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ज्ञानवर्धक कथाएं -भाग -10

 

ज्ञानवर्धक कथाएं -भाग -10

 

👉 अच्छा काम हमेशा कर देना चाहिए!!

 

एक आदमी ने एक पेंटर को बुलाया अपने घर, और अपनी नाव दिखाकर कहा कि इसको पेंट कर दो। वो पेंटर पेंट ले कर उस नाव को पेंट कर दिया, लाल रंग से जैसा कि, नाव का मालिक चाहता था। फिर पेंटर ने अपने पैसे लिए, और चला गया।

 

अगले दिन, पेंटर के घर पर वो नाव का मालिक पहुँच गया, और उसने एक बहुत बड़ी धनराशी का चेक दिया उस पेंटर को। पेंटर भौंचक्का हो गया, और पूछा कि ये किस बात के इतने पैसे हैं? मेरे पैसे तो आपने कल ही दे दिया था।

 

मालिक ने कहा कि "ये पेंट का पैसा नहीं है, बल्कि ये उस नाव में जो "छेद" था, उसको रिपेयर करने का पैसा है।"

 

पेंटर ने कहा, "अरे साहब, वो तो एक छोटा सा छेद था, सो मैंने बंद कर दिया था। उस छोटे से छेद के लिए इतना पैसा मुझे, ठीक नहीं लग रहा है।"

 

मालिक ने कहा,।। "दोस्त, तुम समझे नहीं मेरी बात, अच्छा विस्तार से समझाता हूँ। जब मैंने तुम्हें पेंट के लिए कहा, तो जल्दबाजी में तुम्हें ये बताना भूल गया कि नाव में एक छेद है, उसको रिपेयर कर देना। और जब पेंट सूख गया, तो मेरे दोनों बच्चे,।। उस नाव को समुद्र में लेकर मछली मारने की ट्रिप पर निकल गए।

 

मैं उस वक़्त घर पर नहीं था, लेकिन जब लौट कर आया और अपनी पत्नी से ये सुना कि बच्चे नाव को लेकर, नौकायन पर निकल गए हैं,।। तो मैं बदहवास हो गया। क्योंकि मुझे याद आया कि नाव में तो छेद है। मैं गिरता पड़ता भागा उस तरफ, जिधर मेरे प्यारे बच्चे गए थे। लेकिन थोड़ी दूर पर मुझे मेरे बच्चे दिख गए, जो सकुशल वापस आ रहे थे। अब मेरी ख़ुशी और प्रसन्नता का आलम तुम समझ सकते हो। फिर मैंने छेद चेक किया, तो पता चला कि,। मुझे बिना बताये,।। तुम उसको रिपेयर कर चुके हो।

 

तो,।। मेरे दोस्त,।। उस महान कार्य के लिए, तो ये पैसे भी बहुत थोड़े हैं। मेरी औकात नहीं कि उस कार्य के बदले तुम्हे ठीक ठाक पैसे दे पाऊं।"

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इस कहानी से हमें यही समझना चाहिए कि भलाई का कार्य हमेशा "कर देना" चाहिए, भले ही वो बहुत छोटा सा कार्य हो। क्योंकि वो छोटा सा कार्य किसी के लिए "अमूल्य" हो सकता है।

 

सहज़ साधना

 

एक स्त्री ने दो चाकू ख़रीदे, एक को उसने सुरक्षित अलमारी में रख दिया और दूसरे को प्रयोग में हमेशा लिया सब्जी और फ़ल काटने में। दूसरा हमेशा पहले से जलता देख़ो कितना प्यार करती उसे सम्हाल के रखा मुझे रोज़ प्रयोग करती हैं।

 

वर्ष भर बाद एक दिन त्यौहार में दूसरे चाकू की आवश्यकता पड़ी, लेकिन कभी उपयोग न होने के कारण रखे - रखे उसमें जंग लग गया आवश्यकता पड़ने पर काम न आ सका।

 

मित्रों इसी तरह यदि हमने दीक्षा ली और नियमित उपासना, साधना, आराधना के साथ सत साहित्य का नियमित अध्ययन नहीं किया तो हमको अपेक्षित सफलता नहीं मिलेगी। हमारी साधना में प्राण नहीं आयेगा। हमारी गुरु दीक्षा को जंग लग जायेगा और हमारा उद्धार नहीं हो पायेगा।

 

साधना में प्राण आएगा ईश्वर के प्रति सच्चे प्रेम, नियमितता (जप,ध्यान और स्वाध्याय), सच्चे भाव, श्रद्धा और पूर्ण विश्वास से।

 

👉 एक प्यार ऐसा भी।।।।

 

नींद की गोलियों की आदी हो चुकी बूढ़ी माँ नींद की गोली के लिए ज़िद कर रही थी।

 

बेटे की कुछ समय पहले शादी हुई थी।

 

बहु डॉक्टर थी। बहु सास को नींद की दवा की लत के नुकसान के बारे में बताते हुए उन्हें गोली नहीं देने पर अड़ी थी। जब बात नहीं बनी तो सास ने गुस्सा दिखाकर नींद की गोली पाने का प्रयास किया।

 

अंत में अपने बेटे को आवाज़ दी।

 

बेटे ने आते ही कहा, 'माँ मुंह खोलो। पत्नी ने मना करने पर भी बेटे ने जेब से एक दवा का पत्ता निकाल कर एक छोटी पीली गोली माँ के मुंह में डाल दी।

पानी भी पिला दिया। गोली लेते ही आशीर्वाद देती हुई माँ सो गयी।

 

पत्नी ने कहा,

 

ऐसा नहीं करना चाहिए। पति ने दवा का पत्ता अपनी पत्नी को दे दिया। विटामिन की गोली का पत्ता देखकर पत्नी के चेहरे पर मुस्कराहट आ गयी।

 

धीरे से बोली

 

आप माँ के साथ चीटिंग करते हो।

 

''बचपन में माँ ने भी चीटिंग करके कई चीजें खिलाई है। पहले वो करती थीं, अब मैं बदला ले रहा हूँ।

 

यह कहते हुए बेटा मुसकुराने लगा।"

 

👉 क्या बनना चाहेंगे आप:-

 

कुछ दिनों से उदास रह रही अपनी बेटी को देखकर माँ ने पूछा, ” क्या हुआ बेटा, मैं देख रही हूँ तुम बहुत उदास रहने लगी हो…सब ठीक तो है न ?”

