम्। सू॒रिभि॒रिति॑ सू॒रिऽभिः॑। म॒घ॒व॒न्निति॑ मघऽवन्। सम्। स्व॒स्त्या। सम्। ब्रह्म॑णा। दे॒वकृ॑त॒मिति॑ दे॒वऽकृ॑तम्। यत्। अस्ति॑। सम्। दे॒वाना॑म्। सु॒म॒ताविति॑ सुऽम॒तौ। य॒ज्ञियाना॑म्। स्वाहा॑ ॥१५॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मित्र का कृत्य अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (मघवन्) पूज्य धनयुक्त (इन्द्र) सत्यविद्यादि ऐश्वर्य्य सहित (सम्) सम्यक् पढ़ाने और उपदेश करनेहारे ! आप जिससे (सम्) (मनसा) उत्तम अन्तःकरण से (सम्) अच्छे मार्ग (गोभिः) गोओं वा (सम्) (स्वस्त्या) अच्छे-अच्छे वचनयुक्त सुखरूप व्यवहारों से (सूरिभिः) विद्वानों के साथ (ब्रह्मणा) वेद के विज्ञान वा धन से विद्या और (यत्) जो (यज्ञियानाम्) यज्ञ के पालन करनेवाले को करने योग्य (देवानाम्) विद्वानों की (स्वाहा) सत्य वाणीयुक्त (सुमतौ) श्रेष्ठ बुद्धि में (देवकृतम्) विद्वानों के किये कर्म्म हैं, उसको (स्वाहा) सत्य वाणी से (नः) हम लोगों को (संनेषि) सम्यक् प्रकार से प्राप्त करते हो, इसी से आप हमारे पूज्य हो ॥१५॥


भावार्थभाषाः -गृहस्थ जनों के द्वारा विद्वान् लोग इसलिये सत्कार करने योग्य हैं कि वे बालकों को अपनी शिक्षा से गुणवान् और राजा तथा प्रजा के जनों को ऐश्वर्य्ययुक्त करते हैं ॥१५॥

 

देवता: गृहपतिर्देवता ऋषि: अत्रिर्ऋषिः छन्द: विराड् आर्षी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः


सं वर्च॑सा॒ पय॑सा॒ सं त॒नूभि॒रग॑न्महि॒ मन॑सा॒ सꣳशि॒वेन॑। त्वष्टा॑ सु॒दत्रो॒ विद॑धातु॒ रायोऽनु॑मार्ष्टु त॒न्वो᳕ यद्विलि॑ष्टम् ॥१६॥

 

पद पाठ

सम्। वर्च॑सा। पय॑सा। सम्। त॒नूभिः॑। अग॑न्महि। मन॑सा। सम्। शि॒वेन॑। त्वष्टा॑। सु॒दत्र॒ इति॑ सु॒ऽदत्रः॑। वि। द॒धा॒तु॒। रायः॑। अनु॑। मा॒र्ष्टु॒। त॒न्वः᳖। यत्। विलि॑ष्ट॒मिति॒ विऽलि॑ष्टम् ॥१६॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी उक्त विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे आप्त अत्युत्तम विद्वानो ! आप लोगों की सुमति में प्रवृत्त हुए हम लोग जो आप लोगों के मध्य (सुदत्रः) विद्या के दान से विज्ञान को देने और (त्वष्टा) अविद्यादि दोषों का नष्ट करनेवाला विद्वान् हम को (संवर्च्चसा) उत्तम दिन और (पयसा) रात्रि से (संशिवेन) अति कल्याणकारक (मनसा) विज्ञान से (यत्) जिस (तन्वः) शरीर से हानिकारक कर्म्म को (अनुमार्ष्टु) दूर करे और (रायः) पुष्टिकारक द्रव्यों को (विदधातु) प्राप्त करावें, उस और उन पदार्थों को (समगन्महि) प्राप्त हों ॥१६॥


भावार्थभाषाः -मनुष्यों को चाहिये कि दिन रात उत्तम सज्जनों के सङ्ग से धर्म्मार्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि करते रहें ॥१६॥

 

देवता: विश्वेदेवा गृहपतयो देवताः ऋषि: अत्रिर्ऋषिः छन्द: स्वराड् आर्षी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः


धा॒ता रा॒तिः स॑वि॒तेदं जु॑षन्तां प्र॒जाप॑तिर्निधि॒पा दे॒वोऽअ॒ग्निः। त्वष्टा॒ विष्णुः॑ प्र॒जया॑ सꣳररा॒णा यज॑मानाय॒ द्रवि॑णं दधात॒ स्वाहा॑ ॥१७॥

 

पद पाठ

धा॒ता। रा॒तिः। स॒वि॒ता। इदम्। जु॒ष॒न्ता॒म्। प्र॒जा॑पति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। नि॒धि॒पा इति॑ निधि॒ऽपाः। दे॒वः। अ॒ग्निः। त्वष्टा॑। विष्णुः॑। प्र॒जयेति॑ प्र॒ऽजया॑। स॒ꣳर॒रा॒णा इति॑ सम्ऽर॒रा॒णाः। यज॑मानाय। द्रवि॑णम्। द॒धा॒त॒। स्वाहा॑ ॥१७॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर गृहस्थों के कर्म्म का उपदेश अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे गृहस्थो ! तुम (धाता) गृहाश्रम धर्म्म धारण करने (रातिः) सब के लिये सुख देने (सविता) समस्त ऐश्वर्य्य के उत्पन्न करने (प्रजापतिः) सन्तानादि के पालने (निधिपाः) विद्या आदि ऋद्धि अर्थात् धन समृद्धि के रक्षा करने (देवः) दोषों के जीतने (अग्निः) अविद्या रूप अन्धकार के दाह करने (त्वष्टा) सुख के बढ़ाने और (विष्णुः) समस्त उत्तम-उत्तम शुभ गुण कर्म्मों में व्याप्त होनेवालों के सदृश हो के (प्रजया) अपने सन्तानादि के साथ (संरराणाः) उत्तम दानशील होते हुए (स्वाहा) सत्य क्रिया से (इदम्) इस गृहकार्य्य को (जुषन्ताम्) प्रीति के साथ सेवन करो और बलवान् गृहाश्रमी होकर (यजमानाय) यज्ञ का अनुष्ठान करनेवाले के लिये जिस बल से उत्तम-उत्तम बली पुरुष बढ़ते जायें, उस (द्रविणम्) धन को (दधात) धारण करो ॥१७॥


भावार्थभाषाः -गृहस्थों को उचित है कि यथायोग्य रीति से निरन्तर गृहाश्रम में रह के अच्छे गुण कर्मों का धारण, ऐश्वर्य की उन्नति तथा रक्षा, प्रजापालन, योग्य पुरुषों को दान, दुःखियों का दुःख छुड़ाना, शत्रुओं को जीतने और शरीरात्मबल में प्रवृत्ति आदि गुण धारण करें ॥१७॥

 

देवता: गृहपतयो देवताः ऋषि: अत्रिर्ऋषिः छन्द: आर्षी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः


सु॒गा वो॑ देवाः॒ सद॑नाऽअकर्म॒ यऽआ॑ज॒ग्मेदꣳ सव॑नं जुषा॒णाः। भ॑रमाणा॒ वह॑माना ह॒वीᳬष्य॒स्मे ध॑त्त वसवो॒ वसू॑नि॒ स्वाहा॑ ॥१८॥

 

पद पाठ

सु॒गेति॑ सु॒ऽगा। वः॒। दे॒वाः॒। सद॑ना। अ॒क॒र्म॒। ये। आ॒ज॒ग्मेत्या॑ऽज॒ग्म। इ॒दम्। सव॑नम्। जु॒षा॒णाः। भर॑माणाः। वह॑मानाः। ह॒वीꣳषि॑। अ॒स्मेऽइत्य॒स्मे। ध॒त्त॒। व॒स॒वः॒। वसू॑नि। स्वाहा॑ ॥१८॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर गृहकर्म का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (वसवः) श्रेष्ठ गुणों में रमण करनेवाले (देवाः) व्यवहारी जनो ! (ये) जो (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (इदम्) इस (सवनम्) ऐश्वर्य का (जुषाणाः) सेवन (भरमाणाः) धारण करने (वहमानाः) औरों से प्राप्त होते हुए हम लोग तुम्हारे लिये (सुगा) अच्छी प्रकार प्राप्त होने योग्य (सदना) जिनके निमित्त पुरुषार्थ किया जाता है, उन (हवींषि) देने-लेने योग्य (वसूनि) धनों को (अकर्म) प्रकट कर रहे और (आजग्म) प्राप्त हुए हैं, (अस्मे) हमारे लिये उन (वसूनि) धनों को आप (धत्त) धरो ॥१८॥


भावार्थभाषाः -जैसे पिता, पति, श्वशुर, सासू, मित्र और स्वामी, पुत्र, कन्या, स्त्री, स्नुषा, सखा और भृत्यों का पालन करते हुए सुख देते हैं, वैसे पुत्रादि भी इनकी सेवा करना उचित समझें ॥१८॥

 

देवता: विश्वेदेवा गृहपतयो देवताः ऋषि: अत्रिर्ऋषिः छन्द: भुरिग् आर्षी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः


याँ२ऽआव॑हऽउश॒तो दे॑व दे॒वाँस्तान् प्रेर॑य॒ स्वेऽअ॑ग्ने स॒धस्थे॑। ज॒क्षि॒वाꣳसः॑ पपि॒वाꣳस॑श्च॒ विश्वेऽसुं॑ घ॒र्मꣳ स्व॒राति॑ष्ठ॒तानु॒ स्वाहा॑ ॥१९॥

 

पद पाठ

यान्। आ। अव॑हः। उ॒श॒तः। दे॒व॒। दे॒वान्। तान्। प्र। ई॒र॒य॒। स्वे। अ॒ग्ने॒। स॒धस्थ॒ इति॑ स॒धऽस्थे॑। ज॒क्षि॒वाꣳस॒ इति॑ जक्षि॒ऽवाꣳसः॑। प॒पि॒वाꣳस॒ इति॑ पपि॒ऽवाꣳसः॑। च॒। विश्वे॑। असु॑म्। घ॒र्म्मम्। स्वः॑। आ। ति॒ष्ठ॒त॒। अनु॑। स्वाहा॑ ॥१९॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी घर का काम अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (देव) दिव्य स्वभाववाले अध्यापक ! तू (स्वे) अपने (सधस्थे) साथ बैठने के स्थान में (यान्) जिन (उशतः) विद्या आदि अच्छे-अच्छे गुणों की कामना करते हुए (देवान्) विद्वानों को (आ) (अवहः) प्राप्त हो (तान्) उन को धर्म्म में (प्र) (ईरय) नियुक्त कर। हे गृहस्थ ! (जक्षिवांसः) अन्न खाते और (पपिवांसः) पानी पीते हुए (विश्वे) सब तुम लोग (स्वाहा) सत्य वाणी से (घर्मम्) अन्न और यज्ञ तथा (असुम्) श्रेष्ठ बुद्धि वा (स्वः) अत्यन्त सुख को (अनु) (आ) (तिष्ठत) प्राप्त होकर सुखी रहो ॥१९॥


भावार्थभाषाः -इस संसार में उपदेश करनेवाले अध्यापक से विद्या और श्रेष्ठगुण को प्राप्त जो बालक सत्य धर्म्म कर्म्म वर्त्तनेवाले हों, वे सुखभागी हों और नहीं ॥१९॥

 

देवता: गृहपतयो देवताः ऋषि: अत्रिर्ऋषिः छन्द: स्वराड् आर्षी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः


व॒यꣳ हि त्वा॑ प्रय॒ति य॒ज्ञेऽअ॒स्मिन्नग्ने॒ होता॑र॒मवृ॑णीमही॒ह। ऋध॑गया॒ऽऋध॑गु॒ताश॑मिष्ठाः प्रजा॒नन् य॒ज्ञमुप॑याहि वि॒द्वान्त्स्वाहा॑ ॥२०॥

 

पद पाठ

व॒यम्। हि। त्वा॒। प्र॒य॒तीति॑ प्रऽय॒ति। य॒ज्ञे। अ॒स्मिन्। अग्ने॑। होता॑रम्। अवृ॑णीमहि। इ॒ह। ऋध॑क्। अ॒याः॒। ऋध॑क्। उ॒त। अ॒श॒मि॒ष्ठाः॒। प्र॒जा॒नन्निति॑ प्रऽजा॒नन्। य॒ज्ञम्। उप॑। या॒हि॒। वि॒द्वान्। स्वाहा॑ ॥२०॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब व्यवहार करनेवाले गृहस्थ के लिये उपदेश अगले मन्त्र में किया है।

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) ज्ञान देनेवाले (वयम्) हम लोग (इह) (प्रयति) इस प्रयत्नसाध्य (यज्ञे) गृहाश्रमरूप यज्ञ में (त्वा) तुझ को (होतारम्) सिद्ध करनेवाला (अवृणीमहि) ग्रहण करें (विद्वान्) सब विद्यायुक्त (प्रजानन्) क्रियाओं को जाननेवाले आप (ऋधक्) समृद्धिकारक (यज्ञम्) गृहाश्रमरूप यज्ञ को (स्वाहा) शास्त्रोक्त क्रिया से (उप) (याहि) समीप प्राप्त हो (उत) और केवल प्राप्त ही नहीं, किन्तु (अयाः) उस से दान, सत्सङ्ग, श्रेष्ठ गुणवालों का सेवन कर (हि) निश्चय करके (अस्मिन्) इस (ऋधक्) अच्छी ऋद्धि-सिद्धि के बढ़ानेवाले गृहाश्रम के निमित्त में (अशमिष्ठाः) शान्त्यादि गुणों को ग्रहण करके सुखी हो ॥२०॥


भावार्थभाषाः -सब व्यवहार करनेवालों को चाहिये कि जो मनुष्य जिस काम में चतुर हो, उस को उसी काम में प्रवृत्त करें ॥२०॥

 

देवता: गृहपतयो देवताः ऋषि: अत्रिर्ऋषिः छन्द: स्वराड् आर्षी उष्णिक् स्वर: ऋषभः


देवा॑ गातुविदो गा॒तुं वि॒त्त्वा गा॒तुमि॑त। म॒न॑सस्पतऽइ॒मं दे॑व य॒ज्ञꣳ स्वाहा॒ वाते॑ धाः ॥२१॥

 

पद पाठ

देवाः॑। गा॒तु॒वि॒द॒ इति॑ गातुऽविदः। गा॒तुम्। वि॒त्त्वा। गा॒तुम्। इ॒त॒। मन॑सः। प॒ते॒। इ॒मम्। दे॒व॒। य॒ज्ञम्। स्वाहा॑। वाते॑। धाः॒ ॥२१॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी गृहस्थों का कर्म अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (गातुविदः) अपने गुण, कर्म और स्वभाव से पृथिवी के आने-जाने को जानने (देवाः) तथा सत्य और असत्य के अत्यन्त प्रशंसा के साथ प्रचार करनेवाले विद्वान् लोगो ! तुम (गातुम्) भूगर्भविद्यायुक्त भूगोल को (वित्त्वा) जान कर (गातुम्) पृथिवी राज्य आदि उत्तम कामों के उपकार को (इत) प्राप्त हूजिये। हे (मनसस्पते) इन्द्रियों के रोकनेहारे (देव) श्रेष्ठ विद्याबोधसम्पन्न विद्वानो ! तुममें से प्रत्येक विद्वान् गृहस्थ (स्वाहा) धर्म बढ़ानेवाली क्रिया से (इमम्) इस गृहाश्रम रूप (यज्ञम्) सब सुख पहुँचानेवाले यज्ञ को (वाते) विशेष जानने योग्य व्यवहारों में (धाः) धारण करो ॥२१॥


भावार्थभाषाः -गृहस्थों को चाहिये कि अत्यन्त प्रयत्न के साथ भूगर्भ-विद्याओं को जान, इन्द्रियों को जीत, परोपकारी होकर और उत्तम धर्म्म से गृहाश्रम के व्यवहारों को उन्नति देकर सब प्राणीमात्र को सुखी करें ॥२१॥

 

देवता: गृहपतयो देवताः ऋषि: अत्रिर्ऋषिः छन्द: भुरिक् साम्नी बृहती, विराड् आर्ची बृहती स्वर: ऋषभः, मध्यमः


यज्ञ॑ य॒ज्ञं ग॑च्छ य॒ज्ञप॑तिं गच्छ॒ स्वां योनिं॑ गच्छ॒ स्वाहा॑। ए॒ष ते॑ य॒ज्ञो य॑ज्ञपते स॒हसू॑क्तवाकः॒ सर्व॑वीर॒स्तं जु॑षस्व॒ स्वाहा॑ ॥२२॥

 