 

”कुछ भी ठीक नहीं है माँ … ऑफिस में बॉस की फटकार, दोस्तों की बेमतलब की नाराजगी …।पैसो की दिक्कत …मेरा मन बिल्कुल अशांत रहेने लगा है माँ, जी में तो आता है कि ये सब छोड़ कर कहीं चली जाऊं …।”, बेटी ने रुआंसे होते हुए कहा।

 

माँ ये सब सुनकर गंभीर हो गयीं और बेटी का सिर सहलाते हुए किचन में ले गयीं।

 

वहां उन्होंने तीन पैन उठाये और उनमे पानी भर दिया उसके बाद उन्होंने पहले पैन में कैरट, दूसरे में एग्स और तीसरे में कुछ कॉफ़ी बीन्स डाल दी।

फिर उन्होंने तीनो पैन्स को चूल्हे पे चढ़ा दिया और बिना कुछ बोले उनके खौलने का इंतज़ार करने लगीं।

लगभग बीस मिनट बाद उन्होंने गैस बंद कर दी, और फिर एक – एक कर के कैरट्स और एग्स अलग-अलग प्लेट्स में निकाल दिए और अंत में एक मग में कॉफ़ी उड़ेल दी।

 

“बताओ तुमने क्या देखा “, माँ ने बेटी से पूछा ।

“कैरट्स, एग्स , कॉफ़ी … और क्या ??…लेकिन ये सब करने का क्या मतलब है ।”, जवाब आया।

 

माँ बोलीं,” मेरे करीब आओ …और इन कैरट्स को छू कर देखो !”

बेटी ने छू कर देखा, कैरट नर्म हो चुके थे ।

“अब एग्स को देखो ।।”

बेटी ने एक एग हाथ में लिया और देखने लगी …एग बाहर से तो पहले जैसा ही था पर अन्दर से सख्त हो चुका-था।

और अंत में माँ ने कॉफ़ी वाला मग उठा कर देखने को कहा …।

 

” …इसमे क्या देखना है…ये तो कॉफ़ी बन चुका है …लेकिन ये सब करने का मतलब क्या है …।???’, बेटी ने कुछ झुंझलाते हुए पूछा।

 

माँ बोलीं , ” इन तीनों चीजों को एक ही तकलीफ से होकर गुजरना पड़ा — खौलता पानी। लेकिन हर एक ने अलग- अलग तरीके से रियेक्ट किया ।

कैरट पहले तो ठोस था पर खौलते पानी रूपी मुसीबत आने पर कमजोर और नरम पड़ गया, वही एग पहले ऊपर से सख्त और अन्दर से सॉफ्ट था पर मुसीबत आने के बाद उसे झेल तो गया पर वह अन्दर से बदल गया, कठोर हो गया, सख्त दिल बन गया …।लेकिन कॉफ़ी बीन्स तो बिल्कुल अलग थीं …उनके सामने जो दिक्कत आयी उसका सामना किया और मूल रूप खोये बिना खौलते पानी रुपी मुसीबत को कॉफ़ी की सुगंध में बदल दिया…

 

” तुम इनमे से कौन हो?” माँ ने बेटी से पूछा ।

 

” जब तुम्हारी ज़िन्दगी में कोई दिक्कत आती है तो तुम किस तरह रियेक्ट करती हो? तुम क्या हो …कैरट, एग या कॉफ़ी बीन्स ?”

 

बेटी माँ की बात समझ चुकी थी, और उसने माँ से वादा किया कि वो अब उदास नहीं होगी और विपरीत परिस्थितियों का सामना अच्छे से करेगी।

 

हमारे साहित्य को घर घर पहुँचाये

पं श्रीराम शर्मा आचार्य

 

👉 जरा सोचिये !!!

 

एक बार किसी रेलवे प्लैटफॉर्म पर जब गाड़ी रुकी तो एक लड़का पानी बेचता हुआ निकला। ट्रेन में बैठे एक सेठ ने उसे आवाज दी,ऐ लड़के इधर आ!!लड़का दौड़कर आया। उसने पानी का गिलास भरकर सेठ की ओर बढ़ाया तो सेठ ने पूछा, कितने पैसे में? लड़के ने कहा - पच्चीस पैसे। सेठ ने उससे कहा कि पंद्रह पैसे में देगा क्या?

 

यह सुनकर लड़का हल्की मुस्कान दबाए पानी वापस घड़े में उड़ेलता हुआ आगे बढ़ गया।

उसी डिब्बे में एक महात्मा बैठे थे, जिन्होंने यह नजारा देखा था कि लड़का मुस्कराया मौन रहा। जरूर कोई रहस्य उसके मन में होगा। महात्मा नीचे उतरकर उस लड़के के पीछे- पीछे गए। बोले : ऐ लड़के ठहर जरा, यह तो बता तू हंसा क्यों?

 

वह लड़का बोला, महाराज, मुझे हंसी इसलिए आई कि सेठजी को प्यास तो लगी ही नहीं थी। वे तो केवल पानी के गिलास का रेट पूछ रहे थे।

 

महात्मा ने पूछा - लड़के, तुझे ऐसा क्यों लगा कि सेठजी को प्यास लगी ही नहीं थी।

 

लड़के ने जवाब दिया - महाराज, जिसे वाकई प्यास लगी हो वह कभी रेट नहीं पूछता। वह तो गिलास लेकर पहले पानी पीता है। फिर बाद में पूछेगा कि कितने पैसे देने हैं?