पद पाठ

यज्ञ॑। य॒ज्ञम्। ग॒च्छ॒। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिम्। ग॒च्छ॒। स्वाम्। योनि॑म्। ग॒च्छ॒। स्वाहा॑। ए॒षः। ते॒। य॒ज्ञः। य॒ज्ञ॒प॒त॒ इति॑ यज्ञऽपते। स॒हसू॑क्तवाक॒ इति॑ स॒हऽसू॑क्तवाकः। सर्व॑वीर॒ इति॒ सर्व॑ऽवीरः। तम्। जु॒ष॒स्व॒। स्वाहा॑ ॥२२॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर गृहस्थों के लिये विशेष उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (यज्ञ) सत्कर्म्मों से सङ्गत होनेवाले गृहाश्रमी ! तू (स्वाहा) सत्य-सत्य क्रिया से (यज्ञम्) विद्वानों के सत्कारपूर्वक गृहाश्रम को (गच्छ) प्राप्त हो, (यज्ञपतिम्) सङ्ग करने योग्य गृहाश्रम के पालनेवाले को (गच्छ) प्राप्त हो, (स्वाम्) अपने (योनिम्) घर और स्वभाव को (गच्छ) प्राप्त हो, (यज्ञपते) गृहाश्रम धर्म्मपालक तू (ते) तेरा जो (एषः) यह (सहसूक्तवाकः) ऋग्, यजुः, साम और अथर्ववेद के सूक्त और अनुवाकों से कथित (सर्ववीरः) जिससे आत्मा और शरीर के पूर्णबलयुक्त समस्त वीर प्राप्त होते हैं (यज्ञः) प्रशंसनीय प्रजा की रक्षा के निमित्त विद्याप्रचाररूप यज्ञ है, (तम्) उसका तू (स्वाहा) सत्यविद्या, न्याय प्रकाश करनेवाली वेदवाणी से (जुषस्व) प्रीति से सेवन कर ॥२२॥


भावार्थभाषाः -प्रजाजन गृहस्थ पुरुष बड़े-बड़े यत्नों से घर के कार्यों को उत्तम रीति से करें। राजभक्ति, राजसहायता और उत्तम धर्म्म से गृहाश्रम को सब प्रकार से पालें और राजा भी श्रेष्ठ विद्या के प्रचार से सब को सन्तुष्ट करे ॥२२॥

 

देवता: गृहपतयो देवताः ऋषि: अत्रिर्ऋषिः। ऊरुमित्यस्य शुनः शेप ऋषिः छन्द: याजुषी उष्णिक्, निचृद् आर्षी त्रिष्टुप्, आसुरी गायत्री स्वर: ऋषभः, षड्जः


माहि॑र्भू॒र्मा पृदा॑कुः। उ॒रुꣳ हि राजा॒ व॑रुणश्च॒कार॒ सूर्या॑य॒ पन्था॒मन्वे॑त॒वाऽउ॑। अ॒पदे॒ पादा॒ प्रति॑धातवेऽकरु॒ताप॑व॒क्ता हृ॑दया॒विध॑श्चित्। नमो॒ वरु॑णाया॒भिष्ठि॑तो॒ वरु॑णस्य॒ पाशः॑ ॥२३॥

 

पद पाठ

मा। अहिः॑। भूः॒। मा। पृदा॑कुः। उ॒रुम्। हि। राजा॑। वरु॑णः। च॒कार॑। सूर्य्या॑य। पन्था॑म्। अन्वे॑त॒वा इत्युनु॑ऽएत॒वै। ऊँऽइत्यूँ॑। अ॒पदे॑। पादा॑। प्रति॑धातव॒ इति॒ प्रति॑ऽधातवे। अ॒कः॒। उ॒त। अपव॒क्तेत्य॑पऽवक्ता। हृ॒द॒या॒विधः॑। हृ॒द॒य॒विध॒ इति॑ हृदय॒ऽविधः॑। चि॒त्। नमः॑। वरु॑णाय। अ॒भिष्ठि॑तः। अ॒भिस्थि॑त॒ इत्य॒भिऽस्थि॑तः। वरु॑णस्य। पाशः॑ ॥२३॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मन्त्र में राजा के लिये उपदेश किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे राजन् सभापते ! तू (वरुणाय) उत्तम ऐश्वर्य्य के वास्ते (उरुम्) बहुत गुणों से युक्त न्याय को (अकः) कर (सूर्य्याय) चराचर के आत्मा जगदीश्वर के विज्ञान होने (सूर्य्याय) और प्रजागणों को यथायोग्य धर्म्म प्रकाश में चलने के लिये (पन्थाम्) न्यायमार्ग को (चकार) प्रकाशित कर (उत) और कभी (अपवक्ता) झूँठ बोलनेवाला (हृदयाविधः) धर्मात्माओं के मन को सन्ताप देनेवाले के (चित्) सदृश (पृदाकुः) खोटे वचन कहनेवाला (मा) मत हो और (अहिः) सर्प्प के समान क्रोधरूपी विष का धारण करनेवाला (मा) मत (भूः) हो और जैसे (वरुणस्य) वीर गुणवाले तेरा (अभिष्ठितः) अति प्रकाशित (नमः) वज्ररूप दण्ड और (पाशः) बन्धन करने की सामग्री प्रकाशमान रहे, वैसे प्रयत्न को सदा किया कर ॥२३॥


भावार्थभाषाः -प्रजाजनों को चाहिये कि जो विद्वान् इन्द्रियों का जीतनेवाला, धर्मात्मा और पिता जैसे अपने पुत्रों को वैसे प्रजा की पालना करने में अति चित्त लगावे और सब के लिये सुख करनेवाला सत्पुरुष हो, उसी को सभापति करें और राजा वा प्रजाजन कभी अधर्म के कामों को न करें, जो किसी प्रकार कोई करे तो अपराध के अनुकूल प्रजा राजा को और राजा प्रजा को दण्ड देवे, किन्तु कभी अपराधी को दण्ड दिये विना न छोड़े और निरपराधी को निष्प्रयोजन पीड़ा न देवे। इस प्रकार सब कोई न्यायमार्ग से धर्माचरण करते हुए अपने-अपने प्रत्येक कामों के चिन्तन में रहें, जिससे अधिक मित्र, थोड़े प्रीति रखनेवाले और शत्रु न हों और विद्या तथा धर्म के मार्गों का प्रचार करते हुए सब लोग ईश्वर की भक्ति में परायण हो के सदा सुखी रहें ॥२३॥

 

देवता: गृहपतिर्देवता ऋषि: अत्रिर्ऋषिः छन्द: आर्षी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः


अ॒ग्नेरनी॑कम॒पऽआवि॑वेशा॒पां नपा॑त् प्रति॒रक्ष॑न्नसु॒र्य᳖म्। दमे॑दमे स॒मि॑धं यक्ष्यग्ने॒ प्रति॑ ते जि॒ह्वा घृ॒तमुच्च॑रण्य॒त् स्वाहा॑ ॥२४॥

 

पद पाठ

अ॒ग्नेः। अनी॑कम्। अ॒पः। आ। वि॒वे॒श॒। अ॒पाम्। नपा॑त्। प्र॒ति॒रक्ष॒न्निति॑ प्रति॒ऽरक्ष॑न्। अ॒सु॒र्य्य᳖म्। दमे॑दम॒ इति॒ दमे॑ऽदमे। स॒मिध॒मिति॑ स॒म्ऽइध॑म्। य॒क्षि॒। अ॒ग्ने॒। प्रति॑। ते॒। जि॒ह्वा। घृ॒तम्। उत्। च॒र॒ण्य॒त्। स्वाहा॑ ॥२४॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राजा और प्रजाजन गृहस्थों के लिये उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे गृहस्थ ! तू (अग्नेः) अग्नि की (अनीकम्) लपटरूपी सेना के प्रभाव और (अपः) जलों को (आ) (विवेश) अच्छी प्रकार समझ (अपाम्) उत्तम व्यवहार सिद्धि करानेवाले गुणों को जान कर (नपात्) अविनाशीस्वरूप ! तू (असुर्यम्) मेघ और प्राण आदि अचेतन पदार्थों से उत्पन्न हुए सुवर्ण आदि धन को (प्रतिरक्षन्) प्रत्यक्ष रक्षा करता हुआ (दमेदमे) घर-घर में (समिधम्) जिस क्रिया से ठीक-ठीक प्रयोजन निकले उसको (यक्षि) प्रचार कर और (ते) तेरी (जिह्वा) जीभ (घृतम्) घी का स्वाद लेवे। (स्वाहा) सत्यव्यवहार से (उत्) (चरण्यत्) देह आदि साधनसमूह सब काम किया करे ॥२४॥


भावार्थभाषाः -अग्नि और जल संसार के सब व्यवहारों के कारण हैं, इससे गृहस्थजन विशेष कर अग्नि और जल के गुणों को जानें और गृहस्थ के सब काम सत्य व्यवहार से करें ॥२४॥

 

देवता: गृहपतिर्देवता ऋषि: अत्रिर्ऋषिः छन्द: भुरिग् आर्षी पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः


स॒मु॒द्रे ते॒ हृद॑यम॒प्स्व᳕न्तः सं त्वा॑ विश॒न्त्वोष॑धीरु॒तापः॑। य॒ज्ञस्य॑ त्वा यज्ञपते सू॒क्तोक्तौ॑ नमोवा॒के वि॑धेम॒ यत् स्वाहा॑ ॥२५॥

 

पद पाठ

स॒मु॒द्रे। ते॒। हृद॑यम्। अ॒प्स्वित्य॒प्ऽसु। अ॒न्तरित्य॒न्तः। सम्। त्वा॒। वि॒श॒न्तु॒। ओष॑धीः। उ॒त। आपः॑। य॒ज्ञस्य॑। त्वा॒। य॒ज्ञ॒प॒त॒ इति॑ यज्ञऽपते। सू॒क्तोक्ता॒विति॑ सू॒क्तऽउ॑क्तौ। न॒मो॒वा॒क इति॑ नमःऽवा॒के। वि॒धे॒म॒। यत्। स्वाहा॑ ॥२५॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर गृहस्थों के लिये उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (यज्ञपते) जैसे गृहाश्रम धर्म्म के पालनेहारे ! हम लोग (स्वाहा) प्रेमास्पदवाणी से (यज्ञस्य) गृहाश्रमानुकूल व्यवहार के (सूक्तोक्तौ) उस प्रबन्ध कि जिस में वेद के वचनों के प्रमाण से अच्छी-अच्छी बातें हैं और (नमोवाके) वेद प्रमाणसिद्ध अन्न और सत्कारादि पदार्थों के वादानुवाद रूप (समुद्रे) आर्द्र व्यवहार और (अप्सु) सब प्रमाणों में (ते) तेरे (यत्) जिस (हृदयम्) हृदय को सन्तुष्टि में (विधेम) नियत करें, वैसे उससे जानी हुई (ओषधीः) यव, गेहूँ, चना, सोमलतादि सुख देनेवाले पदार्थ (आ) (विशन्तु) प्राप्त हों, (उत) और न केवल ये ही किन्तु (आपः) अच्छे जल भी तुझ को सुख करनेवाले हों ॥२५॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। पढ़ाने और उपदेश करनेवाले सज्जन पुरुष गृहस्थों को सत्यविद्या को ग्रहण कराकर अच्छे यत्नों से सिद्ध होने योग्य घर के कामों में सब को युक्त करें, जिससे गृहाश्रम चाहने और करनेवाले पुरुष शरीर और अपने आत्मा का बल बढ़ावें ॥२५॥

 

देवता: गृहपतयो देवताः ऋषि: अत्रिर्ऋषिः छन्द: स्वराड् आर्षी बृहती स्वर: मध्यमः


देवी॑रापऽए॒ष वो॒ गर्भ॒स्तꣳ सुप्री॑त॒ꣳ सुभृ॑तं बिभृत। देव॑ सोमै॒ष ते॑ लो॒कस्तस्मि॒ञ्छञ्च॒ वक्ष्व॒ परि॑ च वक्ष्व ॥२६॥

 

पद पाठ

देवीः॑। आ॒पः॒। ए॒षः। वः॒। गर्भः॑। तम्। सुप्री॑त॒मिति॒ सुऽप्री॑तम्। सुभृ॑त॒मिति॒ सुऽभृ॑तम्। बि॒भृ॒त॒। देव॑ सो॒म॒। ए॒षः। ते॒। लो॒कः। तस्मि॑न्। शम्। च॒। वक्ष्व॑। परि॑। च॒। व॒क्ष्व॒ ॥२६॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब विवाहित स्त्रियों को करने योग्य उपदेश अगले मन्त्र में किया जाता है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (आपः) समस्त शुभ गुण, कर्म्म और विद्यार्थी में व्याप्त होनेवाली (देवीः) अति शोभायुक्त स्त्रीजनो ! तुम सब (यः) जो (एषः) यह (वः) तुम्हारा (गर्भः) गर्भ (लोकः) पुत्र आदि के साथ सुखदायक है, (तम्) उसको (सुप्रीतम्) श्रेष्ठ प्रीति के साथ (सुभृतम्) जैसे उत्तम रक्षा से धारण किया जाय वैसे (बिभृत) धारण और उस की रक्षा करो। हे (देव) दिव्य गुणों से मनोहर (सोम) ऐश्वर्य्ययुक्त ! तू जो (एषः) यह (ते) तुम्हारा (लोकः) देखने योग्य पुत्र, स्त्री, भृत्यादि सुखकारक गृहाश्रम है, (तस्मिन्) इस के निमित्त (शम्) सुख (च) और शिक्षा (वक्ष्व) पहुँचा (च) तथा इसकी रक्षा (परिवक्ष्व) सब प्रकार कर ॥२६॥


भावार्थभाषाः -पढ़ी हुई स्त्री यथोक्त विवाह की विधि से विद्वान् पति को प्राप्त होकर उस को आनन्दित कर परस्पर प्रसन्नता के अनुकूल गर्भ को धारण करे। वह पति भी स्त्री की रक्षा और उसकी प्रसन्नता करने को नित्य उत्साही हो ॥२६॥

 

देवता: दम्पती देवते ऋषि: अत्रिर्ऋषिः छन्द: भुरिक् प्राजापत्या अनुष्टुप्, स्वराड् आर्षी बृहती स्वर: मध्यमः, गान्धारः


अव॑भृथ निचुम्पुण निचे॒रुर॑सि निचुम्पु॒णः। अव॑ दे॒वैर्दे॒वकृ॑त॒मेनो॑ऽयासिष॒मव॒ मर्त्यै॒र्मर्त्य॑कृतं पु॒रु॒राव्णो॑ देव रि॒षस्पा॑हि। दे॒वाना॑ स॒मिद॑सि ॥२७॥

 

पद पाठ

अव॑भृ॒थेत्यव॑ऽभृथ। नि॒चु॒म्पु॒णेति॑ निऽचुम्पुण। नि॒चे॒रुरिति॑ निऽचे॒रुः। अ॒सि॒। नि॒चु॒म्पु॒ण इति॑ निऽचुम्पु॒णः। अव॑। दे॒वैः। दे॒वकृ॑त॒मिति॑ दे॒वऽकृ॑तम्। ए॑नः। अ॒या॒सि॒ष॒म्। अव॑। मर्त्यैः॑। मर्त्य॑कृत॒मिति॒ मर्त्य॑कृतम्। पु॒रु॒राव्ण॒ इति॑ पुरु॒ऽराव्णः॑। दे॒व॒। रि॒षः। पा॒हि॒। दे॒वाना॑म्। स॒मिदिति॑ स॒म्ऽइत्। अ॒सि॒ ॥२७॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर गृहस्थ धर्म्म में स्त्री का विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अवभृथ) गर्भ के धारण करने के पश्चात् उसकी रक्षा करने (निचुम्पुण) और मन्द-मन्द चलनेवाले पति ! आप (निचुम्पुणः) नित्य मन हरने और (निचेरुः) धर्म्म के साथ नित्य द्रव्य का संचय करनेवाले (असि) हैं तथा (देवानाम्) विद्वानों के बीच में (समित्) अच्छे प्रकार तेजस्वी (असि) हैं। हे (देव) सब से अपनी जय चाहनेवाले ! (देवैः) विद्वान् और (मर्त्यैः) साधारण मनुष्यों के साथ वर्त्तमान आप, जो मैं (देवकृतम्) कामी पुरुषों वा (मृर्त्यकृतम्) साधारण मनुष्यों के किये हुए (एनः) अपराध को (अयासिषम्) प्राप्त होना चाहूँ, उस (पुरुराव्णः) बहुत से अपराध करनेवालों के (रिषः) धर्म्म छुड़ानेवाले काम से मुझे (पाहि) दूर रख ॥२७॥


भावार्थभाषाः -स्त्री अपने पति से नित्य प्रार्थना करे कि जैसे मैं सेवा के योग्य आनन्दित चित्त आप को प्रतिदिन चाहती हूँ, वैसे आप भी मुझे चाहो और अपने पुरुषार्थ भर मेरी रक्षा करो, जिससे मैं दुष्टाचरण करनेवाले मनुष्य के किये हुए अपराध की भागिनी किसी प्रकार न होऊँ ॥२७॥

 

देवता: दम्पती देवते ऋषि: अत्रिर्ऋषिः छन्द: भुरिक् साम्नी उष्णिक्, प्राजापत्या अनुष्टुप् स्वर: ऋषभः, गान्धारः


एज॑तु॒ दश॑मास्यो॒ गर्भो॑ ज॒रायु॑णा स॒ह। यथा॒यं वा॒युरेज॑ति॒ यथा॑ समु॒द्रऽएज॑ति। ए॒वायं दश॑मास्यो॒ऽअस्र॑ज्ज॒रायु॑णा स॒ह ॥२८॥

 

पद पाठ

एज॑तु। दश॑मास्य॒ इति॒ दश॑ऽमास्यः। गर्भः॑। ज॒रायु॑णा। स॒ह। यथा॑। अ॒यम्। वा॒युः। एज॑ति। यथा॑। स॒मु॒द्रः। एज॑ति। ए॒व। अ॒यम्। दश॑मास्य॒ इति॒ दश॑ऽमास्यः। अस्र॑त्। ज॒रायु॑णा। स॒ह ॥२८॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब गृहस्थ धर्म्म में गर्भ की व्यवस्था अगले मन्त्र में कही है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे स्त्री-पुरुष ! जैसे (वायुः) पवन (एजति) कम्पता है, वा जैसे (समुद्रः) समुद्र (एजति) अपनी लहरी से उछलता है, वैसे तुम्हारा (अयम्) यह (दशमास्यः) पूर्ण दश महीने का गर्भ (एजतु) क्रम-क्रम से बढ़े और ऐसे बढ़ाता हुआ (अयम्) यह (दशमास्यः) दश महीने में परिपूर्ण होकर ही (अस्रत्) उत्पन्न होवे ॥२८॥