पहले कीमत पूछने का अर्थ हुआ कि प्यास लगी ही नहीं है।

 

वास्तव में जिन्हें ईश्वर और जीवन में कुछ पाने की तमन्ना होती है, वे वाद-विवाद में नहीं पड़ते। पर जिनकी प्यास सच्ची नहीं होती, वे ही वाद-विवाद में पड़े रहते हैं।

वे साधना के पथ पर आगे नहीं बढ़ते।

 

अगर भगवान नहीं हे तो उसका ज़िक्र क्यो??

और अगर भगवान हे तो फिर फिक्र क्यों ???

 

समय दान ही युगधर्म

पं श्रीराम शर्मा आचार्य

 

👉 सोच

 

एक गांव में दो बुजुर्ग बातें कर रहे थे।।।।

 

पहला :- मेरी एक पोती है, शादी के लायक है।।। BA  किया है, नौकरी करती है, कद - 5"2 इंच है।। सुंदर है

कोई लड़का नजर में हो तो बताइएगा।।

 

दूसरा :- आपकी पोती को किस तरह का परिवार चाहिए।।।??

 

पहला :- कुछ खास नहीं।। बस लड़का MA/MTECH किया हो, अपना घर हो, कार हो, घर में एसी हो, अपने बाग बगीचा हो, अच्छा job, अच्छी सैलरी, कोई लाख रू। तक हो।।।

 

दूसरा :- और कुछ।।।

 

पहला :- हाँ सबसे जरूरी बात।। अकेला होना चाहिए।।

मां-बाप,भाई-बहन नहीं होने चाहिए।।

वो क्या है लड़ाई झगड़े होते है।।।

 

दूसरे बुजुर्ग की आँखें भर आई फिर आँसू पोंछते हुए बोला - मेरे एक दोस्त का पोता है उसके भाई-बहन नही है, मां बाप एक दुर्घटना मे चल बसे, अच्छी नौकरी है, डेढ़ लाख सैलरी है, गाड़ी है बंगला है, नौकर-चाकर है।।

 

पहला :- तो करवाओ ना रिश्ता पक्का।।

 

दूसरा :- मगर उस लड़के की भी यही शर्त है की लड़की के भी मां-बाप,भाई-बहन या कोई रिश्तेदार ना हो।।।

कहते - कहते उनका गला भर आया।।

फिर बोले :- अगर आपका परिवार आत्महत्या कर ले तो बात बन सकती है।। आपकी पोती की शादी उससे हो जाएगी और वो बहुत सुखी रहेगी।।।।

 

पहला :- ये क्या बकवास है, हमारा परिवार क्यों करे आत्महत्या।। कल को उसकी खुशियों मे, दुःख मे कौन उसके साथ व उसके पास होगा।।।

 

दूसरा :- वाह मेरे दोस्त, खुद का परिवार, परिवार है और दूसरे का कुछ नहीं।।। मेरे दोस्त अपने बच्चों को परिवार का महत्व समझाओ, घर के बडे ,घर के छोटे सभी अपनों के लिए जरूरी होते है।।। वरना इंसान खुशियों का और गम का महत्व ही भूल जाएगा, जिंदगी नीरस बन जाएगी।।।

 

पहले वाले बुजुर्ग बेहद शर्मिंदगी के कारण कुछ नहीं बोल पाए।।।

 

दोस्तों परिवार है तो जीवन में हर खुशी, खुशी लगती है अगर परिवार नहीं तो किससे अपनी खुशियाँ और गम बांटोगे।।।।

 

।।।।।अच्छी सोच रक्खे ।।।अच्छी  सीख  दे ।।।।।।

 

 

Humari Hriday Ki Awaaz Anurodh,Prarthna Suniye

Pt Shriram Sharma Acharya

 

👉 दिल करीब होते हैं

 

एक हिन्दू सन्यासी अपने शिष्यों के साथ गंगा नदी के तट पर नहाने पहुंचा। वहां एक ही परिवार के कुछ लोग अचानक आपस में बात करते-करते एक दूसरे पर क्रोधित हो उठे और जोर-जोर से चिल्लाने लगे। संयासी यह देख तुरंत पलटा और अपने शिष्यों से पूछा; “क्रोध में लोग एक दूसरे पर चिल्लाते क्यों हैं ?”

 

शिष्य कुछ देर सोचते रहे, एक ने उत्तर दिया, “क्योंकि हम क्रोध में शांति खो देते हैं इसलिए !” “पर जब दूसरा व्यक्ति हमारे सामने ही खड़ा है तो भला उस पर चिल्लाने की क्या जरूरत है, जो कहना है वो आप धीमी आवाज़ में भी तो कह सकते हैं”, सन्यासी ने पुनः प्रश्न किया।

कुछ और शिष्यों ने भी उत्तर देने का प्रयास किया पर बाकी लोग संतुष्ट नहीं हुए।

 

अंततः सन्यासी ने समझाया…

“जब दो लोग आपस में नाराज होते हैं तो उनके दिल एक दूसरे से बहुत दूर हो जाते हैं। और इस अवस्था में वे एक दूसरे को बिना चिल्लाये नहीं सुन सकते… वे जितना अधिक क्रोधित होंगे उनके बीच की दूरी उतनी ही अधिक हो जाएगी और उन्हें उतनी ही तेजी से चिल्लाना पड़ेगा।

क्या होता है जब दो लोग प्रेम में होते हैं ? तब वे चिल्लाते नहीं बल्कि धीरे-धीरे बात करते हैं, क्योंकि उनके दिल करीब होते हैं, उनके बीच की दूरी नाम मात्र की रह जाती है।”

 

सन्यासी ने बोलना जारी रखा,” और जब वे एक दूसरे को हद से भी अधिक चाहने लगते हैं तो क्या होता है ? तब वे बोलते भी नहीं, वे सिर्फ एक दूसरे की तरफ देखते हैं और सामने वाले की बात समझ जाते हैं।”

 

 