भावार्थभाषाः -ब्रह्मचर्यधर्म्म से शरीर की पुष्टि, मन की सन्तुष्टि और विद्या की वृद्धि को प्राप्त होकर और विवाह किये हुए जो स्त्री-पुरुष हों, वे यत्न के साथ गर्भ को रक्खें कि जिससे वह दश महीने के पहिले गिर न जाये, क्योंकि जो गर्भ दश महीने से अधिक दिनों का होता है, वह प्रायः बल और बुद्धिवाला होता है और जो इससे पहिले होता है, वह वैसा नहीं होता है ॥२८॥

 

देवता: दम्पती देवते ऋषि: अत्रिर्ऋषिः छन्द: भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् स्वर: गान्धारः


यस्यै॑ ते य॒ज्ञियो॒ गर्भो॒ यस्यै॒ योनि॑र्हिर॒ण्ययी॑। अङ्गा॒न्यह्रु॑ता॒ यस्य॒ तं मा॒त्रा सम॑जीगम॒ꣳ स्वाहा॑ ॥२९॥

 

पद पाठ

यस्यै॑। ते॒। य॒ज्ञियः॑। गर्भः॑। यस्यै॑। योनिः॑। हि॑र॒ण्ययी॑। अङ्गा॑नि। अह्रु॑ता। यस्य॑। तम्। मा॒त्रा। सम्। अ॒जी॒ग॒म॒म्। स्वाहा॑ ॥२९॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी गृहस्थ धर्म्म में गर्भ की व्यवस्था अगले मन्त्र में कही है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे विवाहित सौभाग्यवती स्त्री ! मैं तेरा स्वामी (यस्यै) जिस (ते) तेरा (हिरण्ययी) रोगरहित शुद्ध गर्भाशय है और (यस्यै) जिस तेरा (यज्ञियः) यज्ञ के योग्य (गर्भः) गर्भ है, (यस्य) जिस गर्भ के (अह्रुता) सुन्दर सीधे (अङ्गानि) अङ्ग हैं, (तम्) उस को (मात्रा) गर्भ की कामना करनेवाली तेरे साथ समागम करके (स्वाहा) धर्म्मयुक्त क्रिया से (सम्) (अजीगमम्) अच्छे प्रकार प्राप्त होऊँ ॥२९॥


भावार्थभाषाः -पुरुष को चाहिये कि गृहाश्रम के बीच इन्द्रियों का जीतना, वीर्य्य की बढ़ती शुद्धि से उस की उन्नति करें, स्त्री भी ऐसा ही करे, और पुरुष से गर्भ को प्राप्त होके उसकी स्थिति और योनि आदि की आरोग्यता तथा रक्षा करे और जो स्त्री-पुरुष परस्पर आनन्द से सन्तान को उत्पन्न करें तो प्रशंसनीय रूप, गुण, कर्म, स्वभाव और बलवाले सन्तान उत्पन्न हों, ऐसा सब लोग निश्चित जानें ॥२९॥

 

देवता: दम्पती देवते ऋषि: अत्रिर्ऋषिः छन्द: आर्षी जगती स्वर: मध्यमः


पु॒रु॒द॒स्मो विषु॑रूप॒ऽइन्दु॑र॒न्तर्म॑हि॒मान॑मानञ्ज॒ धीरः॑। एक॑पदीं द्वि॒पदीं॑ त्रि॒पदीं॒ चतु॑ष्पदीम॒ष्टाप॑दीं॒ भुव॒नानु॑ प्रथन्ता॒ स्वाहा॑ ॥३०॥

 

पद पाठ

पु॒रु॒द॒स्म इति॑ पुरुऽद॒स्मः। वि॑षुरूप॒ इति॒ विषु॑ऽरूपः। इन्दुः॑। अ॒न्तः। म॒हि॒मान॑म्। आ॒न॒ञ्ज॒। धीरः॑। एक॑पदी॒मित्येक॑ऽपदीम्। द्वि॒पदी॒मिति॑ द्वि॒ऽपदीम्॑। त्रि॒पदी॒मिति॒ त्रि॒ऽपदी॑म्। चतु॑ष्पदीम्। चतुः॑पदी॒मिति॒ चतुः॑ऽपदीम्। अ॒ष्टाप॑दी॒मित्य॒ष्टाऽप॑दीम्। भुव॑ना। अनु॒। प्र॒थ॒न्ता॒म्। स्वाहा॑ ॥३०॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी गर्भ की व्यवस्था अगले मन्त्र में कही हैं ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -(पुरुदस्मः) जिसके गुणों से बहुत दुःखों का नाश होता है (विषुरूपः) जिसने जन्मक्रम से अनेक रूप-रूपान्तर विद्या-विषयों में प्रवेश किया है (इन्दुः) जो परमैश्वर्य्य को सिद्ध करनेवाला (धीरः) समस्त व्यवहारों में ध्यान देने हारा पुरुष है, वह गृहस्थधर्म्म से विवाही हुई अपनी स्त्री के (अन्तः) भीतर (महिमानम्) प्रशंसनीय ब्रह्मचर्य्य और जितेन्द्रियता आदि शुभ कर्मों से संस्कार प्राप्त होने योग्य गर्भ को (आनञ्ज) कामना करे, गृहस्थ लोग ऐसे सृष्टि की उत्पत्ति का विधान करके जिस (एकपदीम्) जिस में एक यह ‘ओम्’ पद (द्विपदीम्) जिस में दो अर्थात् संसार सुख और मोक्षसुख (त्रिपदीम्) जिससे वाणी, मन और शरीर तीनों के आनन्द (चतुष्पदीम्) जिससे चारों धर्म्म, अर्थ, काम और मोक्ष (अष्टापदीम्) और जिससे आठों अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चारों वर्ण तथा ब्रह्मचर्य्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास ये चारों आश्रम प्राप्त होते हैं, उस (स्वाहा) समस्त विद्यायुक्त वाणी को जान कर सब गृहस्थ जन (भुवना) जिनमें प्राणीमात्र निवास किया करते हैं, उन घरों की (प्रथन्ताम्) प्रशंसा करें और उससे सब मनुष्यों को (अनु) अनुकूलता से बढ़ावें ॥३०॥


भावार्थभाषाः -विवाह किये हुए स्त्री-पुरुषों को चाहिये कि गृहाश्रम की विद्या को सब प्रकार जानकर उसके अनुसार सन्तानों को उत्पन्न कर मनुष्यों को बढ़ा और उन को ब्रह्मचर्य्य नियम से समस्त अङ्ग-उपाङ्ग सहित विद्या का ग्रहण करा के उत्तम-उत्तम सुखों को प्राप्त होके आनन्दित करें ॥३०॥

 

देवता: दम्पती देवते ऋषि: गोतम ऋषिः छन्द: आर्षी गायत्री स्वर: षड्जः


मरु॑तो॒ यस्य॒ हि क्षये॑ पा॒था दि॒वो वि॑महसः। स सु॑गो॒पात॑मो॒ जनः॑ ॥३१॥

 

पद पाठ

मरु॑तः। यस्य॑। हि। क्षये॑। पा॒थ। दि॒वः। वि॒म॒ह॒स॒ इति॑ विऽमहसः। सः। सु॒गो॒पात॑म॒ इति॑ सुऽगो॒पात॑मः। जनः॑ ॥३१॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अगले मन्त्र में भी गृहस्थधर्म्म का विषय कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (विमहसः) विविध प्रकार से प्रशंसा करने योग्य (मरुतः) विद्वान् गृहस्थ लोगो ! तुम (यस्य) जिस गृहस्थ के (क्षये) घर में सुवर्ण उत्तम रूप (दिवः) दिव्य गुण स्वभाव वा प्रत्येक कामों के करने की रीति को (पाथ) प्राप्त हो, (सः) (हि) वह (सुगोपातमः) अच्छे प्रकार वाणी और पृथिवी की पालना करनेवाला (जनः) मनुष्य सेवा के योग्य है ॥३१॥


भावार्थभाषाः -इस बात का निश्चय है कि ब्रह्मचर्य्य, उत्तम शिक्षा, विद्या, शरीर और आत्मा का बल, आरोग्य, पुरुषार्थ, ऐश्वर्य, सज्जनों का सङ्ग, आलस्य का त्याग, यम-नियम और उत्तम सहाय के विना किसी मनुष्य से गृहाश्रम धारा जा नहीं सकता। इसके विना धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि नहीं हो सकती, इसलिये इस का पालन सब को बड़े यत्न से करना चाहिये ॥३१॥

 

देवता: दम्पती देवते ऋषि: मेधातिथिर्ऋषिः छन्द: आर्षी गायत्री स्वर: षड्जः


म॒ही द्यौः पृ॑थि॒वी च॑ नऽइ॒मं य॒ज्ञं मि॑मिक्षताम्। पि॒पृ॒तां नो॒ भरी॑मभिः ॥३२॥

 

पद पाठ

म॒ही। द्यौः। पृ॒थि॒वी। च॒। नः॒। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। मि॒मि॒क्ष॒ता॒म्। पि॒पृ॒ताम्। नः॒। भरी॑मभि॒रिति॒ भरी॑मऽभिः ॥३२॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर गृहस्थों के कर्मों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे स्त्री-पुरुष ! तुम दोनों (मही) अति प्रशंसनीय (द्यौः) दिव्य पुरुष की आकृतियुक्त पति और अति प्रशंसनीय (पृथिवी) बढ़े हुए शील और क्षमा धारण करने आदि की सामर्थ्यवाली तू (भरीमभिः) धीरता और सब को सन्तुष्ट करनेवाले गुणों से युक्त व्यवहारों वा पदार्थों से (नः) हमारा (च) औरों का भी (इमम्) इस (यज्ञम्) विद्वानों के प्रशंसा करने योग्य गृहाश्रम को (मिमिक्षताम्) सुखों से अभिषिक्त और (पिपृताम्) परिपूर्ण करना चाहो ॥३२॥


भावार्थभाषाः -जैसे सूर्यलोक जलादि पदार्थों को खींच और वर्षा कर रक्षा और पृथिवी आदि पदार्थों का प्रकाश करता है, वैसे यह पति श्रेष्ठ गुण और पदार्थों का संग्रह करके देने से रक्षा और विद्या आदि गुणों को प्रकाशित करता है तथा जिस प्रकार यह पृथिवी सब प्राणियों को धारण कर उन की रक्षा करती है, वैसे स्त्री गर्भ आदि व्यवहारों को धारण कर सब की पालना करती है। इस प्रकार स्त्री और पुरुष इकट्ठे होकर स्वार्थ को सिद्ध कर मन, वचन और कर्म से सब प्राणियों को भी सुख देवें ॥३२॥

 

देवता: गृहपतयो देवताः ऋषि: गोतम ऋषिः छन्द: आर्षी अनुष्टुप्, आर्षी उष्णिक् स्वर: गान्धारः, ऋषभः


आति॑ष्ठ वृत्रह॒न् रथं॑ यु॒क्ता ते॒ ब्रह्म॑णा॒ हरी॑। अ॒र्वा॒चीन॒ꣳ सु ते॒ मनो॒ ग्रावा॑ कृणोतु व॒ग्नुना॑। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा षोड॒शिन॑ऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा षोड॒शिने॑ ॥३३॥

 

पद पाठ

आ। ति॒ष्ठ॒। वृ॒त्र॒ह॒न्निति॑ वृत्रऽहन्। रथ॑म्। यु॒क्ता। ते॒। ब्रह्म॑णा। हरी॒ऽइति॒ हरी॑। अ॒र्वा॒चीन॑म्। सु। ते॒। मनः॑। ग्रावा॑। कृ॒णो॒तु॒। व॒ग्नुना॑। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। षो॒ड॒शिने॑। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। षो॒ड॒शिने॑ ॥३३॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब प्रकारान्तर से गृहस्थ का धर्म्म अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (वृत्रहन्) शत्रुओं को मारनेवाले गृहाश्रमी ! तू (ग्रावा) मेघ के तुल्य सुख बरसानेवाला है, (ते) तेरे जिस रमणीय विद्या प्रकाशमय गृहाश्रम वा रथ में (ब्रह्मणा) जल वा धन से (हरी) धारण और आकर्षण अर्थात् खींचने के समान घोड़े (युक्ता) युक्त किये जाते हैं, उस गृहाश्रम करने की (आतिष्ठ) प्रतिज्ञा कर, इस गृहाश्रम में (ते) तेरा जो (मनः) मन (अर्वाचीनम्) मन्दपन को पहुँचता है, उसको (वग्नुना) वेदवाणी से शान्त भलीप्रकार कर, जिससे तू (उपयामगृहीतः) गृहाश्रम करने की सामग्री ग्रहण किये हुए (असि) है, इस कारण (षोडशिने) सोलह कलाओं से परिपूर्ण (इन्द्राय) परमैश्वर्य्य के लिये (त्वा) तुझ को उपदेश करता हूँ, कि जो (एषः) यह (ते) तेरा (योनिः) घर है, इस (षोडशिने) सोलह कलाओं से परिपूर्ण (इन्द्राय) परमैश्वर्य्य देनेवाले गृहाश्रम करने के लिये (त्वा) तुझ को आज्ञा देता हूँ ॥३३॥


भावार्थभाषाः -गृहाश्रम के आधीन सब आश्रम हैं और वेदोक्त श्रेष्ठ व्यवहार से जिस गृहाश्रम की सेवा की जाय, उससे इस लोक और परलोक का सुख होने से परमैश्वर्य्य पाने के लिये गृहाश्रम ही सेवना उचित है ॥३३॥

 

देवता: गृहपतिर्देवता ऋषि: मधुच्छन्दा ऋषिः छन्द: विराड् आर्षी अनुष्टुप् स्वर: गान्धारः


यु॒क्ष्वा हि के॒शिना॒ हरी॒ वृष॑णा कक्ष्य॒प्रा। अथा॑ नऽइन्द्र सोमपा गि॒रामुप॑श्रुतिं॑ चर। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा षोड॒शिन॑ऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा षोड॒शिने॑ ॥३४॥

 

पद पाठ

यु॒क्ष्व। हि। के॒शिना॑। हरी॒ऽइति॒ हरी॑। वृष॑णा। क॒क्ष्य॒प्रेति॑ कक्ष्य॒ऽप्रा। अथ॑। नः॒। इ॒न्द्र॒। सो॒मपा॒ इति॑ सोमऽपाः। गि॒राम्। उप॑श्रुति॒मित्युप॑ऽश्रुतिम्। च॒र॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। षो॒ड॒शिने॑। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। षो॒ड॒शिने॑ ॥३४॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राजविषय में उक्त प्रकार से गृहाश्रम का धर्म अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (सोमपाः) ऐश्वर्य्य की रक्षा करने और (इन्द्र) शत्रुओं का विनाश करनेवाले ! तुम (केशिना) जिनके अच्छे-अच्छे बाल हैं, उन (वृषणा) बैल के समान बलवान् (कक्ष्यप्रा) अभीष्ट देश तक पहुँचानेवाले (हरी) यान के चलानेहारे घोड़ों को (रथे) रथ में (युक्ष्व) जोड़ो (अथ) इसके अनन्तर (नः) हम लोगों की (गिराम्) विनयपत्रों को (उपश्रुतिम्) प्रार्थना को (हि) चित्त देकर (चर) जानो। आप (उपयमागृहीतः) गृहाश्रम की सामग्री को ग्रहण किये हुए (असि) हैं, इस कारण (षोडशिने) सोलह कलाओं से परिपूर्ण (इन्द्राय) परमैश्वर्य्य के लिये (त्वा) तुझ को उपदेश करता हूँ कि जो (एषः) यह (ते) तेरा (योनिः) घर है, इस (षोडशिने) सोलह कलाओं से परिपूर्ण (इन्द्राय) परमैश्वर्य्य देनेवाले गृहाश्रम के लिये (त्वा) तुझे आज्ञा देता हूँ ॥३४॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में पिछले मन्त्र से ‘रथम्’ यह पद अर्थ से आता है। प्रजा, सेना और सभा के मनुष्य सभाध्यक्ष से ऐसे कहें कि आपको शत्रुओं के विनाश और राज्य भर में न्याय रखने के लिये घोड़े आदि सेना के अङ्गों की अच्छी शिक्षा देकर आनन्दित और बलवाले रखने चाहियें, फिर हम लोगों के विनयपत्रों को सुनकर राज्य और ऐश्वर्य्य की भी रक्षा करनी चाहिये ॥३४॥

 

देवता: गृहपतिर्देवता ऋषि: मधुच्छन्दा ऋषिः छन्द: आर्षी उष्णिक् स्वर: गान्धारः


इन्द्र॒मिद्धरी॑ वह॒तोऽप्र॑तिधृष्टशवसम्। ऋषी॑णां च स्तु॒तीरुप॑ य॒ज्ञं च॒ मानु॑षाणाम्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा षोड॒शिन॑ऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा षोड॒शिने॑ ॥३५॥

 