गुरुदेव का आशीर्वाद जिस - जिस को मिला वो निहाल हो गया।

डॉ चिन्मय पंड्या

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👉 इनकार,,

 

एक नदी के किनारे दो पेड़ थे,, उस रास्ते एक छोटी सी चिड़िया गुजरी और,, पहले पेड़ से पूछा,,

 

बारिश होने वाला है,, क्या मैं, और मेरे बच्चे तुम्हारे टहनी में घोसला बनाकर रह सकते हैं,, लेकिन उस पेड़ ने मना कर दिया,, चिड़िया फिर दूसरे पेड़ के पास गई और वही सवाल पूछा,,

 

दूसरा पेड़ मान गया,,

चिड़िया अपने बच्चों के साथ खुशी-खुशी दूसरे पेड़ में घोसला बना कर रहने लगी,,

 

एक दिन इतनी अधिक बारिश हुई कि बारिश की वजह से पहला पेड़ जड़ से उखड़ कर पानी मे बह गया,, जब चिड़िया ने उस पेड़ को बहते हुए देखा तो कहा,,

 

जब तुमसे मैं और मेरे बच्चे, शरण के लिये आये तब तुमने मना कर दिया था,, अब देखो तुम्हारे उसी रूखे बर्ताव की सजा तुम्हें मिल रही है,,

 

जिसका उत्तर पेड़ ने मुसकुराते हुए दिया,, मैं जानता था मेरी जड़ें कमजोर है,, और इस बारिश में मैं टिक नहीं पाऊंगा,, मैं तुम्हारी और बच्चे की  जान खतरे में नहीं डालना चाहता था,, मना करने के लिए मुझे क्षमा कर दो,, और ये कहते-कहते पेड़ बह गया,,

 

किसी के इनकार को, हमेशा उनकी कठोरता न समझे,,

क्या पता उसके उसी इनकार से आप का भला हो,,

कौन किस परिस्थिति में है शायद हम नहीं समझ पाए,,

 

Adhyatam Ke Sutra

Dr Chinmay Pandya

 

👉 अनमोल रिश्तें

 

"अच्छे - अच्छे महलों में भी एक दिन कबूतर अपना घोंसला बना लेते है।।।

 

सेठ घनश्याम के दो पुत्रों में जायदाद और ज़मीन का बँटवारा चल रहा था और एक चार पट्टी के कमरे को लेकर विवाद गहराता जा रहा था, एक दिन दोनों भाई मरने मारने पर उतारू हो चले, तो पिता जी बहुत जोर से हँसे। पिताजी को हँसता देखकर दोनों भाई  लड़ाई को भूल गये, और पिताजी से हँसी का कारण पुछा। तो पिताजी ने कहा-- इस छोटे से ज़मीन के टुकड़े के लिये इतना लड़ रहे हो छोड़ो इसे आओ मेरे साथ एक अनमोल खजाना बताता हूँ मैं तुम्हें !

 

पिता घनश्याम जी और दोनों पुत्र पवन और मदन उनके साथ रवाना हुये पिताजी ने कहा देखो यदि तुम आपस में लड़े तो फिर मैं तुम्हें उस खजाने तक नहीं लेकर जाऊँगा और बीच रास्ते से ही लौटकर आ जाऊँगा! अब दोनो पुत्रों ने खजाने के चक्कर में एक समझौता किया की चाहे कुछ भी हो जाये पर हम लड़ेंगे नहीं प्रेम से यात्रा पे चलेंगे!

 

गाँव जाने के लिये एक बस मिली पर सीट दो की मिली, और वो तीन थे, अब पिताजी के साथ थोड़ी देर पवन बैठे तो थोड़ी देर मदन ऐसे चलते-चलते लगभग दस घण्टे का सफर तय किया फिर गाँव आया।

 

घनश्याम दोनों पुत्रों को लेकर एक बहुत बड़ी हवेली पर गये हवेली चारों तरफ से सुनसान थी। घनश्याम ने जब देखा की हवेली में जगह- जगह कबूतरों ने अपना घोसला बना रखा है, तो घनश्याम वहीं पर बैठकर रोने लगे। दोनों पुत्रों ने पुछा क्या हुआ पिताजी आप रो क्यों रहे है?

 

तो रोते हुये उस वृद्ध पिता ने कहा जरा ध्यान से देखो इस घर को, जरा याद करो वो बचपन जो तुमने यहाँ बिताया था, तुम्हें याद है पुत्र इस हवेली के लिये मैं ने अपने भाई से बहुत लड़ाई की थी, सो ये हवेली तो मुझे मिल गई पर मैंने उस भाई को हमेशा के लिये खो दिया, क्योंकि वो दूर देश में जाकर बस गया और फिर वक्त बदला और एक दिन हमें भी ये हवेली छोड़कर जाना पड़ा!

 

अच्छा तुम ये बताओ बेटा की जिस सीट पर हम बैठकर आये थे, क्या वो बस की सीट हमें मिल जायेगी? और यदि मिल भी जाये तो क्या वो सीट हमेशा-हमेशा के लिये हमारी हो सकती है? मतलब की उस सीट पर हमारे सिवा कोई न बैठे। तो दोनों पुत्रों ने एक साथ कहा की ऐसे कैसे हो सकता है, बस की यात्रा तो चलती रहती है और उस सीट पर सवारियाँ बदलती रहती है। पहले कोई और बैठा था, आज कोई और बैठा होगा और पता नहीं कल कोई और बैठेगा। और वैसे भी उस सीट में क्या धरा है जो थोड़ी सी देर के लिये हमारी है!