पद पाठ

इन्द्र॑म्। इत्। हरी॒ऽइति॒ हरी॑। व॒ह॒तः॒। अप्र॑तिधृष्टशवस॒मिति॒ अप्र॑तिऽधृष्टशवसम्। ऋषी॑णाम्। च॒। स्तु॒तीः। उप॑। य॒ज्ञम्। च॒। मानु॑षाणाम्। उपयामेत्यारभ्य पूर्ववत् ॥३५॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी उक्त विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (सोमपाः) ऐश्वर्य्य की रक्षा और (इन्द्र) शत्रुओं का विनाश करनेवाले सभाध्यक्ष ! आप जो (हरी) हरणकारक बल और आकर्षणरूप घोड़ों से (अप्रतिधृष्टशवसम्) जिसने अपना अच्छा बल बढ़ा रक्खा है, उस (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्य बढ़ाने और सेना रखनेवाले सेना समूह को (वहतः) बहाते हैं, उनसे युक्त होकर (ऋषीणाम्) वेदमन्त्र जाननेवाले विद्वानों और (च) वीरों के (स्तुतीः) गुणों के ज्ञान और (मानुषाणाम्) साधारण मनुष्यों के (यज्ञम्) सङ्गम करने योग्य व्यवहार और (च) उन की पालना करो और (उप) समीप प्राप्त हो, जिस (ते) तेरा (एषः) यह (योनिः) निमित्त राजधर्म्म है, जो तू (उपयामगृहीतः) सब सामग्री से सयुंक्त है, उस (त्वा) तुझ को (षोडशिने) षोडश कलायुक्त (इन्द्राय) उत्तम ऐश्वर्य्य के लिये प्रजा, सेनाजन आश्रय लेवें और हम भी लेवें ॥३५॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में पिछले मन्त्र से (इन्द्र) (सोमपाः) (चर) इन तीन पदों की योजना होती है। राजा राज्यकर्म्म में विचार करनेवाले जन प्रजाजनों को यह योग्य है कि प्रशंसा करने योग्य विद्वानों से विद्या और उपदेश पाकर औरों का उपकार सदा किया करें ॥३५॥

 

देवता: परमेश्वरो देवता ऋषि: विवस्वान् ऋषिः छन्द: भूरिग् आर्षी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः


यस्मा॒न्न जा॒तः परो॑ऽअ॒न्योऽअस्ति॒ यऽआ॑वि॒वेश॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑। प्र॒जाप॑तिः प्र॒जया॑ सꣳररा॒णस्त्रीणि॒ ज्योती॑ꣳषि सचते॒ स षो॑ड॒शी ॥३६॥

 

पद पाठ

यस्मा॑त्। न। जा॒तः। परः॑। अ॒न्यः। अस्ति॑। यः। आ॒वि॒वेशेत्या॑ऽवि॒वेश॑। भुव॑नानि। विश्वा॑। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। प्र॒जयेति॑ प्र॒ऽजया॑। स॒ꣳर॒रा॒ण इति॑ सम्ऽर॒रा॒णः। त्रीणि॑। ज्योति॑ꣳषि। स॒च॒ते॒। सः। षो॒ड॒शी ॥३६॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब गृहाश्रम की इच्छा करनेवालों को ईश्वर ही की उपासना करनी चाहिये, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -(यस्मात्) जिस परमेश्वर से (परः) उत्तम (अन्यः) और दूसरा (न) नहीं (जातः) हुआ और (यः) जो परमात्मा (विश्वा) समस्त (भुवनानि) लोकों को (आविवेश) व्याप्त हो रहा है, (सः) वह (प्रजया) सब संसार से (संरराणः) उत्तम दाता होता हुआ (षोडशी) इच्छा, प्राण, श्रद्धा, पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, दशों इन्द्रिय, मन, अन्न, वीर्य्य, तप, मन्त्र, लोक और नाम इन सोलह कलाओं के स्वामी (प्रजापतिः) संसार मात्र के स्वामी परमेश्वर (त्रीणि) तीन (ज्योतींषि) ज्योति अर्थात् सूर्य्य, बिजुली और अग्नि को (सचते) सब पदार्थों में स्थापित करता है ॥३६॥


भावार्थभाषाः -गृहाश्रम की इच्छा करनेवाले पुरुषों को चाहिये कि जो सर्वत्र व्याप्त, सब लोकों का रचने और धारण करनेवाला, दाता, न्यायकारी, सनातन अर्थात् सदा ऐसा ही बना रहता है, सत्, अविनाशी, चैतन्य और आनन्दमय, नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव और सब पदार्थों से अलग रहनेवाला, छोटे से छोटा, बड़े से बड़ा, सर्वशक्तिमान् परमात्मा जिस से कोई भी पदार्थ उत्तम वा जिसके समान नहीं है, उसकी उपासना करें ॥३६॥

 

देवता: सम्राड्माण्डलिकौ राजानौ देवते ऋषि: विवस्वान् ऋषिः छन्द: साम्नी त्रिष्टुप्, विराड् आर्ची त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः


इन्द्र॑श्च स॒म्राड् वरु॑णश्च॒ राजा॒ तौ ते॑ भ॒क्षं च॑क्रतु॒रग्र॑ऽए॒तम्। तयो॑र॒हमनु॑ भ॒क्षं भ॑क्षयामि॒ वाग्दे॒वी जु॑षा॒णा सोम॑स्य तृप्यतु स॒ह प्रा॒णेन॒ स्वाहा॑ ॥३७॥

 

पद पाठ

इन्द्रः॑। च॒। स॒म्राडिति॑ स॒म्ऽराट्। वरु॑णः। च॒। राजा॑। तौ। ते॒। भ॒क्षम्। च॒क्र॒तुः। अग्रे॑। ए॒तम्। तयोः॑। अ॒हम्। अनु॑। भ॒क्षम्। भ॒क्ष॒या॒मि॒। वाक्। दे॒वी। जु॒षा॒णा। सोम॑स्य। तृ॒प्य॒तु॒। स॒ह। प्रा॒णेन॑। स्वाहा॑ ॥३७॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ गृहाश्रम के उपयोगी राजविषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे प्रजाजन ! जो (इन्द्रः) परमैश्वर्य्ययुक्त (च) राज्य के अङ्ग-उपाङ्गसहित (सम्राट्) सब जगह एकचक्र राज करनेवाला राजा (वरुणः) अति उत्तम (च) और (राजा) न्यायादि गुणों से प्रकाशमान माण्डलिक सेनापति हैं, (तौ) वे दोनों (अग्रे) प्रथम (ते) तेरा (भक्षम्) सेवन अर्थात् नाना प्रकार से रक्षा करें और (अहम्) मैं (तयोः) उनका (एतम्) इस (भक्षम्) स्थित पदार्थ का (अनु) पीछे (भक्षयामि) सेवन करके कराऊँ। ऐसे करते हुए हम तुम सब को (सोमस्य) विद्यारूपी ऐश्वर्य्य के बीच (जुषाणा) प्रीति करानेवाली (देवी) सब विद्याओं की प्रकाशक (वाक्) वेदवाणी है, उससे (स्वाहा) सब मनुष्य (तृप्यतु) सन्तुष्ट रहें ॥३७॥


भावार्थभाषाः -प्रजा के बीच अपनी अपनी सभाओं सहित राजा होने के योग्य दो होते हैं। एक चक्रवर्ती अर्थात् एक चक्र राज करनेवाला और दूसरा माण्डलिक कि जो मण्डल-मण्डल का ईश्वर हो। ये दोनों प्रकार के राजाजन उत्तम-उत्तम न्याय, नम्रता, सुशीलता और वीरतादि गुणों से प्रजा की रक्षा अच्छे प्रकार करें। फिर उन प्रजाजनों से यथायोग्य राज्यकर लेवें और सब व्यवहारों में विद्या की वृद्धि, सत्यवचन का आचरण करें। इस प्रकार धर्म्म, अर्थ और कामनाओं से प्रजाजनों को सन्तोष देकर आप सन्तोष पावें। आपत्काल में राजा प्रजा की तथा प्रजा राजा की रक्षा कर परस्पर आनन्दित हों ॥३७॥

 

देवता: राजादयो गृहपतयो देवताः ऋषि: वैखानस ऋषिः छन्द: भुरिक् त्रिपाद् गायत्री, स्वराड् आर्ची अनुष्टुप्, भुरिग् आर्ची अनुष्टुप् स्वर: गान्धारः, षड्जः


अग्ने॒ पव॑स्व॒ स्वपा॑ऽअ॒स्मे वर्चः॑ सु॒वीर्य॑म्। दध॑द्र॒यिं मयि॒ पोष॑म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽस्य॒ग्नये॑ त्वा॒ वर्च॑सऽए॒ष ते॒ योनि॑र॒ग्नये॑ त्वा॒ वर्च॑से। अग्ने॑ वर्चस्वि॒न् वर्च॑स्वाँ॒स्त्वं दे॒वेष्वसि॒ वर्च॑स्वान॒हं म॑नु॒ष्ये᳖षु भूयासम् ॥३८॥

 

पद पाठ

अग्ने॑। पव॑स्व। स्वपा॒ इति॑ सु॒ऽअपाः॑। अ॒स्मेऽइत्य॒स्मे। वर्चः॑ सु॒वीर्य्य॒मिति॑ सु॒ऽवीर्य्य॑म्। दध॑त्। र॒यिम्। मयि॑। पोष॑म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। अ॒ग्नये॑। त्वा॒। वर्च॑से। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। अ॒ग्नये॑। त्वा॒। वर्च॑से। अग्ने॑। व॒र्च॒स्वि॒न्। वर्च॑स्वान्। त्वम्। दे॒वेषु॑। असि॑। वर्च॑स्वान्। अ॒हम्। म॒नु॒ष्ये᳖षु। भू॒या॒स॒म् ॥३८॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी प्रकारान्तर से पूर्वोक्त विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (स्वपाः) उत्तम-उत्तम काम तथा (वर्चस्विन्) सुन्दर प्रकार से वेदाध्ययन करनेवाले (अग्ने) सभापति ! आप (अस्मे) हम लोगों के लिये (सुवीर्य्यम्) उत्तम पराक्रम (वर्चः) वेद का पढ़ना तथा (मयि) निरन्तर रक्षा करने योग्य अस्मदादि जन में (रयिम्) धन और (पोषम्) पुष्टि को (दधत्) धारण करते हुए (पवस्व) पवित्र हूजिए। (उपयामगृहीतः) राज्य-व्यवहार के लिये हम ने स्वीकार किये हुए (असि) आप हैं, (त्वा) तुझको (वर्चसे) उत्तम तेज, बल, पराक्रम के लिये (अग्नये) वा विज्ञानयुक्त परमेश्वर की प्राप्ति के लिये हम स्वीकार करते हैं। (ते) तुम्हारी (एषः) यह (योनिः) राजभूमि निवासस्थान है, (त्वा) तुझ को (वर्चसे) हम लोग अपने विद्या प्रकाश सब प्रकार सुख के लिये बार-बार प्रत्येक कामों में प्रार्थना करते हैं। हे तेजधारी सभापते राजन् ! जैसे (त्वम्) आप (देवेषु) उत्तम-उत्तम विद्वानों में (वर्चस्वान्) प्रशंसनीय विद्याध्ययन करनेवाले (असि) हैं, वैसे (अहम्) मैं (मनुष्येषु) विचारशील पुरुषों में आप के सदृश (भूयासम्) होऊँ ॥३८॥


भावार्थभाषाः -राजा आदि सभ्य जनों को उचित है कि सब मनुष्यों में उत्तम-उत्तम विद्या और अच्छे-अच्छे गुणों को बढ़ाते रहें, जिससे समस्त लोग श्रेष्ठ गुण और कर्म्म प्रचार करने में उत्तम होवें ॥३८॥

 

देवता: राजादयो गृहस्था देवताः ऋषि: वैखानस ऋषिः छन्द: आर्षी गायत्री, आर्ची उष्णिक् स्वर: षड्जः, ऋषभः


उ॒त्तिष्ठ॒न्नोज॑सा स॒ह पी॒त्वी शिप्रे॑ऽअवेपयः। सोम॑मिन्द्र च॒मू सु॒तम्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य॒ त्वौज॑सऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य॒ त्वौज॑से। इन्द्रौ॑जि॒ष्ठौजि॑ष्ठ॒स्त्वं दे॒वेष्वस्योजि॑ष्ठो॒ऽहं म॑नु॒ष्ये᳖षु भृयासम् ॥३९॥

 

पद पाठ

उ॒त्तिष्ठ॒न्नित्यु॒त्ऽतिष्ठ॑न्। ओज॑सा। स॒ह। पी॒त्वी। शिप्रे॒ऽइति॒ शिप्रे॑। अ॒वे॒प॒यः॒। सोम॑म्। इ॒न्द्र॒। च॒मूऽइति॑ च॒मू। सु॒तम्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। ओज॑से। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। ओज॑से। इन्द्र॑। ओ॒जि॒ष्ठ॒। ओजि॑ष्ठः। त्वम्। दे॒वेषु॑। असि॑। ओजि॑ष्ठः। अ॒हम्। म॒नु॒ष्ये॒षु। भू॒या॒स॒म् ॥३९॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी उक्त विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (इन्द्र) ऐश्वर्य रखनेवाले वा ऐश्वर्य में रमनेवाले सभापते ! आप (चमू) सेना के साथ (सुतम्) उत्पादन किये हुए (सोमम्) सोम को (पीत्वी) पीके (ओजसा) शरीर, आत्मा, राजसभा और सेना के बल के (सह) साथ (उत्तिष्ठन्) अच्छे गुण, कर्म और स्वभावों में उन्नति को प्राप्त होते हुए (शिप्रे) युद्धादि कर्मों से डाढ़ी और नासिका आदि अङ्गों को (अवेपयः) कम्पाओ अर्थात् यथायोग्य कामों में अङ्गों की चेष्टा करो। हम लोगों ने आप (उपयामगृहीतः) राज्य के नियम उपनियमों से ग्रहण किये (असि) हैं, (ते) आपका (एषः) यह राज्य कर्म (योनिः) ऐश्वर्य का कारण है, इससे (त्वा) आप को सावधानता से (इन्द्राय) परमैश्वर्य देनेवाले जगदीश्वर की प्राप्ति के लिये सेवन करते हैं, (ओजसे) अत्यन्त पराक्रम और (इन्द्राय) शत्रुओं के विदारण के लिये (त्वा) आप को प्रेरणा करते हैं। हे (ओजिष्ठ) अत्यन्त तेजधारी जैसे (त्वम्) आप (देवेषु) शत्रुओं को जीतने की इच्छा करनेवालों में (ओजिष्ठः) अत्यन्त पराक्रमवाले (असि) हैं, वैसे ही मैं भी (मनुष्येषु) साधारण मनुष्यों में (भूयासम्) होऊँ ॥३९॥


भावार्थभाषाः -राजपुरुषों को यह योग्य है कि भोजन, वस्त्र और खाने-पीने के पदार्थों से शरीर के बल को उन्नति देवें, किन्तु व्यभिचारादि दोषों में कभी न प्रवृत्त होवें और यथोक्त व्यवहारों में परमेश्वर की उपासना भी करें ॥३९॥

 

देवता: गृहपतयो राजादयो देवताः ऋषि: प्रस्कण्व ऋषिः छन्द: आर्षी गायत्री, स्वराड् आर्षी गायत्री स्वर: षड्जः


अदृ॑श्रमस्य के॒तवो॒ वि र॒श्मयो॒ जनाँ॒२ऽअनु॑। भ्राज॑न्तो अ॒ग्नयो॑ यथा। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि॒ सूर्या॑य त्वा भ्रा॒जायै॒ष ते॒ योनिः॒ सूर्या॑य त्वा भ्रा॒जाय॑। सूर्य॑ भ्राजिष्ठ॒ भ्राजि॑ष्ठ॒स्त्वं दे॒वेष्वसि॒ भ्राजि॑ष्ठो॒ऽहं म॑नु॒ष्ये᳖षु भूयासम् ॥४०॥

 

पद पाठ

अदृ॑श्रम्। अ॒स्य॒। के॒तवः॑। वि। र॒श्मयः॑। जना॑न्। अनु॑। भ्राज॑न्तः। अ॒ग्नयः॑। य॒था॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। सूर्य्या॑य। त्वा॒। भ्रा॒जाय॑। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। सूर्या॑य। त्वा॒। भ्रा॒जाय॑। सूर्य्य॑। भ्रा॒जि॒ष्ठ॒। भ्राजि॑ष्ठः। त्वम्। दे॒वेषु॑। अ॒सि॒। भ्राजि॑ष्ठः। अ॒हम्। म॒नु॒ष्ये᳖षु। भू॒या॒सम् ॥४०॥

 

फिर भी प्रकारान्तर से पूर्वोक्त विषय ही अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -जैसे (अस्य) इस जगत् के पदार्थों में (भ्राजन्तः) प्रकाश को प्राप्त हुई (रश्मयः) कान्ति (केतवः) वा उन पदार्थों को जनानेवाले (अग्नयः) सूर्य्य, विद्युत् और प्रसिद्ध अग्नि हैं, वैसे ही (जनान्) मनुष्यों को (अनु) एक अनुकूलता के साथ (अदृश्रम्) मैं दिखलाऊँ। हे सभापते ! आप (उपयामगृहीतः) राज्य के नियम और उपनियमों से स्वीकार किये हुए (असि) हैं, जिन (ते) आपका (एषः) यह राज्यकर्म्म (योनिः) ऐश्वर्य्य का कारण है, उन (त्वा) आपको (भ्राजाय) जिलानेवाले (सूर्य्याय) प्राण के लिये चिताता हूँ तथा उन्हीं आपको (भ्राजाय) सर्वत्र प्रकाशित (सूर्य्याय) चराचरात्मा जगदीश्वर के लिये भी चिताता हूँ। हे (भ्राजिष्ठ) अति पराक्रम से प्रकाशमान (सूर्य्य) सूर्य्य के समान सत्य विद्या और गुणों से प्रकाशमान जैसे (त्वम्) आप (देवेषु) समस्त विद्याओं से युक्त विद्वानों में प्रकाशमान (भ्राजिष्ठः) अत्यन्त प्रकाशित हैं, वैसे मैं भी (मनुष्येषु) साधरण मनुष्यों में (भूयासम्) प्रकाशमान होऊँ ॥४०॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे इस संसार में सूर्य्य की किरण सब जगह फैल के प्रकाश करती हैं, वैसे राजा, प्रजा और सभासद् जन शुभ गुण, कर्म्म और स्वभावों में प्रकाशमान हों, क्योंकि ऐसा है कि मनुष्य शरीर पाकर किसी उत्साह पुरुषार्थ सत्पुरुषों का सङ्ग और योगाभ्यास का आचरण करते हुए मनुष्य को धर्म्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि तथा शरीर, आत्मा और समाज की उन्नति करना दुर्लभ नहीं है। इससे सब मनुष्यों को चाहिये कि आलस्य को छोड़ के नित्य प्रयत्न किया करें ॥४०॥