              

पिताजी फिर हँसे फिर रोये और फिर वो बोले देखो यही तो मैं तुम्हें समझा रहा हूँ, कि जो थोड़ी देर के लिये तुम्हारा है, तुमसे पहले उसका मालिक कोई और था बस थोड़ी सी देर के लिये तुम हो और थोड़ी देर बाद कोई और हो जायेगा।

             

बस बेटा एक बात ध्यान रखना की इस थोड़ी सी देर के लिये कही अनमोल रिश्तों की आहुति न दे देना, यदि कोई प्रलोभन आये तो इस घर की इस स्थिति को देख लेना की अच्छे - अच्छे महलों में भी एक दिन कबूतर अपना घोसला बना लेते है। बस बेटा मुझे यही कहना था-- कि  बस की उस सीट को याद कर लेना जिसकी रोज उसकी सवारियां बदलती रहती है उस सीट के खातिर अनमोल रिश्तों की आहुति न दे देना जिस तरह से बस की यात्रा में तालमेल बिठाया था बस वैसे ही जीवन की यात्रा में भी तालमेल बिठा लेना !

 

दोनों पुत्र पिताजी का अभिप्राय समझ गये, और पिता के चरणों में गिरकर रोने लगे !

 

शिक्षा :-

 

मित्रों, जो कुछ भी ऐश्वर्य - सम्पदा हमारे पास है वो सब कुछ बस थोड़ी देर के लिये ही है, थोड़ी-थोड़ी देर मे यात्री भी बदल जाते है और मालिक भी। रिश्ते बड़े अनमोल होते है छोटे से ऐश्वर्य या सम्पदा के चक्कर में कहीं किसी अनमोल रिश्ते को न खो देना।।।

 

 

Yug Parivartan Ka Samay

Dr Chinmay Pandya

 

👉 हृदय−परिवर्तन

 

शालिवाहन मृगया के लिये निकलते तो वनचरों में प्रलय मच जाती। लाशों के ढेर बिछ जाते उस दिन। शेर चीते जैसे हिंसक जंतु ही नहीं, हिरन, साँभर, नीलगाय जैसे कोमल प्रकृति के जीव−जंतु भी शालिवाहन की दृष्टि से न बचते। शालिवाहन की पशु निर्दयता दूर−दूर तक विख्यात हो गई।

 

महारानी वसुप्रिया मृगया से क्लान्त महाराज शालिवाहन की सेवा तो करतीं पर उस दिन वह जीव दया पर उपदेश देना भी न भूलतीं। वे कहतीं।।।।

“जीव−जंतु विराट्−विश्वात्मा के ही परिजन हैं। किसी को मारने, जीवन देने का अधिकार परमात्मा को है। हम मनुष्यों पर उनके उपकार पहले ही कम नहीं है, अपनी क्षणिक तृष्णा और दम्भ के लिये उन बेचारों का वध क्यों करें? महाराज जिस तरह हम मनुष्य दूसरों के द्वारा सताया जाना बुरा मानते हैं, उसी तरह जीवों का जी दुःखाना भी पाप है। आप आत्मा के कोप भोजन न बनें। जीवों को न सताया करें, उससे दुर्गति होती है।"

 

शालिवाहन हँसते क्या—विद्रूप अट्टहास करते और कहते।।।।।

“बावरी! हर शक्तिशाली अशक्त को मारकर खा जाता है, यह तो प्रकृति का नियम है, इसमें पाप क्या हो गया?”

 

महारानी उत्तर देतीं।।।।।

“नहीं महाराज! हर महान् व्यक्ति, महान् आत्मा छोटों को प्रश्रय देती, सहयोग और सहानुभूति देती है। जब समुद्र, वारिद बनकर बरसता है, तब तो नदी−नद भरे रहते हैं, सूर्य तपता है, तभी तो सृष्टि चक्र चलता है। संसार दया और दान पर टिका है। हम यदि वह न कर सकें तो कम से कम अपने से गये−गुजरों को सतायें भी नहीं।”

 

शालिवाहन उपदेश सुनने के आदी नहीं थे। वह उन अहंकारी व्यक्तियों में से थे, जो स्वयं को भगवान् मानने जैसा दम्भ दिखाते रहते हैं पर इस संसार में अहंकार टिका किसका? कौन व्यक्ति क्रूरता करके महान् बन सका?

 

शालिवाहन दूसरे दिन ही मृगया के लिये निकल पड़े। असंख्य पशु−पक्षियों का वध किया उनने। जीवों के विलाप के कारण वन−शोकसागर में बदल गया। किसी पशु का वंशनाश ही हो गया तो किसी मृगी के छौने मारे गये। प्रलयकाल जैसा जीव संहार कर रहे शालिवाहन ने एक हिरणी के देखते−देखते उसके दो सुकुमार बच्चों का वध कर दिया। हिरणी भी वहाँ से हटी नहीं, उसकी आँखें कह रही थीं—निर्दयी और एक तीर निकाल और बेध मेरा वक्षस्थल तुझे यह तो पता चले कि जीवों के भी ममता होती है, उन्हें भी अपने बच्चे तुम मनुष्यों के समान ही प्यारे लगते हैं।

 

हाथ तूणीर पर गया तो वह बिलकुल रिक्त हो चुका था। एक भी तीर न बचा था तरकस में। शंख ध्वनि की गई और महाराज शालिवाहन विजयी की भाँति दल−बल के साथ राजवानी की ओर लौट पड़े।

 

उस दिन से नवरात्र प्रारम्भ होते थे। महारानी वसुप्रिया! भगवती दुर्गा के अभिषेक के लिये, राजमहल से निकलकर पर्वतीय उपत्यिका पर बने मन्दिर में जाया करती थीं। उस दिन उनके साथ राजकुमारी उत्पल भी थी। उत्पल की आयु तब कुल पाँच वर्ष की ही थी।

 

अभी वे पर्वत के समीप पहुँच ही पाई थीं कि झाड़ियों के एक ओर से नर−भक्षी बाघ झपटा और राजकुमारी को झपटकर उठा ले गया। अंगरक्षक सैनिक देखते ही रहे, बाघ क्षण भर में ही घने जंगल में धँस गया। शालिवाहन के भय से भयभीत सैनिक बाघ का पीछा करते ही गये। बाघ सैनिकों की आँख बचाकर एक झाड़ी में छुपना चाहता था पर उसका वहाँ रुकना भारी पड़ गया। शाम हो चली थी।