 

देवता: सूर्य्यो देवता ऋषि: प्रस्कण्व ऋषिः छन्द: निचृद् आर्षी गायत्री, स्वराड् आर्षी गायत्री स्वर: षड्जः


उदु॒ त्यं जा॒तवे॑दसं दे॒वं व॑हन्ति के॒तवः॑। दृ॒शे विश्वा॑य॒ सूर्य॑म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि॒ सूर्या॑य त्वा भ्रा॒जायै॒ष ते॒ योनिः॒ सूर्या॑य त्वा भ्रा॒जाय॑ ॥४१॥

 

पद पाठ

उत्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। त्यम्। जा॒तवे॑दस॒मिति॑ जा॒तऽवे॑दसम्। दे॒वम्। व॒ह॒न्ति॒। के॒तवः॑। दृ॒शे। विश्वा॑य। सूर्य्य॑म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मगृ॑हीतः। अ॒सि॒। सूर्य्या॑य। त्वा॒। भ्रा॒जाय॑। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। सूर्य्या॑य। त्वा॒। भ्रा॒जाय॑ ॥४१॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ईश्वरपक्ष में गृहस्थ के कर्म का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -(जातवेदसम्) जो उत्पन्न हुए पदार्थों को जानता वा प्राप्त कराता वा वेद और संसार के पदार्थ जिससे उत्पन्न हुए हैं (देवम्) शुद्धस्वरूप जगदीश्वर जिसको (विश्वाय) संसार के उपकार के लिये (दृशे) ज्ञानचक्षु से देखने को (केतवः) किरणों के तुल्य सर्व अंशों में प्रकाशमान विद्वान् (उत्) (वहन्ति) अपने उत्कर्ष से वादानुवाद कर व्याख्यान करते हैं (उ) तर्क-वितर्क के साथ (त्यम्) उस जगदीश्वर को हम लोग प्राप्त हों। हे जगदीश्वर ! जो आप हम लोगों ने (भ्राजाय) प्रकाशमान अर्थात् अत्यन्त उत्साह और पुरुषार्थयुक्त (सूर्य्याय) प्राण के लिये (उपयामगृहीतः) यम-नियमादि योगाभ्यास उपासना आदि साधनों से स्वीकार किये हुए (असि) हैं, उन (त्वा) आपको उक्त कामना के लिये समस्त जन स्वीकार करें और हे ईश्वर ! जिन (ते) आपका (एषः) यह कार्य्य और कारण की व्याप्ति से एक अनुमान होना (योनिः) अनुपम प्रमाण है, उन (त्वा) आपको (भ्राजाय) प्रकाशमान (सूर्य्याय) ज्ञानरूपी सूर्य्य के पाने के लिये एक कारण जानते हैं ॥४१॥


भावार्थभाषाः -जैसे वेद के वेत्ता विद्वान् लोग वेदानुकूल मार्ग से परमेश्वर को जानकर उत्तम ज्ञान से उसका सेवन करते हैं, वैसे ही वह जगदीश्वर सब को उपासनीय अर्थात् सेवन करने के योग्य है। वैसे ज्ञान के विना ईश्वर की उपासना कभी नहीं हो सकती, क्योंकि विज्ञान ही उसकी अवधि है ॥४१॥

 

देवता: पत्नी देवता ऋषि: कुसुरुविन्दुर्ऋषिः छन्द: स्वराड् ब्राह्मी उष्णिक् स्वर: ऋषभः


आजि॑घ्र क॒लशं॑ म॒ह्या त्वा॑ विश॒न्त्विन्द॑वः। पुन॑रू॒र्जा निव॑र्त्तस्व॒ सा नः॑ स॒हस्रं॑ धुक्ष्वो॒रुधा॑रा॒ पय॑स्वती॒ पुन॒र्मावि॑शताद् र॒यिः ॥४२॥

 

पद पाठ

आ। जि॒घ्र॒। क॒लश॑म्। म॒हि॒। आ। त्वा॒। वि॒श॒न्तु॒। इन्द॑वः। पुनः॑। ऊ॒र्जा। नि। व॒र्त्त॒स्व॒। सा। नः॒। स॒हस्र॑म्। धु॒क्ष्व॒। उ॒रुधा॒रेत्यु॒रुऽधा॑रा। पय॑स्वती। पुनः॑। मा॒। आ। वि॒श॒ता॒त्। र॒यिः ॥४२॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब गृहस्थ के कर्म्म में स्त्री के उपदेश विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (महि) प्रशंसनीय गुणवाली स्त्री ! जो तू (उरुधारा) विद्या और अच्छी-अच्छी शिक्षाओं को अत्यन्त धारण करो (पयस्वती) प्रशंसित अन्न और जल रखनेवाली है, वह गृहाश्रम के शुभ कामों में (कलशम्) नवीन घट का (आजिघ्र) आघ्राण कर अर्थात् उसको जल से पूर्ण कर उस की उत्तम सुगन्ध को प्राप्त हो (पुनः) फिर (त्वा) तुझे (सहस्रम्) असंख्यात (इन्दवः) सोम आदि ओषधियों के रस (आविशन्तु) प्राप्त हों, जिससे तू दुःख से (निवर्तस्व) दूर रहे अर्थात् कभी तुझ को दुःख न प्राप्त हो। तू (ऊर्जा) पराक्रम से (नः) हम को (धुक्ष्व) परिपूर्ण कर (पुनः) पीछे (मा) मुझे (रयिः) धन (आविशतात्) प्राप्त हो ॥४२॥


भावार्थभाषाः -विद्वान् स्त्रियों को योग्य है कि अच्छी परीक्षा किये हुए पदार्थ को जैसे आप खायें, वैसे ही अपने पति को भी खिलावें कि जिससे बुद्धि बल और विद्या की वृद्धि हो और धनादि पदार्थों को भी बढ़ाती रहें ॥४२॥

 

देवता: पत्नी देवता ऋषि: कुसुरुविन्दुर्ऋषिः छन्द: आर्षी पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः


इडे॒ रन्ते॒ हव्ये॒ काम्ये॒ चन्द्रे॒ ज्योतेऽदि॑ते॒ सर॑स्वति॒ महि॒ विश्रु॑ति। ए॒ता ते॑ऽअघ्न्ये॒ नामा॑नि दे॒वेभ्यो॑ मा सु॒कृतं॑ ब्रूतात् ॥४३॥

 

पद पाठ

इडे॑। रन्ते॑। हव्ये॑। काम्ये॑। चन्द्रे॑। ज्योते॑। अदि॑ते। सर॑स्वति। महि॑। विश्रु॒तीति॒ विऽश्रु॑ति। ए॒ता। ते॒। अ॒घ्न्ये॒। नामा॑नि। दे॒वेभ्यः॑। मा॒। सु॒कृत॒मिति॒ सु॒ऽकृ॑तम्। ब्रू॒ता॒त् ॥४३॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी प्रकारान्तर से उसी विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अघ्न्ये) ताड़ना न देने योग्य (अदिते) आत्मा से विनाश को प्राप्त न होनेवाली (ज्योते) श्रेष्ठ शील से प्रकाशमान (इडे) प्रशंसनीय गुणयुक्त (हव्ये) स्वीकार करने योग्य (काम्ये) मनोहर स्वरूप (रन्ते) रमण करने योग्य (चन्द्रे) अत्यन्त आनन्द देनेवाली (विश्रुति) अनेक अच्छी बातें और वेद जाननेवाली (महि) अत्यन्त प्रशंसा करने योग्य (सरस्वति) प्रशंसित विज्ञानवाली पत्नी ! उक्त गुण प्रकाश करनेवाले (ते) तेरे (एता) ये (नामानि) नाम हैं, तू (देवेभ्यः) उत्तम गुणों के लिये (मा) मुझ को (सुकृतम्) उत्तम उपदेश (ब्रूतात्) किया कर ॥४३॥


भावार्थभाषाः -जो विद्वानों से शिक्षा पाई हुई स्त्री हो, वह अपने-अपने पति और अन्य सब स्त्रियों को यथायोग्य उत्तम कर्म्म सिखलावें, जिससे किसी तरह वे अधर्म्म की ओर न डिगें। वे दोनों स्त्री-पुरुष विद्या की वृद्धि और बालकों तथा कन्याओं को शिक्षा किया करें ॥४३॥

 

देवता: इन्द्रो देवता ऋषि: शास ऋषिः छन्द: निचृद् अनुष्टुप्, स्वराड् आर्षी गायत्री स्वर: गान्धारः, षड्जः


वि न॑ऽइन्द्र॒ मृधो॑ जहि नी॒चा य॑च्छ पृतन्य॒तः। योऽअ॒स्माँ२ऽअ॑भि॒दास॒त्यध॑रं गमया॒ तमः॑। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा वि॒मृध॑ऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा वि॒मृधे॑ ॥४४॥

 

पद पाठ

वि। नः॒। इ॒न्द्र॒। मृधः॑। ज॒हि॒। नी॒चा। य॒च्छ॒। पृ॒त॒न्य॒तः। यः। अ॒स्मान्। अ॒भि॒दास॒तीत्य॑भि॒ऽदास॑ति। अध॑रम्। ग॒म॒य॒। तमः॑। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। वि॒मृध॒ इति॑ वि॒ऽमृधे॑। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। वि॒मृध॒ इति॑ वि॒ऽमृधे॑ ॥४४॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सिंह जैसे पीछे लौट कर देखता है, इस प्रकार गृहस्थ कर्म्म के निमित्त राजपक्ष में कुछ उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (इन्द्र) सेनापते ! तू (नः) हमारे (पृतन्यतः) हम से युद्ध करने के लिये सेना की इच्छा करनेहारे शत्रुओं को (जहि) मार और उन (नीचा) नीचों को (यच्छ) वश में ला और जो शत्रुजन (अस्मान्) हम लोगों को (अभिदासति) सब प्रकार दुःख देवे उस (विमृधः) दुष्ट को (तमः) जैसे अन्धकार को सूर्य्य नष्ट करता है, वैसे (अधरम्) अधोगति को (गमय) प्राप्त करा, जिस (ते) तेरा (एषः) उक्त कर्म्म करना (योनिः) राज्य का कारण है, इससे तू हम लोगों से (उपयामगृहीतः) सेना आदि सामग्री से ग्रहण किया हुआ (असि) है, इसी से (त्वा) तुझ को (विमृधे) जिस में बड़े-बड़े युद्ध करनेवाले शत्रुजन हैं, (इन्द्राय) ऐश्वर्य्य देनेवाले उस युद्ध के लिये स्वीकार करते हैं (त्वा) तुझ को (विमृधे) जिस के शत्रु नष्ट हो गये हैं, उस (इन्द्राय) राज्य के लिये प्रेरणा देते हैं अर्थात् अधर्म्म से अपना वर्त्ताव न वर्त्ते ॥४४॥


भावार्थभाषाः -जो खोटे काम करनेवाला पुरुष अनेक प्रकार से अपने बल को उन्नति देकर सब को दुःख देना चाहे, उस को राजा सब प्रकार से दण्ड दे। यदि फिर भी वह अपनी अत्यन्त खोटाइयों को न छोड़े तो उसको मार डाले अथवा नगर से इसको दूर निकाल बन्द रक्खे ॥४४॥

 

देवता: ईश्वरसभेशौ राजानौ देवते ऋषि: शास ऋषिः छन्द: भुरिग् आर्षी त्रिष्टुप्, विराड् आर्षी अनुष्टुप् स्वर: धैवतः, गान्धारः


वा॒चस्पतिं॑ वि॒श्वक॑र्माणमू॒तये॑ मनो॒जुवं॒ वाजे॑ऽअ॒द्या हु॑वेम। स नो॒ विश्वा॑नि॒ हव॑नानि जोषद् वि॒श्वश॑म्भू॒रव॑से सा॒धुक॑र्म्मा। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा वि॒श्वक॑र्मणऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा वि॒श्वक॑र्मणे ॥४५॥

 

पद पाठ

वा॒चः। पति॑म्। वि॒श्वक॑र्म्माण॒मिति॑ वि॒श्वऽक॑र्म्माणम्। ऊ॒तये॑। म॒नो॒जुव॒मिति॑ मनः॒ऽजुव॑म्। वाजे॑। अ॒द्य। हु॒वे॒म॒। सः। नः॒। विश्वा॑नि। हव॑नानि। जो॒ष॒त्। वि॒श्वश॑म्भू॒रिति॑ वि॒श्वऽश॑म्भूः। अव॑से। सा॒धुक॒र्म्मेति॑ सा॒धुऽक॑र्म्मा। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। वि॒श्वक॑र्म्मण॒ इति॑ वि॒श्वऽक॑र्म्मणे। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। वि॒श्वक॑र्म्मण॒ इति॑ वि॒श्वऽक॑र्म्मणे ॥४५॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब गृहस्थ कर्म में राजा और ईश्वर का विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हम (अद्य) अब (वाजे) विज्ञान वा युद्ध के निमित्त जिन (वाचः) वेदवाणी के (पतिम्) स्वामी वा रक्षा करनेवाले (विश्वकर्म्माणम्) जिन के सब धर्म्मयुक्त कर्म्म हैं, जो (मनोजुवम्) मन चाहती गति का जाननेवाला है, उस परमेश्वर वा सभापति को (हुवेम) चाहते हैं सो आप (साधुकर्म्मा) अच्छे-अच्छे कर्म्म करनेवाले (विश्वशम्भूः) समस्त सुख को उत्पन्न करानेवाले जगदीश्वर वा सभापति (नः) हमारे (अवसे) प्रेम बढ़ाने के लिये (विश्वानि) (हवनानि) दिये हुए सब प्रार्थनावचनों को (जोषत्) प्रेम से मानें जिन (ते) आपका (एषः) यह उक्त कर्म्म (योनिः) एक प्रेमभाव का कारण है, वे आप (उपयामगृहीतः) यमनियमों से ग्रहण किये (असि) हैं, इससे (विश्वकर्म्मणे) समस्त कामों के उत्पन्न करने तथा (इन्द्राय) ऐश्वर्य्य के लिये (त्वा) आप की प्रार्थना तथा (विश्वकर्म्मणे) समस्त काम की सिद्धि के लिये (इन्द्राय) शिल्पक्रिया कुशलता से उत्तम ऐश्वर्य्यवाले (त्वा) आप का सेवन करते हैं ॥४५॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जो परमेश्वर वा न्यायाधीश सभापति हमारे किये हुए कामों को जाँच कर उन के अनुसार हम को यथायोग्य नियमों में रखता है, जो किसी को दुःख देनेवाले छल-कपट काम को नहीं करता, जिस परमेश्वर वा सभापति के सहाय से मनुष्य मोक्ष और व्यवहारसिद्धि को पाकर धर्म्मशील होता है, वही ईश्वर परमार्थसिद्धि वा सभापति व्यवहारसिद्धि के निमित्त हम लोगों को सेवने योग्य है ॥४५॥

 

देवता: विश्वकर्मेन्द्रो देवता ऋषि: शास ऋषिः छन्द: निचृद् आर्षी त्रिष्टुप्, विराड् आर्षी अनुष्टुप् स्वर: धैवतः, गान्धारः


विश्व॑कर्मन् ह॒विषा॒ वर्ध॑नेन त्रा॒तार॒मिन्द्र॑मकृणोरव॒ध्यम्। तस्मै॒ विशः॒ सम॑नमन्त पू॒र्वीर॒यमुग्रो वि॒हव्यो॒ यथास॑त्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा विश्व॒क॑र्मणऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा वि॒श्वक॑र्मणे ॥४६॥

 

पद पाठ

विश्व॑कर्म॒न्निति॒ विश्व॑ऽकर्मन्। ह॒विषा॑। वर्द्ध॑नेन। त्रा॒तार॑म्। इन्द्र॑म्। अ॒कृ॒णोः॒। अ॒व॒ध्यम्। तस्मै॑। विशः॑। सम्। अ॒न॒म॒न्त॒। पू॒र्वीः। अ॒यम्। उ॒ग्रः। वि॒हव्य॒ इति॑ वि॒ऽहव्यः॑। यथा॑। अस॑त्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। वि॒श्वक॑र्मण॒ इति॑ वि॒श्वऽक॑र्मणे। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। वि॒श्वक॑र्मण॒ इति॑ वि॒श्वऽक॑र्मणे ॥४६॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मन्त्र में राजधर्म का उपदेश किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (विश्वकर्म्मन्) समस्त अच्छे काम करनेवाले जन ! आप (वर्द्धनेन) वृद्धि के निमित्त (हविषा) ग्रहण करने योग्य विज्ञान से (अवध्यम्) जिस बुरे व्यसन और अधर्म्म से रहित (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्य्य देने तथा (त्रातारम्) समस्त प्रजाजनों की रक्षा करनेवाले सभापति को (अकृणोः) कीजिये कि (तस्मै) उसे (पूर्वीः) प्राचीन धार्म्मिक जनों ने जिन प्रजाओं को शिक्षा दी हुई है, वे (विशः) प्रजाजन (समनमन्त) अच्छे प्रकार मानें, जैसे (अयम्) यह सभापति (उग्रः) दुष्टों को दण्ड देने को अच्छे प्रकार चमत्कारी और (विहव्यः) अनेक प्रकार के राज्यसाधन पदार्थ अर्थात् शस्त्र आदि रखनेवाला (असत्) हो, वैसे प्रजा भी इस के साथ वर्ते, ऐसी युक्ति कीजिये। (उपयामगृहीतः) यहाँ से लेकर मन्त्र का पूर्वोक्त ही अर्थ जानना चाहिये ॥४६॥