 

हिरणी जिसके दो बच्चे आज ही महाराज शालिवाहन द्वारा मृत्यु के घाट उतार दिये गये थे, ने राजकुमारी उत्पल की ओर कातर दृष्टि से देखा। एक बार अपने बच्चों की ममता फिर उमड़ पड़ी हिरणी के हृदय में। वह बाघ पर टूट पड़ी। थका हुआ बाघ उसका सामना न कर सका। सैनिकों का भय भी था उसे। उत्पल को वहीं छोड़कर वह भाग निकला। हिरणी ने उत्पल को झाड़ी के अन्दर सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया। रात हो गई, सैनिक भी निराश होकर घर लौट गये।

 

बाघ के पंजों के घाव जहाँ−जहाँ लगे थे, हिरणी उन−उन स्थानों को रात भर चाटती रही। बार−बार उसके हृदय में अपने बच्चों की ममता और करुणा उमड़ती, वह उतनी ही ममता से उत्पल को चाटती रही मानो उसे अब उत्पल में ही अपने बच्चों की आत्मा झाँकती दिखाई दे रही थी।

 

रात भर की सुश्रूषा से उत्पल चंगी हो गई। प्रहर रात रह गई थी, तब उत्पल की अचेतावस्था वापिस लौटी। हिरणी के ममत्व में वह राज−परिवार का स्नेह और ममत्व भूल गई। सूर्योदय तक वह हिरणों से ऐसी हिल−मिल गई जैसे वह उसके ही परिवार की एक सदस्या हो।

 

प्रातःकाल शालिवाहन स्वयं राजकुमारी की खोज में निकल पड़े। खोजते−खोजते वह उसी स्थान पर पहुँचे जहाँ उत्पल हिरणी से खेल रही थी। चुपचाप बैठी हिरणी को कुछ ध्यान ही नहीं था, कौन आया, कौन गया। क्रोधावेश में आकर शालिवाहन ने तीर निकालकर प्रत्यंचा चढ़ाई। उसे कान तक खींचकर बाण को छोड़ना ही चाहते थे कि उत्पल ने देख लिया। वह हिरणी की ओट करके दोनों हाथ फैलाकर तीर अपनी छाती में चुभा लेने के लिये खड़ी हो गई। महाराज ने डाँटा—हट जा उत्पल एक ही तीर में दुष्ट हिरणी का वध कर देता हूँ।

 

उत्पल तब मूर्तिवत् खड़ी थी। बोली तो नहीं पर उसकी आंखें कह रही थीं— 'निर्दयी ! चला तीर। तुझे पता तो चले, किसी जीव के प्राण लेने का फल क्या होता है। तू ही पिता नहीं, इन जीवों के भी माता पिता हैं। इन्हें भी मालूम होने दे कि जो मनुष्य आज निर्दयतापूर्वक पशुओं को मार सकता है, वह कल मनुष्य को भी मार सकता है।'

 

चढ़ी हुई प्रत्यंचा ढीली पड़ गई। धनुष हाथ से छुट गया। शालिवाहन की आँखों से आँसू झरने लगे। वह खाली हाथ हिरणी के पास तक चले गये। हिरणी की आंखें झर-झर झर रही थीं। शालिवाहन ने निर्झर से जल लिया और प्रतिज्ञा की अब वे कभी किसी पशु-पक्षी का वध नहीं करेंगे।

 

उसी दिन से सारे राज्य में घोषणा कर दी गई, कोई भी किसी जीव को कष्ट नहीं देगा। यह विजय महारानी वसुप्रिया की विजय थी। उस दिन उन्होंने सारे नगर की गायों को भोजन भी कराया।

 

अखण्ड ज्योति, जनवरी-1970 से साभार

 

यज्ञ का ज्ञान विज्ञान भाग 1

 

👉 श्रेष्ठता की परीक्षा:-

 

“नहीं, नहीं, विरोचन। श्रेष्ठता का आधार वह तप नहीं जो व्यक्ति को मात्र सिद्धियाँ  और सामर्थ्य प्रदान करे। ऐसा तप तो शक्ति-संचय का साधन मात्र है। श्रेष्ठ तपस्वी तो वह है जो अपने लिये कुछ चाहे बिना समाज के शोषित, उत्पीड़ित, दलित और असहाय जनों को निरन्तर ऊपर उठाने के लिये परिश्रम किया करता है। इस दृष्टि से महर्षि कण्व की तुलना राजर्षि विश्वामित्र नहीं कर सकते। कण्व की सर्वोच्च प्रतिष्ठा इसलिये है कि वह समाज और संस्कृति, व्यष्टि और समष्टि के उत्थान के लिये निरंतर घुलते रहते हैं।” भगवान इन्द्र ने विनोद भाव से विरोचन की बात का प्रतिवाद किया।

 

पर विरोचन अपनी बात पर दृढ़ थे। उनका कहना था- तपस्वियों में तो श्रेष्ठ विश्वामित्र ही हैं। उन दिनों विश्वामित्र शिवालिक-शिखर पर सविकल्प समाधि अवस्था में थे और कण्व वहाँ से कुछ दूर आश्रम-जीवन ज्ञापन कर रहे थे। कण्व के आश्रम में बालकों का ही शिक्षण नहीं बालिकाओं को भी समानान्तर आध्यात्मिक, धार्मिक एवं साधनात्मक प्रशिक्षण प्रदान किया जाता था।

 

विरोचन ने फिर वही व्यंग्य करते हुए कहा- “भगवान् आपको तो स्पर्धा का भय है किन्तु आप विश्वास रखिये विश्वामित्र त्यागी सर्व प्रथम है तपस्वी बाद में। उन्हें इन्द्रासन का कोई लोभ नहीं, तप तो वह आत्म-कल्याण के लिये कर रहे हैं। उन्होंने न झुकने वाली सिद्धियाँ अर्जित की हैं। उन सिद्धियों का लाभ तो समाज को भी दिया जा सकता है।“