भावार्थभाषाः -इस संसार में मनुष्य सब जगत् की रक्षा करनेवाले ईश्वर तथा सभाध्यक्ष को न भूले, किन्तु उनकी अनुमति में सब कोई अपना-अपना वर्त्ताव रक्खें। प्रजा के विरोध से कोई राजा भी अच्छी ऋद्धि को नहीं पहुँचता और ईश्वर वा राजा के विना प्रजाजन धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के सिद्ध करनेवाले काम भी नहीं कर सकते, इससे प्रजाजन और राजा ईश्वर का आश्रय कर एक-दूसरे के उपकार में धर्म्म के साथ अपना वर्त्ताव रक्खें ॥४६॥

 

देवता: विश्वकर्म्मेन्द्रो देवता ऋषि: शास ऋषिः छन्द: विराड् ब्राह्मी बृहती स्वर: मध्यमः


उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽस्य॒ग्नये॑ त्वा गाय॒त्रछ॑न्दसं गृह्णा॒मीन्द्रा॑य त्वा त्रि॒ष्टुप्छ॑न्दसं गृह्णामि॒ विश्वे॑भ्यस्त्वा दे॒वेभ्यो॒ जग॑च्छन्दसं गृह्णाम्यनु॒ष्टुप्ते॑ऽभिग॒रः ॥४७॥

 

पद पाठ

उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। अ॒ग्नये॑। त्वा॒। गा॒य॒त्रछ॑न्दस॒मिति॑ गाय॒त्रऽछन्द॑सम्। गृ॒ह्णा॒मि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। त्रि॒ष्टुप्छ॑न्दसम्। त्रि॒स्तुप्छ॑न्दस॒मिति॑ त्रि॒स्तुप्ऽछ॑न्दसम्। गृ॒ह्णा॒मि॒। विश्वे॑भ्यः। त्वा॒। दे॒वेभ्यः॑। जग॑च्छन्दस॒मि॑ति॒ जग॑त्ऽछन्दसम्। गृ॒ह्णा॒मि॒। अ॒नु॒ष्टुप्। अ॒नु॒स्तुबित्य॑नु॒ऽस्तुप्। ते॒। अ॒भि॒ग॒र। इत्य॑भिऽग॒रः ॥४७॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी प्रकारान्तर से उसी विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (विश्वकर्म्मन्) अच्छे-अच्छे कर्म्म करनेवाले जन ! मैं जो (ते) आप का (अनुष्टुप्) अज्ञान का छुड़ानेवाला (अभिगरः) सब प्रकार से विख्यात प्रशंसावाक्य है, उन अग्नि आदि पदार्थों के गुण कहनेवाले गायत्री छन्दयुक्त वेदमन्त्रों के अर्थ को जाननेवाले (त्वा) आप को (अग्नये) अग्नि आदि पदार्थों के गुण जानने के लिये (गृह्णामि) स्वीकार करता हूँ, वा (त्रिष्टुप्छन्दसम्) परम ऐश्वर्य्य देनेवाले त्रिष्टुप् छन्दयुक्त वेदमन्त्रों का अर्थ करानेहारे (त्वा) आपको (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य्य की प्राप्ति के लिये (गृह्णामि) स्वीकार करता हूँ, (जगच्छन्दसम्) समस्त जगत् के दिव्य-दिव्य गुण, कर्म्म और स्वभाव के बोधक वेदमन्त्रों का अर्थविज्ञान करानेवाले (त्वा) आप को (विश्वेभ्यः) समस्त (देवेभ्यः) अच्छे-अच्छे गुण, कर्म्म और स्वभावों के लिये (गृह्णामि) स्वीकार करता हूँ, (उपयामगृहीतः) उक्त सब काम के लिये हम लोगों ने आप को सब प्रकार स्वीकार कर रक्खा (असि) है ॥४७॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में पिछले मन्त्र से (विश्वकर्म्मन्) इस पद की अनुवृत्ति आती है। मनुष्यों को चाहिये कि अग्नि आदि पदार्थविद्या साधन करानेवाली क्रियाओं का उत्तम बोध करानेवाले गायत्री आदि छन्दयुक्त ऋग्वेदादि वेदों के बोध होने के लिये उत्तम पढ़ानेवाले का सेवन करें, क्योंकि उत्तम पढ़ानेवाले के विना किसी को विद्या नहीं प्राप्त हो सकती ॥४७॥

 

देवता: प्रजापतयो देवताः ऋषि: देवा ऋषयः छन्द: याजुषी पङ्क्तिः, याजुषी जगती, साम्नी बृहती, स्वर: धैवतः, मध्यमः


 व्रेशी॑नां त्वा॒ पत्म॒न्नाधू॑नोमि। कुकू॒नना॑नां त्वा॒ पत्म॒न्नाधू॑नोमि। भ॒न्दना॑नां त्वा॒ पत्म॒न्नाधू॑नोमि म॒दिन्त॑मानां त्वा॒ पत्म॒न्नाधू॑नोमि म॒धुन्त॑मानां त्वा॒ पत्म॒न्नाधू॑नोमि शु॒क्रं त्वा॑ शु॒क्रऽआधू॑नो॒म्यह्नो॑ रू॒पे सूर्य॑स्य र॒श्मिषु॑ ॥४८॥


पद पाठ

व्रेशी॑नाम्। त्वा। पत्म॑न्। आ। धू॒नो॒मि॒। कुकू॒नना॑नाम्। त्वा॒। पत्म॑न्। आ। धू॒नो॒मि॒। भ॒न्दना॑नाम्। त्वा॒। पत्म॑न्। आ। धू॒नो॒मि॒। म॒दिन्त॑माना॒मिति॑ म॒दिन्ऽत॑मानाम्। त्वा॒। पत्म॑न्। आ। धू॒नो॒मि॒। म॒धुन्त॑माना॒मिति॑ म॒धुन्ऽत॑मानाम्। त्वा॒। पत्म॑न्। आ। धू॒नो॒मि॒। शु॒क्रम्। त्वा॒। शु॒क्रे। आ। धू॒नो॒मि॒। अह्नः॑। रू॒पे। सूर्य्य॑स्य। र॒श्मिषु॑ ॥४८॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब गार्हस्थ्य कर्म्म में पत्नी अपने पति को उपदेश देती है, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (पत्मन्) धर्म्म में न चित्त देनेवाले पते ! (व्रेशीनाम्) जलों के समान निर्मल विद्या और सुशीलता में व्याप्त जो पराई पत्नियाँ हैं, उनमें व्यभिचार से वर्त्तमान (त्वा) तुम को मैं वहाँ से (आधूनोमि) अच्छे प्रकार डिगाती हूँ। हे (पत्मन्) अधर्म्म में चित्त देनेवाले पते ! (कुकूननानाम्) निरन्तर शब्दविद्या से नभ्रीभाव को प्राप्त हो रही हुई औरों की पत्नियों के समीप मूर्खपन से जानेवाले (त्वा) तुझ को मैं (आ) (धूनोमि) वहाँ से अच्छे प्रकार छुड़ाती हूँ। हे (पत्मन्) कुचाल में चित्त देनेवाले पते ! (भन्दनानाम्) कल्याण का आचरण करती हुई पर पत्नियों के समीप अधर्म से जानेवाले (त्वा) तुझ को वहाँ से मैं (आ) अच्छे प्रकार (धूनोमि) पृथक् करती हूँ। हे (पत्मन्) चञ्चल चित्तवाले पते ! (मदिन्तमानाम्) अत्यन्त आनन्दित परपत्नियों के समीप उनको दुःख देते हुए (त्वा) तुम को मैं वहाँ से (आ) वार-वार (धूनोमि) कंपाती हूँ। हे (पत्मन्) कठोरचित्त पते ! (मधुन्तमानाम्) अतिशय करके मीठी-मीठी बोलनेवाली परपत्नियों के निकट कुचाल से जाते हुए (त्वा) तुम को मैं (आ) अच्छे प्रकार (धूनोमि) हटाती हूँ। हे (पत्मन्) अविद्या में रमण करनेवाले ! (अह्नः) दिन के (रूपे) रूप में अर्थात् (सूर्यस्य) सूर्य की फैली हुई किरणों के समय में घर में सङ्गति की चाह करते हुए (शुक्रम्) शुद्ध वीर्यवाले (त्वा) तुम को (शुक्रे) वीर्य के हेतु (आ) भले प्रकार (धूनोमि) छुड़ाती हूँ ॥४८॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य की किरणों को प्राप्त होकर संसार के पदार्थ शुद्ध होते हैं, वैसे ही दुराचारी पुरुष अच्छी शिक्षा और स्त्रियों के सत्य उपदेश से दण्ड को पाकर पवित्र होते हैं। गृहस्थों को चाहिये कि अत्यन्त दुःख देने और कुल को भ्रष्ट करनेवाले व्यभिचार कर्म्म से सदा दूर रहें, क्योंकि इससे शरीर और आत्मा के बल का नाश होने से धर्म्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि नहीं होती ॥४८॥

 

देवता: विश्वेदेवा प्रजापतयो देवताः ऋषि: देवा ऋषयः छन्द: विराट् प्राजापत्या जगती, निचृद् आर्षी उष्णिक् स्वर: धैवतः


क॒कु॒भꣳ रू॒पं वृ॑ष॒भस्य॑ रोचते बृ॒हच्छु॒क्रः शु॒क्रस्य॑ पुरो॒गाः सोमः॒ सोम॑स्य पुरो॒गाः। यत्ते॑ सो॒मादा॑भ्यं॒ नाम॒ जागृ॑वि॒ तस्मै॑ त्वा गृह्णामि॒ तस्मै ते सोम॒ सोमा॑य॒ स्वाहा॑ ॥४९॥

 

पद पाठ

क॒कु॒भम्। रू॒पम्। वृ॒ष॒भस्य॑। रो॒च॒ते॒। बृ॒हत्। शुक्रः। शु॒क्रस्य॑। पु॒रो॒गा इति॑ पुरः॒ऽगाः। सोमः॑। सोम॑स्य। पु॒रो॒गा इति॑ पुरः॒ऽगाः। यत्। ते॒। सो॒म॒। अदा॑भ्यम्। नाम॑। जागृ॑वि। तस्मै॑। त्वा॒। गृ॒ह्णा॒मि॒। तस्मै॑। ते॒। सोम॑। सोमा॑य। स्वाहा॑ ॥४९॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब फिर गृहस्थों को राजपक्ष में उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (सोम) ऐश्वर्य्य को प्राप्त हुए विद्वन् ! आप (यत्) जिस (वृषभस्य) सब सुखों के वर्षानेवाले आप का (ककुभम्) दिशाओं के समान शुद्ध (बृहत्) बड़ा (रूपम्) सुन्दर स्वरूप (रोचते) प्रकाशमान होता है, सो आप (शुक्रस्य) शुद्ध धर्म्म के (पुरोगाः) अग्रगामी वा (सोमस्य) अत्यन्त ऐश्वर्य्य के (पुरोगाः) अग्रेगन्ता (शुक्रः) शुद्ध (सोमः) सोमगुणसम्पन्न ऐश्वर्य्ययुक्त हूजिये, जिससे आपका (अदाभ्यम्) प्रशंसा करने योग्य (नाम) नाम (जागृवि) जाग रहा है, (तस्मै) उसी के लिये (त्वा) आपको (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ और हे (सोम) उत्तम कामों में प्रेरक ! (तस्मै) उन (सोमाय) श्रेष्ठ कामों में प्रवृत्त हुए (ते) आप के लिये (स्वाहा) सत्य वाणी प्राप्त हो ॥४९॥


भावार्थभाषाः -सभाजन और प्रजाजनों को चाहिये कि जिसकी पुण्य प्रशंसा, सुन्दररूप, विद्या, न्याय, विनय, शूरता, तेज, अपक्षपात, मित्रता, सब कामों में उत्साह, आरोग्य, बल, पराक्रम, धीरज, जितेन्द्रियता, वेदादि शास्त्रों में श्रद्धा और प्रजापालन में प्रीति हो, उसी को सभा का अधिपति राजा मानें ॥४९॥

 

देवता: प्रजापतयो देवताः ऋषि: देवा ऋषयः छन्द: भुरिग् आर्षी जगती स्वर: निषादः


उ॒शिक् त्वं दे॑व सोमा॒ग्नेः प्रि॒यं पाथोऽपी॑हि व॒शी त्वं दे॑व सो॒मेन्द्र॑स्य प्रि॒यं पाथोऽपी॑ह्य॒स्मत्स॑खा॒ त्वं दे॑व सोम॒ विश्वे॑षां दे॒वानां॑ प्रि॒यं पाथोऽपी॑हि ॥५०॥

 

पद पाठ

उ॒शिक्। त्वम्। दे॒व॒। सो॒म॒। अ॒ग्नेः। प्रि॒यम्। पाथः॑। अपि॑। इ॒हि॒। व॒शी। त्वम्। दे॒व। सो॒म॒। इन्द्र॑स्य। प्रि॒यम्। पाथः॑। अपि॑। इ॒हि॒। अ॒स्मत्स॒खेत्य॒स्मत्ऽसखा॑। त्वम्। दे॒व॒। सो॒म॒। विश्वे॑षाम्। दे॒वाना॑म्। प्रि॒यम्। पाथः॑। अपि॑। इ॒हि॒ ॥५०॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर प्रकारान्तर से राजविषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (देव) दिव्यगुणसम्पन्न (सोम) समस्त ऐश्वर्य्ययुक्त राजन् ! आप (उशिक्) अति मनोहर होके (अग्नेः) उत्तम विद्वान् के (प्रियम्) प्रेम उत्पन्न करानेवाले (पाथः) रक्षायोग्य व्यवहार को (अपि) निश्चय से (इहि) प्राप्त करो और जानो। हे (देव) दानशील (सोम) हर एक प्रकार से ऐश्वर्य्य की उन्नति करानेवाले ! आप (वशी) जितेन्द्रिय होकर (इन्द्रस्य) परमैश्वर्य्यवाले धार्म्मिक जन के (प्रियम्) प्रेम उत्पन्न करानेवाले (पाथः) जानने योग्य कर्म को (अपि) निश्चय से (इहि) जानो। हे (देव) समस्त विद्याओं में प्रकाशमान (सोम) ऐश्वर्य्ययुक्त ! आप (अस्मत्सखा) हम लोग जिनके मित्र हैं, ऐसे आप होकर (विश्वेषाम्) समस्त (देवानाम्) विद्वानों के प्रेम उत्पन्न करानेहारे (पाथः) विज्ञान के आचरण को (अपि) निश्चय से (इहि) प्राप्त हो तथा जानो ॥५०॥


भावार्थभाषाः -राजा, राजपुरुष, सभासद् तथा अन्य सब सज्जनों को उचित है कि पुरुषार्थ अच्छे-अच्छे नियम और मित्रभाव से धार्म्मिक वेद के पारगन्ता विद्वानों के मार्ग को चलें, क्योंकि उनके तुल्य आचरण किये विना कोई विद्या, धर्म्म, सब से एक प्रीतिभाव और ऐश्वर्य्य को नहीं पा सकता है ॥५०॥

 

देवता: प्रजापतयो गृहस्था देवताः ऋषि: देवा ऋषयः छन्द: भुरिग् आर्षी जगती स्वर: निषादः


इ॒ह रति॑रि॒ह र॑मध्वमि॒ह धृति॑रि॒ह स्वधृ॑तिः॒ स्वाहा॑। उ॒प॒सृ॒जन् ध॒रुणं॑ मा॒त्रे ध॒रुणो॑ मा॒तरं॒ धय॑न्। रा॒यस्पोष॑म॒स्मासु॑ दीधर॒त् स्वाहा॑ ॥५१॥

 

पद पाठ

इ॒ह। रतिः॑। इ॒ह। र॒म॒ध्व॒म्। इ॒ह। धृतिः॑। इ॒ह। स्वधृ॑ति॒रिति॒ स्वऽधृ॑तिः। स्वाहा॑। उ॒प॒सृ॒जन्नित्यु॑पऽसृ॒जन्। ध॒रुण॑म्। मा॒त्रे। ध॒रुणः॑। मा॒तर॑म्। धय॑न्। रा॒यः। पोष॑म्। अ॒स्मासु॑। दी॒ध॒र॒त्। स्वाहा॑ ॥५१॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब गार्हस्थ्य धर्म्म में विशेष उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे गृहस्थो ! तुम लोगों की (इह) इस गृहाश्रम में (रतिः) प्रीति (इह) इसमें (धृतिः) सब व्यवहारों की धारणा (इह) इसी में (स्वधृतिः) अपने पदार्थों की धारणा (स्वाहा) तथा तुम्हारी सत्य वाणी और सत्य क्रिया हो तुम (इह) इस गृहाश्रम में (रमध्वम्) रमण करो। हे गृहाश्रमस्थ पुरुष ! तू सन्तानों की माता, जो कि तेरी विवाहित स्त्री है, उस (मात्रे) पुत्र का मान करनेवाली के लिये (धरुणम्) सब प्रकार से धारण-पोषण कराने योग्य गर्भ को (उपसृजन्) उत्पन्न कर और वह (धरुणः) उक्त गुणवाला पुत्र (मातरम्) उस अपनी माता का (धयन्) दूध पीवे, वैसे (अस्मासु) हम लोगों के निमित्त (रायः) धन की (पोषम्) समृद्धि को (स्वाहा) सत्यभाव से (दीधरत्) उत्पन्न कीजिये ॥५१॥