 

भगवान् इन्द्र ने पुनः अपने तर्क के प्रमाणित किया- “विश्वामित्र की सिद्धियों को मैं जानता हूँ विरोचन! किन्तु सिद्धियाँ प्राप्त कर लेने के बाद यह आवश्यक नहीं कि वह व्यक्ति उनका उपयोग लोक-कल्याण में करे। शक्ति में अहंभाव का जो दोष है वह सेवा में नहीं इसलिये सेवा को मैं शक्ति से श्रेष्ठ मानता हूँ इसीलिये कण्व की विश्वामित्र से बड़ा मानता हूँ।“

 

बात आगे बढ़ती किन्तु महारानी शची के आ जाने से विवाद रुक गया। रुका नहीं बल्कि एक मोड़ ले लिया। शची ने हँसते हुए कहा- “अनुचित क्या है? क्यों न इस बात की हाथों-हाथ परीक्षा कर ली जाये।“

 

बात निश्चित हो गई। कण्व और विश्वामित्र की परीक्षा होगी, यह बात कानों-कान सारी इन्द्रपुरी में पहुँच गई। लोग उत्सुकता पूर्वक प्रतीक्षा करने लगे देखें सिद्धि की विजय होती है या सेवा की।

 

निशादेवी ने पहला पाँव रखा। दीप जले, देव-आरती से उनका स्वागत किया गया। दिव्य-ज्योतियों से सारा इन्द्रपुर जगमग-जगमग करने लगा। ऐसे समय भगवान् इन्द्र ने अनुचर को बुलाकर रुपसी अप्सरा मेनका को उपस्थित करने की आज्ञा दी। अविलम्ब आज्ञा का पालन किया गया। थोड़ी ही देर में मेनका वहाँ आ गई। इन्द्र ने उसे सारी बातें समझा दीं। वह रात इस तरह इन्द्रपुर में अनेक प्रकार की मनोभावों में ही बीती।

 

सबेरा हुआ। भगवती उषा का साम्राज्य ढलने लगा। भुवन भास्कर देव प्राची में अपनी दिव्य सभा के साथ उगने लगे। भगवती गायत्री के आराधना का यह सर्वोत्कृष्ट समय होता है। तपस्वी विश्वामित्र आसन, बंध और प्राणायाम समाप्त कर जप के लिये बैठे थे। उनके हृदय में वैराग्य की धारा अहर्निश बहा करती थी। जप और ध्यान में कोई कष्ट नहीं होता था। बैठते-बैठते चित्त भगवान् सविता के भर्ग से आच्छादित हो गया। एक प्राण भगवती गायत्री और राजर्षि विश्वामित्र। दिव्य तेज फूट रहा था उनकी मुखाकृति से। पक्षी और वन्य जन्तु भी उनकी साधना देख मुग्ध हो जाते थे।

 

उनकी यह गहन शान्ति और स्थिरता देखकर पक्षियों को कलरव करने का साहस न होता। जन्तु चराचर नहीं करते थे, उन्हें भय था कहीं ध्यान न टूट जाये और तपस्वी के कोप का भाजन बनना पड़े। सिंह तब दहाड़ना भूल जाते वे दिन के तृतीय प्रहर में ही दहाड़ते और वह भी विश्वामित्र की प्रसन्नता बढ़ाने के लिये क्योंकि वह उस समय वन-विहार के लिये आश्रम छोड़ चुके होते थे।

 

किन्तु आज उस स्तब्धता को तोड़ने को साहस किया किसी अबला ने। अबला नहीं अप्सरा। मेनका। इन्द्रपुर जिसकी छवि पर दीपक की लौ पर शलभ की भाँति जल जाने के लिये तैयार रहता था। आज उसने अप्रतिम शृंगार कर विश्वामित्र के आश्रम में प्रवेश किया था। पायल की मधुर झंकार से वहाँ का प्राण-पूत वातावरण भी सिहर उठा। लौध्र पुष्प की सुगन्ध सारे आश्रम में छा गई। जहाँ अब तक शान्ति थी, साधना थी वहाँ देखते-देखते मादकता, वैभव और विलास खेलने लगा।

 

दण्ड और कमण्डलु ऋषि ने एक ओर रख दिये। कस्तूरी मृग जिस तरह बहेलिये की संगीत-ध्वनि से मोहित होकर कालातीत होने के लिये चल पड़ता है। सर्प जिस तरह वेणु का नाद सुनकर लहराने लगता है। उसी प्रकार महर्षि विश्वामित्र ने अपना सर्वस्व उस रुपसी अप्सरा के अञ्चल में न्यौछावर कर दिया। सारे भारतवर्ष में कोलाहल मच गया कि विश्वामित्र का तप भंग हो गया।

 

एक दिन, दो दिन, सप्ताह, पक्ष और मास बीतते गये और उनके साथ ही विश्वामित्र का तप और तेज भी स्खलित होता गया। विश्वामित्र का अर्जित तप काम के दो कौड़ी दाम बिक गया। और जब तप के साथ उनकी शांति उनका यश और वैभव भी नष्ट हो गया तब उन्हें पता चला कि भूल नहीं अपराध हो गया। विश्वामित्र प्रायश्चित की अग्नि में जलने लगे।

 

क्रोधोच्छ्दासित विश्वामित्र ने मेनका को दंड देने का निश्चय किया पर प्रातःकाल होने तक मेनका आश्रम से जा चुकी थी, इतने दिन की योग-साधना का परिणाम एक कन्या के रूप में छोड़ कर। विश्वामित्र ने बिलखती आत्मजा के पास भी मेनका को नहीं देखा तो उनकी देह क्रोध से जलने लगी पर अब हो ही क्या सकता? मेनका इन्द्रपुर जा चुकी थी।

 

रोती-बिलखती कन्या को देखकर भी विश्वामित्र को दया नहीं आई। पाप उन्होंने किया था पश्चाताप भी उन्हें ही करना चाहिये था पर उनकी आँखों में तो प्रतिशोध छाया हुआ था। ऐसे समय मनुष्य को इतना विवेक कहाँ रहता है कि वह यह सोचे कि मनुष्य अपनी भूलें सुधार भी सकता है। और नहीं तो अपनी सन्तान, अपने आगे आने वाली पीढ़ी के मार्गदर्शन के लिये तथ्य और सत्य को उजागर ही रख सकता है। विश्वामित्र को आत्म-कल्याण की चिन्ता थी इसलिये उन्हें इतनी भी दया नहीं आई कि वह बालिका को उठाकर उसके लिये दूध और जल की व्यवस्था करते। बालिका को वही बिलखता छोड़कर वे वहाँ से चले गये।

 

मध्याह्न वेला। ऋषि कण्व लकड़ियाँ काटकर लौट रहे थे। मार्ग में विश्वामित्र का आश्रम पड़ता था। बालिका के रोने का स्वर सुनकर कण्व ने निर्जन आश्रम में प्रवेश किया। आश्रम सूना पड़ा था। अकेली बालिका दोनों हाथों के अंगूठे मुँह में चूसती हुई भूख को धोखा देने का असफल प्रयत्न कर रही थी।

 

कण्व ने भोली बालिका को देखा, स्थिति का अनुमान करते ही उनकी आंखें छलक उठीं। उन्होंने बालिका को उठाया, चूमा और प्यार किया और गले लगाकर अपने आश्रम की ओर चल पड़े। पीछे-पीछे उनके सब शिष्य चल रहे थे।

 

इन्द्र ने विरोचन से पूछा- “तात बोलो न। जिस व्यक्ति के हृदय में पाप करने वाले के प्रति कोई दुर्भाव नहीं, पाप से उत्पीड़ित के लिये इतना गहन प्यार की उसकी सेवा माता की तरह करने को तैयार वह कण्व श्रेष्ठ हैं या विश्वामित्र?”

 

विरोचन आगे कुछ न बोल सके। उन्होंने लज्जावश अपना सिर नीचे झुका लिया।

 

अखण्ड ज्योति,सितम्बर-1969 से साभार

 

👉 गेंहू के दाने: -

 

एक समय की बात है जब श्रावस्ती नगर के एक छोटे से गाँव में अमरसेन नामक व्यक्ति रहता था। अमरसेन बड़ा होशियार था, उसके चार पुत्र थे जिनके विवाह हो चुके थे और सब अपना जीवन जैसे-तैसे निर्वाह कर रहे थे परन्तु समय के साथ-साथ अब अमरसेन वृद्ध हो चला था! पत्नी के स्वर्गवास के बाद उसने सोचा कि अब तक के संग्रहित धन और बची हुई संपत्ती का उत्तराधिकारी किसे बनाया जाये?

 

ये निर्णय लेने के लिए उसने चारो बेटों को उनकी पत्नियों के साथ बुलाया और एक-एक करके गेहूं के पाँच दानें दिए और कहा कि मै तीरथ पर जा रहा हूँ और चार साल बाद लौटूंगा और जो भी इन दानों की सही हिफाजत करके मुझे लौटाएगा तिजोरी की चाबियाँ और मेरी सारी संपत्ती उसे ही मिलेगी, इतना कहकर अमरसेन वहां से चला गया।

 

पहले बहु- बेटे ने सोचा बुड्ढा सठिया गया है चार साल तक कौन याद रखता है हम तो बड़े हैं तो धन पर पहला हक़ हमारा ही है। ऐसा सोचकर उन्होंने गेहूं के दानें फेक दिये।

 

दूसरे ने सोचा की संभालना तो मुश्किल है यदि हम इन्हे खा लें तो शायद उनको अच्छा लगे और लौटने के बाद हमें आशीर्वाद देदे और कहे की तुम्हारा मंगल इसी में छुपा था और सारी संपत्ती हमारी हो जाएगी यह सोचकर उन्होंने वो पाँच दानें खा लिये।

 

तीसरे ने सोचा हम रोज पूजा पाठ तो करते ही हैं और अपने मंदिर में जैसे ठाकुरजी को सँभालते हैं, वैसे ही ये गेहूं भी संभाल लेंगे और उनके आने के बाद लौटा देंगे।

 

चौथे बहु- बेटे ने समझदारी से सोचा और पाचों दानो को एक एक कर जमीन में बो दिया और देखते-देखते वे पौधे बड़े हो गये और कुछ गेहूं ऊग आये फिर उन्होंने उन्हें भी बो दिया इस तरह हर वर्ष गेहूं की बढ़ोतरी होती गई पाँच दानें पाँच बोरी, पच्चीस बोरी,और पचासों बोरियों में बदल गए।

 

चार साल बाद जब अमरसेन वापस आया तो सबकी कहानी सुनी और जब वो चौथे बहु-बेटों के पास गया तो बेटा बोला , ” पिताजी , आपने जो पांच दाने दिए थे अब वे गेंहूँ की पचास बोरियों में बदल चुके हैं, हमने उन्हें संभल कर गोदाम में रख दिया है, उनपर आप ही का हक़ है। ” यह देख अमरसेन ने फ़ौरन तिजोरी की चाबियाँ सबसे छोटे बहु-बेटे को सौंप दी और कहा, तुम ही लोग मेरी संपत्ति के असल हक़दार हो।

 

इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि मिली हुई जिम्मेदारी को अच्छी तरह से निभाना चाहिए और मौजूद संसाधनो, चाहे वो कितने कम ही क्यों न हों, का सही उपयोग करना चाहिए। गेंहूँ के पांच दाने एक प्रतीक हैं, जो समझाते हैं कि कैसे छोटी से छोटी शुरआत करके उसे एक बड़ा रूप दिया जा सकता है।

 

 

आपको अपने परिवार में देखकर हमको बहुत प्रसन्नता होती है

पं श्रीराम शर्मा आचार्य

 

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