भावार्थभाषाः -जब तक राजा आदि सभ्यजन वा प्रजाजन सत्य धैर्य्य वा सत्य से जोड़े हुए पदार्थ वा सत्य व्यवहार में अपना वर्त्ताव न रक्खें, तब तक प्रजा और राज्य के सुख नहीं पा सकते और जब तक राजपुरुष तथा प्रजापुरुष पिता और पुत्र के तुल्य परस्पर प्रीति और उपकार नहीं करते, तब तक निरन्तर सुख भी प्राप्त नहीं हो सकता ॥५१॥

 

देवता: प्रजापतिर्देवता ऋषि: देवा ऋषयः छन्द: निचृद् आर्षी बृहती स्वर: मध्यमः


स॒त्रस्य॒ऽऋद्धि॑र॒स्यग॑न्म॒ ज्योति॑र॒मृता॑ऽअभूम। दिवं॑ पृथि॒व्याऽअध्या॑रुहा॒मावि॑दाम दे॒वान्त्स्व॒र्ज्योतिः॑ ॥५२॥

 

पद पाठ

स॒त्रस्य॑। ऋद्धिः॑। अ॒सि॒। अग॑न्म। ज्योतिः॑। अ॒मृ॑ताः। अ॒भू॒म॒। दिव॑म्। पृ॒थि॒व्याः। अधि। आ। अ॒रु॒हा॒म॒। अवि॑दाम। दे॒वान्। स्वः॑। ज्योतिः॑ ॥५२॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी गृहस्थों के विषय में विशेष उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे विद्वन् ! आप (सत्रस्य) प्राप्त हुए राजप्रजाव्यवहाररूप यज्ञ के (ऋद्धिः) समृद्धिरूप (असि) हैं, आप के सङ्ग से हम लोग (ज्योतिः) विज्ञान के प्रकाश को (अगन्म) प्राप्त होवें और (अमृताः) मोक्ष पाने के योग्य (अभूम) हों, (दिवम्) सूर्यादि (पृथिव्याः) पृथिवी आदि लोकों के (अधि) बीच (अरुहाम) पूर्ण वृद्धि को पहुँचें (देवान्) विद्वानों दिव्य-दिव्य भोगों (ज्योतिः) विज्ञानविषय और (स्वः) अत्यन्त सुख को (अविदाम) प्राप्त होवें ॥५२॥


भावार्थभाषाः -जब तक सब की रक्षा करनेवाला धार्म्मिक राजा वा आप्त विद्वान् न हो, तब तक विद्या और मोक्ष के साधनों को निर्विघ्नता से पाने के योग्य कोई भी मनुष्य नहीं हो सकता और न मोक्षसुख से अधिक कोई सुख है ॥५२॥

 

देवता: गृहपतयो देवताः ऋषि: देवा ऋषयः छन्द: आर्षी अनुष्टुप्, आसुरी उष्णिक्, प्राजापत्या बृहती, विराट् प्राजापत्या पङ्क्तिः स्वर: गान्धारः, ऋषणः, मध्यमः, पञ्चमः


यु॒वं तमि॑न्द्रापर्वता पुरो॒युधा॒ यो नः॑ पृत॒न्यादप॒ तन्त॒मिद्ध॑तं॒ वज्रे॑ण॒ तन्त॒मिद्ध॑तम्। दू॒रे च॒त्ताय॑ छन्त्स॒द् गह॑नं॒ यदि॒न॑क्षत्। अ॒स्माक॒ꣳ शत्रू॒न् परि॑ शूर वि॒श्वतो॑ द॒र्मा द॑र्षीष्ट वि॒श्वतः॑। भूभुर्वः॒ स्वः᳖ सुप्र॒जाः प्र॒जाभिः॑ स्याम सु॒वीरा॑ वी॒रैः सु॒पोषाः॒ पोषैः॑ ॥५३॥

 

पद पाठ

यु॒वम्। तम्। इ॒न्द्रा॒पर्व॒ता॒। पु॒रो॒युधेति॑ पुरः॒युधा॑। यः। नः॒। पृ॒त॒न्यात् अप॑। तन्त॒मिति॒ तम्ऽत॑म्। इत्। ह॒त॒म्। वज्रे॑ण। तन्त॒मिति॒ तम्ऽत॑म्। इत्। ह॒त॒म्। दू॒रे। च॒त्ताय॑। छ॒न्त्स॒त्। गह॑नम्। यत्। इन॑क्षत्। अ॒स्माक॑म्। शत्रू॑न्। परि॒। शू॒र॒। वि॒श्वतः॑। द॒र्म्मा। द॒र्षी॒ष्ट॒। वि॒श्वतः॑। भुरिति॒ भूः। भुव॒रि॒ति॒ भु॑वः। स्व᳖रिति॒ स्वः॑। सु॒प्र॒जा इति॑ सुऽप्र॒जाः। प्र॒जाभिः॑। स्या॒म॒। सु॒वीरा॒ इति॑ सु॒ऽवीराः॑। वी॒रैः। सु॒पोषा॒ इति॑ सु॒ऽपोषाः॑। पोषैः॑ ॥५३॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (पुरोयुधा) युद्धसमय में आगे लड़नेवाले (इन्द्रापर्वता) सूर्य्य और मेघ के समान सेनापति और सेनाजन ! (युवम्) तुम दोनों (यः) जो (नः) हमारी (पृतन्यात्) सेना से लड़ना चाहे (तन्तम्) (इत्) उसी-उसी को (वज्रेण) शस्त्र और अस्त्रविद्या के बल से (हतम्) मारो और (यत्) जो (अस्माकम्) हमारे शत्रुओं की (गहनम्) दुर्ज्जय सेना हमारी सेना को (इनक्षत्) व्याप्त हो और (यत्) जो-जो (छन्त्सत्) बल को बढ़ावे, (तन्तम्) उस-उस को (चत्ताय) आनन्द बढ़ाने के लिये (इद्धतम्) अवश्य मारो और (दूरे) दूर पहुँचा दो। हे (शूर) शत्रुओं को सुख से बचानेवाले सभापते ! आप हमारे (शत्रून्) शत्रुओं को (विश्वतः) सब प्रकार से (परिदर्षीष्ट) विदीर्ण कर दीजिये जिससे हम लोग (भूः) इस भूलोक (भुवः) अन्तरिक्ष और (स्वः) सुखकारक अर्थात् दर्शनीय अत्यन्त सुखरूप लोक में (प्रजाभिः) अपने सन्तानों से (सुप्रजाः) प्रशंसित सन्तानोंवाले (वीरैः) वीरों से (सुवीराः) बहुत अच्छे-अच्छे वीरोंवाले और (पोषैः) पुष्टियों से (सुपोषाः) अच्छी-अच्छी पुष्टिवाले (विश्वतः) सब ओर से (स्याम) होवे ॥५३॥


भावार्थभाषाः -जब तक सभापति और सेनापति प्रगल्भ हुए सब कामों में अग्रगामी न हों, तब तक सेनावीर आनन्द से युद्ध में प्रवृत्त नहीं हो सकते और इस काम के विना कभी विजय नहीं होता तथा जब तक शत्रुओं को निर्म्मूल करनेहारे सभापति आदि नहीं होते, तब तक प्रजा का पालन नहीं कर सकते और न प्रजाजन सुखी हो सकते हैं ॥५३॥

 

देवता: परमेष्ठीप्रजापतिर्देवता ऋषि: वसिष्ठ ऋषिः छन्द: निचृद् ब्राह्मी उष्णिक् स्वर: ऋषभः


प॒र॒मे॒ष्ठ्य᳕यभिधी॑तः प्रजाप॑तिर्वा॒चि व्याहृ॑ताया॒मन्धो॒ऽअच्छे॑तः। सवि॒ता स॒न्यां वि॒श्वक॑र्मा दी॒क्षायां॑ पू॒षा सो॑म॒क्रय॑ण्याम् ॥५४॥

 

पद पाठ

प॒र॒मे॒ष्ठी। प॒र॒मे॒स्थीति॑ परमे॒ऽस्थी। अ॒भिधी॑त॒ इत्य॒भिऽधी॑तः। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। वा॒चि। व्याहृ॑ताया॒मिति॑ विऽआहृ॑तायाम्। अन्धः॑। अच्छे॑त॒ इत्यच्छ॑ऽइतः। स॒वि॒ता। स॒न्याम्। वि॒श्वक॒र्म्मेति॑ वि॒श्वऽक॑र्म्मा। दी॒क्षाया॑म्। पू॒षा। सो॒म॒क्रय॑ण्या॒मिति॑ सोम॒ऽक्रय॑ण्याम् ॥५४॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी गृहस्थ का कर्म्म अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे गृहस्थो ! तुम न यदि (व्याहृतायाम्) उच्चरित उपदिष्ट की हुई (वाचि) वेदवाणी में (परमेष्ठी) परमान्दस्वरूप में स्थित (प्रजापतिः) समस्त प्रजा के स्वामी को (अच्छेतः) अच्छे प्रकार प्राप्त (विश्वकर्मा) सब विद्या और कर्म्मों को जाननेवाले सर्वथा श्रेष्ठ सभापति को (दीक्षायाम्) सभा के नियमों के धारण में (सोमक्रयण्याम्) ऐश्वर्य ग्रहण करने में (पूषा) सब को पुष्ट करनेहारे उत्तम वैद्य को और (सन्याम्) जिससे सनातन सत्य प्राप्त हो, उसमें (सविता) सब जगत् का उत्पादक (अभिधीतः) सुविचार से धारण किया (अन्धः) उत्तम सुसंस्कृत अन्न का सेवन किया तो सदा सुखी हों ॥५४॥



भावार्थभाषाः -जो ईश्वर वेदविद्या से अपने सांसारिक जीवों और जगत् के गुण कर्म्म स्वभावों को प्रकाशित न करता तो किसी मनुष्य को विद्या और इन का ज्ञान न होता और विद्या वा उक्त पदार्थों के ज्ञान के विना निरन्तर सुख क्योंकर हो सकता है ॥५४॥

 

देवता: इन्द्रादयो देवताः ऋषि: वसिष्ठ ऋषिः छन्द: आर्षी पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः


इन्द्र॑श्च म॒रुत॑श्च क्र॒पायो॒पोत्थि॒तोऽसु॑रः प॒ण्यमा॑नो मि॒त्रः क्री॒तो विष्णुः॑ शिपिवि॒ष्टऽऊ॒रावास॑न्नो॒ विष्णु॑र्न॒रन्धि॑षः ॥५५॥

 

पद पाठ

इन्द्रः॑। च॒। म॒रुतः॑। च॒। क्र॒पाय॑। उ॒पोत्थि॑त॒ इत्यु॑प॒ऽउत्थि॑तः। असु॑रः। प॒ण्यमा॑नः। मि॒त्रः। क्री॒तः। विष्णुः॑। शि॒पि॒वि॒ष्ट इति॑ शिपिऽवि॒ष्टः। ऊ॒रौ। आस॑न्न॒ इत्याऽस॑न्नः। विष्णुः॑। न॒रन्धि॑षः ॥५५॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी उक्त विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! तुम लोग जो विद्वानों ने (क्रपाय) व्यवहारसिद्धि के लिये (इन्द्रः) बिजुली (मरुतः) पवन (असुरः) मेघ (पण्यमानः) स्तुति के योग्य (मित्रः) सखा (शिपिविष्टः) समस्त पदार्थों में प्रविष्ट (विष्णुः) सर्वशरीरव्याप्त धनञ्जय वायु और इन में से एक-एक पदार्थ (नरन्धिषः) मनुष्यादि के आत्माओं में साक्षी (विष्णुः) हिरण्यगर्भ ईश्वर (ऊरौ) ढाँपने आदि क्रियाओं में (आसन्नः) सन्निकट वा (उपोत्थितः) समीपस्थ प्रकाश के समान और जो (क्रीतः) व्यवहार में वर्ता हुआ पदार्थ है, इन सब को जानो ॥५५॥


भावार्थभाषाः -मनुष्यों को चाहिये कि ईश्वर से प्रकाशित अग्नि आदि पदार्थों को क्रिया कुशलता से उपयोग लेकर गार्हस्थ्य व्यवहारों को सिद्ध करें ॥५५॥

 

देवता: विश्वेदेवा गृहस्था देवताः ऋषि: वसिष्ठ ऋषिः छन्द: आर्षी बृहती स्वर: मध्यमः


प्रो॒ह्यमा॑णः॒ सोम॒ऽआग॑तो॒ वरु॑णऽआ॒स॒न्द्यामास॑न्नो॒ऽग्निराग्नी॑ध्र॒ऽइन्द्रो॑ हवि॒र्द्धानेऽथ॑र्वोपावह्रि॒यमा॑णः ॥५६॥

 

पद पाठ

प्रो॒ह्यमा॑णः। प्रो॒ह्यमा॑न॒ इति॑ प्रऽउ॒ह्यमा॑नः। सोमः॑। आग॑त॒ इत्याऽग॑तः। वरु॑णः। आ॒स॒न्द्यामित्या॑ऽस॒न्द्याम्। आस॑न्न॒ इत्याऽस॑न्नः। अ॒ग्निः। आग्नी॑ध्रे। इन्द्रः॑। ह॒वि॒र्द्धान॒ इति॑ हविः॒ऽधाने॑। अथ॑र्वा। उ॒पा॒व॒ह्रि॒यमा॑ण॒ इत्युप॑ऽअवह्रि॒यमा॑णः ॥५६॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उक्त विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे गृहस्थो ! तुम को इस ईश्वर की सृष्टि में (आसन्द्याम्) बैठने की एक अच्छी चौकी आदि स्थान पर (आगतः) आया हुआ पुरुष जैसे विराजमान हो, वैसे (प्रोह्यमाणः) तर्क-वितर्क के साथ वादानुवाद से जाना हुआ (सोमः) ऐश्वर्य्य का समूह (वरुणः) सहायकारी पुरुष के समान जल का समूह (आग्नीध्रे) बहुत इन्धनों में (अग्निः) अग्नि (उपावह्रियमाणः) क्रिया की कुशलता से युक्त किये हुए (अथर्वा) प्रशंसा करने योग्य के समान पदार्थ और (हविर्द्धाने) ग्रहण करने योग्य पदार्थों में (इन्द्रः) बिजुली निरन्तर युक्त करनी चाहिये ॥५६॥


भावार्थभाषाः -तर्क के विना कोई भी विद्या किसी मनुष्य को नहीं होती और विद्या के विना पदार्थों से उपयोग भी कोई नहीं ले सकता ॥५६॥

 

देवता: विश्वेदेवा देवताः ऋषि: वसिष्ठ ऋषिः छन्द: निचृद् ब्राह्मी बृहती स्वर: मध्यमः


विश्वे॑ दे॒वाऽअ॒ꣳशुषु॒ न्यु᳖प्तो॒ विष्णु॑राप्रीत॒पाऽआ॑प्या॒य्यमा॑नो य॒मः सू॒यमा॑नो॒ विष्णुः॑ सम्भ्रि॒यमा॑णो वा॒युः पू॒यमा॑नः शु॒क्रः पू॒तः। शु॒क्रः क्षी॑र॒श्रीर्म॒न्थी स॑क्तु॒श्रीः ॥५७॥

 

पद पाठ

विश्वे॑। दे॒वाः। अ॒ꣳशुषु॑। न्यु॑प्त॒ इति॑ निऽउ॑प्तः। विष्णुः॑। आ॒प्री॒त॒पा इत्या॑प्रीत॒ऽपाः। आ॒प्या॒य्यमा॑न॒ इत्या॑ऽप्या॒य्यमा॑नः। य॒मः। सू॒यमा॑नः। विष्णुः॑। स॒म्भ्रि॒यमा॑ण इति॑ सम्ऽभ्रि॒यमा॑णः। वा॒युः। पू॒यमा॑नः। शु॒क्रः। पू॒तः॒। शु॒क्रः। क्षी॒र॒श्रीरिति॑ क्षीर॒ऽश्रीः। म॒न्थी। स॒क्तु॒श्रीरिति॑ सक्तु॒ऽश्रीः ॥५७॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब गृहस्थ कर्म्म में कुछ विद्वानों का पक्ष अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (विश्वेदेवाः) समस्त विद्वानो ! तुम्हारा जो (अंशुषु) अलग-अलग संसार के पदार्थों में (न्युप्तः) नित्य स्थापित किया हुआ व्यवहार (आप्रीतपाः) अच्छी प्रीति के साथ (विष्णुः) व्याप्त होनेवाली बिजुली (आप्याय्यमानः) अति बढ़े हुए के समान (यमः) सूर्य्य (सूयमानः) उत्पन्न होनेहारा (विष्णुः) व्यापक अव्यक्त (सम्भ्रियमाणः) अच्छे प्रकार पुष्टि किया हुआ (वायुः) प्राण (पूयमानः) पवित्र किया हुआ (शुक्रः) पराक्रम का समूह (पूतः) शुद्ध (शुक्रः) शीघ्र चेष्टा करने हारा और (मन्थी) विलोडनेवाला ये सब प्रत्येक सेवन किये हुए (क्षीरश्रीः) दुग्धादि पदार्थों को पकाने और (सक्तुश्रीः) प्राप्त हुए पदार्थों का आश्रय करनेवाले होते हैं ॥५७॥


भावार्थभाषाः -मनुष्यों को युक्ति और विद्या से सेवन किये हुए सब सृष्टिस्थ पदार्थ, शरीर, आत्मा और सामाजिक सुख करानेवाले होते हैं ॥५७॥

 

देवता: विश्वेदेवा देवताः ऋषि: वसिष्ठ ऋषिः छन्द: भुरिग् आर्षी जगती स्वर: निषादः


विश्वे॑ दे॒वाश्च॑म॒सेषून्नी॒तोऽसु॒र्होमा॒योद्य॑तो रु॒द्रो हू॒यमा॑नो॒ वातो॒ऽभ्यावृ॑तो नृ॒चक्षाः॒ प्रति॑ख्यातो भ॒क्षो भक्ष्यमा॑णः पि॒तरो॑ नाराश॒ꣳसाः ॥५८॥

 

मन्त्र उच्चारण

पद पाठ

विश्वे॑। दे॒वाः। च॒म॒सेषु॑ उन्नी॑त॒ इत्युत्ऽनी॑तः। असुः॑। होमा॑य। उद्य॑त॒ इत्युत्ऽय॑तः। रु॒द्रः। हू॒यमा॑नः। वातः॑। अभ्यावृ॑त॒ इत्य॑भि॒ऽआवृ॑तः। नृ॒चक्षा॒ इति॑ नृ॒ऽचक्षाः॑। प्रति॑ख्यात॒ इति॒ प्रति॑ऽख्यातः। भ॒क्षः। भ॒क्ष्यमा॑णः। पि॒तरः॑। ना॒रा॒श॒ꣳसाः ॥५८॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर प्रकारान्तर से विद्वद्विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -जिन विद्वानों ने यज्ञ-विधान से (चमसेषु) मेघों में सुगन्धित आदि वस्तुओं को (उन्नीतः) ऊँचा पहुँचाया (असुः) अपना प्राण (उद्यतः) अच्छे यत्न से लगाया (रुद्रः) जीव को पवित्र कर (हूयमानः) स्वीकार किया, (नृचक्षाः) मनुष्यों को देखनेवाले का (प्रतिख्यातः) जिन्होंने वादानुवाद किया (वातः) बाहर के वायु अर्थात् मैदान के कठिन वायु के सह वायु शुद्ध किये फल (भक्ष्यमाणः) कुछ भोजन करने योग्य पदार्थ (भक्षः) खाइये (नाराशंसाः) प्रशंसाकर मनुष्यों के उपदेशक (विश्वेदेवाः) सब विद्वान् (पितरः) उन सब के उपकारकों को ज्ञानी समझने चाहियें ॥५८॥


भावार्थभाषाः -जो विद्वान् लोग परोपकार बुद्धि से विद्या का विस्तार, करने, सुगन्धि पुष्टि मधुरता और रोगनाशक गुणयुक्त पदार्थों का यथायोग्य मेल अग्नि के बीच में उन का होम कर शुद्ध वायु वर्षा का जल वा ओषधियों का सेवन कर के शरीर को आरोग्य करते हैं, वे इस संसार में अत्यन्त प्रशंसा के योग्य होते हैं ॥५८॥

 

देवता: विश्वेदेवा देवताः ऋषि: वसिष्ठ ऋषिः छन्द: निचृद् जगती, विराड् आर्षी गायत्री स्वर: निषादः


स॒न्नः सिन्धु॑रवभृ॒थायोद्य॑तः समु॒द्रो᳖ऽभ्यवह्रि॒यमा॑णः सलि॒लः प्रप्लु॑तो॒ ययो॒रोज॑सा स्कभि॒ता रजा॑ᳬसि वी॒र्ये᳖भिर्वी॒रत॑मा॒ शवि॑ष्ठा। या पत्ये॑ते॒ऽअप्र॑तीता॒ सहो॑भि॒र्विष्णू॑ऽअग॒न् व॑रुणा पू॒र्वहू॑तौ ॥५९॥

 

पद पाठ

स॒न्नः। सिन्धुः॑। अ॒व॒भृ॒थायेत्य॑वऽभृ॒थाय॑। उद्य॑त॒ इत्युत्ऽय॑तः। स॒मु॒द्रः। अ॒भ्य॒व॒ह्रि॒यमाण॒ इत्य॑भिऽअवह्रि॒यमा॑णः। स॒लि॒लः। प्रप्लु॑त॒ इति॒ प्रऽप्लु॑तः। ययोः॑। ओज॑सा। स्क॒भि॒ता। रजा॑ᳬसि। वी॒र्येभिः॑। वी॒रत॒मेति॑ वी॒रऽत॑मा। शवि॑ष्ठा। या। पत्ये॑ते॒ऽइति॒ पत्ये॑ते। अप्र॑ती॒तेत्यप्र॑तिऽइता। सहो॑भि॒रिति॒ सह॑ऽभिः। विष्णूऽइति॒ विष्णू॑। अ॒ग॒न्। वरु॑णा। पू॒र्वहू॑ता॒विति॑ पू॒र्वऽहू॑तौ ॥५९॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब गृहस्थ के कर्म्म में यज्ञादि व्यवहार का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -जिन्होंने (अवभृथाय) यज्ञान्त स्नान और अपने आत्मा के पवित्र करने के लिये (अभ्यवह्रियमाणः) भोगने योग्य (सलिलः) जिसमें उत्तम जल है, वह व्यवहार (उद्यतः) नियम से सम्पादन किया (सिन्धुः) नदियाँ (सन्नः) निर्माण कीं (समुद्रः) समुद्र (प्रप्लुतः) अपने उत्तमों गुणों से पाया है, वे विद्वान् लोग (ययोः) जिन के (ओजसा) बल से (रजांसि) लोक-लोकान्तर (स्कभिता) स्थित हैं, (या) जो (वीर्येभिः) और पराक्रमों से (वीरतमा) अत्यन्त वीर (शविष्ठा) नित्य बल सम्पादन करनेवाले (सहोभिः) बलों से (अप्रतीता) मूर्खों को जानने अयोग्य (विष्णू) व्याप्त होनेहारे (वरुणा) अतिश्रेष्ठ स्वीकार करने योग्य (पूर्वहूतौ) जिस का सत्कार पूर्व उत्तम विद्वानों ने किया हो, जो (पत्येते) श्रेष्ठ सज्जनों को प्राप्त होते हैं, उन यज्ञकर्म्म, भक्ष्य पदार्थ और विद्वानों को (अगन्) प्राप्त होते हैं, वे सदा सुखी रहते हैं ॥५९॥


भावार्थभाषाः -यज्ञ आदि व्यवहारों के विना गृहाश्रम में सुख नहीं होता ॥५९॥

 

देवता: विश्वेदेवा देवताः ऋषि: वसिष्ठ ऋषिः छन्द: स्वराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः


दे॒वान् दिव॑मगन् य॒ज्ञस्ततो॑ मा॒ द्रवि॑णमष्टु मनु॒ष्या᳖न॒न्तरि॑क्षमगन् य॒ज्ञस्ततो॑ मा॒ द्रवि॑णमष्टु पि॒तॄन् पृ॑थि॒वीम॑गन् य॒ज्ञस्ततो॑ मा॒ द्रवि॑णमष्टु॒ यं कं च॑ लो॒कमग॑न् य॒ज्ञस्ततो॑ मे भ॒द्रम॑भूत् ॥६०॥

 

पद पाठ

दे॒वान्। दिव॑म्। अ॒ग॒न्। य॒ज्ञः। ततः॑। मा॒। द्रवि॑णम्। अ॒ष्टु॒। म॒नु॒ष्या᳖न्। अ॒न्तरि॑क्षम्। अ॒ग॒न्। य॒ज्ञः। ततः॑। मा॒। द्रवि॑णम्। अ॒ष्टु॒। पि॒तॄन्। पृ॒थि॒वीम्। अ॒ग॒न्। य॒ज्ञः। ततः॑। मा॒। द्रवि॑णम्। अ॒ष्टु॒। यम्। कम्। च॒। लो॒कम्। अ॒ग॒न्। य॒ज्ञः। ततः॑। मे॒। भ॒द्रम्। अ॒भू॒त् ॥६०॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी यज्ञ विषय का उपदेश अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -जो (यज्ञः) पूर्वोक्त सब के करने योग्य यज्ञ (दिवम्) विद्या के प्रकाश और (देवान्) दिव्य भोगों को प्राप्त करता है, जिसको विद्वान् लोग (अगन्) प्राप्त हों, (ततः) उससे (मा) मुझ को (द्रविणम्) विद्यादि गुण (अष्टु) प्राप्त हों, जो (यज्ञः) यज्ञ (अन्तरिक्षम्) मेघमण्डल और (मनुष्यान्) मनुष्यों को प्राप्त होता है, जिसको भद्र मनुष्य (अगन्) प्राप्त होते हैं, (ततः) उस से (मा) मुझ को (द्रविणम्) धनादि पदार्थ (अष्टु) प्राप्त हों, जो (यज्ञः) यज्ञ (पृथिवीम्) पृथिवी और (पितॄन्) वसन्त आदि ऋतुओं को प्राप्त होता है, जिस को आप्त लोग (अगन्) प्राप्त होते हैं, (ततः) उससे (मा) मुझ को (द्रविणम्) प्रत्येक ऋतु का सुख (अष्टु) प्राप्त हो, जो (यज्ञः) (कम्) किसी (च) (लोकम्) लोक को प्राप्त होता है, (यम्) जिस को धर्मात्मा लोग (अगन्) प्राप्त होते हैं, (ततः) उससे (मे) मेरा (भद्रम्) कल्याण (अभूत्) हो ॥६०॥


भावार्थभाषाः -जिस यज्ञ से सब सुख होते हैं, उसका अनुष्ठान सब मनुष्यों को क्यों न करना चाहिये ॥६०॥

 

देवता: विश्वेदेवा देवताः ऋषि: वसिष्ठ ऋषिः छन्द: ब्राह्मी उष्णिक् स्वर: ऋषभः


चतु॑स्त्रिꣳश॒त् तन्त॑वो॒ ये वि॑तत्नि॒रे य इ॒मं य॒ज्ञᳬ स्व॒धया॒ दद॑न्ते। तेषां॑ छि॒न्नꣳ सम्वे॒तद्द॑धामि॒ स्वाहा॑ घ॒र्मोऽअप्ये॑तु दे॒वान् ॥६१॥

 

पद पाठ

चतु॑स्त्रिꣳश॒दिति॒ चतुः॑ऽत्रिꣳशत्। तन्त॑वः। ये। वि॒त॒त्नि॒र इति॑ विऽतत्नि॒रे। ये। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। स्व॒धया॑। दद॑न्ते। तेषा॑म्। छि॒न्नम्। सम्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। ए॒तत्। द॒धा॒मि॒। स्वाहा॑। घ॒र्मः। अपि॑। ए॒तु॒। दे॒वान् ॥६१॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

इस जगत् की उत्पत्ति में कितने कारण हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -(ये) जो (चतुस्त्रिंशत्) आठों वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, इन्द्र, प्रजापति और प्रकृति (तन्तवः) सूत के समान (यज्ञम्) सुख उत्पन्न करनेहारे यज्ञ को (वितत्निरे) विस्तार करते हैं, अथवा (ये) जो (स्वधया) अन्न आदि उत्तम पदार्थों से (इमम्) इस यज्ञ को (ददन्ते) देते हैं (तेषाम्) उनका जो (छिन्नम्) अलग किया हुआ यज्ञ (एतत्) उस को (स्वाहा) सत्य क्रिया वा सत्य वाणी से (सम्) (दधामि) इकट्ठा करता हूँ (उ) और वही (घर्म्मः) यज्ञ (देवान्) विद्वानों को (अपि) निश्चय से (एतु) प्राप्त हो ॥६१॥


भावार्थभाषाः -इस प्रत्यक्ष चराचर जगत् के चौंतीस तत्त्व कारण हैं, उनके गुण और दोषों को जो जानते हैं, उन्हीं को सुख मिलता है ॥६१॥

 

देवता: यज्ञो देवता ऋषि: वसिष्ठ ऋषिः छन्द: स्वराड् आर्षी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः


य॒ज्ञस्य॒ दोहो॒ वित॑तः पुरु॒त्रा सोऽअ॑ष्ट॒धा दिव॑म॒न्वात॑तान। स य॑ज्ञ धुक्ष्व॒ महि॑ मे प्र॒जाया॑ꣳ रा॒यस्पोषं॒ विश्व॒मायु॑रशीय॒ स्वाहा॑ ॥६२॥

 

पद पाठ

य॒ज्ञस्य॑। दोहः॑। वित॑त॒ इति॒ विऽत॑तः। पु॒रु॒त्रेति॑ पुरु॒ऽत्रा। सः। अ॒ष्ट॒धा। दिव॑म्। अ॒न्वात॑ता॒नेत्य॑नु॒ऽआत॑तान। सः। य॒ज्ञ। धु॒क्ष्व॒। महि॑। मे॒। प्र॒जाया॒मिति॑ प्र॒ऽजाया॑म्। रा॒यः। पोष॑म्। विश्व॑म्। आयुः॑। अ॒शी॒य॒। स्वाहा॑ ॥६२॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर यज्ञ का विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (यज्ञ) सङ्गति करने योग्य विद्वन् ! आप जो (यज्ञस्य) यज्ञ का (पुरुत्रा) बहुत पदार्थों में (विततः) विस्तृत (अष्टधा) आठों दिशाओं से आठ प्रकार का (दोहः) परिपूर्ण सामग्रीसमूह है (सः) वह (दिवम्) सूर्य्य के प्रकाश को (अन्वाततान) ढाँपकर फिर फैलने देता है, (सः) वह आप सूर्य्य के प्रकाश में यज्ञ करनेवाले गृहस्थ तू उस यज्ञ को (धुक्ष्व) परिपूर्ण कर, जो (मे) मेरी (प्रजायाम्) प्रजा में (विश्वम्) सब (महि) महान् (रायः) धनादि पदार्थों की (पोषम्) समृद्धि को वा (आयुः) जीवन को वार-वार विस्तारता है, उस को मैं (स्वाहा) सत्ययुक्त क्रिया से (अशीय) प्राप्त होऊँ ॥६२॥


भावार्थभाषाः -मनुष्यों को चाहिये कि सदा यज्ञ का आरम्भ और समाप्ति करें और संसार के जीवों को अत्यन्त सुख पहुँचावें ॥६२॥

 

देवता: यज्ञो देवता ऋषि: कश्यप ऋषिः छन्द: स्वराड् आर्षी गायत्री स्वर: षड्जः


आ प॑वस्व॒ हिर॑ण्यव॒दश्वव॑वत् सोम वी॒रव॑त्। वाजं॒ गोम॑न्त॒माभ॑र॒ स्वाहा॑ ॥६३॥

 

पद पाठ

आ। प॒व॒स्व॒। हिर॑ण्यव॒दिति॒ हिर॑ण्यऽवत्। अश्व॑व॒दित्यश्व॑ऽवत्। सो॒म॒। वी॒रव॒दिति॑ वी॒रऽव॑त्। वाज॑म्। गोम॑न्त॒मिति॒ गोऽम॑न्तम्। आ। भ॒र॒। स्वाहा॑ ॥६३॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्य किस के तुल्य यज्ञ का सेवन करें, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे सोम ऐश्वर्य्य चाहनेवाले गृहस्थ ! तू (स्वाहा) सत्य वाणी वा सत्य क्रिया से (हिरण्यवत्) सुवर्ण आदि पदार्थों के तुल्य (अश्ववत्) अश्व आदि उत्तम पशुओं के समान (वीरवत्) प्रशंसित वीरों के तुल्य (गोमन्तम्) उत्तम इन्द्रियों से सम्बन्ध रखनेवाले (वाजम्) अन्नादिमय यज्ञ का (आभर) आश्रय रख और उससे संसार को (आ) अच्छे प्रकार (पवस्व) पवित्र कर ॥६३॥


भावार्थभाषाः -मनुष्यों को चाहिये कि अपने पुरुषार्थ से सुवर्ण आदि धन को इकट्ठा कर, घोड़े आदि उत्तम पशुओं को रक्खें, तदनन्तर वीरों को रक्खें, क्योंकि जब तक इस सामग्री को नहीं रखते, तब तक गृहाश्रमरूपी यज्ञ परिपूर्ण नहीं कर सकते, इसलिये सदा पुरुषार्थ से गृहाश्रम की उन्नति करते रहें ॥६३॥ इस अध्याय में गृहस्थधर्म सेवन के लिये ब्रह्मचारिणी कन्या को कुमार ब्रह्मचारी का स्वीकार, गृहस्थ धर्म का वर्णन, राजा प्रजा और सभापति आदि का कर्तव्य कहा है, इसलिये इस अध्यायोक्त अर्थ के साथ पूर्व अध्याय में कहे अर्थ की सङ्गति जाननी चाहिये ॥ इति श्रीमत्परिव्राजकाचार्य्येण श्रीयुतमहाविदुषां विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण दयानदसरस्वतीस्वामिना विरचिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां विभूषिते सुप्रमाणयुक्ते यजुर्वेदभाष्येऽष्टमोऽध्यायः पूर्तिमगात् ॥८॥


यजुर्वेद अध्याय 07              यजुर्वेद अध्याय 09

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